भूमि सुधार का इंतजार पर निबंध | Essay on Land Reformation in Hindi!
सदियों से बंधुआ मजदूरों के रूप में जीते आए गरीब लोग अपनी भूमि रूपी सौगात को खोना नहीं चाहते हैं, परंतु कभी-कभी नासमझी में छोटे लाभ के लिए बड़ा नुकसान हो जाता है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई छात्र गाइड बुक का सहारा लेकर परीक्षा तो पास कर ले, लेकिन नौकरी के लिए साक्षात्कार में असफल हो जायें ।
देखना यह चाहिए कि भूमि के वितरण से गरीब को दीर्घकाल में राहत मिलेगी या नहीं? समस्या यह है कि देश की कुल आय में कृषि का हिस्सा घटता जा रहा है । देश के 58 प्रतिशत लोग कृषि पर जीविका के लिए निर्भर हैं, परंतु वे देश की केवल 15 प्रतिशत आय कमा रहे हैं ।
इसके सामने सेवा एवं मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्रों पर केवल 42 प्रतिशत लोग निर्भर हैं, परंतु ये देश की 85 प्रतिशत आय कमा रहे हैं । सेवा आदि क्षेत्रों में औसत आय कृषि की तुलना में पांच गुना से भी अधिक है । विशेष बात यह है कि दोनों क्षेत्रों में आय का अंतर बढ़ता जा रहा है ।
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भूमि वितरण से गरीब व्यक्ति खेत मजदूर से निकलकर छोटा किसान बन जाता है, परंतु वह कृषि की परिधि में ही रहता है । जैसे एक डूबती नैया से निकलकर यात्री दूसरे डूबते बजरे (बड़ी नाव) में चढ जाये तो भी अंत में उसे राहत नहीं मिलती है ।
उसी प्रकार खेत मजदूर को भूमि मिलने से तत्काल राहत मिलती है, लेकिन दीर्घकाल में वह कष्ट ही भोगता है, क्योंकि कृषि में आय निरंतर गिरती जा रही है । दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अंबेडकर ने गांवों को घेटटी कहा है, जहां असुरक्षा का वातावरण रहता है, गुटों के बीच झड़प होती रहती है, सार्वजनिक सुविधाओं का अभाव रहता है और पुलिस भी प्रवेश करने में हिचकिचाती है ।
उन्होंने गरीबों को नसीहत दी थी कि वे गांव छोड्कर शहरों में बसें । भूमि सुधार हासिल करने में राजनीतिक ऊर्जा भी खप जाती है । भूमि वितरण से गरीब अंत में जीतकर भी हार जाता है, क्योंकि भूमि से आय के ठोस साधन नहीं बनते हैं और दूसरे साधन हासिल करने की ऊर्जा नहीं बचती है ।
विडंबना यह है कि भूमि सुधार के अभाव में भी गरीब को कोई लाभ नहीं होता है । सेवा आदि क्षेत्रों में पूंजी का उपयोग अधिक और श्रम का उपयोग निरंतर कम होता जा रहा है । मैन्यूफैक्चरिंग में एक मीटर कपड़े में निहित श्रम की मात्रा कम हो गयी है । अत: गरीब को रोजगार दिलाने में सेवा आदि क्षेत्र नाकाम है ।
वास्तव में यह विकास का तार्किक परिणाम है । विकास का अर्थ होता है आय में वृद्धि । पूंजी की प्रचुर ब्याज दरों में गिरावट आती है । अपने देश में पूर्व में औद्योगिक ऋण पर ब्याज दर 16-18 प्रतिशत हुआ करती थी । वर्तमान में यह 10-12 प्रतिशत है ।
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दूसरी तरफ श्रम का मूल्य बढ़ जाता है, जैसे हरियाणा सरकार ने न्यूनतम वेतन में 40 प्रतिशत की वृद्धि कर दी है । इस प्रकार पूंजी सस्ती और श्रम महंगा होता जाता है । इसके फलस्वरूप उद्यमी के लिए पूंजी का उपयोग ज्यादा और श्रम का उपयोग कम करना लाभप्रद हो जाता है ।
यही कारण है कि 1997 के बाद आर्थिक विकास दर में वृद्धि के साथ-साथ संगठित क्षेत्र मे रोजगार की संख्या गिर रही है । अत: बाजार के सहारे बैठे रहने से भी खेत मजदूर की आर्थिक स्थिति में सुधार की संभावना नहीं है । दरअसल बड़ी कंपनियों की अर्थव्यवस्था में दखलदांजी की खुली छूट दे दी गयी है । उनके लाभ में भारी वृद्धि हो रही है ।
उनके द्वारा अदा किये जा रहे आयकर से ज्यादा राजस्व की प्राप्ति हो रही है । इस आयकर से सरकार रोजगार गारंटी योजना चला रही है । यह नीति भी कारगर नहीं है । कारण यह है कि बेरोजगारी के जिस रोग का उपचार किया जा रहा है वह इन्हीं नीतियों की देन है ।
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बड़ी कंपनियों को छूट देने से बड़े ट्रकों एवं ऑटोमैटिक लूमों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है, जो रोजगार घटाने में सहायक है । रोजगार में इस कटौती की भरपाई इन्हीं उद्योगों द्वारा अदा किए जा रहे टैक्स से की जा रही है । इसे ऐसे समझें कि गरीब श्रमिक अपना पेट पालने के लिए पहले ब्लड बैंक में अपना खून बेचता है, फिर खून की बिक्री से हुई आय से बिस्कुट खाता है और दूध खरीद कर पीता है ।
कहा जा सकता है कि अब उसे दूध और बिस्कुट मिल रहा है, जो पहले नहीं मिलता था, लेकिन इस अतिरिक्त भोजन के बाद भी उसके स्वास्थ्य में गिरावट इसलिए आएगी, क्योंकि खून बेच रहा है । इसी तरह रोजगार गारंटी योजना से बेरोजगारी का दूर होना मुश्किल है, क्योंकि बड़ी कपंनियां-रोजगार का भक्षण कर रही है । खेत मजदूर के जीवन में सुधार का हमारे पास कोई भी सफल नुक्सा नहीं है ।
भूमि सुधार से वह कृषि की डूबती नैया में बैठता है । सेवा आदि क्षेत्रों में पूंजी का उपयोग अधिक होने से रोजगार घट रहे हैं । रोजगार गारंटी योजना से मिली राहत से अधिक नुकसान रोजगार के हनन से हो रहा है । आय में वृद्धि के लक्ष्य से चलाई जा रही अर्थव्यवस्था में इस समस्या का हल है ही नहीं । ध्यान दें कि कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ किसानों द्वारा आत्महत्याएं, घरेलू हिंसा तथा तलाक आदि में वृद्धि हो रही है । अंतत: सरकार को आर्थिक विकास का मोह छोड़ना पड़ेगा ।
यह सवाल स्वाभाविक है कि दुःख देने वाले और समाज के एक बड़े वर्ग को कोई लाभ न पहुंचा पाने वाले आर्थिक विकास को गले लगाने का क्या औचित्य है? इसमें दो राय नहीं कि जो हालात उभर कर सामने आए हैं उनसे यह स्थापित होता है कि अर्थव्यवस्था को दूसरी तरह से संचालित करने की आवश्यकता है । विकास की गणना देश की आय या जीडीपी से नहीं, बल्कि श्रम की आय से होनी चाहिए ।
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ऐसी नीतियां लागू करनी होंगी कि उत्पादन में श्रम का हिस्सा बड़े । विशेषकर सेवा आदि क्षेत्रों में श्रम-सघन उत्पादन को प्रोत्साहन देना होगा । साथ-साथ भूमिहीन खेत मजदूरों को कृषि के स्थान पर शहरों में कमरे आवंटित करने चाहिए । ऐसा करने से गरीब व्यक्ति सेवा आदि क्षेत्रों के नजदीक पहुंचेगा और कृषि की घटती आय से उबर जायेगा ।