भिक्षावृत्ति | Beggary in Hindi!
विश्व में एकमात्र भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ भिक्षा लेना अथवा माँगना एक उचित कर्म माना जाता है तथा भिक्षा देना एक परम कर्तव्य की श्रेणी में आता है ।
परिव्राजक या संन्यासी अथवा गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थी द्वार-द्वार भीख माँगा करते थे तथा दिन में जो कुछ प्राप्त होता था उसी से अपना जीवन-निर्वाह किया करते थे । बौद्ध संघों तथा जैन मठों में भी यह व्यवस्था प्रचलित थी ।
स्वयं बुद्ध और महावीर इस कार्य को उचित समझकर भिक्षाटन किया करते थे । उस काल में भिक्षाटन का उद्देश्य था – शरीर निर्वाह करते हुए ऐसे लोकोपयोगी कार्य करना जिससे समाज की सर्वांगीन उन्नति होती हो ।
क्योंकि संन्यासी यदि गृहस्थ जीवन में रमकर कृषि कार्य या अन्य कार्य करते तो उन्हें इसका खतरा था कि कहीं सांसारिक मायाजाल में फँसकर न रह जाएँ । अत: भिक्षाटन केवल शरीर निर्वाह के उद्देश्य तक सीमित था ताकि संन्यासी मुका होकर लोगों की पीड़ा एवं अज्ञानता को दूर कर सकें ।
हालाँकि वैदिक साहित्य के अध्ययन से इस तथ्य का भी पता चलता है कुछ ब्राह्मण ऋषि निरंतर अपनी गौओं की संख्या में वृद्धि कर अपने समकक्ष लोगों से होड़ किया करते थे । इस तरह समाज में उनकी श्रेष्ठता सिद्ध होती थी ।
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यही कारण है कि बहुत से संन्यासियों, योगियों, ब्राह्मणों आदि ने भिक्षावृत्ति को धीरे-धीरे परिवार पोषण का एक पेशा बना लिया । कर्मकांडी ब्राह्मण विभिन्न धार्मिक संस्कारों को संपन्न कराकर यजमानों से दान, दक्षिणा आदि लेने लगे । यह प्रथा हमारे समाज में आज भी प्रचलित है ।
ऐसी प्रथा केवल हिंदुओं में नहीं अपितु अन्य प्रचलित धर्मों में भी रूप बदलकर है और पूरी दुनिया में मंदिरों, मठों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि पूजा-स्थानों में पंडित, पुरोहित, मुल्ला, पादरी आदि हैं जो यजमानों से दान-दक्षिणा स्वीकार करते हैं । उनकी नजर में यह भिक्षावृत्ति न होकर एक पेशेगत धर्म है जिसका वे पालन कर अपना सामाजिक दायित्व निभा रहे हैं । ज्योतिषी, भविष्यवक्ता और हस्तरेखा विशेषज्ञ भी इसी कोटि के लोगों में से हैं ।
इनके अतिरिक्त हमारे समाज में बड़ी संख्या में ऐसे व्यक्ति हैं जो घर-घर द्वार-द्वार जाकर भीख माँगते रहते हैं । ऐसे लोग बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, टेरनों, बसों तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों के इर्द-गिर्द प्रत्येक व्यक्ति से कुछ पाने की आशा में कटोरा या कोई भिक्षापात्र लिए दीन-हीन स्वर में आजीवन याचना करते रहते हैं । इनमें से कुछ लोग सचमुच दीन-हीन होते हैं तो कुछ हट्टे-कट्टे व्यक्ति भी फटा-पुराना लिबास धारण कर इस जमात में शामिल हैं ।
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दीन-हीन व्यक्तियों में अपंग, अंधे, कुष्ठ-गलित मरीज, मूक-बघिर आदि आते हैं जो समाज की ओर से कोई सहारा न मिलने की स्थिति में अंतिम विकल्प के रूप में भीख माँगकर गुजारा करने के लिए विवश ही जाते हैं । ये लोग प्राय: बेघर-बार होते हैं, आसमाँ तले सोना इनके भाग्य में बदा होता है । कविवर निराला ने अपनी ‘भिक्षुक‘ कविता में इनकी दशा का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है:
” पेट–पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को वह आता, पछताता पथ पर आता । दाता, भाग्य विधाता से क्या पाता ! ”
लेकिन इस जमात में बहुत से लोगों की भीड़ ऐसी है जो इस वृत्ति को अपनी कामचोरी और आलस्य को छिपाने के लिए अपनाते हैं । अनेक साधु-संन्यासी वेष धारण किए लोग लोगों को लोक-परलोक का भय दिखाकर उनसे कुछ न कुछ ऐंठ ही लेते हैं ।
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इस धन से वे ठाठ से जीवन-यापन करते हैं, गाँजा, अफीम का सेवन करते हैं । तकलीफदेह बात यह है आत्मा-परमात्मा के बारे में इस श्रेणी के लोग सामान्य जनों से अधिक नासमझ होते हैं, इनके मन में लोक कल्याण का लेशमात्र भाव नहीं होता है ।
यही कारण है कि गाँधीजी ने सबल लोगों द्वारा माँगी जाने वाली भीख को अनुचित बताया था । जो लोग श्रम कर सकते हैं, उन्हें श्रम करके ही अपना निर्वाह करना चाहिए, यह आधुनिक युग का आदर्श है । दूसरी ओर समाज को ऐसे लोगों की उदारतापूर्वक मदद करनी चाहिए जो सचमुच श्रम कर पाने में असमर्थ हैं ।
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अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम, विकलांग केंद्र, अंधों के लिए शरणस्थली आदि की स्थापना करने में, ऐसे लोगों को स्वरोजगार का प्रशिक्षण देने में हमें मुका हस्त से दान देना चाहिए । कहा भी गया है कि- ” वृथा दानं समर्थेषु, वृथा तृप्तस्य भोजनम् । ”
अर्थात् समर्थ व्यक्ति को दान देना बेकार है तथा तृप्त व्यक्ति को भोजन करना व्यर्थ है । अत: सहायता तभी सार्थक है जब कि वह पात्र व्यक्ति को दी जाए । अपात्र की सहायता करना समाज में व्यभिचार फैलाने, आलसियों का मनोबल बढ़ाने तथा श्रम की महत्ता को कम करने के समान है ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भिक्षावृत्ति अपने-आप में न तो अनुचित है और न उचित । यह किस उद्देश्य से किया जाता है उसी के आधार पर सही निर्णय संभव है । प्रत्येक व्यक्ति को भिक्षा या दान देते समय उचित-अनुचित का निर्णय स्वयं करना चाहिए । इसी में समाज की भलाई है ।