List of some of the most popular poet’s of India (written in Hindi Language).
Contents:
- महाकवि कालिदास ।
- महाकवि चब्दवरदाई ।
- कबीरदास ।
- महाकवि सूरदास ।
- तुलसीदास ।
List of Popular Poet’s of India
Poet # 1 महाकवि कालिदास । Poet Kalidas
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन एवं कृतित्व ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
संस्कृत साहित्याकाश के दिव्य सूर्य महाकवि कालिदासजी सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न कवि थे । विश्व के महान् कवियों में कालिदास का जन्म सर्वोच्च माना जाता है । प्राचीन भारतीय समीक्षकों ने कवि कालिदास क्दे कवि-कुलगुरु कविकुल चूड़ामणि आदि उपाधियों से विभूषित किया है ।
किसी प्राचीन कवि ने कालिदास की तुलना दूसरी उंगली-अनामिका- से कहकर उन्हें अद्वितीय कहा है पुरा कवीनां-प्रसंगे कनिष्ठाकाधिष्ठित कालिदासा । आद्दापि ततुल्य कवेर भावात् अनामिका सार्थवती वभूव । ।
2. जीवन एवं कृतित्व:
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महाकवि कालिदास के जन्मकाल के विषय में अनेक विद्वानों में विभिन्न मत प्रकट किये हैं । कोई उन्हें कालीभक्त, तो कोई उन्हें शिवभक्त मानता है । वे विक्रमादित्य के दरबार के रत्नकवि रहे हैं । ब्राह्मण वंश में उत्पन्न कालिदास अनाथ थे । उनका पालन-पोषण एक् ग्वाले ने किया था ।
अठारह वर्ष की अवस्था तक वह निरक्षर तथा वजमूर्ख थे । कहा जाता है कि वह इतने मूर्ख थे कि जिस डाली पर बैठे थे, उसी डाली को काट रहे थे । गौरवर्णीय, हृष्ट-पुष्ट कालिदास का विवाह राजकुमारी विद्योत्तमा से हुआ
था । कहा जाता है कि राजकुमारी विद्दोत्तमा शास्त्र ज्ञान की अभिभामिनी थी । उसने यह घोषणा की थी कि जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा, वही मेरा पति होगा । राज्यमन्त्री के सम्बन्ध राजा से अच्छे नहीं थे, अत: उसने वजमूर्ख कालिदास को मौनी गुरा बनाकर शास्त्रार्थ करवाया था ।
कालिदास विद्दोत्तमा के प्रश्नों का उत्तर उंगली दिखाकर दे रहे थे । राज्यमन्त्री उसकी व्याख्या करते जाते थे । विवाह के कुछ घण्टों बाद विद्योत्तमा को कालिदास के महामूर्ख होने की बात मालूम हुई । क्रोध एवं अपमान से तिलमिला रही विद्दोत्तमा ने उन्हें घर से निकाल दिया ।
घर से निकलकर स्वप्न दर्शन के अनुसार कालिदास ने मां काली की आराधना तन, मन, वचन से की । मां काली के आशीर्वाद से कालिदास प्रकाण्ड विद्वान् बन चुके थे । लौटने पर विद्योत्तमा ने उनसे पूछा-”उनकी वाणी में कुछ विशेषता आयी है ।” इस प्रश्न के उत्तर में कालिदास ने कुमारसम्भवम्, मेघदूत तथा रघुवंश की रचना कर डाली ।
वे विद्योत्तमा को गुरामाता कहकर पूजने लगे । विद्दोत्तमा ने खीझकर उन्हें यह शाप दे दिया कि तुम्हारी मृत्यु का कारण एक स्त्री ही होगी हुआ भी ऐसा था । कालिदास उज्जयिनी जाकर वेश्याओं की संगति में रहने लगे । एक बार एक वेश्या ने बताया कि राजा ने कविता के एक् चरण की पूर्ति के लिए बहुत बड़ा पुरस्कार रखा है पहला चरण था-कमले कमलोद्यति: भूयते न तू दृश्यते, अथर्पत् एक कमल पर दूसरे कमल की उत्पत्ति सुनी जाती है, पर देखी नहीं जाती ।
कालिदास ने इसकी पूर्ति करते हुए कहा: ”बाले ! तव मुखाम्भोजे कथमिदीवरद्वयम, अर्थात् ”हे बाले ! तुम्हारे मुख रूपी कमल पर ये दो नयन रूपी कमल कैसे उत्पन्न हो गये ।” पुरस्कार के लोभ में वेश्या ने कालिदास की हत्या कर दी ।
यह समाचार सुनकर उनके अभिन्न मित्र कुमारदास ने भी अपने प्राण त्याग दिये । जनश्रुतियों के अनुसार कालिदास विक्रमादित्य अथवा राजा भोज के नवरत्नों में से एक् थे । एक शिलालेख के अनुसार महाराज विक्रमादित्य के आश्रय में कार्तिक शुक्ला एकादशी रविवार के दिन 95 वर्ष की आयु में कवि कालिदास ने अपने प्राण त्यागे ।
कृतित्व:
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1. रघुवंश {महाकाव्य}
2. मेघदूतम् {खण्डकाव्य या गीतिकाव्य}
3. तुसंहारम् {त्वण्डकाव्य या गीतिकाव्य}
4. कुमारसम्भवम् {महाकाव्य}
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5. मालविकाग्निमित्रम् {नाटक}
6. विक्रमोर्वशीयम् {नाटक}
7. अभिज्ञान शाकुन्तलम् {नाटक}
रघुवंश महाकाव्य में कालिदास ने रघुवंशी राजाओं का वर्णन किया है । रघुवंश के 25 सर्गो में राजा दिलीप से कथा का प्रारम्भ होता है, जिसमें ‘राम’ तथा ‘सीता’ के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन है । ‘सीता’ द्वारा भूमि में समा जाने के बाद कुश के हाथों में शासन आ जाता है ।
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अन्तिम राजा अग्निवर्ण की मृत्यु के बाद शासन उनकी गर्भवती रानी के हाथ में आ जाता है । वर्णनों की सजीवता, प्रसंगों की स्वाभाविकता, शैली की मधुरता तथा भाव-भाषा की अनुरूपता में रघुवंश संस्कृत साहित्य में अनुपम है । कुमारसम्भवम् में शिव-पार्वती के विवाह और उनके पुत्र कार्त्तिकेय के तारकासुर वध की कथा 17 सर्गों में है । इस शृंगार प्रधान काव्य में कालिदास ने अनुपम सृष्टि की है ।
‘ऋतुसंहार’ प्रारम्मिक रचना है । अत: इसमें प्रौढ़ता का अभाव है । ‘मालविकाग्निमित्र’ में शुंगव शीप राजा अग्निमित्र तथा मालविका के प्रेम का अत्यन्त कमनीय वर्णन है । इसमें अन्तःपुर के षड्यन्त्र, रानियों की ईर्ष्या, राजाओं की विलासिता का चित्रण उदात्तता से हुआ है ।
विक्रमोर्वशीय में राजा पुरूरवा तथा उर्वशी की प्रेम-कथा का बड़ी मार्मिकता के साथ वर्णन किया गया है । राक्षस के चगुल से बचाते-बचाते पुरूरवा को उर्वशी से प्रेम हो जाता है । प्रेम में विरह का वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक बन पड़ा है । ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा महर्षि कण्व की पुत्री शकुन्तला के प्रेम, विरह, मिलन का दृश्य अत्यन्त भावपूर्ण है ।
इन सभी गन्धों में कालिदास का कथोपकथन प्रसंगानुकूल है । उनकी भाषा सरल, पात्रानुकूल एवं व्यंजनापूर्ण और वर्णन शैली अत्यन्त हृदयस्पर्शी है । मानवीय भावों का सूक्ष्म उद्घाटन अद्वितीय है । इसमें प्रकृति सौन्दर्य की हृदय स्पर्शी झांकी मिलती है ।
3.उपसंहार:
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निःसन्देह कालिदास ही संस्कृति साहित्य के ऐसे सर्वविख्यात कवि हैं । उन्होंने काव्य व नाट्य दोनों ही क्षेत्रों में अपनी अनुपम प्रतिभा का प्रदर्शन किया है । कालिदास की रचनाओं की काव्यशैली अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच गयी है; क्योंकि कालिदास की कविता में भावना का प्राधान्य है, अलंकरण का नहीं । कालिदास की कविता में काव्य-कला के साथ-साथ भाषा का उदत्त, आलंकारिक प्रभाव मिलता है । वह संस्कृत के ”शेक्सपियर” कहेलाते हैं ।
Poet # 2 महाकवि चब्दवरदाई । Poet Chandvardai
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन व कृतित्व ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
हिन्दी साहित्य में वीर काव्यों की परम्परा अत्यन्त दीर्घ एवं विस्तृत है तथा इस धारा का प्रवाह अक्षुण्ण है । इस परम्परा में कवि चन्दवरदाई का अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है । उनके द्वारा रचित ”पृथ्वीराज रासो” महाकाव्य वीरकाव्यों का मार्गदर्शक एव, प्रेरणास्त्रोत है । राजाओं के शौर्य-पराक्रम का वर्णन जितने प्रभावशाली व आकर्षक ढंग से कवि चन्दवरदाई ने किया है, वैसा किसी अन्य ने नहीं किया है ।
2. जीवन एवं कृतित्व:
महाकवि चन्दवरदाई के जीवनकाल के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है, तथापि कई इतिहासकार इनका जन्म संवत् 1206 में हुआ था, ऐसा मानते हैं । राजा पृथ्वीराज चौहान भी इसी दिन पैदा हुए थे । पृथ्वीराज और चन्दवरदाई की बचपन से ही एक् दूसरे से प्रगाढ़ मित्रता थी ।
महाकवि चन्दवरदाई जाति के ब्रह्मभाट थे । उनका जन्मस्थान लाहौर माना जाता है । महाकवि चन्दवरदाई और पृथ्वीराज साथ-साथ पढ़े-बड़े । युद्धकला कौशल का अभ्यास भी उन्होंने साथ-साथ ही किया था । यही कारण है कि पृथ्वीराज चौहान ने शासक बनते ही चन्दवरदाई को अपना सलाहकार, मन्त्री नियुक्त किया ।
ऐसा भी कहा जाता है कि दोनों की मृत्यु भी एक ही दिन, एक ही समय में, एक् ही स्थान पर हुई । तराईन के युद्ध में हार जाने के बाद जब मुहम्मद गोरी पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले गया, तब ”पृथ्वीराज रासो” की रचना कर अपने परिवार को सौंपकर वे उन्हें छुड़ाने चले गये ।
गजनी पहुंचकर उन्होंने बादशाह गोरी के पास पृथ्वीराज के शब्दबाण चलाने की कला की इतनी अधिक प्रशंसा की कि मुहम्मद गोरी इस कला को देखने अपने आसन पर विराजमान हो गया । अन्धे पृथ्वीराज ने चन्दवरदाई’ की कविता चार फुट चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ता पर विराजै मुहम्मद गोरी सुलतान, यह सुनते ही पृथ्वीराज ने शब्द-भेदी बाण चलाकर गोरी को मार डाला ।
हालांकि इतिहास में पृथ्वीराज व गोरी की मृत्यु रणक्षेत्र में बताई गयी है । मुहम्मद गोरी के मरते ही दरबारी दोनों को पकड़ना ही चाहते थे कि दोनों ने कटार भोंककर अपनी इहलीला समाप्त कर ली । महाकवि चन्दवरदाई कृत ”पृथ्वीराज रासो” वीरगाथाकाल की सर्वोकृष्ट रचना है । यह एक विशालकाय महाकाव्य है ।
इसमें कविवर चन्दवरदाई की अनुपम कवित्व शक्ति एवं अद्भुत प्रतिभा का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है । इसमें इतिहास, राजनीति, धर्म, ज्योतिष, साहित्य एवं काव्य शास्त्र, पुराण, दर्शन, व्याकरण, छन्द तन्त्र-मन्त्र, सिद्धि, युद्ध-कौशल का प्रभावोत्पादक वर्णन है । रस योजना की दृष्टि से इसमें शृंगार व वीर रस प्रमुख हैं ।
युद्ध वर्णन के साथ-साथ आखेट तथा प्रकृति वर्णन भी अनुपम है । इसकी भाषा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की साहित्यिक भाषा है । महाकाव्य रासों में 72 छन्दों का वर्णन किया गया है, जिसमें पद्धरि त्रोटक, भुजंगी, कुण्डलिया, भुजंग प्रपात है । अलंकारों में स्मरण प्रताप, रूपकातिशयोक्ति उपमा का प्रयोग है ।
3. उपसंहार:
यह सत्य है कि महाकवि चन्दवरदाई एक राष्ट्रभक्त कवि थे । पृथ्वीराज रासो के माध्यम से उन्होंने अपने काव्य सौष्ठव, कल्पनाशीलता का परिचय दिया है, वहीं हिन्दी भाषा के गौरव को भी प्रतिष्ठापित किया है ।
Poet # 3 कबीरदास । Poet Kabirdas
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत एव कृतित्व ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
कबीरदासजी का प्रादुर्भाव उस समय हुआ था, जब देश में राजनीतिक दृष्टि से चारों ओर अस्थिरता, अशान्ति और अव्यवस्था का आलम छाया हुआ था । कबीर के समय में हिन्दू और मुस्लिम दो बड़ी जातियां निवास करती थीं । इन दोनों में आचार-विचार, रीति-रिवाजों, सामाजिक धार्मिक मान्यताओं आदि के बारे में दृढ़ता और कट्टरता की भावना विद्यमान थी, जिसकी वजह से ये दोनों जातियां पारस्परिक द्वेष और वैमनस्य रखती थीं ।
दोनों ही धर्मो के ठेकेदार भोली-भाली जनता को भ्रमित कर रहे थे । समाज में कुप्रथाओं, कुरीतियों, मिथ्या आडम्बरों का बोलबाला था । ऐसे समय में एक ऐसे समाज सुधारक की आवश्यकता थी, जो दोनों धर्मो की बुराइयों को दूर कर उनमें एकता स्थापित कर सके । ऐसे समय में कबीरदासजी का प्रादुर्भाव हुआ ।
उन्होंने दोनों धर्मो की बुराइयों को जनता के सामने रखा । हिन्दू धर्म में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित थे । कोई निर्गुण, तो कोई सगुण, तो कोई वैष्णव, तो कोई शाक्त । कबीर ने दोनों धर्मो के आदर्शो का समन्वित रूप समाज के सामने रखा और उनका मार्ग प्रशस्त किया । हिन्दू-मुस्लिम में धार्मिक एकता कायम की ।
2. जीवन वृत एवं कृतित्व:
भक्तिकालीन निर्गुण काव्यधारा के कविकुल शिरोमणि एवं समाज सुधारक कवि कबीरदासजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार संवत् 1456 को हुआ था । कबीर के जन्म के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे एक् विधवा ब्राह्मणी की सन्तान थे जिसे लोक-लाज के भय से उनकी माता ने लहरतारा तालाब के किनारे रख छोड़ा था ।
उधर से गुजर रहे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उन्हें देखा, तो वे उन्हें घर ले आये । निःसन्तान जुलाहा दम्पति ने कबीर का पालन-पोषण किया । कालान्तर में कबीरदासजी ने जुलाहा व्यवसाय अपनाया ।
कबीरजी के विषय में यह भी कहा जाता है कि उनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ था, जिससे उन्हें कमाल और कमाली नामक दो सन्तानें हुईं । कबीरदास जीवन-भर काशी में ही रहे । संवत् 1575 को वे ईश्वर में विलीन हो
गये । कृतित्व-वैसे तो कबीरदासजी की वाणी का संग्रह ”बीजक” है, जो कि साखी, सबद, रमैनी का संग्रह है । यह भी कहा जाता है कि उन्होंने 6 लाख 84 हजार पदों की रचना की थी । कबीरजी ने अपनी साखियों में संसार के सत्य को लिखा है ।
उनके काव्य के भावपक्ष में निर्गुणोपासना का भाव मिलता है । कबीरदासजी निर्गुण परमात्मा के उपासक थे । उनके काव्य में वर्णित “राम” का तात्पर्य निर्गुण ब्रह्म से है । कबीरजी ने ईश्वर के नाम स्मरण पर विशेष बल दिया है । गुरा महिमा पर बल देते हुए उन्होंने ईश्वर की सत्ता महत्ता से गुरा को श्रेष्ठ बताया, जैसे-
गुरा गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाये । बलिहारी गुरा उनकी, गोविन्द दियो बताये । तथा सतगुरु की महिमा अनन्त-अनन्त किया उपगार । लोचन अनन्त अघाडिया-अनन्त दिखावण हार । । कबीर ने जाति-पांति तथा छुआछूत का विरोध करते हुए कहा-
जांति न पूछौ साधु की, पूछ लीजिये ग्यान । मोल करो तलवार की, पड़ी रहन दो म्यान । । अहिंसा पर बल देते हुए कहा- बकरी खाती पात है, ताकि काढ़त खाल । जे नर बकरी खात है, तिनकों कौन हवाल ? मन की शुद्धता पर बल देकर कहा-
न्हाये धोये क्या भया, जो मन मैल न जाये । मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाये । । बाहा आडम्बरों का विरोध करते हुए कबीरजी ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मो की बुराइयों को सामने रखा । जिसमें माला फेरना, केश मुंडाना, छाप तिलक लगवाना, समाधि लगाना, रोजा रखना, अजान देने को बाह्य आडम्बर निरूपित किया ।
मूण्ड मुड़ाये हरि मिले, तो मुंडू सौ बार । मन को काहे नहि छे, जामै विषय विकार । । माला फेरत जुग गया, गया न मनका फेर । करका मनका डालिये, मनका-मनका फेर । । दिन भर रोजा रखत है, रात हनत है गायं ।
यह खून कैसे बंदगी कैसे खुशी खुदायं । इस तरह अजान देने पर- कांकर पांथर जोडिके मस्जिद लई चुनाय ! ता चीड़ मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाये । धार्मिक समन्वयवाद पर बल देते हुए उन्होंने हिन्दू-मुसलमान को एक ईश्वर की सन्तान बताया । उनकी कविताओं में उनकी रहस्यवादी चेतना के अनुरूप माया-मोह का विरोध भी मिलता है ।
कबीर पढ़े: लिखे नहीं थे, उन्होंने स्वयं कहा है ! मसि कागद छुओ नहि, कलम गहि नहीं हाथ । । कबीर की वाणी उनके शिष्यों द्वारा संग्रहित है । कबीर की भाषा परिनिष्ठित नहीं है । उनकी भाषा में अरबी, फारसी, उर्दू राजस्थानी, बुंदेली, ब्रज तथा अवधी भाषाओं का मिश्रण है । इस खिचड़ी भाषा के कारण उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है । हजारीप्रसाद ने उन्हें “वाणी का डिक्टेटर” कहा है ।
कबीर ने अलंकार योजना के अन्तर्गत अनुप्रास, उपमा, रूपक, अन्योक्ति एवं दृष्टान्त अलंकारों का सहज प्रयोग किया है । छन्द योजना में कबीर ने दोहा, सबद. रमैनी का प्रयोग किया है । उन्होंने शान्त, शृंगार रस एवं तीनों शब्द शक्तियों का भी प्रयोग किया है ।
3. उपसंहार:
कबीरदास अपने युग के प्रवर्त्तक कवि थे । भक्तिकालीन, निर्गुण काव्यधारा के वे ज्ञानमार्गी कवि थे । कविता करना उनका साध्य नहीं था । उन्होंने समाज-सुधार की भावना से कविताएं लिखीं । जो कुछ लिखा, वह संसार का यथार्थ है । वे रहस्यवादी साधना के सिद्ध-साधक कवि थे । अपने गुरा रामानन्द के उपदेशों और सिद्धान्तों का प्रचार उन्होंने जीवन-भर किया । वे उनके सच्चे शिष्य थे ।
Poet # 4 महाकवि सूरदास । Poet Surdas
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत्त व रचनकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
सूरदास सगुण भक्तिधारा के कृष्ण भक्ति शाखा के कविकुल शिरोमणि हैं । वे हिन्दी साहित्य के कमनीय साहित्यकार हैं । उनके काव्य में वात्सल्य, शृंगार तथा शान्त रस की त्रिवेणी-सी बह रही है । वात्सल्य रस के तो वे सम्राट हैं । वात्सल्य रस का तो कोना-कोना झांक आये है ।
‘भ्रमरगीत’ में कृष्ण-गोपियों के बीच के प्रेम वर्णन में विरह-मिलन का जो मार्मिक एवं विशद चित्रण वाग्विदग्धता के साथ सूर ने किया है; वैसा हिन्दी का कोई कवि नहीं कर पाया है । आगे के कवियों की वात्सल्य तथा विरह- भरी उक्तियां सूर की जूठन जान पड़ती हैं । वह हिन्दी काव्याकाश के देदीप्यमान सूर्य हैं । कृष्ण के अनन्य भक्त हैं । संख्य भाव उनकी भक्ति का आधार है ।
2. जीवन वृत्त:
सूदासजी का जन्म संवत 1440 वि० आगरे से मथुरा जाने वाली सड़क के किनारे रूनकता नामक ग्राम में हुआ था । उनके पिता का नाम रामदास था । वे सरयूपारीण ब्राह्मण थे । कुछ विद्वान उन्हें चन्दवरदाई के वंशज मानते हैं और मानते हैं कि उनके सातों भाइयों की मृत्यु मुसलमानों से युद्ध करते हुई । सूरदास अपने भाइयों की खोज में निकले थे ।
मार्ग में कुएं में गिरने की वजह से उनकी दृष्टि जाती रही । कृष्ण की भक्ति एवं कृपा से उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी थी । उनके गुरु वल्लभाचार्य थे । सूरदासजी के अन्धत्व के विषय में बहुत-सी किवदन्तियां प्रचलित हैं । वे गऊघाट पर रहते थे । कृष्ण भक्ति के पद गाया करते थे । कृष्ण की जन्मभूमि से उन्हें विशेष मोह था ।
अपने गुरा वल्लभाचार्य की आइघ से उन्होंने कृष्णलीला का वर्णन किया । संवत् 1620 में पारसोली में उनका देहावसान हुआ । सूरदासजी जीवन-भर कृष्ण की लीलाओं का गायन करते रहे । उनके लिखे सवा लाख पद बताये जाते हैं, किन्तु 5 हजार पद ही प्राप्त हुए हैं । सूरदास की प्रामाणिक रचनाएं सूरसागर, सूरसारावाली, साहित्य लहरी, नलदमयन्ती, ब्याहलो है!
सूरदासजी वात्सल्य रस के सम्राट कवि माने जाते है । अत: उनके काव्य में वात्सल्य भाव की अत्यन्त सजीव, चित्ताकर्षक, मार्मिक, प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति हुई है । बाल मनोभाव की स्वाभाविक, कुतुहलगय, आल्हादकारी, हृदयग्राही, मनोवैज्ञानिक छवि और उनकी चेष्टाओं के जो चित्र सूर ने खींचे हैं, उसमें विविधता, रमणीयता, आकर्षण स्वाभाविकता है ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- “सूरदास तो वात्सल्य का कोना-कोना झांक आये हैं ।” बालक की वेशभूषा, उसकी क्रीड़ा, गोचारण पर जाना, रूठना, जिद करना, झूठ बोलना, चोरी करते हुए पकड़े जाने पर जैसे यह कहना- मैया मोरि मैं नहीं माखन खायो । ख्याल परै ये सब सखा मिली, मेरे मुख लपटायो । । मैं समुद्री यह घर मेरो हो, ता धोखो में आयो ।
देखत हौ, चीटि काढन गोरस में कर नायो । । मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो । मोसो कहत मोल को लीनो तोहि जसुमति कब जायो । । मैया कबहि बढ़ेगी चोटी, किती बार मोहि दूध पियावति यह अजहूं है छोटी । कभी बलराम भैया की शिकायत करते हुए, तो कभी दूध नहीं दही खाने की जिद पकड़े बालकृष्ण गोचारण के लिए जाने की जिद करते हैं, तो कभी न जाने हेतु मना कर देते हैं ।
कृष्ण की भक्ति करते हुए वे शान्त रस में अपना हृदय खोलकर रख देते हैं । सख्य-भाव की इस भक्ति में वे इतने भाव-विभोर एवं तन्मय हो जाते हैं कि लगता है भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् उनमें समा गये हों । कृष्ण के वियोग में गोपियों की आकुल-व्याकुल दशा का जितना मार्मिक, हृदयस्पर्शी, मनोवैज्ञानिक वर्णन सूर ने किया है, उतना किसी अन्य कवि ने नहीं किया ।
निर्गुण, निराकार ब्रह्म की उपासना पर बल देने वाले कृष्ण सखा उद्धव को गोपियां अपने वाकचातुर्य से ऐसे निरुत्तर कर देती हैं कि उद्धव उनके कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम को देखकर ठगे से रह जाते हैं और मथुरा चले जाते हैं । उधौ ! मन न भये दस बीस । एक हुतो सो गयो स्याम संग कौ आराध्यौं ईश । ।
आयौ घोष बड़ो व्यापारी । तथा सखि इन नैनन ते घन हारै निसदिन बरसत नैन हमारे, बरू ये बदरा आये, विलग जानि मानहूं उधौ । । आदि पदों के माध्यम से गोपियों की विरहानुभूति की तीव्रता तथा उनके प्रेम की एकनिष्ठता का वर्णन सूर ने अपने पदों में अत्यन्त सजीवता, मार्मिकता व मनोवैइघनिकता से किया है ।
सूरदासजी की भक्ति में कहीं कोई आडम्बर या प्रदर्शन नहीं है । जो कुछ है, वह हृदय की सच्ची पुकार है । प्रकृति निरूपण में वे सिद्धहस्त है । सूर की भाषा में ब्रजभाषा का माधुर्य है, जिसमें कोमलता और स्निग्धता है । अनुप्रास, उपमा, रूपक, उखेक्षा आदि का प्रयोग स्वभावत: हुआ है । शान्त, अंगार व वात्सल्य रस की अदभुत व्यंजना उनके काव्य में हुई है ।
3. उपसंहार:
सूरदास हिन्दी साहित्यकाश के सूर्य हैं । उनकी कविताओं का भावपक्ष, कलापक्ष अत्यन्त उदात्त है, प्रभावपूर्ण है । जन्मान्ध होकर भी बालवर्णन, विरह वर्णन, प्रकृति वर्णन में बेजोड़ कवि हैं । भाव और रस का सागर उनके पदों में संगीतात्मक माधुर्य ला देता है । निःसन्देह वे हिन्दी के श्रेष्ठ कवि हैं ।
Poet # 5 तुलसीदास । Poet Tulsidas
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
रामभक्ति शाखा के कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी हिन्दी साहित्याकाश के चन्द्र हैं । कहा गया है कि ”कविता करके तुलसी न लसै कविता लसी पा तुलसी की कला” । तुलसीदासजी काव्य प्रवीण, काव्य कला मर्मज्ञ, काव्य कला ज्ञाता थे ।
उनकी अद्भुत काव्य- कला ने भाव, रस, वणर्य विषय, भाषा, अलंकार, बिम्ब एवं उक्ति कौशल की दृष्टि से अपना अनूठा सौन्दर्य संसार को दिया था । “रामचरित मानस” जैसे अनुपम गन्ध की रचना करने वाले तुलसीदास जनता के हृदय पर अधिकार रखने वाले कवि थे ।
वे अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे, लोकनायक थे । उनकी समन्वयवादी भावना ने श्रेष्ठ कवि होने का गौरव दिया है । उनकी भक्ति, व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारी है ।
2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म:
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गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म श्रावण शुक्ला सप्तमी को संवत् 1554 को उत्तरप्रदेश के राजापुर के सौरो नाम के ग्राम में हुआ था । उनके बचपन का नाम रामबोला था । उनकी माता हुलसी एवं पिता आत्माराम दुबे थे । बचपन से उनके मुख में दांत थे ।
उनका जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था, जिसके कारण माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया था । नरहरिदास नाम के एक साधु ने उनका पालन-पोषण किया । उनकी ही प्रेरणा से ये रामभक्ति की ओर प्रेरित हुए । वेद-वेदान्त की शिक्षा ग्रहण कर तुलसीदास ज्ञान व शिक्षा से सम्पन्न होकर प्रेमधारा में बहने लगे ।
संवत् 1583 को उनका विवाह रत्नावली नाम की विदुषी कन्या से हो गया । कहा जाता है कि तुलसीदासजी रत्नावली से इतना अधिक प्रेम करते थे कि उसके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते थे । एक बार रत्नावली मायके चली गयी । तुलसीदास उसका वियोग सह न सके और वे उसके मायके जा पहुंचे ! रत्नावली ने इस पर उन्हें फटकार लगाते हुए कहा:
लाज न आवत आप को, दौरे आयर्हु साथ । धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ । । अरिथचर्ममय देह मम तामै ऐसी प्रीति । जो कहुं होती राम में, होति न तौ भव भीति । । तुलसीदास पर रत्नावली की बातों का ऐसा कुछ प्रभाव पड़ा कि वे घर- बार छोड्कर विरक्त हो गये ।
लगातार कई वर्षो तक तीर्थों का भ्रमण किया । जगन्नाथपुरी से लेकर रामेश्वर, बदरीनाथ और वृन्दावन तक वे घूमे । काशी, अयोध्या, चित्रकूट की यात्रा के बाद वे कविता की धारा में ऐसे बहे कि उन्होंने “रामचरित मानस” कवितावली, विनयपत्रिका आदि 12 पुस्तकें लिखीं ।
मीरा, रहीम से भी उनकी मुलाकात हुई थी । संवत् 1680 में काशी में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन वे स्वर्गलोक चले गये । उनकी अन्य रचनाओं में रामलला नहछू वैराग्य सांदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनयपत्रिका हैं ।
तुलसीदासजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे । उनकी भक्ति में अपने आराध्य के प्रति दैन्य का भाव मिलता है । उनकी एकनिष्ठ भक्ति-”एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास । एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास ।” तुलसीदासजी का रामभक्ति वाला मार्ग वेदशास्त्र सम्मत है; ज्ञान वैराग्य से युक्त है ।
तुलसीदास के राम अवतार रूप में लोकरक्षक है, शील शक्ति एवं सौन्दर्य से सम्पन्न मर्यादा पुराषोत्तम राम हैं । लौकिक रूप में वे एक् आदर्श राजा प्रजापालक, पितृवल्सल, आइघकारी पुत्र, श्रेष्ठ भ्राता, दीन-दुःखियों पर कृपा करने वाले कृपानिधान हैं । उनका नाम स्मरण करते ही सारे पाप छूट जाते हैं ।
तुलसी की भक्ति में नवधा भक्ति एवं शरणागति के छह रूप मिलते हैं । तुलसीदासजी के समय सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अराजकता विद्यमान थी । ऐसी स्थिति में तुलसीजी ने लोगों को भक्ति के माध्यम से लोककल्याण का मार्ग सुझाया । लोकनायक की दृष्टि से तुलसीदासजी ने धार्मिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक. सामाजिक, राजनैतिक आदि विषमताओं को दूर करने का प्रयास किया ।
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उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए राम को केवट का मित्र बनाया । वानरों से प्रेमपूर्वक भेंट करायी । वहीं शबरी द्वारा दिये गये जूठे बेर भी भगवान श्रीराम ने प्रेमपूर्वक खाये । जातिगत भेदभाव को दूर करके तुलसीदासजी ने मानवतावादी स्वर बुलन्द किया । धार्मिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए उन्होंने शैव व वैष्णव के भेद को दूर किया ।
निर्गुण एवं सगुण का समन्वय करते हुए तुलसीजी ने ज्ञान, कर्म व भक्ति का समन्वय किया । वहीं दार्शनिक विचारों में द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया । राम के लौकिक व अलौकिक अवतारों के साथ नर एवं नारायण का समन्वय किया । राजनैतिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए उन्होंने प्रजापालक, प्रजावत्सल राजा को आदर्श माना और कहा- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।
पारिवारिक क्षेत्र में तुलसीदासजी ने आदर्श भ्राता, पुत्र, पति के स्वरूप को दर्शाया । धर्म, दर्शन, राजनीति के समन्वय के साथ-साथ भाषा, भाव, छन्द, अलंकार योजना में भी तुलसीदासजी ने समन्वय का आदर्श स्थापित किया ।
तुलसीजी की भक्ति में दैन्य है, समर्पण का भाव है । उनकी भाषा ब्रजभाषा के साथ-साथ अवधी से भी सम्पन्न है । उनकी अलंकार योजना में अनुप्रास, रूपक, उत्पेक्षा का प्रयोग सहज है । छन्दों में दोहा, चौपायी का प्रयोग विशिष्ट है । शृंगार, शान्त, करुण रस के साथ-साथ सभी रसों का प्रयोग आवश्यकतानुसार हुआ है ।
8. उपसंहार:
तुलसीदासजी निःसन्देह हिन्दी के महान् कवि हैं । उनकी जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा शायद ही किसी कवि में हो । रामभक्ति को अपने जीवन की अमूल्य निधि मानने वाले तुलसीदासजी रामचरित मानस के माध्यम से युगों-युगों तक लोगों के हृदय का कण्ठहार बने रहेंगे ।