स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी का मोह पर निबंध | Essay on Independent India ‘s Fascination in English in Hindi!
भारत एक महान देश है । यहाँ अनेक भाषा, जाति व संप्रदाय के लोग निवास करते हैं । भारतीय संस्कृति अत्यंत विशाल है । इसने अनेक विभिन्नताओं को सहर्ष अपनाया है । प्राचीन काल से वर्तमान समय तक देश ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं ।
सैकड़ों वर्षों तक हमारा देश विदेशी आधिपत्य के अधीन रहा है जिससे समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों एवं संप्रदाय के लोग इसके संसर्ग में आते रहे हैं । इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोग भी यहाँ आकर बसे और अपना प्रभाव छोड़ते चले गए ।
इनमें से उर्दू और अंग्रेजी भाषा का प्रभाव अधिक स्थायी रहा । आजादी के पाँच दशकों बाद अंग्रेजी का प्रभुत्व भारत में इतनी तीव्रता से बढ़ रहा है कि आगामी कुछ वर्षों में अंग्रेजी का प्रयोग राष्ट्रभाषा हिंदी से भी अधिक होने की आशंका है ।
स्वतंत्रता से पूर्व लगभग 200 से भी अधिक वर्षों तक भारत में अंग्रेजों का शासन रहा । अंग्रेज भारत में पूर्णतया व्यापार के उद्देश्य से आए थे । अंत तक उन्होंने कभी भी भारत को आत्मसात् करने का प्रयास नहीं किया । उन्होंने भारत को सदैव से ही व्यापारिक महत्व की दृष्टि से देखा । कभी भी भारत के स्थायी विकास की बात नहीं की । इसलिए इन 200 से भी अधिक वर्षों में उन्होंने जो कुछ किया वह सदैव से ही अपने व्यापारिक हित के लिए ही किया ।
उनके समय में उनकी मातृभाषा अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार भी उन्होंने अपनी संस्था में ‘क्लर्क’ अथवा ‘बाबू’ की भरती तथा अन्य सुविधाओं के लिए किया । इस प्रकार अंग्रेजी शासनकाल से ही अंग्रेजी भाषा का विस्तार शुरू हुआ । इसके अतिरिक्त हिंदुस्तान के लोगों में उनके संपर्क में आने पर भी अंग्रेजी विकसित हुई । कुछ देशभक्तों व साहित्यकारों ने विदेशी संस्कृति को जानने व समझने के लिए भी अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया ।
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हमारे संविधान में राष्ट्रभाषा का सम्मान हिंदी को प्राप्त है जो प्रमुखत: उत्तरी भारत में अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती है । परंतु यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि राष्ट्रभाषा होते हुए भी दक्षिणी भारत के अनेक क्षेत्रों में आज भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो हिंदी भाषा को बोल-समझ नहीं पाते हैं । उनके लिए उनकी क्षेत्रीय भाषा ही प्रधान है ।
आज भी उन क्षेत्रों में हिंदी भाषा को अनिवार्य भाषा का रूप नहीं दिया गया है। इसके अतिरिक्त कार्यालयों आदि में हिंदी भाषा के प्रयोग की अनिर्वार्यता की बात तो अवश्य काही जाती है परंतु अधिकांश कार्यों के लिए इनमें अंग्रेजी भाषा ही प्रयुक्त होती है । हिंदी भाषा का सीमित उपयोग अंग्रेजी की बहुलता के लिए उसके कार्य को और आसान बना देता है ।
लोगों को अंग्रेजी में कार्य करना अधिक आसान व सम्मानजनक प्रतीत होता है । भारत जैसे राष्ट्र में जहाँ का प्रथम नागरिक हमारे माननीय राष्ट्रपति जी भी अपना भाषण अंग्रेजी में दें तो इन परिस्थितियों में युवा पीढ़ी का अंग्रेजी के प्रति मोह स्वाभाविक है ।
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इसके अतिरिक्त स्कूलों, कॉलेजों व अन्य सरकारी एवं निजी शिक्षण संस्थानों में धीरे- धीरे अंग्रेजी भाषा अनिवार्य होती जा रही है । उच्च शिक्षा हेतु उत्तम एवं प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकें भी अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं । इन परिस्थितियों में बिना अंग्रेजी ज्ञान के विषय का संपूर्ण ज्ञान दुष्कर हो जाता है ।
देश-विदेश की विभिन्न नौकरियों में अंग्रेजी को ही बहुलता दी जाती है । ऐसे लोग जो अंग्रेजी से अनभिज्ञ हैं उन्हें अनेक स्थानों पर हेय दृष्टि से देखा जाता है । समाज में विशेषत: युवा वर्ग में अंग्रेजी ‘स्टेटस सिंबल’ अर्थात् प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है । युवा वर्ग में पाश्चात्य संस्कृति का मोह उन्हें अंग्रेजी को आत्मसात् करने हेतु सदैव प्रेरित करता रहता है ।
अत: अंग्रेजी भारतीय जनमानस विशेषकर युवावर्ग में धीरे-धीरे घर करती जा रही है । वर्तमान में यह इस प्रकार घुल-मिल गई है कि इसे उखाड़ फेंकना यदि असंभव नहीं तो एक दुष्कर कार्य अवश्य है । हमारी भारतीय संस्कृति का स्वरूप अत्यंत प्राचीन एवं विशाल है । हजारों वर्षों से यह अविचल व अडिग है । समय के अनुसार समय-समय पर इसमें अनेक नई विचारधाराएँ समाहित हुई हैं ।
प्रत्येक सभ्यता व संस्कृति की अपनी अच्छाइयाँ होती हैं । यदि हम अंग्रेजी भाषा व अंग्रेजी संस्कृति की अच्छाइयों को आत्मसात् करते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है परंतु अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी अति आवश्यक है ।
इसके उलट आज हो यह रहा है कि जो लगे हिंदी की खुलेआम वकालत करते हैं वे भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में नामांकित कर स्वयं को गौरवान्वित समझते हैं । इस तरह के दोहरे आचरण के कारण ही भारत की राष्ट्रभाषा अपने घर में ही पराई हो गई है ।
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भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है इसलिए समस्त भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि वे अंग्रेजी भाषा के समक्ष हिंदी को हीन न समझें तथा हिंदी के प्रति उनकी भावना इस प्रकार हो:
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”मानस–भवन में आर्य जन जिसकी उतारें आरती भगवान गूँजे विश्व में प्यारी हमारी भारती हो भद्रभावोद्-भाविनी वह भारती हे भगवते ! सीतापते ! सीतापते ! गीतापते ! गीतापते !”
(मैथिलीशरण गुप्त)