हिंदी साहित्य में हालावाद की प्राश्रंगिकता पर निबन्ध!
हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की शुरुआत ‘छायावाद’ के बाद हुई । हालावाद की कविताओं में वैयक्तिकता की प्रधानता रही । इसके कवि दुनिया को भूलकर स्वयं अपने प्रेम-संसार की प्रेमपूर्ण मस्ती में डूब गए ।
संसार के सारे दुःख, सारी निराशा और सारी कठिनाइयाँ इसी ‘हालावाद’ की मस्ती में डूब गईं । उभरा तो सिर्फ प्रेम और सभी प्रेम की दुनिया में तिरोहित हो गए । कवि और श्रोता दोनों ही मस्ती के रंग में रँग गए । ‘प्रेम’ को सर्वस्व मानना सभी हालावादी कवियों का मूल सिद्धांत बनकर उभरा ।
ये कविताएँ अपने समय में अतीव लोकप्रिय हुईं तथा इनका व्यापक प्रचार हुआ । इस धारा के अग्रणी हैं- हरिवंश राय बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, पं. नरेंद्र शर्मा आदि । मस्ती और अल्हडुपन से भरे मधु के गीत गानेवाले कवि बच्चन का हिंदी साहित्य से सर्वप्रथम परिचय ‘उमर खययाम’ की रूबाइयों के अनुवाद से हुआ था । यह अनुवाद मात्र शब्दजाल न होकर बच्चन के हृदय-रस से परिपूर्ण है ।
बच्चन की ‘मधुशाला’ हालावाद की उत्कृष्ट कृति मानी जा सकती है क्योंकि यह जितनी लोकप्रिय हुई उतनी किसी भी अन्य कवि की काव्य कृतियाँ प्रसिद्ध नहीं हुईं । रूढ़िवादियों ने ‘मधुशाला’ का विरोध तो किया, पर उन लोगों ने उस कृति को अमरता प्रदान कर दी, जो मस्ती के दीवाने थे ।
जब पहली बार दिसंबर १९३३ ये रूबाइयाँ बच्चन द्वारा झूम-झूमकर शिवाजी हल, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक कवि सम्मेलन में सुनाई गईं, तब सभी श्रोता मदमस्त होकर झूम उठे । नवयुवक विद्यार्थी ही नहीं, बड़े-बूढ़े भी आह्वादित हो उठे ।
बच्चन ने ‘मधुशाला’ के संबोधन ! में ‘मादक’ को संबोधित किया है और लिखा है:
”आज मदिरा लाया हूँ- मदिरा जिसे पीकर भविष्य के भय भाग जाते हैं भूतकाल के दारुण दुःख दूर हो जाते हैं, जिसे पाकर मान-अपमान का ध्यान नहीं रह जाता और गर्व लुप्त हो जाता है, जिसे ढालकर मानव अपने जीवन की व्यथा, पीड़ा और कठिनता को कुछ नहीं समझता और जिसे चखकर मनुष्य श्रम, संकट, संताप सभी को भूल जाता है । …यह मेरे हृदय की मदिरा है । मत समझ, तू अकेले जलता है । तू जलता है पर प्रभाव मुझपर पड़ता है… ।”
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सचमुच बच्चन की ‘मधुशाला’ तब तक अमर रहेगी जब तक लोग प्रेम और मस्ती के दीवाने बने रहेंगे । इसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा; जैसा कि स्वयं बच्चन ने ही कहा है:
”कभी न कण भर खाली होगा लाख पियें, दो लाख पियें पाठक गण हैं पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला !”
‘मधुशाला ‘ वास्तव में एक रहस्यमय गुफा है, जिसे पढ़ने पर उसमें तमाम द्वार स्वत: ही खुलते जाते हैं और हर द्वार पर एक नई मस्ती से भरी ‘मधुशाला’ का एहसास होता है । मधुशाला के प्रथम पैरोडिस्ट ‘मनोरंजन’ ने अपने ‘गुनगुन’ में ‘मधुशाला’ और ‘मधु का प्याला’ के लिए ‘मधुगीत’ शीर्षक देकर इन दोनों रचनाओं का परिचय देते हुए लिखा है:
”प्रयाग के प्रतिभाशाली कवि श्रीयुत बच्चनजी ने हिंदी में ‘मधुशाला’ की रचना करके एक नई ही धारा बहाई है, जो हमारे साहित्य के लिए ही नहीं, संस्कृति के लिए भी नई, किंतु मुझे ‘पगध्वनि’ सरीखी कविताएँ हर तरफ से अच्छी लगीं; वहीं पर ‘मधुशाला’ संबंधी कविताएँ उनकी दार्शनिकता के कारण उतनी श्रेयस्कर प्रतीत न हुई । बच्चनजी के प्याले की गहराई तक नवयुवक नहीं पहुँच सकते । वे प्याले की सतह तक ही उतरकर रह जाते हैं-ऐसी मेरी धारणा है ।
‘मधुशाला’ जितनी प्रिय तब थी, आज भी उससे कम प्रिय नहीं है । बच्चन की अन्य रचनाएँ ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, ‘एकांत संगीत’, ‘आकुल अंतर’ आदि है, जो अपने अंदर गहन पीड़ा और दार्शनिकता समेटे है । वस्तुत: इन कविताओं का खुमार ‘मधुशाला’ से भिन्न है ।
‘हालावाद’ में दूसरे महत्त्वपूर्ण कवि भगवतीचरेंण वर्मा हैं । उन्होंने भी बच्चन की तरह छायावादी रहस्यात्मकता का परित्याग किया तथा प्रेम, मस्ती और उल्लास भरे गीत पाठकों के सामने प्रस्तुत किए । उनके, गीतों में किसी प्रकार की कृत्रिम नैतिकता का बंधन नहीं है,
”हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले । मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।।”
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भगवतीचरण वर्मा की मस्ती और दीवानगी इनकी कृतियों ‘मधुकरण’ और ‘प्रेम-संगीत’ में देखने-योग्य है, किंतु उनकी रचना ‘मानव’ में मस्ती और खुमार जरा भी नजर नहीं आता, बल्कि उसका स्थान शोषित वर्ग कै प्रति उपजी सहानुभूति और करुणा ने ले लिया है । ‘हालावाद’ का नशा बिखेरनेवाले तीसरे कवि नरेंद्र शर्मा हैं ।
उनकी प्रारंभिक रड़एना३र्गे में प्रेम की व्याकुल अभिव्यक्ति हुई है । वे कहीं-कहीं पर वासनात्मक भी हो गई हैं, जिसे ‘हालावाद का अतिक्रमण’ कहा जा सकता है । उन्हे आधुनिक युग का निराशावाद अच्छा नहीं लगा और वे यथार्थवादी गीतों की रचना में अधिक रमे, पर प्रधानता प्रेम गीतों की ही है । उन्होंने स्वयं को मानवीय दुर्बलताओ का कवि कहा है । ‘फूल-फूल’ और ‘कर्णफूल’ उनकी प्रारंभिक रचनाएँ हैं ।
‘हालावाद’ का हाला का प्याला पकड़ा-नेवाले इन कवियों ने दीवानगी और मस्ती से भरपूर जिंदगी जीने का जो पैगाम अपनी कविताओं के द्वारा जन-जन तक पहुँचाया है, वह दुःख, विषाद तथा निराशा को भूलने की अचूक औषध रही है ।
प्रेम और मस्ती से भरपूर ये गीत पाठकों ‘के मन में गहरे पैठ गए तथा आज भी जो इन्हें पड़ता है, वह प्रेम और मस्ती से भर जाता है उगैर ये गीत जीवन में भरपूर सार्थकता का निर्वाह करने में समर्थ नजर आते है । वस्तुत: हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की प्रासंगिकता जितनी तब थी उतनी ही अब भी है और उसकी यह भाव-प्रवण दुनिया स्वयं में जीवन का एक पहलू है ।
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शिवदान सिंह चौहान ने हालावाद के विषय में लिखा है- ”प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी ने व्यक्ति के सुख-दुःख, उल्लास-निराशा की अनुभूति-प्रवण और विषयी-प्रधान अभिव्यंजना करते हुए भी जिन नए मानव-मूल्यों की सृष्टि की थी, कविता का जिन नई अर्थ-भूमियों पर प्रसार किया था और काव्य की अंतःस्वर में मानवतावादी उदात्तता की जो गरिमा भर दी थी, अंचल तक आते-आते उन मानव-मूल्यों, अर्थ-भूमियों और अंतःस्वर की उदात्तता का संपूर्ण विघटन हो गया तथा छायावादी कविता का दायरा संर्कार्णतर होता चला गया । छायावादी काव्य के उत्कर्ष और हास की यह प्रक्रिया हिंदी कविता के विकास-क्रम की एक कड़ी है ।”
‘हालावाद’ विकास की एष्क कड़ी के रूप में हिंदी साहित्य का एक खास अंग बन गया और यह अंग आज भी उपस्थित है, भले ही इसकी मात्रा अब कम हो गई है और एक खास समय के बाद मस्ती और प्रेम का रूपांतरण यथार्थ जगत् की करुणा और सहानुभूति में हो जाती है ।
‘हालावाद’ की प्रासंगिकता आज जीवन के एक अंग के रूप में हिंदी साहित्य में आज भी बनी हुई है । अत: इसे पूरा जीवन भले ही न माना जा सके, पर इसे जीवन का एक मस्ती भरा पहलू जरूर माना जा सकता है । यह प्रेम और मस्ती आज भी हिंदी साहित्य में बनी हुई है । केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि ने उस दौर के बाद भी इसमें डूबकर कुछ कविताएँ की हैं । अत्याधुनिक काल के नए कवि भी आरंभ में ऐसी कविताएँ करते हैं ।
समकालीन काव्य-साहित्य में ‘हालावाद’ अर्थात् प्रेम में पगी और दार्शनिकता से ढकी-दबी कविताएँ प्राप्त होती हैं । अज्ञेय, नागार्जुन और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कुछ कविताओं में प्रेम कहीं-कहीं वियोग की स्थिति में है और कहीं-कहीं मिलनावस्था में प्रेम का नशा सिर चढ़कर बोलता दिखाई देता है ।
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अज्ञेय की इस कविता में प्रेम का वासनात्मक पहलू तो है ही, असफल प्रेम की कुंठा भी है:
”वासना के पैक–सी फैली हुई थी… । तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान ।।”
अज्ञेय ने प्रकृति-चित्रण द्वारा भी अपने काव्य में प्रेम संबंधी उपदेश दिए हैं:
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”खग युगल! करो संपन्न प्रणय । क्षण के जीवन में हो तन्मय ।।”
नारी-शरीर की कोमल और सौंदर्य को उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है:
”अगर मैं यह कहूँ बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की ।”
इसी क्रम में आगे ‘नागार्जुन’ भी कुछ कविताएँ करते हैं:
”तुम नहीं हो पास मैं तो तरसता हूँ प्यार के दो बोल सुनने के लिए । एक की ही दस अंगुलियाँ नहीं काफी, कदाचित् रेशमी परितृप्तियों का जाल बुनने के लिए ।।”
मस्ती भरी जिंदगी और प्रेम की उद्दाम तरंगें सर्वेश्वर दयाल ने भी तरंगित कीं:
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”एक तीखी ढलान मेरे सपनों में, आओ उन पर दौड़े फिसलें, लोट–लोट जाएँ एक–दूसरे की आत्मा को छू लें ।।”
हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है । बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा आदि ने जो धारा प्रवाहित की, वह आज भी सतत प्रवाहित है; भले ही क्षीण होकर ही, किंतु है जरूर । आधुनिक कवियों में केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में भी यह प्रेम-रस भरपूर मात्रा में मिल जाता है । वे यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर भी प्रेम की दुनिया में डूबे नजर आते हैं । केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता जहाँ प्रेम का उन्मत्त रूप और अमरता दोनों हैं:
”हम न रहेंगे तब भी तो रति रंग रहेंगे, लाल कमल के साथ पुलकते मृग रहेंगे मधु के दानी, मोद मनाते, भूतल के रससिक्त बनाते, लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे ।”
प्रेम के ये गीत, जो मस्ती से भरे हैं, इनकी प्रासंगिकता हिंदी साहित्य में कभी समाप्त होगी, असंभव सा लगता है, क्योंकि यह दौर आज भी बरकरार है, जिसमें मनुष्य प्रेम के गीत गाना चाहता है, उन्हें अमर कर देना चाहता है । यथार्थ जीवन की निराशा, दुःख और कठिनाइयाँ ‘हालावाद’ की मस्ती में तिरोहित कर देना चाहता है ।