प्राकृतिक आपदा प्रबंधन पर निबंध | Praakrtik Aapada Prabandhan Par Nibandh. Read this excellent Essay on Natural Disaster Management in Hindi.
प्राकृतिक आपदाओं में अपार जन-धन की हानि होती है तथा पर्यावरण असन्तुलित होता है । सभी प्रकार की आपदाओं में जोखिम होता है तथा उनसे बचने के लिए संसाधन एवं सूचना तंत्र की आवश्यकता होती है ।
किन्तु प्राकृतिक आपदाएँ ऐसी होती हैं जिनको रोका नहीं जा सकता । उनकी सघनता को कम किया जा सकता है । साथ ही उनके होने पर समायोजन आवश्यक होता है । समायोजन भी प्रबन्धन का अंग है । सम्पूर्ण आपदा समायोजना को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है ।
ये हैं:
(i) हानि के स्वरूप में परिवर्तन:
सर्वप्रथम आपदा के पश्चात् उससे शिकार हुए लोगों को सहायता पहुँचाना होता है । इसके लिए बीमा योजनाओं का प्रावधान आवश्यक है । इन योजनाओं से नुकसान की भरपाई की जा सकती है तथा आपदा के पश्चात् सरकार एवं गैर सरकारी सहायता भी हानि की पूर्ति करने में सहायक होती है ।
(ii) आपदा घटनाक्रम में परिवर्तन:
अधिकाँशत: आपदा की प्रकृति को सही रूप में पहचाना नहीं जाता । इसको उचित रूप में समझ कर प्रारम्भिक समय में ही दबाया जा सकता है जो पर्यावरण प्रौद्योगिकी नियन्त्रण से सम्भव है । इसी प्रकार आपदा सहनीय संरचनाओं का निर्माण भी हानि को कम कर सकता है जैसा कि जापान में भूकम्परोधी संरचनाओं के निर्माण द्वारा किया जाता है ।
(iii) मानवीय भेद्यता में परिवर्तन:
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समायोजन में मानवीय समायोजन सबसे अधिक आवश्यक है । इसके लिए सभी प्रकार के कदम उठाए जाएँ जिससे कि जो हानि हो उससे समायोजन हो सके । यह मानवीय व्यवहार में परिवर्तन के कार्यक्रमों से सम्भव है जिसमें पूर्वानुमान एवं चेतावनी व्यवस्था और दीर्घकालीन योजनाएँ भी सम्मिलित हैं ।
प्रबन्धन:
आपदा प्रबन्धन वर्तमान में एक विशिष्ट विषय के रूप में उभर कर आया है जिसमें आपदाओं के प्रबन्धन का वैज्ञानिक विवेचन तथा उनके सामाजिक-आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण किया जाता है ।
इससे सम्बन्धित दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं:
(i) आपदा से पूर्व का प्रबन्धन, और
(ii) आपदा के पश्चात् का प्रबन्धन
ये दोनों ही पक्ष समुचित प्रबन्धन के लिए आवश्यक हैं क्योंकि आपदा कभी भी, कहीं भी हो सकती है । इसके लिए उसके समस्त पक्षों को ध्यान में रखकर आपदा पूर्व की न केवल तैयारी की जाए, अपितु इसकी जानकारी भी जनमानस को दी जाए । इसी प्रकार आपदा के पश्चात् उससे हुई हानि का उचित प्रबन्धन होना चाहिए ।
इसमें पुनर्वास, चिकित्सा सहायता, खाद्य सहायता तथा अन्य आर्थिक सहायता के अतिरिक्त जो संरचना-सम्पति की हानि हुई है इसका जितना जल्दी पुनर्स्थापन होगा, वह ठीक होगा । आपदा प्रबन्धन के लिए जोखिम की पहचान, जोखिम को कम करना तथा जोखिम का स्थानान्तरण सम्मिलित हैं । जो क्षेत्र पर्यावरणीय आपदाओं से प्रभावित रहते हैं उनके लिए विशेष योजना तैयार करना आवश्यक है ।
उचित प्रबन्धन के लिए आवश्यक है:
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(i) आपदा सहनीयता
(ii) सामुदायिक तैयारी
(iii) पूर्वानुमान एवं चेतावनी
(iv) भू-उपयोग आयोजना
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(i) आपदा सहनीयता:
इसके अन्तर्गत इस प्रकार की संरचना को प्रचलित करना है जो आपदा को सहन कर सके । अनेक सार्वजनिक स्थल जैसे- बाँध, पुल, पाइप लाइन आदि को आपदा सहनीय बनाना आवश्यक है । यह कार्य कुशल इंजीनियरों द्वारा निरन्तर शोध से सम्भव है । इसी प्रकार के ढाँचागत सुधार उद्योगों, इमारतों एवं सामान्य आवास के लिए किये जाने चाहिएं क्योंकि आपदा से सर्वाधिक हानि इमारतों के गिरने से होती है ।
भूकम्प एवं तूफानों के लिए सहनीय ढाँचों का निर्माण होना आवश्यक है । भूकम्प सहनीय ढाँचों को बनाने के लिए भू-तकनीक इजीनियरों की मदद से वहाँ की चट्टानों, मृदा की बनावट के अनुरूप उपयुक्त तकनीक से इमारतों का निर्माण होना चाहिए ।
जो इमारतें कठोर चट्टानों पर बनी होती हैं वे मृदा आधारित इमारतों से अधिक सहनीय होती हैं । इसके लिए सूक्ष्म चट्टान में मृदा खण्ड मानचित्र तथा भूगर्भिक मानचित्रों को आधार बनाया जा सकता है । जापान द्वारा किए गए भूकम्परोधी ढाँचों के निर्माण का प्रयास इस दिशा में मार्गदर्शी हो सकता है । उन्हें सुरक्षित किया जा सकता है बाढ़ से बचाव के लिए दीवानें को मजबूत तथा बाढ़ सहनीय दरवाजे खिड़कियाँ आदि लगाकर उनकी क्षति कम की जा सकती है ।
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(ii) सामुदायिक तैयारी:
आपदा के घटित होने या उसके पश्चात् के प्रबन्धन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसके सम्बन्ध में जनचेतना । इसके लिए सामान्य नागरिकों को आपदा प्रबन्धन की शिक्षा देना और चेतना जाग्रत करना आवश्यक है । आपदा पूर्व प्रशिक्षण एक ऐसा कार्यक्रम है जिससे न केवल व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से आपदा सहनीय बनता है अपितु वह आपदा के समय स्वयं को और अन्य को बचा सकता है तथा सम्पत्ति की हानि को रोक सकता है ।
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इसके लिए ‘दीर्घकालीन सामुदायिक कार्यक्रम’ बनाना आवश्यक है । किसी भी आपदा प्रबन्ध योजना की सफलता के लिए जनभागीदारी अति आवश्यक है क्योंकि समस्या होने पर अधिकांश व्यक्ति उसे सहने की स्थिति में नहीं होते और डर तथा भयावहता को अधिक कर देते हैं । संचार माध्यम भी नियमित प्रसारणों से यह जागृति पैदा कर सकते हैं ।
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इस सम्बन्ध में जो कार्यक्रम किए जाए एवं शिक्षा दी जाए वह वैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त तथा प्रशिक्षितों द्वारा दी जानी चाहिए क्योंकि अधूरा ज्ञान इसमें हानिकारक हो सकता है । प्राथमिक चिकित्सा की जानकारी भी प्रत्येक व्यक्ति को होनी आवश्यक है ।
(iii) पूर्वानुमान एवं चेतावनी:
वर्तमान समय में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शोध के फलस्वरूप आपदाओं का अध्ययन-विश्लेषण किया जा रहा है । भूगर्भ विज्ञान, मौसम विज्ञान, जलवायु विज्ञान, समुद्र विज्ञान, दूर संवेदन आदि के माध्यम से अनेक आपदाओं का पूर्वानुमान किया जाने लगा है । इसी के साथ सूचना और संचार तन्त्र भी अत्यधिक विकसित होने के कारण दुनिया के किसी भी भाग में चेतावनी देना सम्भव हो गया है इस सम्बन्ध में अनुमान पूर्वानुमान और चेतावनी दी जाती है ।
अनुमान सामान्यतया सांख्यिकी अथवा अन्य घटनाक्रम के सिद्धान्त के आधार पर होता है जो पूर्व की घटनाओं के आधार पर होता है तथा यह औसत सम्भावनाओं को प्रकट करता है । जबकि पूर्वानुमान अनेक आँकडों, मानचित्र एवं अन्य सूचनाओं के विश्लेषण पर आधारित होता है जिसमें घटना के विभिन्न क्रमों को दृष्टिगत रखकर पर्यावरण आपदा के सम्बन्ध में अनुमान लगाया जाता है । इनका पूर्णतया नियमित संचालन होता है ।
जैसे- वर्षा, तूफान, बाद आदि के सम्बन्ध में उपग्रह चित्रों के साथ, कड़ी का विश्लेषण कर वैज्ञानिक पूर्वानुमान लगाते हैं । चेतावनी सन्देश होता है जो जनसाधारण को आपदा के सम्बन्ध में प्रसारित किया जाता है जिससे उससे होने वाली हानि को कम किया जा सके । सभी चेतावनियाँ अनुमान एवं पूर्वानुमान पर आधारित होती हैं ।
वर्तमान में पूर्वानुमान तन्त्र सुदृढ़ होने से ये अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं । चेतावनी तन्त्र की तीन अवस्थाएं-विश्लेषण-मूल्यांकन प्रसारण और प्रतिक्रिया होती हैं । अर्थात् पहले सम्पूर्ण तथ्यों का वैज्ञानिक एवं तकनीकी विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाता है, तत्पश्चात् उसको प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता है और अन्त में उस पर प्रतिक्रिया जो लोगों एवं सुरक्षा एजेन्सियों द्वार दी जाती है । चेतावनी से उस क्षेत्र को खाली किया जा सकता है जिससे जन हानि न्यूनतम हो जाती है ।
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(iv) भू-उपयोग आयोजना:
यह आपदा प्रबन्धन का एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसका सम्बन्ध प्रादेशिक एवं स्थानीय नियोजन से है । इसमें आपदा सम्भावित क्षेत्रों का निर्धारण भी सम्मिलित है । इन क्षेत्रों के लिए विशेष योजना बनाना तथा वहाँ इस प्रकार के व्यवसायों को प्रोत्साहित करना होता है जो आपदा से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हों ।
इसका उद्देश्य नए रिहायशी, व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों के विकास की योजना बनाने में सहायता करना है । ये क्षेत्र आपदा सम्भावित क्षेत्रों से दूर रखे जाते हैं । उचित भू-प्रबन्धन भी आपदा प्रबन्धन का एक महत्वपूर्ण अंग है ।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पर्यावरणीय आपदाएँ अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाक्रम का परिणाम होती हैं जिन्हें मानवीय क्रियाएँ और अधिक विनाशकारी बना देती हैं । विश्व का प्रत्येक क्षेत्र आपदाओं से कम या ज्यादा प्रभावित रहता है ।
अत: इस दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सहायता आवश्यक होती है । आपदाओं से जन-धन की हानि कम हो तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न हो इसके लिए आपदा प्रबन्धन के साथ जनभागीदारी और चेतना भी आवश्यक है तथा इसके साथ सूचना तंत्र को प्रभावी बनाना और एक देश का दूसरे देश को वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग देना आवश्यक है । पर्यावरणीय आपदाओं को रोकना कठिन है किन्तु उचित प्रबन्धन से उनके द्वारा होने वाली हानि को कम अवश्य किया जा सकता है ।