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गरीबी एक ऐसी ज्वलंत समस्या है जिससे भारत ही नहीं बल्कि अधिकांश विकासशील देश ग्रसित हैं । इसके विषय में विभिन्न विचारक गम्भीरतापूर्वक मनन करते रहे हैं ।

जोन एल गिलिन ने कहा है कि- गरीबी एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति या तो अपर्याप्त आमदनी अथवा अविवेकपूर्ण खर्चों के कारण जीवन का ऐसा स्तर प्राप्त करने में असमर्थ रहता है जो उसे अपनी शारीरिक तथा बौद्धिक दक्षता बनाये रखने तथा अपने आश्रितों को समाज के मानकों के अनुरूप सामान्य तौर पर कार्य करने योग्य रखने के लिए पर्याप्त हों ।

जब मनुष्य पर्याप्त भोजन तथा जीवन की अन्य आवश्यकताओं को हासिल नहीं कर पाता है गरीबी विद्यमान रहती है । जे. जी. गोडार्ड के अनुसार गरीबी उन वस्तुओं की अपर्याप्त आपूर्ति है जो एक व्यक्ति के लिए अपने और अपने आश्रितों के स्वास्थ्य एवं ऊर्जा कायम रखने के लिए आवश्यक होती है ।

यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाये तो गरीबी की समस्या का आरम्भ वस्तुविनिमय (बार्टर सिस्टम) तथा मानीटरी सिस्टम के उद्भव के साथ हुआ । जैसे-जैसे व्यापार का विस्तार होने लगा कुछ लोगों ने परिसम्पति संचित करना प्रारम्भ कर दिया जिसके कारण इसके वितरण में असमानताएं आने लगी ।

ऐसे लोग अन्य लोगों की अपेक्षा विलासितापूर्ण जीवन यापन करने लगे और बाकी लोग इन सुख सुविधाओं से वंचित हो गए । समाज के सदस्यों द्वारा आर्थिक स्थिति के आधार पर आपस में तुलना की जाने लगी और कुछ लोग अपने को अमीर समझने लगे जबकि शेष लोग गरीबी की श्रेणी में आते गए ।

इस प्रकार गरीबी को ऐसी स्थिति के रूप में समझा जा सकता है जिसमें समाज के सदस्यों की आर्थिक दशा में स्पष्ट अन्तर विद्यमान होता है और ऐसे अन्तरों की तुलनात्मक विवेचना तथा मूल्यांकन किया जाता है ।

यदि जीवन यापन में असमानताएं न हों तो कैसी भी शोचनीय स्थिति में समाज के सभी सदस्य रह रहे हों तब इस प्रकार की समस्या उजागर नहीं होती । गरीबी अमीरी तुलनात्मक शब्द हो जाते हैं और निर्धन लोग अमीर लोगों से तुलना करके कुढ़न महसूस करते हैं ।

ऐसी स्थिति में जब उन्हें अत्यधिक अभाव का सामना करना पड़ता है तो वे गरीबी को अभिशाप के रूप में मानने लगते हैं ओर ये परिसम्पत्ति विहीन लोगों में रोष की भावना तथा भेदभाव का कारण बनती है । इस सन्दर्भ में इस समस्या के समाधान को टाला नहीं जा सकता ।

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गरीबी और अमीरी सापेक्ष इस कारण भी हैं कि इस तुलना के लिए एक जैसे मानक निर्धारित नहीं किये जा सकते । आदम स्मिथ ने कहा था कि व्यक्ति अमीर अथवा गरीब इस सीमा तक है कि वह जीवन की आवश्यकताओं/सुविधाओं तथा मनोविनोद के साधनों का कितना आनन्द ले सकता है ।

विकसित देशों में गरीबी का मापदण्ड भिन्न है वहाँ लोग इसलिए गरीब नहीं है कि उनकी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे भोजन, कपड़ा और मकान आदि की पूर्ति नहीं हो पा रही है । वस्तुतः वे इसलिए गरीब हैं कि इनका जीवन स्तर समाज में प्रचलित सामान्य मानकों के बराबर नहीं है या उनसे कहीं नीचे है ।

इसी कारण गरीबी को एक सामाजिक अवधारणा माना जाता है जिसमें समाज का एक वर्ग अपनी रोजमर्रा की आधारभूत आवश्यकताओं को भी पूरा करने में सक्षम नहीं होता और दूसरा वर्ग आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का स्वामी होता है ।

यह स्थिति समाज में चरम गरीबी दर्शाती है । प्रारम्भ से ही गरीबी को न्यूनतम जीवन स्तर के दृष्टिकोण से परिभाषित किए जाने का प्रयास किया गया है एवं समाज में रहन-सहन के स्तर के आधार पर भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी गई है । जहाँ विकसित देशों में समाज के औसत रहन-सहन के स्तर को आधार मानकर गरीबी को देखा जाता रहा है वहीं विकासशील देशों में न्यूनतम जीवन स्तर गरीबी के आधार के रूप में अपनाया गया है ।

न्यूनतम जीवन स्तर के लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धि के आधार पर विपन्न लोगों को गरीबी के अन्तर्गत शामिल किया जाता है । गरीबी के सम्बन्ध में यह भी विचारणीय है कि इसे आय एवं संसाधनों तक पहुँच के आधार पर मापा जाता है एवं जिन लोगों को एक निश्चित आय एवं संसाधन प्राप्त नहीं होते, उन्हें गरीबी की श्रेणी में रखा जाता है ।

एक प्रकार से यह गरीबी का आर्थिक दृष्टिकोण है जबकि गरीबी केवल आर्थिक विपन्नता के कारण ही नहीं होती बल्कि इसके अनेक कारण है और यह एक जटिल समस्या है । गरीबी का प्रमुख कारण परिसम्पत्तियों एवं संसाधनों तक लोगों की पहुँच न होना अर्थात सम्पत्तियों पर स्वामित्व न होना ।

इसके लिए भी अल्प आय ही जिम्मेदार है जो आवश्यक खर्चों को भी पूरा करने हेतु पर्याप्त नहीं होती । ऐसी दशा में लोग आवश्यक सम्पत्ति निर्माण करने में सक्षम नहीं हो पाते और विपन्नतापूर्वक जीवन जीने को बाध्य हो जाते हैं ।

परिणामस्वरूप उन्हें मजदूरी अर्थात समाज के दूसरे वर्ग के लिए सम्पत्ति निर्माण कर जीवन यापन करना पड़ता है सामान्यतः गरीब वर्ग घरेलू सम्पत्ति के नाम पर कुछ नाम मात्र को कपड़े, बर्तन व मजदूरी में काम आने वाले उपकरणों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं जुटा पाते ।

न्यूनतम जीवन स्तर के लिए भी अपूर्ण आय होने के कारण यह वर्ग कर्ज के बोझ तले दबा पाया जाता है तथा इस वर्ग की उत्पादकता अत्यन्त कम होती है । स्वामित्व के अभाव में इन्हें प्रतिकूल शर्तों व वातावरण में काम करना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उनकी उत्पादन क्षमता शनै: शनै: क्षीण होती जाती है ।

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यदि इस वर्ग में कोई कौशल होता भी है तो आवश्यक संसाधनों तक कोई पहुँच न होने के कारण यह उनका समुचित लाभ नहीं ले पाते एवं सम्पन्न वर्ग के लिए लाभ अर्जित करने के लिए मजदूर की हैसियत से कार्य करने को बाध्य हो जाते हैं ।

लगातार प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने तथा अल्प आय प्राप्त होने के कारण इस वर्ग में अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य, उच्च मृत्यु दर, कम जीवन सम्भाव्यता, प्रतिकूल स्त्री-पुरुष अनुपात, दूसरों पर निर्भरता, उद्यमिता की कमी, बाल मजदूरी आदि व्याप्त होती जाती है ।

यह वर्ग लगातार गरीबी के बोझ तले दब कर अपनी उत्पादक क्षमता को खोता जाता है और प्रतिकूल परिस्थिति में बहुत कम मजदूरी कर काम करने के लिए बाध्य होता है । लगातार गरीबी के कारण यह वर्ग अपने कौशल को बनाए रखने में भी सक्षम नहीं हो पाता और बेहतर रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन किया करता है ।

यह वर्ग अत्यन्त असंगठित होता है । कुछ लोगों का मत है कि गरीबी समाज द्वारा लोगों पर आरोपित होती है । आरोपित गरीबी का तात्पर्य उस गरीबी से है जो समाज द्वारा किसी विशेष जाति अथवा वर्ग विशेष में जन्म लेने के कारण उस पर थोपी गई है ।

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वर्ग अथवा जातिगत बटवारे के फलस्वरूप एक वर्ग विशेष के पास सम्पत्तियों का स्वामित्व संचित होता जाता है जबकि दूसरा वर्ग उनका सेवक बनकर कार्य करने को बाध्य रहता है । सदियों से चली आ रही जातिगत प्रथाओं ने एक वर्ग को आर्थिक विपन्नता और सामाजिक पिछड़ापन वंशगत रूप से दिया है जहाँ जातिगत आधार पर संसाधनों पर नियन्त्रण तो दूसरी के पास चला गया लेकिन मजदूरी व सेवा पिछड़े वर्ग के पास आ गयी ।

पीढ़ियों से चली आ रही परम्पराओं ने उन्हें लगातार गरीब बना दिया और साथ ही उनकी पहुंच संसाधनों तक नहीं हो सकी । इस प्रकार विभिन्न वर्ग/जाति के लोग संसाधन युक्त तथा संसाधन विहीन श्रेणियों में बँट गए ।

उपरोक्त पृष्ठभूमि में ही गरीबी को दुष्चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है, चूँकि गरीबी के कारण शारीरिक आवश्यकता के अनुसार भोजन (कैलोरी) न मिलना, कुपोषण, स्वास्थ्य का नीचा स्तर, व्यक्तिगत उत्पादकता में कमी, कम आमदनी, बेरोजगारी, निरक्षरता अथवा अल्प शिक्षा, समुचित आवास न होना, संसाधन/सम्पत्ति का उर्पाजन न होना, कौशल का विकास न होना, महिलाओं की खराब स्थिति, बीमारी, ऋण ग्रस्तता, सामाजिक भेदभाव एवं पुन: गरीबी में धसना होता है ।

बल्कि इसे दूषित चक्र न कह कर कुछ विद्वान इसे गरीबी का चक्रव्यूह कहते हैं । गरीब होने का अर्थ है वंचना, समाज की सामान्य सुख सुविधाओं से वंचित रहना । नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने गरीबी की व्याख्या क्षमता की वंचना के रूप में की है । उनके अनुसार सामाजिक न्याय के विश्लेषण के सन्दर्भ में व्यक्तियों के हित लाभों को उनकी क्षमता योग्यताओं के रूप में जाँचने की आवश्यकता है ।

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इस परिप्रेक्ष्य के अनुसार तो आधारिक क्षमताओं के अभाव (डैप्रिविएशन ऑफ बेसिक केपिबिलिटीज) को ही गरीबी मानना अधिक उपयुक्त होगा, केवल आमदनी का कम होना ही गरीबी का पर्याप्त प्रमाण नहीं रहेगा (जैसा कि अक्सर मान लिया जाता है) यह क्षमता गरीबी किसी भी रूप में आपके अभाव को गरीबी का एक प्रमुख कारण मानने से इनकार नहीं करती, क्योंकि यह अभाव मानव को अनेक प्रकार की योग्यताओं से वंचित कर देने का एक प्रमुख कारण होता है ।

दारिद्रयपूर्ण जीवन की परिस्थितियों के निर्माण का एक बहुत सशक्त आधार आय का अपर्याप्त होना ही है । यदि यह बात सत्य है तो फिर गरीबी को योग्यता-वंचना के रूप में अभिव्यक्त करने की बात को लेकर यह सब हंगामा क्यों हो रहा है, जबकि आमतौर पर न्यून आय के आधार पर गरीबी की परिभाषा हो ही जाती है ।

अमर्त्यसेन के अनुसार क्षमता-वंचना के रूप में गरीबी के निरूपण के पक्ष में निम्न दावे किए जा सकते हैं:

१. गरीबी की, बहुत सूझबूझ के साथ, पहचान तो क्षमता-वंचना के माध्यम से ही हो सकती है । इस विधि में उन अभावों पर ही संकेन्द्रण रहता है जो अन्तर्निहित रूप से महत्वपूर्ण हैं, जबकि न्यून आय केवल साधन-स्वरूप में ही महत्वशील होती है ।

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२. निम्न आय के अतिरिक्त भी अन्य प्रकार के अनेक प्रभाव क्षमता-वंचनाओं पर अपनी छाप छोड़ते हैं अर्थात् केवल आय ही एकमात्र क्षमता-सृजनकारी कारक नहीं है ।

३. न्यून आय तथा न्यून क्षमताओं का सम्बन्ध अस्थिर है, यह विभिन्न समुदायों यही तक की विभिन्न परिवारों और व्यक्तियों के बीच भी परिवर्तित होता रहता है । आय का योग्यता-क्षमता आदि पर प्रभाव किन्हीं अन्य प्रकार के कारकों के माध्यम से ही प्रभावोत्पादक हो पाता है, प्रत्यक्षतः ओर स्वयमेव नहीं ।

विषमता और गरीबी निवारण के लिए बनाई जा रही नीतियों के प्राक्कलन-मूल्यांकन में यह तीसरी बात बहुत ही निश्चित महत्वशाली हो जाती है । जिन दशाओं के कारण आय का क्षमताओं पर प्रभाव निश्चित नहीं रह पाता, उनके विषय में अनेक रचनाओं में व्यापक विचार मंथन हो चुका है ।

व्यावहारिक नीतियों के निर्धारण के संदर्भ में उनमें से कुछ पर विशेष बल देना आवश्यक हो जाता है । सर्वप्रथम तो व्यक्ति की आयु का आय तथा क्षमता के बीच सम्बन्ध पर गहरा प्रभाव होगा ।

इस संदर्भ में बहुत ही कम आयु के बच्चों और वृद्धों की विशेष आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है । इसी प्रकार व्यक्ति के स्त्री या पुरुष होने, तथा उसकी विशिष्ट सामाजिक भूमिका का भी प्रभाव रहता है । नन्हें शिशु का पालन कर रही माँ की आवश्यकताएँ-क्षमताएँ परिवार के अन्य सदस्यों से बहुत अलग हो सकती हैं । व्यक्ति के निवास का स्थान भी इस संदर्भ में कई प्रकार के प्रभावों का आधार बन जाता है ।

कहीं बाढ़ या अनावृष्टि तो कई सामान्यतः हिंसात्मक वातावरण भी इस बात को प्रभावित कर सकता है कि आय क्षमतावर्धन में कहाँ तक सहायक हो पायेगी इनके साथ-साथ क्षेत्र विशेष में महामारियों के प्रसार की आशंका आदि अनेक ऐसे कारक होते हैं जिन पर किसी व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं रह पाता किन्तु वे आय और क्षमता के बीच सम्बन्ध को अवश्य प्रभावित करते हैं ।

विभिन्न समुदायों, क्षेत्रवासियों और स्त्री-पुरुष वर्गों के बीच तुलना करते समय तो ये अंतर प्राचलीय (पैरामैट्रिक) स्वरूप धारण कर बहुत ही महत्वशाली हो जाते हैं । दूसरे (१) आय वंचना तथा (२) आय को कृत्यकारिताओं (फंकशिनिंग) में परिवर्तित कर पाने में हीनता भी अनेक बार एक दूसरे से जुड़ जाती हैं ।

आयु, अपंगता या बीमारी आदि के कारण व्यक्ति की अधिक आय कमा पाने की क्षमता दुष्प्रभावित होती है, पर साथ ही साथ इन्हीं कारणों से उस व्यक्ति की उपलब्ध (अर्जित) आय के आधार पर विभिन्न प्रकार की कृत्यकारिताएँ पा सकने की क्षमता भी कम रह जाती है ।

सम्भव है उस व्यक्ति को अपनी न्यून आय का एक अच्छा खासा हिस्सा अपनी चिकित्सा या अन्य किसी प्रकार के चिकित्सीय सहायक उपकरण पर ही खर्चा करना पड़ जाए और वह उस आय से जितना आनन्द सम्भव हो सकता था, वह नहीं उठा पाए ।

अत: इस प्रकार की दशा में यह स्पष्ट ही है कि आय की गरीबी की अपेक्षा क्षमता-वंचना की इस गरीबी की गहनता कहीं अधिक है । यह बात ध्यान में रखना उन सार्वजनिक नीतियों की रचना को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकता है जिनका वृद्धों एवं अन्य बाधिताग्रस्त लोगों की सहायता करने से कुछ भी वास्ता हो (बाधिता से अभिप्राय आय की कृत्यकारिताओं में परिवर्तित कर पाने में कठिनाई से ही है) ।

तीसरी प्रकार की कठिनाइयाँ परिवार के भीतर ही आय (उपभोग के अवसरों) के विभाजन-आवंटन से जुड़ी हैं । कई बार परिवार में लड़कों के प्रति लगाव इतना सशक्त होता है कि आय का अपेक्षाकृत अधिक भाग उन्हीं के हितों का संवर्धन करने की भेंट चढ़ जाता है ।

ऐसी दशा में जिन सदस्यों के हितों (यानी बेटियों) का हनन हो रहा है उनकी हितलाभ वंचना की कोई झलक परिवार की आय के स्तर से नहीं मिल पाएगी । यह मुद्दा कुछ विशेष परिवेश आदि में तो बहुत ही प्रबल हो जाता है ।

एशिया और उत्तरी अफ्रीका के अनेक देशों में परिवार के संसाधनों के आवंटन में स्त्री-पुरुष के बीच की खाई बहुत ही बड़ी दिखाई देती है । लड़कियों की सापेक्ष अभावग्रस्तता की झलक (बहुत ही आसानी से) उनकी अधिक मृत्युदर, रोगग्रस्तता, कुपोषण और चिकित्सीय लापरवाही में दिखाई पड़ जाती है, पर केवल आय का विश्लेषक यह बात नहीं समझ पाता ।

यह मुद्दा भले ही उत्तरी अमेरिका और यूरोप में गरीबी तथा विषमता के विश्लेषण-अध्ययन में इतना प्रबल न हो, पर यह मान लेना कि ‘पश्चिमी देशों में नर-नारी की विषमता है ही नहीं’ उचित नहीं होगा । उदाहरणस्वरूप, इटली में महिलाओं के अनभिज्ञात (अनरिकगनाइस्ड) श्रम का सामान्य राष्ट्रीय आय आंकलन में अनभिज्ञात (रिकगनाइस्ड) श्रम के साथ अनुपात बहुत ही बड़ा है ।

इस प्रकार समाज के अर्द्धांश द्वारा किए गए श्रम और समय के प्रयोग तथा उससे जुड़ी स्वातन्त्रय-हानि की अवहेलना का यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी गरीबी के विश्लेषण पर बहुत प्रभाव पड़ सकता है । अन्य अनेक प्रकार से परिवार के भीतर दायित्वों-अधिकारों के विभाजन विश्व के अनेक देशों में सार्वजनिक नीतियों की रचना एवं मूल्यांकन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण रहते हैं । चौथी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आय की सापेक्ष (रिलेटिव) वंचना क्षमताओं के वितान में परम (एबसलियूट) वंचना का रूप भी धारण कर सकती है ।

शेष विश्व की तुलना में उच्च आय का उपभोग करते हुए भी किसी अमीर देश के अपेक्षाकृत गरीब निवासियों को अनेक क्षमताओं की समाप्ति में बाधाएँ अनुभव हो सकती हैं । प्रायः अधिक अमीर देश में उसी स्तर की ‘सामाजिक कृत्यकारिताएँ’ प्राप्त करने के लिए पर्याप्त वस्तुएँ खरीदने के लिए अधिक आय की आवश्यकता होती है ।

एक उदाहरण- प्रायः यह मान लिया जाता है कि अमीर शहर के उपनगरों में बसे सभी व्यक्तियों के पास अपने वाहन होंगे, अत: वहाँ सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं होगी पर उन्हीं क्षेत्रों के अपेक्षतया गरीब निवासियों के लिए अमीरों के पड़ोस में रहना इस सार्वजनिक परिवहन सुविधा के अभाव के कारण बहुत ही कष्टप्रद हो सकता है ।

एडम स्मिथ ने 1776 में अपनी पुस्तक “वैल्थ ऑफ नेशन्स” में इस बात को उठाया था । आज भी गरीबी के समाजशास्त्र को समझ पाने में इन बातों का महत्व कम नहीं हुआ है । उदाहरण के रूप में, कुछ लोगों को सामुदायिक जीवन की गतिविधियों में भागीदारी कर पाने में आ रही कठिनाई उनके ‘समाज से बाहर रह जाने’ का कारण बन सकती है । कई बार सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए अनेक प्रकार के यंत्र-उपकरणों का होना आवश्यक लगने लगता है ।

जैसे टेलीविजन, विडियो कैसेट रिकॉर्डर, वाहन आदि । जिन देशों में ये चीजें आम बात बन चुकी हों वहाँ तो अमीर देश के अपेक्षाकृत गरीब व्यक्तियों पर इनके कारण बहुत भारी वित्तीय बोझ पड़ सकता है, भले ही वे व्यक्ति भी अपेक्षतया कम समृद्ध देशों की तुलना में बहुत अधिक आय का उपभोग कर रहे हों ।

वास्तव में अमीरी के बीच भुखमरी (संयुक्त राज्य अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है) का इन स्पर्धात्मक पदार्थों की माँग से कुछ-न-कुछ सम्बन्ध अवश्य रहता है । क्षमता-योग्यता परिप्रेक्ष्य गरीबी के विश्लेषण में विपन्नता के स्वरूप एवं कारणों को और बेहतर ढंग से समझा पाने में उपयोगी होता है ।

इतनी स्पष्टता साधनों, प्रायः आय पर ही ध्यान केन्द्रित होने पर संभव नहीं हो पाती । किन्तु जब साध्यों की ओर ध्यान दिया जाता है और साध्यों की प्राप्ति के प्रयास की स्वतन्त्रता की बात उठती है तो कितनी ही बातें बहुत स्पष्ट हो जाती हैं हमारे उपर्युक्त उदाहरण उन नई अनुभूतियों की और ध्यान दिला रहे हैं जिनका इस प्रकार से विश्लेषण दृष्टि को और विस्तृत करने पर साक्षात्कार होता है ।

अभाव वंचनाएँ आदि आधारभूत स्तर के कुछ और निकटस्थ दिखाई देने लगती हैं यह सामाजिक न्याय के सूचना आधार से निकटता है । इस कारण से भी क्षमता की विपन्नता का अध्ययन अधिक उपयुक्त हो जाता है ।

आय की दरिद्रता (इनकम पोवर्टी) और क्षमता दरिद्रता (केपेबिलिटी पोवर्टी):

आय अनेक क्षमताओं को प्राप्त करने का साधन है । इसी कारण गरीबी को आय के अभाव की अपेक्षा क्षमताओं के अभाव की व्याख्या प्रदान करते समय यह बात ध्यान रखनी होगी कि ये दोनों प्रकार के दृष्टिकोण एक दूसरे परे जुड़े हुए भी हैं ।

यही नहीं, यह सम्बन्ध द्विपक्षीय भी होता है क्योंकि जीवनयापन की क्षमताओं में सुधार व्यक्ति की उत्पादन क्षमता और अर्जन क्षमता को भी संवर्धित करती है । अत: क्षमता सुधार के कारण आय में भी वृद्धि होगी । यह दूसरी प्रकार का सम्बन्ध सूत्र आय की विषमता के निवारण में बहुत उपयोगी हो सकता है ।

बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के सुधार केवल प्रत्यक्षत: जीवन की गुणवत्ता में सुधार नहीं लाते, इनके कारण व्यक्ति की उर्पाजन क्षमता में भी सुधार आता है और आय-आधारित गरीबी से सक्त हो पाने का प्रयास भी कर पाता है ।

बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का प्रसार जितना व्यापक होगा, जितने अधिक व्यक्तियों तक इसकी पहुंच होगी, उतनी ही अधिक सीमा तक समाज के गरीब सदस्य अपनी विपन्नताजनित दुर्दशा से उबर पाने में सफल रहेंगे । ज्यां ट्रीज के साथ मिलर हाल ही में भारत में आर्थिक सुधारों के मूल्यांकन विषयक अमर्त्यसेन के अध्ययन में इसी सम्बन्ध सूत्र को सारे विचार मंथन का केन्द्र बनाया था ।

अनेक प्रकार से आर्थिक सुधारों ने भारतीय जन सामान्य के लिए उन आर्थिक सुअवसरों के द्वार खोल दिए हैं जिन पर पहले अत्यधिक नियंत्रणवादी लाइसेन्स राज के ताले जड़े हुए थे किन्तु इन सुअवसरों का लाभ उठा पाने की सम्भावनाएं विभिन्न भारतीय जन समुदायों की सामाजिक सन्नद्धता से स्वतंत्र नहीं हो सकती ।

सुधार बहुत पहले ही हो जाने चाहिए थे, किन्तु ये और अधिक प्रभावोत्पादक हो सकते थे यदि हम ऐसी सामाजिक सुविधाओं की रचना कर चुके होते जिनसे सुधारजनित सुयोगों से समाज के सभी सदस्य लाभान्वित भी हो पाते ।

जापान से आरम्भ कर पूर्वी एवं अनेक दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों (सुधारोपरान्त चीन, हांगकांग, ताईवान, द. कोरिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड आदि) ने साक्षरता, अंकज्ञान सहित बुनियादी शिक्षा, अच्छी जनस्वास्थ्य व्यवस्था और प्रसार कर सुधारों की प्रक्रिया से बहुत लाभ उठाया है ।

भारत ने सूर्य के उदयाचल की दिशा से प्रसारित अर्थव्यवस्था की अनावृति और व्यापार सम्बन्धी उपदेशों को तो बहुत मनोयोग से ग्रहण कर लिया है किन्तु अन्य सन्देश अभी भी प्रायः अनसुने ही रह गए हैं । भारत में मानवीय विकास की दृष्टि से बहुत विकट क्षेत्रीय विषमताएँ विद्यमान हैं ।

एक ओर केरल है जहाँ साक्षरता, स्वास्थ्य सेवा, विकास एवं दूरगामी भू-सुधारों में व्यापक सफलता मिल चुकी है तो दूसरी ओर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे विशाल प्रान्त भी हैं जो विराट जन समुदाय से आप्लावित हैं पर जहाँ मानवीय विकास के लक्षण बहुत ही धूमिल हैं ।

इन त्रुटियों का स्वरूप भी अलग-अलग राज्यों में विलक्षणता से पूर्ण है । यह भी कहा जा सकता है कि हाल ही के समय तक केरल नियंत्रण रहित बाजार आश्रित आर्थिक समृद्धि के प्रति बहुत ही गहरे संदेहभाव से ग्रसित रहा है । इसी कारण इसके विकसित मानवीय संसाधन आर्थिक संवृद्धि के प्रसार का आधार नहीं बन पाए । जिस प्रकार से अब एक प्रतिपूरक आर्थिक रणनीति बनाने का प्रयास हो रहा है, यदि वह पहले हो गया होता तो सम्भवत: केरल भी तीव्र आर्थिक विकास से लाभान्वित हो रहा होता ।

इसके विपरीत उत्तर भारत के कई प्रदेशों में बाजार के सुयोगों तथा नियंत्रण के स्तरों में भले ही अंतर रहे हों पर उन सभी में सामाजिक विकास का स्तर प्रायः न्यून ही रहा है । समाज में व्याप्त अन्यान्य, अभावों और बाधिताओं के निवारण के लिए क्षमता-योग्यता और आय परिप्रेक्ष्यों के बीच द्विपक्षीय परिपूरकता को समझ लेने की आवश्यकता बहुत ही अधिक प्रतीत होती है ।

एक और बात भी बड़ी विलक्षण है । भले ही केरल प्रान्त की आर्थिक संवृद्धि दर बहुत सामान्य रही हो किन्तु उसकी आय विपन्नता में कमी की दर शेष प्रान्तों की तुलना में सबसे अधिक रही है । कुछ राज्यों ने तो तीव्र आर्थिक समृद्धि के आधार पर आय विपन्नता को कम किया है (पंजाब इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है) किन्तु केरल ने अपनी दुरवस्था के निवारण में मुख्यतः बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था और प्रभावी ढंग से भूमि के पुन: वितरण का सहारा लिया है ।

आय विपन्नता और क्षमता विपन्नताओं के बीच इन सम्बन्ध सूत्रों पर बल देना आवश्यक है पर साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि केवल आय विपन्नता का निवारण ही निर्धनता नीतियों का एकमात्र और अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता ।

निर्धनता को आय अभाव के दृष्टिकोण में बांधकर इस आधार पर शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में निवेश को उचित ठहराना कि इससे आय विपन्नता कम करने में सहायता मिलेगी, भी किसी न किसी रूप में समाज के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है ।

इस प्रकार तो साध्यों एवं साधनों के विषय में विभ्रम छा जाएगा । पहले भी उन कारकों की चर्चा की गई है जिनके कारण अनेक मूलभूत प्रश्न हमें गरीबी और वंचनाओं को मनोवांछित जीवनयापन और वास्तविक स्वातन्त्रयों के रूप में देखने-समझने को बाध्य कर रहे हैं ।

मानवीय क्षमता-योग्यताओं का प्रसार प्रत्यक्षतः इस परिदृश्य का एक अंग बन जाता है । यही नहीं, मानवीय योग्यताओं के संवर्धन में उत्पादिता और उर्पाजन क्षमताओं का भी परिपोषण होता है । इस सम्बन्ध में हमें एक ऐसा परोक्ष माध्यम भी मिल जाता है जिसके द्वारा योग्यता-संवर्द्धन परोक्ष एवं प्रत्यक्ष दोनों तरह से मानवीय जीवन को समृद्ध करता है और मानवीय अभावों-वंचनाओं को कुंठित करता है ।

साधनस्वरूप सम्बन्ध सूत्र महत्वपूर्ण हो सकते हैं किन्तु वे गरीबी के स्वरूप एवं लक्षणों की बुनियादी समझ-बूझ का स्थान नहीं ले सकते । विकास सम्बन्धी वर्तमान चिन्तन में निर्धनता उन्मूलन का स्थान सर्वोपरि है । एक समय था जब विकास से जुड़े विद्वानों और नीति निर्धारकों का ध्यान आर्थिक वृद्धि (इकानोमिक ग्रोथ) की दर व उसके ढाँचे अथवा पैटर्न तथा आय तथा सम्पत्ति के वितरण में असमानता पर केन्द्रित रहता था ।

यद्यपि ये विषय अभी भी महत्वपूर्ण हैं किन्तु अलग-अलग देशों में इस बात पर अधिकाधिक बल दिया जा रहा है कि किसी सीमा तक उनके देशवासी एक दीर्घ स्वस्थ एवं परिपूर्ण जीवन के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं से वंचित रहते हैं ।

पूरे विश्व के साथ भारतवर्ष में भी इस विषय पर स्वाधीनता के पूर्व ही चिन्तन प्रारम्भ हो गया था । अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय नियोजन समिति की रिपोर्ट में न्यूनतम जीवन स्तर की परिभाषा और उसके अवयवों की व्याख्या ठोस शब्दों में की गई थी ।

इसी बीच 15वें अन्तर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में न्यायोचित मजदूरी के आधार तथा जीवन निर्वाह हेतु आवश्यक मजदूरी की विषय वस्तु की व्याख्या की कांग्रेस द्वारा जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित, आर्थिक नीति, सम्बन्धी समिति ने यह सिफारिश की कि एक राष्ट्रीय मानक के अनुरूप प्रत्येक परिवार को भौतिक एवं सामाजिक कल्याण के लिए सभी आवश्यक तत्वों की एक यथोचित समय में पूर्ति सुनिश्चित किया जाना विकास की सभी योजनाओं का व्यवहारिक ध्येय होना चाहिए ।

इसी प्रकार संविधान में दिए गये राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत सरकार को यह विशेष जिम्मेदारी दी गई कि यह देश के नागरिकों के लिए पर्याप्त आजीविका व रोजगार के अवसर, स्वास्थ्य व पोषण, शिक्षा तथा सुरक्षा सुनिश्चित करें ।

इन सारी विवेचनाओं के बावजूद/सरकारी स्तर पर विकास के ध्येय तथा उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो सके । साठ तथा सत्तर के दशक में गरीबी की समस्या जिससे विकासशील देशों में अधिकांश लोग पीड़ित थे, के समाधान हेतु अपनायी नई नीतियों तथा कार्यक्रमों की असफलता के बीच विकास के ध्येय के रूप में आर्थिक वृद्धि के विषय में मोहभंग हो चुका था ।

इसका प्रभाव राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी चिन्तकों, नीति निर्णायकों पर पड़ा किन्तु उस समय भी यह सोचा जा रहा था कि आर्थिक वृद्धि तथा सामाजिक न्याय के ध्येय को कैसे प्राप्त किया जाए । तथापि गरीबी, बेरोजगारी तथा सामाजिक असमानता पर ध्यान दिया जाने लगा और सभी देशों ने इन समस्याओं को समाप्त करने हेतु अपनी-अपनी रणनीतियाँ तथा एप्रोचेज तैयार की ।

भारतवर्ष में भी इस मामले स्पष्टता नहीं थी कि आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना किस प्रकार सामाजिक न्याय के ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है । यद्यपि सामाजिक न्याय को प्रारम्भ से ही प्रजातंत्र को जीवित रखने के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में स्वीकार किया गया था । प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह भ्रान्ति बनी रही ।

“आर्थिक समानता तथा सामाजिक न्याय प्रजातंत्र को जीवित रखने हेतु अनिवार्य शर्त है ओर आय तथा सम्पत्ति में विषमताओं को कम करने के लिए सावधानीपूर्वक तैयार की गई नीति नियोजन का मूलतंत्र है । किन्तु आर्थिक समानता लाने हेतु, जल्दबाजी में उठाए गये कदम बचत तथा उत्पादन के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं और हम जिस प्रकार की नियोजित अर्थव्यवस्था चाहते हैं उसे प्राप्त करने में कठिनाई हो सकती है ।”

इसी प्रकार की दुविधा दूसरी पंचवर्षीय योजना में भी चलती रही और नियोजन की नीति निर्धारण करने वाले विशेषज्ञ यह महसूस करते थे कि आर्थिक वृद्धि तथा सामाजिक न्याय के ध्येयों में असामंजस्य है अथवा वे परस्पर विरोधी हैं ।

तथापि दूसरी योजना में इस सम्बन्ध में कुछ घिसे पिटे उद्देश्य दोहराए गये यथा रोजगार के अवसरों में व्यापक विस्तार किया जायेगा तथा आय एवं सम्पत्ति में असमानता को कम करके आर्थिक शक्ति का समान वितरण किया जायेगा ।

तीसरी तथा चौथी पंचवर्षीय योजनाओं में पुन: समानतावादी ध्येयों का धार्मिक अनुष्ठान के तरीके से उल्लेख किया गया । उदाहरणार्थ तीसरी योजना के उद्देश्यों में यह कहा गया कि अवसरों में उत्तरोत्तर अधिक समानता स्थापित करना तथा आय व सम्पत्ति में असमानता कम करके आर्थिक शक्ति का अधिक समान वितरण करना इस योजना का प्रमुख ध्येय होगा ।

इसी प्रकार चौथी योजना में यह कहा गया कि विकास के लाभ साधारण व्यक्ति तथा समाज के कमजोर वर्ग तक पहुँचने चाहिए ताकि उत्पादन क्षमता को निर्बाध रूप से विकसित किया जा सके । इस समय तक विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के परिणामों से निराशा बढ़ती जा रही थी और मोह दूर होता जा रहा था । यह तथ्य भी सामने आ गया था कि साठ के दशक के अन्त में हरित क्रान्ति द्वारा कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि के बावजूद इसका लाभ छोटे किसानों को नहीं पहुँच पाया ।

छोटे किसानों तथा कृषि श्रमिकों की आय तथा उत्पादकता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई । इस सम्बन्ध में आवश्यक कदम उठाने हेतु चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान स्माल फारमर्स डेवलपमेन्ट एजेन्सी तथा मार्जिनल फारमर्स एण्ड लैण्डलैस लेबरर्स प्रोग्राम, ड्राउटप्रोन एरिया प्रोग्राम तथा कमाण्ड एरिया डेवलपमेन्ट प्रोग्राम आदि कार्यक्रम प्रारम्भ किए गये ।

इनका उद्देश्य यह था कि- जिला अथवा क्षेत्रीय स्तर पर कार्यक्रम तैयार करके क्रियान्वित किए जाये और उनमें राज्य सरकारों का कोई हस्तक्षेप न हो । इन संस्थाओं को कुछ स्वायतत्ता प्रदान की गई और वित्तीय वर्ष में धनराशि कालातीत (लैप्स) न होने का प्राविधान रखा गया ।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में काम के बदले अनाज योजना, डैजर्ट डैवलपमेन्ट प्रोग्राम भी इसी उद्देश्य से प्रारम्भ किए गये ताकि सम्पत्ति विहीन लोगों तथा समाज के कमजोर वर्गों में असंतोष की भावना को दूर किया जा सके ।

ये सभी कार्यक्रम चालू विकास योजनाओं से अलग प्रारम्भ किये गये और ये सीमित क्षेत्र में क्रियान्वित किए गये । इन कार्यक्रमों का स्वरूप छुटपुट था और इनका उद्देश्य किसी विशिष्ट समस्या का समाधान करना अथवा उसे बढ़ने न देने से रोकना था । इनकी रचना के सैद्धान्तिक पक्ष पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया था । तथापि पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन की बात की गई थी, किन्तु यह दर्शनमात्र ही रह गया ।

गरीबी की रेखा:

इन्हीं बातों के साथ-साथ विभिन्न मंचों पर निर्धनों की समस्याओं पर विचार-विमर्श प्रारम्भ होने के पूर्व जो बड़ी कठिनाई बार-बार उभर कर आ रही थी वह निर्धनों की परिभाषा की थी । इण्डियन लेबर कान्फ्रेन्स ने 1357 में पुन: मजदूरी निश्चित करने के सिद्धान्तों के निर्धारण के विषय में ऐसे ही मामले उठाये ।

1962 में योजना आयोग के कार्यकारी दल ने न्यूनतम रहन-सहन के स्तर के विभिन्न पक्षों पर विचार करने के उपरान्त निम्नलिखित संस्कृति की थी:

“पाँच व्यक्तियों (अर्थात चार वयस्कों) के एक परिवार के लिए राष्ट्रीय न्यूनतम 1960-61के मूल्यों पर रु. 100.00 से कम मासिक नहीं होना चाहिए या रु. 20.00 प्रति व्यक्ति । शहरी क्षेत्र में वस्तुओं के अपेक्षाकृत महँगे दामों को ध्यान में रखते हुए यह राशि रु. 125.00 मासिक होनी चाहिए अर्थात रु. 25.00 प्रति व्यक्ति ।”

उपरोक्त के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि- न्यूनतम रहन-सहन के स्तर की उक्त अवधारणा स्व. पीताम्बर पंत द्वारा तैयार किए गये एक निबन्ध में अगस्त 1962 में प्रस्तुत की गई थी । यह निबन्ध 1961-76 के विकास के परिप्रेक्ष्य पर विचारार्थ योजना आयोग द्वारा गठित कार्यकारी दल के निर्देशन में तैयार किया गया था ।

इसमें उस कार्यकारी दल की संस्तुतियों को भी सम्मिलित किया गया था जिसमें ‘गरीबी की रेखा’ को परिभाषित किया गया था । इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इस दस्तावेज में पहली बार दयनीय गरीबी की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया गया था और गरीबी के आकार को परिभाषित किया गया था ।

यह सिद्ध करने के साथ-साथ कि आधे लोग दयनीय निर्धनता में रहते हैं इसमें गरीबी के उन्मूलन की महती आवश्यकता पर बल दिया गया था । इसमें कहा गया था कि- इतनी व्यापक गरीबी एक ऐसी चुगती है जिसकी आधुनिक काल में कोई भी समाज, लम्बे समय तक उपेक्षा नहीं कर सकता ।

इसका उन्मूलन मानवीय आधार के साथ-साथ सुव्यवस्थित प्रगति के लिए आवश्यक शर्त के रूप में भी किया जाना आवश्यक है । किसी परिपक्व जनतंत्र में किसी भी ऐसी नीति अथवा कार्यक्रम को जन सहयोग और राजनैतिक समर्थन नहीं मिल सकता जो गरीबी उन्मूलन में असफल हैं ।

अत: हमारे नियोजन का केन्द्र बिन्दु शीघ्र अति शीघ्र गरीबी उन्मूलन होना चाहिए । अब समय आ गया है कि जब हमें देश के प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित समय में न्यूनतम आमदनी सुनिश्चित करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ।

उक्त दस्तावेज में यह भी स्वीकार किया गया कि निर्धनों में निर्धनतम लोग वृद्धि अथवा विकास की प्रक्रिया से स्वतः लाभान्वित नहीं हो पायेंगे । काफी बड़ी संख्या में लोग सुदूर क्षेत्रों में रहते हैं जो हमारी अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से अलग-अलग है ।

इसके साथ ही हमारी ग्रामीण आर्थिक गतिविधियाँ अर्थव्यवस्था के बढ़ने वाले सेक्टर्स के साथ पूर्ण रूप से सुग्रथित नहीं है । अर्धरोजगारों की बहुत बड़ी संख्या जिसमें भूमिहीन, सीमान्त कृषक शामिल है, की अपेक्षाकृत कम गतिशीलता आदि कुछ ऐसे कारक हैं जिनके कारण आर्थिक विकास द्वारा अपने आप सारी जनसंख्या की आमदनी नहीं बढ़ सकती ।

काफी बड़े अनुपात में लोग या तो इससे अछूते रहेंगे या अधिकांश बहुत कम लाभ उठा सकेंगे जब तक उनकी समस्याओं का समाधान करने हेतु विशिष्ट उपाय नहीं किये जाते । इसमें यह माना गया कि इस श्रेणी में लगभग जनसंख्या के 1/5 लोग रहेंगे ।

इस प्रकार लगभग तीन दशक पूर्व यह स्वीकार किया गया कि विकास, जिसका उद्देश्य जी. डी. पी. में वृद्धि करना है के द्वारा गरीबों के नीचे के दो दशमक (डैसाइल) को लाभ नहीं पहुँच सकेगा यदि उनके लिए कुछ विशेष कदम नहीं उठाये गये ।

विकास की परम्परागत प्रक्रिया उन्हें अछूता छोड़ते हुए निकल जायेगी, इसका एहसास उस समय हो गया था । स्व. पीताम्बर पन्त के निर्देशन में तैयार किए गये उक्त निबन्ध पर योजना आयोग द्वारा विचार तो किया गया किन्तु उसे औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया ।

उसी समय भारत-चीन युद्ध, नेहरू जी का देहान्त तथा भारत-पाक युद्ध और उसके बाद के सूखे ने देश के सामने गम्भीर समस्याएं पैदा कर दी और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है चौथी पंचवर्षीय योजना में रहन-सहन का न्यूनतम स्तर प्राप्त करने के विषय में कोई उल्लेख भी नहीं आया ।

तथापि साठ के दशक के अन्त में गरीबी तथा जीवन की गुणवत्ता, स्वास्थ्य तथा पोषण आदि के विषयों पर बहुत से शोधकार्य किए गये । इस तथ्य की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया कि जीवन की गुणवत्ता आय के ऊँचे स्तर पर ही निर्भर नहीं करती ।

इसके लिए बहुत से सामाजिक और राजनैतिक कारण हो सकते हैं । इस सन्दर्भ में भारतवर्ष में केरल तथा श्रीलंका का उदाहरण भी दिया गया । इसी बीच महालोनीबिस कमेटी (1967) तथा हजारी (1967) के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया कि उस समय तक पंचवर्षीय योजनाओं के फलस्वरूप उपभोग, आमदनी तथा आर्थिक शक्ति के संकेद्रन में कोई कमी नहीं आई है ।

इसी परिप्रेक्ष्य में चरम निर्धनता तथा उसे कम करने की रणनीतियों के विषय में बहुत से शोध अध्ययन किए गये । डान्डेकर तथा रथ (1974) ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी इन इण्डिया’ में इस बात पर बल दिया कि गरीबी की रेखा की परिभाषा पोषक भोजन तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं को क्रय करने योग्य न्यूनतम आय के आधार पर की जानी चाहिए ।

उन्होंने गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के अनुमान दिए तथा इसे दूर करने हेतु लोक निर्माण के विशाल कार्यक्रम प्रारम्भ किए जाने की रणनीति का सुझाव दिया । 1970 के दशक के प्रारम्भिक सालों में गरीबी के परिमाणीकरण तथा उसके आकार के सम्बन्ध में पर्याप्त साहित्य विकसित हो चुका था । इस विषय पर अच्छी खासी बहस देश भर में प्रारम्भ हो चुकी थी जो पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अभिगमन पत्र (एप्रोच पेपर) में परिलक्षित होती है ।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के आलेख में गरीबी उन्मूलन के विषय को यथेष्ट स्थान दिया गया था । इस आलेख में उस समय विद्यमान स्थिति का विश्लेषण भी किया गया था और यह कहा गया था कि- “पूरी जनसंख्या के 30 प्रतिशत लोगों का कुल निजी उपभोग के लगभग 13 प्रतिशत भाग पर आश्रित होने का अनुमान है ।”

इसमें आगे दुख व्यक्त किया गया था कि यदि यह स्थिति अपरिवर्तित रही तो सबसे नीचे 30 प्रतिशत लोगों के उपभोग का मासिक स्तर रु. 25.00 (1972-73 के मूल्यों पर) से रु. 26.00 हो जायेगा और 1983-64 में रु. 35.00 तथा (1985-86 में रु. 38.00) हो जायेगा ।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि 1980 के दशक के मध्य तक भी जनसंख्या के इस भाग का उपभोग का स्तर रु. 40.00 मासिक के मानदण्ड से कम ही रहेगा । स्पष्टत: असमानता का वर्तमान स्तर हमारे गरीबी उन्मूलन के ध्येय के अनुरूप नहीं है ।

यद्यपि पाँचवीं योजना के आलेख में इस मामले पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया था किन्तु पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अन्तिम दस्तावेज में इसका सरसरी तौर पर उल्लेख किया गया और गरीबी उन्मूलन या गरीबी को पर्याप्त मात्रा में कम करने का उल्लेख मात्र भी नहीं किया गया ।

बस योजना दस्तावेज में रोजगार तथा सरकारी निवेश के माध्यम से लाभपूर्ण रोजगार में वृद्धि करने की रणनीति विकसित की गई ताकि योजना में निर्धारित उत्पादन वृद्धि के लक्ष्यों, कृषि विकास हेतु सरकारी समर्थन को गहन तथा परिष्कृत करने, भूमि सुधार क्रियान्वयन करने तथा लघु कृषकों को सहायता पहुंचाने व संगठित क्षेत्र में रोजगार सृजन करने पर ध्यान केन्द्रित किया गया ।

जहाँ तक जीवन स्तर का प्रश्न है उसके मापने हेतु पाँचवीं योजना में अपनाई गई विधि का प्रयोग उपभोग के मानकों तथा रोजगार के परिदृश्य को एकीकृत करने हेतु किया गया । इस प्रकार गरीबी उन्मूलन पर ध्यान धूमिल हो गया ।

अन्ततोगत्त्वा छठी पंचवर्षीय योजना में गरीबी की रेखा परिभाषित की जा सकी । छठी पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति का उपभोग करने वाले वर्ग द्वारा किए गये व्यय का मध्य बिन्दु इस रेखा के रूप में तय किया गया ।

इस व्यय का ‘कट ऑफ पाइन्ट’ यद्यपि रु. 4,560.00 प्रतिवर्ष होना चाहिए था किन्तु यह रु. 3,500.00 निर्धारित किया गया । इस बात का कोई स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया । निर्धनता की रेखा विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में पुनरीक्षित होती रही और यह ‘कट ऑफ पाइन्ट’ 1962-63 के मूल्यों पर रु. 13,680.00 ग्रामीण क्षेत्रों तथा रु. 15,840.00 शहरी क्षेत्रों में स्वीकार किया गया ।

गरीबी की रेखा को उपरोक्त व्यय धनराशि के रूप में निर्धारित किए जाने में एक बड़ी असंगति थी । यह माना गया था कि सभी को खाद्यान्न सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से प्राप्त होगा । जबकि उस समय केवल 10 प्रतिशत जनसंख्या ही इससे लाभान्वित होती थी ।

दूसरी असंगति थी कि शहरी तथा ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में खाद्यान्न बराबर मूल्यों पर उपलब्ध होता है । कालान्तर में इन असंगतियों को दूर किया गया । इस असंगति को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गरीबी की रेखा से नीचे (बी.पी.एल.) तथा इस रेखा से ऊपर (ए.पी.एल.) श्रेणियों में बाँटकर अलग-अलग मूल्यों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के निर्णय द्वारा किया गया ।

गरीबी की रेखा की परिभाषा के सम्बन्ध में सातवें वित्त आयोग ने यह कहा था कि यह बहुत ही सीमित परिभाषा है और गरीबी की रेखा मात्र उपभोग व्यय के आधार पर तय नहीं की जानी चाहिए बल्कि इसके अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, आवास, पेयजल इत्यादि पर होने वाले व्यय को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए ।

इसके अलावा आयु, लिंग तथा व्यवसाय आदि की भिन्नताओं पर भी इस परिभाषा में ध्यान नहीं दिया गया है । पोषण विशेषज्ञ सुखात्में ने कहा था कि ऊर्जा (एनर्जी) की आवश्यकता का औसत भी अलग-अलग होता है । एक ही आयु, लिंग तथा व्यवसाय के हर व्यक्ति के लिए समय-समय पर भी अलग-अलग एनर्जी लेवल की आवश्यकता हो सकती है । उपरोक्त के अलावा ग्रामीण क्षेत्र में आय का अनुमान कठिन है ।

दैनिक मजदूरी पर खेतिहर मजदूरों की आय विभिन्न वर्षों में या समय में एक समान नहीं रहती और यह कृषि उत्पादन की विविधता, वर्षा अथवा सूखा आदि से प्रभावित होती रहती है । बहुत से स्थानों में यह आंशिक रूप से नकद तथा आंशिक रूप से खाद्यान्न के रूप में दी जाती है ।

तथापि यह गरीबी की रेखा सरकार द्वारा मान ली गई है और राष्ट्रीय प्रतीक सर्वेक्षण संगठन द्वारा इसके अनुमान उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आधार पर लगाए जाते हैं और इसी के साथ-साथ केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन व नेशनल काउन्सिल ऑफ एप्लाइड इकानोमिक रिसर्च भी गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के अनुमान लगाने हैं । यद्यपि यह वाद विवाद चलता रहता है ।

सातवीं तथा उसके बाद की योजनाओं में यह व्यय सीमा पुनरीक्षित की जाती रही है । गरीबी उन्मूलन के विशेष कार्यक्रम के रूप में 1976 में तत्कालीन वित्तमंत्री सी. सब्रमण्यम ने अपने बजट भाषण में एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना के प्रारम्भ करने का प्रावधान किया था किन्तु 1977 में केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के कारण इसका गम्भीरतापूर्वक पालन नहीं किया जा सका ।

तथापि इस समय तक यह तथ्य उभर कर आ चुका था छठी पंचवर्षीय योजना में प्रारम्भ किए गये कार्यक्रम जैसे स्माल फारमर्स डेवलपमेन्ट एजेन्सी, मार्जिनल फारमर्स एण्ड एग्रीकल्चरल लेबरर्स प्रोग्राम, ड्राइट प्रोन एरिया प्रोग्राम तथा कमाण्ड एरिया डेवलपमेन्ट प्रोग्राम आदि के अन्तर्गत बहुत सीमित क्षेत्र आच्छादित (1818 विकास खण्ड) था और इनमें विभागीय कारकों (सैक्टोरल फैक्टर्स) को आधार बनाया गया था ।

इनमें केवल प्राथमिक सेक्टर अथवा कृषि एवं सम्वर्गीय कार्यक्रमों को ही सम्मिलित किया गया था जिनसे केवल वे ही लाभान्वित हो सकते थे जो भूमि के स्वामी हैं । भूमिहीन लोगों को इनसे लाभ प्राप्त नहीं हो सकते थे ।

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इसलिए इन कार्यक्रमों में अधिक लाभान्वितों को फायदा पहुँचाने के उद्देश्य से 1978-83 की छठी योजना आलेख में पूर्ण रोजगार प्रदान करने हेतु एकीकृत ग्रामीण विकास परियोजना लागू की गई और लक्षित समूहों को अन्त्योदय के आधार पर आच्छादित करने का निर्णय किया गया । प्रत्येक वर्ष इसमें 300 नए विकास खण्ड लेने का निर्णय लिया गया ।

इसी बीच केन्द्र में पुन: सत्ता परिवर्तन हुआ और छठी योजना को दोबारा तैयार करने का निर्णय लिया गया । यह भी निश्चय किया गया कि देश के सभी विकास खण्डों में एकीकृत ग्राम्य विकास योजना लागू की जाएगी । यह उल्लेखनीय है कि आलेख छठी पंचवर्षीय योजना (1978-83) तथा छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में गरीबी उन्मूलन हेतु एक त्रिभुजी रणनीति का उल्लेख किया गया ।

जिसमें निम्न अवयव थे:

(१) उत्पादक परिसम्पत्ति पर आधारित स्वतः रोजगार तथा सम्पूरक रोजगार के अवसरों में वृद्धि करके ऐसे लोगों की आमदनी में बढ़ोत्तरी करना जो अधिकतर सम्पत्ति विहीन है ।

(२) पारिस्थितकीय (इकोलोजिकल) दृष्टि से प्रतिकूल क्षेत्रों, जहाँ रोजगार के अवसर सीमित हैं और जहाँ व्यापक तथा गहन गरीबी है, का विकास करना ।

(३) जन सामान्य विशेषकर निर्धन व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के उद्देश्य से मूल न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सामाजिक उपभोग हेतु प्रावधान ।

पहले समूह में एकीकृत ग्रामीण विकास योजना, ट्रेनिंग फार सेल्फ एम्प्लायमेन्ट (ट्राइसेम), डेवलपमेन्ट ऑफ वीमेन एण्ड चिन्ड्रेन इन रूरल एरियाज (डी.डब्लू.सी.आर.ए.), नेशनल रूरल एम्प्लायमेन्ट प्रोग्राम (एन.आर.ई.पी.) तथा रूरल लैंडलैस गारण्टी एम्प्लायमेन्ट प्रोग्राम (आर.एल.जी.ई.पी.), दूसरे में ड्राउट प्रोन एरिया डेवलपमेन्ट तथा डैजर्ट डेवलपमेन्ट प्रोग्राम तथा तीसरे समूह में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम सम्मिलित किए गये ।

न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अन्तर्गत- (१) प्राथमिक शिक्षा, (२) प्राथमिक स्वास्थ्य, (३) ग्रामीण पेयजल सम्पूर्ति, (४) ग्रामीण सड़कें, (५) ग्रामीण विद्युतीकरण, (६) शहरी मलिन बस्तियों का पर्यावरणीय सुधार तथा, (७) पोषण शामिल किए गये ।

काफी समय के बाद सरकार को यह एहसास हुआ कि लघु तथा सीमान्त कृषकों के अलावा भी ऐसे निर्धन लोग हैं जिन्हें सहायता की आवश्यकता है और प्रभावशील व्यक्ति उनके हिस्से के हितलाभों को न हड़पने देने के लिए सरकारी संरक्षण भी आवश्यक है ।

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इस पृष्ठभूमि में एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम को एक छतरी कार्यक्रम (अम्ब्रेला प्रोग्राम) के रूप में सोचा गया और ट्राइसेम, एन.आर.ई.पी. आर.एल.ई.जी.पी. आदि सम्पूरक कार्यक्रम चलाए गये ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में और अधिक सवेतन रोजगार के अवसर सृजित हो सके ।

यह कहना गलत नहीं होगा कि छठीं योजना में हो गरीबी उन्मूलन के प्रति सुनियोजित दृष्टिकोण अपनाया गया । सातवीं पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में छूटी हुई कड़ी भूमि सुधारों को सम्मिलित किया गया । सातवीं योजना के दस्तावेज में इस बात को बलपूर्वक कहा गया कि आधुनिकीकरण हेतु, निर्धनता उन्मूलन की रणनीति तथा बढ़ी हुई कृषि उत्पादकता हेतु भूमि सुधार महत्वपूर्ण तत्व हैं ।

भूमि के पुनर्वितरण द्वारा बहुत बड़ी संख्या में ग्रामीण निर्धनों को ऐसी स्थायी उत्पादक सम्पत्ति का आधार मिल सकेगा जिसमें वे भूमि आधारित तथा अन्य सम्पूरक कार्य कर सकेंगे । यह भी मान लिया गया कि निर्धन वर्ग के लोगों की आर्थिक बेहतरी संरचनात्मक परिवर्तनों के साथ सामाजिक कायापलट, शैक्षिक विकास, जागरूकता में वृद्धि तथा उनके दृष्टिकोण तथा उत्प्रेरण में परिवर्तन के बिना नहीं हो सकता ।

सामाजिक ढांचा भी ऐसा होना चाहिए जिसमें ऐसे अवसर उपलब्ध हों जिसमें समाज के निर्धन वर्गों को पहल करने और अपने पैरों पर खड़े होने में सहायता मिल सके । आठवीं पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया । केवल इतना ही प्रावधान किया गया कि आई.आर.डी.पी. में ऐसे लाभान्वितों को जो गरीबी की रेखा पार नहीं कर पाये हैं, को अनुदान तथा ऋण की दूसरी खुराक (डोज) दी जाए ।

नवीं पंचवर्षीय योजना (1967-2002) के चार महत्वपूर्ण आयामों के अतिरिक्त एक मुख्य केन्द्र बिन्दु महत्वपूर्ण है- ‘सामाजिक विकास और समानता के साथ विकास’ । योजना में आशा की गई है कि ग्रामीण गरीबी दूर करने के लिए पर्याप्त उत्पादक रोजगार जुटाया जा सकेगा ताकि लोगों के जीवन-स्तर में सुधार हो । इस योजना में गरीबी उन्मूलन की योजनाओं को पुनर्गठित किया गया ।

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