जल प्रदूषण पर निबंध Jal Pradooshan Par Nibandh! Read this essay in Hindi to learn about Water Pollution:- 1. जल प्रदूषण का अर्थ (Meaning of Water Pollution) 2. जल के स्रोत, गुणवत्ता एवं अपद्रव्यता (Sources of Water, Its Quality and Impurities) 3. भारत में जल प्रदूषण (Water Pollution in India) 4. स्रोत (Sources).
जल प्रदूषण का अर्थ (Meaning of Water Pollution):
‘जल ही जीवन है’ अर्थात् जल संपूर्ण जीव जगत् का आधार है जो न केवल मानव अपितु जीव-जंतु, वनस्पति आदि का जीवन-स्रोत है, उनके अस्तित्व का आधार है ।
जल एक प्रकृति प्रदत्त उपहार है जिसे मानव विविध उपयोगों में लेता है, जैसा कि मैक्सवेल ने लिखा है- “जल आर्थिक, सांस्कृतिक और जैविक दृष्टि से पृथ्वी का अत्यधिक उपयोगी संसाधन है । हम इसे पीते हैं, पुन: बाहर निकालते हैं, स्नान करते हैं, शांत होते हैं, मछली पकड़ते हैं खाना बनाते हैं, ठंडा करते हैं, पौधों को सींचते हैं, ऊर्जा एवं शक्ति प्राप्त करते हैं, परिवहन एवं मनोरंजन करते हैं ।”
यही कारण है कि विश्व की प्राचीन सभ्यतायें, जैसे- मिस्र, मध्य पूर्व, चीन, भारत आदि जल के स्रोतों के सहारे विकसित हुईं और ये सभी नदी-घाटी सभ्यतायें थीं । अनादि काल से मानव, जल का उपयोग कर रहा है और हमेशा करता रहेगा क्योंकि जल-चक्र एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो अनवरत रूप से चलती रहती है ।
जल-चक्र के माध्यम से वायु मण्डलीय नमी वर्षा अथवा अन्य रूपों में संघनित होकर पृथ्वी तल पर लौटती है और पुन: वाष्पीकृत होकर वायु मण्डल में व्याप्त हो जाती है । पृथ्वी पर जल का विस्तृत क्षेत्र है, केवल महासागर ही पृथ्वी के क्षेत्र का 70 प्रतिशत भाग है, जो पृथ्वी के तल के जल का 97 प्रतिशत सम्मिलित करता है, किंतु यह जल अपने खारेपन के कारण मानव के लिए उपयोगी नहीं है ।
इसी प्रकार जल का पर्याप्त भाग वर्षपर्यंत हिम के रूप में जमा रहता है । धरातल पर नदियों, झीलों जल-स्रोतों तथा भूमिगत जल के माध्यम से मानव जल आपूर्ति होती है जो आवश्यकता की तुलना में अत्यधिक कम है । साथ ही प्राकृतिक एवं मानवीय कारक निरंतर जल को प्रदूषित एवं विकृत करते रहते हैं, फलस्वरूप जल प्रदूषण का आरंभ होता है जो वर्तमान विश्व में एक प्रमुख समस्या ही नहीं अपितु संपूर्ण जीव-जगत् के लिये खतरा बन गया है ।
जल के प्राकृतिक स्वरूप में बाह्य तत्वों के मिश्रित हो जाने के फलस्वरूप जब विकृति आ जाती है तो वह जीव-जगत् के लिये हानिकारक हो जाता है, इसी को सामान्यतया प्रदूषित जल कहते हैं । जल जैसे ही वायु मण्डल में प्रवेश करता है उसमें अपद्रव्यतायें मिलना प्रारंभ हो जाती हैं और धरातल के संपर्क में आने पर इनमें और अधिक वृद्धि हो जाती है, किंतु ये अशुद्धियाँ कुछ सीमा तक सहनीय होती हैं अर्थात् उनका हानिकारक प्रभाव नहीं होता ।
परंतु मानव अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ इसमें समाहित करता जाता है, कुछ अनजाने में, कुछ अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु । ये अशुद्धियाँ सदियों से जल में मिश्रित होती जा रही हैं, फलस्वरूप जल प्रदूषित होता जा रहा है । सामान्य रूप से जल प्रदूषण से तात्पर्य है- ”प्राकृतिक जल में अवांछित बाह्य पदार्थ का सम्मिलित होना, जिससे जल की गुणवत्ता में अवनति आती है ।” इसी को गिलपिल ने परिभाषित करते हुए लिखा है- ”जल की रासायनिक, भौतिक और जैविक विशिष्टताओं में मुख्यतया मानवीय क्रियाओं से अवनति आ जाना ही जल प्रदूषण है ।”
तात्पर्य यह है कि जल में जब कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ मिश्रित हो जाते हैं तो उसकी भौतिक एवं जैविक संरचना परिवर्तित हो जाती है, दुर्गंध उत्पन्न हो जाती है, स्वाद बदल जाता है तथा उसमें अनेक जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं जो न केवल मानव अपितु वनस्पति एवं अन्य जीव-जंतुओं को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
इसी प्रकार का जल ‘प्रदूषित जल’ कहलाता है । प्रदूषक पदार्थों की प्रकृति के आधार पर जल प्रदूषण भौतिक, रासायनिक और जैव श्रेणियों में विभक्त किया जाता है । भौतिक जल प्रदूषण में जल का रंग, गंध, स्वाद, तापक्रम प्रभावित होता है जबकि रासायनिक जल प्रदूषण के अंतर्गत अनेक हानिकारक रसायनों का जल में सम्मिश्रण हो जाता है । जैव जल प्रदूषण में बैक्टीरिया या सूक्ष्म जीवाणु जल में उद्भूत हो जाते हैं । ये सभी सामूहिक रूप से प्रभाव डालते हैं, किंतु प्रभाव का परिणाम भिन्न-भिन्न होता है ।
जल के स्रोत, गुणवत्ता एवं अपद्रव्यता (Sources of Water, Its Quality and Impurities):
पृथ्वी के संपूर्ण जल का 97 प्रतिशत महासागरीय जल है जो लवण युक्त है । इसका उपयोग पेयजल अथवा सिंचाई के रूप में नहीं किया जाता, यद्यपि यह सामुद्रिक जीवों का आधार है तथा कुछ देशों में तकनीकी पद्धति से इसे पीने योग्य भी बनाया जाने लगा है ।
इसके अतिरिक्त लगभग दो प्रतिशत जल हिमखण्डों के रूप में जमा हुआ है । शेष बचा जल धरातलीय एवं भूमिगत जल है । धरातलीय जल वह जल है जो नदियों, नालों के रूप में प्रवाहित रहता है या झीलों, तालाबों आदि में एकत्र रहता है ।
कुछ जल भूमि के निकट या मृदा में कुछ मीटर गहराई पर होता है, इसे मृदा जल कहते हैं, जबकि गहराई पर चट्टानों में एकत्र जल का भूमिगत जल कहते हैं जो कभी प्राकृतिक रूप से तो कभी विशेष तकनीक द्वारा मानव उपयोग में लिया जाता है, किंतु अधिकांश का उपयोग नहीं होता ।
धरातलीय, मृदा एवं भूमिगत जल का सामान्य प्रतिशत निम्नलिखित प्रकार से होता है:
i. नदियाँ एवं झीलें – 00.014%
ii. शुद्ध जल की झीलें – 01.4%
iii. लवणीय झीलें एवं आंतरिक सागर – 01.2%
iv. मृदा जल – 00.7%
ADVERTISEMENTS:
v. भूमिगत जल (एक कि.मी. की गहराई तक) – 48.3%
vi. भूमिगत जल (एक कि.मी से की अधिक गहराई पर) – 48.3%
स्पष्ट है कि मानवोपयोगी जल के प्रमुख स्रोत नदियाँ, झीलें तालाब झरने, कुएँ हैं । रासायनिक दृष्टि से जल, हाइड्रोजन का मोनोक्साइड (H2O) है, जिसमें दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन होता है किंतु प्रकृति में इस प्रकार का शुद्ध जल नहीं पाया जाता ।
जैसे ही वाष्प संघनित होकर वर्षा के रूप में वायु मण्डल में प्रवेश करती है, उसमें अनेक गैसें, धूल के कण एवं अन्य अशुद्धियाँ मिश्रित होने लगती हैं और जैसे ही यह धरातल पर बहने लगता है इसमें अनेक रासायनिक एवं अन्य तत्व मिश्रित हो जाते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
भूमि में प्रवेश करने तथा और गहराई पर इसमें अनेक खनिज मिश्रित हो जाते हैं । कुछ तत्व हानिकारक होते हैं तो अन्य का प्रभाव सामान्य होता है । अत: जल की गुणवत्ता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि उसमें हानिकारक तत्वों की मात्रा का प्रतिशत कितना कम है ।
पेयजल के लिये 1971 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने निम्नांकित मानक निर्धारित किये हैं:
(अ) भौतिक मानक- पेयजल स्वच्छ, शीतल, गन्ध रहित तथा निःस्वाद होना चाहिए ।
(ब) रासायनिक मानक- इसका pH का मान 7 एवं 8.5 के बीच हो तथा इसमें मिश्रित अपद्रव्यता की सीमा निर्धारित सीमा से अधिक न हो ।
ADVERTISEMENTS:
जो निम्न प्रकार से वर्णित की गई है:
(स) जैविक मानक:
अपदव्य:
ADVERTISEMENTS:
1. बेसिलस कोलाई
सर्वाधिक स्वीकार्य संख्या (M.P.N.):
प्रति 100 मि.ली. में एक भी नहीं,
अपदव्य:
2. अन्य कोली फार्म बैक्टीरिया
सर्वाधिक स्वीकार्य संख्या (M.P.N.):
10 से अधिक नहीं ।
प्राकृतिक जल में उपस्थित अपद्रव्यताओं को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:
(i) निलंबित अपद्रव्यताएँ,
(ii) कोलॉइड अपद्रव्यताएँ,
(iii) घुलित अपद्रव्यताएँ ।
निलंबित अपद्रव्यताएँ बड़े कणों अथवा पदार्थों के रूप में तैरती रहती हैं जैसे धूल के कण, मृदा, अनेक खनिज, शैवाल तथा अन्य जैव तथा अजैव पदार्थ । इनका आकार बड़ा होने से इन्हें पृथक किया जा सकता है । दूसरी ओर कोलॉइडी अपद्रव्य अत्यधिक सूक्ष्म आकारी होते हैं जिन्हें पृथक् करना कठिन होता है । इनमें सिलिका ग्लास, विभिन्न धातुओं के ऑक्साइड, जैव पदार्थों के कण, बैक्टीरिया आदि होते हैं ।
घुलित अपद्रव्य में ठोस, द्रव एवं गैस होती हैं जो प्रवाह के समय जल में घुल जाती हैं । इसमें कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2), सल्फर-डाई-ऑक्साइड (SO2), मिथेन (CH4), सोडियम (NA+), पोटेशियम (K+), कैल्शियम (Ca++), मैग्नीशियम (MG++), लौह (Fe++), मैगनीज (Mn++), अमोनियम (NH4+) आदि होते हैं । इन अपद्रव्यताओं के अतिरिक्त मानव जल में विभिन्न पदार्थों का निस्तारण कर उसे निरंतर दूषित करता रहता है, फलस्वरूप जल-प्रदूषण होता है ।
भारत में जल प्रदूषण (Water Pollution in India):
भारत में जल प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है और इसका स्वरूप दिन-प्रतिदिन व्यापक होता जा रहा है । भारत में पेयजल के प्रमुख स्रोत नदियाँ, जलाशय, झीलें एवं भूमिगत जल (कुएं) हैं जो सदियों से यहाँ के निवासियों की प्यास बुझाते रहे हैं और आज भी जल की समस्त आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं ।
जल प्रदूषण की समस्या वर्तमान सदी, प्रमुखत: इसके उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हुई या दूसरे शब्दों में यह अधिक हो गई । प्राचीन काल से हमारे देश में जल का महत्व रहा है और प्रत्येक कार्य-जीवन से मृत्यु तक जल से संपन्न होता है ।
हर उत्सव एवं धार्मिक अनुष्ठान में जल का महत्व है और इसी कारण यहां नदियों को पवित्र मान कर पूजा जाता है । इस पूजा की पृष्ठभूमि में जल की पवित्रता का वैज्ञानिक पाठ है अर्थात् जल जीवन है, इसे अपवित्र न करें, इसे सदैव स्वच्छ रखें ।
किंतु यह पाठ कुरीति में बदल गया और जल में हम गंदगी, मल, यहाँ तक कि मृत शरीरों को भी बहाने लगे । प्रारंभ में इसका प्रभाव न हुआ हो या नगण्य रहा हो क्योंकि जनसंख्या सीमित थी, नगर छोटे थे, वृहत् उद्योगों का अभाव था ।
किंतु आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है, आज अत्यधिक जनसंख्या हो गई है, नगरों में जनसंख्या जमाव अधिक होता जा रहा है, उद्योगों से निरंतर प्रदूषित जल प्रवाहित हो रहा है, विविध प्रकार के रसायनों का प्रयोग अधिक हो रहा है तथा जल के उपयोग में अत्यधिक वृद्धि हो गई है ।
फलस्वरूप हमारे जल स्रोतों में निरंतर प्रदूषण की वृद्धि हो रही है जो न केवल मानव स्वास्थ्य के लिये अपितु पर्यावरण के लिये भी खतरा बन गई है । राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान के अंतर्गत हुई शोध से स्पष्ट होता है कि देश का लगभग 70 प्रतिशत जल मानवीय उपयोग के लिये अनुपयुक्त हो चुका है तथा देश की अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है, विशेषत: उन नदियों का जिनके किनारे औद्योगिक नगर स्थित हैं ।
वैज्ञानिकों के अनुसार देश के 142 बड़े नगरों में से केवल 8 में ही संतोषजनक सीवरेज प्रणाली है तथा 52 नगरों में आंशिक और शेष 82 नगरों में सीवरेज की कोई उपयुक्त व्यवस्था नहीं है । यहाँ तक कि योजना आयोग ने भी इस तथ्य को स्वीकारा है कि उत्तर में डल झील से दक्षिण में परियार और चालियार नदी तक, पूर्व में दामोदर और हुगली से लेकर पश्चिम में लूनी एवं ठाणा नदी तक के जल में प्रदूषण की स्थिति भयानक है ।
गंगा नदी, जो भारत की पवित्रतम नदी मानी जाती है, इसका जल भी प्रदूषण की चपेट में पूरी तरह आ चुका है । भारत के नगरों में घरेलू गंदगी और मल के एकत्रीकरण और उपचार की सुविधा न्यूनतम है और प्रथम श्रेणी के नगरों में रहने वाली 56.6 प्रतिशत जनसंख्या को मल व्यवस्था की सुविधा उपलब्ध नहीं है तथा कुल अपशिष्ट जल का मात्र 37 प्रतिशत ही उपचारित होता है ।
भारत की अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ प्रदूषण की समस्या से ग्रसित हैं । दामोदर नदी अत्यधिक प्रदूषित हो गई है । इसमें अवशिष्ट ठोस पदार्थों की मात्रा 1,00,000 मि.ग्राम प्रति लीटर पाई जाती है जबकि अधिकतम सहनीय क्षमता केवल 100 मि.ग्राम प्रति लीटर पानी मानी जाती है ।
इसमें इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कं. से लगभग 15,000 Cu/m तथा बंगाल पेपर मिल से 12,000 Cu/m प्रतिदिन अवशिष्ट पदार्थ छोड़े जाते हैं । इसीमें सिंदरी उर्वरक कारखाने से 5 से 10 टन सल्फ्यूरिक एसिड और दुर्गापुर केमिकल्स से 5 से 10 टन दूषित पदार्थ आकर मिलते हैं । इसके अतिरिक्त भी अनेक कारखाने इसमें अपना अवशिष्ट डालते हैं ।
बिहार में ही सोन नदी में मिर्जापुर के समीप स्थित कागज और रसायन उद्योग इतने अवशिष्ट डालते हैं कि जल में क्लोरीन का अंश रिहन्द जलाशय के निकट 62 पी.पी.एम. हो जाता है जबकि सहनीय क्षमता एक पी.पी.एम. है ।
प. बंगाल की हुगली नदी की स्थिति और भी बदतर है । इसके किनारे स्थित कागज और लुगदी के कारखाने 11.4 लाख घनमीटर तरल अवशिष्ट इसमें डालते हैं । यमुना नदी में दिल्ली महानगर का लगभग 320,000 किलोमीटर अनउपचारित मल बहाया जाता है ।
परीक्षणों से पता चला है कि वजीराबाद के निकट यमुना में कोली फार्म बैक्टीरिया की संख्या 7,500 प्रति 100 सी.सी. होती है जबकि ओखला के निकट, जहाँ इसमें कई गंदे नाले मिलते हैं, यह संख्या 24,000,000 प्रति 100 सी.सी. तक पहुँच जाती है । उद्योगों के अवशिष्ट भी वृहत् मात्रा में यमुना में डाले जाते हैं जिनके फलस्वरूप दिल्ली से आगरा के मध्य यमुना का जल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है, यहाँ तक कि वह पीने योग्य भी नहीं रहा है ।
भारत की पवित्रतम नदी गंगा, जिसके जल के लिये यह विख्यात है कि इसमें कभी कीटाणु नहीं पनपते, वह भी जल प्रदूषण की भयंकर चपेट में आ गई है । गंगा नदी भारत की विशालतम नदी है जो लगभग 2,620 कि.मी. लंबे मार्ग पर प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है ।
यह भारत के अत्यन्त सघन बसे राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल से प्रवाहित होती है तथा इसके किनारे 47 नगर और 66 कस्बे और निकटवर्ती क्षेत्र में हजारों ग्राम स्थित हैं । ऋषिकेश से पूर्व गंगा का जल शुद्ध है किंतु इसके पश्चात् इसमें प्रदूषण प्रारंभ हो जाता है ।
नगरों की गंदगी, जल मल का डाला जाना, उद्योगों का विषैला जल एवं अन्य अवशिष्ट आदि से इसका जल प्रदूषित हो रहा है । इसके अतिरिक्त गंगा बेसिन में कृषि के लिये प्रतिवर्ष लगभग 11.5 लाख क्विंटल रासायनिक उर्वरक एवं 15,000 क्विंटल कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है ।
इसका कुछ भाग वर्षा के साथ नदी के पानी में मिल कर उसे प्रदूषित करता है । कानपुर का चमड़ा एवं कपड़ा उद्योग गंगा के जल को अत्यधिक प्रदूषित कर देता है । वाराणसी में इसका जल मल प्रवाह, सार्वजनिक घाटों पर फैली हुई गंदगी का नदी में बहाया जाना, मृत शरीरों का बहाना, इसे प्रदूषित कर देता है ।
फूलपुर स्थित इफ्को का रासायनिक खाद का कारखाना गंगा में प्रतिदिन 13,500 घन मीटर उपयोग किया जल प्रवाहित करता है । बिहार में गंगा अत्यधिक प्रदूषित है । तेल शोधक कारखाने के अवशेष गिरने से तथा बिहार के लगभग 150 उद्योगों का गंदा पानी इसमें मिलता है ।
यही दशा बंगाल में है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि गंगा का जल न केवल प्रदूषित होता है अपितु प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि हो रही है । इसी को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार ने गंगा सफाई एवं प्रदूषण नियंत्रण का वृहत् अभियान चलाया है ।
दक्षिणी भारत की नदियाँ भी प्रदूषण से ग्रसित हैं । तमिलनाडु की कावेरी नदी भारत हैवी इलैक्ट्रीकल्स द्वारा छोड़े गये रसायनों से अत्यधिक प्रदूषित हो रही है । केरल की चालियार नदी का जल अवशिष्ट पदार्थों जनित प्रदूषण से भूरा हो गया है ।
इसी नदी में रेयन फैक्ट्री द्वारा फेंके गये जल में पारे का अंश होने से मछलियों तक का जीवन खतरे में पड़ गया है । नर्बदा नदी का जल प्रदूषण रोकने के लिये सफाई अभियान चलाया जा रहा है । तात्पर्य यह है कि संपूर्ण देश की नदियाँ कम अथवा ज्यादा प्रदूषण ग्रस्त हो रही हैं, इस ओर समुचित ध्यान देना आवश्यक है ।
यही नहीं, अपितु झीलें भी प्रदूषण की चपेट में हैं, श्रीनगर की सुप्रसिद्ध डल झील में जल प्रदूषण की समस्या विकट होती जा रही है । अन्य पेयजल के स्रोत यहाँ तक की भूमिगत जल भी प्रदूषण ग्रस्त होता जा रहा है । उपर्युक्त विवरण से यह तात्पर्य नहीं है कि भारत में जल प्रदूषण अनियंत्रित हो गया है या इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता, अपितु समस्या को समझने और इस पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है ।
इस दिशा में निम्नलिखित कदम उठाये जाने आवश्यक हैं:
i. प्रत्येक जल स्रोत में प्रदूषण के कारण का पता लगाया जाये ।
ii. प्रदूषण के स्तर को ज्ञात करना आवश्यक है ।
iii. स्थानीय निवासियों को इसकी समुचित जानकारी दी जाये तथा नियंत्रण हेतु उनका योगदान लिया जाये ।
iv. जल प्रदूषण के प्रति सामान्य जन चेतना पैदा की जाये, जिससे प्रारंभिक अवस्था में ही इसे रोका जा सके ।
v. आम आदमी की आदतों जैसे मल को बहाना, जल स्रोतों के किनारे गंदगी करना आदि को बदलना आवश्यक है ।
vi. उद्योगों को जल प्रदूषण फैलाने से रोकना आवश्यक है । इसके लिये जो कानूनी प्रावधान हैं उन्हें कठोरता से लागू किया जाये ।
vii. जल उपचार एवं मल उपचार की समुचित व्यवस्था की जाये तथा उसका उपयोग किया जाये ।
viii. जल प्रदूषण पर सतत् शोध कार्य किया जाये ।
ix. सरकार के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर एवं सेवी संस्थाओं द्वारा इसमें सकारात्मक भूमिका निभाई जानी चाहिये ।
भारत सरकार एवं राज्यों की सरकारें इस दिशा में पर्याप्त कार्य कर रही हैं । वर्ष 1974 में एक केन्द्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गई तथा अनेक राज्यों में भी इस प्रकार के मण्डल स्थापित किये गये हैं । पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 में जल प्रदूषण को नियंत्रित करने की पर्याप्त व्यवस्था है ।
1981-90 के दशक को अंतर्राष्ट्रीय पेयजल एवं सेनीटेशन दशक के रूप में मनाया गया, जिसमें भारत भी सम्मिलित था । इसका उद्देश्य ‘स्वच्छ एवं सुरक्षित जल’ प्रदान करना था । वास्तव में जल प्रदूषण एक ऐसी समस्या है जिसे सरकार और हम सब मिलकर ही नियंत्रित कर, अपना भविष्य सुरक्षित बना सकते हैं ।
जल प्रदूषण के स्रोत (Sources of Water Pollution):
जल प्रदूषण किसी एक विशिष्ट स्रोत अथवा कारण से नहीं होता अपितु इसके विविध स्रोत होते हैं और उनका सामूहिक प्रभाव ही जल में प्रदूषण का कारक बनता है । यद्यपि कहीं एक स्रोत या कारण प्रमुख हो जाता है तो कहीं एक से अधिक । अधिकांशत: जल प्रदूषण मानव द्वारा विभिन्न पदार्थों का जल में निस्तारण है किंतु कतिपय प्राकृतिक स्रोत भी जल प्रदूषण के कारक होते हैं ।
(i) जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत:
प्राकृतिक रूप से भी जल प्रदूषित होता रहता है । इस प्रदूषण का कारण जल में मिश्रित होने वाली विभिन्न गैस, मृदा, खनिज, ह्यूमस पदार्थ, जीव-जंतुओं का मल-मूत्र आदि होती हैं । यह प्रदूषण मंद और कभी-कभी सामयिक होता है जैसे वर्षा काल में नदियों, तालाबों का जल मृदा के कणों के मिश्रण से अत्यधिक मटमैला हो जाता है जो कुछ समय पश्चात् स्वत: ठीक हो जाता है । जल में प्राकृतिक रूप से शुद्ध होने की क्रिया होती रहती है ।
प्राकृतिक अशुद्धियाँ निलंबित, कोलॉइडी (अति सूक्ष्म कणों में) अथवा घुलित रूप में होती हैं । यह जैव अथवा अजैव, कार्बनिक अथवा अकार्बनिक, रेडियो सक्रिय अथवा निष्क्रिय, विषैले अथवा हानि रहित हो सकती हैं । प्रमुखत: धूल के कण, मृतिका, सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, लौह, मैगनीज आदि का दुष्प्रभाव नहीं होता किंतु यदि इनकी मात्रा अधिक हो जाती है तो जल प्रदूषित हो जाता है ।
कुछ विषैली धातुयें जैसे निकल, बेरियम, बेरीलियम, कोबाल्ट, सीसा, कैडमियम, पारा, वैनेडियम आदि भी स्थान-स्थान पर अति न्यून मात्रा में होती हैं किंतु इनकी मात्रा में तनिक वृद्धि अत्यधिक हानि पहुँचाती है । इसी प्रकार अत्यधिक मात्रा में जलीय वनस्पति भी प्रदूषण का कारण बन जाती है ।
(ii) जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत:
वर्तमान युग के जल प्रदूषण और इससे उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को यदि मानव की देन कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । एक ओर विश्व की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है, नगरों का विकास एवं विस्तार हो रहा है, तेजी से औद्योगिकीकरण हो रहा है, विभिन्न साधनों से विद्युत उत्पादन हो रहा है, रासायनिक एवं तैलीय पदार्थों के उपयोग में वृद्धि हो रही है तो दूसरी ओर न केवल पेयजल की उपलब्धि कम हो रही है अपितु उपर्युक्त सभी मानवीय क्रियाएँ जल प्रदूषण का कारक बन रही हैं ।
संपूर्ण विश्व आज मानव द्वारा किये जा रहे जल प्रदूषण की समस्या से त्रस्त है और विकासशील देशों में यह समस्या तकनीकी स्तर की कमी के कारण और भी आत्मघाती होती जा रही है । आज स्थिति यह है कि मानव चाहते हुए भी जल प्रदूषण को रोक नहीं पा रहा, वह मूक दर्शक बना हुआ है । विकास की दौड़ में वह केवल वर्तमान को देख रहा है और भविष्य को अंधकारमय बनाये जा रहा हैं । नदियाँ, झीलें, तालाब, कुएँ जो पेयजल के स्रोत हैं, सभी प्रदूषण की चपेट में हैं ।
जहाँ एक ओर प्राकृतिक स्रोतों से हुआ जल प्रदूषण सीमित एवं स्वत: शुद्ध होने की स्थिति में है, वहीं मनुष्य द्वारा जल प्रदूषण में कमी के स्थान पर वृद्धि हो रही है । सर्वप्रथम उन मानवीय क्रियाओं एवं कारणों का विवेचन आवश्यक है जो जल प्रदूषण के लिये उत्तरदायी हैं ।
ये निम्नलिखित हैं:
(a) घरेलू बहिःस्राव
(b) वाहित जल
(c) औद्योगिक बहिःस्राव
(d) कृषि बहिःस्राव
(e) रेडियोधर्मीय अवशिष्ट द्वारा जल प्रदूषण
(f) तापीय प्रदूषण
(g) तेल प्रदूषण ।
(a) घरेलू बहिःस्राव:
मानव जल का घरेलू विविध कार्यों में उपयोग करता है, जैसे भोजन पकाने के लिये, नहाने के लिये, सफाई के लिये, वातानुकूलन यंत्रों आदि के अतिरिक्त पेयजल के रूप में । सामान्यतया यह माना गया है कि मनुष्य को प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 135 लीटर जल की आवश्यकता होती है या वह प्रयोग में लेता है । मानव द्वारा इस प्रयोग किये जल का लगभग 75 से 80 प्रतिशत भाग विविध उपयोग के पश्चात् वह बहा देता है ।
यह जल घर की नालियों में मोहल्ले और तत्पश्चात् नगर की नालियों से बहता हुआ अधिकांशत: किसी नदी, झील अथवा सरोवर में चला जाता है अथवा भूमि द्वारा सोख लिया जाता है । यह उपयोग किया हुआ जल अनेक प्रकार की अशुद्धियों से युक्त होता है ।
एक ओर इसमें कूड़ा-करकट, घर की गंदगी का मिश्रण होता है तो दूसरी ओर साबुन या अन्य सफाई के प्रयोग में लिये गये पदार्थों का । इसमें कागज कपड़ा, राख, सड़े-गले पदार्थ और न जाने कितने हानिकारक पदार्थ जिनमें रोगी के उपचार में काम लिये गये कपड़े, रूई बची हुई दवाइयाँ, मरे हुए छोटे कीड़े-मकोड़े, कीटनाशक आदि भी सम्मिलित होते हैं ।
ये सब पदार्थ जल स्रोतों में पहुंच कर उन्हें प्रदूषित करने का प्रमुख कारण बनते हैं । अवशिष्ट घरेलू जल को प्रवाहित कर देना मानव प्राचीन काल से करता आ रहा है । पूर्व में यह समस्या नहीं थी, क्योंकि जनसंख्या सीमित थी तथा वह दूर-दूर बसी थी ।
किंतु नगरों के बसाव एवं विस्तार एवं उनमें केन्द्रित विशाल जनसंख्या ने जल-प्रदूषण को खतरे के स्तर पर ला दिया है । अकेले दिल्ली महानगर में 120 करोड़ लीटर पानी का उपयोग होता है । इसमें से 96 करोड़ लीटर गंदा पानी 17 खुले नालों द्वारा यमुना नदी में डाल दिया जाता है ।
इसमें घरेलू अवशिष्टों की मात्रा अत्यधिक होती है । गंगा नदी पर स्थित 47 प्रमुख नगरों का घरेलू अवशिष्ट भी इसी नदी में डाला जाता है । यह कहानी बड़े नगरों की ही नहीं है अपितु जहाँ भी कस्बा या गाँव है और उसके निकट जल स्रोत है (विशेष कर नदी) तो उसमें समस्त पदार्थ इस भ्रामक धारणा से डाल दिया जाता है कि वह स्वत: शुद्ध हो जायेगा ।
किंतु सदियों से चलता आया यह क्रम अब नासूर बन गया है । जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण घरेलू बहिःस्राव ही है, जिसमें निरंतर वृद्धि हो रही है । एक नवीनतम अनुमान के अनुसार बंबई महानगर में अवशिष्ट गंदगी मात्र 13 प्रतिशत औद्योगिक अवशिष्ट है, शेष भाग नगरीय घरेलू गंदगी और मल-मूत्र आदि हैं ।
इसी प्रकार कलकत्ता में इसका प्रतिशत 89 है । विकसित देशों में घरेलू अवशिष्टों को नष्ट करने के संयंत्र हैं किंतु विकासशील देशों में अभी इनका अभाव है । भारत में भी केवल बंगलौर और अहमदाबाद में अवशिष्ट शोधन संयंत्र हैं, शेष सभी नगर इस गंदगी द्वारा उत्पन्न जल प्रदूषण की समस्या से ग्रसित हैं ।
वर्तमान समय में घरों में सफाई तथा कपड़े धोने के लिये ‘डिटरजेंट’ या प्रक्षालक के प्रयोग की वृद्धि हो रही है । इनका विश्वव्यापी अत्यधिक प्रयोग जल प्रदूषण का कारण है, क्योंकि उपयोग के पश्चात् मिश्रित जल जब जल स्रोत में मिलता है तो न केवल उसकी प्राकृतिक संरचना में परिवर्तन ला देता है अपितु इसमें प्रयोग लिया गया फास्फेट जल को प्रदूषित कर देता है ।
अमेरिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इरी और ओन्टेरिया झील के जल को प्रदूषित करने में सर्वाधिक योगदान डिटरजेंट द्वारा उत्पन्न फॉस्फोरस का है, जिसका प्रतिशत 50 से 70 है । इसकी उपस्थिति से जल में शैवाल की अधिक वृद्धि होती है, पानी में झाग उत्पन्न होने से जल शोधन में भी बाधा उत्पन्न होती है । इसी प्रकार प्लास्टिक के अत्यधिक घरेलू उपयोग ने भी अवशिष्ट की समस्या उत्पन्न कर दी है ।
प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग अत्यधिक हो गया है, ये न तो पानी में गलती हैं न सड़ती हैं अत: इनका निस्तारण कठिन हो जाता है । जब इन्हें जल-स्रोतों में डाल दिया जाता है तो वे प्रदूषण का कारण बनती हैं । साथ ही नालियों में डालने पर उन्हें न केवल अवरुद्ध करती हैं अपितु हानिकारक जीवाणुओं की उत्पत्ति का कारण भी बनती हैं ।
प्लास्टिक अवशिष्टों का निस्तारण 1970 तक अमेरिका जैसे देश में भी समस्या बन गई थी, तत्पश्चात् वहाँ वैज्ञानिक तकनीक से इन्हें पुन: प्रयोग अथवा निस्तारण की व्यवस्था की गई । हमारे देश में भी इनका प्रयोग अत्यधिक होने लगा है । अत: इनके निस्तारण की व्यवस्था शीघ्र करने की आवश्यकता है ।
(b) वाहित जल:
जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण वाहित मल है । जनसंख्या में वृद्धि, ग्रामों का कस्बों में तथा नगरों का महानगरों में परिवर्तित होना इस समस्या को और अधिक गंभीर बना रहा है । मानव की यह प्रकृति है कि वह मल-मूत्र एवं अन्य गंदगी को बाहर बहा देता है जो नालियों में बह कर अंत में नदी अथवा अन्य जल स्रोत में पहुँच जाता है ।
यही नहीं, यदि यह भूमि में भी समा जाता है तो इसका कुछ भाग भूमिगत जल में मिश्रित होकर उसे भी प्रदूषित कर देता है । मल को बहा कर नदी-नाले में डालने की परंपरा प्राचीन रही है । इसके पीछे यह धारणा थी कि प्रवाहित जल मल को बहा ले जाता है और जल शुद्ध बना रहता है ।
किंतु यह धारणा नितांत भ्रामक और अवैज्ञानिक है क्योंकि जैसे ही मल, जल के संपर्क में आता है उसे प्रदूषित करना प्रारंभ कर देता है और इसका कुछ भाग जल के तल में बैठ जाता है । फिर जल यदि प्रवाहित है तो जहाँ इसमें मल मिश्रित हुआ उससे आगे स्थित नगर या ग्राम को प्रदूषित जल प्राप्त होगा और यह क्रम चलता रहा तो संपूर्ण नदी ही प्रदूषित हो जायेगी जैसा कि गंगा जैसी पवित्र एवं विशाल नदी के साथ हुआ है ।
न केवल भारत अपितु अनेक विकासशील देशों में नदियों, जलाशयों आदि के किनारे, शौच जाना, कपड़े धोना, नहाना आदि सामान्य माना जाता है । यह गंदगी जल में मिश्रित होकर उसे प्रदूषित करती है । यही नहीं, अपितु मृतकों को नदी में बहा देना या मृत पशुओं को भी उसमें डाल देना, जल प्रदूषण का कारण है ।
वाहित मल का निस्तारण वर्तमान विश्व की समस्या है । साथ ही जल प्रदूषण का प्रमुख कारण भी है । विकसित देशों में बंद नालियाँ हैं, मल निस्तारण की समुचित व्यवस्था है तथा उसे कीटाणु विहीन करने की प्रक्रिया द्वारा गुजारा जाता है । यही नहीं, अपितु इस मल का उर्वरक अथवा ऊर्जा उत्पादन में उपयोग भी किया जाता है । किंतु विकासशील देशों में, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, इस प्रकार की व्यवस्था का अभाव है जो जल प्रदूषण का कारण है ।
राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान (NEERI) के अनुसार देश के 142 बड़े नगरों में से केवल 8 में ही संतोषजनक सीवरेज प्रणाली की व्यवस्था है तथा 52 नगरों में मात्र आशिक व्यवस्था ही है । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे देश में मल निकास की व्यवस्था न होने से कितना अधिक जल प्रदूषण हो रहा है ।
मल के जल में मिश्रित होने से जैविक प्रदूषण या संक्रमण अधिक होता है क्योंकि इस जल में अनेक हानिकारक या बीमारियों के जीवाणुओं का जन्म है । इस जैविक प्रदूषण से अनेक जलोद रोग, जैसे- टाइफाइड, हैजा, पेचिश, यकृत शोथ, आंत्र शोध आदि प्रमुख समस्या है । इसे वैज्ञानिक एवं तकनीकी माध्यम से न केवल सुलझाया जा सकता है अपितु इससे ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है तथा कतिपय परिवर्तन रूप में कृषि हेतु भी उपयोग में लाया जा सकता है ।
(c) औद्योगिक बहिःस्राव:
वर्तमान औद्योगिक विकास ने जहाँ मानव को अनेक सुविधायें प्रदान की हैं वहीं प्रदूषण भी दिया है जो वायु एवं जल प्रदूषण के रूप में है । जल प्रदूषण में उद्योगों की भूमिका अत्यधिक है । उद्योगों में पर्याप्त मात्रा में जल का उपयोग होता है । यह जल उत्पादन प्रक्रिया में चलता हुआ अंत में औद्योगिक बहिःस्राव के रूप में निकलता है । इस जल में अनेक कार्बनिक एवं अकार्बनिक तत्व मिले होते हैं । जिसमें अनेक हानिकारक होते हैं ।
उद्योगों से निकला हुआ यह विशेष जल नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है, झीलों या वृहत् तालाबों में डाल दिया जाता है या समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है । वर्तमान युग में रासायनिक उद्योग एवं इनसे संबंधित उद्योगों का विकास तीव्र गति से हो रहा है ।
लगभग 9000 संश्लेषित रासायनिक यौगिक व्यापारिक प्रयोग में आ रहे हैं और इनमें प्रतिवर्ष 300 से 500 नये जुड़ते जाते हैं । इनसे प्लास्टिक, दवाइयाँ, कृत्रिम रेशा, प्रसाधन, पेंट, सफाई हेतु डिटरजेंट और असंख्य उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण हो रहा है ।
इसी प्रकार लुग्दी और कागज उद्योग, चमड़ा उद्योग, चीनी उद्योग, औषध निर्माण उद्योग, शराब उद्योग, खाद्य संसाधन उद्योग, उर्वरक उद्योग आदि से रसायन मिश्रित जल बाहर निकाला जाता है जिसे जल स्रोतों में डाल दिया जाता है । यह अत्यधिक प्रदूषण का कारण होता है । इनमें कार्बनिक पदार्थ भी होते हैं जिनका बैक्टीरिया द्वारा निम्नीकरण मंद गति से होता है । इनसे जल में दुर्गंध उत्पन्न होती है तथा उसका स्वाद भी बदल जाता है ।
इसी प्रकार अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम, पोटेशियम, कैल्शियम, अमोनिया क्लोराइड, नाइट्रेट, सल्फेट आदि के आयन जल को प्रदूषित बनाते हैं जो न केवल मानव अपितु जल-जीवों, वनस्पति एवं पशुओं पर भी विपरीत प्रभाव डालते हैं ।
भारत में अनेक औद्योगिक नगर जो नदियों के किनारे स्थित हैं वे औद्योगिक अवशिष्ट युक्त जल उन नदियों में बहा देते हैं । दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में प्रतिदिन 5 लाख लीटर डी.डी.टी. का अवशेष यमुना नदी में छोड़ा जाता है ।
गंगा नदी के किनारे अनेक रासायनिक, कपड़ा, लुग्दी और कागज, पेट्रो रसायन, रबड़, उर्वरक एवं अन्य भारी उद्योग स्थित हैं जो प्रदूषित जल नदी में बहा कर उसे भी प्रदूषित कर देते हैं । एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि कानपुर से 10 कि.मी. पहले तक गंगा का जल पर्याप्त शुद्ध है किंतु इसके पश्चात् गंदे नालों का पानी, कपड़ा और चमड़ा उद्योग से निस्तारित जल आदि से यह अत्यधिक प्रदूषित हो गया है ।
बिहार में ‘शोक नदी’ के नाम से प्रसिद्ध दामोदर नदी में बोकारो व राउरकेला लौह संयंत्रों के बीच स्थित विभिन्न कोयला धुलाई संयंत्रों से अत्यधिक धात्विक एवं अवशिष्ट पदार्थ नदी में आकर मिलते हैं । दुर्गापुर कोयला धुलाई संयंत्र से ही प्रति वर्ष 1800 टन कोयला इस नदी में बह जाता है ।
एक अध्ययन ने इस नदी में अवशिष्ट ठोस पदार्थों की मात्रा 1,00,000 मि.ग्रा. प्रति लीटर पाई गई जबकि जल की अधिकतम सहनीय क्षमता 100 मि.ग्रा. प्रति लीटर मानी जाती है । इसके अतिरिक्त इंडियन आयरन एण्ड स्टील कंपनी (IISCO) से लगभग 15,000 Cu/m तथा बंगाल पेपर मिल्स से 12,000 Cu/M प्रतिदिन अवशिष्ट इसमें छोड़े जाते हैं ।
इतना ही नहीं, सिंदरी खाद से 10 से 15 टन सल्फेरिक एसिड और दुर्गापुर केमिकल्स से 5 से 10 टन दूषित पदार्थ इसमें मिलते हैं । अन्य उद्योग भी इसमें अवशिष्ट प्रवाहित करते हैं । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उद्योगों से दामोदर नदी कितनी अधिक प्रदूषित होती जा रही है ।
पं. बंगाल की हुगली नदी ऊर्जा संयंत्रों के गर्म पानी तथा अन्य औद्योगिक अवशिष्टों से इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि नदी की मछलियाँ और उनके अण्डों का विनाश प्रारंभ हो गया है । नदी के किनारे स्थित कागज और लुगदी के उद्योग से लगभग 11.4 लाख टन तरल अवशिष्ट प्रतिवर्ष नदी में समाहित होता है ।
तमिलनाडु की कावेरी नदी अत्यधिक प्रदूषित है । यह भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स द्वारा छोड़े गये खतरनाक रसायनों की ‘शरण स्थली’ बनी हुई है । यही दशा भारत की अनेक नदियों की है और भारत ही नहीं विश्व के अधिकांश उद्योग जो जल स्रोतों के निकट स्थित हैं वे निरंतर अवशिष्ट जल बहाकर उन्हें प्रदूषित कर रहे हैं ।
केवल दूषित पदार्थ ही नहीं अपितु अनेक उद्योग गर्म जल को नदियों या जलाशयों में प्रवाहित कर देते हैं, जो जल-जीवों के लिये संकट पैदा कर देता है । जब कभी जल का 30° सें उच्च तापमान हो जाता है तो जल जीव मरने लगते हैं और वहाँ जैविक मरुस्थल बन जाता है ।
जल प्रदूषण के संदर्भ में पारा प्रदूषण का उल्लेख आवश्यक है । पारा द्रव अवस्था में पायी जाने वाली धातु है जो अधिक तापमान पर वाष्पीकृत होकर विषैली वाष्प उत्पन्न करता है । पारा यौगिक अत्यधिक विषैले होते हैं ।
विश्व में लगभग प्रतिवर्ष दस हजार टन पारा निकाला जाता है, इसमें से लगभग आधा किसी न किसी रूप में पर्यावरण में प्रविष्ट हो जाता है । इस संदर्भ में जापान तट के निकट स्थित मिनीमेटा खाड़ी दुर्घटना का उल्लेख आवश्यक है जो जल में पारा प्रदूषण के फलस्वरूप 1950 में हुई थी ।
इस क्षेत्र के मछुआरे अचानक मांस-पेशियों के कमजोर पड़ने, अंधापन, मंद बुद्धि और पक्षाघात से ग्रसित होने लगे । इसकी शोध से ज्ञात हुआ कि एक प्लास्टिक कारखाने द्वारा छोड़े बहिःस्राव युक्त जल में जो मछलियां थीं उनको खाने से यह सब हुआ ।
वास्तव में पारा यौगिक मिथाइल-मरक्यूरी (H3C, Hg, CH3) में परिवर्तित हो जाते हैं जो भोज्य श्रृंखला में मानव तक पहुँचते-पहुंचते विषैला रूप धारण कर लेते हैं । वास्तव में औद्योगिक अवशिष्टों एवं जल का जल स्रोतों में प्रवाह कर देना जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है जिस पर समुचित ध्यान देना आवश्यक है ।
(d) कृषि बहिःस्राव:
कृषि बहिःस्राव के अंतर्गत कृषि द्वारा मिट्टी का बहकर जल में मिश्रित हो जाना और उसको गंदा या प्रदूषित करना, एक सामान्य प्रक्रिया रही है । यह मुख्यतया वहाँ अधिक होती है जहाँ कृषि पद्धतियों के दोषपूर्ण होने से मृदा क्षरण अधिक हो जाता है, किंतु यह समस्या अधिक नहीं है ।
इसके विपरीत जब से कृषि उपजों की वृद्धि हेतु उर्वरकों, रसायनों, कीटनाशक दवाओं आदि के प्रयोग में अधिकता आई है कृषि बहिःस्राव द्वारा जल प्रदूषण अधिक होने लगा है । वर्तमान समय में खेतों में उर्वरक जैसे नाइट्रेट्स, फास्फेट्स, यूरिया आदि का प्रयोग अधिक किया जाने लगा है ।
ये पानी के साथ बह कर जल को प्रदूषित करते हैं । इनसे शैवाल (एल्गी) में भी वृद्धि हो जाती है जो प्रदूषण का कारण बनती है । इसी प्रकार कीटनाशकों का प्रयोग भी निरंतर अधिक होता जा रहा है । इनसे विभिन्न प्रकार के हानिकारक कीट तो मरते ही हैं, साथ में इनका कुछ भाग जल में बहकर प्रदूषण का कारण बनता है ।
अधिकांश कीटनाशक दवाओं में विषैले पदार्थ, जैसे- पारा, संखिया, क्लोरीन, फ्लोरीन, फास्फोरस आदि मिले रहते हैं जो जल में मिश्रित हो जाने पर मनुष्य एवं अन्य जीवों पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । डी.डी.टी. अर्थात् डायक्लोरो डाइफिनायल ट्राइक्लोरोमिथाइल मिथेन का प्रयोग संपूर्ण विश्व में कीटनाशक के रूप में किया जा रहा है ।
मुख्य रूप से द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इसका प्रयोग अत्यधिक होने लगा । यहाँ तक कि भारत में मलेरिया उन्मूलन हेतु इसका छिड़काव किया जाने लगा, किंतु जब इसके विनाशकारी स्वरूप का पता चला तो अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में इसके प्रयोग पर कानूनी रूप से रोक लगा दी गई ।
यद्यपि विकासशील देश अभी भी इसका प्रयोग कर प्रदूषण को आमंत्रित कर रहे हैं । डी.डी.टी. तथा इसी से उत्पन्न एल्ड्रिन, डाई एल्ड्रिन, लिंडेन आदि भी अत्यधिक हानिकारक हैं । वास्तव में कीटनाशकों के वृहत् प्रयोग के समय यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि उनसे प्रदूषण एवं जन स्वास्थ्य को हानि नहीं हो अन्यथा कृषि उपज को हानि से बचाने के लिये कहीं हमें अपने स्वयं को ही बलिदान न करना पड़ जाये ।
(e) रेडियोधर्मीय अवशिष्ट द्वारा जल प्रदूषण:
वर्तमान विश्व में ऊर्जा प्राप्त करने एवं हथियारों के निर्माण में रेडियोधर्मी पदार्थों का उपयोग हो रहा है । एक ओर परमाणु अस्त्रों का निर्माण हो रहा है तो दूसरी ओर परमाणु ऊर्जा हेतु परमाणु रिएक्टरों का निर्माण होता जा रहा है ।
रेडियो एक्टिव पदार्थ सदैव विखण्डन की प्रक्रिया से गुजरते हैं तथा इनके अवशिष्ट पदार्थ भी कम या अधिक रेडियो एक्टिव होते हैं । ये पदार्थ शीघ्र समाप्त न होकर सैकड़ों से हजारों वर्षों तक बने रहते हैं । यदि ये किसी प्रकार मानव शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तो अत्यधिक हानि का कारण बनते हैं क्योंकि ये भोजन चक्र का हिस्सा बन जाते हैं और शरीर में जहाँ कहीं एकत्र होते हैं भयंकर हानि का कारण बनते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
रेडियोधर्मी पदार्थों के अवशिष्टों को समाप्त करना एक जटिल समस्या है क्योंकि ये जल के साथ स्रोतों में पहुँच जाते हैं और फिर मानव एवं अन्य जीव जंतुओं में । परमाणु धूलि, परमाणु संयंत्र के उपयोग में ली गई वस्तुएँ तथा अन्य अवशिष्टों को अधिकांशत: भूमिगत कर दिया जाता है किंतु वे प्रभावहीन नहीं होते ।
कभी-कभी परमाणु हथियारों से लैस जहाज अथवा परमाणु चालित पनडुब्बी सागर में डूब जाती है और वहाँ का जल रेडियोधर्मी होने लगता है । रेडियोधर्मी विखण्डन का एक अवशिष्ट स्ट्रान्शियम-90 (Sr90) है, यह नाभिकीय प्रक्रियाओं में वायु मण्डल में छोड़े गये रेडियोधर्मी पदार्थों के साथ मिश्रित होता है जो क्रमश: धरती अथवा जल सतह पर नीचे आ जाता है । कुछ अन्य रेडियोधर्मी जैसे रेडियो आयोडीन, सीसियम-137, कार्बन-14, सीरियम-144, जिंक-65, आयरन-59, कोबाल्ट-60 आदि भी भोजन श्रृंखला से शरीर में पहुँचकर हानि पहुँचाते हैं ।
(f) तापीय प्रदूषण:
तापीय प्रदूषण से तात्पर्य है जल के तापमान में इतनी वृद्धि हो जाना कि वह जल जीवों एवं अन्य के लिये हानिकारक हो । जल के तापमान में वृद्धि का एक कारण समुद्रों में किये जाने वाले परमाणु विस्फोट परीक्षण हैं । प्रतिवर्ष प्रशांत महासागर के क्षेत्र में अनेक परमाणु परीक्षण किये जा रहे हैं, उससे विस्तृत क्षेत्र में तापमान में वृद्धि हो जाती है, मछलियाँ और अन्य जीव-जंतुओं का विनाश हो जाता है ।
न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया आदि देशों ने उनके निकटवर्ती सागर क्षेत्र में इस प्रकार के परीक्षणों का व्यापक विरोध किया है । इसी प्रकार जब अंतरिक्ष यानों को महासागरीय जल में उतारा जाता है तो उससे भी तापमान में वृद्धि हो जाती है ।
इसके अतिरिक्त जल के तापीय प्रदूषण का प्रमुख कारण विभिन्न उद्योगों द्वारा गर्म जल का जल स्रोतों में छोड़ा जाना है । अनेक उद्योगों में शीतलन प्रक्रिया हेतु जल का प्रयोग कर गर्म जल नदी अथवा जलाशयों में बहा दिया जाता है । जल में इससे विस्तृत क्षेत्र में ताप का विस्तार होता है, फलस्वरूप मछलियाँ अन्य जल जीव एवं जलीय वनस्पति का विनाश हो जाता है तथा जल की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
(g) तेल प्रदूषण:
तेल अर्थात् पैट्रोलियम से महासागरों एवं सागरों का जल प्रदूषित होता रहता है । इसमें तेल ले जाने वाले टैंकरों का रिसाव, समुद्र के किनारे स्थित तेल शोधक कारखानों से रिसाव तथा सागरीय तल से तेल की खुदाई के समय एकाएक बाहर निकलना प्रमुख कारण हैं ।
तेल पानी में तैरता रहता है तथा दूरवर्ती क्षेत्रों तक फैल जाता है । इसके फैलने से जल प्रदूषित हो जाता है, मछलियों, अन्य जीव, समुद्री पक्षी एवं वनस्पति को तो हानि पहुँचती ही है, इससे पर्यावरण भी प्रदूषित हो जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
1976 में टौरी केनयन नामक टैंकर जिसमें लगभग 118,000 टन कच्चा तेल था, से जब विस्तृत तेल रिसाव हुआ तो इस समस्या के प्रति सबका ध्यान आकृष्ट हुआ । प्रतिवर्ष विश्व में दस करोड़ टन से भी अधिक पैट्रोल उत्पादकों का सागरीय मार्गों से परिवहन होता है इसमें अधिकांश भाग कच्चा तेल होता है ।
यह माना जाता है कि परिवहन के दौरान लगभग 0.01 प्रतिशत तेल का रिसाव होता है इस प्रकार प्रतिवर्ष 200 लाख गैलन तेल सागरीय जल को प्रदूषित करता है । अनेक टैंकर टकरा कर नष्ट हो जाते हैं अथवा डूब जाते हैं और उनका तेल सागर पर फैल जाता है ।
सागरीय तट के निकट पैट्रोलियम की खुदाई आज प्रमुखता से हो रही है । इस खुदाई के समय कभी-कभी तेल एकाएक तेज गति से निकल कर सागर में फैलने लगता है, जैसा कि 1969 में कैलिफोर्निया के सांता बारबारा चेनल से हुआ । उससे प्रतिदिन 500 बेरल तेल बहने लगा और दस दिन तक 236,000 गैलन तेल बह गया । इस प्रकार की घटना एवं दुर्घटना यदाकदा होती रहती है जिससे विस्तृत सागरीय जल प्रदूषित हो जाता है ।
एक और घटना पश्चिमी एशिया की फारस की खाड़ी में फरवरी-मार्च, 1991 में इराक एवं अन्य देशों के मध्य युद्ध के समय हुई । इराक ने कुवैत के तेल कुंओं से तेल फारस की खाड़ी में न केवल बहा दिया अपितु आग लगा कर विप्लवकारी दृश्य उपस्थित कर दिया ।
विस्तृत क्षेत्र में तेल के फैलाव से न केवल जल प्रदूषित हुआ अपितु असंख्य सामुद्रिक जीवों का विनाश हुआ । खाड़ी तट पर स्थित जल शोधक यंत्र खराब हो गये तथा पर्यावरण प्रदूषण का भयंकर खतरा उपस्थित हो गया, जिसे संतुलित होने में वर्षों का समय लगेगा । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मानवीय कारण जल प्रदूषण के लिये प्रमुखत: उत्तरदायी हैं । इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय प्रयत्न आवश्यक हैं, अन्यथा यह समस्या भविष्य को अंधकारमय बना देगी ।