दहेज प्रथा: कारण और निराकरण |Essay on Dowry System : Causes and Ways to Prevent in Hindi!
जब किसी सामाजिक प्रथा का प्रचलन शुरू होता है तब समाज उसकी अच्छाई-बुराई को सोचे बिना ही उसे स्वीकार कर लेता है । भारतीय समाज में दहेज भी एक ऐसी ही प्रथा बन गई है, जिसकी अच्छाइयाँ तो नष्ट हो गई हैं, पर बुराइयाँ आज भी अपना तांडव कर रही हैं ।
संस्कृत में दहेज के लिए समानार्थी शब्द ‘दायज’ है । ‘दायज’ का सही अर्थ है- उपहार या दान । दहेज वस्तुत: विवाह के अवसर पर कन्यापक्ष की ओर से स्वेच्छा और संतोष के साथ वर को दिया जानेवाला उपहार है । प्राचीन भारतीय ग्रंथों से संकेत मिलता है कि भारत में दहेज-प्रथा का प्रचलन था ।
प्राचीन भारतीय समाज में दहेज-प्रथा के पीछे लालच और सौदेबाजी की भावना नहीं थी, जैसी आधुनिक समाज में प्रकट हो रही है । प्राचीन काल में भारत सब तरह से संपन्न था । आर्यों की पितृसत्तात्मक-व्यवस्था में विवाह के बाद पति के परिवार में जानेवाली कन्या का पिता की संपत्ति से संबंध टूट जाता था और पिता की संपत्ति पर पूरा अधिकार पुत्रों का ही होता था । इस कारण से विवाह के अवसर पर कन्यापक्ष यथाशक्ति अपनी संपत्ति का एक भाग वरपक्ष को देता था, जिससे कि कन्या सुखी रह सके ।
यह सब पुण्य का कार्य समझकर किया जाता था । कन्या की विदाई के अवसर पर उसे स्वर्णाभूषणों से सजाकर मंगल कामना प्रकट करना अनुचित माना भी नहीं जा सकता था । वर और कन्यापक्ष का वह सौहार्द मध्ययुगीन समाज में भ्रष्ट हो गया । आधुनिक समाज में दहेज की बीभत्स प्रथा सुशील तथा सुशिक्षित कन्याओं की हत्या अथवा आत्महत्या का कारण बन गई है ।
सामाजिक प्रतिष्ठा का रंग चढ़ने पर इस प्रथा का रूप अधिक बिगड़ गया है । निर्धन माता-पिता के लिए तो यह अभिशाप की तरह है । जहाँ स्त्री का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं । भारतीय संस्कृति का उक्त सूक्त वाक्य मिथ्या बना दिया गया है । अब भारतीय परिवार कन्या के जन्म से ही भय खाने लगे हैं ।
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दहेज प्रथा की बुराइयाँ असंख्य हैं । बाल-विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध-विवाह आदि दूषणों की यह जड़ है । इस कुप्रथा ने समाज में अनाचार और वेश्यावृत्ति को जन्म दिया है । बहुत से लोग अपनी कन्याओं की उत्तम शिक्षा इसलिए नहीं दिलाते हैं कि पढ़ी-लिखी कन्या के लिए दहेज अधिक देना पड़ता है ।
यह प्रथा विवाहित परिवारों के मधुर संबंध में विष बीज बोती है और सब दंपतियों को विवाह-विच्छेद के लिए विवश करती है । इस कुप्रथा की काली छाया से कन्याएँ बुरी तरह से आक्रांत हैं । इससे अनेक गृहिणियों शारीरिक व मानसिक बीमारियों की शिकार बनती हैं । इससे स्त्री जाति का महत्त्व घट गया है । इस भौतिकवादी युग में कन्या की सुंदरता, सुशीलता और शिक्षा के स्थान पर केवल धन हावी हो गया है.
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इस घातक प्रथा को समाप्त करने के लिए समाज में अधिकाधिक शिक्षा का प्रसार करना चाहिए । तभी शिक्षित युवक-युवतियाँ इम कुप्रथा का मुकाबला करने के लिए अग्रसर होंगे । नारी जब पुरुष के समान शिक्षित होगी और उसका स्तर पुरुष के बराबर हो जाएगा तब सामाजिक क्षेत्र में उसका महत्व वढ़ेगा ।
जीवन में आत्मनिर्भर स्त्री को दहेज भयभीत नहीं कर सकता । इस बुराई का मार्जन मात्र कानून से संभव नहीं है । इससे सामाजिक स्तर पर ही सतत युद्ध किया जाना चाहिए । डम देश की शिक्षित युवा पीढ़ी जाति-पाँति के बंधन को तोड़कर समर्पण भाव के माथ जब संकल्प करेगी कि न तो दहेज लेंगे और न देंगे, तब पुरानी पीढ़ी स्वयं चेत जाएगी ।
केंद्र सरकार तो सन् १९६१ में ही दहेज-विरोधी कानून पारित कर चुकी है । अब कर्म की बारी है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस बुराई के प्रति समाज का हर वर्ग जागरूक हो जाए तो स्त्री जाति की बहुत सी समस्याओं का निराकरण स्वत: हो जाएगा ।