मेरे प्रिय कवि: जयशंकर प्रसाद पर निबंध | Essay on My Favourite Poet : Jayshankar Prasad in Hindi!
जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् १९४६ में वाराणसी के संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था । ऐसा कहा जाता है कि उनका जन्म शंकर के वरदान-स्वरूप हुआ था, इसी कारण उनका नाम ‘जयशंकर प्रसाद’ रखा गया ।
प्रसादजी ने अपने नाम को सार्थक किया-जीवन से, व्यक्तित्व से और अपने कृतित्व से । उनके पिता का नाम देवी प्रसाद तथा पितामह का नाम शिवरत्न साहु था । उनके पितामह सुँघनी साहु के नाम से विख्यात थे । वे बड़े उदार और दानशील थे, गंगास्नान के पश्चात् जो कुछ पास में रहता था, भिक्षुकों को दान कर देते थे ।
उनके पिता कुशल व्यवसायी होने के साथ-साथ साहित्यिक भी थे । उनका अधिकांश समय साहित्यिक चर्चा में व्यतीत होता था । उनके घर पर कवियों और विद्वानों का जमघट सा लगा रहता था । बाल्यावस्था में इन सबका प्रभाव प्रसादजी पर विशेष रूप से पड़ा । प्रसादजी की विद्यालयीय शिक्षा बहुत कम हो पाई । घर पर रहकर ही उन्होंने संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया ।
दर्शन आदि में विशेष रुचि होने के कारण वैदिक साहित्य, बौद्ध साहित्य और शैव मत की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुए । अंग्रेजी और उर्दू का ज्ञान घर पर ही प्राप्त किया । प्रसादजी ने अपनी बाल्यावस्था में ही अनेक तीर्थों और धार्मिक स्थानों का भ्रमण कर लिया था । फलस्वरूप उनके मस्तिष्क पर धार्मिक सक्रियता सदैव बनी रही ।
कसरत-कुश्ती की ओर भी प्रसादजी की विशेष अभिरुचि रही । अल्पावस्था में ही उनकी नित्यचर्चा में भारी व्यवधान उपस्थित हुआ । उनके पिता और चाचा का देहांत हो गया । घर में मुकदमेबाजी शुरू हुई और धन का अपव्यय भी ।
परिणाम यह हुआ कि उनके घर की स्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती गई और अंत में एक दिन ऐसा भी आया, जब उनके भाई भारी ऋण का का भार प्रसादजी पर छोड़कर संसार से विदा हो गए । अनुभवहीन प्रसाद के सामने उस समय जो दुनिया आई, उसमें थी- मुकदमेबाजी, ऋण-ग्रस्तता और जीवन की जददोजहद ।
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प्रसादजी की आरंभिक कविताओं का समय यही कोई चौदह-पंद्रह वर्ष का था । वंश-परंपरा के अनुसार वे नित्यप्रति कुछ घंटों के लिए दुकान पर बैठते, किंतु वहाँ बैठकर कविताएँ रचते । भाई साहब की मृत्यु के बाद घर का सारा भार सँभालते हुए भी प्रसादजी साहित्य-सृजन की ओर अग्रसर रहे । उनकी रचनाओं से जन-मानस को नवीन चेतना, जागृति और स्फूर्ति मिली । किंतु हिंदी साहित्य की यह अमर ज्योति १५ नवंबर, १९३७ को प्रातःकाल अल्पकाल में ही सदा के लिए बुझ गई ।
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प्रसादजी का जीवन एक साधक का जीवन था । उनके जीवन का ध्येय था- साधना की ओर अविरल गति से अग्रसर होना । वे एकांतप्रिय थे । उन्हें किसी सभा-सोसाइटी में जाना भी प्रिय न था । इसका कारण यह नहीं कि वे अभिमानी थे । वस्तुत: वे संकोचशील व्यक्ति थे ।
अपने राजनीतिक जीवन में वे परम देशभक्त थे । जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में वे एकरस होकर रहना जानते थे । वे देशभक्ति के साथ ही सांस्कृतिक उत्थान के भी पक्षपाती थे । जहाँ तक उनके वैयक्तिक जीवन का प्रश्न है, प्रसादजी प्रेम और सौंदर्य के पुजारी थे । उनका प्रेम दो हृदयों का सात्तिवक मधुर मिलन और ‘सौंदर्य-चेतना का उज्ज्वल वरदान’ है । अपने शारीरिक गठन का प्रकाशन मानो वे मनु के माध्यम से करते हैं:
“अवयव की दृढ़ मांसपेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य अपार । स्फीत शिराएँ स्वस्थ-रक्त का, होता था जिनमें संचार ।।”
वे साहित्यिक दलबंदियों से बहुत ऊपर उठे हुए तटस्थ जागरूक मनीषी की तरह थे । उन्होंने विपुल साहित्य रचा- (काव्य) चित्राधार, करुणालय, महाराणा का महत्त्व, प्रेम पथिक, कानन कुसुम, झरना, लहर, ओंसू, कामायनी । (नाटक) एक घूँट, राज्यश्री, कामना, विशाख, जनमेजय का नागयज्ञ, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी । (उपन्यास)- कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) । (कहानी-संग्रह)- छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इंद्रजाल । (निबंध)- काव्यकला तथा अन्य निबंध ।