भारतीय पुलिस: बदलाव अब नहीं तो कब (निबन्ध) | Essay on Indian Police in Hindi!

प्रस्तावना:

सामान्यत: ‘पुलिस व्यवस्था’ से तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जिससे अपराधियों को सजा मिले और निर्दोष व्यक्तियों को न्याय मिल सके । किन्तु वर्तमान समय में पुलिस अपना उदात्त स्वरूप खो चुकी है । उसके पीछे अनेक कारण हैं । इसीलिए पुलिस प्रणाली में बदलाव की चर्चा थोड़े-थोड़े अन्तरालों पर लगातार होती रहती है ।

चिन्तनात्मक विकास:

आखिर भारतीय जनता की आकांक्षाओं और पुलिस की कारगुजारी में इतना अन्तर क्यों हो जाता है ? स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारी दो पीढ़ियां गुजर चुकी हैं लेकिन पुलिस अभी तक देश की आकांक्षाओं के अनुरूप अपने आपको नहीं दाल सकी है ।

इसके कई कारण हैं । जैसे; प्रथम, पुलिस को हरेक समाज में एक दण्डात्मक भूमिका भी तिभानी पडती है । उसकी यह भूमिका कई बार अतिरेकपूर्ण भी हो जाती है । द्वितीय, पुलिस की विकृत छवि का दूसरा सबसे प्रमुख कारण सामाजिक पहलू है ।

अगर समाज भ्रष्ट है तो पुलिस भी निश्चित रूप से भ्रष्ट होगी । अगर समाज में हिंसा व्याप्त है तो पुलिस भी हिंसक होगी और ऐसे समाज का उदाहरण आप सभी के समक्ष है । तृतीय, पुलिस का राजनीतिकरण हो गया है ।

अत: पुलिस अधिकारी अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों व राजनेताओं से अपने-अपने संबंध बढ़ाने लगे हें व राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त करने का प्रयास करने नगे हैं । अत: अब पुलिस प्रणाली की व्यापक जांच-पड़ताल होनी चाहिए और पुलिस जैसी है वैसी क्यों बनी है, इस सवाल पर गहराई से चिन्तन-मनन होना चाहिए ।

इस पर भी विचार होना चाहिए कि यथास्थिति बनाये रखने के क्या खतरे हैं और परिवर्तन क्यों जरूरी है ? और अगर जरूरी है तो उन्हें लागू कराने की प्रणाली क्या होगी ? यह सब अब अपरिहार्य प्रश्न हैं, जिनसे कतराने का वक्त समाप्त हो चुका है ।

उपसंहार:

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि आज देश की परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गई हैं कि वह समूचे समाज पर बुरा प्रभाव डाल रही है । ऐसे में हमारी पुलिस बजाय देश की व्यवस्था में सुधार करने के स्वयं भी भ्रष्ट होती जा रही है ।

अत: आज आवश्यकता सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था में सुधार की है । पुलिस अनुशासित और सरकारी शक्तियों से युक्त एक ऐसा सगठन है, जिसे समाज में व्यवस्था बनाये रखने का कर्तव्य और उसी अनुपात में अधिकार दिये गये हैं ।

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‘पुलिस’ शब्द की जो परिभाषा विभिन्न शब्दकोषो और व्याख्या संग्रहों से मिलती है, उसका सइधा और सपाट अर्थ यह है कि सत्ता जो कानून बनाती हैं उनका पालन और अनुपालन (शासकीय शब्दावली के अनुसार अनुपालन का अर्थ है कि किसी को पालन के लिए बाध्य किया जाये) कराने का दायित्व पुलिस बल का है ।

अपने देश मे कुल मिलाकर छह तरह की पुलिस है, जिसमें डंडाधारी पुलिस से सशस्त्र पुलिस तक और सेना की पुलिस से लेकर औद्योगिक पुलिस तक है । और तो और, भारत और तिबत की सीमा पर रखवाली के लिए कुल मिलाकर सेना का काम करने वाली भी एक पुलिस है ।

किसी भी समाज में, किसी भी शब्द के दो अर्थ होते हैं । एक व्याकरण और शब्दकोष वाला और दूसरा दुनियादारी वाला । दुनियादारी वाले अर्थों में भारतीय पुलिस बल वर्दीधारी अराजक तत्वों का एक ऐसा ‘संगठन’ है जिसे कुछ भी करने या कर गुजरने की आजादी मिली हुई है और चूंकि अपने देश की सत्ता और व्यवस्था मूलत: राजनीति से प्रेरित है, इसलिए उसे राजनीतिक हितों का, उतखिरकार संविधान विरोधी संगठन भी माना ही जाने लगा है ।

लेकिन एक बात है कि भारतीय पुलिस के पास जो दण्ड विधान है और उसे जिनकी रक्षा करके, संविधान और नागरिक शास्त्र को कायम रखना है, वह एकदम पुरातत्चकालीन नहीं तो कम से कम स्मारकों की श्रेणी में रखने योग्य अवश्य हो गये हैं ।

सन् 1861 में भारतीय पुलिस कानून और भारतीय दंड विधान बना था । यह तब की बात है जब मोटर गाड़ी का आविष्कार तो हो चुका था, लेकिन भारत में वायसराय या उसी तबके के लोगों से नीचे उसका इस्तेमाल नहीं होता था ।

जरूरी संदेश कहासे द्वारा पहुँचाये जाते थे क्योंकि वायरलेस प्रचलन में नहीं था और पुलिस के बड़े से बड़े अफसर घोड़ो पर चलते थे और चूंकि वे बहुत बड़े अफसर होते थे इसलिए उनके साथ अर्दली भी चलता था और चूंकि वह अर्दली होता था इसलिए पैदल चलता था ।

भारतीय पुलिस एक्ट पैदल चलने वाली पुलिस के लिए एक सौ चौबीस साल पहले बनाया गया था और आज जब पुलिस की भी दुनिया जिप्सी कारों, पेजरों, मोबाइल फोनों और वायरलैस सेटों से संपन्न हो चुकी है, कानून उसका अब भी सवा सौ साल पुराना है ।

दूर मत जाइए, दिल्ली तक के कई थानों मे अब भो रिपोर्ट उर्दू में लिखी जाती है और जब वह देवनागरी में लिखी जाती है तब भो उसमें उर्दू के तमाम अप्रचलित शब्द होते हैं जिनके अर्थ सिवा लिखने वाले के कोई ओर नहीं जानता ।

‘फर्द बरामदगी’ शब्द का अर्थ जो समझ पाये वह भारतीय पुलिस से पार पाने की सोच भी सकता है । लेकिन ‘रोजनामचा ए तफतीश’ में लिखी हुई ‘फर्द तहरीर’ समझ पाने वाले लोग कितने हैं और इस भाषा का तात्पर्य क्या है?

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ऐसा भी नहीं कि अंग्रेजों के भारत में आने के पहले मारत में पुलिस थी ही नहीं । मुगलो के जमाने में जंग की फौज और शहर की पुलिस में फर्क किया गया था और भारतीय पुलिस की स्थापना की गयी थी । रपट लिखने में उर्दू के उपयोग का रिवाज भी तभी से चला आ रहा है । ब्रिटिश राजकाल की परंपराओं की विरासत भी मुगलों से लगभग वैसे ही ली गयी थी जैसे हमने ब्रिटिश राजकाज के तौर तरीकों को धारण किया है ।

भारतीय दंड विधान के इतने पुराने होने और इसी नाते उसके अप्रासंगिक हो जाने पर सवाल कोई आज से नहीं हो रहे । गाँधीवादी, सात्विक विचारधारा वाले गुलजारी लाल नंदा के अनुसार देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार पुलिस अधिकारी इन विधानों की अपने तक ही व्याख्या करने और उनका वैसा ही ‘अनुपालन’ करवाने के लिए स्वतंत्र हैं तथा उनका पहला और अंतिम कर्तव्य यह है कि ‘किसी भी कीमत पर’ कानून और व्यवस्था कायम रहे ।

इसमें भारतीय पुलिस ‘किसी भी कीमत पर’ आदि का अक्षरश: पालन करती नजर आती है और ज्यादातर मामलों में यह कीमत हमें और आपको ही चुकानी होती है । भारतीय दंड विधान में तो लगातार संशोधन हुए हैं और कई धाराओं को सिरे से खत्म कर दिया गया है ।

जैसे सन् पिचहत्तर का मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट था जिसे उसके सक्षिप्त नाम मीसा से लोग ज्यादा जानते हैं । आपातकाल जब लगाया गया था, तब भी आतरिक सुरक्षा को खतरा बताया गया था, और, इसीलिए सारी राजनीतिक गिरफ्तारियां भी मीसा के तहत हुई थीं । मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में जब डाकू समस्या बहुत जोरों पर थी, तब आम दंड विधान बेचारा काम नहीं आया और उसमें दस्यु विरोधी कानून के नाम पर धारा 212 और 216 जोडनी पडी ।

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दस्यु विरोधी कानून दरअसल आज के आतंकवादी गतिविधि विरोधी कानून में भी ‘टाडा’ की भूमिका ही थी । उस कानून में भी ‘टाडा’ के तहत पुलिस अधिकारी के संतुष्ट हो जाने पर, कि आप अपराधी हैं, आप गिरफ्तार किये जा सकते थे और अघाको जमानत के लिए आवेदन देने का भी कोई अधिकार नहीं होता था । ‘टाडा’ अधिक कुख्यात इसलिए हुआ कि इसका इस्तेमाल बहुत बेरहम तरीके से, ‘सब धान बाईस पसेरी’ वाले अंदाज में किया गया और इसमें दोषियों से ज्यादा निर्दोष फंसे ।

सवाल किया जा सकता हे, बल्कि किया ही जाना चाहिए जब यह पता है कि अपराधियो और अपराधों की दुनिया इतनी जटिल और भयावह हो गयी है कि उससे निपटने के लिए एक सौ चौबीस साल पुराना कानून काम में नहीं लाया जा सकता और हर बार किसी नये कानून और दंड विधान संशोधन की जरूरत आ पड़ती है, तो पूरे दंड विधान और पुलिस कानून को बदलने या उसके ढाचे में आमूलचूल परिवर्तन करने पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता और यहां सन् 1861 के भारतीय पुलिस एक का पहला पैरा पढ़ना निहायत जरूरी हो जाता है ।

यह जरूरी हो गया हे कि पुलिस बल का पुनर्गठन करके इसे अपराधों पर रोक और अनुसंधान के लिए अधिक प्रभावी बनाया जाये । इसलिये इस कानून की रचना की गयी है । यह वह कानून है जिसमें ‘व्यक्ति’ का अर्थ कोई कंपनी और निगम भी हुाई सकता है । कोई कवि हृदय अलंकार प्रेमी कानून लेखक ही रहा होगा, जिसने संस्थाओं का सशरीर मानवीकरण कर दिया ।

भारतीय पुलिस, उसके कानून के अनुसार, भारत की संसद या राष्ट्रपति के प्रति नहीं किसी अदृश्य और अनुपस्थित गवर्नर जनरल के प्रति आज भी जवाबदेह है । इसी कानून में अदालतों को यह अधिकार भी दिया गया है कि किसी भी पुलिस अधिकारी को पदोन्नत कर दें, पदावनत कर दें, सजा दें या इनाम दे दें ।

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जाहिर है कि पुलिस अफसरों पर ज्यादा भरोसा किया जाना सन् 1861 में भी उचित नहीं था । मूल और आज भी प्रभावशील भारतीय पुलिस कानून के तहत, पुलिस का सबसे बड़ा अफसर पुलिस महानिरीक्षक होता है, जबकि असल में आज वह महानिदेशक होता है और वह भी हर पुलिस का अलग ।

महानिरीक्षक तो इतने हैं कि कुछ राज्यों में अगर थानों में भी आई.जी. तैनात करें तो थाने ही कम पड़ जाएं । 1861 में पुलिस अधिकारियों को कहीं-कहीं मजिस्ट्रेट की शक्ति भी दी गयी थी, लेकिन वह 1982 में वापस ले ली गयी ।

अगर मूल पुलिस कानून पर चलें तो किसी थानेदार या एस.पी. के पास उसके महानिरीक्षक द्वारा दिया गया एक प्रमाणपत्र भी होना अनिवार्य है । वर्दी उतनी जरूरी नहीं है जितना यह सर्टीफिकेट । प्रमाणपत्र नहीं तो पुलिस अधिकारी ‘बिना दांत का शेर’ है । यह बात और है कि पुलिस कानून के तहत ज्यादातर पुलिस अधिकारी ‘गैरकानूनी’ हैं ।

उनके पास वर्दी तो है, मगर सर्टीफिकेट की कोई अनिवार्यता नहीं । पुलिस कानून की मान्यता यह है कि महानिरीक्षक अगर लिख कर मंजूरी दे दे तो पुलिस कर्मचारी, पुलिस में रहते हुए कहीं और भी नौकरी कर सकता है । इसी कानून के तहत कोई भी व्यक्ति ‘अपनी सुविधा और सुरक्षा’ के लिए अतिरिक्त पुलिस कर्मचारियों की नियुक्ति करवा सकता है लेकिन उनका वेतन उन्हें अपने पास से देना होगा ।

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यही नियम उन मुहल्लों, कालोनियों और इलाकों पर भी लागू होगा जो दरअसल आपदाग्रस्त राने जाते हैं । आपके मुहल्ले में झगडे हों, दंगा हो तो इस कानून के तहत अतिरिक्त पुलिस रल तब ही आएगा, जब आप उसकी कीमत चुकाने को तैयार हो । गनीमत है कि असल में ऐसा होता नहीं है ।

विशेष पुलिस अधिकारी आज भी नियुक्त होते हैं और उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा का एक प्रतीक माना जाता है । पुलिस एक्ट में विशेष पुलिस अधिकारियों का प्रावधान भी है, लेकिन अगर कोई बनना नहीं चाहे या बन कर लापरवाही बरते तो उसे पचास रुपये का ‘भारी’ जुर्माना देना होगा ।

सन् 1861 में पचास रुपये जरूरी भारी रकम होती होगी । आज की तारीख में पुलिस के गाव वाले चौकीदार स्थानीय थानों से संबंधित होते हैं पर मूल कानून में यह प्रावधान फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी अर्थात कलकत्ता के लिए है ।

कारण साफ है तब देश की राजधानी कलकत्ता ही थी । पुलिस को बांधने वाला कानून और भारतीय दंड विधान दोनों ही कुल मिला कर भारतीय सविधान के निहित हिस्से हैं और दोनों का संबंध भी अन्योन्याश्रित और अंतर्निहित है । लेकिन कानूनों की शब्दावली, परिभाषा, इरादे और उनका देश-काल सब ऐसे तत्व हैं, जिनकी काल-क्रम के अनुरूप और अनुसार समीक्षा जरूरी है ।

पालन और अनुपालन उन धाराओं उपधाराओं का होता और हो सकता है जो असल में, व्यावहारिक रूप से अस्तित्व में हों । जिस देश के कानून में मनुष्य की लावारिस लाश का संस्कार करने के लिए आज भी मात्र चौबीस रुपये तय किये गये हों वहां का पुलिस कानून बदलना ही चाहिए । नहीं ?

दुर्भाग्यवश आज पुलिस व्यवस्था आदर्श अथवा वांछित रूप में नहीं पायी जाती । यूरोप या अमरीका की पुलिस उतनी आततायी नजर नहीं आती, जितनी हमारी पुलिस । ब्रिटेन की पुलिस शायद सबसे अच्छी है । लेकिन उससे किसी और देश की पुलिस ने कुछ भी नहीं सीखा है ।

यह इतिहास की एक विडम्बना ही है कि जो ब्रिटिश शासक अपने यहाँ की पुलिस को लगातार मानवीय और बंधुतापूर्ण बनाने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने ही भारत को एक ऐसी पुलिस व्यवस्था सौंपी, जो अपनी कोई जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करती न संविधान के प्रति, न कानून के प्रति और न जनसाधारण के प्रति ।

साधारण आदमी को अपराधी से जितना डर लगता है, उससे कुछ कम पुलिस से नहीं । स्पष्ट है कि पुलिस का रूप वैसा ही बनता जाता है जैसा देश के शासक वर्ग का चरित्र होता है । उदाहरणार्थ अपराध को ही लिया जाये । जब किसी अपराधी गिरोह द्वारा हत्याएं किए जाने अथवा किसी बड़ी बैंक डकैती का समाचार मिलता है तो लोग आतंकित व सतर्क हो जाते हैं ।

यद्यपि लोगों के स्वयं आमतौर पर इस प्रकार के अपराधों का शिकार होने की संभावना नहीं होती है फिर भी लोग भयाक्रांत तो होते ही हैं । जब लोग सफेद-पोशों द्वारा किए जाने वाले अपराधों के बारे में पढते हैं तो उस समय उनके मन में इस प्रकार की आतंक या भय उत्पन्न करने वाली भावनाएं उत्पन्न नहीं होती हैं ।

बैंको में धोखाधड़ी अथवा शेयर मार्कीट में होने वाले घोटाले लोगों को भयभीत नहीं करते हैं । यहां तक कि इन घोटालों में करोड़ों रुपए अपराधी चट कर जाते हैं । संभवत: इसका कारण यह है कि मानव शरीर के प्रति किए जाने वाले अपराधों में हिंसा समाहित होती है जिससे मध्य वर्ग तथा अन्य लोग आतंकित होते हैं ।

लेकिन जब सफेदपोशों द्वारा किए जाने ग्रले आर्थिक घोटालों के समाचार आते हैं तो वे काफी प्रमुदित होते हैं क्योंकि इसमें उनके अपने वर्ग के ही लोग अधिकांशतया सम्मिलित होते हैं । हमारे मध्य वर्ग से संबंध रखने वाले अधिकांश लोग एक या दूसरे प्रकार के सफेदपोश अपराधी के अभ्यस्त हो चुके हैं ।

इनमें से अधिकांश लोग इस प्रकार के सफेदपोश अपराधों में किसी न किसी रूप में संलिप्त होते हैं । उदाहरण के लिए जो सरकारी अधिकारी रिश्वत लेता है या जे आदमी रिश्वत देता है दोनों ही अपराध करते हैं क्योंकि रिश्वत देना और लेना अपराध है । जे व्यापारी बिक्रीकर, उत्पादन-शुल्क तथा आयकर की चोरी करता है वह भी एक सफेदपोश अपराध है ।

इसी प्रकार जो दुकानदार खाद्य पदार्थो में मिलावट करता है वह भी अपराध करता है लेकिन अब यह हमारे जीवन का एक सामान्य अंग बन गया है । इसलिए इस प्रकार के अपराधों की ओर लोग कोई अधिक ध्यान नहीं देते हैं । इस प्रकार के सफेदपोश अपराधों के साथ एक बड़ी समस यह है कि उनके कारण लूटपाट, चोरी तथा कई बार संगठित अपराध पनपते हैं ।

अब आप पूछ सकते हैं कि ऐसा कैसे होता है ? सफेदपोश अपराधी आमहोर पर जिस प्रकार से धन कमाते आज के जमाने में वे उससे उच्च व प्रतिष्ठित समाज से संबंधित होते हें । या अपने लिए वा स्थान बना लेते हैं । वे अवैध रूप से कमाई गई अपनी दौलत को अंधाधुंध तरीके से विलासित् पर खर्च करते हैं । वे अपना पैसा शादी व बर्थडे जैसे आयोजनों में पानी की तरह बहाते हैं तद्यप दिखावा करते हैं ।

इस प्रकार की बातें छिप तो नहीं सकतीं । यह ठीक है कि समृद्ध वर्ग के लो उनकी इस प्रकार की बातों से उनकी सराहना करें, उनके कपड़ों न् जेवरात की प्रशंसा करें लेकि इस प्रकार की बातें समाज के विभिन्न वर्गो में आक्रोश की भावनाएं उत्पन्न करती हैं । गरीब विपन्न वर्ग भी इस प्रकार की चीजों की कामना करता है लेकिन अपने सीमित साधनों के अभ में उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता ।

आज के युग में गरीब वर्ग अपनी गरीबी को अब भगवान की मर्जी मानने को तैयार न है । पिछले दो दशकों में लोगों की आकांक्षाएं व भौतिक अपेक्षाएं काफी अधिक बढी हैं । हम राजनीति में भी अब भ्रष्टाचार ने अपने पांव पसार लिए हैं ।

उपभोक्तावाद ने हमारे नैतिक मूल्यों को नष्ट कर दिया है । रही-सही कसर, टेलीविजन ने पूरी कर दी है । स्लमों के युवा, जो कि अच्छी तरह से शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं और इस कारण अच्छे रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो वे अधिक धन कमाने का दूसरा विकल्प ढूंढने का प्रयास कर सकते हैं चाहे वे कितने भ्रष्ट हों ।

जब वै अमीरों को अपने ऊपर, अपने परिवार पर और अपने दोस्तों पर भारी-भरकम खर्च करते हुए देखते हैं तो इस बात को भली-भांति समझते हैं कि इस धन का अधिकाश भाग उन अवैध ढंग से कमाया है ।

वे सोचते हैं कि अगर अमीर लोग इस तरह अपने काले धन से मैज मस्ती उड़ा सकते हैं तो फिर वे भी क्यों नहीं अनुचित तरीकों से धन कमाएं ।

वे न तो रिश्वत ले सकते है, न ही बैंकों में ‘फ्रॉड’ या गबन कर सकते हैं तथा न ही शेयर मार्कीट में हेराफेरी कर सकते हें । अत: ऐसी हालत में उनके लिए केवल एक ही रास्ता बचता है और वह यह है कि चाकू या पिस्तौल की नोक पर लूटपाट का ।

अगर उनमें नेतृत्व का गुण होता है तो वे जल्दी ही किसी गिरोह के सरगना बन जाते हैं और उनकी ख्याति या कुख्याति बड़ी तेजी से फैल जाती है और ऐसे सरगनों के बारे में किसी राजनेता तथा किसी उद्योग के प्रमुख के मुकाबले में लोग अधिक जानते हैं ।

कुछ लोग इस बात पर जोर दे सकते हैं कि अमीरों व अपनी अमीरी तथा भ्रष्टाचार से अंधाधुंध धन कमाने वालो को ही संगठित अपराधों को प्रोत्साहन देने के लिए दोषी बताना गलत है । लेकिन विडम्बना यही है कि अनुचित तरीके से धन यानी काला धन कमाने वाले ही तत्व समाज में अपराधों और हिंसक अपराधो के विस्तार में सहायक होते हैं ।

जो लोग कर वंचना तथा अन्य कानूनों का उल्लंघन करते हैं वे ही समाज में अपराधों के बीज बोते हैं । इनके इस प्रकार के व्यवहार की देखादेखी समाज में कानूनों की अवज्ञा व उल्लंघन करने की प्रवृत्ति बढ़ती है । सामान्य अपराधी भी तब उन अपराधों को करने के लिए प्रेरित होते हैं ।

वे अपने अपराधों के लिए उन सफेदपोश अपराधियों का उदाहरण भी दे सकते हैं जो कि अधिक शिक्षित हैं, अधिक समृद्ध हैं तथा अधिक सुसभ्य माने जाते हैं परन्तु इन सबके बावजूद कानूनों का उल्लंघन करते हैं या अपराध करते हैं ।

सफेदपोश-अपराधों का एक अन्य पहलू यह भी है कि अधिकांश लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि प्रत्येक वर्ष डकैतियों में जितना रुपया लूटा जाता है उससे 100 गुणा धनराशियां बैंकों में ‘फ्रॉड’ तथा गबन के द्वारा लूट ली जाती हैं । वेंको में धोखाधड़ी से धन की लूट से देश की अर्थव्यवस्था को आघात पहुंचता है जबकि बैंकों में डकैतियों से समाज में भय व आतंक पैदा होता है और दोनों ही देश व समाज के लिए हानिकारक हैं ।

चोरियां तथा सम्पत्ति संबंधी अन्य अपराधों का जहां तक सवाल है वे अगर धन की मात्रा के लिहाज से देखे जाएं तो वे सफेदपोश अपराधियों द्वारा किए जाने वाले आर्थिक या अन्य ऐसे अपराधों के मुकाबले में बहुत ही कम होते हैं ।

जैसे-जैसे हमारी अर्थव्यवस्था में खुलापन आ रहा है और हमारे देश की अर्थव्यवस्था में वैश्वीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, उसमें फ्रॉड व धोखाधड़ी जैसे अपराधों की संख्या में भी वृद्धि होना स्वाभाविक ही है । पुलिस विशेषकर महानगरों में, के पास अभी से जाली या डुप्लीकेट शेयरों के बारे में, डाक में से ट्रैवलर चैकों की चोरियों तथा क्रैडिट कार्डो के धोखाधड़ी से उपयोग किए जाने की रिपोर्टें आने लगी है ।

वस्तुत: जब हमारा रुपया पूर्णत: परिवर्तनीय हो जाएगा, जो कि कुछ वर्षों में होना स्वाभाविक ही है, तब क्रैडिट कार्डो की धोखाधड़ी विश्व स्तर पर हमारे लिए एक भारी सिरदर्द बन सकती है । देश भर में पुलिस फोर्स को अब इस प्रकार के सफेदपोश अपराधियों व अपराधों के खतरे से निपटने के लिए अपनी पूरी तैयारी करनी चाहिए ।

यह अपराध आगामी शताब्दी में एक बड़ी चुनौती बन कर सामने आने वाले हैं । भ्रष्टाचार आज हमारे देश में संक्रामक रोग की तरह फैल चुका है । जब भ्रष्टाचार हमारे जीवन का एक अंग बन गया हो तो फिर पुलिस का इस लानत से बचे रह पाना कठिन ही है ।

यहां तक कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे पीड़ित लोगों को न्याय प्रदान करेंगे तथा उन्हें समाज विरोधी तत्वों से बचाएंगे वह भी समाज के अपने अन्य भाइयों की तरह ही लालच के शिकार हो जाते हैं । उपभोक्तावाद, भौतिकवाद तथा अनैतिकता आज हमारे मध्यमवर्गीय समाज में बुरी तरह व्याप्त होने लगी है तथा यही बात पुलिस के अधिकारी वर्ग के व्यवहार में भी प्रदर्शित होती है ।

जब तक हमारा एक सामाजिक रूप से जागरूक तथा आर्थिक रूप से खुशहाल समाज नहीं बनता है तब तक हमें इस प्रकार की नैतिक समस्याओं का सामना करना पड़ता रहेगा जो कि हमारे बुद्धिजीवियों को सदा उद्वेलित करती रहेगी ।

पुलिस में अधिकांशतया भ्रष्टाचार ‘हफ्ते’ के रूप में व्याप्त है । यह रुपया नियमित रूप से गलत धंधे करने वालों से वसूला जाता है तथा यह रुपया पुलिस अधिकारियों तथा पुलिस थानों के कर्मचारियों में बांटा जाता है ।

कोई भी वरिष्ठ अधिकारी जो कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प हो वह किसी व्यक्ति विशेष को छोड़ कर भ्रष्ट तत्वों का उन्तुलन नहीं कर सकता है । वह अपने सभी अधिकारियों व कर्मचारियों को पूरी तरह से भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं करा सकता है और न ही रातोंरात उन सभी को बदल सकता है ।

वह जो कुछ कर सकता है वह यही कि वह अपने क्षेत्र में भ्रष्टाचार के स्रोतों को समाप्त करने के लिए कदम उठा सकता है । वह अपने अधिकार क्षेत्र वाले इलाके में समाज विरोधी तत्वों के विरुद्ध प्रभावशाली अभियान छेड़ सकता है ।

जुआ, अवैध शराब का धंधा, वेश्यावृत्ति आदि ऐसे अपराध हैं जिन्हें पूरी तरह से खत्म कर देना कठिन है लेकिन वरिष्ठ अधिकारी अगर इनके विरुद्ध कदम उठाने में दृढ संकल्प हों तो वह इन्हें नियंत्रित कर सकता है ।

वस्तुत: आज के भारत की पुलिस दरअसल अपराध रोकती नहीं है न ही अपराधियों को सजा दिलाने की कोशिश करती है और न इस बात का ध्यान रखती है कि निर्दोष व्यक्ति को कानून की मशीनरी के कारण व्यर्थ में तकलीफ न हो ।

वह कुछ अपराधों से स्वयं लाभ उठाने की कोशिश करती है, कुछ की बाबूगीरी के अंदाज में मीमांसा करती है और ज्यादातर की उपेक्षा करती है । मौका पड़ने पर वह स्वयं भी कुछ अपराध कर डालती है । पुलिस को, अपने काम के स्वभाव के कारण कुछ बेरहम होना पड़ता है ।

अभी तक कोई ऐसा तरीका विकसित नहीं किया जा सका है जिससे अपराधी को सभ्य ढंग से अपराध कबूल करने के लिए प्रेरित किया जा सके । अत: ‘थर्ड डिग्री’ का हम चाहे जितना विरोध करे, उसकी कुछ न कुछ जरूरत शायद हमेशा बनी रहेगी । इस प्रक्रिया में कुछ निर्दोष व्यक्तियो के साथ ज्यादती होती है ।

लेकिन इसे हमें पुलिस कर्म की एक समस्या के रूप में ही देखना चाहिए । भारत में पुलिस का अक्सर क्रूरतापूर्ण और लगभग हमेशा असभ्य व्यवहार एक अलग प्रकार की समस्या है जिसकी जड़ें भारतीय नौकरशाही के अमानवीय और जन विरोधी चरित्र में हैं । भारत का औसत अफसर या बाबू आम आदमी को कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं समझता ।

सरकारी दफ्तर में साधारण आदमी के प्रश्न का न तो शालीनता के साथ जवाब दिया जाता है और न ही उसकी समस्या हल करने के लिए न्यूनतम कुशलता के साथ काम करने दिया जाता है । रूटीन के काम करना भी जनता पर ‘एहसान’ करना माना जाता है ।

व्यापक रिश्वतखोरी का एक बड़ा कारण यह भी है कि पुलिस के आचरण को भारतीय नौकरशाही के इस व्यवहार का एक मामूली विस्तार ही माना जाता है । जो नेता या मंत्री यह दावा करता है कि वह पुलिस को सभ्य बनाएगा और शेष नौकरशाही को भी सभ्य नहीं बनाता, वह झूठ बोलता है ।

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इस सिलसिले में हमारे न्यायालयों की दुखद स्थिति का जिक्र जरूरी है । हर जगह से ठुकराये हुए आदमी को न्यायालय से न्याय मिलना चाहिए । लेकिन भारतीय न्यायालयों की तीन बड़ी बीमारियां है: (1) ज्यादातर काम जन भाषा में न होना,  (2) न्यायिक प्रक्रिया का अत्यन्त शिथिल तथा दीर्घसूत्री होना तथा (3) न्याय मांगने वालों की सुविधा-असुविधा की जरा भी परवाह न होना ।

इनके कारण न्याय पाने की प्रक्रिया अत्यन्त कष्टसाध्य, खर्चीली और समय-खाऊ हो जाती है । इससे भी पुलिस को अन्यायी और बेरहम होने की छूट मिलती हे । यहां तक कि बेकसूर आदमी भी न्यायालय का सामना करने के बजाय पुलिस को कुछ रिश्वत देकर छूट जाना ज्यादा पसन्द करता है ।

लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि नौकरशाही या पुलिस का मारा हुआ आदमी न्यायालय से कोई उम्मीद नहीं कर पाता । परिणामस्वरूप पुलिस और ज्यादा निरंकुश तथा अनुत्तरदायी होती जाती है । वह जानती है कि उसके और नागरिक के बीच न्याय की कोई सुगम या सुलभ मशीनरी नहीं है ।

यद्यपि हाल के वर्षो मे अनेक पुलिस वालों को न्यायालय द्वारा दंडित किया गया है, लेकिन इससे न तो पुलिस का सामान्य रवैया बदला है और न ही राजनीतिक शासकों ने उसका रवैया बदलने की दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम उठाया है ।

सच तो यह है कि स्वयं हमारे मत्री और नेता जी न्यायालय की बहुत ज्यादा परवाह नहीं करते । हमारे न्यायालयों में यदि कुछ नैतिक ऊर्जा बची हुई है भी, तो उनमे इतनी संकल्प शक्ति या क्षमता नहीं है कि वे शेष व्यवस्था ने उसका सचार कर सकें । निचली अदालतें तो स्वयं भारतीय सडन का हिस्सा बन चुकी हें ।

जाहिर है, सिर्फ पुलिस की निन्दा करना काफी नहीं है । पुलिस का आचरण सुधारने के लिए तथा उसे शासन एव समाज के प्रति जिम्मेदार बनाने के लिए कुछ कार्रवाई भी जरूरी है । इस दिशा में मानव अधिकार संगठनो ने थोड़ा ही सही, पर स्तुत्य कार्य किया है ।

इन संगठनो के प्रयत्नो से पुलिस ज्यादती के अनेक ऐसे विवरण सामने आये हैं, जो अन्यथा कभी सामने नहीं आ पाते । कुछ मामलो में पुलिसवालों को सजा भी हुई है । लेकिन यह पर्याप्त नहीं है । मानव अधिकार नादोलन ज्यादा से ज्यादा चौकसी का काम कर सकता है ।

इससे अधिक कुछ करने की न तो उसकी क्षमता है और न ही उसका लक्ष्य । यह भी सच है कि शेष व्यवस्था को जस का तसे बनाये रखते हुए पुलिस व्यवस्था को सुधारो नहीं जा सकता । भारत में व्यवस्था सुधार के तीन न्यूनतम सूत्र इस प्रकार हैर प्रथम, राज-काज की भाषा से अंग्रेजी का खात्मा ।

अंग्रेजी के कारण समाज में हमेशा बुनियादी विषमता बनी रहेंगी और सामान्य व्यक्ति को न्याय नहीं मिल सकता । द्वितीय, जीवन स्तर में व्यापक विषमता को कम, करना । वस्तुत: पुलिस और नौकरशाही का मौजूदा आचरेण एक तरह का वर्ग आचरण ही है ।

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जब देशवासियों के जीवन-स्तर में आकाश-पाताल का अन्तर नहीं रहेगा, तभी सामान्य नागरिक में स्वाभिमान का संचार हो सकेगा । तृतीय, नौकरशाही को यह महसूस करने के लिए प्रेरित तथा बाध्य करना है कि उसका काम जनता को तग करना नहीं, बल्कि जनता की सेवा करना है ।

जाहिर है, यह तभी होगा जब राजनेताओ और बड़े अफसरो का भी जनता के प्रति रवैया बदलेगा । लेकिन इसके बिना तो विषमता कम करने के व्यवस्था प्रयतन भी नहीं किये जा सकते । इस सिलसिले में सामान्य पुलिसकर्मी की अपने तन्त्र में मौजूद दयनीय अवस्था को भूलना नहीं चाहिए ।

एक सिपाही एक आम नागरिक के साथ जैसा व्यवहार करता है, उसके साथ उसके ऊंचे अफसर अक्सर उससे भी बुरा व्यवहार करते हैं । इस तरह सामान्य पुलिसकर्मी, एक स्तर पर, स्वयं अन्याय और अत्याचार का शिकार है ।

शायद इसी का बदला वह नागरिकों से लेता है या उस मूल्य संहिता का आगे विस्तार करता है जो मूल्य संहिता उसका पुलिस तन्त्र उसके भीतर भरता है । दूसरी ओर पुलिस के ऊँचे अफसर भी अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं के सामने असह्य गुलामी तथा शर्मनाक आज्ञापालन के दृश्य उपस्थित करते है ।

लेकिन पुलिस का अफसर या सिपाही इस अन्याय के विरुद्ध कुछ भी करने में अक्षम रहता है, क्योंकि न्याय पाने की वैधानिक मशीनरी समाज में है कहाँ ? अत: व्यवस्था की मुक्ति पुलिस की भी मुक्ति होगी । हमें यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि हमारे समाज का एक हिस्सा असाध्य रूप से सड़ गया हे और उसे गोली मार देना ही उसका इलाज है ।

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