अमर शहीद भगतसिंह पर दो निबन्ध | Read These Two Essays on Bhagat Singh in Hindi!
# Essay 1: अमर शहीद भगतसिंह पर निबन्ध | Essay on Bhagat Singh in Hindi
1. प्रस्तावना:
हमारी भारत भूमि वीरों की भूमि रही है । इस भूमि में ऐसे वीरों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने देश एवं समाज के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया । ऐसे वीर शिरोमणियों में से एक अमर क्रान्तिकारी वीर थे- ‘शहीद भगतसिंह’, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते दे दिया ।
देश के इस महान् क्रान्तिकारी ने न केवल फांसी को गले लगाया, वरन् अन्य नवयुवकों को भी राष्ट्रीयता का ऐसा अजस्त्र प्रेरणा-स्रोत दिया कि उनके पीछे-पीछे वे भी आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ कुरबान करने हेतु कूद पड़े । इतनी कम अवस्था में अंग्रेजों के नाकों में दम भरने वाले इस क्रान्तिकारी सिक्ख का नाम विश्व के इतिहास में सदा अमर रहेगा ।
2. जन्म व शिक्षा-दीक्षा:
अमर शहीद भगतसिंह का जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर के बंगा गांव में हुआ था । उनके पिता किशनसिंह एवं छोटे चाचा स्वर्णसिंह भी आजादी की लड़ाई लड़ने वाले गर्म दल के क्रान्तिकारी नेताओं में गिने जाते थे ।
अंग्रेजों ने उन्हें कितनी ही बार जेल में कैद रखा । छोटे चाचा स्वर्णसिंह की मृत्यु तो जेल की अमानुषिक यातनाओं को सहने के कारण हुई थी । परिवार में आजादी के इन परवानों के बीच पले-बढ़े भगतसिंह को राष्ट्रीयता-राष्ट्रप्रेम की शिक्षा वहीं से मिली ।
उनकी प्राथमिक शिक्षा उनके गांव में ही पूर्ण हुई । 1916-17 को उन्हें लाहौर के डी०ए०वी० स्कूल में प्रवेश दे दिया गया । यहां उनकी राष्ट्रीयता की भावना को काफी बल मिला । नवमी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उनका परिचय आचार्य जुगलकिशोर, भाई परमानन्द, श्री जयचन्द्र विद्यालंकार जैसे क्रान्तिकारियों से हुआ । कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ वे क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे । विदेशी वस्त्रों की होली जलाना, रोलेट एक्ट का विरोध जैसी गतिविधियों में भाग लिया ।
सन् 1919 के जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड से उनका खून खौल उठा । दूसरे दिन जाकर वहां की खून से सनी मिट्टी ले आये । लाहौर के नेशनल कॉलेज में अपने अन्य साथियों की मदद से उनका परिचय लाला लाजपतराय और उनके साथी कुछ प्रमुख नेताओं आचार्य जुगलकिशोर, भाई परमानन्द से हुआ । उन्हें सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह जैसे साथी मिले ।
सन् 1923 में जब उन्होंने एफ०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो उनके विवाह की तैयारियां की जाने लगीं । मातृभूमि की राह में शहादत देने का संकल्प कर चुके भला इस क्रान्तिकारी को जीवन के इन सुख-भोगों से क्या मतलब था? चुपचाप घर छोड़कर लाहौर से सीधे कानपुर पहुंचे । वहां के क्रान्तिकारी जोगेशचन्द्र चटर्जी, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य के सम्पर्क में आये । उन्होंने इस सिक्ख क्रान्तिकारी की पहचान छिपाने के लिए उन्हें ‘प्रताप प्रेस’ में पत्रकार के रूप में काम पर लगा दिया ।
इसके साथ-साथ उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियां चलती रहीं । श्री गणेश शंकर विद्यार्थी, श्री बटुकेश्वर दत्त से उनका परिचय हुआ । इसी बीच उन्होंने नवयुवकों में क्रान्ति की भावना जागृत करने के लिए नौजवान सभा का गठन किया । यहां पर अंग्रेजों द्वारा पहचान लिये जाने की आशंका से ग्रसित होकर वे कुछ समय के लिए दिल्ली चले आये । यहां पर उन्होंने दैनिक अर्जुन में काम किया ।
3. राजनीति में सक्रिय प्रवेश एवं उनके कार्य:
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भगतसिंह का राजनीति में सक्रिय प्रवेश 1925 में हुआ । 9 अगस्त 1922 को लखनऊ स्टेशन से 12 कि०मी० की दूरी पर काकोरी रेलवे स्टेशन पर जब क्रान्तिकारियों ने अंग्रेज सरकार के सरकारी खजाने को लूटा, तो रामप्रसाद बिस्मिल और गेंदालाल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां पकड़े गये । रोशन अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दे दी गयी । चन्द्रशेखर आजाद ने उनकी फांसी की सजा को रद्द करने के लिए नेहरू एवं गांधीजी से सहयोग मांगा था ।
क्रान्तिकारियों के दल को पुन: संगठित करने के लिए आजाद भगतसिंह से मिले । बम, पिस्तौल आदि चलाना अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार एकत्र करने वाले इन क्रान्तिकारियों से सरकार खौफ खाने लगी थी । 25 जुलाई 1927 को भगतसिंह दल के प्रचार-प्रसार हेतु अमृतसर पहुंचे, तो पुलिसवालों को पीछा करते देखकर एक वकील के घर जा छिपे । अपनी पिस्तौल वहीं छिपा दी ।
किन्तु उन पर अंग्रेज सरकार ने दशहरे के जुलूस पर बम फेंकने का झूठा आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया, ताकि उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों पर नियन्त्रण लगाया जा सके । 15 दिनों की शारीरिक और मानसिक यन्त्रणाओं के बीच मजिस्ट्रेट ने उन पर संगीन आरोप लगाकर 40,000 की जमानत राशि (उस समय की सबसे बड़ी रकम) की मांग की । दो देशभक्त नागरिकों ने उस समय उनकी सहायता की । इसी बीच भगतसिंह डेयरी चलाने की आड़ में क्रान्ति साधना में पुन: जुट गये ।
सन् 1928 को उन्होंने इलाहाबाद से ‘चांद’ तथा ”विप्लव यज्ञ की आहुतियां” शीर्षक से भारतीय क्रान्तिकारियों के चित्र व चरित्र संग्रहित किये । इसी के साथ भगतसिंह ने अपने क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन एवं नवीनीकरण कर सितम्बर 1928 की 8 तारीख को गुप्त बैठक कर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियन का गठन किया । दल का पुनर्गठन कर कुछ क्रान्तिकारियों के साथ बनाये गये संगठन को नाम दिया- हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी, जिसका सेनापति बनाया गया- चन्द्रशेखर आजाद को ।
इन सब क्रान्तिकारी गतिविधियों के बीच सन् 1928 को साइमन कमीशन बम्बई पहुंचा, तो उसका जमकर विरोध हुआ । 30 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा, तो लाला लाजपतराय के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन करने वाले इस दल पर साण्डर्स ने लाठियां बरसाना शुरू कर दिया । लाल लाजपतराय की इस हमले से मृत्यु हो गयी ।
इस घटना से क्षुब्ध होकर भगतसिंह ने साण्डर्स से बदला लेने की ठानी । इस काम में राजगुरु, सुखदेव, आजाद के साथ वे साण्डर्स को मारकर सफाई से भाग निकले । दूसरे दिन लाल स्याही से छपे पोस्टर पर उन्होंने ”अंग्रेज सावधान हो जाओ” चिपकवा दिया । सम्पूर्ण देश में भगतसिंह और उनके दल की सराहना हो रही थी ।
अपने पीछे पड़ी पुलिस को छकाने के लिए उन्होंने सुन्दर कोट, पैंट, हैट के साथ ऊंची सैण्डल में उनकी सुन्दर सी पत्नी बनी क्रान्तिकारी भगवतचरण की बहू दुर्गा भाभी के साथ गोद में ढाई साल का बेटा लिये भाग निकले । उनके पीछे फर्स्ट क्लास के डिब्बे में नौकर बने राजगुरू चल रहे थे । कलकत्ता में आकर भगतसिंहं बंगाली का वेश धारण करके निकलते थे । यहां रहकर उन्होंने बम बनाना सीखा ।
वहां से वे दिल्ली पहुंचे । यहां की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकना निश्चित हुआ । इस कार्य का बीड़ा उठाया स्वयं भगतसिंह एवं उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने । 18 अप्रैल 1929 को असेम्बली में बम फेंककर उन्होंने नारा लगाया- ”इंकलाब जिन्दाबाद, अंग्रेज साम्राज्यवाद का नाश हो ।” अंग्रेज सरकार ने उनको गिरफ्तार कर लिया ।
12 जून 1929 को सेशन जज ने धारा 307 के तहत उन पर विस्फोटक पदार्थ रखने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा मान्य की । इसी बीच सुखदेव को फांसी की सजा दे दी गयी । विभिन्न अदालतों में की गयी अपीलों पर कोई सुनवाई नहीं हुई । फांसी का समय प्रातःकाल 24 मार्च 1931 निर्धारित हुआ ।
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किन्तु अंग्रेज सरकार ने 23 मार्च को रात्रि 7:33 बजे एक दिन पहले ही नियम विरुद्ध फांसी दे दी । आजादी के परवाने ”मेरा रंग दे बसंती चोला” कहते हुए सुखदेव और राजगुरु के साथ फांसी पर झूल गये । ब्रिटिश सरकार ने उनकी देह को सतलुज किनारे जला दिया ।
4. उपसंहार:
सम्पूर्ण देशवासियों को भगतसिंह की शहादत पर गर्व रहेगा । भगतसिंह चाहते, तो देश से बाहर रहकर काम करते, किन्तु उन्होंने स्वेच्छा से बलिदान का रास्ता चुना । उनका मानना था कि जीवन की सार्थकता देश-सेवा, समाज सेवा में है । सारा भारतवर्ष युगों-युगों तक उन्हें याद करता रहेगा । उनके चरित्र तथा आदर्शों से प्रेरणा लेता रहेगा । धन्य है भगतसिंह का बलिदान ।
# Essay 2: शहीद भगत सिंह पर निबंध! Essay on ‘Shaheed Bhagat Singh’ in Hindi
देशप्रेम से ओत-प्रोत व्यक्ति सदा अपने देश के प्रति कर्त्तव्यों के पालन हेतु न केवल तत्पर रहता है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण न्योछावर करने से भी पीछे नहीं हटता । स्वतन्त्रता से पूर्व का हमारे देश का इतिहास ऐसे ही देशभक्तों की वीरतापूर्ण गाथाओं से भरा है, जिनमें भगतसिंह का नाम स्वतः ही युवाओं के दिलों में देशभक्ति एवं जोश की भावना पैदा कर देता है ।
स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने आपको कुर्बान कर उन्होंने भारत में न केवल क्रान्ति की एक लहर पैदा की, बल्कि अंग्रेजी साम्राज्य के अन्त की शुरूआत भी कर दी था । यही कारण है कि भगतसिंह आज तक अधिकतर भारतीय युवाओं के आदर्श बने हुए हैं और अब तो भगतसिंह का नाम क्रान्ति का पर्याय बन चुका है ।
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भगतसिंह अपने जीवनकाल में ही अत्यधिक प्रसिद्ध एवं युवाओं के आदर्श बन चुके थे । उनकी प्रसिद्धि से प्रभावित होकर पट्टाभि सीतारमैया ने कहा था- “यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय है, जितना कि गाँधीजी का ।”
भगतसिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा नामक गाँव में एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है । भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे ।
जिस दिन भगतसिंह का जन्म हुआ था, उसी दिन उनके पिता एवं चाचा जेल से रिहा हुए थे, इसलिए उनकी दादी ने उन्हें अच्छे भाग्य वाला मानकर उनका नाम भगतसिंह रख दिया था । देशभक्त परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को बचपन से ही देशभक्ति और स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ने को मिला । भगतसिंह की प्रारम्भिक शिक्षा उनके गाँव में ही हुई ।
प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें वर्ष 1916-17 में लाहौर केडीएवी स्कूल में भर्ती कराया गया । रौलेट एक्ट के विरोध में सम्पूर्ण भारत में जगह-जगह प्रदर्शन किए जाने के दौरान 13 अप्रैल, को अमृतसर के जलियाँबाला बाग हत्याकाण्ड में हजारों निर्दोष भारतीय मारे गए । इस नरसंहार की पूरे देश में भर्त्सना की गई ।
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इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुँचे और जलियाँवाला बाग की मिट्टी एक बोतल में भरकर अपने पास रख ली, ताकि उन्हें याद रहे कि देश के इस अपमान का बदला उन्हें अत्याचारी अंग्रेजों से लेना है ।
वर्ष 1920 में जब महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन की घोषणा की, तब भगतसिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और देश के स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गए, किन्तु लाला लाजपत राय ने लाहौर में जब नेशनल कॉलेज की स्थापना की, तो भगतसिंह भी इसमें दाखिल हो गए ।
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इसी कॉलेज में वे यशपाल, सुखदेव, तीर्थराम एवं झण्डासिंह जैसे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आए । भगतसिंह ने आत्मकथा ‘दि डोर टु डेथ’, ‘आइडियल ऑफ सोशलिज्म’, ‘स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार’ तथा ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ नामक कृतियों की रचना की ।
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वर्ष 1928 में साइमन कमीशन जब भारत आया, तो लोगों ने इसके विरोध में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला । इस जुलूस में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी । इतने व्यापक विरोध को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स बौखला गया और उसने भीड़ पर लाठीचार्ज करवा दिया । इस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय इतनी बुरी तरह घायल हो गए कि 17 नवम्बर, 1928 को उनकी मृत्यु हो गई ।
यह खबर भगतसिंह के लिए किसी आघात से कम नहीं थी, उन्होंने तुरन्त लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने का फैसला कर लिया और राजगुरु, सुखदेव एवं चन्द्रशेखर आजाद के साथ मिलकर साण्डर्स की हत्या की योजना बनाई । भगतसिंह की योजना से अन्ततः सबने मिलकर साण्डर्स की गोली मारकर हत्या कर दी । इस घटना ने भगतसिंह को पूरे देश में लोकप्रिय क्रान्तिकारी के रूप में प्रसिद्ध कर दिया ।
भगतसिंह नौजवान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी तथा हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन से सम्बन्धित थे । हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा ने जब पब्लिक सेफ्टी बिल एवं डिस्प्यूट बिल का विरोध करने के लिए केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव पारित किया, तो इस कार्य की जिम्मेदारी भगतसिंह ने ले ली ।
असेम्बली में बम फेंकने का उनका उद्देश्य केवल विरोध जताना था, इसलिए बम फेंकने के बाद कोई भी क्रान्तिकारी वहाँ से भागा नहीं । भगतसिंह समेत सभी क्रान्तिकारियों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया ।
इस गतिविधि में भगतसिंह के सहायक बने बटुकेश्वर दत्त को 12 जून, 1929 को सेशंस जज ने भारतीय दण्ड संहिता की चारा-307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा-3 के अन्तर्गत आजीवन कारावास की सजा सुनाई । इसके बाद अंग्रेज शासकों ने भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त को नए सिरे से फँसाने की कोशिश शुरू की ।
अदालत की कार्यवाही कई महीनों तक चलती रही । 26 अगस्त, 1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया । अदालत ने 7 अक्टूबर, 1930 को 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सजा निश्चित की गई थी । इस निर्णय के विरुद्ध नवम्बर, 1930 में प्रिवी काउंसिल में अपील दायर की गई, किन्तु यह अपील भी 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई ।
भगतसिंह को फाँसी की सजा सुनाए जाने के बाद से पूरे देश में क्रान्ति की एक अनोखा लहर उत्पन्न हो गई थी । क्रान्ति की इस लहर से अंग्रेज सरकार डर गई । फाँसी का समय 24 मार्च, 1931 निर्धारित किया गया था, किन्तु सरकार ने जनता की क्रान्ति के डर से कानून के विरुद्ध जाते हुए 23 मार्च को ही सायंकाल (7.33) बजे उन्हें फाँसी देने का निश्चय किया ।
जेल अधीक्षक जब फाँसी लगाने के लिए भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में गए, तो उस समय बे ‘लेनिन का जीवन चरित्र’ पढ़ रहे थे । जेल अधीक्षक ने उनसे कहा- “सरदार जी, फाँसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए ।”
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इस बात पर भगतसिंह ने कहा- “ठहरो, एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है ।” जेल अधीक्षक आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखता रह गया । बह किताब पूरी करने के बाद वे उसके साथ चल दिए । उसी समय सुखदेव एवं राजगुरु को भी फाँसी स्थल पर लाया गया । तीनों को एक साथ फाँसी दे दी गई । फाँसी देने के बाद रात के अँधेरे में ही अन्तिम संस्कार कर दिया गया ।
उन तीनों को जब फाँसी दी जा रही थी उस समय तीनों एक सुर में गा रहे थे-
“दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी ।”
अंग्रेज सरकार ने भगतसिंह को फाँसी देकर समझ लिया था कि उन्होंने उनका खात्मा कर दिया, परन्तु यह उनकी भूल थी । भगतसिंह अपना बलिदान देकर अंग्रेजी साम्राज्य की समाप्ति का अध्याय शुरू कर चुके थे । भगतसिंह जैसे लोग कभी मरते नहीं, वे अत्याचार के खिलाफ हर आवाज के रूप में जिन्दा रहेंगे और युवाओं का मार्गदर्शन करते रहेंगे । उनका नारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ सदा युवाओं के दिल में जोश भरता रहेगा ।