तृतीय विश्व युद्ध की संभावना पर निबंध | Essay on The Possibility of World War III in Hindi!
”युद्ध का उम्माद संक्रमणशील है, एक चिनगारी कहीं जागी अगर, तुरतं बह उठते पवन उनचास हैं, दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से ।”
-रामधारी सिंह दिनकर
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‘कुरुक्षेत्र’ के द्वितीय सर्ग से उद्धत ये पंक्तियाँ प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों का सटीक बयान करती हैं । युद्धोन्माद संक्रमणशील होता है, एक चिंगारी उठी नहीं कि उनचासों पवन उसे हवा देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं । यहाँ तक कि जब केवल दो राष्ट्रों के बीच युद्ध होते हैं तब भी पूरी दुनिया दो गुटों में बँटकर किसी एक पक्ष का समर्थन करने लगती है ।
महाभारत का युद्ध तो कौरवों और पांडवों के मध्य हुआ था लेकिन अन्य राजे-महाराजे अपने-अपने सैनिकों के साथ किसी न किसी पक्ष के साथ युद्ध के मैदान में आ डटे थे । बस युद्ध का उन्माद चाहिए, एक पृष्ठभूमि, एक वातावरण चाहिए और युद्ध का बिगुल बज उठता है ।
दुनिया के लोग हर समय किसी न किसी युद्ध में उलझे रहते हैं । हालांकि युद्ध के कारण अलग-अलग होते हैं मगर इसका परिणाम एक-सा होता है । आबादी उजड़ती है, लोग गाजर-मूली की तरह काट डाले जाते हैं, सैनिकों के परिवार रोते-बिलखते हैं, विधवाएँ असहाय जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं, युद्ध भूमि श्मशान भूमि के रूप में तब्दील हो जाती है, आर्थिक क्षति की भरपाई होने में दशक लग जाते हैं ।
दुनिया अभी हिरोशिमा और नागासाकी पर हुई बमवर्षा भूली नहीं है । हाल ही में जिस तरह आतंकवादियों ने एक छद्म युद्ध के रूप में अमेरिका पर धावा बोल दिया, उनके गगनचुंबी इमारतों को जो कि आधुनिक युग के विकास के प्रतीक थे, देखते ही देखते नष्ट कर दिया, क्या दुनिया 11 सिंतबर सन् 2001 के इस वाकए को भूल पाएगी । प्रत्युत्तर में अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध एक विश्वव्यापी संघर्ष की घोषणा की तो ऐसा लगा कि तृतीय विश्व युद्ध की भूमिका बन रही है ।
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लेकिन दुनिया ने समझदारी दिखाई और चाहे दिखावे के रूप में ही सही, आतंकवाद से लड़ने का संकल्प पूरी दुनिया में व्यक्त किया गया । आतंकवाद का मुख्य अड्डा बने राष्ट्र अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले के सहायतार्थ दुनिया के अन्य राष्ट्र भी आगे आए ।
भारत, पाकिस्तान, फ्रांस, जर्मनी, रूस, ब्रिटेन, चीन सहित सभी प्रमुख राष्ट्रों का समर्थन अमेरिका को मिला हुआ था, अत: यह युद्ध एक तरह से धर्मयुद्ध बन गया । अन्याय और आतंक के प्रतीक बने तालिबान हारे और अफगानिस्तान में एक लोकप्रिय सरकार की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
बाद में जब अमेरिका तथा उनके कुछ मित्र राष्ट्रों नें संयुक्त राष्ट्र संघ की पूरी तरह अवहेलना करते हुए इराक पर आक्रमण किया तो इसे अन्य राष्ट्रों ने युक्तिसंगत न माना । मुस्लिम राष्ट्रों ने भी इस हमले की आलोचना की । नतीजा अमेरिका के लिए भी सुखद न निकला क्योंकि आतंकवादियों को इस बहाने एकजुट होने का एक अवसर मिल गया । अफगानिस्तान और ईराक सहित दुनिया के विभिन्न मुल्कों में आतंकवाद फिर से सिर उठा रहा है ।
आतंकवादी इतने बलिष्ठ और साधन-संपन्न हैं कि किसी भी राष्ट्र का जीना हराम कर सकते हैं । अलकायदा जैसे आतंकी संगठन खतरनाक रासायनिक एवं जैविक हथियारों से लैस होने की पुरजोर चेष्टा में हैं ताकि ये अपने दम पर दुनिया में तबाही मचा सकें, खासकर विरोधी विचारधारा के राष्ट्रों को खुलेआम चुनौती दे सकें । संभव है तृतीय विश्व युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के रूप में सामने आए ।
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शीत युद्ध के समय जबकि सोवियत संघ का बिखराव नहीं हुआ था विश्व पर तृतीय विश्व युद्ध का खतरा हर समय मँडराता रहता था । अमेरिका और सोवियत संघ के परमाणु हथियारों से लैस प्रक्षेपास्त्र एक दूसरे की ओर रुख किए तने रहते थे । थोड़ी सी गलतफहमी, एक गलत सूचना तीसरे विश्व का आरंभ करने के लिए पर्याप्त थी ।
मगर आंतरिक रूप से आर्थिक जर्जरता का शिकार सोवियत संघ बिखर गया और अमेरिका एकमात्र विश्व शक्ति के रूप में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल रहा । अमेरिका और रूस वर्तमान में आपसी मित्रतापूर्ण साझेदारी से कार्य कर रहे हैं अत: किसी बड़ी गुटबंदी का खतरा तत्काल दिखाई नहीं दे रहा है । लेकिन गुटबंदी में अधिक देर नहीं लगती, और कोई भी ऐसा गुट जो परमाणु हथियारों से लैस हो, विश्व के लिए हर समय एक खतरे की घंटी है ।
तृतीय विश्व युद्ध के बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टाइन से जब एक बार पूछा गया था तो उनका गंभीर उत्तर था, ”तृतीय विश्व युद्ध के बारे में मैं भविष्यवाणी नहीं कर सकता मगर चतुर्थ विश्व युद्ध के संबंध में मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह युद्ध पत्थर के औजारों से लड़ा जाएगा ।” इस कथन के निहितार्थ बड़े स्पष्ट और आज भी प्रासंगिक हैं ।
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तीसरी विश्वव्यापी लड़ाई पृथ्वी को जनशून्य और निर्जन स्थान बना सकती है । आधुनिक सभ्यता एवं संस्कृति पूर्णरूपेण नष्ट हो सकती है, सभी जीव-जंतुओं एवं वनस्पति जगत् का नाश हो सकता है । अतिराष्ट्रीयता का आवेग, राष्ट्राध्यक्षों को जब किसी भी हद तक जाने के लिए विवश कर देगा, तब महाविनाश होते देर न लगेगी।
इतिहास साक्षी है कि तानाशाहों की जिद के कारण कई प्राचीन साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो चुके हैं । हिटलर फिर से जन्म ले सकता है, किसी बिन लादेन के रूप में । एक रावण को मार देने से रावणत्व समाप्त नहीं हो सकता है, अत: सभ्य राष्ट्रों को अधिक एहजुटता दिखनी होगी ताकि विश्व के लोग भयमुक्त होकर जी सकें ।