संयुक्त राष्ट्र संघ की समकालीन भूमिका की प्रासंगिकता पर निबन्ध|
प्रस्तावना:
अब केवल परम्परागत सैनिक आक्रमणों से ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और स्थिरता के लिए खतरा नहीं रह गया है । अब तो अनेक और समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं ।
इन समस को हल करने हेतु पहले की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक सहयोग की आवश्यकता है । इन बातों को ध्यान में बखते हुये हमारा ध्यान एक उस संगठन की ओर जाता है, जिससे हम विश्व में उस एकता की अपेक्षा करते हैं, जिसकी आज हमें अत्यधिक आवश्यकत वह है संयुक्त राष्ट्र संघ ।
चिन्तनात्मक विकास:
1945 से केवल 50 देशों को लेकर शुरू किए गये संयुक्त के कर्मचारियों की संख्या उस समय 150 थी और आज सिर्फ न्यूयार्क स्थित मुख्य कार्यालय में ही 15,000 कर्मचारी कार्यरत हैं । कुल कर्मचारी करीब 54 हजार हैं । सदस्य देशों की संख्या भी बढ़कर 185 हो गई है । लेकिन जैसे-जैसे यह संगठन विशाल होता जा रहा है इसकी प्रासंगिकता पर अंगुलियां उठने लगी हैं ।
यह सत्य है कि इसकी ऐतिहासिक भूमिका हिर एकीकरण तथा स्पष्टोच्चारण, संघर्ष प्रबंधन, एवं संयुक्त राष्ट्र राजनैतिक परिवर्तन के रूप में अत्यधिक महत्वपूर्ण रही है । किन्तु आज आर्थिक संकट के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ दिवालिया होने के कगार पर है ।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना एक सशक्त निकाय के रूप में मुस में अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए की गई थी, लेकिन पिछले पचास वर्षो में शान्ति प्रया क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र का खोखलापन उजागर हो चुका है ।
उपसंहार:
निष्कर्षत: अपनी डगमगाती स्थिति के कारण इसके दुखद निर्णय दुरि सामने शीघ्र ही आने वाले हैं । वस्तुत: संयुक्त राष्ट्र के समक्ष आज मुख्य प्रश्न अपने अथवा दायित्वों की पूर्ति का नहीं, अपितु स्वयं को किसी प्रकार बचाए रखने का हो गया है । संयुक्त राष्ट्र संघ विगत पाँच दशकों में, अपनी कमियों एवं असफलताओं के बावजूद एक सजीव संगठन रहा है ।
एक ऐसा ‘प्रभावशाली संगठन’ है जिसने अनेक सामाजिक, राज्य आर्थिक तथा मानवीय समस्याओं का समाधान ढूंढकर अपनी महत्ता का परिचय दिया है और उस पर अपनी स्थाई छाप छोड़ी है । किन्तु यह भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र युद्धों को नहीं रोक पाया है, जैसा कि 1945 के पश्चात् हुये 500 से अधिक क्षेत्रीय युद्धों से साबित होता है ।
दूसरी ओर, राष्ट्र राज्य भी अपने विकास के उस चरण तक नहीं पहुँच पाये हैं, जहाँ वे राष्ट्रीय नीति के रूप में, युद्धों का त्याग कर दें । यह सच है कि 1945 से परमाणु अस्त्रों का प्रयोग न होने से विश्व का विनाश बच गया, किन्तु क्षेत्रीय युद्धो में परम्परागत हथियारों का अक्सर प्रयोग किया गया है और यह दौड आज भी जारी है ।
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संयुक्त राष्ट्र ने इस सबके बावजूद भी विश्व के विविध भागों में युद्धों को शान्त करने में विनम्र भूमिका निभाई है । आज भी कहीं युद्ध होता है तो यह करवाने वाले अथवा मध्यस्थ की भूमिका अदा करता है । स्वेज संकट के बाद, महासभा द्वारा पारित इशान्ति के लिए एकता प्रस्ताव से संगठन को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा बनाये रखने में महत्वपूर्ण सहारा मिला है । शान्ति स्थापना हेतु संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र में सामूहिक सुरक्षा का प्रावधान एक महान नवीन गतिविधि रही है । वास्तव में विशवयापि स्तर पर इसकी भूमिका ने ही इसके अस्तित्व को बनाये रखा है ।
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित करने हेतु इसने अनेक उपायों को अपनाया है । राष्ट्रों के तथा वाद-विवाद सम्बधी मामलों में, सयुक्त राष्ट्र ने सम्बंधित राष्ट्रों को अपने विचार प्रकट करने तथा दूसरों के विचारों को समझने का अवसर प्रदान किया है ।
इस प्रकार, इसने सभी राष्ट्रों के बीच अनुकूलन, सहयोग एवं सहमति की भावना उत्पन्न की है । सयुक्त राष्ट्र ने विश्व जिन मुद्दों पर वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श हो सकता है, उनके लिए अनुकूल माहौल है क्योंकि अक्सर शान का अभाव ही युद्धों का कारण बनता है ।
पूर्व-पश्चिम के मध्य तनाव में कमी भी संयुक्त राष्ट्र द्वारा विवादों के आदान-प्रदान का अवसर उपलब्ध कराने के कारण हई इसने औपनिवेशिक राज्यों को भी अपने-आपको उपनिवेशक से पूर्व के क्षेत्रों तक सीमित रखने का अवसर प्रदान किया है ताकि सभी राष्ट्रों को अन्तर्राष्ट्रीय पद्धति में समान अवसर प्राप्त हो सके ।
इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण के बीच संवाद भी अधिकतर सयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों में है । अनेक रूढिवादी तथा नवीन मुद्दों पर भी इसका समर्थन पाने का प्रयास किया अत: संयुक्त राष्ट्र उस न्यूनतम शान्ति एवं सुरक्षा को बनाये रख सका है जिसकी अन पद्धति को जीवित रखने के लिए आवश्यकता थी ।
गैर-स्वशासी एवं न्यासिता उपबंधों के माध्यम से, संयुक्त राष्ट्र ने एक ऐसा मंच उपलब्ध कराया है जिसकी विउपनिवेशीकरण, जो हमारे समय की सर्वाधिक महानतम तथा महत्वपूर्ण क्रांति है, के लिए अत्यन्त आवश्यकता थी ।
इसने अपने अन्तर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को ईमानदारी से निभाया है, जो उपनिवेशो के स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में परिवर्तन के लिए अनिवार्य था और जिसमें उपनिवेशी राज्य अपने भूतपूर्व स्वामियों के साथ समानता के आधार पर भाग ले सकते थे ।
संयुक्त राष्ट्र की सर्वाधिक सराहनीय भूमिका कार्यात्मक सहयोग के क्षेत्र में है । इस अभिकरणों ने स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, खाद्यान्न, विज्ञान एवं शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य करके इस संस्था को बहुराष्ट्रीय सहयोग का एक अपरिहार्य अंग बना दिया है ।
इसकी मौद्रिक इसन तथा व्यापारिक संस्थाएं, अपने कार्यों के निर्वाह में, किसी-न-किसी विवाद का केन्द्र रही उन्होने भी व्यापारिक-अवरोधों को कम करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय अदायगियों को सुविधाजनव अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
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संयुक्त राष्ट्र ने विशिष्ट कार्यात्मक क्षेत्रों में, बहुराष्ट्रीय के द्वारा अरबों शरणार्थियों को आर्थिक सहायता एवं संरक्षण प्रदान किया है । शिशु अभिलक्षित समूहों को उनकी आवश्यकता पूर्ति में सहयोग दिया है । विकासशील देशों आवश्यक तकनीकी सहायता तथा विकास हेतु पूंजी भी उपलब्ध कराई है । यद्यपि यह अमीर के बीच असमानता की खाई को प्रकट नहीं कर सका है तथापि संयुक्त राष्ट्र ने इस विचार को अत्यन्त सुदृढ़ता प्रदान की है कि विकास एक अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व है ।
मानवाधिकारों को प्रोत्साहित करने की दिशा में इसकी भूमिका मुख्यत: विधि-व्यवस्था के कारण सीमित रही है । फिर भी, संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित विचार-विमर्शों, ऐलानी प्रतिवेदनों तथा अन्तर्राष्ट्रीय के कारण, यह विश्व संगठन मानव अधिकारों के प्रयोजन को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक कर पाया है ।
वस्तुत: सयुक्त राष्ट्र अपने निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप सीमित उपलब्धियां ही सका है । इसका कारण है असमान संस्कृतियों, विचारधाराओं, आर्थिक हितों तथा विकास-चरणों के विभाजनात्मक प्रभाओं ने बहुपक्षीय सहयोग को बहुत कुछ अवरुद्ध किया है ।
शांति एवं सुरक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों, में जहाँ राष्ट्रो का प्रातिष्ठा, सत्ता एवं संसाधनो के विभाजन दाओं पर लगे है, संयुक्त राष्ट्र आरम्भ से ही चली आ रही पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, उपनिवेशी, वीउपनिवेशी क्षेत्रीय-द्विपक्षीय गंभीर प्रतिस्पर्द्धाओं के कारण अपंग ही रहा है ।
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अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा, अन्तर्राष्ट्रीय विवादो के शीघ्र समाधान हेतु यह वातावरा नहीं है । एक बाधा यह भी रही है कि कई राष्ट्र इसके द्वारा लिए गये निर्णयों को आविष्कार करते रहे हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ की सबसे गम्भीर समस्या इसके सदस्य राष्ट्रों की प्रभुता रही है और रहेगी और जब तक ‘सामूहिक इच्छा’ शक्ति आदेशात्मक निर्णयों का भार वहन करने प्राप्त नही कर लेती, तब वह इसी तरह कार्य करता रहेगा जैसे अब कर रहा है ।
वास्तव में संयुक्त राष्ट्र की सार्थक भूमिका को लेकर अनेक भ्रान्तियां इसलिये भी विश्व समुदाय की इस नाजुक संगठन से अत्यधिक अपेक्षाएं थीं फिर भी एक अन्तर पर इसने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । ऐसी भूमिका जिससे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमानों क होता है, इससे अन्तर्राष्ट्रीय समाज में उन कानूनों का निर्माण होता है, जिनसे व्यार परिणाम निकलते हैं । इनसे न केवल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के आधारभूत प्रतिमानों होता है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय सबंधो में प्रयोग हेतु नियमावली या आचार-संहिता का निम है ।
यह राजनीतिक गतिविधियों के संदर्भ में न्यायीकरण की विशेष प्रक्रियाओं की स्थापना में सहायता करता है । इन सभी कार्यो में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । एक व्यापक की स्थापना के लिए अनुकूल माहौल बनाया है ।
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन राजनय का यहाँ राष्ट्र अपनी मागे रखते हैं, अपनी शंकाएं अभिव्यक्त करते हैं, अपने हितों स्पष्टोच्चारण तथा एकीकरण करते हैं तथा अपनी मांगों को पूरा करवाने हेतु मतैक्य जुटाते हैं । राष्ट्रों के मध्य संचार का एक ऐसा विशिष्ट मंच हे जहाँ सभी राष्ट्र इकट्ठे होकर साथ विचार-विमर्श कर सकते हैं ।
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प्रबंधन का कार्य इसके द्वारा पूर्ण किया जाने वा कार्य है । संयुक्त राष्ट्र की स्थापना ही विभिन्न प्रकार के संघर्षों के निदान हेतु कई इस दिशा में इसने अनेक संघर्षों के निदान का प्रयास भी किया । कम से कम उन्हें नियंत्रित करने अथवा सहनीय सीमाओं तक रखने की दिशा में सराहनीय कदम तो उठाये ही । मूल्यों के सार्थक विभाजन में आदेशात्मक अनुकूलता लाने में इसकी सम्भावित भूमिक है ।
संयुक्त राष्ट्र के लिए समसामयिक विश्व में, राजनैतिक परिवर्तन लाने हेतु व्यत्न एक साधन के रूप में प्रयोग चिंता का विषय बनता जा रहा है । इस क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक कारगर भूमिका निभाना और भी कठिन होता जा रहा है क्योकि कुछ देशो के लिए राजनैतिक परिवर्तन मूल्यों का पुनर्वितरण करता ही है और यह आशा कि, संयुक्त राष्ट्र द्वार अपना लेने के पश्चात् भी प्रभावशाली राष्ट्र अपने पतन को स्वीकार कर लेंगे, अनुचित ही लगती है ।
इसीलिए, संयुक्त राष्ट्र अपने सम्पूर्ण इतिहास में राजनैतिक परिवर्तन लाने की भूमिका निभाने से हिचकिचाता रहा है । यह बात खासकर उन परिस्थितियों में लागू राजनैतिक परिवर्तन लाने के लिए सैनिक शक्ति का प्रयोग आवश्यक हो ।
अत: मुद्दों का समाधान करने के बजाय खतरनाक संघर्षों का स्थिरीकरण करना ही अप्रत्यक्ष रूप से सुरक्षा परिषद में वर्चस्व की लड़ाई आज भी जारी है । सदस्य राष्ट्रों की संख्या 60 से बढ़कर 185 तक पहुंच जाने के बावजूद विकसित देश विकासशील देशों को इसमें प्रतिनिधित्व देने के पक्ष मे नही है, क्योंकि विश्व के इन कर्णधारों को डर है कि यदि विकाशसील राष्ट्र प्रवेश पा गये तो फिर मनमानी नहीं चल पायेगी ।
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इससे बडी विडम्बना क्या हो सकती है कि विकसित राष्ट्र विशेष रूप से अमरीका, जापान जैसे छोटे राष्ट्र को तो परिषद भी स्थायी सदस्यता देने के पक्ष में है किंतु भारत व दक्षिण अफ्रीका की दावेदारी को नहीं पचा रहा है ।
दर्चस्व की यह लडाई संगठन तक ही सीमित नहीं रही अपितु उसकी अन्य सस्थाओं जा पहुची । विश्वयुद्ध में हुई व्यापक जनधन की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्निर्माण के लिए स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व बैक पर विकसित देशों ने कब्जा कर उसका राजनीतिक इस्ते शुरू कर दिया ।
विकास के लिए इन संस्थाओं पर निर्भर विकासशील राष्ट्र शरणागत हो गये और साम्राज्यवादी ताकतो ने राजनीतिक साम्राज्यवाद की जगह आर्थिक साम्राज्यवाद का पेंच व शुरू कर दिया । जब कभी इन राष्ट्रो ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठायी आर्थिक सहायता रोककर उनकी बोलती बद कर दी गयी । अपना शिकंजा दुरुस्त रखने के लिए ऐसी ताकतें तरह का हथकडा अपनाती है इसका ताजा उदाहरण मुद्राकोष की नीति निर्धारित समिाr बैठक है ।
इसमें विकासशील देशों के आग्रह के बावजूद कोष का संसाधन बढाने से इच्छा दिया मया । बेशर्मी की हद तो तब हुई जब विश्व के तथाकथित सरमायेदारों ने यह श दी कि मेक्सिको जैसी स्थिति होने पर ही किसी की अतिरिक्त मदद की जाएगी ।
अपने पचास वर्ष लम्बे इतिहास में संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक स्थिति कभी इतनी डांवाडोर दयनीय नहीं रही जितनी आज है । इधर कुल दुनिया के राजनैतिक समीक्षक संगठन के स्वर्ण जयन्ती वर्ष में पिछले पांच दशकों की उसकी उपलब्धियों और विफलताओं के में जुटे हुए हैं तो उधर यह अन्तर्राष्ट्रीय संगठन अभूतपूर्व वित्तीय संकट से जूझ रहा है सदस्य राष्ट्रों द्वारा संयुक्त राष्ट्र कोष में अपना अंशदान न करने के कारण संगठन की खाली होती जा रही है । इन देशों में अमरीका का नाम सबसे ऊपर है ।
इससे संगठन द्वारा देशों में चलाए जा रहे विकास कार्यों और शांति स्थापना मिशनों पर सकट के बादल लगे हैं । संघ के बिगडते और कमजोर पड़ते आर्थिक ढांचे के प्रति चिन्तित और सप्स के उदासीन तथा गैर-जिम्मेदाराना रवैये से धुब्य महासचिव, बुतरस घाली ने कुछ माह पर कड़ा प्रहार करते हुए कहा भी था कि मुझे वह पैसा खर्च करने का अधिकार दिया जो मेरे पास है ही नहीं और न ही मुझे कोई ऐसा स्पष्ट आश्वासन मिला है कि आव उपलब्ध करवा दिया जाएगा ।
अगर इस समस्या का समाधान नहीं निकाला गया तो सर अपनी पचासवीं वर्षगांठ ऐसे कगाल संगठन के रूप में मनाएगा, जिसके पास उन कार्यों; देने के लिए, जो सदस्य राष्ट्र उससे चाहते हैं, वित्तीय संसाधनों का नितान्त अभाव है ।
विश्व युद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आया, तो उस समय उसका एकमात्र युद्ध से आहत विश्व में शांति की स्थापना और युद्ध के शोलों को दोबारा भड़काने से लिए एहतियाती उपाय करने तक सिमटा था । लेकिन आने वाले वर्षों में संगठन द्वार शिक्षा, पर्यावरण जैसे विकास के क्षेत्रो में पदार्पण करने से सदस्य राष्ट्रों की उससे उम्मीदें और आकांक्षाएं कम होती गई ।
हालांकि तर्क और यथार्थ के धरातल पर संयुक्त राष्ट्र से उतने ही कार्यों की उम्मीद की जानी चाहिए जितनी संयुक्त राष्ट्र में क्षमता हो । लेकिन सच्चाई तो यही है कि पिछले कई वर्षो से सदस्य राष्ट्र संगठन को सौपे जाने वाले कई कार्यों पर ठप्पा तो लगा देते है लेकिन उन पर होने वाले खर्च में अपना हिस्सा डालने की अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह चुराते हैं ।
घाली स्वयं यह कहते हैं कि मौजूदा संकट इसलिए नहीं पैदा हुआ संगठन के खर्चे उसके बजट से बढ गए हैं, बल्कि इसकी वजह यह है कि हमें जिन कार्यों के लिए समादेश दिए गए हैं, उनके लिए पैसा उपलब्ध नहीं कराया गया । संयुक्त राष्ट्र के अपने ही कड़े अंशदान में आनाकानी करने वाले राष्ट्रों के इस अश् रवैये की खरी पुष्टि करते हैं ।
मसलन 9 अक्तूबर, 1995 को घाली ने वाशिंगटन में वित्त के एक सम्मेलन में बताया था कि करीब 70 राष्ट्रों ने अभी तक नियमित बजट प्राक्क अपने अंशदान का भुगतान नहीं किया है और ऐसे राष्ट्रों के खिलाफ संघ का 3,242 अरब डालर बकाया है, जबकि 31 मई, 1995 तक यह रकम 2.8 अरब डॉलर थी ।
यह खुला सबूत बात का कि किस प्रकार एक के बाद एक राष्ट्र देखा-देखी चूककर्ताओं की फेहरिस्त से अपना नाम दर्ज करवाते और संघ के आर्थिक संकट को गहराते जा रहे हैं । दिलचस्पी और हैरानी की बात यह है कि अंशदान न करने के सबसे बड़े दोषी छोटे तथा गरीब मुल्क नहीं, बल्कि वे अमीर मुल्क है जो अपनी आर्थिक तथा सैनिक ताकत के बा न केवल कुल दुनिया पर राज करते है अपितु सयुक्त राष्ट्र के हर मामले या निर्णय को अपने हित अथवा सुविधानुसार तोड़ने-मोड़ने का दम-खम और प्रभाव भी रखते हैं ।
मसलन जहां एक ओर श्रीलंका तथा पाकिस्तान जैसे तीसरी दुनिया के देश उन 19 सदस्य राष्ट्रों में से जिन्होंने जनवरी 1995 तक संयुक्त राष्ट्र कोष में अपने हिस्से की पूरी राशि जमाका वहीं दूसरी ओर अमरीका, रूस, उक्रेन, फ्रांस जैसे देश संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख कर्जा यह समस्या कोई रातोंरात पैदा नहीं हुई ।
इसकी शुरुआत तो 1985 में तभी हो गई थी जब अमरीका ने कास्सेबॉम-सीलीमन संशोधन के जरिए यह जाहिर कर दिया कि जब ता राष्ट्र ठोस प्रशासनिक सुधार उपाय लागू नहीं करता, वह उसे पूरी देय रकम का मुग् करेगा । काबिलेगौर है कि प्रशासनिक सुधार की दलील और दुहाई देने वाला अमरीका राष्ट्र कोष को वर्तमान वित्तीय अव्यवस्था में पहुंचाने का सबसे बड़ा दोषी रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था पर पूरी तरह से काबिज और उसके हर संगीन फैसले को अपने ढंग से मनवा ख्याल हो चुका अमरीका इस विश्व पंचायत के प्रति अपनी आर्थिक जिम्मेदारी को कितनी ‘गंभीरता’ से लेता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1981 से वह संयुक्त राष्ट्र को देय अपना बजट देय-वर्ष के एक वर्ष बाद पारित करता है ।
इसके अलावा वित्तीय वर्ष 1991 में अमरीकी काग्रेस ने संयुक्त राष्ट्र कोष में जितनी रकम देने का वायदा किया थ तक पूरा नहीं किया इसका सबूत यही है कि 31 मई, 1995 तक सदस्य राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र पर बकाया, कुल 275 अरब डॉलर की रकम में से 1.18 अरब डॉलर (यानी करीब 40 फीसदी) का बकाया अकेले अमरीका के नाम दर्ज था ।
अंशदान में विलम्ब की यह प्रवृत्ति घाली के मुताबिक, एक आम बात हो रही है, जिससे आने वाले वर्षो में संयुक्त राष्ट्र की कठिनाइयां बढने और स्थिति बद से बदतर होने की आशंका व्यक्त की जा रही है । यह चिन्ता और आशंका निर्मूल नहीं है । इसके आसार अभी से दिखाई देने लगे हैं और संघ के शांति स्थापना कार्यो पर इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका है ।
डांक्टर घाली ने सम्बद्ध राष्ट्रों को साफ बतला दिया है कि पर्याप्त धन की आमद के अभाव में अगर संघ के सिकुड़ते-छीजते कोष में से शांति सेवाओं तथा उपकरणों के लिए रकम निकालना जारी रहा तो वर्ष कें अंत तक संघ के खजाने में सिर्फ 20 करोड़ डालर से उसका तीन हफ्ते का खर्चा भी पूरा नहीं होगा ।
चूककर्ता राष्ट्र इस बाबत किसी मुगालते रहें, इसके लिए डॉक्टर घाली ने पिछले दिनों बिना किसी लाग-लपेट के यह कह उन्हें आर्थिक दृष्टिकोण से शांति स्थापना कार्यों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए बाध्य है । पूर्ववर्ती युगोस्ताविया में संयुक्त राष्ट्र (शांति सेना) की मौजूदगी का एक दिन का खर्च साढ़े पांच करोड़ डॉलर है और हमारे पास इस ऑपरेशन को जारी रखने के लिए पैसा बिल्कुल नहीं है ।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र के प्राक्कलनों को संधि दायित्वों का दर्जा हासिल है और अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत सदस्य राष्ट्र उसके लिए कानूनन अंशदान करने के लिए बाध्य है लेवि बावजूद संगठन को इस सबध में कोई ठोस अधिकार हासिल नहीं है । संघ के चार्टर के 19 के अन्तर्गत किसी सदस्य द्वारा दो या उससे अधिक वर्षों तक अंशदान न देने पर में इसके मताधिकार पर ‘प्रतिबंध’ (सैकशन) की व्यवस्था तो जरूर है, लेकिन यह प्रतिबंध भी स्वत: नहीं है ।
दूसरे, अतीत का अनुभव गवाह है कि चूककर्ता देश जितना बड़ा और होता है, उस पर प्रतिबध लागू करना उतना ही कठिन होता है । मसलन 1961 में सोवियत संघ ने शाति स्थापना व्यय में अपना हिस्सा डालने से साफ इकार कर दिया था उस वक्त संयुक्त राष्ट्र ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से यह फतवा भी हासिल कर लिया स्थापना लागत संघ के वैध खर्चों में से एक है और सम्बद्ध राष्ट्र उनके भुगतान के है, तिस पर भी दोनो में से किसी भी देश ने उनका भुगतान नहीं किया और न हीं वे से वंचित हुए ।
दर्जनों राष्ट्रो द्वारा संयुक्त राष्ट्र कोष में आज अगर अशदान नहीं किया जा रहा कारण स्पष्ट है । चूंकि आमसभा आजकल अपने सभी बजट मतदान के बजाय आम पारित करती है, सो न अनुच्छेद 19 का इस्तेमाल होता है और न उन्हें अंशदान न करने पर अपना मताधिकार छिनने का डर । खुद एक अमरीकी विशेषज्ञ विलियम डर्च क कि अनुच्छेद 19 को दोबारा अमल में लाने की संभावना नगण्य है ।
शांति स्थापना में संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों के मिश्रित नतीजों के मद्देनजर उनकी पर लगाये जा रहे सवालिया निशानों के बावजूद विकास और शांति में इस संगठन ही अहमियत निर्विवाद है । इससे पहले कि आर्थिक समर्थन तथा सहयोग के अभाव में इस संस्था की लगें, चूककर्ता राष्ट्रों को अपना रवैया बदलना होगा ।
संगठन के चार्टर में जिस बात पर सर्वाधिक जोर दिया गया है वह समानता, का अधिकार तथा हर हाल में अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को बनाये रखना किंतु पा इस सफरनामे में कई ऐसे अवसर आये जबकि संगठन इन सिद्धांतो के स्पष्ट और हिर का मूकदर्शक बना रहा या फिर मजबूरीवश ही सही उसमें शामिल हो गया ।
साम्राज्यवादी अपने उपनिवेशों से चिपके रहे, भारत सहित जहां कहीं से भी उन्होंने अपना बोरिया उसके पीछे कोई न कोई मजबूरी थी । इस बंधन में फंसे जिम्बाब्बे को 1980, नामीबिया को 1990 तथा दक्षिणी अफ्रीका को 1994 तक अपनी व्यवस्था में सांस लेने पर मजबूर होना पड़ा ।
साम्राज्यवादी ताकतें गरीब व पिछड़े राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार में कि बनी हैं, यह ईरान, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया व अफगानिस्तान सहित विभिन्न देशों में हुए रूसी हस्तक्षेप में देखने को मिला । हंगरी में 1956 में जैसे ही इमरे नेगी के नेतृत्च में तथा चेकोस्लोवाकिया में डुबचेक की देख-रेख में लोकप्रिय शासन का गठन हुआ, रूस ने वहा वारा सीध भेजकर कत्लेआम शुरू कर दिया ।
दोनों नेताओं को यातनाए दी गयीं और छाछ साम्यवादी शासन स्थापित कर दिया गया । अफगानिस्तान में क्या हुआ और चीन तिब्बत के साथ क्या कर रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं । जापान की शिकस्त के बाद इंडोनेशिया ने जैसे ही आजादी की घोषणा की, डच शासन पुन: स्थापित करने के लिए जग की ने डचो का इसमें पूरा सहयोग किया ।
वियतनाम से गणराज्य की घोषणा होने के बाद और फिर अमरीका ने हस्तक्षेप कर निर्दोष लोगो के खून के साथ होली खेली । अमरीका के अल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, क्यूबा, निकारागुआ व ग्रेनाडा ने अपनी कठपुतली सरकार स्थापित करने के लिए जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया ।
साम्राज्यवादी दखल का सबसे बड़ा केंद्र पश्चिम एशिया बना क्योंकि यहीं की ऊर्जा देशों के विकास की गाडी चलती है । अरब इस्राइल युद्ध से लेकर हाल के खाडी लाखो मौतों की अपनी एक दर्दनाक कहानी है । इराक ने जैसे ही कुवैत पर अपना कब्जा जमाया, अमरीका के सारे राजनीतिक समीकरण गड़बड़ा गये ।
संयुक्त राष्ट्र को आगे कर उसे ध्वस्त कर दिया गया और सारे प्रतिबंध उस पर थोप दिये गये । खाने-पीने की वस्तुओं के अभाव में वहाँ अबोध बालक बिलख रहे हैं किन्तु उनके लिए किसी का वात्सल्य नहीं उमड़ता । हाल ही में सोमालिया व रवांडा में देखते-देखते भारी रक्तपात हो गया ।
बोस्निया में सघर्ष जारी है किंतु एकपक्षीय निर्णय के कारण वहां संगठन कुछ खास नहीं कर पा रहा है । एक अनुमान चार दशको में क्षेत्रीय स्तर पर लगभग 150 छोटे-बड़े सैन्य सघर्ष हुए हैं किंतु इनके निपटारे में संगठन की या तो कोई भूमिका नहीं रही या फिर नगण्य रही ।
सोवियत संघ के विखडन और गुटनिरपेक्ष आदोलन के कमजोर पड़ने से विकसित देशों का हौसला बढा है, और संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव में कमी आयी है । अमरीका ने तो उस करने तथा गोपनीय अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था (एकध्रुवीय) स्थापित करने की मुहिम छेड दी ने भी ऐसी ही व्यवस्था कायम करने की कोशिश की थी ।
जिससे अतत: द्वितीय विश्व संगठन की विफलता व तत्कालीन परिस्थितियो का अवलोकन किया जाए तो स्पष्ट कि हम उसी दिशा में अग्रसर हैं । समय के साथ सिर्फ रीति और नीति बदली है । तब अमेरिका ने इसमे शामिल न होकर उसे कमजोर बनाया था अब वह संयुक्त राष्ट्र में शामिल कमजोर बना रख्य है ।
किन्तु उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि संयुक्त राष्ट्र तो नागासाकी और हिरोशिमा कोई एक देश नहीं अपितु पूरा विश्व बनेगा, लिहाजा बात की है कि सगठन में बुनियादी परिर्वतन कर उसकी क्षमता का उपयोग मानवता की भलाई में किया जाए ।
स्पष्टत: इस समय सयुक्त राष्ट्र जिस तरीके से कार्य कर रहा है वह मुश्किल का प्रतिनिधित्व करता है और न ही पारस्परिक सहयोग का । यह विश्व सस्था इस परिषद् की दया पर निर्भर है जिसके 5 स्थायी सदस्य-संयुक्त राज्य अमरीका, ग्रेट चीन और फ्रांस हैं । यह संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्य संख्या का मात्र 2.7 प्रतिशत है ।
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इसके साथ ही यह बात भी सही है कि यह 2.7 प्रतिशत ही विश्व की आर्थव्यवस्था के 60 प्रतिशत तथा सैनिक क्षमता के 80 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं । आज की हमारी समस्याओं का समाधान केवल डालर ही नहीं कर सकते हैं ।
संयुक्त राष्ट्र के अब तक के इतिहास में इस पर सुरक्षा पारेषद आर शात युद्ध क ही हावी रही । 1946 से 1990 तक सुरक्षा परिषद ने 464 प्रस्ताव पारित किये जबकि प्रस्तावित प्रस्तावों को सुरक्षा कौंसिल के स्थायी सदस्यों ने अपने वीटो के अधिकार से कर दिया ।
सोवियत संघ की समाप्ति के बाद से सुरक्षा परिषद अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अब एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है तथा अब इसकी बढ़ती हुई भूमिका को देखते हुए इसके कामकाज में सुधार तथा इसको अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण संस्था बनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है । इस बारे में अनेक प्रस्ताव इस समय विचाराधीन हैं ।
गुट निरपेक्ष दलों, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल है, में यह आम सहमति है कि सुरक्षा परिषद के मौजूदा गठन में परिवर्तन या पुनर्गठन किस प्रकार से हो, इस बारे में भारी विवात् कुछ प्रस्ताव इस प्रकार के भी हैं कि या तो स्थायी सदस्यो की संख्या बढाई जाए अस्थायी सदस्यो की संख्या में वृद्धि की जाए ।
एक योजना यह भी प्रस्तावित है कि सुरक्ष में अर्द्ध अस्थायी सदस्यों का एक और वर्ग भी बनाया जाए तथा सदस्यों के चयन कई के लिए चुनाव नियमित रूप से होते रहें । एक अन्य सुझाव यह भी है कि सुरक्षा परिषद; का आवंटन क्षेत्रीय आधार पर कर दिया जाए ।
पाकिस्तान का यह स्पष्ट स्टैंड है कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यो का चयन सम्प्रभुता की समानता के आधार पर हो । वस्तुत: राष्ट्रों की सम्प्रभुता व समानता का मूल सिद्धांत ही संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के पीछे रहा है । इसके बजाय भौगोलिक समानता के आधार पर सीटों के विभाजन की बात की जा रही थी ।
सुरक्षा परिषद में सुधार केवल इसके सदस्यों की वृद्धि या सदस्यो में फेरबदल से नहीं है बल्कि इसके लिए तो इससे भी अधिक आवश्यक है कि इसकी प्रभाबशीलता को बढ़ाया जाए तथा इसके साथ ही इसके सदस्यों की संख्या का विस्तार किया जाए ।
इसके साथ ही इसका और अधिक लोकतांत्रिक स्वरूप बनाया जाए तथा इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रति बनाया जाए तथा इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रति जबावदेह बनाया गया । यह स्थिति 1945 में संयुक्त राष्ट्र के चार्टर द्वारा सुरक्षा परिषद का गठन किए जाने से पूर्व से चली आ रही है ।
प्रारंभ में किए गए प्रस्तावों में यह बात स्पष्ट की गई थी कि संयुक्त राष्ट्र मह सुरक्षा परिषद के अधिकार क्या-क्या होंगे ? महासभा को आर्थिक एवं सामाजिक मामल तथा सुझाव देने का अधिकार था लेकिन उसे महत्वपूर्ण राजनीतिक मामलों में किसई प्रभावशाली अधिकार नहीं थे ।
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इसके विपरीत सुरक्षा परिषद को शांति एवं सुरक्षा के मामले में व्यापक अधिकार प्रदान कर दिए गए थे । इस स्थिति ने महाशक्तियों को संयुक्त राष्ट्र में अपनी मनमानी थोपने का मौका दे दिया । एक ऐसा अधिकार जिसके विरुद्ध कोई कुछ भी नहीं कर सकता था ।
शुरू में संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में महासभा के कामकाज का विस्तार किया गया तथा इसे शांति और सुरक्षा संबंधी मामलों से निपटने का भी कार्य दिया गया । यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के अन्तर्गत विचाराधीन हो या जिसमें सुरक्षा परिषद के अंतर्गत विचाराधीन हो या जिसमें परिषद हस्तक्षेप कर रही हो ।
इसके अलावा एक महत्वपूर्ण उपलब्धि महासभा द्वारा 1950 में पारित वह प्रस्ताव था जिसमें शांति के लिए एकता पर बल दिया गया था । इसमें महासभा को उन मामलों पर भी विचार का अधिकार दिया गया था जिस पर पहले केवल सुरक्षा परिषद का ही एकाधिकार था ।
इस में कहा गया था कि विश्व में शांति तथा सुरक्षा सारे विश्व सगठन की जिम्मेदारी है । सुरक्षा की शान्ति स्थापना में किसी विफलता की जिम्मेदारी से संयुक्त राष्ट्र महासभा बच नहीं सकती । लेकिन इन प्रस्तावों ने सुरक्षा परिषद को प्राप्त अधिकारों तथा शक्तियों पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं डाला जिससे कि वह संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रति जवाबदेह हो ।
जब तक महासभा को यह अधिकार नहीं दिया जाता है तब तक विश्व मामलों में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ ही कहावत चरितार्थ होती रहेगी । जब तक हालात में परिवर्तन नहीं होता है तब तक सुरक्षा के 5 स्थायी सदस्यों में से कोई भी सदस्य किसी नए परिवर्तन को वीटो कर सकत आज हमें जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है उनका सामना करने ओ बाहर निकलने के लिए यह आवश्यक है कि इस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन में ‘शक्ति की राजनीति’ में परिवर्तन अवश्य हो ।