भारत की प्रतिभा-पलायन समस्या पर निबन्ध (दो निबंध) | Read these two Essays on The Brain Drain in Hindi.

#Essay 1: भारत की प्रतिभा-पलायन समस्या पर निबन्ध | Essay on The Brain Drain Problem in India in Hindi!

प्रतिभा किसी एक ही देश की परिरक्षित निधि नहीं है । प्रत्येक देश के अपने-अपने क्षेत्र के प्रवीण व्यक्ति होते हैं, जैसे वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ, साहित्य अथवा कलाओं के विद्वान, चित्रकार, कलाकार आदि । मुक्त असाधारण प्रतिभा सम्पन्न ऐसे पुरूष और स्त्रियाँ अपनै देश की प्रगति और समृद्धि में योगदान तो देते ही हैं परन्तु अपनी विशिष्टता वाले क्षेत्र में भी उत्कर्षता लाते हैं ।

यह कोई असामान्य बात नही है कि इन योग्य व्यक्तियों में से कुछ लोगों को अपने ही देश में कोई सन्तोषजनक काम नहीं मिल पाता या किसी न किसी कारण से वे अपने वातावरण से तालमेल नहीं बिठा पाते । ऐसी परिस्थितियों में ये लोग बेहतर काम की खोज के लिए अथवा अधिक भौतिक सुविधाओं के लिए दूसरे देशों में चले जाते हैं ।

इस निर्गमन अथवा प्रवास को हाल के वर्षो में ”प्रतिभा पलायन” की संज्ञा दी गई है । अपने कुशल और प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तियों की हानि से विकासशील देश सब से अधिक प्रभावित हुए हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि विकासशील देशों में वेतन और अन्य सुविधाओं के रूप में प्राप्त होने वाले लाभ कम हैं ।

यह हो सकता है कि प्रत्येक मामलें में इन प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए वेतन में रहने वाली रकम का इतना महत्व न भी हो जितना कि अपने आपको उच्चतम पूर्ति की भावना प्रदान करने, अपनी योग्यता को बढ़ाने अथवा अपनी प्रतिभा का विकास करने के लिए उचित सुविधाओं का प्राप्त होना है ।

अत: एक वैज्ञानिक या चिकित्सा अथवा ज्ञान के किसी अन्य क्षेत्र का विशेषज्ञ कम वेतन और अन्य कठिनाइयों को भी सह सकता है, यदि उसकी योग्यता को अच्छी मान्यता मिले, उसके काम का ठीक मूल्यांकन हो तथा विशेषत: उसकी विशेषता वाले क्षेत्र में अनुसंधान और सुधार के अच्छे अवसर प्राप्त हों । इस प्रकार अच्छी प्रकार से साधन सम्पन्न प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय राष्ट्रीय प्रतिभाओं में से अधिकांश को अपनी मातृभूमि छोड़ने से रोक देंगे चाहे विदेशों में कितना अधिक वेतन क्यों न मिले।

कीसी देश के मस्तिष्क को लगातार पोष, पुन: पूर्ति और उन्नति की आवश्यकता होती है । पैसे में यद्यपि बहुत आकर्षण होता है फिर वह इन महामानवों को सदा के लिए कुछ सीमाओं में बांध कर नहीं रख सकता । उन्हें अपनी प्रतिभा को परिपक्वता तक पहुँचाने में सहायक की आवश्यकता होती है तथा वे ईश्वर-प्रदत्त-योग्यता को परिपूर्णता तक ले जाना चाहते हैं ।

यद्यपि भौतिक सम्पदा बहुत बड़ा आकर्षण होता है परन्तु जिस आवश्यकता की पूर्ति ये लोग करना चाहते है उसका यह एक तुच्छ भाग ही है । जब कोई वैज्ञानिक अपने देश को छोड़ता है और किसी दूसरे देश को अपना लेता है तो उसकी इस कारवाई की प्रेरक वे आशाएं है जो उसके स्वप्नों को पूरा करेंगी, उसकी महत्वाकांक्षाओं के मार्ग को प्रशस्त करेगी ।

यह भी कोई असाधारण बात नही है कि एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति अधिक धन कमाने के लिए विदेश में चला जाता है क्योंकि उसका अपना देश उसके मन की इच्छाओं की पूर्ति के मार्ग में बहुत से कानूनी तथा राजनैतिक प्रतिबन्ध लगाता है । साधनों और अवसरों के अभाव ने विकासशील देशों के योग्य व्यक्तियों को इस बात के लिए उत्प्रेरित किया है कि वे बेहतर अवसरों की खोज में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जापान, हांगकांग और सिंगापुर के उन्मुक्त राजनैतिक वातावरण में चलें जाए ।

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दूसरी और विकसित देशों के ऐसे लोग बहुत ही कम होंगे जो अपना देश छोड़ कर विकासशील देशों में गए होंगे । नि:संदेह ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ विकसित देशों के लोग धन के लोभ में विकासशील देशों में आए ताकि प्राकृतिक साधनों तथा खनिज संपदा की खोज की जाए परन्तु उनकी खोज विकासशील देशों के प्रतिभाशाली लोगों के उद्देश्यों से हमेशा भिन्न थी ।

विकसित देशों के रहन-सहन के ऊँचे स्तर की चमक-दमक ने विकासशील क्षेत्रों के लोगों को सदा ही अत्यधिक आकृष्ट किया हे और प्रतिभाशाली लोग और विशेषज्ञ भी इस मोह-जाल से अपने आप को नहीं बचा पाए । इसका परिणाम यह हुआ कि विकासशील देशों के अधिकांश प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति रहन-सहन के इस स्तर को प्राप्त करने तथा कारों, रेफ्रिजरेटरों, दूरदर्शन आदि जैसी उपभोक्ता वस्तुओं को प्राप्त करने में प्रसन्नता का अनुभव करने लगे जो कि विकसित देशों के एक साधारण नागरिक को भी उपलब्ध होती है ।

अब प्रश्न यह है कि इस प्रतिभा पलायन का प्रभाव हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर क्या पड़ा है और इस पलायन को रोकने के लिए कौन से कदम उठाए जाने चाहिए । इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उस प्रतिभा पलायन को तभी भारी हानि माना जा सकता है यदि बाहर जाने वाले इन व्यक्तियों का उपयोग राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और विकास के लिए किया जा सकता हो ।

परन्तु यदि उन की प्रतिभा का उनके देश में उचित उपयोग नही किया जा सकता तो देश के लिए यह बेहतर होगा कि इन प्रतिभा-सम्पन्न लोगों को बाहर जा कर अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करने दिया जाए । ऐसी स्थिति में यह तथाकथित ”प्रतिभा पलायन” वास्तव में ”प्रतिभा का अतिरेक” बन जाता है ।

केवल इसलिए कि वे एक गरीब देश से संबद्ध है । उनकी क्षमताओं को कूड़े में फेंक दिया जाए, यह ठीक नहीं होगा । यदि वह राष्ट्र जिसके वे नागरिक हैं इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों का सर्वोत्तम उपयोग नही कर सकता तो इसमें कोई बुराई नही कि विश्व के दूसरे देश उनकी प्रतिभा और क्षमताओं से लाभ उठा सके ।

प्रतिभा पलायन से संबद्ध आर्थिक समस्याओं को आसानी से हल नही किया जा सकता । जहाँ सरकार को इन प्रतिभासम्पन्न पुरूषों और महिलाओं को ऐसी प्रकार की सुविधाएं मुहैया करने का प्रयास करना चाहिए, वहां इन लोगो को भी पारस्परिकता की भावना को स्वीकार करना चाहिए और इसका महत्व समझना चाहिए ।

इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अपने देश को अधिक प्यार और श्रद्धा की दृष्टि से देखने का प्रयास करना चाहिए और पहला अवसर प्राप्त होते ही इसे छोड़ कर नहीं भाग जाना चाहिए । यहाँ पर अन्याय, असमानता और पक्षपात हो सकता और कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि इन बुराइयों को बिल्कुल समाप्त कर दिया गया है परन्तु उनको यह याद रखना है कि वे प्रबुद्ध लोग है ।

उनका यह कर्तव्य है कि वे दूसरों का नेतृत्व और मार्गदर्शन करें न कि अपने को दबाया हुआ समझे और शिकायतें करते रहें । जिन लोगों ने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी थी, उन्हें भी सामान्य लोगों से अधिक यातनाएँ और अपमान सहने पड़े थे ।

इसके अलावा देश को छोड़ने वाले बुद्धिजीवी लोगों को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उन की मातृभूमि ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पर वे गौरव और सम्मान के उच्चतम शिखर तक जा सकते हैं और संरक्षण भी प्राप्त कर सकते है । विदेशों में अधिक वेतन और रहन-सहन का स्तर ऊँचा होने के बावजूद उनको वास्तव में समाज से बहिष्कृत ही समझा जाएगा । जिस स्नेह और सद्-भाव की आशा वे अपने देश में कर सकते हैं उसकी प्रतिपूर्ति विदेशों में प्राप्त होने वाले वेतन की बड़ी-बड़ी रकमों तथा अन्य सुख सुविधाओं मे नहीं हो सकती है ।

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विकासशील देशों के लिए यह भी मुश्किल है कि वे अलग-अलग इकाइयों के लिए उचित राशियों की व्यवस्था करें चाहे वे व्यक्ति हो या सामग्री । जब उत्पादन अधिक होने लगेगा तभी मांगकर्ताओं को अधिक माँग करनी चाहिए परन्तु उस स्थिति के आने से पहले देश के हर व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे इसकी उन्नति के लिए कार्य करें ।

यदि वह अधिक कुछ नहीं कर सकता तो कम से कम नागरिक और राजनैतिक अधिकारों के लिए कार्य करें जिन्हें प्राप्त करना उनके देश के नागरिक का अधिकार है । देशभक्ति एक स्वाभाविक मनोभाव है जिसे बाहर से नहीं लादा जा सकता । यदि देश को छोड़कर जाने वाले प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अपने देश से तनिक भी प्यार है तो उन्हें दूसरे देशों में विदेशी के रूप में रहने के लिए और अपने देश और अधिकारों को नहीं छोड़ना चाहिए ।

यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनकी मातृभूमि का कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि यदि किसी विकासशील देश के ऐसे प्रतिभाशील लोग चले जाते है जिनका वह देश कोई भी उपयोग नही कर सकता तो उनके उनके जाने से उस देश को किसी प्रकार की भौतिक हानि नही होती ।

जब देश आर्थिक तथा औद्योगिक दृष्टि से आगे बढ़ता है, तो नई प्रतिभाए अंकुरित हो जाएगी और वे अपने देश को नही छोड़ना चाहेगी क्योंकि उस समय उनका देश स्वयं भी विशेष प्रतिभा वाले लोगों को बेहतर सुविधाएं देने की स्थिति में हो जाएगा । इस प्रकार यद्यपि बाहर जाने वाले प्रतिभाशाली व्यक्तियों के दृष्टिकोण में कुछ वजन है और फिर भी उनकी यह कारवाई युक्ति संगत दिखाई नहीं देती ।


#Essay 2: प्रतिभा पलायन पर निबंध | Essay on Brain Drain

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”हमें दुख है कि हम  चन्द्रशेखर को अपने देश में नहीं रख सके, परन्तु प्रश्न उठता हे कि यदि चन्द्रशेखर भारत में होते, तो क्या उस ऊँचाई को प्राप्त कर सकते थे, जो आज उन्हें प्राप्त है?”

यह बात भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक और वर्ष 1983 का भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले स्व. श्री एस चन्द्रशेखर को पद्‌म विभूषण से सम्मानित करने के पश्चात् स्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने प्रतिभा पलायन पर दुख व्यक्त करते हुए कही थी ।

प्रतिभा पलायन का अर्थ है- एक देश की प्रतिभाओं जैसे-डॉक्टरों, इन्जीनियरों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों खिलाड़ियों अथवा अन्य प्रतिभा सम्पन्न लोगों का रोजगार एवं शिक्षा के बेहतर अवसरों तथा अन्य सुविधाओं के कारण विश्व के दूसरे देशों में चले जाना । भारत पिछली शताब्दी से ही प्रतिभा पलायन की समस्या से ग्रस्त रहा है ।

बढ़ी संख्या में हमारे इन्जीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, व्यवसाय प्रबन्धक, कलाकर इत्यादि आकर्षक नौकरियाँ पाने के लिए या बेहतर जीवन-शैली के लोभ में या अन्य कारणों से विदेश चले गए । उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से विकसित देशों में गए लोगों को भी शिक्षा समाप्ति के बाद वहीं बस जाते हुए देखना आज एक आम बात हो गई है ।

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इस समय विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की संख्या लगभग ढाई करोड़ है । इनमें से एक करोड से अधिक लोग ऐसे हैं, जो डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक एवं कम्प्यूटर विशेषज्ञ के रूप में विदेशों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं । प्रतिभा पलायन से देश को क्या नुकसान होता है, इस बारे में नोवेल पुरस्कार विजेता भारतीयों के पलायन से बेहतर कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता ।

नोवेल पुरस्कार को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार माना जाता है । इसे प्राप्त करना निश्चय ही न सिर्फ विजेता के लिए, बल्कि उस देश के लिए भी गौरव की बात होती है, जिसका बह नागरिक होता है भारतीय प्रतिभाओं ने भी कई बार यह पुरस्कार प्राप्त कर अपने देश को गौरवान्वित किया है, किन्तु भारत में जन्मे वैसे भारतीयों में, जो यह पुरस्कार पाने के दौरान भारत के ही नागरिक थे, सिर्फ तीन की गिनती की जा सकती हैं- रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर चन्द्रशेखर वेंकटरमण एवं कैलाश सत्यार्थी ।

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इनके अतिरिक्त भारतीय मूल की पाँच और प्रतिमाएँ भी इस गौरव से सम्मानित हो चुकी हैं- हरगोविन्द खुराना, अमर्त्य सेन, सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर, वेंकट रमन रामकृष्णन और वीएस नायपॉल । ये पाँच प्रतिमाएँ भारतीय मूल की तो हैं, किन्तु पुरस्कार पाने के समय ये भारत के नागरिक नहीं थे ।

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अब प्रश्न उठता है- इन प्रतिभाओं को भारत छोडकर क्यों जाना पड़ा? इसका उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है । इन सबको यहाँ न तो बेहतर उच्च शिक्षा मिल सकती थी, न ही शोध के लिए बेहतर सुविधाएँ और न ही उचित सम्मान । यहाँ तक कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त इस देश में प्रतिभाओं को नौकरी भी मुश्किल से मिल पाती है ।

कल्पना चावला यदि भारत में रहती, तो क्या कभी बह ऊँचाई प्राप्त कर पातीं, जो अमेरिका में उन्होंने एक खगोलशास्त्री के रूप में प्राप्त की ? सुविधाओं के अभाव में अथवा उपेक्षित जीवन से कुण्ठित होकर पलायन कर चुकी ऐसी महान् भारतीय प्रतिभाओं की सुखला यही समाप्त नहीं होता । आज भी अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के अधिकतर विशेषज्ञ भारतीय ही हैं ।

हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराकर स्वदेश में रहने का प्रण करने वाले हाँकी के जादूगर ध्यानचन्द ने लिखा है- ”न्यूजीलैण्ड का दौरा करने के पश्चात मेरे नाम की चर्चा घर-घर होने लगी थी । मैं अपने आप को बड़ा भाग्यशाली समझने लगा था, किन्तु मेरा भ्रम उस समय टूट गया, जब मैं बर्लिन ओलम्पिक (1936) में भारतीय कप्तान के रूप में गया और वहाँ देखा कि कोई भी जर्मन सैनिक यदि अच्छी सफलता प्राप्त करता है, तो अगले ही दिन उसे लेफ्टिनेण्ट बना दिया जाता था । इस हिसाब से हिटलर तो मुझे सचमुच ही फील्ड मार्शल बना देता ।”

जहाँ तक प्रतिभा पलायन के कारणों की बात है, तो इसका कोई एक कारण नहीं है । भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान एवं भारतीय प्रबन्धन संस्थान विश्वस्तरीय शिक्षा के माध्यम से अपने छात्रों को श्रेष्ठ तकनीशियन एवं उद्यमी के रूप में विकसित करते हैं ।

इन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों एवं भारत सरकार की तुलना में बहुत अधिक ऊँचे वेतनमान पर रखने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं । प्रतिभा पलायन का एक और कारण यह है कि भारत में पिछले कुछ दशकों में बड़ी तादाद में इनीनियर, डॉक्टर, कादर विशेषज्ञ एवं अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ बने, औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया के कारण इन सभी लोगों को रोजगार प्रदान करना सम्भव न हो सका, जिसके कारण इनमें से अधिकतर लोगों ने अन्ततः विदेश का रुख किया ।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में शोध की विश्वस्तरीय सुविधा अभी तक भारत में उपलब्ध नहीं हो सकी है, जिसके कारण शोध करने के इच्छुक अधिकतर लोगों को विकसित देशों का रुख करना पडता है । कुछ लोग कहते है कि जो लोग यहाँ से शिक्षा प्राप्त करने के बाद विदेश को अपनी कर्मभूमि बनाते है, उनमें देशभक्ति का अभाव होता है ।

यह बात बिल्कुल निराधार है, यदि व्यक्ति को सारी सुविधाएँ अपने ही देश में मिले, तो कोई क्यों पराए देश में पराए लोगों के बीच जीवन व्यतीत करना चाहेगा? किन्तु उच्च शिक्षा एवं शोध के इच्छुक लोगों को भ्रष्ट शासनतन्त्र के कारण उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है, जिसके कारण लोग विदेश का रुख करने को विवश हो जाते हैं ।

इसका परिणाम यह होता है कि सरकार जिन लोगों की शिक्षा पर इस आशा में करोड़ों रुपये खर्च करती है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद बे देश के विकास में योगदान देंगे, उनके विदेश जाने से न केवल उनकी शिक्षा पर किया गया खर्च बेकार जाता है, बल्कि उनकी कुशलता का लाभ भी दूसरे देशों को मिलने लगता है । इस तरह, प्रतिभा पलायन से देश को बड़ी हानि होती है ।

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हालाँकि प्रतिभा पलायन से होने वाली हानियों की अनदेखी नहीं की जा सकती, किन्तु पिछले कुछ वर्षों के शोधों से पता चला है कि प्रतिभा पलायन से देश को कई प्रकार के लाभ भी मिलते हैं ।  विदेश में कार्यरत लोग अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा अपने देश के विकास में भी खर्च करते है तथा विदेशों में प्राप्त अनुभव एवं शिक्षा को बह अपने वतन के लोगों से साझा करते है, जिससे देश के आर्थिक एवं शैक्षिक विकास में मदद मिलती है ।

बावजूद इसके प्रतिभा पलायन भारत जैसे देश के लिए शर्म की बात है । इसे तब ही रोका जा सकता है, जब यहाँ उच्च शिक्षित लोगों के लिए शिक्षा, रोजगार एवं शोध के बेहतर अवसर उपलब्ध कराए जाए । यदि प्रतिभा पलायन पर शीघ्र नियन्त्रण नहीं किया गया, तो देश में अच्छे तकनीशियनों, डॉक्टरों एवं उद्यमियों के अभाव के कारण हमारी प्रगति निश्चित रूप से बाधित हो जाएगी ।

पिछले कुछ दशकों में भारत ने अभियान्त्रिकी, सूचना तकनीक, उद्योग, चिकित्सा विज्ञान एवं आधारभूत संरचना के साथ-साथ परिवहन एवं शक्ति उत्पादन के क्षेत्र में काफी तेजी से प्रगति की है इसके कारण विकसित देशों में जा बसे भारतीय लोग अपने देश वापस आने के इच्छुक है ।

वैश्विक मन्दी के बावजूद भारत ने हर क्षेत्र में प्रगति की एवं मन्दी की मार से स्वयं को साफ बचा लिया, जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का एक अच्छा प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा, जबकि अमेरिका जैसे देश भी स्वयं को मन्दी से नहीं बचा पाए ।

यह भी एक प्रमुख कारण है कि अमेरिका, इग्लैंण्ढ, फ्रांस, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया जा बसे भारतीय डॉक्टर, वैज्ञानिक इत्यादि पुन भारत लौट रहे हैं । प्रतिभाओं का इस तरह पुन अपने देश में वापस लौटना प्रतिभा पलायन प्रतिवर्तन कहलाता हैं । यदि हम चाहते हैं कि भारत विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करे, तो यह जरूरी है कि देश की प्रतिभाएँ यही रहकर विकास में अपना सम्पूर्ण योगदान दें ।

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