Here is an essay on ‘Welfare Geography’ in Hindi language!
समकालीन मानव भूगोल में कल्याणपरक भूगोल का विचार 1970 के दशक में विकसित हुआ । यह असमानताओं का अध्ययन करने वाला विषय है । 1960-70 के दशक में जब विद्वानों ने यह देखा कि विकास की योजनाओं का लाभ समाज के सभी वर्गों को नहीं मिल रहा है तथा ऐसा दृष्टिकोण विकसित नहीं हो पा रहा है, जिससे समाज कल्याण की दिशा में यथार्थवादी चिन्तन को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है ।
डी॰एम॰ स्मिथ एवं पी॰एच॰ नोक्स (D.M. Smith & P.H. Knox) ने 1973 में एक लेख ‘The Geography of Social Well Being in the United States’ प्रस्तुत किया, जिसमें अमरीकी समाज के निर्देशन हेतु आन्दोलन पर विचार प्रकट किए गए, इसमें बताया गया कि राष्ट्रीय सकल उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय को जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life) मापने का आधार नहीं माना जा सकता ।
समाज में बढ़ता भेदभाव अर्थव्यवस्था का कहा केन्द्रीकरण तो कहीं विकीर्णन, रिहाइशी क्षेत्रों में बढ़ती असमानताएँ अर्थात निम्न व मध्यम वर्ग के मकानों व उनमें मिलने वाली सुविधाओं का अभाव, आदि समस्याओं पर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो कल्याण परक समाज की कल्पना निरीह साबित होगी । 1975 में नोक्स (Knox) ने बताया कि भूगोल ऐसा विषय है, जो जीवन की गुणवत्ता में सामाजिक एवं स्थानिक विभिन्नताओं की पहचान करना है ।
वह इसमें सुधार की योजना प्रस्तुत करता है, तथा उनका निर्देशन भी करता है । अत: भूगोल का दृष्टिकोण कल्याणपरक है, जिसको संगठित रूप से विकसित किया जाना आवश्यक है । भूगोलवेत्ता सामाजिक असमानताओं का खोजकर्ता एवं समन्वयक दोनों ही है । वह प्राप्त सूचनाओं के आधार पर न्यायसंगत समाजिक नियोजन की रूपरेखा तैयार करता है ।
पिछले तीस वर्षों में ऐसे अनेक अध्ययन देखने में आये हैं, जिनमें मानव जीवन से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर लोगों का ध्यान गया है । 1974 में हैरीज (Harries) ने न्यायपालिका का प्रशासन एवं अपराध दरों में स्थानिक विभिन्नताओं पर अध्ययन प्रस्तुत करते हुए बताया कि किस प्रकार पुलिस संगठन को सुदृढ़ किया जाए ताकि अपराध दर में गिरावट लायी जा सके ।
1974 में हो शेनोन एवं डेवर (Shenuon and Dever) ने स्वास्थ्य सुविधा के वितरण पर अध्ययन प्रस्तुत किया तथा बताया कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं का उन क्षेत्रों में विकास किया जाए, जहाँ इनके अभाव में रोगियों की संख्या अधिक मिलती है ।
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1971 में मोरेल (Morral) और वोहलेनवर्ग (Wohlanberg) ने अमेरिका में गरीबी की स्थानिक विभिन्नताओं पर प्रकाश डाला, तथा सुधार की सामाजिक नीतियों के बारे में बताया । 1971 में बन्ज (Bunge) ने डेट्राइट के नीरतों लोगों की बस्ती के नारकीय जीवन पर प्रकाश डाला और बताया कि यहां पर वातावरण मानव के रहने योग्य कैसे बनाया जा सकता है ।
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वहाँ के बचपन को किस प्रकार रोगों से मुक्त किया जा सकता है, 1973 में काक्स (Cox) ने अमेरिका के नगरीय क्षेत्रों में मिलने वाले जातीय तनाव व दंगों पर अपने विचार प्रस्तुत किए । उसने इनके कारणों पर प्रकाश डाला व प्रशासन को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया । 1977 में कोटस (Coates) ने कल्याणकारी योजनाओं में मिलने वाली भिन्नताओं के तीन कारण बताए:- श्रम का विभाजन, माल एवं सुविधाओं की उपलब्धता, एवं क्षेत्रीय भेदभाव युक्त नीतियाँ ।
उपरोक्त विषयक सकल्पनाओं द्वारा मानव भूगोल में मानव कल्याणपरक विषयों को शामिल करने की ओर ध्यान दिया जाने लगा । गरीबी, भुखमरी, जातीय भेदभाव, अपराध, चिकित्सा सुविधा, भेदभाव युक्त नीतियाँ, सामाजिक सुविधाओं का असंतुलित विकास आदि विषयों के अध्ययन की ओर भूगोलवेत्ताओं का ध्यान आकर्षित हुआ । यह सब विषय मानव जीवन की गुणवत्ता के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित है ।
कल्याणपरक दृष्टिकोण का पहलू यह है किसको कहाँ, कैसे जन सुविधाएं-मिलती है, भूगोल में इन सुविधाओं को कौन और कहाँ प्राप्त कर रहा है । प्रदेश के आर्थिक पोषण क्षमता व सामाजिक आवश्यकता को ध्यान में रखकर कल्याण सम्बन्धी योजनाओं का निर्माण किया जा सकता है । भूगोल का कल्याणपरक दृष्टिकोण सामाजिक असमानताओं एवं अन्य य के क्षेत्रीय वितरण की पहचान कराता है, तथा सामाजिक विकास की योजनाएं प्रस्तुत करता है ।
भूगोल ऐसे अध्ययन में वर्णनात्मक विधि का अनुसरण करता है इसके द्वारा सरलता से समाज कल्याण योजनाओं का मूल्यांकन किया जा सकता है । इन सामाजिक समस्याओं का अध्ययन यद्यपि अन्य विषयों द्वारा भी किया जाता है, लेकिन भूगोलविद् उसको क्षेत्रीय भौगोलिक विशेषताओं के साथ जोड़कर अध्ययन करते है । कल्याण परक कार्य शुद्ध मानवीय भावना से किए गए कार्य है । कल्याणपरक भूगोल मानव भूगोल को समय के संदर्भ में अधिक तर्कसंगत बनाने पर जोर देता है ।