डोल यात्रा पर अनुच्छेद | Paragraph on Dola Yatra in Hindi
प्रस्तावना:
डोल यात्रा (बंगाल में जात्रा कहते हैं) हिन्दुओं का बड़ा पवित्र उत्सव है । यह उत्सव हर वर्ष वसन्त में श्रीकृष्ण और श्री राधिकाजी के सम्मान में मनाया जाता है । इस उत्सव में श्रीकृष्ण और राधिका की जोड़ी को सुसज्जित सिंहासन पर बैठाकर झूले पर झूलते हुए दिखाया जाता है ।
सिंहासन को बड़े सुन्दर ढंग से सजाया जाता है । झूले की रस्सियों रेशम की होती हैं । उन्हें भी रंग-बिरंगे कागज और फूलों से सजाया जाता है । यह उत्सव फाल्गुन मास की पूर्णिमा को प्रारम्भ होकर पाच दिन बाद वसन्त पचमी को समाप्त होता है ।
डोल यात्रा का प्रारम्भ:
इस त्यौहार के पीछे एक पौराणिक कथा है । कहा जाता है कि एक समय यही मेढासुर नाम का एक बडा अत्याचारी और शक्तिशाली राक्षस था । वह देखने में मेढ़ा (भेड़) जैसा लगता था, इसीलिए उसका मेढासुर नाम पड़ा । वह वृन्दावनवासियों को विशेष रूप में सताता था ।
उन लोगों ने भगवान् श्री कृष्ण से उस असुर के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया । श्रीकृष्ण ने उस असुर का संहार करके वृन्दावनवासियों की रक्षा की । लोगों ने श्रीकृष्ण जी के स्वागत में राधिका जी के साथ उनका जुलूस निकाला । तभी से इस दिन हर वर्ष श्रीकृष्ण-राधिका की जोड़ी को झूला झुलाते हुए जुलूस निकालते हैं ।
कहीं-कहीं इस उत्सव के दिन के पूर्व वाली रात को असुर का पुतला जला कर असुर सहार की याद करते हैं और अगले दिन श्रीकृष्ण-राधिका के प्रति आभा और प्रसन्नता व्यक्त करते हैं ।
वैष्णवों का त्यौहार:
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डोल यात्रा वैष्णव सम्प्रदाय के लोगों का अति पुनीत त्यौहार है । इस सम्प्रदाय के लोग विष्णु के पुजारी होते हैं । ब्रज-भूमि इनका गढ़ है । चूँकि यह श्रीकृष्ण के सम्मान में मनाया जाता है, जिन्हें विष्णु का पूर्णावतार मानते हैं इसलिए वैष्णव इसे बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं । पौराणिक कथा के अनुसार इसी क्षेत्र के निवासियों की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने मेढ़ासुर का वध किया था ।
हँसी-खुशी का त्यौहार:
डोल यात्रा का त्यौहार बड़ी इसरी-खुशी से मनाया जाता है । इस अवसर पर चारों ओर मौज मनाते लोग दिखाई देते हैं । वे खुशी से मस्त होकर एक-दूसरे को अबीर इसे फाग भी कहते है लगाते हैं । वे इसे होली के त्यौहार जैसा मनाते है । एक-दूसरे पर रंग डालते है । इत्र-फुलेल लगाते है और गले मिलते हैं । इस दिन विशेष रूप से वे लाल और पीले रंगो से ही होली खेलते है ।
पीतल की लम्बी-लम्बी पिचकारियाँ और रंग से भरी बाल्टी लिए लोग दूर रो एक-दूसरे को रंगने को प्रयास करते हैं । कहीं-कहीं वे अजनबी राहजनों के भी रंग देते है । रंग-बिरंगी शक्लें और बहुरंगी कपड़े देखकर अनायास हंसी आ जाती है । इस उत्सव में सभी को भाग लेना पडता है । रंग डालने में बड़े-छोटे या स्त्री-पुरुष तथा आपसी सम्बन्धो पर भी ध्यान नहीं दिया जाता । कोई एक-दूसरे का लिहाज नहीं करता ।
उत्सव में पूजा:
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भगवान् श्रीकृष्ण के मंदिरों मे यह उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है । मन्दिर को अधिकाधिक आकर्षक ढंग से सजाया जाता है । श्रीकृष्ण-राधिका के हिंडोले पड़ते हैं । बड़े समारोहपूर्वक श्रीकृष्ण का पूजन होता है । तरह-तरह पकवानों और तुलसी पत्र का भोजन कराया जाता है । पूजा के बाद प्रसाद का वितरण होता है । इसी प्रसाद को खाकर श्रद्धालुजन अपना उपवास तोडते है ।
उपसंहार:
घर में आए मेहमानों का अबीर से स्वागत किया जाता है । वे रंग से सराबोर होकर ही घर में घुस पाते हैं । घर मे उन्हे बड़े आदर से बैठाया जाता है और तरह-तरह की मिठाइयां और पकवान खिलाये जाते हैं ।