Here is an essay on ‘Geography’ in Hindi language.
Essay on Geography
Essay Contents:
- भूगोल का अर्थ
- भूगोल की परिभाषाएँ
- भूगोल की विचारधाराएँ
- भूगोल का लक्ष्य और उद्देश्य
- भूगोल के वातावरण एवं उनका उपयोग
- भूगोल को देन
Essay # 1. भूगोल का अर्थ:
अंग्रेजी भाषा में भूगोल का पर्यायवाची शब्द ‘ज्योग्राफी’ (Geography) है । ज्योग्राफी शब्द यूनानी भाषा के ‘जी’ (ge) तथा ग्राफो (grapho) शब्दों से मिलकर बना है । ‘जी’ का अर्थ है ‘पृथ्वी’ और ग्राफो’ का अर्थ है’ ‘वर्णन करना’ । इस प्रकार इसका शाब्दिक अर्थ-पृथ्वी का वर्णन करना है ।
भूगोल का परिवर्तनशील स्वरूप:
Geography शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ईरटास्थनीज (Eratosthenes) ने किया, तथा बताया कि भूगोल पृथ्वी के बसे हुये क्षेत्र (Inhabited Area) का अध्ययन करता है । यद्यपि भूगोल पृथ्वी का अध्ययन करता है, लेकिन इसकी विचारधारा में समय के साथ परिवर्तन होता रहा है । मानव के परिवर्तनशील चिन्तन ने इसको सदैव नया रूप देने का प्रयास किया है ।
भूगोल की वर्तमान परिभाषा एक लम्बे इतिहास की उपज है। इस विषय की विचारधारा चिरसम्मत काल से लेकर वर्तमान तक अनेक परिवर्तनों के दौर से होकर निकली है । इसको भी अन्य विषयों की भांति विभिन्न काली में निरन्तर विकसित स्वरूप, विकास की प्रवृत्ति एवं विविध चिन्तन से होकर गुजरना पड़ा है ।
इन चिन्तनों ने भूगोल की परिभाषा को निरन्तर परिवर्तनशील रूप दिया है, तथा कुछ लोगों के मस्तिष्क में उपजी इस विचारधारा को नकारा है कि भूगोल केवल स्थानों के नाम व वर्णन का विषय है । आज का भूगोल एक लम्बे समय से विकसित विचारधाराओं का समग्र रूप है ।
ADVERTISEMENTS:
भूगोल एक सजीव (Organic), सक्रिय (Active) और प्रगतिशील (Dynamic) विज्ञान है । यह आज एक अन्तर्विषयक (Inter-disciplinary) विषय है । इसका प्रमुख लक्ष्य पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों के परिवर्तनशील वातावरण में मानव समूहों के पारिस्थितिकी (Ecological) सम्बन्धों को समझना है, तथा प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के उपयोगों में समुचित सहायता द्वारा उन संसाधनों की उपयोगिता में वृद्धि करके मानव की सुख समृद्धि में प्रादेशिक व स्थानीय स्तर पर योजनाओं द्वारा समुचित योगदान देना है । अत: भूगोल की परिभाषा को निश्चित शब्दों में बांधना कठिन कार्य है । जैसा कि विद्धानों द्वारा समय-समय पर इस विषय को परिभाषित करते हुये दिए गये विचारों से उजागर होता है ।
Essay # 2. भूगोल की परिभाषाएँ:
चिरसम्मत काल के जिस महान् विद्वान ने भूगोल को परिभाषित किया उनमें स्ट्रेबो का नाम उल्लेखनीय है । उसने अपनी पुस्तक ज्योग्राफी में पृथ्वी के प्राकृतिक स्वरूप, अक्षर, ज्ञात एवं अज्ञात क्षेत्रों की उपस्थिति के बारे में बताया ।
1. स्ट्रेबो:
स्ट्रेबो ने बताया कि “भूगोल विभिन्न लक्षणों वाली पृथ्वी की विशेषताओं तथा थल व जल पर रहने वाले जीवों के बारे में परिचित कराता है” । इस प्रकार भूगोल पृथ्वी तथा उसके विभिन्न भागों की विशेषताओं तथा उन पर रहने वाले विभिन्न मानव समुदाय का अध्ययन करता है ।
2. टॉलमी:
“भूगोल वह उत्कृष्ट विज्ञान है, जो पृथ्वी की झलक स्वर्ग में देखता है” ।
3. मध्यकाल:
मध्यकाल में अरब भूगोलवेत्ताओं ने भूगोल की परिभाषाएँ अपनी यात्राओं, यूनानी, रोमन व भारतीय रचनाओं के आधार पर प्रस्तुत कीं । उनके द्वारा दिए गए विचारों के अनुसार “भूगोल पृथ्वी से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन है । इसमें पृथ्वी की सौरमण्डल में स्थिति, पृथ्वी का व्यास एवं परिधि का वर्णन किया जाता है ।”
ADVERTISEMENTS:
उन्होंने भूगोल को विभिन्न क्षेत्रों, स्थानों, प्राकृतिक भूदृश्यों के विवरण देने वाला विषय बताया । पुनर्जागरण काल (Renaissance Period) में भूगोल को नया रूप मिला । भौगोलिक यात्राएं एवं नये-नये क्षेत्रों की खोज, ने विषय के विवरणात्मक ज्ञान में वृद्धि की । जर्मन विद्वान वारेनियस (Varenius) ने (Geographic Generalis) नामक पुस्तक की रचना की, व भूगोल को परिभाषित किया ।
4. वारेनियस:
”भूगोल पृथ्वी के धरातल के अध्ययन पर ध्यान देने वाला विषय है । इसके अन्तर्गत जलवायु, धरातल, भू-आकृतियाँ, जल, वन, मरुस्थल, खनिज, पशु, और पृथ्वी पर बसे मानव का निरीक्षण एवं वर्णन होता है । इस प्रकार आरम्भ में भूगोल विषय का तात्पर्य स्थानों का वर्णन करने के साथ पृथ्वी तथा उस पर दिखाई देने वाली सभी बातों या तथ्यों का वर्णन करने से सम्बन्धित रहा । इन परिभाषाओं में भूगोल पृथ्वी के प्राकृतिक तथ्यों का वर्णन करने वाला विषय रहा । लेकिन वर्तमान में प्राकृतिक तथ्यों का वर्णन मानव परिप्रेक्ष्य के बिना अधूरा माना जाता है ।
आधुनिक युग का प्रारम्भिक काल:
ADVERTISEMENTS:
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से भूगोल की परिभाषा को नवीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिलना शुरू हुआ । इनमें पृथ्वी के साथ-साथ मानव को भी भूगोल के अध्ययन का केन्द्र माना जाने लगा । भूगोल के वर्तमान स्वरूप का विकास सर्वप्रथम जर्मनी में हुआ था ।
उसके पश्चात फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, रूस आदि देशों के विद्वानों ने भूगोल के वर्तमान स्वरूप के विकास में अपना योगदान दिया है । जर्मन भूगोलवेत्ताओं में काण्ड, हम्बोल्ट, रिटर, रिचथोफेन, रेटजेल, हैटनर आदि बड़े विख्यात विद्वान थे । उनमें से कुछ के द्वारा दी गई परिभाषाएं इस प्रकार हैं ।
5. भौगोलिक शब्द कोष:
“भूगोल पृथ्वी तल और पृथ्वी पर रहने वाले निवासियों का विज्ञान है” ।
ADVERTISEMENTS:
6. मौंकहाउस:
भूगोल पृथ्वी को मानव का घर मानते हुए, उसके तल पर पाई जाने वाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन करता है ।
7. काण्ट:
काण्ट ने भूगोल और खगोलकी (Astronomy) को दो भिन्न विज्ञान माना और बताया, कि “भूगोल वह विज्ञान है, जिसमें पृथ्वी का अध्ययन मानव का घर के रूप में मानकर किया जाता है ।”
ADVERTISEMENTS:
8. रिटर:
रिटर ने काण्ट की परिभाषा को स्पष्ट करते हुये बताया कि “भूगोल विज्ञान का एक महत्वपूर्ण विभाग है, जिसमें भूमण्डल के समस्त लक्षणों, घटनाओं और उनके सम्बन्धों का पृथ्वी को स्वतन्त्र रूप में मानते हुये वर्णन किया जाता है । इसकी समग्र एकता मानव व मानव को बनाने वाले से सम्बन्धित दिखायी देती हैं” ।
रिटर की परिभाषा को यूरोप में काफी प्रशंसा मिली, उसने भूगोल के तथ्यों को निम्न रूप से प्रकट किया:
(i) धरातलीय एकता प्रमुख एवं प्रधान तथ्य है ।
(ii) यह धरातलीय विशेषताओं तथा प्राकृतिक लक्षणों का वर्णन करता है ।
(iii) प्रदेश में प्राकृतिक लक्षणों का मानव लक्षणों से सम्बन्ध जोड़कर अध्ययन करता है ।
(iv) मानव व प्रकृति के बीच सम्बन्धों से विकसित दृश्यों का अध्ययन करता है ।
(v) वह पृथ्वी को मानव का घर मानता है ।
(vi) भूगोल एक आनुभविक विज्ञान है ।
9. रिचथोफेन:
रिचथोफेन के अनुसार “भूगोल में पृथ्वीतल के विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन उसकी समस्त विशेषताओं के अनुसार किया जाता है” ।
10. हम्बोल्ट:
हम्बोल्ट ने भूगोल में प्रत्यक्ष सर्वेक्षण पर जोर दिया । किसी क्षेत्र का अध्ययन, प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर किया जाना चाहिए । उसने अपनी भौगोलिक यात्राओं में अनेक कठिनाइयाँ उठाकर भी प्रत्यक्ष अध्ययन शोध एवं उस पर आधारित विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष को भौगोलिक अध्ययन का आधार माना । उसने बताया भूगोल प्रकृत्ति के अध्ययन से सम्बन्धित विषय है । अन्य सभी व्यवस्थित विज्ञान-प्राकृतिक एवं जैविक-पृथ्वी की घटनाओं से सम्बन्धित हैं ।
ऐसे विज्ञान पशु, पौधे, ठोस पदार्थ या जीवावशेष का व्यक्तिगत तौर पर उनकी बनावट एवं प्रक्रिया का अध्ययन करते हैं, जबकि भूगोल का सम्बन्ध उन सभी तथ्यों से है, जिसमें उपरोक्त तथ्य भी शामिल हैं, जो किसी क्षेत्र में एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं । यह इन सम्बन्धों का वर्णन करता है ।
उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि भूगोल प्रकृति का अध्ययन है । वह प्रकृति के विभिन्न तथ्यों से सम्बन्ध जोड़ते हुए उनका मानव पर प्रभाव का अध्ययन करता है । यह सभी तथ्य परस्पर सम्बन्धित है । इन सम्बन्धों की गहन रूप से व्याख्या भूगोल में की जाती है ।
11. वाइडल डी ला ब्लाश:
इस फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता ने भूगोल को परिभाषित करते हुए बताया ”भूगोल स्थानों का विज्ञान है, न कि मानव का ऐतिहासिक घटनाओं के प्रति इस विज्ञान की रुचि वहीं तक है, जहाँ तक कि इसका सम्बन्ध किसी देश में घटित घटनाओं से होता है । इसके अभाव में देशों के गुण और सम्भावितताएँ सुषप्त रहती हैं” ।
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि 19वीं शताब्दी के अंत तक विद्वानों ने भूगोल को पृथ्वी तथा उसके विभिन्न भागों की घटनाओं व विशेषताओं का अध्ययन व व्याख्या करने वाला विषय बताया । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लोगों के दृष्टिकोण से परिवर्तन आना शुरू हुआ ।
विद्वानों ने क्षेत्रों की विभिन्नता, अन्तर्सम्बन्ध व अन्तर्निर्भरता एवं मानव के भौतिक एवं सांस्कृतिक तथ्यों को अन्तर्सम्बन्धित एवं परस्पर व्यापी मानकर उनके एकीकृत प्रभाव के रूप में कार्य करने पर अधिक ध्यान दिया ।
इस दिशा में कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों को इस प्रकार रखा जा सकता है:
आधुनिक युग का उत्तरार्द्धकाल:
12. हेट्टनर:
1905 में हेट्टनर ने ”भूगोल को क्षेत्रीय विज्ञान की संज्ञा दी, तथा बताया कि यह पृथ्वी तल की विभिन्नताओं का परिचय कराता है” ।
13. रिचर्ड हार्टशोर्न:
रिचर्ड हार्टशोर्न ने 1959 में बताया कि भूगोल वह विषय है, जो पृथ्वी को मानव का घर मानते हुए, उस पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पाई जाने वाली विभिन्नताओं की विशेषताओं की व्याख्या एवं वर्णन करता है । भूगोल की परिभाषाओं में प्राकृतिक तत्वों के अध्ययन के साथ-साथ मानवीय तत्वों व मानव के प्रकृत्ति के साथ सम्बन्धों के वैज्ञानिक अध्ययन पर जोर दिया जाने लगा ।
14. बुल्डरिज तथा ईस्ट:
बुल्डरिज तथा ईस्ट ने 1951 में अपनी परिभाषा में इस बात की पृष्टि की तथा बताया कि ”भूगोल में भू-क्षेत्र तथा मानव का अध्ययन होता है ।”
इन विद्वानों ने अपनी परिभाषा में तीन बातों को प्रधानता दी है:
(i) पृथ्वी तल का वैज्ञानिक अध्ययन,
(ii) पृथ्वी तल की विभिन्नताओं के आधार पर पृथ्वी के विभिन्न प्राकृतिक विभाग, जिनमें मानवीय क्रियाओं की विभिन्नताएं भी सम्मिलित रहती हैं, और
(iii) तथ्यों के पारस्परिक सम्बन्ध ।
15. डडले स्टाम्प:
डडले स्टाम्प के अनुसार “भूगोल पृथ्वी को मानव का घर मानकर उसके भौतिक परिवेश एवं मानवीय प्रजाति का अध्ययन करता हैं” ।
एक अन्य स्थान पर उसने इन विचारों की व्याख्या करते हुए बताया कि “भूगोल पृथ्वी तल का, तथा उस पर रहने वाले निवासियों का वर्णन करता है, अर्थात् वह पृथ्वी और उस पर पाये जाने वाले जीवन अथवा मानवीय परिस्थितिकी का विज्ञान है, जो पृथ्वी तल पर पायी जाने वाली क्षेत्रीय विभिन्नताओं तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन करता है” ।
अत: स्पष्ट होता है कि भूगोल निम्न तीन बातों से सम्बन्धित है:
(i) भूगोल में पृथ्वी व उसके निवासियों का वर्णन होता है ।
(ii) भूगोल पृथ्वी तथा मानव पारिस्थितिकी का विज्ञान है ।
(iii) भूगोल में पृथ्वी तल का वर्णन क्षेत्रों की विभिन्नताओं और सम्बन्धों के प्रसंग में किया जाता है । इस प्रकार वर्तमान में भूगोल में सांस्कृतिक तथ्यों के विकास व उनके प्रतिरूप के ज्ञान पर बोर दिया जाने लगा ।
16. कार्ल सावर:
कार्ल सावर ने बताया कि “भूगोल क्षेत्रों का अध्ययन है । यह प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक विशिष्ट उपस्थिति को बताने के साथ-साथ उन क्षेत्रों में पाई जाने वाली विभिन्नताओं व समानताओं तथा अन्य तत्वों की पुनरावृत्ति का अध्ययन करता है” ।
17. एकरमैन:
इस परिभाषा से निष्कर्ष निकलता है कि “भूगोल स्थान विशेष का अध्ययन है” । इसमें स्थान विशेष का अध्ययन अकेले मानकर नहीं किया जाता, बल्कि एक स्थान की दूसरे स्थान से समानताओं व विभिन्नताओं को भौतिक एवं मानवीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है ।
18. ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं:
ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं द्वारा दी गई परिभाषा भी इस बात की पुष्टि करती है । उनके अनुसार ”भूगोल क्षेत्रों के सम्बन्धों एवं विभिन्नताओं के विशेष सन्दर्भ में दिया गया पृथ्वी के धरातल का वर्णन है” ।
19. भूगोल भूतल की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन है । अमरीकी भूगोलवेत्ताओं के अनुसार यह विभिन्नताएं भूतल पर पाये जाने वाले प्रमुख तत्वों जैसे धरातल, जलवायु, मिट्टी, जनसंख्या, भूमि का उपयोग कृषि, उद्योग, बस्तियों आदि के कारण होती हैं । इन सभी तत्वों से बनने वाली जटिलताओं व अन्तर्सम्बन्धों से बनने वाली विभिन्नताओं का अध्ययन भूगोल विषय का अंग है ।
20. अमरीका के प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एकरमैन:
एकरमैन ने 1958 में भूगोल के दर्शन का स्पष्टीकरण करते हुये भूगोल की निम्न परिभाषा दी है- ”भूगोल वह विज्ञान है, जो पृथ्वी तल पर समस्त मानव जाति और उसके प्राकृतिक वातावरण की पारस्परिक क्रियाशील विस्तृत प्रणाली का अध्ययन करता है ।”
21. ल्यूकरमैन:
ल्यूकरमैन के अनुसार- “भूगोल क्षेत्र के तथ्यों की जानकारी देता है । यह विश्व का ज्ञान प्रदान करने वाला विषय है” ।
22. ब्रोऐक:
ब्रोऐक नामक अमरीकी भूगोलवेत्ता ने भूगोल के सिद्धान्त पर अनेक लेख लिखे हैं और बताया है कि “भूगोल मानवीय संसार के रूप में पृथ्वी तल की विभिन्नता का क्रमबद्ध ज्ञान कराता हैं” ।
उन्होंने भूगोल के अध्ययन में दो तथ्यों को सर्वप्रमुखता दी है:
(i) पृथ्वीतल के क्षेत्र की विभिन्नता,
(ii) पृथ्वी तल का मानवीय संसार के रूप में अध्ययन ।
23. टाफ़्फ़ी:
टाफ़्फ़ी नामक अमरीकी विद्वान ने भूगोल विषय की परिभाषा को एक कदम आगे बकते हुये बताया कि ”भूगोल पृथ्वी तल पर स्थानिक संगठन (Spatial Organization) की प्रक्रिया एवं प्रारूपों का अध्ययन है।” उसके अनुसार स्थानिक संगठन का समसामयिक अध्ययन किया जाता है । इसे प्रक्रिया व प्रारूपों द्वारा समझा जाता है ।
24. फील्डिंग:
टाफ़्फ़ी की बात को फील्डिंग ने अपने शब्दों में रखते हुये कहा है कि “भूगोल पृथ्वी तल पर पाये जाने वाले सभी तत्वों की स्थिति एवं वितरण का अध्ययन करता है । यह उन प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करता है, जिन प्रतिक्रियाओं ने इन तत्वों के वितरण को प्रभावित किया हैं” ।
यह सभी तत्व समय-समय पर अपना प्रभाव एक दूसरे पर डालते रहते हैं, तथा विभिन्नताओं का सृजन करते रहते हैं । इसीलिए भूगोल को एक कालानुक्रमिक विज्ञान (Chronological Science) का नाम दिया गया है । यह एक प्रगतिशील विज्ञान है । समय के साथ उसकी विचारधारा व अध्ययन क्षेत्र में बराबर परिवर्तन होता रहा है यह प्राकृतिक या वातावरण विज्ञान के साथ-साथ सामाजिक विज्ञान भी है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह निष्कर्ष निकलता है, कि भूगोल एक अन्तर्विषयक विज्ञान है । यह भूतल का अध्ययन उसकी जटिलताओं को ध्यान में रखकर करता है । भूतल की विविधता व जटिलता ने मानव के साथ उसके सम्बन्धों को जटिल बना दिया है, और उसमें अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएं आ गई हैं । समय के साथ इन अन्तर्सम्बन्धों में परिवर्तन हो रहे हैं ।
यह सम्बन्ध गतिशील, बहुस्तरीय व परस्पर व्यापी हैं । इनके कारण मानव स्वयं अपने परिवेश का निर्माण करके सांस्कृतिक भूदृश्य का व्यापक विस्तार कर रहा है । इसी वजह से भूगोल एक प्रगतिशील विज्ञान बन गया है। वह प्राकृतिक विज्ञान के साथ-साथ सामाजिक विज्ञान भी है, “पारस्परिक दृष्टि से भूगोल में भौतिक एवं मानवीय दोनों ही प्रक्रियाओं का साथ-साथ अध्ययन किया जाता है” ।
इस प्रकार भूगोल विषय निम्न सारभूत बातों से सम्बन्धित है:
भूगोल विषय की परिभाषाओं से प्राप्त तथ्य:
i. भूगोल पृथ्वी तल का अध्ययन है । पृथ्वी तल से तात्पर्य समस्त महाद्वीप, महासागर, उनकी धरातलीय विशेषताएँ, निर्माण व शैल परत, वायुमण्डल, पृथ्वी के ग्रहीय सम्बन्ध आदि बातों से है । इन सब बातों का प्रभाव पृथ्वी पर उत्पन्न वनस्पति, जीव जन्तु तथा समस्त मानव समूह पर पड़ता है । इस प्रकार भूतल एक जटिल इकाई है ।
ii. भूगोल एक क्षेत्रीय विज्ञान (Chorological Science) के रूप में है ।
iii. भूतल पर सतत परिवर्तन होते रहते हैं, जिनके कारण विभिन्न स्थानों के लक्षणों में परिवर्तन होता रहता है । इन परिवर्तनों का भूगोल अध्ययन करता है । वास्तव में यह कालानुक्रमिक विज्ञान (Chronological Science) है ।
iv. भूतल की दृश्यभूमि में परिवर्तन के लिए प्रकृति के साथ-साथ मानव भी जिम्मेदार रहता है ।
v. भूगोल क्षेत्रीय विभिन्नताओं (Areal Differentiations) के साथ-साथ विभिन्न तत्वों के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों का (Inter-Relations) का अध्ययन करता है । यह सभी तत्व अत्यन्त जटिल हैं तथा क्रियाशील, परिवर्तनशील एवं गतिशील भी हैं । यह बहुस्तरीय होने के साथ-साथ अन्तर्निर्भर होकर परस्पर व्यापी तथा अन्तःसम्बन्धित (Overlapping and Inter-Connected) भी हैं ।
vi. भूगोल में मानव को परिवेश निर्माण का सशक्त कारक माना जाता है । वह सांस्कृतिक दृश्यभूमि का प्रमुख निर्माणकर्ता है। वह प्रवृत्ति का उपादान होते हुये भी प्रकृति की भांति ही भूगोल का विशिष्ट अंग है। वह प्राकृतिक लक्षणों को स्वयं के सृजन द्वारा अधिक निकटता से उन्हें बांधकर एकीकृत करता है ।
vii. भूगोल क्षेत्र, प्रदेश या स्थानों का विस्तृत अध्ययन (Study of Regions) करता है । संक्षिप्त तौर से यह कहा जा सकता है कि भूगोल में पृथ्वी तल के विभिन्न क्षेत्रों की विविध विशेषताओं और सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन, मानव का संसार के रूप में किया जाता है । भूगोल का यह अध्ययन मानवीय समृद्धि के उद्देश्य से किया जाता है ।
Essay # 3. भूगोल की विचारधाराएँ:
जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तथा रूस के भूगोलवेत्ताओं ने भूगोल की जो परिभाषाएँ दी हैं, उनसे भूगोल से सम्बन्धित चार सिद्धान्तों का विकास हुआ है । इन चारों विचारधाराओं की शब्दावली भिन्न है, किन्तु उनका अर्थ लगभग समान ही है ।
भूगोल में (i) प्रादेशिक वातावरण (Environment), (ii) मानव वर्गों के पारिस्थितिक सम्बन्धों (Ecological Relationship), (iii) प्रदेशों के प्रारूपों (Regional Pattern), का और (iv) प्रदेशों की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं तथा उनके स्थानिक सम्बन्धों (Spatial Relations) का अध्ययन होता है ।
इन विचारधाराओं को उनके विकसित स्थानों के अनुसार इस प्रकार रखा जा सकता है:
1. जर्मनी में भूतल अध्ययन की विचारधारा (Lands haft School)
2. फ्रांस में मानव पारिस्थितिकी विचारधारा (Human Ecology School)
3. अमेरिका में अवस्थितिकी विचारधारा (Locational School) इसमें वातावरण अवगम (Environment Perception) तथा स्थानिक संगठन (Spatial Organization) सम्मिलित हैं ।
4. रूस में सम्मिश्र समाकल प्रदेश विचार धारा (Complex Integral Regional School)
इन चारों विचारधाराओं मै विभिन्न पक्षों को प्रधानता दिए जाने पर भी चारों का अभिप्राय एक ही है । वस्तुत: यह चारों परस्पर पूरक (Inter-Complementary) विचारधाराएँ हैं यह चारों परस्पर मिलकर भूगोल के पूर्ण स्वरूप को निर्धारित करते हैं । यह मिश्रित रूप ही भूगोल कहलाता है ।
रूसी विद्वान गेरासिमोव (Gerasimov) ने ठीक ही कहा है, कि भूगोल वह विज्ञान है, जो पृथ्वी तल के विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक और मानवीय तथ्यों की पारस्परिक क्रियाओं द्वारा निर्मित सम्मिश्र-समाकल प्रदेशों (Complex-Integral Regions) की व्याख्या करता है ।
पारिस्थितिकीय व स्थानिक सम्बन्ध परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । इससे भूगोल के अन्तर्गत दो प्रणालियों का अध्ययन मिलता है ।
I. पारिस्थितिकी प्रणाली:
(i) वातावरण और मानव परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते है ।
(ii) मानव वर्ग अपने वातावरण के अनुसार अपनी शारीरिक क्रियाओं का आवश्यक अनुकूलन (Adaptation) करता है, तथा अपनी आवश्यकता के अनुसार वातावरण में भी कुछ रूपान्तरण (Modification) करता है ।
(iii) वातावरण के तत्व और मानव वर्ग दोनों ही उस प्रदेश को प्रभावित करते हैं, अर्थात उस प्रदेश के भौतिक और सांस्कृतिक प्रारूप को निर्धारित करते हैं । इन सब विशेषताओं ने भूगोल को वातावरण और पारिस्थितिकी विज्ञान के रूप में पहचान दी है ।
II. स्थानिक प्रणाली:
एक प्रदेश को दूसरे प्रदेश से सम्बन्धित करने वाली प्रणाली है । एक प्रदेश का वातावरण व मानव वर्ग दूसरे प्रदेश के वातावरण व मानव वर्ग को प्रभावित करता है । सभी प्रदेश एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं । इस प्रकार विभिन्न प्रदेशों में परस्पर स्थानिक सम्बन्ध रहते हैं और अन्तर्प्रदेशीय प्रतिबल (Inter-Regional Stresses) क्रियाशील रहते हैं ।
Essay # 4. भूगोल का लक्ष्य और उद्देश्य:
भूगोल का प्रमुख उद्देश्य विश्व सम्बन्धी ज्ञान में वृद्धि करना है । वह पृथ्वी को मानव का घर मानकर उसके विभिन्न क्षेत्रों या स्थानों की विभिन्नताओं तथा अन्तर्सम्बन्धों को समझता है। मानव की समृद्धि हेतु वह प्रादेशिक संसाधनों के अध्ययन पर जोर देता है, उनका समुचित प्रयोग करने के लिए विभिन्न योजनाएँ बनाने में योगदान देता हैं ।
उसका वास्तविक उद्देश्य पृथ्वी पर विभिन्न देशों की प्रादेशिक विकास योजनाओं (Regional Development Plans) तथा राष्ट्रीय विकास योजनाओं (National Development Plans) को तैयार करने व क्रियान्वित करने में योगदान देना है । यह विषय भूमि और मानव के सम्बन्धों की सच्चाई को प्रकट करता है, तथा मानव समृद्धि के स्थानिक ढांचे को समझाता है ।
भूगोल में पृथ्वी तल के विभिन्न तथ्यों का अध्ययन तीन दृष्टिकोण से किया जाता है- (i) देश (Space), (ii) काल (Time), (iii) सम्बन्ध (Relations), इन तीनों बातों को दूसरे शब्दों में इस प्रकार रखा जा सकता है । भूगोल का उद्देश्य पृथ्वी तल के- (i) विभिन्न स्वरूपों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में, (ii) वातावरण और मानव वर्गों के पारस्परिक सम्बन्धों का तथा (iii) व्यवस्थाओं के विभिन्न वितरणों की विवेचना करना, और (iv) संसाधन विकास योजना में सहयोग देना है ।
मानव ने अपने प्रयासों से पृथ्वीतल के अनेक क्षेत्रों का रूपान्तरण कर दिया है। उसने अनेक क्षेत्रों को अपने रहने योग्य बनाया है। भूगोल का उद्देश्य इस रूपान्तरण का अध्ययन करना है । वह जैव व अजैव दृश्यों व घटनाओं का इसी दृष्टिकोण से अध्ययन करता है । वह पार्थिव एकता (Terrestrial Unity) को समझता व समझाता है । अत: हार्टशोर्न का कहना तर्कसंगत है कि भूगोल का उद्देश्य पृथ्वी को मानव की दुनिया मानकर वैज्ञानिक रीति से वर्णन करता है ।
भूगोलवेत्ताओं का उद्देश्य पृथ्वी तल के प्रदेशों को समझना अर्थात प्रदेश के पार्थिव घटना दृश्यों (Terrestrial Phenomena) से साहचर्य की प्रणालियों को समझना और समझाना है । डिकिन्सन (Dickinson) की इस बात को भूगोल में काफी महत्व दिया गया है ।
भूगोल के उद्देश्यों पर दिए गए कुछ विचारी को इस प्रकार रखा जा सकता है:
1. अमेरिका की भूगोल समिति ने अपनी एक रिपोर्ट 1965 में प्रकाशित की, जिसके अनुसार भूगोल का मुख्य उद्देश्य स्थानिक वितरणों (Spatial Distribution) तथा स्थानिक सम्बन्धों (Spatial Relations) के दृष्टिकोण से मानव-वातावरण की प्रणाली का अध्ययन करना है ।
2. अमरीका में व्यवहारिक तथा सामाजिक विज्ञानों पर एक सर्वेक्षण भूगोलवेत्ताओं की एक समिति द्वारा 1970 में किया गया, इसमें ई॰ जे॰ टाफ़्फ़ी (Taaffee) ने बताया कि भूगोल का उद्देश्य पृथ्वी तल पर प्रारूप (Pattern) और प्रक्रिया (Process) के आधार पर स्थानिक संगठन (Spatial Organization) का अध्ययन करना है ।
इसमें निम्न चार बातों का अध्ययन शामिल किया गया:
(i) क्षेत्रों का समाकालित अध्ययन (Integrated)
(ii) क्षेत्रों का समय के साथ होने वाले सभी परिवर्तनों का अध्ययन (Chronological Changes)
(iii) क्षेत्रों का सांस्कृतिक अवगम (Cultural Perception), तथा
(iv) क्षेत्रों के वातावरण की पारिस्थितिक व्याख्या (Ecological Interpretation)
3. चैपयेन (J.D. Chapman):
कनाडा के इस विद्वान ने 1967 में भौगोलिक अध्ययन के तीन पक्ष रखे- (i) स्थान (Place), (ii) देश (Space), (iii) काल (Time),
4. एकरमैन (E.A. Ackermann):
नामक अमरीकी भूगोलवेत्ता के अनुसार भूगोल के तीनों प्रमुख पक्षी को क्रमश: इन नामों से पुकारा जाना चाहिए-विस्तार (Extent), घनत्व (Density), अनुक्रम (Succession).
5. पी० हैग्गड (P. Haggett):
भूगोल में इन तीनों पहलुओं को ध्यान में रखकर भूतल के क्षेत्रों का संसारिक अध्ययन करना इसका उद्देश्य होता है ।
6. समकालित उद्देश्य (Integrated Aim):
भूगोल का उद्देश्य क्षेत्रों का विकास की समग्र योजना तैयार करना होता है । भूगोलवेत्ता विश्व के देशों, प्रदेशों और क्षेत्रों या स्थानों का अध्ययन करता है । वह इन स्थानों में विभिन्नता स्थापित करने के साथ-साथ उनको परस्पर जोड़ने का प्रयास करता है; उदाहरण के लिए वह किसी क्षेत्र या प्रदेश की धरातलीय दशा, संरचना, जलवायु, जल प्रवाह, मिट्टियां, वनस्पति, जीव जन्तु, खनिज पदार्थ, जनसंख्या आदि की जानकारी प्राप्त करता है, तथा वातावरण और मानव के सम्बन्धों, आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं और सांस्कृतिक भूदृश्य का अध्ययन करता है ।
इसके साथ-साथ उस प्रदेश के सभी स्थानों के पारस्परिक समाकलन (Mutual Adjustment) को समझता है । विभिन्न क्षेत्रों का तुलनात्मक विवेचन करता हैं, इन सब अध्ययनों का समाकालित उद्देश्य प्रादेशिक संगठन (Regional Organization) और प्रादेशिक योजना (Regional Plan) बनाने में योगदान देना होता है ।
वह इस कार्य के लिए निम्नलिखित प्रक्रियाएँ अपनाता है:
I. पारिस्थितिकी विश्लेषण:
इसके द्वारा किसी प्रदेश के वातावरण के तत्वों और मानव वर्ग के बीच जैविक सम्बन्धों, आर्थिक सम्बन्धों तथा सामाजिक, सांस्कृतिक सम्बन्धों को समझना और उनका मूल्यांकन करना होता है ।
II. स्थानिक विश्लेषण:
इसके द्वारा किसी प्रदेश या प्रदेशों की स्थिति सम्बन्धी भिन्नताओं (Locational Variations) को समझना होता है । इस अध्ययन में किसी प्रदेश या प्रदेशों में भौगोलिक तथ्यों के वितरणों की विशेषताओं और प्रतिरूप का मूल्यांकन किया जाता है ।
III. प्रादेशिक सम्मिश्र विश्लेषण:
इसके द्वारा क्षेत्रीय विभिन्नताओं (Areal Differentiations) की प्रादेशिक इकाईयों में पारिस्थितिक विश्लेषण और स्थानिक विश्लेषण दोनों का सम्मिश्र अध्ययन होता है । इस प्रकार प्रत्येक प्रदेश का समाकलित मूल्यांकन (Integrated Appraisal) हो जाता है ।
IV. प्रादेशिक संगठन और नियोजन:
इसके अन्तर्गत उपर्युक्त तीनों विश्लेषणों की सहायता से उस प्रदेश के भौतिक और सांस्कृतिक संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग करने के उद्देश्य से विकास की योजना बनाई जाती है । उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि भूगोल का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी तल के किसी क्षेत्र या प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों तथा मानवीय संसाधनों का अध्ययन करना तथा उनके विकास की योजना इस तरह से तैयार करना, जिसके क्रियान्वयन से उस क्षेत्र के मानव की प्रगति अधिक से अधिक हो सके, और वह समृद्धशाली बन सके । संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग (Optimum use of Resources) की व्यवस्था को प्रादेशिक संगठन कहते हैं ।
Essay # 5. भूगोल के वातावरण एवं उनका उपयोग:
i. प्राकृतिक वातावरण:
इसके अर्न्तगत किसी क्षेत्र की स्थिति (site), अवस्थिति (Location), भू-आकृति या स्थलाकृति (topography), जलप्रवाह, भूमिगत जल, जलवायु, मिट्टियाँ, खनिज सम्पत्ति, जीव जन्तु, जलमण्डल, वायुमण्डल सम्बन्धी प्राकृतिक तत्व शामिल है । इनका उपयोग करके ही उस प्रदेश या क्षेत्र के लोग अपनी आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक प्रगति करते है ।
प्राकृतिक वातावरण का कोई भी तत्व (Elements) उस समय तक संसाधन नहीं बनता, जब तक कि मानव द्वारा उस तत्व का प्रयोग मानवीय आवश्यकताओं को संतुष्ट करने व उसकी समृद्धि में सहायक न हो । संसाधनों के उपयोग में मुख्य कार्य मानवीय छांट (Choice), इच्छा शक्ति (Will Power) और सूझबूझ का है ।
ii. सांस्कृतिक वातावरण:
इसके अर्न्तगत उस क्षेत्र का प्रदेश की जनसंख्या, वितरण व घनत्व, पुरुष-महिला अनुपात, आयु संरचना, जनसंख्या वृद्धि की दर, जनसंख्या की व्यवसायिक संरचना आय स्तर, साक्षरता, जीवन संभाविता, जनांकिकी चक्र की अवस्था, भोजन में पोषक तत्वों की उपस्थिति, सामाजिक संगठन, जीवन-मूल्य, तकनीकी व वैज्ञानिक विकास, मानव बस्तियां, कृषि व उधोग धन्धों का विकास एवं वितरण, परिवहन, संचार, व्यापार आदि तत्व शामिल है ।
सांस्कृतिक वातावरण के यह सभी तत्व मानवीय संसाधनों की श्रेणी में आते हैं । इन संसाधनों के विकास द्वारा ही प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग संभव हो पाता है । यह तभी संभव है, जबकि किसी प्रदेश के मानव वर्ग उन्नति और समृद्धि के लिए इच्छुक तथा प्रयत्नशील हों, और उसकी योजना में क्रियाशील हों । इस प्रकार की उद्देश्य पूर्ति के विचार से, भूगोल एक व्यवहारिक विज्ञान (Applied Science) है । किसी प्रदेश के संसाधनों के अनुकूलतम (Optimum) उपयोग की योजना में सक्रिय भाग लेना व्यवहारिक पक्ष है ।
भूगोल के उद्देश्यों को संक्षिप्त रूप से पांच वर्गों में रखा जा सकता है:
(a) पृथ्वी तल का वर्णन करना:
इसमें पृथ्वी की वाह्य व आंतरिक संरचना चट्टानों की संरचना वायुमण्डल तथा पृथ्वी के अन्य ग्रहों तथा सूर्य से सम्बन्ध आदि शामिल है ।
(b) भौतिक और मानवीय तत्वों का वितरण का अध्ययन करना:
समय-समय पर इनमें होने वाले परिवर्तनों को भी ध्यान में रखा जाता है ।
(c) प्राकृतिक और मानवीय तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन करना ।
(d) विभिन्न प्रदेशों के समाकलित (Integrated) अध्ययन के साथ उनमें वातावरण की परिस्थितिक (Ecological) व्याख्या करना, और दूसरे प्रदेशों से उनकी तुलना करना तथा
(e) प्रादेशिक संगठन के लिए, प्रत्येक प्रदेश के संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग द्वारा, मानवीय उन्नति के लिए संसाधन मूल्यांकन (Resources Appraisal) और संसाधन उपयोग (Resources Utilization) की योजनाओं में भरसक योगदान देना है ।
Essay # 6. भूगोल को देन:
वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों, पुराणों में पृथ्वी तथा भारत के भूगोल पर अनेक विचार प्रस्तुत किए गए हैं ।
जिनको इस प्रकार रखा जा सकता है:
i. पृथ्वी एवं ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति:
ब्रहमा ब्रह्माण्ड के रचियता है, ऐसा वेदों का कहना है । उनको परम पुरुष का पदनाम दिया गया । उनके द्वारा रचित सृष्टि से पूर्व चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था उन्होंने ही विस्तृत ब्रह्माण्ड की रचना की है । इस ब्रह्माण्ड में चार पाद बताए गए हैं । विश्व उसका एक पाद है, जबकि अंतरिक्ष उसके तीन पाद के समान है । सूर्य, चन्द्रमा सभी नौ ग्रह, नक्षत्र, तारे, पृथ्वी की जड़ एवं चेतन वस्तुएँ सभी इस ब्रह्माण्ड का अंग हैं । इनमें पृथ्वी को सर्वश्रेष्ठ ग्रह माना गया है ।
वैदिक साहित्य में पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित एक अन्य परिकल्पना हिरण्यगर्भ से सम्बन्धित है । हिरण्यगर्भ (Golden Egg) एक स्वर्णिम आत्मा वाला एवं आद्य पदार्थों (Primordial Matter) से निर्मित स्थिर पदार्थ समूह था जिसमें अचानक ऐसी हलचल हुई, जिससे यह गतिशील बन गया ।
इसकी गतिशीलता से पृथ्वी व अन्य ग्रहों की रचना हुई । ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा या प्रजापति अथवा हिरण्यगर्भ या सुवर्ण अण्ड की उत्पत्ति हुई । यह प्रजापति ही सृष्टि के रचियता माने गए हैं व हिरण्यगर्भ रूपी या महान शक्तिमान का रूप माना है ।
भारतीय वेद सृष्टि के निर्माण के बारे में स्पष्ट विचार रखते हैं । वेदों के अनुसार अंतरिक्ष के प्रमुख ग्रहों की संख्या नौ है यह हैं-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु व केतु । वर्तमान में दसवें नये ग्रह का और पता चला है । पुराण के अनुसार भूमि से 8 लाख मील अर्थात् 1 लाख योजन की दूरी पर सौर मण्डल स्थित है । यह सभी ग्रह सौर मंडल बनाते है ।
ग्रहों के इस मंडल से एक लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षि मण्डल प्रकाशित होता है । इसके ऊपर एक लाख योजन की दुरी पर ध्रुव तारा स्थित है, जो स्थिर रूप से उत्तर दिशा की ओर रहता है । पुराणों में सभी ग्रहों का आकार अलग-अलग बताया गया है । सूर्य सबसे बड़ा है । इसका व्यास 9000 योजन माना गया है । यह बराबर चमकता रहता है ।
पृथ्वी का कोई न कोई भाग अवश्य प्रकाशमान रहता है । पृथ्वी का सूर्य के सामने वाला भाग दिन तथा पृष्ठ भाग रात्रि अनुभव कराता है वर्तमान में चन्द्रमा को पृथ्वी का उपग्रह माना गया है । विस्तार की दृष्टि से यह अन्य सभी ग्रहों से छोटा है ।
पृथ्वी की आकृति गोलाभीय (Spherical) बताई गई । ऋग्वेद में बताया गया कि पृथ्वी अंतरिक्ष में सूर्य की परिक्रमा करती है तथा चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है । सौर मण्डल के ग्रह व उपग्रह गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण अपनी निश्चित कक्षा में भ्रमण करते हैं ।
पृथ्वी और चन्द्रमा के परिक्रमण में जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच में आता है तो सूर्य ग्रहण और जब पृथ्वी चन्द्रमा और सूर्य के बीच आ जाती है, तो चन्द्रग्रहण होता है । पृथ्वी को भूमि मिट्टी, चट्टान व पत्थर से निर्मित माना गया ।
ii. पर्यावरण:
वेदों में पर्यावरण संरक्षण पर महत्व दिया गया । वायु जल, ध्वनि मिट्टी सभी पर्यावरण के अंग हैं । इनके साथ-साथ वनस्पति एवं पशु-पक्षी भी इसी का अंग हैं इन सबका संरक्षण किया जाना आवश्यक है । भारत के ऋषियों ने पर्यावरण के प्रति अपने चिन्तन को अनेक श्लोकों द्वारा व्यक्त किया है । उन्होंने मानव को पर्यावरण के प्रति उत्तरदायी ठहराया है ।
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iii. कृषि एवं सिंचाई:
हमारे वेदों व अर्थों में कृषि पर महत्वपूर्ण विचार दिए गए हैं । पृथ्वी पर पाई जाने वाली मिट्टी अनेक प्रकार के अनाज, पेड़, पौधे फसलें व औषधियाँ प्रदान करती है । मिट्टी पर हमारा जीवन निर्भर है । इसलिए पृथ्वी को माता समान माना गया है और मेघ को पिता, क्योंकि मेघ जलवृष्टि करते हैं तथा मिट्टी को उत्पादन योग्य बनाते है ।
कौन सी फसल किस मौसम में उत्पन्न की जा सकती है, किस फसल के लिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है । मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को कैसे बनाए रखा जा सकता है । इन सब बातों का उल्लेख हमारे पुराणों में मिलता है । विभिन्न फसलों के नाम का उल्लेख भी मिलता है ।
जैसे यव (जौं), ब्रीहि (धान), गोधूम (गेहूँ), मुदग (मूंग), माप (उड़द), इक्षु (ईख), बदर (बेर), आम्र (आम), कर्कन्डू (पीपल) आदि । नदियाँ, नहरें व जलाशय सिचाई के प्रमुख साधन थे । नदियों से दूर के क्षेत्रों में नदी से निकाली गई नहरों का उपयोग होता था । नदी से दूर स्थित क्षेत्रों में जलाशय से ही फसलों की सिंचाई की जाती थी ।
जलाशय दो प्रकार के होते थे- एक प्राकृतिक नालों को बांधकर और दूसरे कृत्रिम भूमि को खोदकर बनाए हुए । यह जलाशय वर्षा पर कृषि की निर्भरता कम करते थे । रामायण व महाभारत काल में सिंचाई के लिए जलाशयों का बड़ा महत्व था । कुँओं का भी प्रयोग किया जाता था । कृषि मानव की आजीविका का साधन थी, तथा मानव जीवन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण थी । अथर्ववेद में कृषि के बारे में विस्तार से बताया गया है ।
iv. खनिज:
इस समय सोना, चांदी, बहुमूल्य रत्नों का उल्लेख मिलता है । टिन, लोहा व ताँबा धातुओं का भी लोगों को ज्ञान था ।
v. चिकित्सा:
मानव की चिकित्सा वनों में प्राप्त होने वाली वनस्पतियों, फलों, पुष्पों, जड़ी बूटियों एवं कंदमूल द्वारा की जाती थी । हिमालय पर्वत जड़ी बूटियों के लिए विशेष रूप से पहचाना जाता था । वास्तव में पर्वत जड़ी बूटियों व बहुमूल्य औषधियों के भण्डार थे । जल को भी औषधि माना गया । गंगा जल इसका प्रमाण है ।
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vi. शिक्षा:
महाभारत काल में तक्षशिला शिक्षा का बडा केन्द्र था । यहां विश्वविद्यालय रमणीक स्थान पर स्थित था । यहां दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे और वेदों, शिल्पकला आदि का ज्ञान प्राप्त करते थे । पाणिनी एवं कौटिल्य ने यहां से शिक्षा प्राप्त की थी । नालन्दा मध्य गंगा मैदान का इसी स्तर का विश्वविद्यालय था ।
सामाजिक व्यवस्था व अन्य भौगोलिक दशायें:
रामायण के विभिन्न अध्यायों से अनेक महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारियां मिलती है । इसमें विभिन्न महाद्वीपों महासागरों । सागरों नदियों पर्वतों पठारों मैदानों व वन प्रदेशों का वर्णन मिलता है । महाभारत से भी तत्कालीन भौगोलिक दशाओं व मानव समाज की दशा का ज्ञान मिलता है ।
सामाजिक व्यवस्था, जाति वे वर्ण-व्यवसाय से प्रभावित थी । भारत में अधिकांश जनसंख्या नदियों के किनारे स्थित बस्तियों में निवास करती थीं । भारत के अधिकांश भाग वनाच्छदित होने के कारण जलविहीन थे, इनमें बर्बर व हिंसक जनजातियाँ निवास करती थी ।