शहरीकरण पर निबन्ध |Essay on Urbanization in Hindi!
प्रस्तावना:
भारत में पिछले कुछ दशकों से जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या का पलायन भी शहरों एवं बड़े-बड़े महानगरों की ओर हो रहा है । परिणामस्वरूप शहरों में बढती आबादी अनेक समस्याओं को जन्म दे रही है, जिनका समाधान किया जाना अति आवश्यक है ।
चिन्तनात्मक विकास: बढ़ते हुये शहरीकरण के फलस्वरूप शहरों में अनेक भयंकर समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं; जैसे, जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, गरीबी, अपराध, बाल-अपराध, महिलाओं की समस्यायें, भीड़-भाड़, गन्दी बस्तियां, आवास की कमी, बिजली एवं जलपूर्ति की कमी, प्रदूषण, मदिरापान एवं अन्य मादक वस्तुओं का सेवन, यातायात सम्बंधी समस्यायें आदि ।
इस कारण शहरों में दबाब और कुण्ठाएं एवं तनाव निरन्तर बढ़ता जा रहा है । इन समस्याओं का समाधान किया जाना अत्यावश्यक है । कुछ उपाय हैं जिनके द्वारा शहरों की समस्याओं को समाप्त किया जा सकता है अथवा कम किया जा सकता है, जैसे-नगरों का योजनाबद्ध विकास, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, उद्योगों को बढ़ावा देना, सरकार द्वारा वित्तीय साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराना, इत्यादि ।
उपसंहार:
आज देश के समक्ष महत्वपूर्ण प्रश्न है कि हम अपने यहँ। नगर विकास की नियोजित दृष्टि व परिकल्पना किस प्रकार से शुरू करें ? स्पष्ट बात है कि हमारे नगरों को आर्थिक-सामाजिक सद्भावयुक्त; स्वस्थ पर्यावरण वाला तथा राजनीतिक रूप से सकारात्मक स्वरूप वाला बनाने का कार्य किसी अकेले के बस का नहीं है । इसके लिए तो सारे देश को समन्वित प्रयास करना होगा ।
पिछले कुछ दशको में भारतीय समाज और जीवन मे अनेक वृहदस्तरीय परिवर्तन हुये है । ये परिवर्तन महानगरो और शहरो में विशेषरुपेण परिलक्षित होते है । जनसख्या वृद्धि कई साथ-साथ महानगरो और शहरो की जनसख्या बेतहाशा बडी है ।
गावो-कत्त्वो से एक बडी सख्या में लोगों ने इनकी ओर रूख किया है । नतीजा यह है कि सडकों-बाजारो में लोग ही लोग दिखाई पड़ते हैं । अपराध, बाल अपराध, मदिरापान और मादक वस्तुओ का सेवन, आवास की कमी, भीड-भाड और गन्दी बस्तिया, बेरोजगारी और निर्धनता, प्रदूषण और शोर, सचार और यातायात नियन्त्र जैसी अनेक जटिलतम समस्याएं उत्पन्न हुई है ।
किन्तु यदि शहरीकरण दबाव एवं तनाव का स्थान है तो वह सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र भी है । वे सक्रिय, नावचारयुक्त और सजीव है । यह प्रत्येब व्यक्ति को उसकी अभिलाषाओं एवं आकाक्षाओ को प्राप्त करने हेतु अवसर प्रदान करते है ।
हमें देश का भविष्य जितना ग्रामीण क्षेत्रों के विकास से सम्बधित है उतना ही शहरो एव महानगर के क्षेत्रों के विकास से । शहरीकरण से उत्पन्न सभी समस्याओ का विश्लेषण करने से पूर्व हमा लिए शहरीकरण की अवधारणा को जानना अत्यन्त आवश्यक है ।
‘शहर’ अथवा ‘नगर’ क्या है? इस शब्द का प्रयोग दो अर्थो मे होता है- जनाकिकीय में और समाजशास्रीय रूप में । प्रथम अर्थ मे जनसख्या के आकार, जनसंख्या के घनत्व झै वयस्क पुरुषों मे से अधिकांश के रोजगार के स्वरूप पर बल दिया जाता है, जबकि दूसरे ठ मे ठिसमता अवैयक्तिकता, अन्योन्याश्रयता और जीवन की गुणवता पर ध्यान केंद्रित रहता – परिस्थितियों, परिवर्तन में तेजी और अवैयक्तिक अन्त-क्रिया पर बल दिया है ।”
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रुथ ग्लास जैसे विद्वानो ने नगर को जिन कारकों द्वारा परिभाषित किया है वे हैं जनसंख्या का आकार, जनसंख्या की सघनता, प्रमुख आर्थिक व्यवस्था, प्रशासन की सामान्य रचना, और कुछ सामाजिक विशेषताएं । 1961 का आधार 1971, 1981 1991 की जनगणनाओं के अनुसार शहर एव महानगर की परिभाषा इस प्रकार की गई है; जिन क्षेत्रो की जनसंख्या 5000 और 20,000 के बीच है छोटा कस्बा माना जाता है, जिनकी 20,000 और 50,000 के बीच है उन्हें बड़ा कस्वा माना जाता है ।
जिनकी जनसंख्या 50,000 और एक लाख के बीच है, उन्हें शहर कहा जाता है, जिनकी एक लाख और 10 लाख के बीच है उन्हे बडा शहर कहा जाता है, जिन क्षेत्रों में 10 और 50 लाख के बीच व्यक्ति होते हैं उन्हे विशाल नगर कहा जाता है और जिनमे 50 लाख से अधिक व्यक्ति हैं उन्हें महानगर कहा जाता है ।
समाजशास्त्री ‘नगर’ की परिभाषा में जनसख्या के आकार को अधिक महत्व नहीं देते क्योकि न्यूनतम जनसख्या के मानदण्ड काफी बदलते रहते हैं । थिओडॅर्सन ने दशहरी समुदाय की परिभाषा इस प्रकार दी है यह वह रामुदाय है जिसकी जनसंख्या का घनत्व बहुत है, जहाँ गैर-कृषिक व्यवसायों की सर्वाधिकता है, एक ऊँचे स्तर की विशेषता है जिसके फलस्वरूप श्रम-विभाजन जटिल होता है, और स्थानीय शासन की औपचारिक ढंग से व्यवस्था होती है ।
उसकी विशेषताओं में अवैयक्तिक द्वितीयक संबध प्रचलित होते हैं और औपचारिक सामाजिक नियन्त्रणो पर निर्भरता रहती है । राबर्ट रेडफील्ड के अनुसार शहरी समाज की विशेषताएँ ये होती है, बडी विषमरूप जनसंख्या होती है, उसका दूसरे समाजों से निकट का सम्बध होता है (व्यापार, सचार आदि के जरिए), उसमे एक जटिल श्रम-विभाजन होता है ।
सांसारिक मामलो को पवित्र मामलों की अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया जाता है और निश्चित लक्ष्यों के प्रति विवेकपूर्ण तरीके से व्यवहार को सुव्यवस्थित करने की अभिलाषा होती है । वे पारम्परिक मानदण्डो का अनुसरण नहीं करते ।
जनसंख्या का ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों मे जाना ‘नगरीकरण’ अथवा ‘शहरीकरण’ कहलाता है । इस्के परिणामस्वरूप जनसंख्या का बढता हुआ भाग ग्रामीण स्थानों में रहने के बजाय शहरी स्थानों में रहता है । ‘अब मैं राशन की कतारो में नजर आता हूँ अपने खेतों से बिछुडने की सजा पाता हूँ’ गांवो से अपना घर-बार खेत-खलियान छोड़ कर शहर चले आए लोगो की व्यथा को किसी शायर ने इन पक्तियों में बडी मार्मिकता से उकेरा है मगर, बावजूद इसके कि गावों से शहरो की ओर दौडे चले आ रहे लोगो की तादाद बढ़ती जा रही है ।
एक अनुमान के अनुसार, एक करोड व्यक्ति प्रति सप्ताह शहरों में गांवों से चले आते हैं-रोजी-रोटी और तरक्की के सपने संजोए । हालांकि शहरों मे एक-तिहाई से ज्यादा लोग बेघर हैं । शहरों मे लगभग 40 प्रतिशत लोगों के पास पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं है, सफाई व्यवस्था भी ठीक नहीं और स्वास्थ्य सुविधाएं भी कम आय वाले व्यक्तियों के लिए बहुत कम है ।
फिर भी शहरो की आबादी इतनी रफ्तार से बढ रही है कि विशेषज्ञों के एक अनुमान के अनुसार सन् 2000 आने तक दुनिया की आधी आबादी शहरी में होगी । ऐसे में शहरी आवास की समस्याओं को ज्यादा देर तक अनदेखा करना मानव हित में नहीं होगा ।
इसी जरूरत को महसूस करते हुए तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में विश्व आवास सम्मेलन हैबीटेट-टू’ का आयोजन किया गया था । इतना ही नहीं विश्व भर में मनाए जाने वाले पर्यावरण दिवस की विषय वस्तु भी ‘हमारी पृथ्वी, हमारा आवास, हमारा घर’ रही । इस सम्मेलन मे शहरो की आवास समस्याओं पर व्यापक विचार-विमर्श किया गया था ।
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यूं तो शहर हमेशा से ही आकर्षण का केन्द्र माने जाते रहे हैं । विभिन्न समस्याओं के बावजूद शहर विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे है । रोमन काल का मिस्र अलेक्लेंड्रा शहर बहुत प्रसिद्ध था 1 सन् 1798 में जब नेपोलियन ने उस पर आधिपत्य जमाया तो उसकी आबादी कुछ हजार थी ।
20वीं सदी के शुरू में भी शहरों की आबादी ज्यादा नहीं थी । एक अनुमान के अनुसार उस समय केवल 5 प्रतिशत आबादी शहरी में रहती थी । पूर्व में कंबोडिया का अंगकोरवात और थाईलैंड का अयुत्घया प्रसिद्ध शहर थे मगर आजकल वे पर्यटक स्थलों के रूप में जाने जाते है, ठीक वैसे ही जैसे भारत के पुराने शहर फतेहपुर सीकरी और सिकंदराबाद किसी जमाने में राजनीतिक-सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियों के केन्द्र थे, मगर अब पर्यटक स्थल के रूप में जाने जाते हैं ।
शहरों की आबादी में वृद्धि का दौर 1950-60 के बाद देखने में आया । आकड़ों के अनुसार सन् 1960 में न्यूयार्क विश्व में सर्वाधिक आबादी वाला शहर था । उस समय उसकी जनसंख्या एक करोड़ 40 लाख थी । उसके बाद 90 लाख से 30 लाख आबादी वाले शहरों का स्थान था, जिनमें लंदन, टोक्यो, पेरिस, मास्को, शंघाई, ऐसन, शिकागो, कलकत्ता, ओसाका, बर्लिन, लॉस, एंजलिस आदि आते थे ।
सन् 1990 के आते-आते न्यूयार्क की जगह टोक्यो सर्वाधिक आबादी वाला शहर हो गया । उसकी आबादी दो करोड 50 लाख थी । इसके बाद मेक्सिको, शंघाई, मुंबई, लास एंजलिस का नंबर था, जिनकी आबादी एक करोड़ बीस लाख से ऊपर थी । इसके बाद एक करोड की आबादी वाले कलकर्त्ता, ब्यूनस, आयर्स, सील, ओसाका का स्थान था ।
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संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2015 आने तक टोक्यो की सर्वाधिक आबादी 2 करोड़ 90 लाख और मुंबई की 2 करोड़ 80 लाख हो जाएगी । इस अनुमान के अनुसार बंबई आबादी की दृष्टि से विश्व का दूसरा बड़ा शहर होगा । उसके बाद लागोस और शघाई का स्थान होगा । न्यूयार्क और दिल्ली की आबादी करोड़ 80 लाख के लगभग होगी जबकि मनीला की डेढ करोड होगी ।
शहरी मामलों के राष्ट्रीय संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के निदेशक ने कुछ वर्ष पहले शहरों के बारे में कहा था कि ‘बडे शहर अब अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुके हैं और यह ढांचा अब चरमराने लगा है ।’
अत: भारत के महानगरों की जनसंख्या भारत की जनसंख्या वृद्धि की दुगनी दर से बढ़ रही है । शहरीकरण के सामाजिक प्रभाव परिवार, जाति, महिलाओं की सामाजिक स्थिति एवं ग्रामीण जीवन पर पड़ रहे हैं । शहरीकरण केवल परिवार के ढांचे को ही प्रभावित नहीं करता, अपितु वह परिवार के आन्तरिक और अन्तर-परिवार के संबंधों और उन कार्यों को भी जो परिवार करता है प्रभावित करता है ।
किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि बच्चे बड़ों का आदर नहीं करते या कर्तव्यों का पालन नहीं करते या पत्नियां अपने पतियों के अधिकार को चुनौती देती हैं । महत्वपूर्ण परिवर्तन् यह आया है कि अब ‘पति-प्रधान’ परिवार का स्थान सनतावादी परिवार ले रहा है, जिसमें पलिया निर्णय प्रक्रिया मे भाग लेती हैं, माता-पिता द्वारा बच्चों पर अधिकार थोपे नहीं जाते और न ही बच्चे आँखें मूंद कर अपने माता-पिता के आदेशों का पालन करते हैं ।
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बच्चों का रूख डर की बजाय आदर से प्रेरित हो रहा है । शहरीकरण, शिक्षा, व्यक्तिगत उपलब्धि और आधुनिकता की ओर गत्यात्मकता जाति की पहचान को कम करती है । कुछ जातियों के शिक्षित सदस्य, कभी-कभी दबाव-समूह के रूप में संगठित हो जाते हैं । उपजातियों एवं जातियों का विलयन हो रहा है अन्तर्जातीय विवाहों के रूप में ।
खानपान संबंधों, वैवाहिक संबंधों, सामाजिक संबंधों एवं व्यावसायिक संबंधों में परितर्वन हुये है । जहाँ तक शहरी महिलाओं का प्रश्न है तो वह ग्रामीण महिलाओं की तुलना में अधिक शिक्षित एवं उदार हैं । विभिन्न प्रकार की नौकरियों में कार्यरत ।
यह अपने राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों का उपयोग अपने को शोषित एवं अपमानित होने से बचाने के लिए करती हैं । फिर भी श्रम बाजार में इनकी स्थिति प्रतिकूल ही हे । यद्यपि शहरों में शिक्षा ने महिलाओं की विवाह की आयु बढा दी है और जन्म-दर को कम कर दिया है, फिर भी इससे दहेज के साथ पारम्परिक स्वरूप वाले तयशुदा विवाहों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ है ।
तलाक और पुनर्विवाह नये तथ्य हैं जिन्हे हम शहरी सियों में पाते हैं । बड़ी संख्या में तलाक सियों द्वारा असामंजस्य और मानसिक यातना के आधार पर मांगा जाता हैं । राजनीतिक रूप से शहरी महिलाएँ अधिक सक्रिय हैं, वह चुनाव लड़ती हैं राजनैतिक पदों पर आरूढ़ हैं, स्वतन्त्र राजनैतिक विचारधारा रखती हैं ।
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अत: ये ग्रामीण महिलाओं की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र हैं । हरीकरण के प्रभावस्वरूप आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी पर्याप्त परिवर्तन हुये हैं । गाँवों में सभी शहरी जीवन की सुविधाएँ उपलब्ध हैं, यद्यपि ये शहरों से मीलों दूर हैं ।
उत्कृष्ट राजमार्ग, बसें व मोटरें, रेडियो, टेलीविजन और अखबार, ग्रामीणों को शहरी रोजगार, शहरी आवास और ग्रामीण सम्पर्क ने न केवल सामाजिक संरूपों में कुछ परिवर्तन किये हैं, अपितु जीवन की एक नई शैली से समन्वय भी स्थापित किया है । ग्रामीण लोग अब धर्म एवं जाति को अत्यधिक महत्व नहीं देते ।
उनका दृष्टिकोण उदार हो गया है, वह अलगाव में भी नहीं रहते, किसानों ने कृषि संबंधी नवीन पद्धतियां अपना ली हैं । न केवल उनके मूल्यों एवं आकांक्षाओं में बदलाव आया है वरन व्यवहार भी परिवर्तित हुआ है । जजमानी व्यवस्था कमजोर हो रही है और अन्तर्जातीय एवं अन्तर्वर्गीय संबंधों में परिवर्तन आ रहा है । विवाह, परिवार और जाति-पंचायतों की संस्थाओं में भी परिवर्तन आया है ।
स्वास्थ्य संबंधी नवीन चिकित्सा पद्धतियाँ एवं सुविधायें उपलब्ध हैं । चुनावों में यह लोग प्रत्याशी की क्षमताओं और राजनैतिक पृष्ठभूमि को महत्व देते हैं । किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि गांवों में अब परम्पराओं का कोई महत्व नहीं है ।
जहाँ तक शहरी समस्याओं का प्रश्न है तो इन समस्याओं का कोई अन्त नहीं है । वर्तमान समय में शहरीकरण ने अनेक समस्याओं को शहरों में जन्म दे दिया है । शहरीकरण के परिणामस्वरूप महानगरों तथा नगरों में आवास की समस्या लगातार बद से बदतर होती जा रही है ।
नवीनतम कड़ी के अनुसार वर्तमान में देश में 3 करोड़ 10 लाख से अधिक आवासीय इकाइयो की कमी है । यद्यपि देश में आवासीय इकाइयों की कमी के संबंध में कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया है, लेकिन 1971 और 1981 की जनगणना के आधार पर राष्ट्रीय भवन निर्माण संघ ने 1 मार्च 1991 तक देश में उक्त आवासीय इकाइयों की कमी का अनुमान लगाया है । इसके अनुसार शहरी क्षेत्रों में 1 करोड़ 40 लाख से अधिक और ग्रामीण क्षेत्रों में 2 करोड़ 40 लाख आवासी की कमी है ।
भारत के महानगरीय परिप्रेक्ष्य में जहां तक कड़ा उपलब्ध है उसके अनुसार दिल्ली में जहां ग्रामीण क्षेत्रों में आवासीय इकाइयों की कमी नगण्य है वहीं शहरी क्षेत्र में 3 लाख 70 हजार आवासों की कमी है, लेकिन इससे भी विकट समस्या आवास के मामले में कलकत्ता और मुंबई की है हालांकि वहां का कोई शोध आकडा उपलब्ध नहीं है, लेकिन वहां की जनसंख्या के अनुभव के आधार पर देखने में आता है कि दिल्ली की अपेक्षा मुंबई और कलकत्ता में आवास की समस्या ज्यादा गंभीर एवं विस्फोटक स्थिति में है ।
मुंबई की स्थिति तो यह है कि वहां लोग खोली (आवास जिसमें एक ही कमरे में 4 से 5 परिवार रहते हैं) में अपना जीवन गुजारते हैं । एक रिपोर्ट के अनुसार मुंबई में वर्तमान हालात यह हैं कि मकान की अपेक्षा रहने के लिए होटल अधिक सस्ता एवं सुलभ मात्रा में उपलब्ध हो जाता है । इस हालात के पीछे सच्चाई यह है कि इन महानगरों की जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस तेजी से जमीन में वृद्धि नहीं हो रही ।
कुछ लोगों की काली कमाई के कारण आवास सेक्टर में ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया है, जिनके लिए यह निवास स्थल नहीं, बल्कि अपनी काली कमाई को बचाकर रखने का जरिया है ।
अनेक धनाढ्य सट्टेबाजो के लिए आवास कमाई करने का भी माध्यम बन गया है इसके कारण पहले से ही दुर्लभ घर और भी दुर्लभ होते जा रहे हैं । इनकी कीमतें इतनी तेजी से बढ़ रही है कि सफेद कमाई करने वालों के लिए अपना घर सिर्फ सपना बन कर रह जाता है ।
मकानों की कीमतें बढ़ने के कारण किराए में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है । लेकिन सरकार इस समस्या की ओर ध्यान नहीं दे रही है ।
आवास के लिए बनने वाली उसकी नीतियाँ निहित स्वार्थों को पूरा करने का हथियार बनकर रह जाती है । हमारा मत है कि मकान रोटी और कपड़े की तरह एक मौलिक आवश्यकता है ।
किसी भी देश का आदर्श यही हो सकता है कि सभी नागरिकों को आवास उपलब्ध
हों । भारत इस आदर्श को प्राप्त करने से कोसों दूर है । सरकार की नीति के अनुसार जब कोई वस्तु दुर्लभ हो जाए, यानी आपूर्ति और माग में बडी विसंगति पैदा हो जाए, तो उस वस्तु की राशनिग कर दी जाती है । मकान भी दुर्लभ होते जा रहे हैं ।
महानगरों तथा अन्य नगरों में इसकी माग लगातार बढ रही है । लेकिन आपूर्ति बहुत सीमित है, लेकिन जो आपूर्ति है वह भी काले धन के मालिकों से बहुत हद तक प्रभावित हो जाती है ।
इससे होता यह है कि एक-एक व्यक्ति के पास अनेकों मकान हो जाते है और किसी के पास मकान रह ही नहीं जाता । गेहूं और चावल की तरह मकान भी जमाखोरी की चीज बन जाता है, जिसे जमाखोर अधिक कीमतें बढने पर बेच कर मुनाफा कमाते
हैं । इस समस्या को हल करने के लिए यदि मकानों का कोटा भी कर दिया जाए तो बुरा नहीं होगा ।
बड़े शहरो में आने पर इन्हें चाहे रोजगार या धंधा मिले न मिले, लेकित मजबूरी में ये लोग फिर शहर छोडकर गाँव भी नहीं जा पाते । इनकी स्थिति ‘एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई’ वाली हो जाती है ।
फलस्वरूप हर बड़े शहर में गंदी बस्तियां, झोपडपट्टी की संख्या बढ़ती ही जाती है ।
योजना आयोग का अनुमान है कि 3 करोड़ से भी अधिक लोग इस तरह की झुग्गी बस्तियों मे रह रहे है । यानी कुल शहरी आबादी का पांचवा हिस्सा नारकीय स्थितियों में जीने को विवश है । हालाकि गैर सरकारी सूत्र इस संख्या को काफी अधिक यानी 30 प्रतिशत तक बताते हैं ।
अकेले मुम्बई शहर में आठ हजार एकड जमीन में करीब 30 से 50 लाख झोपड पट्टी ही वाले लोग रह रहे हैं । यानी प्रत्येक एकड़ में 400 लोग बसे हुए हैं । मुम्बई मे जिस तेजी से जनसंख्या का घनत्व बढ रहा है, उस हिसाब से इस सदी के अंत तक मुम्बई की लगभग 75 प्रतिशत आबादी झोपड पट्टियों में रह रही होगी ।
मुम्बई में लगभग डेढ लाख लोग अपनी रात फुटपाथ पर गुजारते है । कलकत्ते की हालत इससे भी अधिक खतरनाक है वहां करीब 6 लाख लोग अपनी रात फुटपाथ पर गुजारते हैं । मुम्बई में दुनिया की सबसे बडी झोपडपट्टी बस्ती ‘धारावी’ भी है, जिसकी तकदीर बदलने का प्रयास अभी तक किसी सरकार ने नहीं किया है ।
जहा तक राजधानी का प्रश्न है अगर उसके पुराने नगर के कटरों व अवैध कालोनियों तथा 1080 झुग्गी-झोपडियो की आबादी को जोड लिया जाए तो हम पाएंगे कि राजधानी की 77 प्रतिशत जनसंख्या गंदी बस्तियों मे रहती है ।
सबसे बुरी बात यह है कि अभी तक देश में इन गंदी बस्तियो की सफाई के लिए हमारे
देशवासियों के मन में इच्छा भी पैदा नहीं हुई है । गंदी बस्तियां, भीड़-भाड़ वाले शहर मानवीय सुविधाओं के अभाव में बुरी तरह से गंदगी से ग्रस्त होते जा रहे हैं ।
भीड़-भाड़ और व्यक्तियों की दूसरे व्यक्तियों की समस्याओं के प्रति उदासीनता एक दूसरी समस्या है, जो शहरी जीवन में पैदा हो रही है । भीड-भाड के कई हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं जैसे, यह विचलित व्यवहार को बढावा देती है, बीमारियां फैलाती है और मानसिक बीमारियों, मदिरापान और साम्प्रदायिक दंगों के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है ।
सघन शहरी आवास का एक प्रभाव भावशून्यता और उदासीनता होता है । शहरों में रहने वाले दूसरों के मामलों में उलझना नहीं चाहते । यहाँ तक कि व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं, तंग किये जाते हैं, उन पर आक्रमण किया जाता है, भगाया जाता है और उनकी हत्या कर दी जाती है और ऐसे समय में अन्य व्यक्ति केवल खडे हुये तमाशा देखते रहते हैं ।
शहरों में चौबीस घंटे जल की आपूर्ति नहीं हो पाती है और न ही यहाँ एक भी शहर ऐसा है जहाँ पूर्णरूप से मल विसर्जन नाले हों । जल-निकास की भी बहुत बडी समस्या है ।
परिवहन एवं यातायात की सभी भारतीय शहरों में तस्वीर सुन्दर नहीं है । बढती हुई जनसंख्या को सीमित परिवहन व यातायात के साधन पर्याप्त सुविधायें प्रदान करने में असमर्थ हैं ।
बस एवं रेल सेवाओं द्वारा जो सुविधायें हमें प्राप्त हो रही हैं उनसे आप सभी वाकिफ हैं । यातायात से निकट जुडी समस्या बिजली की कमी हे । आज अधिकांश राज्य अपनी आवश्यकतानुसार बिजली उत्पादन करने की स्थिति में नहीं हैं परिणामस्वरूप उन्हें पडोसी राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है ।
दो राज्यों में बिजली की सप्लाई पर मतभेद हो जाने से शहर मे व्यक्तियों के लिए भयकर बिजली की संकट-स्थिति उत्पन्न हो जाती हे ।
हमारे शहर और कस्बे वातावरण को प्रदूषित करते हैं । कई शहर अपने पूरे गन्दे पानी और ओद्योशिक अवशिष्ट कूडे का 40 से 60 प्रतिशत तक असंसाधित रूप में अपने पास की नदियों में बहा देते हैं ।
छोटे से छोटा कस्त्रा अपने कूडे और मल को अपनी खुली नालियों के जरिये निकटतम नहर मे बहा देता है । शहरी उद्योग पर्यावरण को अपनी चिमनियों से निकलते धुएं और जहरीली गैसों से प्रदूषित करता है ।
शहरी समस्याओं को जन्म देने वाले कई कारण हैं, प्रथम, ग्रामीण दरिद्रों के शहरों में प्रवेश राजस्व के स्त्रोतों को कम करते हैं । दूसरी ओर धनवान व्यक्ति उप-नगरीय क्षेत्रों में रहना अधिक पसन्द करते है ।
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अत: उनके पलायन से नगर को वित्तीय हानि होती है । द्वितीय, निर्धारित योजनाओ के अनुरूप औद्योगिक विकास नहीं हो पाया है जोकि प्रवासियो को आश्रय प्रदान करता है यद्यपि उनकी आय बहुत कम होती है ।
तृतीय, सरकार की उदासीनता भी नगरीय समस्याओं को जन्म देती है । प्रशासनिक अव्यवस्था नगरवासियो की परेशानी के लिए उत्तरदायी है । दूसरी ओर, राज्य सरकारें भी स्थानीय सरकारो पर कई शहरी समस्याओ के समाधान के लिए आवश्यक पैसा जुटाने पर कई प्रतिबध लगा देती है ।
चतुर्थ, नागरिक सेवाओ के स्तर में व्यापक गिरावट का कारण दोषपूर्ण नगर योजना है जिसके कारण आयोजको और प्रशासको में निस्सहायता बढ रही है । पंचम, नगरीय समस्याओं का अन्तिम कारण है निहित स्वार्थो की शक्तियां जो जनता के विरुद्ध कार्य करती है, परन्तु निजी व्यापारिक स्वार्थो और लाभी को बढाती है ।
यद्यपि हम नगरीय समस्याओ का समाधान-चाहते है तथापि हमे कुछ उपाय करने पडेगे । जैसे; प्रथम, नगरीय केन्द्रों का योजनाबद्ध विकास और निवेश के कार्यक्रम की योजना बनाना तथा रोजगार के अवसरो की वृद्धि करना ।
द्वितीय, नगरीय योजना बनाना एक तदर्थ उपाय है, किन्तु क्षेत्रीय योजना द्वारा एक अधिक स्थाई समाधान हो सकता है । तृतीय, उद्योगों को पिछड़े क्षेत्रों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना ।
चतुर्थ, व्यक्ति नगरपालिकाओं को कर देने में आपत्ति नहीं करते, यदि उनका पैसा सडकों के रख-रखाव के लिए, नालियों की व्यवस्था के लिये, पानी की कमी को कम करने के लिए और बिजली उपलब्ध कराने के लिए ठीक प्रकार से काम में लिया
जाये ।
पंचम, निजी परिवहन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए । षष्टम, कानून, जो नये मकान बनाने या मकानों को किराये पर देने पर रोक लगाते हैं, में संशोधन करना चाहिए ।
सप्तम्, मई 1988 में केन्द्र सरकार ने एक राष्ट्रीय आवासीय नीति बनायी थी, जिसका उद्देश्य शताब्दी के अन्त तक आवासहीनता को समाप्त करना है और आवास की गुणवत्ता को बढ़ाकर एक निश्चित कम से कम स्तर पर लाना है ।
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कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाये जाने की आवश्यकता है जैसे- मकानों के निर्माण के लिए पर्याप्त वित्त की व्यवस्था, शहरी क्षेत्रों में आवासीय स्थलों की व्यवस्था और निर्माण भूमिहीन मजदूरी की सहायता की व्यवस्था और आवास निर्माण मे कम लागत वाली तकनीक का विकास और प्रयोग करना ।
अष्टम, एक अन्य उपाय है-स्वायत्त शासन का संरचनात्मक विकेन्द्रीकरण । इसमें पड़ोस-क्रिया समूहों का सृजन हो सकता है, जिन्हें सामुदायिक केन्द्र कहा जाएगा और उसमे निवांसी और नगरपालिकाओं के प्रतिनिधि होंगे ।
ये केन्द्र पडोस की आवश्यकताओ की पहचान करेंगे और उनकी पूर्ति की दिशा में कार्य करेगे ।
स्पष्टत: कहा जा सकता है कि जब तक नगरी योजनाओं मे सुधार नहीं होगा तब तक शहरीकरण और नगरीयता के प्रभावो और नगरों की समस्याओं का कभी समाधान नहीं हो सकता और न ही आधारभूत उपाय किये जा सकते है ।
उपाय स्वार्थो से प्रेरित नहीं होने चाहिए । करों का, भूमि का, प्रौद्योगिकी इत्यादि का उपयोग भी सही दिशा में एवं स्वार्थरहित होना चाहिए । राजनैतिक दृष्टि से भी सभी लोगों को सक्रिय होना पड़ेगा । सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन करना होगा तथा सामूहिक रूप से आन्दोलन चलाना होगा ।