महाप्राण पं. सूर्यकांत त्रिपाठी की साहित्य-यात्रा पर निबन्ध |Essay on Pt. Surya Kant Tripathi’s literature Journey in Hindi!
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि ‘महाकवि’ का आसन समलंकृत करने का अधिकार उस विचक्षण को है, जिसने जीवन के विपरीत पहलुओं की अनुभूतियों को जिया और भोगा हो ।
हम यदि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन से साक्षात् करें, तो निःसंदेह ‘महाकवि’ के रूप में उनका बिंब स्पष्ट उभरता है । ‘प्रसाद’ की भांति ‘निराला’ भी ‘रहस्यवादी’ कवि हैं, परंतु उनकी रहस्यात्मक अनुभूति का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है, क्योंकि उन्होंने विराट् सत्ता और शाश्वत ज्योति द्वारा रहस्यात्मक अनुभूतियाँ ग्रहण की हैं ।
अद्वैतवादी होने के कारण वे ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या के सिद्धांत को मानते थे, किंतु अद्वैतवाद की शुष्क भूमि में अपनी भक्तिपूर्ण सरसता को खोते नहीं, स्वयं उन्हीं के शब्दों में:
”मुक्ति नहीं चाहता मैं भक्ति रहे काफी सुधाधर की कला में, अंशु यदि बनकर रहूँ तो अधिक आनंद है ।”
निराला की कविता में करुणा, वीर और रौद्र रसों के सजीव चित्र विद्यमान हैं, उनकी कल्पना इतनी मर्मस्पर्शी होती है कि पढ़ते ही एक अज्ञात व्यथा से समस्त शरीर क्षुब्ध हो उठता है; मन में एक बिजली सी कौंध जाती है ।
किसी भी रस का चित्रण करने में वे समान रूप से सफल रहे हैं । भाषा और भावों पर कवि का कुछ ऐसा अधिकार है कि उसमें एक प्रकार की संगीतात्मकता उत्पन्न हो जाती है, जिससे उनका प्रभाव और भी वेगशाली और अमिट हो जाता है ।
निराला का मूल्यांकन वस्तुत: जो होना चाहिए वह अभी नहीं हुआ है । क्योंकि वे अपने युग से बहुत आगे रहे हैं । उनकी प्रतिभा, उनकी वाणी और उनका व्यक्तित्व इतना ‘प्रगतिशील’ रहा कि वर्तमान से वे निर्वाह न कर सके ।
उससे वे आजीवन जूझते ही रहे । महाप्राण का मूल्यांकन आगे आनेवाली पीढ़ियाँ करेंगी और तभी उनकी वाणी के नए-नए अर्थ और आकार खुलेंगे । सन् १९२० में रची गई कविता के जिन भावों की दुहाई अब भी दी जाती है, वह दर्शनीय है ।
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यह उस समय की कविता है जबकि हिंदी के अधिकांश कवि गगन-बिहारी बनकर क्षितिज के किसी कोने में अज्ञात प्रेयसी से अभिसार करने में रत थे । उस समय यही कवि धरती की कठोर चट्टानों पर अपने गीत लिखता था । इलाहाबाद स्थित दारागंज मुहल्ले की सड़कें आज भी साक्षी हैं, निराला के हर पाठ और हर संवेदना की:
”वह तोड़ती पत्थर देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर पड़ रही थी धूप गरमियों के दिन दिवा का तमतमाता रूप, उठी झुलसाती हुई लू, रुई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनकी छा गई, प्राय: हुई दुपहर ।”
उनकी अपौरुषेय प्रतिभा से प्रभावित होकर महीयसी महादेवी वर्मा ने एक बार कहा था-
”कवि-श्री निराला उस छाया-युग की कृति थे, जिसने जीवन में उभरते हुए विद्रोह को संगीत के स्वर का भाव रूपी मुक्त सूक्ष्म आकाश दिया । वे ऐसे युग का भी प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो उस विद्रोह का परिचय कठोर धरती पर विषम कला में ही देता है ।”
सच, निराला की आत्मा नई दिशा खोजने के लिए सदा विकल रही । एक ओर उनका दर्शन, उन रहस्यमय सूक्ष्म तत्त्वों का साथ नहीं छोड़ना चाहता था, जो युग-युग का अर्जित अनुभूति वैभव है और दूसरी ओर उनकी पार्थिकता धरती के गुरुत्व से बँधी हुई थी, जो आज की पहली आवश्यकता है ।
एक ओर उनकी सांस्कृतिक-दृष्टि पुरातन की प्रत्येक रेखा में उजले रंग भरती है तो दूसरी ओर आधुनिकता व्यंजना की ज्वाला में तपा-तपाकर सब रंग उड़ाती है । कोमल-मधुर गीतों की वंशी से ओज लेकर शंख तक उनकी स्वर साधना का उतार-चढ़ाव है । अब निराला के कोमल-मधुर गीतों की वंशी में कुछ अमर स्वर सुनिए-
”विजन वन वल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमल तनु तरुणी जुही की कली दृग बंद किए–शिथिल पत्रांक में ।”
निराला का काव्य रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के वेदांत, राष्ट्रप्रेम तथा रवींद्र के सौंदर्य-दर्शन एवं बंकिम के मार्मिक व्यंग्य-परिहास से ओत-प्रोत है । निराला के काव्य में दार्शनिक विचारों का समावेश है । समाज के शोषित वर्ग के साथ उनकी हार्दिक सहानुभूति है । एक याचक की व्यथा-कथा को निराला की ये पंक्तियाँ कितनी जीवंतता देती हैं :
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”वह आता– दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता, पेट–पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को–भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता दो टूक कलेजे के कारण करता पछताता पथ पर आता ।”
महाप्राण की ‘कुकुरमुत्ता’ काव्य-रचना तो जन-शोषकों की अशिष्ट दृष्टि और शब्दों के प्रति करारा कटाक्ष है । ‘गुलाब’ शोषक-रूप का प्रतीक है । यही नहीं, तथाकथित संभ्रांत श्रेणी का प्रतिनिधि भी है । निराला का शब्द-तीर का असर असह्य हो उठता है:
“अबे, सुन बे गुलाब ! भूल मत जो पाई खुशबू रंगोआब, खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट ! डाल पर इतरा रहा है ‘कैपिटलिस्ट‘ ! देख मुझको, मैं बढ़ा डेढ़ बालिश्त और ऊँचे पर चढ़ा बहुतों को बनाया है तूने गुलाम, माली कर रखा खिलाया जाड़ाघाम !”
निराला का मानवीकरण सर्व-चेतनावाद पर आधारित होता है । ‘जुही की कली’, ‘यामिनी’, ‘बेला’, ‘बादल’, ‘शेफाली’ आदि का मानवीकरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनमें न केवल मानवीय भावनाओं और गुणों का आरोपण है वरन् वे उस सर्व-चेतन सत्ता की तादाल्म अवस्था तक पहुँच गई हैं ।
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उनके इस मानवीकरण की एक विशेषता है और वह यह कि अभिव्यक्ति में मृगार-भावना मिली होने पर भी अध्येता के मन पर कुत्सित प्रभाव नहीं पड़ पाता । आइए ‘शेफालिका’ से साक्षात् करें:
“बंद कंचुकी के सब खोल दिए प्यार से, यौवन उभार ने, पल्लव पर्यक पर सोती शेफालिके !”
उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ का आधार-फलक असंदिग्ध रूप से विराट् है । उस अवसर पर हमारे समक्ष न तो ‘तीक्षण शर विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर’ आता है और न ही राशि-राशि जल की राशि पछाड़ खाती है ।
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हाँ वहाँ तो नयनों का गुप्त संभाषण है; उन्मद पलकों का गिरना है; अधरों का स्पंदन है और है, आशा के विहंगों का मधुर कलरव । अब परखते हैं, इस विपरीत बिंब को-
”ये अश्रु राम के आते ही मन में विचार, उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार । हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल, एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल । शत धूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़, जल राशि–राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़ । तोड़ता बंध प्रति संध धरा, हो स्फीत वक्ष, दिग्विजय–अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष ।”
निराला की भावनाओं में ज्वालामुखी-सी विनाशक फूफकार और मार्त्तंड की जाज्वल्यमान किरणों की सी दहकती आभा है । उनकी वाणी में यदि अथाह जलनिधि की सी गंभीरता है तो नीलाकाश की तरह व्याप्ति तथा फौलादी धरती की सी सहनशीलता भी ।
इस महाकवि का जन्म सन् १९५३ में बंगाल के मेदिनीपुर के अंतर्गत महिषादल राज्य में हुआ था तथा देहावसान १५ अक्तूबर, १९६१ को दारागंज, इलाहाबाद में हुआ था । उनके पिता पं. राम सहाय त्रिपाठी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे ।
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उन्नाव जिले के गढ़कोला गाँव के निवासी थे, किंतु जीविकोपार्जन हेतु वे बंगाल चले गए थे । वहीं पर निराला का जन्म हुआ । निराला की प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में ही हुई और वहीं से उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की । कविता के प्रति प्रेम बचपन से ही रहा, उनकी प्रारंभिक कविताएँ बंगाल में ही हुआ करती थीं ।
हिंदी की प्रेरणा उनको अपनी धर्मपत्नी से मिली थी । जो प्रतिदिन रामायण का पाठ बड़े सुमधुर कंठ से किया करती थीं । रामायण पढ़ने की उत्कट अभिलाषा से उन्होंने बँगला पढ़ना छोड़ दिया । वे आगे चलकर हिंदी और संस्कृत के आधिकारिक विद्वान् बन गए ।
भारतीय दर्शन से निराला अतिशय प्रभावित थे । इसी से उनकी कविताओं में वेदांत का निखरा हुआ रूप सर्वत्र मिलता है । कवि होने के साथ-साथ वे एक कुशल गायक और संगीतज्ञ भी थे । उनकी कविताओं में शास्त्रीय संगीत का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है ।
निराला की साहित्यिक जीवन की साधना ‘समन्वय’ नामक पत्र के संपादन- काल से आरंभ हुई तथा ‘मतवाला’ तक पहुँचते-पहुँचते उनकी प्रतिभा निखरकर सर्वत्र बिखर गई । वस्तुत: निराला सब प्रकार के बंधनों से परे एक स्वच्छंद प्रकृति के कलाकार थे । बिना किसी शंका के उन्हें ‘युग-प्रवर्तक’ के अमर विशेषण से विभूषित किया जा सकता है ।
निराला की सहित्य–खात्मा:
काव्य संग्रह- ‘अर्चना’, ‘अणिमा’, ‘अनामिका’, ‘अपरा’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘गीतिका’, ‘तुलसीदास’, ‘नए पत्ते’, ‘परिमल’, ‘बेला’, ‘हलाहल’ । कहानी संग्रह- ‘अपना घर’, ‘चतुरी चमार’, ‘लिली’, ‘सखी’, ‘सुकुल की बीबी’ । उपन्यास- ‘अप्सरा’, ‘अलका’, ‘काले कारनामे’, ‘चमेली’, ‘निरुपमा’, ‘प्रभावती’ । निबंध- ‘चाबुक’, ‘प्रबंध-प्रतिभा’, ‘रवींद्र-कविता कानन’ । जीवनी-साहित्य- ‘ध्रुव’, ‘प्रल्लाद’, ‘भीष्म’, ‘राजा प्रताप’, ‘शकुंतला’ । रेखाचित्र- ‘कुल्ली भाट’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ । अनुदित साहित्य- ‘आनंद मठ’, ‘कपाल कुंडला’, ‘चंद्रशेखर’, ‘तुलसीकृत’, ‘रामचरित मानस की टीका’, ‘दुर्गेश नंदिनी’, ‘देवी चौधरानी’, ‘परिवाजक’, ‘स्वामी विवेकानंद के भाषण’, ‘महाभारत’, ‘रजनी’, ‘राधारानी’, ‘श्रीराम कृष्ण वचनामृत’ (चार भागों में) ।
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जहाँ तक निराला के व्यक्तित्व का प्रश्न है, उन्होंने वैदिकयुगीन देब मूर्ति सा प्रशस्त ललाट पाया था । वे स्वतंत्रता, साहस और निर्भीकता की प्रतिमूर्ति थे । उनके दानशीलता का कोई सानी नहीं, एक बार एक कीमती ऊनी कोट पहनकर शीत-ऋतु में वे घूमने निकले थे और एक व्यक्ति को जाड़े से पीड़ित देखकर अपना कोट और कपड़े देकर वे एक लँगोट लगाए घर वापस आए । उन्होंने स्वयं पुराने कोट पर पूरा जाड़ा काट दिया था ।
निराला के व्यक्तित्व की साक्षी ये पंक्तियाँ हैं:
”तुम हो महान् तुम सदा हो महान् है नश्वर यह दीन–भाव, कायरता कामपरता ब्रह्मा हो तुम, पद रज भी है नहीं पूरा विश्व भार ।”
सच कहा जाए तो ‘निराला’ जैसा असाधारण व्यक्तित्व लेकर बहुत कम ही रचनाधर्मी इस धरा पर अवतरित हुए हैं । उनमें जैसे कबीर का अक्खड़पन, तुलसी की विराटता, सूर की भावुकता ओर रबींद्र की मनस्विता एकाकार हो उठी थी । उनके पास एक कवि की वाणी, करता-कार का मस्तिष्क, पहलवान् का वक्ष-प्रांत और दार्शनिक के चरण थे ।