इक्कीसवीं सदी की चुनौतियाँ पर निबंध | Essay on The challenges of the Twenty-First century in Hindi!
चुनौतियों को स्वीकार करना मानव का सहज स्वभाव है । मानव सभ्यता का इतिहास चुनौतियों से परिपूर्ण है । जब भी हमारे समक्ष कोई बड़ी बाधा आई हमने उसका डटकर मुकाबला किया ।
आदि मानव खूँखार जंगली जंतुओं के बीच रहकर भी उनसे भिन्नता कायम करने में तथा स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करने में सफल रहा । लंबे समय तक उसे पेड़ों और गुफाओं में सोना पड़ा परंतु उन्नति करते हुए उसने टूटी मड़ैया से लेकर आलीशान महल बना डाले ।
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उसने अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में ही सारा समय नहीं लगाया अपितु नृत्य संगीत चित्रकारी आदि विभिन्न कलाओं को उन्नति के नए-नए आयामों की तरह अपनाया और मानव जीवन को नई सार्थकता प्रदान की ।
अनेक पडावों से गुजरते हुए हम अब इक्कीसवीं सदी में पहुँच चुके हैं । यदि हम इसके पीछे की दो सदियों को देखें तो ये वैज्ञानिक घटनाओं एवं आधुनिक विचारधारा से परिपूर्ण दिखाई देंगी । इन दो सदियों की मानव उपलब्धियाँ पिछली कई सदियों की तुलना में बहुत अहम् हैं क्योंकि हमने हर क्षेत्र में परंपराओं एवं रूढ़ियों को तोड़ने की सफल चेष्टा की है । पहले समृद्धि कुछ लोगों तक सीमित थी लेकिन अब यह व्यापक हो गई है ।
विश्व में दूरियाँ घट गई हैं और बाजारवाद हावी हो गया है । सुविधाएँ किसी की मिलकियत न रहकर जन-सामान्य के घरों तक दस्तक दे चुकी हैं । समानता और सबके लिए समान अवसर की भावना के जोर पकड़ने के कारण उपभोग की सामग्री जन-जन की पहुँच में है । कई प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कारों का लाभ पूरे समाज को प्राप्त हो रहा है ।
पिछली दो सदियों की घटनाओं और परिस्थितियों ने वर्तमान सदी को अत्यधिक चुनौतिपूर्ण बना दिया है । वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण आई सूचना एवं संचार क्रांति, बाजारवाद, ऊर्जा की बढ़ती माँग, जनाधिक्य, सबके लिए स्वास्थ्य जैसे कई क्षेत्र हैं जहाँ कुछ न कुछ गंभीर समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं ।
खतरनाक हथियारों का फैलाव उन लोगों तक भी हो गया है जो लोग विकृत मानसिकता से ग्रस्त हैं । गरीबी, भुखमरी, बेकारी जैसी परंपरागत समस्याओं से हम अभी तक पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं तो वहीं आतंकवाद, एड्स, सार्स आदि के रूप में विश्व नई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है ।
गरीब, विकासशील तथा विकसित देशों की अपनी – अपनी समस्याएँ हैं । कई निर्धन तथा अर्द्धविकसित देश अपनी बदहाली को दूर करने की जद्दोजहद में ऋणों के भार से दबते जा रहे हैं । ऐसे कई देशों को आंतरिक विप्लव तथा बाह्य हमले की चिंता हर समय रहती है । इन स्थितियों से बचने के लिए वे हथियारों की होड़ किए बैठे हैं जो उनकी आर्थिक दशा को और भी बिगाड़ देता है ।
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ऐसे देशों में बेकारी की जटिल समस्या के कारण बेराह युवाओं की संख्या बढ़ रही है । भटके हुए युवा हिंसा का सहारा लेकर दुनिया भर में तबाही मचा रहे हैं तो इसका कारण मुख्य रूप से बेकारी ही है । विकासशील देशों का जागरूक रहने वाला मध्य वर्ग आज उपभोक्तावाद की चपेट में आकर अपनी परिवर्तनकारी भूमिका से विमुख होता प्रतीत होता है ।
विकसित देशों की अपनी अलग तरह की समस्याएँ हैं । ये देश सामाजिक विघटन के दौर से गुजर रहे हैं क्योंकि समृद्धि के दौर में वहाँ के लोग स्वयं को समायोजित करने में विफल रहे हैं । आर्थिक नियोजन की तुलना में सामाजिक नियोजन एक कठिन कार्य है ।
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यही कारण है कि समृद्ध देश तनाव, मानसिक भटकाव, हिंसा, नशाखोरी जैसे सामाजिक दूषणों से दो-चार हैं । विकसित देश अपने वर्चस्व को हर कीमत पर बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील हैं अत: उन्हें शेष विश्व के लिए दोहरे मापदंडों को बनाए रखने जैसे हथकंडों का भी सहारा लेना पड़ता है ।
एक अच्छी विश्व व्यवस्था इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती है । संयुक्त राष्ट्र संघ की जिस प्रकार की बेकद्री इराक पर अमेरिकी हमले के रूप में हुई उसे देखकर तो यही लगता है कि यह संस्था कुछ शक्तिसंपन्न देशों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है । स्वाधीन देशों का आत्मस्वाभिमान विखंडित होने की घटनाएँ जब तक होती रहेंगी, विश्व शांति के सभी प्रयास विफल सिद्ध होंगे । विश्व के सभी देशों को इस समस्या पर मिलकर विचार करना होगा ।
विकास की अंधी दौड़ में पृथ्वी का विछिन्न हुआ पर्यावरण संतुलन हमारी चिंता का एक और बड़ा कारण है । इसके लिए विश्व स्तर पर सभाएँ व गोष्ठियाँ हो रही हैं, चिंताएँ व्यक्त की जा रही हैं परंतु धरातल पर ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं ।
यह उपेक्षा भाव हमारी आगामी पीढ़ियों को एक नए तरहा से प्रभावित करेगा । वे ऐसी कृत्रिम वायु में साँस लेने के लिए विवश हो जाएँगे जो हर तरह से दूषित होगा । केवल कल्पना कर सकते हैं वह पृथ्वी पर प्रत्यक्ष दिखने लगेगा । पृथवि को यदि हम माता कहते हैं तो यह हमारा दायित्व है कि इसे हम हर प्रकार से समुन्नत बनाएँ ।
आधुनिक विश्व की चुनौतियाँ मानवीय हैं । इस नजरिए से देखें तो इन सभी चुनौतियों का हम मानवीय प्रयत्नों से सामना कर सकते हैं । मानव अभी तक तो उन सभी चुनौतियों को स्वीकार कर उनसे जूझने में सफल रहा है जो उसके अस्तित्व का चुनौती देते आए हैं । अत: आशा करनी चाहिए कि आगे भी वह सभी चुनौतियों को स्वीकार कर उनका कोई न कोई हल जरूर ढूँढ़ निकालेगा ।