भूमंडलीय तापन और भारत पर निबंध | Essay on Global Warming and India in Hindi!

यदि फिल्में और प्रकाशित सामग्रियां किसी सार्वजनिक मुद्दे को गरमा सकती हैं, तो इसमें भूमंडलीय तापन (ग्लोबल वार्मिंग) को स्पष्ट रूप से सबसे आगे माना जा सकता है ।

पहले अल गोर की डॉक्यूमेंटरी ‘एन इनकन्विनिएंट ट्रूथ’ आयी, तत्पश्चात् इसी शीर्ष से एक पुस्तक प्रकाशित हुई । ग्रेट ब्रिटेन सरकार की स्टर्न रिपोर्ट सितम्बर, 2006 में जारी हुई, जलवायु परिवर्तन पर अंतर – सरकारी पैनल की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट फरवरी 2007 में आयी, और इसकी एक और रिपोर्ट 6 अप्रैल, 2007 को जारी हुई ।

फिल्म और रिपोर्ट से स्पष्ट रूप से संदेश मिलता है कि तापन से संचालित भविष्य सामने दिखाई दे रहा है और पिछले 150 वर्षों के दौरान तापन में जो 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गयी उसके 90 प्रतिशत के लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है ।

विद्युत उत्पादन, परिवहन और अन्य कार्यों के लिए कोयला और तेल के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड और धान के खेतों, बड़े जल भंडारों और मवेशियों के आंत्र किण्वन से मीथेन निकलने को तापन बढ़ाने के मुख्य कारकों के रूप में अभिज्ञात किया गया है ।

यदि यह कार्य इसी तरह जारी रहा तो इस शताब्दी में भूमंडलीय तापन में 3 से 5 डिग्री की वृद्धि हो सकती है । इसके परिणामस्वरूप समुद्र तल में वृद्धि होगी, जिससे विशाल तटीय भू-भाग जलप्लावित हो जायेगा । साथ ही, वर्षा भी अनियमित रूप से होगी, जल संकट पैदा हो जायेगा, फसलों की उपज कम होगी तथा मलेरिया जैसी बीमारियों की घटनाओं में वृद्धि होगी ।

यदि प्रत्याशित परिणाम इतने भयानक हैं तो हमें क्षति के लिए उत्तरदायी देशों (अर्थात् विकसित देशों) से आशा करनी चाहिए कि वे इनकी क्षतिपूर्ति के लिए समुचित तात्कालिकता और गंभीरता से कार्रवाई करेंगे । वस्तुत: उन्हें ऐसा जून 1992 से करना चाहिए था जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र ढांचा समझौता रिओ डी जेनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में पारित किया गया ।

समझौते से अनुबद्ध, क्योटो प्रोटोकॉल, दिसम्बर 1997 में तैयार किया गया, जिसमें इन देशों के लिए वैयक्तिक लक्ष्य तय किये गये कि वे ग्रीन हाउस गैसों के वार्षिक उत्सर्जन को प्रथम प्रतिबद्धता अवधि 2008-2012 में अपने 1990 के स्तर से कम से कम 5 प्रतिशत कम करें ।

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इस तरह पैंतीस औद्योगिक देश और यूरोपीय संघ के सदस्य इस अनिवार्य कटौती में शामिल किये गये । चीन, भारत और ब्राजील जैसे विकासशील देशों को अलग रखा गया, हालांकि ग्लोबल वार्मिंग कम करने हेतु कदम उठाने का उनका ‘साझा परंतु विभेदीकृत उत्तरदायित्व’ था ।

ग्रीन हाउस गैसों के स्राव या उत्सर्जन में कमी लाने हेतु जिन लोगों को लक्ष्य सौंपे गये उनके मूल्यांकन से स्थिति निराशाजनक लगती है और बात का कोई आश्वासन नहीं मिलता है कि वे आशा के अनुरूप खरे उतरेंगे ।

यूएनएफसीसीसी सचिवालय (31 अक्टूबर, 2006) के अनुसार लक्ष्य रखने वाले पक्षकारों के समग्र स्राव में 1990 से 2004 के दौरान केवल 3.3 प्रतिशत की कमी आयी । यह कटौती भी संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्थाओं (ईआईटी) नामत: पूर्वी और मध्य यूरोप के देशों जो पहले समाजवादी खेमे में थे 36.8 प्रतिशत की कमी के कारण संभव हुई ।

पूर्वी जर्मनी (जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य) के जर्मन संघीय गणराज्य के साथ पुन: एकीकरण के पश्चात् इसमें कार्बन डाईऑक्साइड उगलने वाले लिग्नाइट से प्रज्वलित बिजली घरों को बंद होते देखा गया । इसमें एकीकृत जर्मनी ग्रीन हाउस गैसों के स्राव में व्यापक गिरावट को दर्ज करने में समर्थ हुआ ।

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परतु संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्थाओं में 2000 से 2004 तक उल्टाव की प्रवृत्ति देखी गयी है । इस अवधि के दौरान उनके स्राव की मात्रा में 4.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई । उत्तरी सागर के गैस की पर्याप्त आपूर्ति के कारण क्योटो के दो वर्ष पूर्व 1970 के दशक से यूके में उल्लेखनीय कटौती देखी गयी ।

यूरोपीय संघ के संस्थापक 15 सदस्यों, जिन्हें 2008-2012 तक अपने सामूहिक स्राव मे 8 प्रतिशत की कटौती करनी है, ने 2004 तक 0.9 प्रतिशत की अल्प वृद्धि दर्ज की । इसके बावजूद, यूरोपीय संघ 2010 तक समग्र समुदाय के लिए लक्ष्य प्राप्त करने के बारे में आशावादी है । यह इस पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए कि सात सदस्य राज्यों-ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, डेनमार्क, आयरलैंड, इटली, पुर्तगाल और स्पेन ने लक्ष्य प्राप्त करने में अपनी असमर्थता जतायी है ।

यूरोपीय संघ के बाहर, कनाडा ने ग्रीन हाउस गैसों के स्राव को निर्धारित 6 प्रतिशत तक कम करने के अपने लक्ष्य को पूरा करने में अपनी असमर्थता को सार्वजानिक रूप से स्पष्ट किया है । कनाडा के स्राव में 1900 के स्तर से 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है । यह अपनी अल्वर्टा की तारकोल रेत से वाणिज्यिक रूप से तेल प्राप्त करने की संभावना को छोडने के प्रति अनिच्छुक है ।

ग्रीन हाउस गैसों के सबसे बड़े स्रावक संयुक्त राज्य अमेरिका की यूएनएफसीसीसी और क्योटो का पक्षकार बनने से इनकार करने की बात सब जानते हैं । ऑस्ट्रेलिया जिसके पास विशाल कोयला भंडार है जो इसके निर्यात की रीढ़ की हड्‌डी है, को इस बात की चिंता नहीं है । इसके जंगलों में लगी आग समझौता अथवा प्रोटोकॉल के प्रतिकूल है।

आक्रामक रूख में नरमी

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इस बात को महसूस करते हुए कि कहीं अमेरिका, चीन तथा भारत की विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं पर अनिवार्य कटौती लादे जाने पर क्योटो प्रोटोकॉल का अंत पिनपिनाहट में न हो, क्योटो के प्रमुख प्रतिपादकों ने अपना रूख नरम करना शुरू कर दिया है । इस संबंध में अत्यावश्यकता को इस तथ्य से बल मिलता है कि लम्बे और उष्णतर ग्रीष्म काल, अल्प बसंत ऋतु का जल्दी आगमन जैसे ग्लोबल वार्मिंग का प्रतिकूल प्रभाव यूरोप में दृष्टिगोचर है ।

प्रथम, जी-8 समूह ब्राजील, रूस, भारत, चीन और मेक्सिको को ग्लोबल वार्मिंग का उपशमन करने हेतु जी 8 + 5 द्वारा रणनीतियां तैयार करने हेतु अपनी शिखर बैठकों में आमंत्रित करता रहा है । दूसरे, जी 8 + 5 और अमेरिकी कांग्रेस के प्रतिनिधियों के बीच भावी जलवायु नीति पर चर्चा करने के लिए फरवरी 2007 में कैपिटल हिल पर बैठक हुई ।

न्यू सांइटिस्ट के अनुसार, वे वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड स्रावों को 379 भाग प्रति मिलियन के मौजूदा स्तर की तुलना में 450 और 520 भाग प्रति मिलियन के बीच किसी कड़े तक सीमित करने के लिए सहमत हुए ताकि ऐतिहासिक उत्तरदायित्व और विकासात्मक आवश्यकताओं के अनुसार स्राव या उत्सर्जन संबंधी लक्ष्य निर्धारित हो सके, यूरोपीय उत्सर्जन व्यापार स्कीम को विश्व में उभरते अन्य स्कीमों के साथ जोड़ते हुए एक कार्बन बाजार की स्थापना हो सके और शो एवं विकास ऊर्जा दक्षता तथा जलवायु परिवर्तन के अपरिहार्य प्रभावों से अनुकूलन स्थापित करने के साधनों पर फोकस किया जा सके ।

जुलाई 2008 में जापान में आयोजित जी-8 शिखर सम्मेलन में ऊर्जा व जलवायु सुरक्षा के मद्देनजर वैकल्पिक ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने तथा वर्ष 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन आधा करने पर सहमति व्यक्त की गई ।

भारत की भूमिका

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ग्रीन हाउस गैसों के निस्सरण (उत्सर्जन) को सीमित करने हेतु इसके पास कौन से विकल्प उपलब्ध है? क्या भारत को उपशमन उपाय करने चाहिए या अनुकूलन कार्यनीतियां अपनानी चाहिए अथवा दोनों साथ-साथ चलानी चाहिए? और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि कैसे यह ग्रीन हाउस गैसों में कटौती लाने के प्रतिकूल प्रभावों से भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की रक्षा करे, क्योंकि कटौती का परिणाम कम बिजली उत्पादन और खपत होगा? ग्लोबल वार्मिंग पर भारत सरकार द्वारा स्थापित की जाने वाली विशेषज्ञ सलाहकार समिति ऐसे प्रश्नों का सामना करेगी । ऐसी समिति स्थापित करने के प्रस्ताव की घोषणा सरकार द्वारा की गयी थी ।

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भारत के ग्रीन हाउस गैसों के निस्सरण पर आधारित सूचना 1990 के दशक के मध्य में चलाये गये एक अभियान के दौरान एकत्र की गयी ताकि निस्सरणों के स्त्रोत और उनकी मात्रा की एक सूची तैयार की जा सके और उसे यूएनएफसीसीसी के पक्षकारों के सम्मेलन में प्रस्तुत किया जा सके । भारत की मुख्यत: कोयला आधारित बिजली उद्योग, इसकी तेल प्रधान परिवहन प्रणाली, धान्य की खेती के तहत विशाल क्षेत्र और 440 मिलियन मवेशी इसके प्रधान स्रोत हैं ।

बिजली उत्पादन और इस तरह अर्थव्यवस्था पर ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाने के परिणामों का अनुमान दिसम्बर 2005 में योजना आयोग द्वारा जारी किये गये समेकित ऊर्जा नीति समिति की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है । रिपोर्ट में कहा गया कि 2031 तक 8 प्रतिशत का सतत् विकास प्रदान करने के लिए भारत से कम-से- कम अपनी प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति को वर्तमान खपत से तीन से चार गुना और बिजली आपूर्ति को पांच से सात गुना बढ़ाने की आवश्यकता होगी ।

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इस समय कोयला देश की 67 प्रतिशत से अधिक वाणिज्यिक ऊर्जा खपत और प्राय: इसके 60 प्रतिशत विद्युत उत्पादन में प्रयुक्त होता है । सभी स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के विकास का इष्टतम उपयोग करने के सर्वाधिक आशावादी परिदृश्य में भी कोयला 2031-32 तक 42 प्रतिशत ईंधन मिश्रण के रूप में कार्य करेगा । न्यूनतम आशावादी अनुमानों के तहत कोयला 65 प्रतिशत के लिए प्रयुक्त होगा । कार्बन डाइऑक्साइड का निस्सरण उस समय मौजूद ईंधन मिश्रण विकल्प के अनुसार वर्ष में 4.1 या 5.9 बिलियन टन तक हो जायेगा ।

तब क्या भारत प्रतिबद्धताएं स्वीकार कर सकता है? इसका जवाब स्पष्टत: ‘नहीं’ है । भारत ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को कम करने के हित में और अपनी ऊर्जा सुरक्षा के हित में जो कुछ कर सकता है वह ऊर्जा के आर्थिक मूल्य निर्धारण के आधार पर अपनी ऊर्जा पूर्ति और मांग का प्रबंध करना, फिजूल सब्सिडी को कम करना, ट्रांसमिशन और वितरण संबंधी हानि को कम करना, सड़क की अपेक्षा रेल द्वारा जन परिवहन और माल ढुलाई को बढ़ावा देना तथा भवनों में ऊर्जा संरक्षण तथा उद्योग एवं कृषि में ऊर्जा दक्षता का संवर्द्धन करना है ।

नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और परमाणु ऊर्जा (यूरोपीय संघ के कुछ सदस्यों द्वारा परमाणु ऊर्जा को कुछ हेय दृष्टि से देखा जाता है) के सशक्त संवर्द्धन से भारतीय ऊर्जा परिदृश्य में ताजगी आ सकती है । जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन स्थापित करना समान रूप से लाभप्रद लक्ष्य है और यह उपशमन की अपेक्षा अधिक सार्थक है । भारत को अपनी आवश्यकता के अनुसार कदम उठाना चाहिए, न कि दूसरे देशों के कहने में आना चाहिए ।

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