Essay on Greed in Hindi!
प्रस्तावना:
भ्रष्टाचार आज भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप बन गया है तथा हा भविष्य के लिए अत्यन्त खतरनाक सिद्ध हो सकता है । वस्तुत: यह प्रवृत्ति स्वयं लोकतन्त्र लिए भी खतरनाक है । जो राजनीतिज्ञ एवं राजनीतिक दल स्वयं लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पा नहीं करते, वह देश में लोकतन्त्र के प्रति कितना प्रतिबद्ध हो सकते हैं, कहे बिना भी स्पष्ट है ।
चिन्तनात्मक विकास:
लोकतन्त्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें हर व्यक्ति को अपनी कहने और असहमत होने का अधिकार है । असहमति और विरोध की आवाज को बंद क मूल रूप से एक फासीवादी प्रवृत्ति है, जो हमारे लोकतान्त्रिक विश्वासों पर कुठाराघात अष्टाचार आज देश के लिए कोड़ बन गया है ।
इस कोड़ के चलते देश के विकास की सम्भाव गल-गलकर समाप्त हो रही हैं ओं जनता की तमाम आकांक्षाएँ भ्रष्टाचार की आग में जl स्वाहा हो रही हैं । विकास के नाम पर लूट जारी है, भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाली सर इतनी संक्रामक साबित हुई कि इससे कोई भी दल अछूता नहीं रह पाया ।
भ्रष्टाचार का बोला इतना कभी नहीं रहा कि भारत, आज स्कैंडलों का देश कहा जाने लगा है । वस्तुत: आर्थिक नीतियां और भ्रष्टाचार एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं । राजनीति का अपराधी हो गया है । अत: भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना विकासशील देशों के लिए न केवल जरूर बल्कि अपरिहार्य भी, वरना भ्रष्टाचार का दीमक विकास को चाट जाएगा और वह महज ख्याली पुलाव बन कर रह जायेगा ।
उपसंहार:
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि आज देश को भ्रष्टाचार खोखला बना रहा है । जिसके कारण देश उन्नति की बजाय अवनति की ओर अग्रसर हो रहा है । भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए हम सभी को मिलकर राष्ट्रीय मुहिम चलानी होगी ।
राजनीतिज्ञों अथवा राजनेताओं की कथनी और करनी के जमीन-आसमान वाले अन्तर सदियों से जग जाहिर रहे हैं । पर भ्रष्टाचार के लुभावने और लाभकारी मुद्दे पर यह अन्तर नि झण्डे गाड़ रहा है । दिन-प्रतिदिन नये घोटालों और उनमें राजनेताओं तथा नौकरशाहों की भूमिका के पर्दाफाश होने के चलते भ्रष्टाचार हटाने, भ्रष्टाचार मिटाने के संकल्पों में न सिर्फ दिन रात चौगुनी गति से इजाफा ही हुआ है बल्कि इनका ढिंढोरा भी नित नयी गर्मजोश ऊँचे, तीखे स्वरो में पीटा जा रहा है ।
पर काम दरअसल ठीक उल्टा हो रहा है । अर्थात् जहां बात भ्रष्टाचार मिटाओ की हो रही है वहाँ काम भ्रष्ट बचाओ का सर्वोपरि है । ”समाज में अत्याचार, राष्ट्र में भ्रष्टाचार और कुछ अपवादों को छोड़कर आश्रमों में दुर यह है कुल मिलाकर हमारे भारत और हम भारत के लोगों का चरित्र ।
ये ऐसी तीन चि जिनमें हमारे देश को जलाया जा रहा है, जिनकी राख में से गरीबी, भूख, बीमारी, चरित्र अविश्वास, परावलम्बन, कर्ज, आर्थिक गुलामी का पौधा पनपा है, जिसके कारण समाज और लोकजीवन में विघटन, परायापन और शत्रुता बढी है, जिनके कारण धर्म की पहचान और धूमिल ही नहीं हुई है, घटी भी है, हमारे लौकिक हित और पारलौकिक सुख-संकल्पना को लगा है, हमारे सम्बन्ध संदिग्ध और प्रदूषित हुए हैं, राष्ट्रीय अस्मिता का अहसास ढीला हुआ है, अस्तित्व खतरों से घिर गया है, हर मुह में एक ही प्रश्न है कि क्या होगा इस महान देश और राष्ट्र का कौन ठीक करेगा, कैसे ठीक होगा, देश और राष्ट्रर्जन का चरित्र मिटेगा यह अत्याचार, भ्रष्टाचार और दुराचार ?
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इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है सम्पूर्ण देश या भारत के हम सभी लोग भ्रष्ट और चरित्रहीन हो गए हैं ? क्या कुछ राज का भ्रष्टाचार और उनकी चरित्रहीनता ही हमारी और हमारे भारत की पहचान है या इस भिन्न भारत कुछ और है और यदि इस सबसे भिन्न भारत कुछ और है तो वह कहा अऐ रूप में पल और बढ रहा है ।
सभी देशवासियो के प्रश्न और मन समान होते दिखाई-सुनाई देने लगे हैं, इसलिए नहीं करनी चाहिए कि यह कीचड़ साफ होगा कि नहीं होगा, किन्तु यह विचार तो करना कि क्यों बढ रहा है हमारे लोकजीवन में अत्याचार, दूरी, दुराव और दुश्मनी हमारा राष्ट्र के दलदल मे क्यों धसा-फंसा और हमारे संतों के आश्रमों में दुराचार के पांव कैसे पसरे ? अपने देश और राष्ट्र के विषय में विचार करने की आधारभूमि है धर्म और सर और यज्ञ, सम्बन्ध और सम्बोधन । यह स्थिति भारत में पहली बार नहीं पैदा हुई है । के हजारों-लाखों वर्ष के इतिहास में इस प्रकार के चिन्ताजनक और गलीज अवसर सै आए हैं ।
जिस प्रकार उनका समाधान हुआ है, उसी प्रकार इसका भी समाधान होगा । की समस्याओं का समाधान सत्ता, शासक, शासन और राजनीतिक परिवर्तनो में नहीं पलट कोख है लोकचेतना, उसके अगवा होते हैं लोकनायक, उसकी प्रेरणा के स्रोत होते हैं संत, ऋषि, त्यागी, तपस्वी, साधक, आराधक और मधुकरी करके भूख का शमन करने वाले वैदिक काल से लेकर आज तक पैदा हुई अनेक विकट परिस्थितियों को पार; को पतन के गर्त से निकालने का काम करने वालों की सूची बहुत बड़ी है ।
उदाहरा लोकजीवन को सुधारने वाले जिन लोगों का नाम इतिहास में दर्ज है उनमें यं आदिशंकराचार्य, दयानन्द सरस्वती आदि का संकेतवत् उल्लेख किया जा सकता है । प्रतिष्ठान और शासकों के अनाचार तथा भ्रष्टाचार को चुनौती देने वाले ज्ञात नामों चाणक्य, लोकमान्य तिलक, समस्त क्रांतिकारियों, महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्र की बहुत बडी माला है ।
भारत की पहचान शासकों से नहीं, संतों और शास्त्रों में आज भी है । ऊपर जिन कुछ नामों का उल्लेख किया गया है जब तक वे अपने परिवार से जुड़े और व्यवसाय में लगे रहे किसी ने उनकी ओर देखा तक नहीं, दिन सर्वस्व त्याग करके उन्होंने लंगोटी पहन ली, जिस दिन लोकजीवन को पूर्णत हो गए, बैरिस्टर मोहनदास करमचन्द गांधी जिस दिन घुटनों तक धोती पहन कर शरीर ढक कर निकले, उस दिन वह देशवासियों को महात्मावत् दिखाई दिए, सबर पर विराजमान हो गए ।
अपनी लोकमान्यता के कारण ही लोकमान्य तिलक मृतप्राय आन्दोलन को जेल से आकर उसे पुन: प्रारम्भ इसलिए कर पाए थे कि उनके हाथ और उनका मन कर्मयोगी था । इसलिए हमें यदि ऊपर के सभी प्रश्नों का उत्तर और समस्याओं का समाधान चाहिए तो हम पहले समाधान की विचार भूमि पर उतरें और फिर सोचे कि भ्रष्टाचार और दुराचार कैसे मिटे कि हमें पता चल सके कि गरीबी, भूख, बीमारी, अशिक्षा, गुलामी और इसी प्रकार कीं अन्य समस्याओं का समाधान क्या है और इनका समाधान कैसे होगा ।
हम यह नहीं कहते कि भारत को वैश्वीकरण की ओर नहीं बढना चाहिए और अपनी पुरानी आदतो तथा अलाभकारी हो चुकी बातों पर अड़े रहना चाहिए और न ही राज तथा नौकरशाही के निरंकुशतन्त्र को समाप्त नहीं करना चाहिए, न ही घाटे में पुराने पड़ चुके सार्वजनिक औद्योगिक उपक्रमों को जनता की गादे पसीने की कमाई का करके चलने दिया जाये, न ही सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को नोट छाप-छाप कर सब्सिडी देते रहें ।
आज हमारे देश में भ्रष्टाचार एवं भयानक अपराधों के जो सच्चे धारावाहिक दिनों सामने आ रहे हैं- उनके संदर्भ में यह शायद सर्वाधिक सटीक विचार माना जाएगा । वह समय आ गया है जब या तो भ्रष्ट अपराधों की समाप्ति के हर संभव माकूल उपाय या यह हमारे समस्त तत्रों के एक-एक कलपुर्जे को जकड़ कर हमें कहीं का नहीं किसी भी समाज के समुचित विकास की पहली शर्त ऐप्रतिबद्ध एव ईमानदार तत्र ।
इस दृष्टि से तो भ्रष्टाचार या अपराध से मुक्ति की अनिवार्यता हर क्षण बनी अपराध और राजनीति के गठजोड़ के चर्चे तो बहुत होते रहे हैं, लेकिन अपर मतलब सिर्फ हत्या, अपहरण, डकैती, गुंडागर्दी तथा बलात्कार जैसे अपराधों से ही है ।
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लेकिन इन सारे अपराधों को मात करने वाले सफेदपोश अपराध जिसका खुलासा वर्षो से बहुत ज्यादा हो रहा है, अभी भी उतना महत्व नहीं पा रहा जितने का वह जिसे बहुत दिनों से हम ‘भ्रष्टाचार’ शब्द से जानते हैं, वह वास्तव में अब पूरी तर में अपने अर्थ को समाया हुआ नहीं पाता ।
आर्थिक अपराध ही सही शब्द हो कर आर्थिक अपराध यानी भ्रष्टाचार का इतिहास बहुत पुराना है । प्रशासन में व्या प्रत्येक युग का सत्य रहा है । एक यूनानी दार्शनिक का यह कथन कि सत्ता भ्रष्ट बनती है तथा अतिशय सत्ता अतिशय रूप से भ्रष्ट कर देती है ।
लोकतंत्र का जन्म भ्रष्टाचार के आंदोलन के रूप में ही हुआ होगा । प्रशासन के भ्रष्टाचार तथा मनमानी पर रोक ही तंत्र पर लोक के नियंत्रण की बात दिमाग में आई होगी । तंत्र में भ्रष्ट होने की रहती है, इसीलिए उसे लोक के अधीन किया गया, लेकिन आज भारतीय लोकतंत्र यह है कि इसका लोकतंत्र आज भ्रष्टाचार से इस कदर घिर गया है, कि कुछ नि कहने लगे हैं कि लोकतंत्र तो भ्रष्टतंत्र होता ही है ।
जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का दर्शन भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए भी था । किन्तु उनके बाद ऐसा नहीं हुआ । भ्रष्टाचार आज भारतीय समाज के लिए एक अभिशाप बन गया है तथा यह के लिए अत्यन्त खतरनाक सिद्ध हो सकता है । मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कोई भी दूध का धुला नहीं ।
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हर कोई इस डर से भयक्रान्त है कि आज अगर पकड़ा जाए तो कल हमारा नम्बर भी आ सकता है और इसी एक भय ने दलगत व्यक्तिगत सी कम से कम भ्रष्टाचार विशेषकर भ्रष्टाचारी को बचाने के लिए मुद्दे पर सभी को एकजुट कर दिया है । चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत वैसे भी पुरानी है ।
जब-जब भ्रष्टाचार से मुकाबला करने की बात आई है, लोग अपने-आसपास एक की कल्पना करने लगते है कि वे अपने कामों के लिए जिस विभाग में भी जा रहे हैं, किसी रिश्वत के काम हो रहा है और पूरी प्रशासनिक व्यवस्था जनपक्षीय हो गई है बात को आगे बढाए उसके पहले, व्यावहारिक होकर जनता की उन समंस्याओं से – पड़ेगा जिसे लोग रोज झेलते हैं ।
आम आदमी मुख्यत: भोजन, वस्त्र, आवास और शिक्षा के साथ-साथ स्वास्थ्य की सुविधा चाहता है । आज भी हमारे सविधान में अनेक ऐसी बाते हैं जिनसे जनता सीधे जुड़ी है और अगर संविधान प्राप्त अधिकार ही जनता को दिला दिये जायें तो देश में क्रान्ति हो जाएगी, पर ऐसा नहीं हो पाता ।
आजादी के लगभग 50 वर्षों में पहली बार विगत कुछ समय पूर्व देश के सर्वोज् जनहित याचिका पर कुछ ऐसे फैसले सुनाए कि लोगों को अचानक ही यह लगा कि कानून की नजर में कोई छोटा बडा नहीं है । पहली बार लोगो ने यह मान चाहे किसी भी सत्तारूढ सरकार के विरुद्ध भी भ्रष्टाचार का मामला तैयार और दर्ज़ कर सकती हैं ।
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पर क्या सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका का रोल अदा कर सकता है ? शायद ने जनता के हित के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए, पर जनता के बीच वे कार्यक्रम कथ आपको थाने मे रपट लिखानी है तो रपट तब तक नहीं लिखी जाएगी, जब तब नहीं देगे ।
सभी विभागों की यही हालत है । आपका फोन खराब हे, आप लाइनमैन कोण खुस करिए ठीक होगा । पर अगर आपने यह बताया कि फोन ठीक करना उसकी ‘ड्यूटी है’ तरह के बहाने लगाकर फोन और भी खराब कर देगा ।
आपको अस्पताल में दिखलाना हो तो बिना पैसे खर्च किए आपको दवा नर्ह कभी कोई आपरेशन करना हो तो बावजूद सारी सरकारी सुविधा के, सारा खर्च आर पड़ेगा-अगर आप ऐसा नहीं करते तो आपको हेय दृष्टि से देखते हुए डॉक्टर करेगा कि आप अपने आपको कोसेने कि आप बेकार ही अस्पताल में आ गए राशन कार्ड बनाने, राशन लेने, घर में बिजली-पानी की सरकारी व्यवस्था भी या तो आप किसी ऊचे अधिकारी से बार-बार फोन कराइए या फिर पैसे खज् ऐसा नहीं किया जाता तो आपका कोई काम नहीं हो सकता ।
कुल मिलाकर यह व्यवस्था जीने के लायक है ही नहीं क्योंकि सरकारी बि लेकर उच्चाधिकारी तक पैसे लूटने और अपना पेट भरने के सिवाये दूसरा को सकता । यह एक निराशाजनक स्थिति है और आम आदमी के मन में पूरी व्यवस का भाव पैदा करती है ।
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ऐसी स्थिति में, कोई चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता । अंत में भ्रष्टाचार से लडने की बात करना भी बेमानी है, यह जनता को धोखे में रखना है । अगर प्रधानमंत्री का दबाव अपने प्रधान सचिव पर हो और वह सभी विभागों के मुंख्म और उसके बाद के अधिकारियों के मन में यह डर पैदा करने में कामयाब हो जाता है नहीं होगा तो सीधा दंड आपको मिलेगा-तब शायद कुछ बात बने ।
फिर उस अधिकारी कको अपने नीचे, और नीचे, यानी किसी विभाग के क्लर्क और चपरासी तक के मन में डर पैदा करन पहली शर्त होनी चाहिए । एक समय महात्मा गांधी ने कहा था कि हर आदमी को दूसरे के बारे में संवेदनशील होने का स्वभाव रखना चाहिए लेकिन उनकी बात को ‘किताबी आदर्श’ मानकर न कारने की कोशिश की गई । बाद में दूसरी श्रेणी के नेताओं ने लोकशक्ति के संगठन की बात कही । साम ने इसे अपने खास-खास शब्दों में मार्क्स, लेनिन का नाम देकर सर्वहारा को संगठित व बात कही ।
मजदूरो के संगठन बने और आम जनता के संगठन नहीं बन सके । लोकश तो निर्माण हुआ नहीं लेकिन सरकारी कर्मचारियों के लिए संगठन बन गए और धीरे-धीरे संगठनो का मतलब हो गया कि वे जनता के बारे में सोचना बद करके केवल अपने के लिए सारी लडाई लड़ने लगे और आज वे प्राय: संगठन के नाम पर ‘दादागिरी’ करते अपने ऊपर के अधिकारियों को डराने का काम करते हैं । यह चरित्र बदलना होगा, चाहे चाहे प्यार से ।
थोड़ा और व्यापक होकर देखा जाए तो ये जो कर्मचारियों के सगठन हैं, उनका नेतृत्व किस स्वार्थ से जुड़ा है और वह किसका पक्षपोषण करता हे, यह देखना जरूरी है । ज्यादात किसी-न-किसी चालू राजनैतिक दल से जुडा है और उसके अपने स्वार्थ हैं ।
पिछले कुछ वर्षों में लगभग सारे राजनैतिक दलो मे असामाजिक तत्वों का जमावड़ा हो गया है, कुछ तो भयंकर हैं और वे राजनीति में आते भी हैं केवल अपने बचाव के लिए । ऐसी स्थिति में उनसे जुड़े संगठन कभी सवेदनशील हो ही नही सकते ।
उनके मन में दूसरी को डराने का भाव और अपने स्वार्थ की पूर्ति ही उनका लक्ष्य बन जाता है । वे जनता का काम कैसे कर वास्तव में भ्रष्टाचार मिटाना इतना आसान नहीं है । राजनीतिक परिदृश्य में देखा जाए तो भारत में राजनीति का एकमात्र उद्देश्य गददी और सत्ता का इस्तेमाल नाजायज तरीके से धन अर्जित करना हो गया है ।
इस राज दूसरा पहलू है बहुसंख्यक लोगों के लिए बढ़ती बेरोजगारी, दरिद्रता और अमानवीय जई की मजबूरी । सारी व्यवस्था मुट्ठी भर सम्पन्न लोगों, भ्रष्ट राजनेताओं और चोटी के नं की सुख-सुविधा के लिए बनी लगती है ।
सहज ही यह सवाल उठता है कि आम लोगों ३ लिए सुखी और स्वच्छ जीवन की जगह यह विकृत और वीभत्स जीवन-पद्धति कैसे विकसित हो गयी ? विडम्बना तो यह देश महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानता है जिन्होंने अत्यधिक उदात्त मूल्यों को मार में प्रस्थापित करने की कोशिश की ।
लेकिन विचार करने से ऐसा लगता है कि देश में ने जो दिशा ली है उसके लिए गांधीजी के वे निकटतम शिष्य भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपने को राजनीति से दूर रखा बल्कि ‘नैतिक’ और ‘राजनीतिक’ कार्यो को परस्पर वि के रूप में प्रस्तुत किया ।
विनोबा भावे अक्सर राजनीति को ‘परनिंदा, आत्म प्रशंसा और ‘मिथ्या प्रचार’ के रूप में परिभाषित करते थे । लेकिन गाधीजो का अपना जीवन शुरू से अंत तक राजनीतिक रहा । इस तथ्य का इस परिभाषा से कहीं मेल नहीं बैठता । शायद विनोबा भावे विशेष तरह की राजनीति की बात कर रहे थे ।
लेकिन सर्वोदय और उनसे जुडे लोगो मे राजनीति के प्रति निषेध भाव व्याप्त था जो देश के जनमानस को भी प्रभावित कर रहा राजनीति को गंदा करार देना, गंदी राजनीति करने वालो को एक प्रकार से दोषमुक्त क भी था क्योंकि अगर राजनीति ही गदी चीज है तो राजनेता दूसरा कर ही क्या सकता दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू में, जिन्हे गाँधीजी का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना रे था, नैतिक पक्ष गौण होता चला गया ।
इसका स्थान विकास की एक खास अवधारणा ने ले लिया जिसमे पश्चिमी ढग के ऐश्वर्य में जीवन की पूर्णता देखी जाने लगी । इस तरह गांधीजी के वरद के नीचे पले नेताओं ने ही देश को दो अलग-अलग धाराए दे दी । एक धारा आश्रमो और प्रतिष्ठानों कैद हो आध्यात्म की आराधना मे लगी, और दूसरी धारा तेजी से देश के और अगर यह में स्थिति में सभव न हो तो-थोडे से लोगों और खास कर अपने-अपने लिए, ऐश्वर्य बढाने में लग गयी । विनोबा जी के भूदान के बारे यह कहा जा सकता है कि यह एक व्यापक सामाजिक था ।
लेकिन यह भी सच है कि देश की पूरी आर्थिक समस्याओं और निहित स्वार्थो से समग्रता में टकराने की बजाय यह नीति उनसे कतराने की भी थी । ‘भूदान यज्ञ’ नाम सटीक था । हमारे यज्ञों की परंपरा में यह यज्ञ-कर्म भी जीवन-कर्म से अलग एक अलग धा बन कर कर रह गया । इसके भी कुछ मठ और मठाधीश बन गये जिन्हें देश को बनाने वाली राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था ।
जवाहरलाल नेहरू और उनके समकालीन नेताओं में प्रछन्न रूप से कुछ मूल्य-बे आदर्श भी थे क्योंकि राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई के काल में राजनीति एक मिशन था, गौरव की प्रतिष्ठा का । लेकिन समय के साथ सत्ता और सुविधा की राजनीति के दबाव; का क्षरण होता गया । यह मिशन का भाव विरोध की राजनीति करने वाली कम्युनिस्ट और से पार्टियों में, और एक विकृत रूप मे पुनरुत्थानवादी जमातों जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संस् गया ।
मिशन का भाव दोनो तरह की जमातों में था लेकिन गन्तव्य विपरीत दिशा में समाजवादी दृष्टिकोण वाले जातिगत एवं आर्थिक विषमताओं को मिटाने के लिए इनसे सं परम्पराओं से टकराने के लिए कटिबद्ध थे, वहीं एक खास वर्ग के लिए राष्ट्रीय गौरव था जाति एवं धर्म के प्रतिगामी अवशेषों को नये सजधज के साथ देश में प्रतिष्ठित करन विरोधीदलों में भी मिशन की ऊर्जा क्षीण होती गई ।
सत्ताधारी दल में मूल्यों की तेज गिर सत्ता को निजी सुविधा का साधन बनाने की प्रवृत्ति का प्रभाव विरोधी राजनीतिक जमा पड़ा । धीरे-धीरे राजनीतिक आचरण की गिरावट सभी दलों को ग्रसित करने लगी । सत्तारूढ़ दल ने समाजवाद का नारा अपना कर और जब जरूरत हुई, पुनरूत्थानवादियों-सा तेवर वैचारिक विभाजन की रेखा को भी धूमिल कर दिया ।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाजवादी काही जाने वाली व्यवस्थाओं की विकृतियों और समाजवाद को ठोस रूप में पुनर्परिभाषित करने की अक्षरता ने समाजवाद को एक खोखले नारे का रूप दे दिया । नारे सिर्फ वोट बटोरने के साध इससे झूठ और धोखाधड़ी राजनीति का आधार बनने लगा ।
यह झूठ कितना आधारभूत है इसका नमूना हमारा संविधान है । हमारा संविधान भारत को धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी जनतंत्र घोषित करता है । लेकिन यह समाजवादी जनतंत्र एक ऐसी अर्थनी।ते लेकर चल रहा है जो देश के विकाश को पूरी तरह देशी और विदेशी पूजीपतियों की मर्जी पर छोड देती है ।
जो भी थोडे बहुत सर्वोजनिक क्षेत्र थे उनका भी निजीकरण हो रहा है । लेकिन किसी को यह अंतर्विरोध दिखाई नहीं ओं प्रश्न यह नहीं है कि ये नई नीतियां गलत हैं या सही । सही प्रश्न यह है कि इस तरह झूठ के आधार पर खडी की गयी कोई सामाजिक-व्यवस्था राजनीति या समाज में फैले भ्रए पर रोक लगा सकती है क्या ? स्पष्ट है कि देश को वर्तमान दलदल से निकालने के लिए राज्य में कुछ मानको और नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा जरूरी है ।
इसके लिए व्यक्तिगत सामाजिक लक्ष्य दोनो में मूलभूत बदलाव की जरूरत है क्योकि दोनों एक-दूसरे से गहरेसे जुड़े हैं । कुछ वैसे लोगे जो पहले यह कहते थे कि राजनीति एक गंदी वस्तु है और इससे लोगों को दूर ही रहना चाहिए, ताजा घटनाओ से स्तव्य होकर अब यह कहने लगे हैं से बाहर अच्छे लोगो को राजनीति में आना चाहिए ।
क्योकि आज स्थिति यह हो गई है कि ही कोई ऐसा अपराध बचा हो जिसमें राजनेताओं की संलग्नता न पायी गई हो और शा कोई ऐसा बड़ा राजनेता बचा हो, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से किसी न किसी अपराध के सूत्र न जुड़ते हों । अपवाद है तो बहुत कम । बहुत कम राजनीतिक दल अपना दामन साफ बनारे की स्थिति मे हैं अन्यथा बडे-बडे राजनीतिक दलों के बडे-बडे नेताओं तक अपराध-कानून् चुका है या फिर पहुँचने की तैयारी कर रहा है ।
वस्तुत: राजनीतिक जीवन में जो भ्रष्टाचार दे रहा है वह सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार का ही मात्र सतह पर दिखायी देन बहुत छोटा सा हिस्सा है । यह हिमखंड का वह हिस्सा है जो नब्दे प्रतिशत जल के भीत है और दृष्टि से ओझल है ।
इसके ऊपरी हिस्से को तराश दिया जाये तो उतना ही हिस् ऊपर उमर आता है और अदृश्य हिस्सा जहां का तहां बना रहता है । राजनीतिक भ्रष्टा स्थिति भी कमोबेश यही है । अगर ऊपर से दस-बीस भ्रष्ट व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए ते अर्थ यह नहीं होता कि भ्रष्टाचार छंट गया है ।
तत्काल ही उन व्यक्तियों के स्थानापन्न हैं और उनका भी मूल चरित्र वही होता है जो छांटे गये व्यक्तियों का रहा होता है । राजनीति ने इसे बखूबी सिद्ध किया है । वस्तुत: इस समय राजनीतिक भ्रष्टाचार व्यक्तिबद्ध व्यवस्थाबद्ध अधिक है ।
लोकतांत्रिक पद्धति का विकारा जिस विसंगत सामाजिक ढांचे में हुआ है, राजनीतिक उसकी अनिवार्य परिणति है । लोकतंत्र में चुनावी जीत सत्ता का प्रमुख अंग होती है, जीत के उपादान व्यावहारिक राजनीति में आदर्श नहीं होते ।
राजनेता अपनी जीत सुनिश्रि के लिए और विशेष तौर पर उस समाज में जो बेहद अशिक्षित हो, बेहद निर्धन हो, हर वह अपनाता है जो उसकी और उसकी टोली को अधिकाधिक मत दिला दे और, मत प्रपट करने की यह प्रतिक्रिया जीत के बाद सत्ता में बने रहने की प्रक्रिया, ये दोनों ही अधिकाधिक माग करती हैं ।
जाहिर है कि यह धन किसी न्याय या कानून-सम्मत तरीके से उपलब्ध पे जा सकता । जो साधन अपनाये जाते हैं वे सबके सब गैर-कानूनी होते हैं । गैर कानूनी ढंग से अर्जित धन पूरी राजनीतिक प्रणाली का सचालन करता है । जब सत्ता और राजनीति के संचालन में अवैध धन की व्याप्ति हो जाती है तो उसी में से राजनेता व्यक्तिगत तौर पर सिर्फ ‘अपने लिए’ भी धन खींचने लगते हैं ।
इसलिए अब जरूरत यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार को व्यक्ति से जोडकर नहीं, बल्कि विधान और व्यवस्था से जोड़कर देखा जाये कोई वास्तविक समाधान पाया जा सकता है । राजनेताओं के जेल जाने से कोई अधिक अंतर नहीं आएगा ।
भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए और समानता के लिए ज्यादा नागरिक संघर्ष हुआ है । हमारा स्वतंत्रता संघर्ष निश्चय ही महान था, लेकिन वह विदेशी शासकों के खिलाफ था । कुछ गैर ब्रिटिश भारत में सामंतों के खिलाफ संघर्ष हुआ । कश्मीर में शेख अदुल्ला ऐसे हई थे । डॉक्टर लोहिया अक्सर याद दिलाया करते थे कि भारतीय जनता ने कभी किसी देशी श् के खिलाफ विद्रोह नहीं किया ।
इससे समाज में लोकतांत्रिक परम्पराएं नहीं बनीं और न उ के खिलाफ स्वाभाविक राय पैदा हुई । 1960 और 1970 के दशक में जो जन संघर्ष हुए, दबाव में सार्वजनिक आचरण की कुछ अच्छी कसौटियां बनीं । लेकिन 1967,1977 और में विपक्षी नेतृत्व ने सत्ता में आकर जनता के साथ विश्वासघात किया । अब तो राजनीतिक द्वारा कोई जन संघर्ष भी नहीं है । यही कारण हे कि शासकों पर नैतिक होने का कोई वार दबाव नहीं है ।
अपराधी राजनीतिज्ञ के साथ कानूनी न्याय नहीं हो पाता । जनता उसे र सकती है या खारिद कर सकती है । इस प्रक्रिया में अनेक नेताओं का सफाया भी हुआ है । इससे राजनीति की कोई प्रक्रिया नहीं चली है । एक भ्रष्ट द्वारा खाली किये गये स्थान को के लिए दूसरा भ्रष्ट चला आता है, या किसी भ्रष्ट को इसलिए हटाने का चाव नहीं होता, उसका स्थान लेने के लिए जो आतुर होता है, वह और भी भ्रष्ट होता है ।
भ्रष्ट या अपराधी नेता के साथ न्याय के दो रास्ते हैं । एक, इस्तीफा और दूसरा, मुकदमा इस्तीफे का रास्ता भारत में लोकप्रिय नहीं हो सका, क्योंकि भारत के शासक वर्ग की नैतिब बहुत ही कमजोर है । मुकदमें के रास्ते पर नहीं चला गया, क्योंकि उसके निहित स्वार्थो में एकता है । लेकिन हर चीज की एक हद होती है ।
यह हद 1995 के आते-आते पूरी हे थी । राजनीतिक अपराध इतना बढ गया था कि अदालती कार्रवाई से बचा नहीं जा सका आखिर जीती मक्खियां कोई कब तक निगल सकता है ? अत: कई मुकदमे शुरू हुए हैं । में कुछ और मुकदमें शुरू हो सकते हैं ।
लेकिन 50 साल की वे परम्पराएं अभी भी बनी जिनके कारण वैदिकी हिंसा की तरह राजनीतिक अपराध को अपराध नहीं माना जाता और ऐसे लोग छुट्टा घूमते रहते हैं । लेकिन इसकी भी सीमा है । यदि भारत में कानून का राज कुछ भी बचा रहता है, तो इनमें से अनेक शीघ्र ही जेलों में होंगे ।
यदि ऐसा नहीं होता, तो कोई नहीं है कि भारतीय जेलों के दरवाजे न खोल दिये जाएं, ताकि बाकी अपराधी भी सुख सकें । वास्तव में इस तरह भ्रष्टाचार को एक विश्वव्यापी घटना या प्रवृत्ति के रूप में पेश भ्रष्टाचार की लड़ाई को कोई तीखे, तेज विरोधी तेवर नहीं दिये जाते हैं, बल्कि आम लोगों में एक ऐसा भ्रम-सा उत्पन्न कर दिया जाता है कि यह तो एक सहज मानवीय कमजोरी इससे कोई भी अछूता नहीं रह गया है ।
एक व्यवस्थागत, ढांचागत समस्या को मानवीय स्वभाव की नींव पर खड़े कर इस भ्रष्ट आचरण की स्वाभाविकता का कवज पहना दिया जाता है । व्यावसायिक लेन-देन के आधार पर बनाये गये सूचकांक कुछ इस तरह पेश किये जाते हैं मानो वे उस देश के सभी नागरिकों के व्यवहार, चरित्र और नैतिक मूल्यों को प्रकट करते हैं, उन पर लगे दागों को उभारते हैं ।
स्पष्टत: विदेशी कपनियों से होने वाले लेन-देन के सिलसिले में होने वाले भ्रष्टाचार को आम आदमी या सारे देश के नैतिक अधोपतन का सूचक मानना पूरी तरह से अनुचित जहां तक व्यावसायिक लेन-देनो का सवाल है तीसरी दुनिया के देशो में यह आम धारणा पश्चिम की बडी बहु उद्देशीय कपनियां इन सौदो में बहुत भारी मुनाफा बनाती हैं ।
दूसरे इन सौदों के बारे मे इन विभिन्न देशों की बहुउद्देशीय कंपनियों के बीच बहुत ज्यादा प्रतिर होती है और ये इन सौदो को हथियाने के लिए हर किस्म के हथकडे अपनाने से बाज आते हैं । इन देशो की सरकारें भी अपनी कंपनियों का सौदा दिलाने के लिए एडी-चोटी का राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर लगा देती है ।
इसी गलाकादू प्रतियोगिता के तहत ये कं तीसरी दुनिया के देशों के अधिकारियों को तरह-तरह के प्रलोभन देती हें । ऐसे गैर-कानून देन का दायरा कितना बढ जाता है इसका उदाहरण जापान और दक्षिण कोरिया के आपसी को सामान्य बनाने की प्रक्रिया के संदर्भ में देखा गया था ।
दक्षिण कोरिया चाहता था कि कोरिया के पुराने अत्याचारों और शोषण के मुआवजे के बतौर दक्षिण कोरिया को अच्छी राशि दे । इस राशि को कम कराने के लिये जापान ने दक्षिण कोरिया में कार्यरत अपनी के जरिये कोरिया के राजनेताओं को मोटी-मोटी रकमें दी और इस तरह दो स्वतंत्र दे बीच सम्बन्धो को रिश्वत द्वारा निर्धारित मुआवजे के आधार पर सामान्य बनाया गया ।
इन देशों में सरकार के शीर्षस्थ नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में पकड़ा गया हे, इटली की तरह ही । पर इन सब मामलों में रिश्वत देने वाली को कमोबेश बख्शा दिया गया । यह एक गंभीर बात है । व्यवसाय, निर्यात तथा उत्पादन वृद्धि के लिए रिश्वत देना इन देशों की ढाचागत विवशता बन गयी है, परन्तु जनता का ध्यान केवल राजनेताओं की करतूतों की ओर खींच है ।
जिस तरह से 5 से 10-12 प्रतिशत बेरोजगारी, लगातार कीमत वृद्धि, फर्मो के आकार में लगातार इजाफा आदि पूंजीवादी देशों के वर्तमान स्वरूप के ऐसे परिणाम मान लिये गये है बच निकलना सम्भव नहीं लगता है या माना जाता है, उसी तरह सत्ताधारियों की मुट् करके व्यावसायिक सौदे करना आम दस्तुर बन गया लगता है ।
भारत के कुछ हिस्सों में गैर-कानूनी भुगतानों को कहा ही ‘दस्तुरी’ जाता है । भ्रष्टाचार के हमारी व्यवस्था के रग-रग में फैले होने के खतरे इसके विश्वव्यापी प्र कम नहीं होते हैं । उलटे ऐसी स्थिति में यह गिरावट राष्ट्र की सुरक्षा और अस्तित्व के खतरा बन गयी है ।
न केवल सामरिक और कूटनीतिक मामलों मे विदेशी एजेंसियां पैरे इन बिकाऊ राजनेताओ को अपनी शर्तें मनवा सकती हैं, बल्कि देश की आर्थिक शक्ति और को भी व्यावसायिक लेन-देन की राष्ट्रहित विरोधी शर्तों द्वारा हानि पहुचा सकते हैं ।
खुली आर्थिक नीति, सीमा शुल्क मे लगातार कमी, विश्व व्यापार सगठन के समझौते पर रजामदी, विदेइश और शेयर बाजारो में निवेश की आजादी बढने के साथ-साथ हमारे यहा उच्चतम स्तर तक घोटालों और घूसखोरी की दुर्घटनाओ की बाढ़-सी आ गयी है ।
अब तो लगता है कि व्यक्तिगत स्तर पर ईमानदारी और नैतिकता का तो इन घपलो के भडाफाड पर काइ सवाल हा न प्रश्न ऐसे सदिग्ध चरित्र और व्यवहार के लोगो के ऊंचे और जिम्मेदार पदो पर बने का बना दिया जाए तो आपराधिक सांठ-गाठ तथा जालसाजी के मामले प्रकाश में आने के बाद क्या यह मामले को रफा-दफा करने का पर्याप्त आधार बन जाता है ? क्या क्रैक्सी तन और चुन की तरह कैद की हवा से ऐसे महानुभावों को वंचित रखना देश की नैतिक बिगाडने का सबब नहीं बनेगा ।
भ्रष्टाचार के विश्वव्यापी रूप से एक दूसरी बात भी उभरकर आती है । पता नहीं जगतीकरण (भूमंडलीकरण या विश्वव्यापीकरण) को बिना इसके मायने और मकसद की; किये इस तरह आख मूद कर स्वीकार कर लिया गया है ।
विज्ञान, उद्योगीकरण, अधुनातन आर्थिक सम्बंधी के आधार पर लोगों के आर्थिक-सामाजिक जीवन का सुदूर देशो के स आदि जगतीकरण के वे पहलू हैं जो आशिक रहे है कुछ देशों के कुछ तबके अपने बहुमु के द्वारा आपस में निकट सम्पर्क में आये हैं पर अधिकाश लोग तो अपने देश की सिमा में भी एक सीमित दायरे में घुट रहे हैं, इन जगतीकरण की प्रक्रिया की तमाम नियामतों से उनका खामियाजा भुगतते हुए ।
पर दो ऐसे मसले हैं जिनमें यह जगतीकरण की प्रा सीमा तक पहुंच चुकी है । ये दो पहलू हैं-पर्यावरण का प्रदूषण तथा भ्रष्टाचार द्वार सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन का प्रदूषण । इस तरह जगतीकरण की सकारात्मक पहलू तो सब लोगों तक लाभ पहुंचाने के दृष्टिकोण से नहीं पनप पाये, नकारात्मक पहलू भ्रष्टाचार तथा प्रदूषण महलों और झोपड़ियों के भेद को भुलाते हुए में अपनी दुंदुभि बजाते फैल गये हैं । यह जगतीकरण इस राजरोग की गम्भीरता की और इशारा करता है न कि इसकी व्यापकता के कारण इसको स्वीकार करने और सहने का कोई आधार बनता है ।
जैसा कि हमने उल्लेख किया था कई बार भ्रष्टाचार की मुख्य जिम्मेदारी राजनीति यहां तक जनतत्र और चुनावों पर डाल दी जाती है और आर्थिक व्यावसायिक क्षेत्र की और जिम्मेदारी को बिना किसी ओचित्य के नजरअंदाज कर दिया जाता है ।
भ्रष्टाचार का अंत कौन चाहता है ? निश्चित ही वे राजनीतिज्ञ तो कतई नहीं चाह की गाय को दुहकर ही अपनी कोठियाँ भर रहे है । वे बडे उद्योगपति या व्यापारी भी देश का साम्राज्य नहीं चाहते जो बेइमानी की ईटी के बल पर ही अपनी अलकापुरी का पाए हैं ।
वह पुलिस अधिकारी भी क्यों चाहेगा कि थाना बिकाऊ न रहे जो उसी को अपने बच्चो को विदेशों में भेज रहा है ? वे आइ.ए.एस. अधिकारी या दफ्तर बाबू भी के पेड़ का काटा जाना क्यों पसद करेंगे जो उसी के फल खा-खाकर अपनी आमा गुना अधिक कमा रहे है ?
ये सब लोग तो घोषित रूप से भ्रष्टाचार के पुजारी हैं, और इनसे यह उर्म्म जा सकती कि वे अपने आराध्य देव की तौहीन बर्दाश्त करेंगे । लेकिन जो इनमें नर्ह वे भी सभी चाहते हैं कि देश से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट जाए ? क्या आप चाहते हैं की देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए ?
आइए, जरा देखा जाए कि देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए तो हम और आप जैसों की क्या स्थिति होगी जो रोज भ्रष्टाचार को कोसते हैं लेकिन जब कभी मौका आता है तो उसका लाभ लेते हुए भी नहीं चूकते । आप लोग ट्रेन से अवश्य सफर करते होंगे ।
कई बार ऐसा भी होता होगा कि नहीं हुई लेकिन फिर भी निश्चित रहते होगे क्योकि पता है टिकट चेकर पैसे लेकर बर्थ दे देगा, यदि सारे टिकट चेकर ईमानदार हो गए और बारी के हिसाब से बर्थ देने लगे तो ?आपमें से काइयों के पास गैस के सिलेडर नहीं होंगे और गैस ब्लैक में लेते होगे डीलर या डिलिवरी मैन बिना गैस कनेक्यान के गैस सिलेंडर देना बंद कर दे तो ?
आपमें से कई लोग सरकारी या निजी सेवा में होंगे जहाँ बीमारी के लिए अट से मिलता है । इक्का-दुक्का कर्मचारी को छोड़कर बाकी सभी ऐसे अवकाश बीमार प्रमाणपत्र दिखाकर ही हासिल कर लेते हैं । यदि देश के सारे डॉक्टर ऐसे जाली साइत बंद कर दे तो ?
आपमें से कई लोगों के पास गाड़ी होगी । इस गाड़ी को चलाते हुए कई यातायात के नियम तोड़े होंगे । कभी बच गए होगे, कभी फँस गए होगे । जब पकड़े गए होंगे तो भी छूट गए होगे । यदि वह ट्रैफिक पुलिसवाला आपका चालान करने पर आमादा हो गया होता या गाड़ी ही जप्त कर ली होती तो ?
आपमे से कइयों के बच्चे डोनेशन देकर किसी नामी-गरामी स्कूल में भर्ती हुए होंगे । यदि सारे स्कूली में प्रतिभा के आधार पर दाखिला मिलना शुरू हो गया और आपका प्रवेश से वचित हो जाए तो ? ऐसे और भी सैकडों मौके होगे जब लोग अपनो सुविधा के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं और जाने-अनजाने प्रसन्न रहते हैं कि चलो, पैसे देकर काम तो हो जाता है हैं जिसके पास अभाव की किसी खास स्थिति को अपने अनुरूप ढालने के लिए होता है ।
यहाँ पर्याप्त का अर्थ समझ लिया जाए । फिर से ट्रेन की बर्थ का ही हैं । यदि आप ट्रेन की एक बर्थ के लिए पचास रुपए की रिश्वत दे सकते हैं के पीछे लगी कतार में खुशी-खुशी शामिल हो जाएँगे और बर्थ मिलने पर आराम स्ए लेकिन यदि कोई धनपति उस ट्रेन में चढा हो जो एक बर्थ के दो सौ रुपए तब हो जाए और जिस कारण से आप बर्थ पाने से वंचित हो जाएं तो भ्रष्टाचार उसी क्षण लिए देश की सबसे बड़ी समस्या बन जाएगा ।
आइए देखें कि ऐसा क्यों होता हो ऐसा इसलिए होता है कि यह समाज उसकी भैंस की नीति पर चल रहा है । यानी जिसकी ताकत, उसकी सुविधा कई तरह की है । इनमें सबसे बडी पैसे की ताकत है जो दुनिया की हर ची है ।
धनपतियो के पास इसकी इफरात है, इसलिए वे समाज के सबसे ताकतब और गुंडों के पास शारीरिक ताकत है जिससे वे किसी की रक्षा भी कर सकते इस ताकत का असर भी समाज मानता और जानता है । राजनीतिकों-प्रशासकों के पास निर्णय बल है ।
उनका कोई निर्णय किसी को आबाद तो किसी को बर्बाद कर सकता है । उनकी ताकत को भी लोहा माना जाता है । इसके अलावा प्रेस की भी ताकत है जो किसी को यश-अपयश दिला सकती है । ऊर्जा की ही तरह ये ताक़तें एक-दूसरे में बदल सकती है ।
एक धनबली धन की ताकत से बाहुबली, निर्णय बली और लांछन को को खरीद सकता है और इस तरह सारी ताकतें हासिल कर सकता है । इस ताकत के बल पर यह वर्ग सभी प्रकार की सेवाएँ-सुविधाएँ खरीद लेना चाहता है । खरीदता है ।
ये या अन्य ताकतवर वर्ग जानते हैं कि वे अपनी ताकत से किसी का फायदा या नुकसान कर सकते हैं । यह बात वे भी जानते हैं जो सुविधाएँ या सेवाएँ बाँटते हैं । चाहे वह किसी विभाग का मंत्री हो, किसी स्कूल का प्रिंसिपल, ट्रेन का टिकट चेकर या सरकारी कारिंदा ।
बल्कि एक ताकतवर खेमा दूसरे ताकतवर खेमे की ताकत का सम्मान करते हुए अपनी सेवाएँ को तैयार रहता है । बस, यही पर पैदा होता है भ्रष्टाचार जो धीरे-धीरे फैल जाता हर नुक्कड, हर घर, हर दफ्तर । पहले भी यह देश दो वर्गों में बँटा था । एक वह था जो राशन के चावल खाता था, वह जो बासमती चावल के बिना अघाता ही नहीं था ।
एक वह जो सरकारी आवास योजना में नाम लिखाकर अपने लिए एक फ्लैट का जुगाड़ करता था, दूसरा वह जो अपने लिए था । एक वह जो सरकारी दवाखाने में लाइन लगाकर अपने बच्चे का इलाज करवाता था,
वह जिसके लिए बड़े-बड़े निजी अस्पताल थे । एक वह जिसके बेटे सरकारी स्कूल में पढ़कर बड़े होते थे, दूसरा वह जिसके लिए दून स्कूल था ।
लेकिन फिर भी दोनो वर्ग जी रहे थे । जिसके पास ताकत थी, वह बेहतर सुविधाएं ले रहा था । जिसके पास ताकत नहीं थी, वह भी नेहरू ब्रांड समाजवाद के साये में मांस ले पा रहा था । परंतु बाघ और बकरी सिर्फ रामराज्य की कल्पना में ही साथ-साथ रह सकते थे । इस आजाद भारत में ताकतवर बाघ को अंतत: बकरी को खा ही जाना था और यही हुआ ।
बाघ ने पहले उन जानवरों को तो खाया ही जो उसके लिए थे और जिन पर दावा ही नहीं कर सकती थी । जैसे यदि कोई महंगे होटलों में रह रहा है तो कोई निम्नवर्गीय व्यक्ति क्या कर लेता ? कुछ नहीं । कोई यदि विमान या पहली श्रेणी में सफर करता (अब दूसरे) दर्जे में बिना आरक्षण के जा रहा यात्री उसकी किस्मत से ईर्ष्या क्या कर सकता था ? कुछ नहीं ।
कोई यदि छप्पन भोग खा रहा है तो एक जून खाने वाला व्यक्ति उसकी ओर आस भरी नजरों से देखने के अलावा क्या कर सकता था ? कुछ नहीं । उसने वाकई कुछ नहीं किया लेकिन उधर बाघ बहुत-कुछ करते हुए धीरे-धीरे क्षेत्र का दायरा बढाता गया और देखते-देखते बाघवृत्ति सारे समाज का कायदा बन गई ।
बाघ यानी ताकत । जिसके पास ताकत है, वह बाघ है । यदि आप बाघ हैं तो सारा जंगल बकरियाँ कहीं छुप-छुपाकर अपनी जान की खैर मनाएं । जंगल में बाघराज देखकर वे लोग जो बकरियों से जरा भी श्रेष्ठ अवस्था में हैं- हमारे-आपके जैसे लोग जिसके पास कम या ज्यादा इनमे से कोई भी ताकत है-वे भी पर उस ताकत का इस्तेमाल करते हैं ।
यदि पैसा है तो रिश्वत देकर बर्थ अपने नाम करा ली, यदि माँसपेशियाँ मजबूत हैं । तो आँखे दिखाकर जगह हथिया ली, यदि राजनीति करते हैं तो ठेका अपने नाम करवा लिया, यदि अखबार में है तो सरकारी मकान अलांट करा लिया ।
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ये वे लोग है जो अपनी बारी का इंतजार करने को तैयार नहीं, वे लोग जिनके पास किसी भी तरह की ताकत है, वे लोग जो येन-केन-प्रकारेण सारी सुविधाएँ बटोर लेना चाहते हैं, वे लोग जिनके लिए ईमानदारी या नैतिकता का कोई मतलब नहीं । ऐसे लोग कभी नहीं चाहेंगे कि का खात्मा हो ।
भ्रष्टाचार का खात्मा चाहेंगे वे लोग जो कतार में खड़े रहने को तैयार या अभिश लोग जिनके पास किसी भी तरह की ताकत नहीं, जिनके पास न धनबल है, न बाहुबल, बल, न लांछन बल-ऐसा कुछ भी नहीं है उनके पास जिससे वे किसी को फायदा य पहुंचा सकें ।
वे चाहते हैं कि भ्रष्टाचार न रहे लेकिन उसे खत्म करने या करवा सकने भी तो उनके पास नही । एक वोट की जो ताकत है जिसके जरिए यह राक्षस खत्म है, तो वह भी कुछ रुपयों या शराब की एक बोतल या किसी लुभावने नारे के हाथों ध्वस्त होकर भ्रष्टाचार को ही भेंट चढ जाती है ।
यानी जो भ्रष्टाचार का खात्मा कर सकते हैं, वे चाहते नहीं और जो चाहते हैं, वे कर नहीं सकते । आखिर भ्रष्टाचार का खात्मा हो भी तो कैसे ? मतदान सिर्फ व्यक्तियों के चुनाव के लिए नहीं, नीतियों के चुनाव के लिए भी तो यह है कि दल की नीतियों के आधार पर, बहुमत बनाते हैं । इसलिए समस्या का एका ऐसे दलों का गठन है जो नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध अच्छे लोगों को लेकर चलें ।
प्रतिबद्धता तभी आयेगी जब राजनीति का लक्ष्य व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति की उदात्त आदर्शो की उपलब्धि हो । लोग त्याग और बलिदान सदा धर्म, समुदाय, राष्ट्र या वर्ग जैसे अपने से ऊपर या किसी गहरे रूप से अनुभूत सत्य की प्रतिष्ठा के लिए करते रहे हैं । त्याग लाभ की लालसा परस्पर विरोधी हैं ।
इसलिए बड़े आदर्शो को लेकर चलते वाली पार्टियां ही सच्चे और त्यागी व्यक्तियों को आकर्षित कर सकती है । हमारी राजनीति की त्रासदी यह का सामूहिक और व्यक्तिगत दोनो ही लक्ष्य उपभोग की लालसा का उद्दीपन और आनावश्यक वस्तुओं की उपलब्धि बन गया है ।
ऐसी स्थिति में जो जहा है वहीं निजी लाभ के लिए अपने पद का दुरुपयोग कर रहा है तो इसमें अचरज की कोई बात नही । आधुनिक औद्योगिक उपभोक्ताओं मानको को लेकर चलने वाली सभी वस्थाओ में भी भ्रष्टाचार का यह तत्व वर्तमान में है ।
फिर भी जहाँ औद्योगिक विकास अपने चरम बिन्दु पर है वहा इस व्यवस्था की यात्रि कानून के उल्लघन पर एक हद तक रोक लगा देती है क्योकि ऐसे उल्लघन विशृंखलन का खतरा पैदा हो जाता है । पिछडी औद्योगिक व्यवस्था में जत् असंगठित है, यह बधन भी नहीं है ।
अगर यही स्थिति बनी रही तो बाद के वर्षो में देश पर विदेशो से निया का वर्चस्व कायम होगा । आज इस स्थिति से निकलने के लिए देश को गंभीर निर्णय लेना होगा । यह निर्णय राजनीति से पलायन का नहीं राजनीति को एक नया आधार देने का होगा ।
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राष्ट्रियता, समाजवाद, विकास, जाति और धर्म के लगभग सभी नारे सत्ता के लिए समर्थन जुटाने में इस्तेमाल किये जा चुके हैं । आम लोगों की हालत सुधारने की दृष्टि से इनका खोखलापन अब स्पष्ट हो चुका है । नयी राजनीति को ऐसी ठोस नीतियों पर आधारित करना होगा जिनकी व्यावहारिकता आम लोगों की जिंदगी में परिलक्षित हो सके ।
दल मतदाताओं के सामने जवाबदेह हो लिए निर्णयो और उनके पालन का अधिकार राज्य की छोटी इकाइयों को देना होगा । नीतियों को अमली बनाने के लिए बडी संख्या में ईमानदार लोगों को देश की गिरावट को बलिदान देकर रोकने का सकल्प लेकर राजनीति मे आना होगा ।
इस चुनौती को बगैर हमारा कोई भविष्य नहीं । हमारे परिवेश में कंप्यूटर, इटरनेट, पेजर आदि तो महज खिलौने है जिन पर फिदा देश का नाबालिग नेतृत्व रोजी-रोटी को तरसते लोगों को इनसे चमत्कृत करने का प्रयास कर रहा है । स्पष्टत: भारत में तेजी से फैल रहे भ्रष्टाचार के संक्रामक रोग पर लगाम लगाने के लिए जरूरत कमजोर और लचीले कानून की नहीं कठोर, निष्पक्ष कानून व्यवस्था की है ।
जरूरत कानून के समक्ष हर किसी को समान बनाने की है । विशेषाधिकारियो से लैस विशिष्ट प्रोग्रेस नहीं । भ्रष्ट अथवा दोषी को समुचित सजा देने अथवा दिलाने की है । उनके बच मार्ग सुगम बनाने अथवा उसे रक्षा कवच प्रदान करने की नहीं ।
शीर्षस्थ स्तरों पर बैठे से लेकर आम आदमी तक के हर अपराधी को उदाहरण बना अन्य लोगो के मन में डर बैठाने और गलत काम से पहले सौ बार सोचने को बाध्य करने की है । इसके अभाव में भारत को भ्रष्टाचार के गर्त में आकुंठ डूबने से कोई बचा नही सकेगा । नेताओं और दलों कानून व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की दिशा में प्रयत्नशील दिखायी देनी चाहिए ।