भारत का वैश्विक आर्थिक सम्बन्ध: बेईमानी से ईमानदारी के रिश्ते पर निबंध | Essay on India’s Global Economic Relationship in Hindi!

स्विट्जरलैंडके डावोस रिसोर्ट में संपन्न हुए विश्व आर्थिक मंच, फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सर्कोजी की भारत यात्रा और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की चीन यात्रा के दौरान चीन द्वारा भारत और चीन की व्यापारिक साझेदारी से इस को ‘एशिया की सदी’ बनाने की कल्पना निश्चिय ही, चाहे सतही तौर पर ही क्यों न हो, यूरोप, अमेरिका और चीन के साथ रिश्तों में ईमानदारी की कवायद करने की चाह व्यक्त करती है ।

लेकिन ईमानदारी से निभाने के वायदों के बीच व्यावसायिक रिश्तों में ईमानदारी के साथ बेईमानी अधिक समय तक नहीं चल सकती है । अमेरिका और यूरोप को ही लें, इन दोनों ने विश्व व्यापार संगठन की दोहा वार्ताओ के दौरे में कृषिगत और औद्योगिक उत्पादनों के निर्बाध व्यापार और कृषि पर सब्सिडी संबंधी मामलों में जो गतिरोध पैदा किए हैं, वह मिटने को तैयार नहीं ।

दोनों ही कृषि क्षेत्र को एक लाख अरब डॉलर प्रतिदिन की सब्सिडी दे रहे हैं । वह चाहते हैं कि भारतीय बाजारों में सबिरडीयुक्त अनाज का प्रतिवर्ष निर्बाध रूप से या सीमा शुल्क कम कर प्रवेश हो । ईमानदारी का तकाजा यह है कि उन्हें ईमानदारी के साथ खड़े होने में भारत के किसानों का भी ध्यान रखना चाहिए । भला सबसिडीयुक्त अनाज के सामने बाकी बाजारों में हमारे किसान कैसे खडे हो सकेंगे?

फ्रांस के राष्ट्रपति ने तो यहाँ तक कहा कि जी-8 के देशों के साथ भारत को शामिल किया जाना चाहिए । जबकि पूर्व की बैठकों में भारत को जी-8 सम्मेलन में एक । प्रेक्षक के तौर पर आमंत्रित किया जाता रहा । यहाँ तक कि उसे एक उम्मीदवार सदस्य के तौर पर भी आमंत्रित नहीं किया गया ।

ज्ञातव्य है कि 1973 में बना जी-8 एक स्वैच्छिक समूह है जिसे कोई बहुउद्देशीय मंजूरी हासिल नहीं । यह एक ऐसा क्लब है, जिससे अब तक विश्व के अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और अधिकतर एशियाई और यूरोपीय देशों को दूर रखा गया ।

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इसके सम्मेलन में स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, सुरक्षा, रोजगार, पर्यावरण, और मानवाधिकारों के मुद्दे पर शब्दों का आडम्बर बनाया जाता है तथा वायदे भी किए जाते है, लेकिन वे थोथे ही साबित होते हैं । दरअसल, जी-8 आज की विषम व्यवस्था को बनाए रखने में सक्रिय है । अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में ब्रिटेन को जितने वोट हासिल हैं, वे उप-सहाराई अफ्रीका के वोटों से भी अधिक, चीन और भारत के वोटो को मिलाकर बनने वाली संख्या के बराबर है ।

विश्व बैंकों के मामले में भी यह व्यवस्था लागू है । हैरत की बात यह है कि जी-8 को अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में वीटो का इस्तेमाल करने का भी अधिकार प्राप्त है । अमेरिका के विरोध के कारण भारत को सुरक्षा परिषद के एक स्थायी सदस्य के रूप में स्थान मिलना एक कल्पना मात्र है । अमेरिका की फेडरल रिजर्व के पूर्व अध्यक्ष एलन ग्रीनस्पैन के अनुसार अमेरिका के सबप्राइम संकट के मूल कारणों में एक कारण अमेरिका की व्यापारिक संरक्षणवादी नीति है ।

बढ़ती घरेलू माँग ही हमारे विकास को प्रेरित करती है । अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा की गई 0.75 प्रतिशत की कटौती के संदर्भ में वित्तमंत्री के अनुसार भारत में विदेशी पूँजी प्रवाह बढने से हमारी कठिनाई बढ़ेगी, इसको नियमित करने के लिए भारत को संतुलित नीति अपनानी होगी ।

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असल में विदेशी निवेशक भारत में आएँगे । यह भी वे अपने जोड बाकी के आधार पर ही तय करते हैं । उनके आने से बाजार उठता है और जाने से बाजार टूटता है । अत: स्थिति यह बन गई कि अमेरिकी बैंक से 3 प्रतिशत पर कर्ज लेकर भारत में 6 प्रतिशत ब्याज पर उठाकर प्रतिशत ब्याज में अतर की कमाई की ।

जहाँ एक ओर अमेरिका सुपर – 301 कानून के अंतर्गत भारत या किसी देश के खिलाफ बौद्धिक संपदा अधिकार को समुचित रूप से सरंक्षण प्रदान न करने के लिए प्रतिबंधात्मक कार्रवाई करने से नहीं हिचकिचाता है, वहीं दूसरी ओर भारतीय संविधान का अनुच्छेद 301 संपूर्ण भारतीय क्षेत्र में मुक्त व्यापार, वाणिज्य एवं आवागमन के उपबंध स्थापित करता है । सुपर कानून 301 के तहत अमेरिका ने भारत को कार्रवाई प्राथमिकता की निगरानी सूची में शामिल कर लिया । भारत के साथ अर्जेंटीना, इक्वाडोर, मिस्र, ग्रीस, इंडोनेशिया, पैराग्वे, रूस और तुर्की को भी यह सजा मिली ।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन की दोहा वार्ताओं के तहत सिंगापुर मुद्दों के पीछे अमेरिका, जापान और यूरोपीय सघ की मान्यता है कि गरीब देश बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुक्त बाजार उपलव्य कराएँ, अपने यहाँ ठेकों की प्रतिस्पर्धा पर नियंत्रण रखे, सरकारी खरीद और ठेकों में अधिक पारदर्शिता बरतें तथा व्यापार की प्रक्रिया को अधिक सरल बनाएँ लेकिन विकासशील देशों के संयुक्त विरोध के कारण अमीर देशों के मंसूबे सफल नही हो पाए ।

श्रम कानूनों के संबंध में भी यूरोपीय समुदाय और अमेरिका का तर्क है कि विकासशील देशों के श्रम कानूनों के कारण वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं है इसलिए इन कानूनों में तुंरत परिवर्तन किया जाना चाहिए । विकासशील देशों में श्रम सस्ता है । इसलिए वहाँ के सस्ते उत्पाद विकसित देशों के बाजारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है ।

पिछले दिनों सपन्न हुई प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की चीन यात्रा में चीन के नेताओं ने नई रणनीति भागीदारी का कल्पनाबोध कराया लेकिन पर्दे के पीछे जो घटित हो रहा है उस पर भी केंद्र सरकार को ध्यान देना होगा । हुआ यह है कि भारत ने दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र संधि (साफ्टा) के दक्षेस देशों में आने वाले माल को पूर्णत: शुल्कमुक्त किया या सीमा शुल्कों में भारी कमी कर दी । पाकिस्तान और श्रीलंका से आयात होने वाली कारों और मोटरसाईकिल पर 12.5 प्रतिशत से सीमा शुल्क घटाकर 1 प्रतिशत कर दिया ।

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बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव और भूटान से आने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क 10 प्रतिशत से शून्य प्रतिशत कर दिया, लेकिन इन देशों की बनी हुई वस्तुओं का आयात नगण्य है । दूसरी ओर चीन और अन्य देशों की कंपनियाँ धीरे-धीरे इन देशों में सस्ती कार और बाइक बनाने के कारखाने डालने लगी है, ताकि वे इन देशों से भारत को निर्यातित होने वाले माल पर घटी हुई सीमा शुल्कों का फायदा ले सके अर्थात अब चीनी कंपनियों द्वारा वस्तुएँ चीन से नही साफ्टा क्षेत्र से आएँगी ।

उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में चीन कार बनाने के कारखाने में कार उत्पादन कर रहा है और अब श्रीलंका में सस्ती कार बनाने की ओर चीनी कंपनियाँ बढ़ रही हैं । दिलचस्प बात यह है कि श्रीलंका में नई कार आयात करने पर 200 प्रतिशत सीमा शुल्क है, लेकिन अब वहाँ की कंपनियाँ जापान के कबाड़े से पुरानी कारें खरीदकर उन्हें भारत की सरती सीमा शुल्कों के माध्यम से भारतीय बाजारों में प्रवेश करा रही है ।

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ऐसा ही खतरा अन्य वस्तुओं के लिए भी है जो सापटा क्षेत्र में चीन द्वारा निर्मित होगी और साफा क्षेत्र से निर्यातित होगी । यह सही है कि आज चीन भारत का दूसरा बड़ा व्यापारिक साझेदार है, लेकिन यह पूरी तरह चीन के पक्ष में झुका हुआ है ।

कुल व्यापार 60 प्रतिशत से ज्यादा लौह अयस्क चीन भारत से आयात करता है । विचारणीय प्रश्न यह है कि उपनिवेश में अँग्रेज भी भारत से कच्चा माल ले जाते थे । प्रकारातर से यही स्थिति आज भी है । अत: केन्द्र सरकार को गहराई से बेईमानी के रिश्तों को ईमानदारी से निभाने के कारनामों पर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।

यह भी तय करना होगा कि साफ्टा क्षेत्र अपनी भूमि से भारतीय औद्योगिक हितों के खिलाफ विदेशी कंपनियों को सहूलियतें देकर साफ्टा की अवधारणा को ही नष्ट नहीं करे? यह एक प्रकार का औद्योगिक आक्रमण होगा जो आने वाले पाँच वर्षो में भारतीय औद्योगिक जगत के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा ।

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