List of twenty five popular hindi essays for Students!
Hindi Essays for Stduents Contents:
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चलचित्र का शिक्षा में उमयोग पर निबन्ध | Essay on Cinema : A Blessing as well as a Curse in Hindi
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वर्तमान समय में दूरदर्शन की उपयोगिता पर निबन्ध | Essay on Utility of Television at the Present Time in Hindi
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सहशिक्षा का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Co-education in Hindi
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देशाटन से लाभ पर निबन्ध | Essay on Benefit of Travel in Hindi
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भारतवर्ष (अनेकता में एकता) पर निबन्ध | Essay on India : Unity in Diversity in Hindi
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वृक्षारोपण: एक आवश्यकता पर निबन्ध | Essay on Plantation : A Necessity in Hindi
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योगासन एवं व्यायाम से लाभ पर निबन्ध | Essay on Benefit from Yoga and Exercise in Hindi
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ADVERTISEMENTS:
भारत-पर्यटको के लिए स्वर्ग पर निबन्ध | Essay on India : A Heaven for the Tourist in Hindi
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दिल्ली के प्रमुख दर्शनीय स्थल पर निबन्ध | Essay on The main worth seeing places at Delhi in Hindi
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21वीं सदी का भारतवर्ष पर निबन्ध | Essay on India in the 21st Century in Hindi
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राष्ट्रीय-एकता पर निबन्ध | Essay on National Unity in Hindi
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महानगरों की अनगिनत समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Innumerable Problems of the Metropolis in Hindi
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ग्रामीण जीवन की समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Problems of Village Life in Hindi
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सामाजिक समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Social Problems in Hindi
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सूखे की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Drought in Hindi
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बाढ़ (जल-प्रलय): पकृति का क्रूर-परिहास पर निबन्ध | Essay on Flood : Cruel Joke of Nature in Hindi
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ADVERTISEMENTS:
भूकम्प: एक भयानक प्राकृतिक प्रकोप पर निबन्ध | Essay on Earthquake : A Natures Terrible Wrath in Hindi
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भिक्षावृत्ति: एक अभिशाप पर निबन्ध | Essay on Begging : A Curse in Hindi
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भ्रष्टाचार: एक सामाजिक रोग पर निबन्ध | Essay on Corruption : A Social Disease in Hindi
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काले धन की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Black Money in Hindi
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ADVERTISEMENTS:
बेरोजकारी की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Unemployment in Hindi
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प्रदूषण की समस्था पर निबन्ध | Essay on Problem of Pollution in Hindi
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आरक्षण-नीति पर निबन्ध | Essay on Reservation Policy in Hindi
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जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Increasing Population in Hindi
Hindi Nibandh (Essay) # 1
चलचित्र का शिक्षा में उमयोग पर निबन्ध | Essay on Cinema : A Blessing as well as a Curse in Hindi
प्रस्तावना:
ADVERTISEMENTS:
वर्तमान युग में चलचित्र विज्ञान का मुख्य आविष्कार है तथा मनोरंजन का सबसे सस्ता तथा सुगम साधन है । चलचित्र सभ्यता का महत्वपूर्ण अंग है एवं प्रत्येक व्यक्ति की चाह का मूर्त रूप है ।
विश्व के सभी देशों में वहाँ की प्रचलित सभ्यता एवं भाषा के आधार पर चलचित्रों का निर्माण होता है, जिनका लक्ष्य राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक होता है । भारतवर्ष में प्राय: सभी प्रचलित भाषाओं में चलचित्रों का निर्माण होता है, परन्तु हिन्दी भाषा के चलचित्र सबसे अधिक लोकप्रिय है ।
चलचित्रों का आविष्कार-सन् 1890 में अमेरिका के (एडीसन) नामक वैज्ञानिक ने समतल दीवार पर प्रकाश की किरणों से कुछ छायाचित्र प्रस्तुत कर चलचित्रों का आविष्कार किया था । धीरे-धीरे छायाचित्रों के माध्यम से मूक अभिनय को प्रस्तुत किया जाने लगा ।
ADVERTISEMENTS:
सन् 1913 में भारतवर्ष में पहली बार ‘हरिश्चन्द्र’ नामक मूक फिल्म बनी थी किन्तु इसमें गतिशीलता मनुष्य के समान होती थी । बोलते चलचित्रों का श्रीगणेश सन् 1928 मैं हुआ था तथा पहली फिल्म ‘आलमआरा’ थी जिसका निर्माण सन् 1931 में मुम्बई की ‘इम्पीरियल फिल्म कम्पनी’ ने किया था ।
शनै: शनै: इन चलचित्रों में कथा, विज्ञान, भूगोल आदि का भी समावेश कर लिया गया । अब तो चलचित्रों ने एक क्रान्ति पैदा कर दी है जिनमें रंग बिरंगे चित्र देखे व सुने जा सकते हैं ।
भारतवर्ष में चलचित्रों का विकास:
इस क्षेत्र में भारतवर्ष अमेरिका के पश्चात् दूसरे स्थान पर है । सवाक चलचित्रों ने प्रारम्भ मे अच्छे- गायकों, वादकों एवं नायकों को अपनी ओर आकृष्ट किया था । इससे इन कला के धनी व्यक्तियों को पहचान मिलने लगी तथा उनकी रोजी-रोटी भी चलने लगा ।
यह व्यवसाय धीरे-धीरे उन्नति की ओर अग्रसर हुआ । इम्पीरियल के पश्चात् कई बड़ी कम्पनियों जैसे न्यू थियेटर ‘रणजीत’ एवं ‘प्रकाश’ आदि भी इस व्यवसाय में आगे आए । निर्देशन के क्षेत्र में राजकपूर, डी शान्ताराम तथा अभिनेता चन्द्रमोहन ने अपना विशेष योगदान दिया ।
देश में जिस तीव्र गति से चलचित्रों का निर्माण हुआ, उसी तेज गति से सिनेमाघरों का भी निर्माण होने लगा । आज चलचित्र मनोरंजन का सबसे प्रमुख साधन है । भारतवर्ष के फिल्म निर्माता आज तीन प्रकार के द्यर्ला-डुत्रोँ का निर्माण करते है ।
पहला सामाजिक चलचित्र, जो समाज की तत्कालीन गतिविधियों पर आधारित होता है तथा जिनमें समाज में प्रचलित विचारधाराएं, अंधविश्वास, कुरीतियाँ आदि प्रस्तुत किए जाते है । दूसरे चलचित्र पारिवारिक परिपेक्ष्य के इर्द-गिर्द घूमते हैं ।
इनका व्यापक दृष्टिकोण पारिवारिक समस्याओं तथा आपसी रिश्तों का चित्रण करना होता है ! तीसरे प्रकार के चलचित्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये शैशिक चलचित्र कहलाते है, जिनका उघधार समाज मे जागरुकता लाना होता है ।
मानव जीवन में चलचित्रों का महत्त्व-चलचित्र शिक्षा एवं मनोरंजन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करने में सहायक है । देश की जिन सामाजिक प्रथाओं, कुरीतियों, अच्छा-ज्यों, बुराइयों, प्राचीन संस्कृतियों आदि के बारे मे हमने केवल पड़ा है या- किसी बुजुर्ग से सुना है; आज हम उनके बारे में देख सकते है ।
चलचित्र द्वारा इतिहास, भूगोल, समाज, विज्ञान, संस्कृति आदि का भी भरपूर ज्ञान प्राप्त होता है । आज के निर्माता-निर्देशक एरक कदम और आगे की सोचकर महत्वपूर्ण घटनाओं तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन-चरित्र आदि पर भी फिल्मे बना देते हैं ।
भारत-पाक युद्ध के दृश्य, राष्ट्रपति की विदेश यात्रा या फिर गाँधी जी, नेहरू जो के जीवन पर आधारित । फिल्में बन रही है, जिनसे हम उस समय की भी भरपूर जानकारी प्राप्त हो रही है, जब हम पैदा भी नहीं हुए थे या फिर हम उस समय तहाँ नहीं हे ।
आज हम अपनी दिन- भर की थकान के पश्चात् बड़ी सुगमता से काव्य, संगीत, चित्र तथा अभिनय जैसी उपयोगी कलाओं का चलचित्रों के माध्यम सम्पूर्ण ज्ञान भी प्राप्त कर रहे है तथा मनोरंजन भी कर रहे है । शिक्षा के क्षेत्र में तो चलाचित्रों का महत्त्व अभूतपूर्व है ।
प्रौढ़ शिक्षा तथा अल्पव्यस्क छात्रों की शिक्षा के लिए चलचित्रों का माध्यम अत्यन्त सराहनीय है । अनेक गूढ़ तथा जटिल विषयों को चलचित्र के माध्यम से विद्यार्थी सुगमता से समझ लेते है क्योंकि जो बात सुनकर या पढ़कर समझ में नहीं आती उसे अपनी आँखों से देखकर बड़ी आसानी से मसझा जा सकता है ।
बच्चों को जो विषय मुश्किल एवं नीरस लगते हैं, वही विषय चलचित्रों के माध्यम से आसानी से समझ में आ जाते हैं । प्रौढ़ पुरुषों पर कृषि के नवीन साधनों, नवीन उद्योगों एवं स्वास्थ्य रक्षा के सम्बन्ध में चलचित्रों द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाला जा सकता है ।
सेना-सम्बन्धी चित्रों को देखने से जहाँ नवयुवकों में देश सेवा का भाव जागृत होता है वही ‘एड्स’ जैसी खतरनाक बीमारियों के बारे में चित्र देखकर उनमें जागरुकता आती है साथ ही उन्हें उस बीमारी के विषय में भी पता चलता है । सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी इन चलचित्रों का कम महत्व नहीं है ।
बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बाल-श्रम, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों का जो अन्त हमारे समाज सुधारक अपने सहस्रों भाषणों द्वारा नहीं कर पाए वह कार्य चलचित्रों ने कर दिखाया है । कई चलचित्र दहेज-प्रथा का भद्दा पहलू चित्रित कर चुके हैं तो कई चलचित्र दहेज-प्रथा, बाल-विवाह आदि को समूल नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
मानव जीवन में चलचित्र की हानियाँ:
चलचित्रों के माध्यम से जहाँ समाज इतना लाभान्वित हो रहा है, वहीं इससे होने वाले हानियों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है । शिक्षाप्रद चलचित्र का निर्माण सस्ते मनोरंजन की तुलना में कम ही होता है । आज के निर्माता निर्देशक मजदूरों आदि को ध्यान में रखकर फिल्ममें बनाते हैं क्योंकि वे फिल्मके ही चलती हैं जिनमें कामोतेजक नृत्य तथा अश्लील दृश्य होते हैं ।
आज समाज में नए-नए फैशन का रोग फैल रहा है । युवा वर्ग भी उसी भद्दे फैशन का उनुसरण करता है, वह भी फिल्म के हीरों की भाँति अपनी मनपसन्द लड़की को हासिल करना चाहता है, रातोरात धनवान बनना चाहता है, सुख-सुविधाएँ चाहता है ।
वह यह भूल जाता है कि वास्तविकता तथा फिल्मों में जमीन-आसमान का अन्तर होता है । ये चलचित्र ही आज की युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहे हैं । चोरी, अपहरण, बलात्कार, हत्याओं के नए-नए तरीके जो फिल्मों में दिखाए जाते हैं, वही आज का युवा वर्ग वास्तविक जिन्दगी में अपना रहा है । वास्तव में आज जो अनुशासनहीनता तथा अपराधीकरण का वातावरण दिखाई पड़ रहा है, वह आधुनिक चलचित्रों की ही देन है ।
उपसंहार:
यदि फिल्म निर्माता केवल स्वार्थी न होकर जन-कल्याण के लिए शिक्षाप्रद फिल्में बनाए तो चलचित्रों से अच्छा मनोरंजन एवं शिक्षा का दूसरा कोई माध्यम नहीं है । हमारा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि हम अधिक फिल्मसे न देखकर कुछ चुनिन्दा तथा अच्छी एवं ज्ञानवर्धक फिल्में ही देखें, जिससे हमारा मनोरंजन भी होगा तथा ज्ञानवर्धन भी । यदि चलचित्रों की कुछ हानियों को नजरअन्दाज कर दिया जाए तो इसके लाभ ही लाभ हैं ।
Hindi Nibandh (Essay) # 2
वर्तमान समय में दूरदर्शन की उपयोगिता पर निबन्ध | Essay on Utility of Television at the Present Time in Hindi
प्रस्तावना:
दूरदर्शन विज्ञान के अद्भुत चमत्कारों में से एक है । यह वर्तमान युग की विकसित तकनीक का महान चमत्कार है । आज यह मनोरंजन का सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है । यह हमारी अनपढ़ जनता विशेषकर ग्रामीणों में जागृति लाने का सर्वोत्तम साधन है ।
स्वास्थ, स्वच्छता एवं परिवार नियोजन जैसे विषयों पर दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम अशिक्षित जनता के लिए विशेष सहयोगी है । दूरदर्शन का अर्थ-दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ हैं-दूर की वस्तुओं अथवा पदार्थो को उनके वास्तविक रूप में आखों द्वारा देखना ।
इसके द्वारा दूर के स्थानों से प्रसारित ध्वनि तस्वीरों सहित दर्शक वर्ग तक पहुँच जाती हैं । रेडियो ने द्वारा हम केवल सुन सकते है किन्तु दूरदर्शन के द्वारा तो हम बोलने वाले का चेहरा भी देख सकते हैं ! अत: दूरदर्शन में दृश्य एवं श्रव्य दोनों गुण होने के कारण यह सजासे प्रभावी माध्यम है ।
दूरदर्शन का जन्म-सन् 1926 इ. में इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉन.एल, वेगर्ड ने दूरदशन का आविष्कार किया था । सन् 1936 में. बी.बी.सी. लन्दन ने पहली बार दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रस्तुत किया था । भारतवर्ष में तो दूरदर्शन का शुभागमन अकबर 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों मूहूर्त करके हुआ था ।
पहले दूरदर्शन पर केवल काले-सफेद चित्र ही आते थे किन्तु सन् 1982 में एशियाड खेलों के दौरान रंगीन दूरदर्शन भी भारत में प्रसारित होने लगे । आज तो इसका बहुत विकास हो चुका है तथा दूरदर्शन केन्द्रों रिले एवं ट्रान्समिशन केन्द्रों का नेटवर्क बहुत विस्तृत हो चुका है, जिनकी सहायता से आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी दूरदर्शन पहुँच चुका है ।
दूरदर्शन की कार्य-पद्धति:
दूरदर्शन अथवा टेलीविजन की कार्य पद्धति रेडियो की कार्य-प्रणाली के ही समान है । टेलीविजन में जिस व्यक्ति या वस्तु का चित्र प्रेषित करना होता है, उसे एक कैमरे से प्रतिबिम्बित कर देते है । इसके बाद टेलीविजन कैमरे के बने चित्र को कई हजार बिन्दुओं में विभक्त कर देते हैं ।
तत्पश्चात् हर एक बिनु के प्रकाश एव अंधकार को तरंगों में परिवर्तित कर दिया जाता है । फिर चित्र से प्रकाश के स्थान पर विद्युत तरंगें पैदा होती हे । ये विद्युत तरंगे रेडियो तरंगों में परिवर्तित कर दी जाती है । दूरदर्शन का एरियल इन तरंगों को ग्रहण कर लेता है तथा यन्त्रों के माध्यम से उन तरंगों को विकृत तरंगे दूरदर्शन मे लगी नली में इलैक्ट्रान की धारा पैदा करती है तथा इसी नली का सामने वाला भाग दूरदर्शन के पर्दे का काम करता है ।
इस नली के सामने वाले भाग के पीछे की ओर एक ऐसा पदार्थ लगा रहता है जो इलैक्ट्रान से प्रभावित होकर चमक उठता है । इस प्रकार एन्टीना की मदद से इच्छित व्यक्ति या वस्तु का चित्र दूरदर्शन के पर्दे पर तुरन्त दिखाई देने लगता है ।
आधुनिक युग में दूरदर्शन का महत्त्व:
आज का युग टेलीविजन का युग है । रिटायर्ड बुजुर्गो, घरेलू महिलाओं, बच्चों, बड़ों सभी के लिए दूरदर्शन वरदान सिद्ध हो रहा है क्योंकि यह अपने अन्दर अनगिनत गुण समाए हुए है । इसकी उपयोगिता शिक्षा एवं मनोरंजन दोनों क्षेत्रों में बराबर है ।
दूरदर्शन से एक ओर तो विद्यार्थियों को उनके पाठ्यक्रम से सम्बन्धित शिक्षा दी जाती है तथा दूसरी ओर ग्रामीणों को खेती, पशुपालन सम्बन्धी जानकरियाँ तथा परिवार-नियोजन जैसी कुप्रथाओं एवं अंधविश्वासों से मुक्ति पाने की शिक्षा भी मिलती है ।
विकसित देशों में दूरदर्शन की सहायता से विद्यार्थियों को सर्जरी का ज्ञान भी दिया जाता है । दूरदर्शन पर छात्रों के पाठ्यक्रम से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर विद्वानों एवं अनुभवी प्राध्यापकों की वार्ताएँ भी प्रसारित की जाती हैं ।
इश प्रकार यदि किसी विद्यार्थी में सच्ची लगन है तो वह दूरदर्शन के माध्यम से आधुनिकतम ज्ञान अर्जित कर सकता है । शिक्षा के साथ-साथ दूरदर्शन मनोरंजन के क्षेत्र में सर्वोपरि है । यह हर आयु-वर्ग, जाति के लोगों का मनोरंजन करता हैं । जहाँ एक ओर महिलाओं के लिए नाटक, फिल्म, हास्य व्यंग्य आदि मजूत किया जाते हैं तो बच्चों के लिए तो कार्यक्रमों की भरमार है ।
युवाओं के लिए अनेक खेलों के मैचों जैसे क्रिकेट, फुटबॉल आदि का सीधा प्रसारण भी किया जाता है । बुजुर्गों के लिए धार्मिक कार्यक्रमों की भी दूरदर्शन पर कोई कमी नहीं है । इन सबके अतिरिक्त दूरदर्शन के माध्यम से त्योहारों, मौसमों, खेल-तमाशों, नाच-गानों, कला-संगीत, पर्यटन, धर्म, दर्शन, साहित्य, राजनीति आदि लोक-परलोक तथा ज्ञान-विज्ञान के रहस्य एक-एक करके खुलते जाते हैं ।
नेताओं की स्वदेश-विदेश यात्रा, शेयर बाजार, हत्या, लूटपाट, जुर्म, बलात्कार सभी की जानकारी दूरदर्शन पर तुरन्त मिल जाती है । इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता दिवस तथा गणतन्त्र दिवस का कार्यक्रम भी हम घर बैठे सीधे तौर पर देख सकते हैं । इस प्रकार दूरदर्शन समाचार पत्र, रेडियो तथा चलचित्र इन तीनों की विशेषताओं को अपने में समेटे हुए हैं ।
दूरदर्शन के कुप्रभाव:
आज भले ही हम अपनी सुख-सुविधा पूर्ति के कारण दूरदर्शन के आदी हो चुके हैं और हमें इसमें लाभ-ही-लाभ दिखाई पड़ते हैं, किन्तु इसकी हानियाँ भी कुछ कम नहीं हैं । दूरदर्शन के अधिक देखने से हमारी आखों की रोशनी क्षीण हो जाती है ।
इसके आकर्षक कार्यक्रमों के मोहजाल में फँसकर हम आलसी हो जाते हैं तथा अपने काम को भूलकर इन्हें देखने लगते हैं । इससे हमारे कीमती समय की बरबादी होती है साथ ही कार्य भी अधूरा रह जाता है । बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान होता है तथा वे टेलीविजन देखने के लालच में बाहरी खेल भी नहीं खेलते, जिससे उनका शारीरिक विकास रुक जाता है । कभी-कभी दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम अश्लील भी होते हैं जिनका बच्चों तथा युवाओं पर गलत प्रभाव पड़ता है ।
उपसंहार:
यदि हम अपने आप पर नियन्त्रण रखते हुए दूरदर्शन पर कुछ शिक्षाप्रद ही कार्यक्रम देखें तो इसमें कोई नुकसान नहीं है । आधुनिक युग में सुख-सृष्टि, शिक्षा तथा मनोरंजन का इससे सस्ता सरल उपाय कोई और नहीं है यह आम जनता में जागरुकता एवं चेतना लाता है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 3
सहशिक्षा का महत्त्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Co-education in Hindi
प्रस्तावना:
आज का युग विज्ञान तथा-तकनीक का युग है । आज स्त्री-पुरुष कन्धे से करधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं । अर्थात् कक्षाओं में खुक साथ बैठकर पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र में सन्तुलन आ चुका है । हमारे संविधान मे प्रत्येक स्त्री-पुरुष को आत्मविकास के समान अवसर प्रदान किए गए हैं, इसीलिए हमें सह-शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार करना है ।
सहशिक्षा का अर्थ:
सहशिक्षा का अर्थ है-साथ-साथ शिक्षा अर्थात बालक-बालिकाओं की एक साथ शिक्षा । पाठ्यक्रम, शिक्षक द्वरा कक्षा की त्रिवेणी में छात्र-छात्राओं को शिक्षा पाने के लिए एकत्रित होना ‘सहशिक्षा’ है । वैदिक काल से ही सहशिक्षाका प्रचलन चला आ रहा है ।
अनेक आश्रमों भी सहशिक्षा प्रचलित है । मध्यकाल में सहशिक्षा कम हो गाई तथा कुरूपों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा जबकि नारी को तो केवल, भोग्या बना दिया गया । अंग्रेजी शासन में पुन: सहशिक्षा का प्रारम्भ हुदुआ ।
महिला वर्ग में जागृति आई तथा उन्होंने भी पुरुषों के साथ कांसे से कन्या मिलाकर चलने रहा साहस किया । जैसे-जैसे धृता का विकास हुआ, शिक्षा के प्रसार बढ़ता गया तथा सहशिक्षा टेने हेतु अनेक स्कूल-काँलेज खोले गए । शनै: शनै: सहशिक्षा दी । व्यवस्था प्राय: तथा कलेज में जाने लगी है ।
सहशिक्षा के पक्ष में विचार:
सहशिक्षा का प्रचलन तौ कण्व ऋषि तथा बाल्मीकी ऋषियों के समय रहा है । उनके श्रमों से सहशिक्षा दी जाती र्थो । सहशिक्षा के फायर इसके अनेक गुण बताते हैं । सर्वप्रथम सहशिक्षा से धन का अपव्यय रोका जा सकता है ।
जिन विषयों मे छात्र-छात्राओं की संख्या कम होती है, उनके लिए भी लड़कों, लड़कियों की व्यवस्था करने मे देश की अर्थव्यवस्था कमजोर होती खैभ, जबकि सहशिक्षा के तहत एक ही विद्यालय से काम चल जाता है तथा बल हुआ पैसा फौन्त्रा विकास कया में लगाया जा सकता है ।
विद्यार्थी काल में बिभिन्न प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है । इससे आगे जाकर उनमें आत्मविश्वास तथा मनोबल बढ़ता है । सहशिक्षा में लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे से अपने विचारों के आदान-प्रदान करते हैं, जिससे उनका मार्ग सुगम हो जाता है ।
सहशिक्षा के अभाव में छात्र-छात्राएँ दोनों ही संकोची रह जाते हैं और जब आगे जाकर कार्यालयों या अन्य विभागों में उन्हें साथ-साथ काम करना पड़ता है तो संकोच बने रहने का कारण कुछ समय तक दोनों को, विशेषकर लड़कियों को तो अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।
सहशिक्षा से जहाँ एक ओर लड़कियों में नारी सुलभ लज्जा, झिझक, पर पुरुष से भय, अबलापन, बेहद कोमलता, हीन-भावना जैसी भावनाएँ कुछ हद तक दूर हो जाती हैं वही लड़के भी लड़कियों की उपस्थिति में उचित व सभ्य व्यवहार करना सीख जाते हैं ।
लड़कियाँ भी लडुकों की उपस्थिति में सौम्य तथा शान्त रहना सीख जाती हैं तथा उनमें व्यवहार-कुशलता, वीरता तथा साहस आदि गुणों का विकास होता है । सहशिक्षा के अन्तर्गत लड़के-लड़कियों में प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होती है और वे एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ करते हैं । यही स्वच्छ प्रतिस्पर्धा उनके अध्ययन, चिन्तन तथा मनन को बलवती बनाती है ।
विरोधी दृष्टिकोण:
जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, फूल के साथ काँटे भी होते हैं, सुख तथा दुख साथ-साथ चलते हैं उसी प्रकार सहशिक्षा के विपक्ष में भी अनेक मत हैं । भारतीय शास्त्रों का विधान है कि लड़के तथा लड़कियों की पाठशालाओं में पर्याप्त अन्तर होना चाहिए तथा वे अलग-अलंग दिशाओं में होने चाहिए ।
सहशिक्षा पूर्ण रूप से भारतीय वातावरण के प्रतिकूल है इसका भारतीय इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है । सभी महापुरुषों ने इसका कठोर विरोध किया है । ‘मनुस्मृति’ के अनुसार लड़के-लड़कियों की शिक्षा अलग-अलग होनी चाहिए । महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ में सहशिक्षा का विरोध किया है ।
इससे विरोधी पक्ष वालो का मत है कि लड़के-लड़कियों का जीवन एकदम भिन्न होता है । लड़को को आगे जाकर आजीविका कमानी पड़ती है इसीलिए उनकी शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए जबकि लड़कियों को तो विवाह के बाद घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी निभानी होती है इसलिए उन्हें बस इतना शान प्रपि करना चाहिए कि वे अपना तथा परिवार का ध्यान रख सके आज के आधुनिक वातावरण के सहपाठी भाई बहिन या मित्र की भावना में न रहकर प्रेमी-प्रेमिका की भावना से ग्रस्त रहते हैं ।
आजकल तो स्कूली सहशिक्षा के समय से ही लड़के-लड़कियों में आकर्षण पैदा हो जाता है और ऐसा होने पर दोनों ही अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं । यह स्थिति न तो अध्ययन, न जीवन विकास की ओर, अपितु चरित्र पतन, विनाश की ओर अग्रसर करती है ।
इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम में कभी-कभी कुछ प्रसंग अश्लील भी आ जाते हैं जो नैतिकता के विपरीत होते हैं । ऐसे प्रसंगों को शिक्षक भी ठीक प्रकार से नहीं समझा पाते हैं तथा उस विषय में छात्र-छात्राओं का ज्ञान अधूरा रह जाता है अर्थात् सहशिक्षा ज्ञानवर्धन में बाधक है ।
विरोधी पक्ष वाले व्यक्तियों को सहशिक्षा में केवल हानियाँ ही नजर आती है । उनके अनुसार सहशिक्षा चारित्रिक पतन का कारण है । आज जितने भी बलात्कार तथा हत्याएँ हो रही हैं उनका आधार भी सहशिक्षा ही है । आज का युवक बहुत कम उम्र से ही लड़कियों की ओर आकर्षित हो जाता है तथा शारीरिक सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
यदि लड़कियाँ उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं तो या तो वे जबरदस्ती बलात्कार करते हैं या फिर लड़की की हत्या कर देते हैं । दूसरी और लड़कियाँ भी लड़कों को आकर्षित करने के लिए भड़काऊँ कपड़े पहनती हैं तथा लड़कों को भ्रष्ट करती हैं । महात्मा ‘कबीर’ ने तो नारी की तुलना ‘सर्पिणी’ एवं ‘आग’ से की है ।
उपसंहार:
सहशिक्षा का विरोध होते हुए भी आज के भौतिकवादी युग में अनेक कारणों से सहशिक्षा वरदान सिद्ध हो रही है । आज लड़के-लड़की प्रेम विवाह तथा अन्तर्राजातीय विवाह कर रहे हैं, उनमें जागरुकता आ रही है, जिससे दहेज की समस्या कुछ हद तक समाप्त हो रही है ।
आज का पुरुष नारी का सम्मान करने लगा है और नारी भी आज की बढ़ती महँगाई में परिवार का आर्थिक सहारा बन रही है । इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना पैदा हो रही है । निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ कमियों को यदि नजरअन्दाज कर दिया जाए तो सहशिक्षा के लाभ ही लाभ हैं । इसी के कारण आज हमारा देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 4
देशाटन से लाभ पर निबन्ध | Essay on Benefit of Travel in Hindi
प्रस्तावना:
गतिशील जीवन ही वास्तविक जीवन हैं, जबकि एरक स्थान पर ठहरा हुआ मानव पत्थर के समान रहता है । जहाँ तालाब का रुका हुआ पानी सड़न पैदा करता है, वही लगातार बहती रहने वाली नदियों का जल पीने योग्य होता है । गतिशीलता जीवन है तो गतिहीनता साक्षात् मृत्यु ।
प्रत्येक मनुष्य को अपने सर्वांगीण विकास के लिए उनुक्त, स्वछन्द, बन्धन रहित जीवन जीना चाहिए । नई-नई वस्तुओं, स्थानों, इमारतों इस देखने से मनुष्य के मन में जिज्ञासाएं पैदा होती हैं, जिन्हें शान्त करने के लिए उसका एक जगह से बाहर निकलना आवश्यक है । मानव की ‘कौतुहल’ एवं ‘जिज्ञासा’ नामक मनोवृत्तियों का परिणाम ही देशाटन है ।
देशाटन का अर्थ:
प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक विभिन्नताओं तथा विशेषताओं से परिपूर्ण अपने देश तथा विदेश के भिन्न-भिन्न भागों एवं प्रान्तों का भ्रमण करके वहाँ के रहन-सहन, रंग-रूप, रीति-रीवाजों, भोजन, परम्पराओं, संस्कृतियों आदि के दर्शन करना एवं उनके बारे में जानना देशाटन कहलाता है । दूसरे शब्दों में देशाटन से तात्पर्य देश-विदेश का भ्रमण कर मनोरंजन एर्द ज्ञान अर्जित करना है ।
देशाटन से पूर्व की जाने वाली तैयारियाँ:
देशाटन से पूर्दी हमे उस स्थान के मौसम, खान-पान, रहने की व्यवस्था आदि के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए, जिस स्थान पर हमे जाना है । इसके लिए पुस्तकों, इन्टरनैट या किसी व्यक्ति विशेष द्वारा भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।
हमें उस स्थान के दर्शनीय ऐतिहासिक स्मारकों, नाका आदि का भी विशेष ज्ञान होना चाहिए । वहाँ की जलवायु का ज्ञान पार करके उसी के अनुसार वस्त्रों तथा भोजन आदि की भी उचित व्यवस्था करनी चाहिए जिससे वहीं पहुँचकर किसी प्रकार की असुविधा न हो ।
इसके अतिरिक्त देशाटन से पूर्व अपनै साथ अपने सगे-सम्बन्धियों के फोन-नम्बर तथा जरूरी दवाईयाँ इत्यादि ले जाना भी जरूरी है । देशाटन से लाभ-देशाटन हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है चाहे वह बालक, युवा अथवा ड़ुद्ध हो । देशाटन से आनन्द के साथ-साथ अनुभव व ज्ञान भी प्राप्त होता है ।
देशाटन करने से मनुष्य को विभिन्न स्थानों को देखने व समझने का सुअवसर प्राप्त होता है । देशाटन से मनोरंजन तथा स्वास्थ्य लाभ के साथ-साथ आन्तरिक जिज्ञासात्मक वृत्तियाँ भी शान्त होती है । एक स्थान पर रहते-रहते जब इन्सान का मन नीरसता महसूस करने लगता है, तब उसके हृदय में नई-नई वस्तुओं को देखने तथा नए स्थानों पर जाकर नए-नए लोगों से मिलने की इच्छा जागृत होती है ।
पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाला व्यक्ति मैदानी नगरों में तथा मैदानी इलाकों में रहने वाला मानव मनोरम पहाड़ी इलाकों की प्राकृतिक सुन्दरता को निहारने निकल पड़ता है । हर व्यक्ति की अपनी अलग-अलग रुचियाँ होती हैं । किसी को प्राकृतिक सौन्दर्य भाता है, तो किसी को समुद्री तट ।
किसी को ऐतिहासिक स्मारकों का इतिहास जानने में रुचि होती है तो कोई ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों में शान्ति ढूँढता है । परन्तु हर प्रकार के देशाटन से लाभ अवश्य ही होते हैं । देशाटन करने वाला मनुष्य प्रकृति के विभिन्न एवं विविध स्वरूपों का सहज ही साक्षात्कार कर लेता है ।
प्रकृति ने कही तो हरी-भरी तथा बर्फानी पर्वतमालाओं से धरती को ढक रखा है तो कहीं एकदम रुखी-सूखी गर्म तथा नग्न पर्वतमालाएँ हैं, जहाँ स्वयं पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि स्वयं भी छाया के लिए तरस रहे हैं । कहीं इन्द्र देवता इतने मेहरबान रहते हैं कि लगातार वर्षा होती रहती है, तो कहीं धरती एक-एक बूँद के लिए भी तरस रही है ।
कहीं सदा बसन्त गुलजार रहता है तो कहीं सर्दी का प्रकोप मनुष्य को बेचैन किए रहता है । देशाटन से मनुष्य शिक्षा सम्बन्धी ज्ञान भी प्राप्त करता है । देशाटन करने वाला मनुष्य उस स्थान के रीति-रिवाजों, वेशभूषा, उत्सव, खान-पान, भाषा आदि के बारे में जान पाता है ।
हम जिन धार्मिक, ऐतिहासिक तथा पर्वतीय स्थानों के बारे में केवल पाठ्य पुस्तकों में ही पड़ पाते हैं या फिल्मों में हीरो-हीरोइनों को उनका आनन्द लेते हुए देख पाते हैं, देशाटन करने पर हम प्रत्यक्ष रूप से देख लेते हैं तब हमारा ज्ञान और भी अधिक सुदृढ़ हो जाता हैं ।
देशाटन से एक लाभ यह भी है कि इससे कुछ समय के लिए वायुमंडल एवं वातावरण के बदल जाने से मन तथा मस्तिष्क दोनों में नवीनता आ जाती है । देशाटन से मनुष्य का चारित्रिक विकास भी होता है । मनुष्य विभिन्न स्थानों को घूमकर अधिक सहनशील, धैर्यवान तथा दूसरों को सोचने-समझने के मामले में परिपक्व हो जाता है ।
देशाटन से मनुष्य में आत्मनिर्भरता भी आती है, क्योंकि बाहर निकलकर उसे अपना कार्य स्वयं करना पड़ता है । मनुष्य स्वातलम्बी हो जाता है तथा उसमें व्यवहार-कुशलता भी आती है । अत: विद्यार्थियों को स्कूल की ओर से जाने वाली यात्राओं में अवश्य भाग लेना चाहिए या फिर लम्बे अमाल के समय का सदुपयोग देशाटन द्वारा करना चाहिए ।
निष्कर्ष:
आज विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की है । प्राचीनकाल में देशाटन का कार्य बहुत कठिन था । पहले यातायात की इतनी सुविधाएँ नहीं थी । देशाटन प्रेमी व्यक्ति समूहों में पैदल ही या बैलगाड़ी आदि द्वारा धार्मिक या ऐतिहासिक यात्राओं पर निकल पड़ते थे ।
मार्ग में उन्हें अनेक बाधाओं जैसे मौसम की मार या फिर चोर-डकैतों आदि का भी डर लगा रहता था । मैगस्थनीज, होनसांग, इब्नबइता, फाह्यान आदि विदेशी अपनी देशाटन जिज्ञासा के कारण ही कठिन यात्राएँ कर देश-विदेश घूम पाए थे ।
परन्तु अब तो हमारे पास यातायात के साधनों की कोई कमी है और न ही मौसम की इतनी मार झेलनी पड़ती है, क्योंकि आज हर छोटी-बड़ी जगह पर भी रहने की पूरी व्यवस्था सुगमता से हो जाती है । ऐसे में जो व्यक्ति देशाटन नहीं करता, वह कुएँ के मेढक की भाँति तुच्छ बुद्धिवाला बना रहता है ।
आज तो यातायात के तेज साधनों जैसे वायुयान, समुद्री जहाज आदि ने महीनों की यात्राओं को घण्टों में समेट दिया हैं इसलिए हमें दृढ़ निश्चय करके कभी-कभी देशाटन के लिए अवश्य निकल पड़ना चाहिए ।
Hindi Nibandh (Essay) # 5
भारतवर्ष (अनेकता में एकता) पर निबन्ध | Essay on India : Unity in Diversity in Hindi
प्रस्तावना:
‘एकता’ का अर्थ है ‘एक होने का भाव’ । भारत एक विविधतापूर्ण देश है । धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आर्थिक तथा भौगोलिक आदि विविध दृष्टियों से भारत में भी अनेकता दृष्टिगोचर होती है ।
यहाँ कुछ प्रदेश ध्रुव प्रदेश के समान ठण्डे हैं तो कुछ प्रदेश अफ्रीकी रेगिस्तानों जैसे गर्म एब शुष्क है, कहीं वर्षा की अधिकता है तो कहीं लोग वर्षा की बूँद-बूँद को भी तरस जाते हैं । कहीं आकाश छूते पहाड़ हैं, तो कहीं समतल मैदान, कहीं रेगिस्तान हैं, तो कहीं हरी-भरी उपजाऊ भूमि ।
यहाँ विविध धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों एवं धार्मिक आस्थाओं के लोग रहते हैं, अनगिनत भाषाएँ बोली जाती हैं, हर प्रदेश का अपना-विशिष्ट भोजन है, रहन-सहन है, रीति-रिवाज है, किन्तु बाह्य रूप से दिखलाई देने वाली इस अनेकता के मूल में एकता ही निहित है ।
भारतवर्ष:
एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र-भारत विश्व का सबसे महत्त्वपूर्ण धर्मनिरपेक्ष प्रजातान्त्रिक राष्ट्र है । हमारे देश में अनेक राज्य हैं तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक इसका विस्तृत भूभाग है । हम यह कह सकते हैं कि राष्ट्र रूपी शरीर के विभिन्न अंग हमारे अलग-अलग प्रदेश हैं तथा शरीर को पूर्णरूपेण स्वस्थ रखने के लिए सभी अंगों का स्वस्थ तथा सुदृढ़ होना आवश्यक है ।
हमारे राष्ट्र का एक संविधान, राष्ट्रीयचिन्ह, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रपशु, राष्ट्रपक्षी, राष्ट्रफूल, राष्ट्रीयगान, एक लोकसभा, राष्ट्रपति, ये सभी हमारे भारतवर्ष को एक महान राष्ट्र साबित करते है । हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने भी एक होकर देश को आजाद कराया था, तब किसी ने भी अपने अलग राज्य के बारे में नहीं सोचा था ।
भारतवर्ष में अनेकता में एकता:
वैसे तो हमारे देश में भाषा, भोजन, वस्त्र, धर्म सभी रूपों में विविधता है किन्तु जब हम भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमें यह पता चलता है कि सभी के मूलभूत सिद्धान्त एक ही है, आस्तिक्ता, मुक्ति कामना, दया, क्षमा, सत्याचरण, अहिंसा आदि । सद्भावना आदि गुण सभी धर्मों के एक समान ही हैं ।
राजनीतिक क्षेत्र में विविधताएँ होते हुए भी सभी का अन्तिम लक्ष्य आम जनता का कल्याण करना ही है । सामाजिक दृष्टि से सहसार्थक जातियों तथा उपजातियों वाले इस देश में पर्वों व मेलों में सभी लोग परस्पर मिलते हैं तथा एक दूसरे को बधाई देते हैं ।
आर्थिक विचारों की भिन्नता होते हुए भी सभी भौतिक समृद्धि ही चाहते हैं । सांस्कृतिक दृष्टि से यहाँ जो भी आन्दोलन प्रारम्भ हुए, उनका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा है । इसी कारण प्राचीनकाल से ही भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्यों में भावों की समानता निरन्तर बनी रही है ।
उत्तर व दक्षिण भारत में एक जैसे मन्दिर है । यहाँ के लोगों की पूजा पद्धति, तीर्थ, व्रत आदि में विश्वास भी एक जैसे ही है । आधुनिक युग में पुनर्जागरण, राष्ट्रीय आन्दोलन, समाज-सुधार आदि का भी प्रभाव अखिल भारतीय रहा है । तभी तो हम ‘अनेक’ नहीं ‘एक’ है तथा ऊपर से ‘अनेक’ दिखाई देने वाले भारतवर्ष में ‘एकता’ की अन्तर्धारा निरन्तर बह रही है ।
तभी तो तुलसी के ‘रामचरितमानस’ से पूरा देश प्रभावित है बंगला के ‘बन्देमातरम्’ तथा ‘जन-गण-मन’ क्षेत्रीय न होकर ‘राष्ट्रीय गीत’ हैं । देश की एकता पर मँडराती समस्याएँ-किसी भी राष्ट्र की सार्वभौमिकता, अखण्डता एवं समृद्धि के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि देश राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत हो ।
आज हमारे देश में अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा कर रही है जैसे-साम्प्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्रवाद तथा धर्मवाद । आज जब विश्व के दूसरे विकसित देश एकता के बल पर आगे बढ़ रहे हैं वही हमारे भारतवर्ष के लोग अपने क्षेत्रीय धर्म को अच्छा व ऊँचा दर्शाने के लिए आपस में ही लड़ रहे हैं, कोई अपनी भाषा को श्रेष्ठ बताकर दूसरे भाषी व्यक्ति से लड़ रहा है, तो कोई अपनी जाति की सर्वोच्चता का डंका बजाकर प्रसन्न हो रहा है ।
इस बात का ज्वलन्त उदाहरण मुम्बई में ‘राज ठाकरे’ द्वारा फैलाई गई साम्प्रदायिकता की आग है जो मुम्बई को केवल महाराष्ट्रियों को जागीर समझ रहे हैं तथा अन्य प्रान्त के लोगों को मराठी भाषा बोलने पर विवश कर रहे हैं । आज साम्प्रदायिकता का विष पूरे देश में फैल रहा है ।
इन साम्प्रदायिक लोगों की दृष्टि में देश का हित कोई मायने नहीं रखता है । 1988 में मेरठ तथा अहमदाबाद के दंगे इस बात के प्रमाण है । देश की अखण्डता तथा एकता के लिए एक बड़ा खतरा कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञ तथा कुछ पड़ोसी देश भी है, जो भारत का उत्थान नहीं देख पा रहे हैं, इसलिए अनजान तथा अनभिज्ञ मासूमों को बहकाकर कभी धर्म, कभी जाति, तो कभी भाषा के नाम पर भड़का रहे हैं । इसीलिए तो गोरखालैंड, नागालैंड तथा खालिस्तान जैसी समस्याएँ देश के विकास की राह में सबसे बड़ी बाधाएँ बनी हुई हैं ।
राष्ट्रीय एकता के उपाय:
आज हमारे देश को राष्ट्रीय एकता की बहुत आवश्यकता है । इसके लिए सभी भारतीयों को सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए तथा विशेषकर पिछड़े तथा दलित वर्गों के उत्थान के लिए पूरी कोशिश की जानी चाहिए ।
साम्प्रदायिक तथा पृथक्तावादी तत्त्वों का पूरी हिम्मत से सामना करना चौहिए । प्रत्येक भारतीय को अपनी राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकार को सहयोग देना चाहिए तभी हमारा देश महान गौरवशाली राष्ट्र का सम्मान प्राप्त कर सकता है ।
उपसंहार:
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष के सर्वांगीण विकास के लिए राष्ट्रीय एकता का सुदृढ़ होना परमावश्यक है । विदेशी शक्तियों जैसे आतंकवाद का मुकाबला करने, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में विकास के लिए राष्ट्रीय एकता आवश्यक है क्योंकि यदि हम आपस में ही लड़ते रहेंगे तो कभी भी विकास नहीं कर पाएंगे । किसी ने सही कहा है:
“United we stand, divided we fall” अर्थात् जब तक हम सगंठित हैं, तब तक हम खड़े हैं लेकिन अलग होते ही हम गिर जाते हैं ।
Hindi Nibandh (Essay) # 6
वृक्षारोपण: एक आवश्यकता पर निबन्ध | Essay on Plantation : A Necessity in Hindi
प्रस्तावना:
मानव के स्वास्थ्य तथा सुन्दरता की वृद्धि के लिए, पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए, पृथ्वी को सुन्दर बनाने के लिए, मरुस्थल का विस्तार रोकने के लिए, कृषि की पैदावार बढ़ाने के लिए, उद्योग-धन्धों की वृद्धि के लिए, देश को अकाल से बचाने के लिए, लकड़ी, फल, फूल, सब्जियाँ, जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ इत्यादि प्राप्त करने के लिए वृक्षारोपण करना परम आवश्यक है ।
वृक्षारोपण का अर्थ:
वृक्षारोपण का शाब्दिक अर्थ है- वृक्ष लगाकर उन्हें उगाना । वृक्षारोपण से यह भी तात्पर्य है कि वृक्ष लगाकर उनकी भली-भाँति देखभाल की जानी चाहिए, जिससे वृक्षारोपण केवल नाममात्र के लिए न होकर लाभकारी सिद्ध हो सके ।
वृक्षारोपण का प्रयोजन प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखना होता है साश ही वृक्षारोपण द्वारा ही मनुष्य का जीवन समृद्ध तथा सुखी हो सकता है क्योंकि हम अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए वृक्षों पर ही आश्रित हैं । प्राचीनकाल में वृक्षों का महत्त्व-भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही वृक्षों को देवत्व का अधिकार प्राप्त है, तभी तो उस समय पेडू-पौधों की देवताओं के सदृश अर्चना की जाती थी तथा उनके साथ मनुष्यों की भाँति आत्मीयतापूर्ण व्यवहार किया जाता था ।
प्राचीन समय में लोग पेड़ों को काटने के स्थान पर उनकी देखभाल अपने बच्चों की भाँति करते थे । वर्षा ऋतु में जलवर्षण के आघात से, शिशिर में तुषारपात तथा ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के ताप से उन्हें बचाया जाता था । स्त्रियाँ पीपल, केले, तुलसी, बरगद जैसे वृक्षों की पूजा करती थीं तथा उनके चारों ओर परिक्रमा लगाकर जल देती थी ।
बेल के वृक्ष के पत्ते भगवान शिव के मस्तक पर चढ़ाए जाते थे । नीम को तो लोग उपचार हेतु उपयोग करते थे । संध्या के उपरान्त किसी भी वृक्ष के पत्ते तोड़ना तथा हरे वृक्ष काटना पाप माना जाता था । अशोक का वृक्ष भी प्राचीन समय में बहुत पूज्य होता था ।
वृक्षों के अनगिनत लाभ:
वृक्षों के महत्त्व को कोई भी नहीं नकार सकता । वृक्ष पृथ्वी की शोभा तो बढ़ाते ही हैं साथ ही वे हरियाली का उद्गम भी है । वृक्ष वर्षा कराने में सहायक होते हैं क्योंकि मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा करना वृक्षों का ही कार्य है ।
वृक्ष देश को मरुस्थल बनने से रोककर उसके सौंदर्य में वृद्धि करते हैं । वृक्षों से वातावरण शुद्ध होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य सुन्दर रहता है, फेफड़ों में शुद्ध वायु के प्रवेश से वे सही कार्य कर पाते हैं । यह सब इसलिए सम्भव है क्योंकि वृक्ष अत्यधिक मात्रा में ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं ।
इसके अतिरिक्त वृक्षों से हमें अनेक प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं । नीम की जड़ें तथा पत्ते दोनों ही फोड़े-ऊँसियों आदि के लिए रामबाण हैं, तुलसी की पत्तियाँ खाँसी जुकाम की अचूक औषधि हैं वही ‘ऐलोवेरा’ की पत्तियाँ सौन्दर्य वृद्धि के लिए प्रयोग की जाती है ।
स्वास्थ्य की प्राकृतिक औषधि, जीभ के लिए स्वादपूर्ण एवं मानव मात्र के लिए कल्याणकारी अनेक प्रकार की फल-सब्जियाँ वृक्षों द्वारा ही प्राप्त होते हैं । इसके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी वृक्षों के अनेक लाभ हैं । ‘खैर’ के पेड़ की लकड़ी से कत्था एवं तेनदू वृक्ष के पत्तों से बीड़ी बनती हैं । बाँस की लड़की तथा घास से जहाँ कागज निर्मित होता है वहीं ‘लाख’ तथा ‘चमड़ा’ भी वृक्षों से ही प्राप्त होता है ।
वृक्षों की छाल तथा पत्तियों से अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों मिलती हैं जो दवाईयाँ बनाने में काम आती हैं । आयुर्वेदिक दवाईयाँ तो सौ प्रतिशत जड़ी-बूटियों द्वारा ही निर्मित होती हैं । औषधीय गुणों के अतिरिक्त वृक्षों से हमारे घरेलू सामान जैसे अल्मारी, पलंग, कुर्सी, मेज, दरवाजे आदि बनते हैं, वही खेल-कूद के बल्ले, हॉकी आदि बनाने के लिए भी लकड़ी की ही आवश्यकता होती है ।
इसके अतिरिक्त जलाने के लिए ईंधन रूप में भी लकड़ी की आवश्यकता होती है । वृक्ष थके हारे पथिकों तथा अनेक पशु-पक्षियों का शरणास्थल होते हैं । ये उन्हें धूप, वर्षा, शीत आदि से बचाते हैं । वृक्ष जलवायु की विषमता को दूर करते हैं तो ये पर्यावरण के भी नाशक हैं ।
वृक्ष ही प्रदूषण से हमारी सुरक्षा करते हैं । आज शहरों में जो इतना वायु प्रदूषण फैल रहा है, उसका कारण वृक्षों का काटना ही है । इस सबके अतिरिक्त वृक्ष हमें नैतिक शिक्षा भी देते हैं । मनुष्य के निराशा भरे जीवन में ये वृक्ष ही नवीन आशा का संचार करते हैं ।
जब क्तान्त व निराश मानव कटे वृक्ष को पुन: हरा भरा होते हुए देखता है तो उसकी निराशाएँ उससे दूर हो जाती है और वह भी उसी वृक्ष की भाँति अपने जीवन में भी हरियाली लाने का प्रयत्न करता है । परोपकार की सच्ची शिक्षा भी हमें वृक्षों द्वारा ही मिलती है क्योंकि:
“वृक्ष कबहुँ नाहिं फल भखे, नदी न सिंचै नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।”
अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष अपने पैदा किए हुए फल स्वयं न खाकर दूसरों को इनका आनन्द देते हैं, वैसे ही परोपकारी व्यक्ति अपने बारे में न सोचकर दूसरों के हित की चिन्ता करते हैं । अत: वृक्ष हमारे देश की नैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समृद्धि के मुख्य स्रोत हैं ।
आधुनिक समय में वृक्षों का विनाश-आज का युग औद्योगिकरण का युग है तभी तो मनुष्य पुरानी परम्पराओं को ‘पुराणपन्धी’ कहकर वृक्षों के महत्त्व को नकार रहा है तथा उन्हें लगातार काट रहा है । वृक्षों के कटाव के पीछे भी अनेक कारण हैं ।
जनसंख्या वृद्धि के कारण वनों की भूमि को भी आवास भूमि की भाँति प्रयोग किया जा रहा है । जगह-जगह फैक्ट्रियाँ लगाई जा रही हैं, बड़े-बड़े होटल बनाए जा रहे हैं । परिणामस्वरूप भारतवर्ष की जलवायु में शुष्कता आ गई है ऑक्सीजन कम हो रही है, ईंधन के भाव बढ़ रहे हैं तथा भुखमरी की समस्या पैदा हो रही है ।
साथ ही हम कितनी ही बीमारियों जैसे फेफड़ों, श्वास, हृदय सम्बन्धी बीमारियों से जूझ रहे है ।
वृक्षारोपण की योजना का शुभारम्भ:
सन् 1950 में भारत सरकार ने ‘वनमहोत्सव’ की योजना प्रारम्भ की थी । परन्तु उस समय यह इतना कारगर साबित नहीं हो पाया था । अब दोबारा से देशभर में वृक्षारोपण का कार्यक्रम विशाल स्तर पर चलाया जा रहा है ।
नगरों की नगर पालिकाओं को वृक्षारोपण की निश्चित संख्या बता दी जाती है । प्रत्येक विद्यालय में भी छात्रों तथा शिक्षकों द्वारा वृक्षारोपण कार्य किया जाता है । अनेक राज्यों में वृक्षों की कटाई पर कानूनन प्रतिबन्ध लगा दिया गया है ।
बाढ़ तथा सूखे की समस्याओं से निपटने के लिए बन संरक्षण किए जा रहे हैं । इस कार्य के लिए केन्द्रीय एवं प्रादेशिक मन्त्रालयों में अलग-अलग मन्त्री नियुक्त कर अलग-अलग विभाग खोले गए हैं । प्रतिवर्ष जुलाई के महीने मे सभी संस्थानों द्वारा पेड़-पौधे लगाए जाते है, ।
उपसंहार:
वास्तव में वृक्ष ही प्रकृति के गिन का सुन्दरतम आ है, इनके बिना प्रकृति सौन्दर्यविहीन लगती है । अत: हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम वृक्षों के महत्त्व को समझें तथा अधिक से अधिक वृक्षारोपण करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें ।
Hindi Nibandh (Essay) # 7
योगासन एवं व्यायाम से लाभ पर निबन्ध | Essay on Benefit from Yoga and Exercise in Hindi
प्रस्तावना:
योगसिद्धि एवं शारीरिक शुद्धि के लिए योगासन अत्यन्त आवश्यक है । योग संस्कृत के ‘युज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है- मिलाना, जोड़ना, संयुक्त होना, बाँधना, अनुभव को पाना तथा तल्लीन हो जाना । दूसरे शब्दों में ”दो वस्तुओं के परस्पर मिलन तथा जोड़ का नाम ही योग है ।”
महर्षि पतंजलि के अनुसार योग का अर्थ- ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’, अर्थात् मन की वृत्तियों- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द के मोह को रोकना ही योग है । इस बात को ऐसे स्पष्ट किया जा सकता है कि ”चित्र की चंचलता का दमन करना ही योग है ।”
‘श्रीमद्भगवकीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने योग का अर्थ इस प्रकार बतलाया है:
1. ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात् समानता या समता को ही योग कहते हैं ।
2. ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् प्रत्येक कार्य का कुशलता से सम्पन्न करना ही योग है । अपनी अन्तर्रात्मा के साथ एकाकार होने का भाव ही योग है ।
योग के महत्त्व:
योगासन द्वारा व्यक्ति अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है । कई रोग तो ऐसे हैं जिनमें दवा से अधिक असर योगासन का होता है । इसलिए कहा भी गया है-
”आसनं विजितं येनल जितं तेन जगन्नयम् । अनने विधिनायुक्त: प्राणायाम सदा कुरु ।।”
अर्थात् जिसने आसनों की सिद्धि प्राप्त कर ली उसने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली । योग द्वारा शरीर के समस्त विकार दूर हो जाते हैं । तभी तो योग आज एक थेरेपी के रूप में भी उपयोगी सिद्ध हो चुका है ।
आज हर एक रोग के लिए एक विशेष आसन है । कई ऐसे रोग, जिनके उपचार चिकित्सकों के पास भी नहीं हैं, योग द्वारा काफी हद तक ठीक किए जा रहे हैं । यदि इन आसनों को किसी दक्ष व्यक्ति की देख-रेख में किया जाए तो ये और भी अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं ।
किसी भी रोग की दवा लेने पर उससे रोग दब तो जाता है, लेकिन उसके प्रभाव से कई अन्य बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है, वही योग द्वारा किया गया उपचार स्थायी होता है ।
योगासन एवं व्यायाम में अन्तर:
योगासन व व्यायाम दोनों अलग-अलग वस्तुएँ हैं, परन्तु दोनों ही हमारे लिए बहुत लाभदायक हैं । व्यायाम में एक ही कसरत को कुछ समय तक लगातार किया जाता है, जिससे शरीर थक जाता है तथा पसीना भी बहुत आता है । इसके विपरीत योगासन में प्रत्येक आसन थोड़े समय का होता है तथा बीच-बीच में आराम मिलता रहता है ।
व्यायाम करते समय जहाँ एक अंग विशेष की कसरत होती है वही योगासन में शरीर के सभी अंगों पर उसका प्रभाव पड़ता है । योगासन करने के बाद शरीर में थकावट अनुभव नहीं होती तथा शरीर भी हल्का महसूस होने लगता है ।
किसी भी व्यायाम को करने के लिए जहाँ अधिक समय की आवश्यकता होती है साथ ही वृद्ध, बीमार या कमजोर व्यक्ति व्यायाम नहीं कर पाते, वही दूसरी ओर योगासन करने के लिए अधिक समय की आवश्यकता नहीं होती ।
कमजोर, वृद्ध या बीमार व्यक्ति भी योगासन कर सकते हैं । योगासन करने के लिए किसी बड़े मैदान की भी आवश्यकता नहीं होती । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यायाम में किसी रोग का उपचार नहीं हो सकता जबकि योगासन से कई रोगों का उपचार सम्भव है ।
योगासन तथा व्यायाम में समानताएँ:
योगासन तथा व्यायाम दोनों का ही उद्देश्य शरीर को उत्तम अवस्था में रखना है । इन दोनों को करने से ही हमारी पाचन शक्ति मजबूत होती है, शरीर लचीला तथा फुर्तीला होता है तथा कार्य करने का उत्साह बना रहता हैं । दोनों से ही मनुष्य संयमी, बलशाली, आत्मनिर्भर तथा आत्मविश्वासी बनता है ।
उपसंहार:
व्यायाम तथा योगासन प्रत्येक मनुष्य को अपनी क्षमता तथा आयु के अनुसार ही करने चाहिए । आज का आधुनिक विज्ञान मानव तथा प्रकृति के मध्य और अधिक समन्वय स्थापित करने हेतु नित्य नवीन खोजे कर रहा है । इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय जड़ एवं चेतन के मध्य समन्वय स्थापित करना है तथा यह ज्ञान योगशास्त्रों में निहित है । योगासन द्वारा मानव अपना शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास कर सकता है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 8
भारत-पर्यटको के लिए स्वर्ग पर निबन्ध | Essay on India : A Heaven for the Tourist in Hindi
प्रस्तावना:
भारतवर्ष को सजाने-सँवारने में प्रकृति ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है । उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक अनेक पर्यटक स्थल पर्यटको को अपनी ओर आकर्षित करते हैं । भारत में तीन प्रकार के पर्यटक स्थल हैं: (1) धार्मिक (2) प्राकृतिक (3) ऐतिहासिक ।
उत्तरी भारत के पर्यटक स्थल:
धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर उत्तर भारत में ही स्थित है । जप्त श्रीनगर, शेषनाग, गुलमर्ग, लद्दाख आदि स्थान अपनी सुन्दरता के लिए जग-प्रसिद्ध है । अमरनाथ-गुफा एवं वैष्णों देवी नामक हिन्दुओं के तीर्थस्थल प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालुओं को अपने यहाँ आने के लिए प्रेरित करते हैं ।
अत: जम्मू व कश्मीर धार्मिक एवं प्राकृतिक पर्यटक स्थलों के रूप में बहुत प्रसिद्ध है । हिमाचल प्रदेश भी प्राकृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यंत सुन्दर प्रदेश हैं । यहाँ चम्बा, कुल्लूअनाली, शिमला प्रमुख पर्यटक-स्थल हैं जहाँ प्रकृति ने अपने कोष से सभी रत्न व मुद्रायें बिखेर दी हैं ।
हिन्दुओं की नौ देवियाँ जिनमे अन्नपूर्णा, चिन्तपूर्णी, ज्वाला देवी प्रमुख हैं, हिमाचल प्रदेश में ही हैं । लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं । उत्तरांचल उत्तर भारत का तीसरा धार्मिक व प्राकृतिक पर्यटक-स्थल है । यहाँ नैनीताल, अल्मोडा, चमोली, उत्तरकाशी, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी, देहरादून आदि दर्शनीय स्थल हैं । उत्तरांचल में धार्मिक स्थल जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, हरिद्वार, ऋषिकेश, कैलाश मानसरोवर, नीलकण्ठ, हेमकुण्ड आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, जहाँ पर हर समय ही भक्तों का ताँता लगा रहता है ।
हरिद्वार तो सच्चे अर्थों में ‘हरि का द्वार’ माना जाता है, जहाँ आकर लोग अपने जन्म के पाप काटते हैं तथा मोक्ष का रास्ता तय करते हैं । प्रत्येक 12 वर्षों के बाद हरिद्वार में गंगा नदी तट पर कुम्भ मेला लगता है अत: पूरा उत्तर भारत ही अत्यन्त मनोहारी एवं सुन्दर पर्यटक स्थल हैं ।
मध्य भारत के पर्यटक स्थल:
मध्य भारत में उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश मैदानी भाग है जहाँ अनेक ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के स्थल हैं । उत्तर प्रदेश में आगरा, बनारस, इलाहाबाद, चित्रकूट, अयोध्या, मधुरा, गढ़ आदि पर्यटक स्थल हैं । आगरा तो ताजमहल के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक शहर है ।
ताजमहल को देखने तो लाखों देसी-विदेशी पर्यटक हर रोज आते हैं । ताजमहल ऐतिहासिक महत्व के साथ ही मुगल अभियान्त्रिकी का एक सुन्दर उदाहरण है जो उस समय की तकनीक व भवन निर्माण कला की दक्षता को भी प्रदर्शित करता है ।
उत्तरप्रदेश में ही इलाहाबाद में गंगा-यमुना व सरस्वती का संगम होता है, जहाँ प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुम्भ मेला लगता है । यह कुम्भ मेला विश्व प्रसिद्ध धार्मिक आयोजन होता है, जहाँ करोड़ो श्रद्धालु पवित्र संगम में स्नान करके स्वयं को धन्य करते हैं ।
मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी के तट पर बसा ‘उज्जैन’ एक प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहाँ महाकालेश्वर का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर है । उज्जैन में भी प्रत्येक 12 वर्षों बाद कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है ।
पश्चिमी भारत के पर्यटक स्थल:
पश्चिमी भारत में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के अनेक ऐतिहासिक व धार्मिक महत्त्व के स्थल हैं । राजस्थान में राजपूतकालीन अनेक ऐतिहासिक इमारतें हैं । चितौरगढ़, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, धौलपुर, अजमेर आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर हैं । अजमेर के पुष्कर जी में ब्रह्मा जी का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर है ।
अजमेर में ही ख्याजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सैकड़ो मुसलमान चादर चढ़ाने आते हैं । ‘माउण्टआबू’ राजस्थान का प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल तथा जैन सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है । यहाँ के दिलवाड़ा मन्दिरो को जैन धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता है ।
गुजरात में द्वारकाधीश मन्दिर हिन्दुओं के चार प्रमुख धामो में से एक है । माण्डू अहमदाबाद आदि प्रमूख ऐतिहासिक नगर है जहाँ के गुम्बद, मस्जिदें आदि प्रमुख पर्यटक स्थल है । महाराष्ट्र में नासिक, मुम्बई, एलोरा अजन्ता की गुफाएँ (औरगाबाद) आदि प्रमुख आकर्षण के केन्द्र है ।
ये गुफाएँ नवीं शताब्दी से 16 वीं शताब्दी तक अनेक राजाओं द्वारा बनवाई गई थी । इन गुफाओं की मूर्तिकला निःसंदेह अद्भुत है । गोवा तीनों ओर से महाराष्ट्र से घिरा सबसे छोटा राज्य है जहाँ के समुद्रतट अद्भुत है । यहीं पर इस्टर, क्रिसमस व नए साल का आयोजन दर्शनीय होता है ।
पूर्वी भारत के प्रमुख पर्यटक-स्थल:
पूर्वी भारत में बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल मुख्य है । बिहार में ‘गया’ एक प्रमुख धार्मिक पर्यटक स्थल है । गया हिन्दुओं व बौद्धों का पवित्र तीर्थ स्थल है । गया में ‘पितृतर्पण’ का बहुत महत्त्व है । उड़ीसा में कोणार्क का सूर्य मन्दिर प्रमुख पर्यटक स्थल हे ।
उड़ीसा में ही लिंगराज मन्दिर एक प्रमुख धार्मिक स्थल है । समुद्र-तट पर बसा ‘पुरी’ शहर हिन्दुओं का प्रसिद्ध ऐतिहासिक व धार्मिक नगर है जहाँ भगवान जगन्नाथ का मन्दिर विश्वप्रसिद्ध है तथा हिन्दुओं के चार धामो में से एक है ।
पश्चिम बंगाल में कलकत्ता, दार्जिलिंग आदि प्रमुख नगर है । दार्जिलिंग के चाय-बागान जगप्रसिद्ध है । कलकता में हुगली नदी पर बना ‘हावडा ब्रिज’ भी एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है । गँगा सागर (जहाँ गंगा अन्नने पूरे भारत भ्रमण को पूरा करके सागर से मिलती है) हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है ।
पूर्वोत्तर भारत मै भारत के 8 छोटे-छोटे राज्य हैं- असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर तथा सिक्किम । इन सभी पहाड़ी प्रदेशो में प्राकृतिक सुन्दरता अभूतपूर्व है । असम पूर्वोत्तर भारत का प्रमुख राज्य है जिसके चाय-बागान प्रसिद्ध हैं ।
दक्षिणी भारत के पर्यटक स्थल:
दक्षिणी भारत में कर्नाटक, केरल, आन्ध्रप्रदेश,तमिलनाडु आदि प्रमुख हैं । कर्नाटक की राजधानी बंगलौर अपने उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है । यही ‘मैसूर पैलेस’ एक ऐतिहासिक स्थल है । आन्ध्र प्रदेश में हैदराबाद प्रमुख नगर है जहाँ की ‘चार मीनार’ नामक इमारत मुख्य है ।
आन्ध प्रदेश में स्थित तिरुपति बालाजी का मन्दिर हिन्दुओं का प्रमुख धार्मिक स्थल है, जहाँ प्रतिवर्ष लाखों सैलानी आते हैं । केरल के समुद्री तट भी आकर्षक पर्यटनस्थल हैं । केरल के मुख्य त्यौहार ‘ओणम’ पर आयोजित होने वाला मेला भी दर्शनीय होता है ।
तमिलनाडु प्राकृतिक व धार्मिक दृष्टि से ररक प्रमुख पर्यटक स्थल है । तमिलनाडु का रंगनाथ जी का मन्दिर भी बहुत प्रसिद्ध है इसके बारे में प्रसिद्ध है कि भगवान श्रीराम ने रावण को मारने के पश्चात् यहाँ विश्राम किया था । तमिलनाडु में ही भारत के दक्षिणी समुद्र तट पर ‘रामेश्वरम्’ स्थित है । यह हिन्दुओं के चारों धामो में से एक है ।
उपसंहार:
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि हमारा भारतवर्ष प्राकृतिक, ऐतिहासिक तथा धार्मिक दृष्टि से पर्यटकों के लिए स्वर्ग के समान है किन्तु यह भी एक खेद की बात है कि हमारे यहाँ विदेशी पर्यटकों की संख्या विश्व की 1% से अधिक नहीं है ।
भारत सरकार के पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए ‘भारतीय पर्यटन विकास निगम’ की स्थापना की, जिसके होटल पूरे देश में हैं । इसके अतिरिक्त हर राज्य में अपने अलग पर्यटन निगम भी हैं, जो विकास कार्य में संलग्न है ।
परन्तु यह भी सत्य है कि जितने भी पर्यटक भारत वर्ष में आते हैं वे यहीं के पर्यटक स्थलों को देखकर मन्त्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहते । हमें इस बात पर बहुत गर्व है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 9
दिल्ली के प्रमुख दर्शनीय स्थल पर निबन्ध | Essay on The main worth seeing places at Delhi in Hindi
प्रस्तावना:
हमारे स्वतन्त्र भारत की राजधानी दिल्ली है । इसके प्रत्येक हिस्से में इतिहास के सभी युगों की अनेक गाथाएँ सिमटी हुई हैं । दिल्ली में कही दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के सत्रह युद्धों की वीरगाथाएँ हैं तो कहीं महाभारत के वीरों की याद सोयी पड़ी है ।
कहीं अंग्रेजो द्वारा निर्मित भव्य इमारते शान से खड़ी हैं तो कहीं मुगल बादशाह शाहजहाँ की वास्तुकला के दर्शन होते हैं । इन सबके अतिरिक्त आधुनिक स्थलों की सुन्दरता ने तो जैसे इसकी शोभा को कई गुना बढ़ा दिया है । हमारी दिल्ली के ये दर्शनीय स्थल संस्कृति, कला, सभ्यता तथा इतिहास के बेजोड़ नमूने हैं ।
दिल्ली का प्राचीन इतिहास:
सूर्यवंशी महाराज दिलीप द्वारा दिल्ली को बसाया गया था । लेकिन समय के थपेड़ो से यह नष्ट होती गई तथा पुन: बसती गई । दिल्ली यमुना नदी के दायें किनारे पर बसी हुई है । राजा दिलीप के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने खाण्डवप्रस्थ को साफ करके पुन: इसको बसाया था । तब इसका नाम ‘इन्द्रप्रस्थ’ रखा गया था ।
फिर राजा पृथ्वीराज चौहान ने इसका नाम ‘दिल्ली’ रखा तथा काफी सुधार कार्य किए । देशद्रोही राजा जयचन्द के कारण यह दिल्ली पृथ्वीराज चौहान के हाथों से निकल कर मुस्लिम शासको के हाथों से होती हुई अंग्रेजी शासको को हाथ में आ गयी । ब्रिटिश सरकार ने ही दिल्ली को भारतवर्ष की राजधानी घोषित किया था ।
अंग्रेजो ने ही दिल्ली के कई गाँवों को उठाकर इसका विस्तार किया तथा ‘नई दिल्ली’ की स्थापना की । 15 अगस्त सन् 1947 की स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली भारतवासियों के अधिकार में आ गई तथा स्वतन्त्र भारत की राजधानी के रूप में भी ‘दिल्ली’ को ही मान्यता दी गई । तब से लेकर दिल्ली लगातार प्रगति के पथ पर अग्रसर है ।
दिल्ली के ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल:
मुगलशासको ने अपने शासनकाल के दौरान दिल्ली में अनेक भवनो का निर्माण करवाया है जिनमें से लालकिला, कुतबमीनार, सिकन्दर लोदी का मकबरा, हुमायुँ का मकबरा, जामा मस्तिद, निजामुद्दीन ओलिया की दरगाह, पुराना किला, सूरजकुण्ड, जन्तरमन्तर, ओखला आदि प्रमुख हैं ।
इन सबमें लालकिला सबसे अधिक प्रसिद्ध है । यह लाल पत्थरों से निर्मित है तथा इसमें मुगलकालीन शस्त्र तथा सांस्कृतिक वस्तुएँ संगृहीत है । ‘कुतुबमीनार’ भी एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक इमारत हैं । पहले इसमें सात मंजिले थीं, परन्तु अब केवल पाँच मंजिले ही बची हैं ।
इसमें स्थित अशोक स्तम्भ एक अद्भुत धातु से निर्मित है तथा बेहद मजबूत है । इस पर आज तक जंग नहीं लगा है । लालकिले के पास ही ‘जामा-मस्तिद’ है, जिसके आस-पास बाजार फैला हुआ है जिसे ‘उर्दू बाजार’ भी कहा जाता है । लालकिला तथा जामा-मस्जिद दोनों को शाहजहाँ ने बनवाया था ।
प्रमुख धार्मिक दर्शनीय स्थल:
दिल्ली दिलवालो का शहर है जहाँ हर प्रदेश के लोग रहते हैं । अनेक जातियों के लोग यहाँ रहते हैं तथा उन सभी जातियों के धर्मस्थान व पूजास्थल यहाँ विद्यमान है । जैन मन्दिर, बौद्ध विहार, ईसाईयों के गिरिजाघर, मुसलमानों की मस्तिदें पारसियों का सूर्य मन्दिर, हिन्दुओं के अनेक मन्दिर तथा सिक्सों के गुरुद्वारे यहाँ स्थित हैं जो अनेकता में एकता प्रदर्शित करते हैं । इनमें प्रसिद्ध सिक्खों का गुरुद्वारा सीसगंज, जैनियों का लाल मन्दिर, ईसाईयों का गिरिजाघर, मुसलमानों की जामा मस्तिद, हिन्दुओं के प्रसिद्ध बिडला मन्दिर, गौरी शंकर मन्दिर तथा अक्षरधाम मन्दिर आदि प्रमुख हैं ।
दिल्ली में सैर के प्रमुख स्थान:
नई दिल्ली में स्थित इंडिया गेट, राष्ट्रीय संग्रहालय, पुराने किले के पास स्थित चिड़ियाघर ओखला बाँध, बुद्धा गार्डन, प्रगति मैदान, तीन मूर्ति भवन जैसे सुन्दर पर्यटक स्थल हैं ।
इनके अतिरिक्त केन्द्रीय सचिवालय, कालिन्दी , बहाई मन्दिर, छतरपुर का मन्दिर, राष्ट्रपति भवन, आकाशबाणी भवन, दूरदर्शन केंद्र, विज्ञान कृषि एवं विज्ञान भवन, नेशनल स्टेडियम इन्दिरा गाँधी इन्द्वोर स्टेडियम, कनॉट प्लेस, चाँदनी चौक आदि उल्लेखनीय हैं । इन सभी स्थानों को घूमने हर वर्ष सैलानी यहीं आते हैं तथा दिल्ली के पर्यटक स्थलो की खुले दिल से प्रशंसा करते हैं ।
दिल्ली की प्रमुख बिशेषताएँ:
पर्यटक-स्थलो के अतिरिक्त दिल्ली की अन्य विशेषताएँ भी कम नहीं हैं । दिल्ली रेलवे स्टेशन का एक बहुत बड़ा जंक्शन है व्यापार की बहुत बड़ी मंडी है । यहीं की जलवायु बहुत सुहावनी होती है, जहाँ हर मौसम का भरपूर आनन्द लिया जा सकता है ।
जनसंख्या की दृष्टि से दिल्ली बहुत विशाल है, जो लगभग एक करोड़ हैं । यहाँ पर अनेक सरकारी दफ्तर हैं तथा लाखो कर्मचारी काम करते हैं । यह शिक्षा का बड़ा केन्द्र है जहाँ देश-विदेश से अनेक छात्र अध्ययन करने आते हैं । दिल्ली अनेक कवियो, नेताओ तथा महापुरुषों की जन्मस्थली है तथा यहाँ की मिट्टी अनेक शहीदो के खून से रंगी है ।
प्रमुख समाधियाँ:
दिल्ली गेट के बाहर अनेक विभूतियीं अपनी-अपनी समाधियों में विश्राम कर रही है । ‘राजघाट’ में महात्मा गाँधी ‘शान्तिवन’ में शान्ति के अग्रदूत पं. जवाहरलाल नेहरू, शक्तिस्थल’ में श्रीमति इन्दिरा गाँधी तथा ‘समता स्थल’ में बाबू जगजीवन राम आराम से विश्राम कर रहे हैं ।
इसके अतिरिक्त ‘विजय घाट’ में लाल बहादुर शास्त्री एवं ‘वीर भूमि’ में राजीव गाँधी तथा ‘किसान घाट’ में चौ. चरण सिंह की समाधियाँ हैं ।
उपसंहार:
वास्तव में हमारी दिल्ली हर क्षेत्र में आगे है । दिल्ली के बड़े-बड़े मील, मैट्रो रेल, नवनिर्मित अक्षरधाम मन्दिर, बड़े-बड़े पुल सभी आकर्षण का केन्द्र है । दिल्ली में हर दिन कोई न कोई खेल प्रतियोगिता, मेला, जूलूस, फैशन प्रतियोगिता इत्यादि आयोजित होते रहते हैं । निःसंदेह ‘दिल्ली’ भारतवर्ष का ‘दिल’ है । यह नवीन व प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता का अद्भुत संगम है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 10
21वीं सदी का भारतवर्ष पर निबन्ध | Essay on India in the 21st Century in Hindi
प्रस्तावना:
भारतवर्ष महानतम देश है और हम इस देश के निवासी हैं । यह ऐसे शूरवीरों का देश है, जिन्होंने सदा ही विपत्तियों का डटकर मुकाबला किया है और विपत्तियों ने उनके दृढ़ संकल्प के समक्ष घुटने टेके हैं ।
हमारे जीवन का आधार सदा ही आशावादी सिद्धान्त रहा है । आज भारत जिस मुकाम पर है, उन्हें अनेक कटीले रास्ते पार करके हमने प्राप्त किया है । भारत पहले भी विश्व पर राज करता था तथा इस बात की पूरी आशा है कि आने वाले कल में भी भारत का स्वरूप सुन्दर, स्वच्छ एवं भव्य होगा ।
यह सबका मार्गदर्शन करेगा । आज हमारा देश बड़ी तेज गति से नवीनता तथा विकास की ओर बढ़ रहा है । भारत ने विकास की अनेक सीमाओं को पार किया है । हर क्षेत्र मैं भारत का भविष्य सुखद दिखाई पड़ता है ।
भारतीय संस्कृति का सिद्धान्त:
20वीं शताब्दी में भारत का इतिहास उतार-बहावी, परिवर्तनों एवं संघर्षों से पूर्ण रहा है । दो विश्व युद्धों में मानव जीवन के धन, सम्पत्ति तथा अपने लोगों का बहुत विनाश हुआ । यद्यपि ये युद्ध यूरोप में लड़े गये थे किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध की आग भारत तक पहुँच गई थी । ऐसे समय में भारत का बंटवारा एवं साम्प्रदायिक रक्त-रंजित नरसंहार दिखाई दिया ।
ऐसे कठिन दौर में ही महात्मा गाँधी जैसे अहिंसा के पुजारी की निर्मम हत्या हुई । आतंकवाद एवं साम्प्रदायिक दंगे अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर धन-जन की हानि कर रहे थे । इस प्रकार इस शताब्दी के अन्तिम समय तक प्रत्येक बच्चा प्रतिशोध, वेदना एवं विद्रोह के संस्कार लेकर आएगा, ऐसा सोचा जाने लगा था लेकिन ऐसी सोच गलत साबित हुई ।
21 वीं शताब्दी से आशाएँ:
21 वीं शताब्दी के भारत से सबको अनेक आशाएँ हैं । आज हम 21 वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके हैं तथा आने वाला कल हमें पहले से कहीं बेहतर दिखाई पड़ता है । आने वाले कल का भविष्य अच्छा, सुशील एवं सुन्दर होगा । कुरीतियों एवं अंध-विश्वासों का अंत हो जाएगा ।
धार्मिक झगड़े, विद्रोह आदि का अन्त हो जाएगा । आज भारत आर्थिक दृष्टि से उतना सम्पन्न नहीं है लेकिन भविष्य में वह और भी सुदृढ़ हो जाएगा । अपने सीमित साधनों का समुचित ढंग से उपयोग करके भारत विश्व के मानचित्र में सबसे ऊपर होगा ।
हमारे पूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्रीमति इन्दिरा गाँधी एवं राजीव गाँधी ने इस दिशा में अनेक प्रयास किए थे । आज कम्प्यूटरों तथा इलैक्ट्रोनिक उपकरणों के बल पर भारत तरक्की की राह पर है । आज हम साम्प्रदायिकता आदि से छुटकारा पाने में काफी हद तक सफल हो रहे हैं । कुरीतियाँ, जाति भेदभाव, ऊँच-नीच, दहेज प्रथा, अंधविश्वासों आदि से हमारा भारत ऊपर उठ चुका है ।
भारत की नारियाँ आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं । आज तो हमारे वेश के सर्वोच्च पद ‘राष्ट्रपति पद’ पर भी एक महिला ‘श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल’ विराजमान हैं, जो एक गर्व की बात है । आज भारत की नारी दुर्गा एवं शक्ति के समान शक्तिशाली है ।
वह समय आने पर अपनी जान की भी बाजी लगा सकती है । अब वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को चुपचाप सहन नहीं करती । विज्ञान के क्षेत्र में भी हमारा देश दिन रात तरक्की कर रहा है । कम्प्यूटरों के प्रयोग ने हर क्षेत्र में क्रान्ति पैदा कर दी है तथा कार्य क्षमता को बहुत बढ़ावा मिल रहा है ।
वैज्ञानिक आविष्कारों ने पूरे परिवेश को नई दिशा दी है । आधुनिक शिक्षा प्रणाली हमारे सर्वांगीण विकास के लिए तत्पर है । आज का बच्चा पिछली शताब्दी के बच्चों की अपेक्षा अधिक जागरूक हो चुका है । राजनीति तथा आतंकवाद, भ्रष्टाचार एत्ह दूसरे के पूरक नहीं रह गए हैं ।
ऐसा माना जाता है कि राजनैतिक क्षेत्र में भी सुधार होगा । देश में केवल दो या तीन ही राजनीतिक दल होंगे । राजनीति धर्म से अलग होगी । हमारा देश राजनीति में और भी अधिक समृद्ध होगा तथा हमारी गिनती विश्व की महान शक्तियों में होगी ।
बीसवीं सदी तथा इक्कीसवीं शताब्दी का तुलनात्मक अध्ययन:
ऐसा नहीं है कि बीसवीं शताब्दी में भारत में कुछ सुधार नहीं हुआ । लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी में भारत ने अच्छी शुरुआत की तथा आगे के सालों में हमारा देश एक अच्छे तथा सम्पन्न सपनों का भारत होगा । बीसवीं सदी के अन्त में पाकिस्तान के साथ जो युद्ध हुआ था वह बड़ा भयंकर था ।
उस समय सब यही सोच रहे थे कि इस युद्ध का कोई अन्त नहीं होगा, परन्तु हमारे भारत के वीर जवानों ने अपनी जान की परवाह न करके हमें इस भयंकर विपत्ति से मुक्ति दिलाई । इससे हमें इक्कीसवीं सदी के लिए एक प्रेरणा मिलती है कि इस सदी में हम अपने भारत को ऐसे किसी भी युद्ध से बचाकर रखें । भारत जैसे विकासशील देश में आज शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा हो गया है ।
21 वीं सदी में भारत का विकास:
आज हमारा देश विकास की राह पर तत्पर है । आगे के वर्षों में खेती के क्षेत्र में हम किसी पर भी निर्भर नहीं रह जाएँगे । उद्योगों के क्षेत्र में हम विश्व के सभी देशों से सर्वोच्च स्थान बनाएँगे । वर्तमान में हम आयात की हुई तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन भविष्य में हम अन्य देशों को तकनीक निर्यात करेंगे ।
रहने के लिए घर, सबसे के लिए समान, खाने के लिए भोजन होगा । भिक्षावृत्ति, बाल-मजदूरी, वेश्यावृत्ति, बाल-विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों पर पूर्णतया विजय प्राप्त कर लेंगे । ग्रामीण जीवन का उत्थान होगा, किसानों की हालत में सुधार होगा ।
उपसंहार:
इस प्रकार 21 वीं सदी में भारत सच्चे अर्थों में भारतीयों के सपनों का भारत होगा । उनका सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक रूप और भी अधिक स्वच्छ एवं सभ्य होगा । भारत विश्व में अपना एक अलग पद कायम करेगा । हम देशवासियों का भी कर्त्तव्य है कि हम सब मिलकर इक्कीसवीं सदी के भारत को सुन्दरतम बनाने का प्रयास करें ।
Hindi Nibandh (Essay) # 11
राष्ट्रीय-एकता पर निबन्ध | Essay on National Unity in Hindi
प्रस्तावना:
भारतवर्ष विश्व के मानचित्र पर एक विशाल देश के रूप में चित्रित है । प्राकृतिक रचना के आधार पर भारत के कई अलग-अलग रूप एवं भाग है । उत्तर का पर्वतीय भाग, गंगा, यमुना सहित अन्य नदियों का समतलीय भाग, दक्षिण का पहाड़ी भाग तथा समुद्र तटीय मैदान सब कुछ भारत में अलग-अलग है ।
इसका अभिप्राय यह है कि हमारे देश का स्वरूप, भूगोल, धर्म, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, सब कुछ भिन्न-भिन्न है, लेकिन फिर भी हमारा देश एक है । भारत की निर्माण सीमा ऐतिहासिक है तथा इतिहास की दृष्टि से अभिन्न है ।
राष्ट्रीय एकता के आधार:
हमारे देश की एकता का सबसे बड़ा आधार दर्शन तथा साहित्य है, जो सभी प्रकार की भिन्नताओं तथा असमानताओं को समाप्त करने वाला है । यह दर्शन है- सर्वसमन्वय की भावना का पोषक । चूँकि यह दर्शन किसी एक भाषा में न होकर विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है ।
इसी प्रकार हमारे देश का साहित्य भी विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों द्वारा लिखे जाने पर भी क्षेत्रवादिता या प्रान्तीयता के भावों को उत्पन्न नहीं करता है, बल्कि सम्पूर्ण देशवासियों को भाईचारे तथा सद्भाव का पाठ पढ़ाता है ।
विचारों की एकता किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी एकता होती है । अतएव भारतीयों की एकता के वास्तविक आधार भारतीय दर्शन एवं साहित्य है, जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने के बाद भी अन्त में जाकर एक ही प्रतीत होते हैं ।
यद्यपि हमारी देश की राष्ट्रीय भाषा ‘हिन्दी’ है, लेकिन यहाँ पर लगभग पन्द्रह भाषाएँ तथा इन सब भाषाओं की उपभाषाएँ भी विद्यमान हैं । ये सभी भाषाएँ संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त हैं एवं इन सभी भाषाओं में रचा गया साहित्य हमारी राष्ट्रीय भावनाओं से ही प्रेरित है ।
इस प्रकार भाषा-भेद होते हुए भी कोई समस्या पैदा नहीं होती है । उत्तर भारतीय निवासी दक्षिण भारतीयों की भाषा न समझते हुए भी उसकी भावनाओं को समझने में पूर्णतया सक्षम है । रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवत् गीता, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब आदि अलग-अलग भाषाओं में रचित है, लेकिन इनमें व्यक्त की गई भावनाएँ हमारी राष्ट्रीयता को ही प्रकट करती है ।
चूँकि तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, नानक, तुकाराम, टैगोर, विद्यापति आदि की रचनाएँ भाषा के आधार पर एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं, फिर भी इनकी भावनात्मक एकता राष्ट्र के सांस्कृतिक मानस को पल्लवित करने में संलग्न है । हमारे देश के पर्व, तिथि, त्योहार, भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग है, फिर भी उन सभी में एकता तथा सर्वसमन्वय का ही भाव प्रकट होता है ।
यही कारण है कि एक जाति के लोग दूसरी जाति के त्योहारों में कोई हस्तक्षेप नहीं करते, अपितु खुशी-खुशी उन्हें मनाते भी हैं । धर्म के प्रति आस्था तथा विश्वास की भावना ही हमारे देश की एकता के प्रतीक हैं तथा हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है ।
आज की वैज्ञानिक सुविधाओं के कारण हम अपने देश की सबसे बड़ी बाधा ऊँचे-ऊँचे पर्वतों, बड़ी-बड़ी नदियों को भी पार करने में सफल हो चुके हैं । देश के सभी भाग एक दूसरे से जुड़े हैं तथा वे सभी राष्ट्रीय एकता का संदेश देते हैं ।
राष्ट्रीय एकता का महत्त्व:
राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता का महत्त्व किसी भी राष्ट्र के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है । इससे राष्ट्र की सुरक्षा को मजबूती मिलती है तथा राष्ट्र के विकास पर भी प्रभाव पड़ता है । यदि किसी राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता समाप्त हो जाएगी तो वह राष्ट्र की समाप्त हो जाएगा अर्थात् उस राष्ट्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ।
राष्ट्रीय एकता से ही वहाँ पर अमन चैन तथा शान्ति का वातावरण पैदा होता है । आन्तरिक एवं बाह्मा दृष्टियों से राष्ट्र मजबूत बनता है । कोई भी बाहरी देश आक्रमण करने से पहले दस बार सोचेगा क्योंकि ‘एकता में ही शक्ति होती है ।’ राष्ट्रीय एकता से ही उसके विकास की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ती हुई अन्य राष्ट्रो की तुलना में अधिक प्रभावशाली होती है ।
इस दृष्टि से किसी भी देश की राष्ट्रीय एकता एव अखण्डता उस राष्ट्र की सभी प्रकार की भाषा, धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि विभिन्नताओं को सिर उठाने का कोई भी अवसर नहीं देती । राष्ट्रीय एकता तो किसी प्रकार की भी असमानता और विषमता को एकता, समानता तथा सरलता में बदल कर देशोत्थान को ही महत्त्व देने के लिए अपनी ओर से हर सम्भव कोशिश किया करती है ।
राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के उपाय:
राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता हर देश की नींव को मजबूत करती है । इसको बनाए रखने के लिए हमें अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर सारे राष्ट्र के हित में सोचना होगा । अपने दुखो-सुखो तथा मान-सम्मान को त्यागकर देश के हितों के बारे में सोचना होगा ।
कोई भी बाहरी व्यक्ति यदि हमारी भारत माता को हानि पहुंचाने की कोशिश करे तो हमें अपने धर्म या जाति को भूलकर उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की बलि देने से भी पीछे नहीं हटना चाहिए । राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता के लिए हमें जीवन में संसार से ऐसी सीख भी सीखनी पड़ेगी जिनसे हमारे अन्दर राष्ट्रीय एकता की भावना अंकुरित होकर पल्लवित हो सके ।
जब-जब हमारे अन्दर राष्ट्रीय एकता की भावना दम तोड़ने लगे तो हमें ‘चींटियों की एकता’ ‘संयुक्त परिवार की सरसता’ की संगठन की शक्ति के बारे में सोचकर प्रोत्साहित होना चाहिए ।
उपसंहार:
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत योगदान से ही देश की एकता एवं अखण्डता सुरक्षित रह सकती है । यह तभी सम्भव है, जब सभी देशवासी तन-मन-धन से देश की एकता व अखण्डता के लिए प्रत्येक कार्य को पूरी ईमानदारी तथा सच्चाई से करे ।
हमें सदा ही यह बात याद रखनी चाहिए कि अनेकता में एकता ही हमारे देश की विशेषता है तथा हमारा अस्तित्व तभी तक जीवित है, जब तक हम हमारी संस्कृति को सँभालकर रखे । हमारे देश की एकता का सबसे बड़ा आधार प्रशासन की एक सूत्रता है तभी तो विभिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओं के मेल से बने हमारे देशवासी ‘भारतीय’ कहलाते हैं तथा ‘भारतीयता’ को ही मुख्य धर्म मानते हैं ।
Hindi Nibandh (Essay) # 12
महानगरों की अनगिनत समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Innumerable Problems of the Metropolis in Hindi
प्रस्तावना:
बड़े-बड़े नगरों को ‘महानगर’ कहा जाता है । छोटी-छोटी बस्तियाँ मिलकर गाँव गाँव मिलकर कस्बे, कस्बे मिलकर नगर एवं नगर मिलकर ‘महानगर’ बन जाते हैं । नगर तथा महानगरों के विकास का मुख्य कारण उनकी ओर ग्रामीण लोगों का आकर्षित होना होता है ।
जब छोटी जगह के लोग बडे-बड़े शहरों में आजीविका कमाने चले आते हैं तो वहीं की आबादी बढ़ने लगती है तथा उनका विकास भी होता है । महानगरों में जितनी सुख-सुविधाएं होती हैं, बिजली-पानी भरपूर मात्रा में मिल जाता है, परन्तु महानगरों में समस्याएं भी उतनी ही होती है । कुछ ज्वलन्त समस्याएँ जो आज का हर महानगर जैसे-दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, चेन्नई आदि झेल रहे ह्रैँ निम्नलिखित हैं
(1) बढ़ती जनसंख्या की समस्या:
शहरों का आकर्षण गाँवों को खाली कर रहा है तथा महानगरों की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । इस जनसंख्या वृद्धि के कारण काम-धन्धो पर की प्रभाव पड़ रहा है । इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि आज महानगरों की सबसे ज्वलन्त समस्या है ।
(2) आवास की समस्या:
आवास की समस्या भी महानगरों की एक मुख्य समस्या है जो जनसंख्या वृद्धि के कारण ही उत्पन्न हुई है । जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में आवास की सुचारू रूप से व्यवस्था न हो पाने के कारण शानदान बिल्डिंगों के साथ में ही झोपड़ियों का निर्माण होने लगा ।
इनके निर्माण से महानगरों में गन्दगी बढ़ती गई एवं आसपास उन बड़ी कोठियों में रहने वालों का जीवन नारकीय होने लगा । धीरे-धीरे इसके दुष्पपरिणाम सामने आने लगे । जब ये झोपड़ियों भी कम पड़ने लगी तो लोगों ने सार्वजनिक स्थानों पार्कों, सड़कों, सरकारी भूमि आदि पर अपनाधिखुत कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार समस्या और भी विकट होने लगी ।
सरकार की ओर से इन्हें हटाने के लिए अनेक बार सख्ती भी की जाती है लेकिन फिर धीरे-धीरे ये लोग कहीं पर भी झोपड़ी डालकर रहने लगते हैं । आज हालत यह है कि गाँवों में तो रहने के लिए जगह खाली पड़ी हुई है तथा शहरों के लोग पटरियों पर रहकर जीवन बिता रहे हैं । लेकिन उनकी भी मजबूरी है क्योंकि गाँवों में काम-धक्के समाप्त हो रहे हैं इसलिए पैसा कमाने के लिए लोग शहरों की और दौड़ रहे हैं ।
यातायात की समस्या:
बढ़ती जनसंख्या के कारण ही आज महानगरों में यातायात की समस्या भी अपनी जड़ जमा चुकी है । ज्यों ज्यों महानगरों में जनसंख्या बढ़ने लगी, लोग दूर-दूर जाकर भी बसने लगे लेकिन काम धन्धा या नौकरी करने तो उन्हे मुख्य जगहों पर ही जाना पड़ता है, इसलिए रोज यात्रा भी करनी पड़ी है जिसके कारण सड़कों पर बसों, गाड़ियों की भीड़ रहती है ।
यातायात के साधन बढ़ चुके हैं लेकिन सड़कें उतनी ही चौड़ी है, ऐसे में सड़कों पर जाम लगना तो एक आम बात हो चुकी है । कभी-कभी यातायात के साधनों के अभाव में लोगों को पहले से ही भर चुकी बसों में धक्के खाकर यात्रा करनी पड़ती है ।
अधिक भीड़ होने से जेब कटना, लड़कियों से छेड़छाड़, सामान चोरी, दुर्घटना आदि तो हर रोज की समस्याएं बन चुकी हैं । सरकार की ओर से अनेक प्रयत्न किए जा रहे हैं, बड़े-बड़े पुल, चौड़ी सड़कें, अंडरग्राउंड रास्ते, मैट्रो रेल बनाए जा रहे हैं, दिल्ली तथा कलकत्ता में मैट्रो रेल चल रही है, फिर भी समस्या का निदान नहीं हो पा रहा है ।
प्रदूषण की समस्या:
अब इतने लोगों को खाने के लिए भी तो कुछ चाहिए, पैसा चाहिए तो इसीलिए महानगरों में औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया जा रहा है । निरन्तर बढ़ते उद्योगों की स्थापना के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा है । मुख्यतया वायु प्रदूषण की समस्या ने महानगरों को बेहाल कर रखा है ।
उद्योगों के संयत्र बड़ी मात्रा में ऊर्जा तथा उष्णता पैदा करते हैं तथा यही ताप वायु प्रदूषण पैदा करता है । वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल मनुष्य ही नहीं, जीव-जन्तु तथा पेड़-पौधे भी झेल रहे हैं । आज हर व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रोग जैसे हृदय रोग, अस्थमा, मधुमेह आदि से पीड़ित हैं ।
वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रहा है । क्योंकि जब यातायात के साधन बढ़ रहे हैं, तो उनके होंने की आवाज से ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ रहा है । यह प्रदूषण बहरेपन तथा हृदय रोगों का कारण बन रहा है ।
इसके अतिरिक्त इन उद्योगों, कल-कारखानों व फैक्टरियों से निकलने वाले धुएँ-कचरे, गन्दे पानी आदि से भी वातावरण प्रदूषित हो रहा है । परन्तु आज महानगरों के निवासी ऐसे दमघोंटू तथा दूषित वातावरण में रहने को विवश हैं ।
आज दिल्ली जैसे महानगर में 50 लाख से अधिक वाहन हैं जिनका शोर तथा धुआँ हमें पागल किए जा रहा है । सरकार की ओर से वैसे तो धुआँरहित ईंधन जैसे एल.पी.जी. तथा सी.एन.जी. वाले वाहन चलाने पर जोर दिया जा रहा है, परन्तु अभी भी अधिकतर वाहन पैट्रोल तथा डीजल चालित ही हैं ।
अन्य समस्याएँ:
ये तो कुछ प्रमुख समस्याएँ हैं, इनके अतिरिक्त अनगिनत समस्याएँ और भी हैं, जैसे शुद्ध वायु, पानी तथा बिजली की कमी । ऊँची-ऊँची गगनचुम्बी इमारतों के बन जाने से हवा तथा धूप मिलना मुश्किल हो गया है । पीने का स्वच्छ जल भी घंटो प्रतीक्षा करने के बाद ही मिलता है ।
बिजली की जरूरत से ज्यादा खपत होने के कारण वह भी कई घंटे गुल रहती है । महानगर निवासियों को फल, सब्जियाँ, दूध आदि भी ताजे नहीं मिल पाते तथा मिलते भी है तो कोल्ड स्टोरो में रखे हुए, वह भी ऊँची कीमतों पर ।
इन समस्याओं के अतिरिक्त चोरी, डकैती, लूट-खसोट, बलात्कार, अपहरण, हत्या जैसी समस्याएँ भी बढ़ रही है । गाँव के लोग जब शहर में आकर वहाँ की चमक को देखते हैं तो वे भी रातों-रात धनवान होने का सोचते हैं और जब पैसा नहीं कमा पाते तो उसके लिए गलत रास्ता चुनते हैं । महानगरों का खुला माहौल भी उन्हें जुर्म करने पर मजबूर कर देता है ।
समस्याओं का समाधान:
महानगरों में समस्याएँ तो बहुत हैं जिन सबका वर्णन करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है । परन्तु सरकार तथा निजी प्रयासों से कुछ हद तक इनसे छुटकारा भी पाया जा सकता है । सर्वप्रथम सरकारी कार्यालयों एवं बड़े-बड़े बाजारों व मण्डियों को महानगरों की भीड़-भीड़ के इलाके से हटाकर बाहर स्थापित किया जाना चाहिए । ऐसा करने से जनसंख्या का दबाव भी कुछ कम होगा तथा पर्यावरण भी दूषित नहीं होगा ।
उपसंहार:
इन समस्याओं के निवारण के लिए सरकार की ओर से ठोस कदम उठाए जा रहे हैं । महानगरों में सी.एन.जी वाहनों का चलाया जाना, बड़े-बड़े पुलों का निर्माण आदि इस दिशा में उठाए गए सराहनीय कदम ही हैं । शुद्ध वायु के लिए वृक्षारोपण को महत्त्व देना, बिजली पानी की उचित व्यवस्था के लिए उचित उपाय करना सरकार का कर्त्तव्य है और वह यह कर भी रही है लेकिन हर व्यक्ति को अपनी निजी जिम्मेदारी भी समझनी होगी तभी इन समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 13
ग्रामीण जीवन की समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Problems of Village Life in Hindi
प्रस्तावना:
भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा भारत की 71% जनता गाँवों में ही बसती है । ये गाँव ही भारत की आत्मा है, हमारे जीवन का दर्पण है तथा वास्तविक भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रतीक हैं । वास्तविक प्राकृतिक सुन्दरता की मनोरम छटा गाँवों में ही बिखरी पड़ी हैं ।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक बार कहा भी था कि यदि भारत को विकसित करना है, तो पहले यहाँ के गाँवों को विकसित करना होगा, क्योंकि भारत गाँवों में ही बसता है किन्तु यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि भारत की आत्मा कहे जाने वाले गाँव मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है ।
ग्रामीण जीवन की प्रमुख समस्याएँ:
आज सरकार की ओर से ये दावे किए जाते हैं कि गाँवों के उत्थान के लिए भरसक प्रयास किए जा रहे हैं किन्तु सच्चाई तो यह है कि आज भी अधिकतर गाँवों में बिजली, पानी, सफाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, यातायात की समस्याएँ गाँववासियों का जीवन दूभर किए हुए हैं ।
आज भी गाँवों की सड़कें कच्ची तथा भट्टड़ों से युक्त हैं तथा बरसात में इन सड़कों पर चलने के बारे में हम शहरी लोग सोच भी नहीं सकते । गाँव में अधिकतर सभी किसानों ने अपने खेतों की सिंचाई के लिए मशीन तो लगा ली है परन्तु बिजली की कमी के कारण वे ट्यूबवैल बेकार पड़े रहते हैं तथा किसानों को काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है ।
गाँवों में 15 से 16 घन्टे बिजली की कटौती की जाती है तथा वही बिजली शहरों में मुहैया कराई जाती है । बिजली की यह कटौती किसी भी समय हो जाती है इसलिए परेशानी कई गुना बढ़ जाती है । पीने का साफ पानी भी अधिकतर गाँवों में उपलब्ध नहीं है ।
गाँवों में नगर निगम के पानी की लाइन नहीं है जिसके कारण ग्रामीणों को कुओं, तालाबों आदि का पानी पीना पड़ता है और फिर हैजा, दस्त, पेचिश, आदि बीमारियाँ ग्रामीणों को झेलनी पड़ती है । सरकार की ओर से भी इस दिशा में कोई ठोस कदम कहीं उठाए जाते हैं ।
ग्रामीणों की परेशानी यही पर समाप्त नहीं हो जाती है । उचित-चिकित्सा के अभाव में कितने ही गाँववासी असमय ही मौत के मुँह में चले जाते हैं । राज्य सरकार की ओर से गाँवों में जो प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र चलाए जाते हैं उनके डॉक्टर अपने अस्पताल में बैठने के स्थान पर अपने व्यक्तिगत क्लीनिकों में प्रैक्टिस कर रहे हैं ।
कितनी ही बार तो डॉक्टर की अनुपस्थिति में कम्पाउंडर या चपरासी ही बीमार को देख लेते हैं और फिर उल्टी-सीधी दवाई लेने से मरीज की हालत और भी बिगड़ जाती है । सरकार की ओर से बीमारों को मुफ्त दवाईयाँ देने का प्रावधान है किन्तु कितनी ही
दवाईयाँ अस्पताल में पहुँचने से पहले ही दवाई की दुकानों में बेच दी जाती है । दूसरे डॉक्टर भी जल्द से जल्द गाँवों से अपना तबादला शहरों में कराने की जोड़-तोड़ करते रहते हैं क्योंकि गाँवों में न तो उनका मन ही लगता है और न ही कोई सुविधाएँ ही प्राप्त होती है ।
शिक्षा के क्षेत्र में ग्रामीणों की दशा बहुत दयनीय है । प्राइमरी स्कूलों की खस्ता हालत देखकर बहुत दुख होता है । प्रत्येक गाँव के प्राइमरी स्कूल के कमरों में पंखों व बिजली की कोई व्यवस्था नहीं है । सफाई का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता है । स्कूल में पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, ज्यादातर स्कूलों के हैडपम्प खराब पड़े रहते हें क्योंकि कोई भी उनकी देखभाल पर ध्यान ही नहीं देता है ।
गाँवों के स्कूलों में शिक्षक प्राय: अनुपस्थित ही रहते हैं और यदि आते भी हैं तो पड़ाने के स्थान पर बातों में व्यस्त रहते है । इंटरकालेज केवल थोड़े बहुत गाँवों में ही होते हैं और इन कॉलेजों में शिक्षक शहर से पड़ाने आते है इसीलिए अधिकतर वे अनुपस्थित रहते हैं ।
गाँवों की सड़कें तथा गलियाँ टूटी फूटी होती है तथा उनकी मरम्मत के बारे में कोई भी नहीं सोचता । ऐसी टूटी-फूटी सड़कों पर जब बुग्गी, घोड़ा ताँगा, ट्रैक्टर आदि वाहन चलते हैं तो सड़के और भी टूट जाती है । टूटी-फूटी गलियों से गन्दा पानी बाहर बहता रहता है जिससे अनेक बीमारियों फैल जाती हैं ।
सड़कों पर ‘लाइट’ का तो नामोनिशान ही नहीं होता इसलिए थोड़ा सा भी अँधेरा होने पर आने-जाने में बहुत परेशानी होती है इसके अतिरिक्त राज्य सरकार द्वारा खोली गई राशन की दुकाने, डाकघर इत्यादि बन्द रहते हैं और जब खुलते है तो सामान ही उपलब्ध नहीं होता ।
इसके अतिरिक्त गाँव वालों को अपनी फसल बेचने में अत्यन्त कठिनाई होती है क्योंकि गाँवों से मण्डी दूर होती है । इसका पूरा लाभ भी किसानों को नहीं मिल पाता और सारा पैसा दलाल ही खा जाते हैं । ये दलाल गाँव के लोगों से कम मूल्य में अनाज खरीद लेते हैं और फिर बाजार में अच्छे पैसों में बेचकर खूब लाभ कमाते हैं ।
अब यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि जो दिन रात मेहनत करके, सूखे, बाढ़, वर्षा का कष्ट झेलकर फसल उगाता है, वही दुखी रहता है । अधिकतर गाँवों में संचार माध्यमों की भी बेहद दुर्व्यवस्था होती है । फोन लाइन ठीक से कार्य नहीं करती, खराब हो जाने पर कोई ठीक करने जल्दी से नहीं पहुँचता इसीलिए उनका शहरों से सम्पर्क टूट सा जाता है ।
गाँवों में एक ही सहकारी बैंक होता है, जिसके कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाते । वे तो शहरों की ओर भागते हैं तथा कोई भी कार्य मन लगाकर नहीं करते । इन सबके अतिरिक्त गाँवों की दुर्दशा का मुख्य कारण अशिक्षा, कुसंस्कार, रुढिवादिता आदि भी है । आज भी ग्रामीण लोग बुरी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं, अंधविश्वासों से घिरे हुए हैं । बाल-विवाह, बेमेल विवाह भी गाँवों की मुख्य समस्याएँ हैं ।
समस्याओं का निवारण करने के उपाय:
प्रत्येक समस्या का समाधान होता है, बशर्ते हम दिल से उसका हल ढूँढ़कर उस पर अमल करें । सर्वप्रथम राज्य सरकारों की ओर से गाँवों की प्रगति तथा विकास के लिए जो भी नियम या संस्थाएं बनाई जा रही हैं वे ठीक से कार्य करती है या नहीं यह देखना बहुत जरूरी है ।
दूसरी ओर ग्रामीणों को स्वयं भी जागरुक होने की आवश्यकता है । आज वे भी टेलीविजन देखते हैं, रेडियो सुनते है तो उन्हें भी अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए तथा अंधविश्वासों से बाहर निकलकर अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के बारे में सोचना चाहिए ।
उपसंहार:
निष्कर्ष रूप से हम कह सकते हैं कि आज ‘हिन्दुस्तान’ बदल रहा है, गाँव भी पहले से अधिक विकसित हो रहे हैं, सरकार की ओर से भी ठोस कदम उठाए जा रहे हैं, किन्तु इतने ज्यादा गाँवों का सुधार करने के लिए हमें और भी अधिक प्रयत्न करने होंगे, तभी हमारा देश सही अर्थों में उन्नत तथा विकासशील देश कहला सकेगा ।
Essay 14
महंगाई की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problems of Rising Prices (Dearness) in Hindi
प्रस्तावना:
जीवनयापन के लिए प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा तथा मकान जैसी मूल- आवश्यकताओं को जुटाने के लिए खेती, व्यापार, नौकरी आदि किसी न किसी आजीविका में लगना ही पड़ता है ।
पैसा कमाकर वह अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरी करता है और यदि पैसा शेष बचता है तो अन्य सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है । हर मनुष्य चाहता है कि उसे ‘आज’ जो सुविधा जिस मूल्य दर उपलब्ध हो रही है, ‘कल’ भी उससे अधिक मूल्य न देना पड़े, किन्तु यदि इन ‘मूल तथा अन्य सुविधाओं’ की पूर्ति माँग की तुलना में कम हो जाए तो दुलर्भता के कारण इनका मूल्य बढ़ने लगता है ।
महँगाई का दुष्प्रभाव:
महँगाई के दुष्प्रभाव अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं । महंगाई के कारण मनुष्य को अपनी सारी मूल आवश्यकताएँ ही पूरी करने में अनेक परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं, ऐसे में सुख-सुविधाओं की पूर्ति तो सम्भव ही नहीं है ।
वेतनभोगी कर्मचारी महँगाई के प्रभाव को कम करने के लिए महँगाई भत्ते में वृद्धि की माँग करते हैं । यदा-कदा इन मँहगाई भत्तों में वृद्धि हो भी जाती है, किन्तु अत्यन्त आकर्षक लगने वाले वेतन भत्ते पाने वाले मध्यम एवं निम्न-वर्ग के वेतन भोगियों को तब भी कष्टों में जीवनयापन करना पड़ता है ।
असंगठित श्रामिक वर्ग की स्थिति तो और भी दयनीय होती है । उनका हाल तो यह होता है कि रोज कुँआ खोदकर प्यास बुझाओ । अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के पूरा न होने के कारण हर व्यक्ति में निराशा तथा हताशा पैदा होती है तथा विवश होकर वह अनैतिक तथा अवैध गतिविधियों की ओर उनुख होता हैं; जिससे घूसखोरी, जमाखोरी, कालाबजारी फैलती है । इन प्रवृत्तियों से समाज में असन्तोष बढ़ता है, बेरोजगारी बढ़ती है तथा विकास योजनाएँ भी रुक जाती हैं ।
बढ़ती महँगाई के प्रमुख कारण:
महँगाई वृद्धि के अनेक कारणों में आर्थिक कारण मुख्य है ।
आर्थिक कारणों के साथ-साथ राजनीतिक, सामाजिक तथा प्रशासनिक कारण भी महँगाई बढ़ाने में सहायक होते हैं जो इस प्रकार हैं:
1. सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र दोनों ही महँगाई बढ़ाने में लगे हुए हैं । कुछ अपवादों को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र में सभी उपक्रम घाटे में चल रहे हैं, जिसके कारण उत्पादन प्रभावित होता है, तथा मूल्यवृद्धि होती है । उधर निजी क्षेत्र निरन्तर घाटे की बात कहकर लाभ कमाने में लगे है, जिससे महँगाई बढ़ती है ।
2. जनसंख्या वृद्धि भी महंगाई बढ़ने का मुख्य कारण है । जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती है, वस्तुओं का उत्पादन तथा सेवाओं के अवसर उतनी तेजी से नहीं बढ़ते । परिणामस्वरूप माँग की अपेक्षा पूर्ति कम होने से मूल्य वृद्धि होती है ।
3. प्रजातन्त्र में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वोट प्राप्त करना होता है और यह रुपया नेता लोग पूँजीपतियों से ऐंठते हैं । किसी भी दल की सरकार बने, उसे पूँजीपतियों के व्यापारिक हितों का ध्यान रखना पड़ता है और पूँजीपति तब राजनीतिक दलों को दिए चन्दे के बदले मूल्य बढ़ाते हैं तब सरकार अनदेखी करती है । इस प्रकार मूलत: राजनीतिक चन्दों के कारण मूल्यवृद्धि होती है ।
4. कृषि उपज के लागत व्यय में वृद्धि होने से भी महँगाई बढ़ती है । विगत वर्षों में कृषि के काम आने वाली वस्तुओं जैसे बीज, खाद, उर्वरक, कृषि यन्त्र आदि में मूल्यवृद्धि हुई है, जिससे कृषि उपज की लागत बढ़ी है । भारत तो एक कृषि प्रधान देश है जहाँ की अधिकांश वस्तुओं का मूल्य कृषि पदार्थों के मूल्य से जुड़ा हुआ है, अत: कृषि जन्य पदार्थों के मूल्य बढ़ने से अन्य वस्तुओं के भी दाम बढ़ते हैं ।
5. जमाखोरी मूल्य वृद्धि का मूल कारण है । केवल व्यापारी ही नहीं, अपितु जमींदार एवं मध्यम किसान भी कृषि उपज को गोदामों में भरकर रखने लगे हैं, जिससे मूल्यवृद्धि होती है । त्योहारों के आस-पास ये लोग समान की कीमत मन मुताबिक बढ़ाकर बेचते हैं ।
6. मुद्रास्फीति होने पर भी मूल्यवृद्धि होती है । जब प्रचलन में मुद्रा का अधिक प्रसार होता है तब जो वस्तु पहले एक रुपए में आती थी वही महँगे दामों में खरीदनी पड़ती है ।
7. यातायात के समुचित साधनों के अभाव में भी मूल्य बढ़ते हैं । यातायात के साधन अपर्याप्त होने पर माल का एक स्थान से दूसरे स्थान तक परिवहन नहीं हो पाता तथा इस प्रकार पूर्ति कम होने पर मूल्य वृद्धि होती है ।
8. हड़ताल तथा ‘बन्द’ के कारण जब उत्पादन रुक जाता है तब पूर्ति प्रभावित होती है । सूखा, बाढ़, भूकम्प, अग्निकांड जैसी दैवीय आपदाओं से तथा दंगों जैसी मानवकृत विपदाओं से भी वस्तुओं तथा सेवाओं की पूर्ति में बाधा पड़ती है, जिससे मूल्यवृद्धि होती है ।
महँगाई रोकने के उपाय:
इस महँगाई रूपी दानव को बढ़ने से रोकने के लिए कठोर उपायों का प्रयोग होना चाहिए । इन उपायों में सरकार को सर्वप्रथम बढ़ती कीमतों पर नियन्त्रण लगाना होगा प्रत्येक वस्तु के दाम निश्चित करने होंगे । उत्पादन-कर लगाकर ही वस्तुएँ बाजार में आनी चाहिए ।
संग्रह करने वालो को दण्डित किया जाना चाहिए तथा उनका सामाजिक बहिष्कार भी होना चाहिए । जनता में राष्ट्रहित की भावना को बढ़ाना होगा, जिससे लोगों में निर्धनों के प्रति दया भावना पैदा होगी तथा वे कीमत बढ़ाने के बारे में नहीं सोचेंगे ।
इतने पर भी जो लोग चोरबाजारी, कालाबाजारी के माल को आयात करते हैं, उन्हें कठोर सजा मिलनी चाहिए । यद्यपि सरकार आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नियन्त्रण में रखती हैं तथा समय-समय पर उनके मूल्य में बढ़ोतरी स्वयं करती हैं, तब भी कीमतों में कमी नहीं होती है ।
यूँ तो विकासशील अर्थव्यवस्था में कीमते बढ़ती हैं तथापि जब वस्तुओं का उत्पादन बढ़ेगा तभी कीमतें कम होंगी । सरकार विदेशों से आयात किए जाने वाली जिस सामग्री पर नियन्त्रण लगा देगी, उसी की कीमत कम हो जाएगी ।
पदार्थो की वितरण व्यवस्था पर सरकारी नियन्त्रण होना चाहिए तथा इस व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाना चाहिए । जनता को भी जागरूक होने की आवश्यकता है । वे उस वस्तु को न खरीदे, जिनकी मूल्य वृद्धि हो रही है । जब खरीद हम होगी तो जमाखोर व्यापारी अपने आप ही चीजों की कीमतें कम कर देंगे ।
आवश्यकताओं को कम कर देने से वस्तुओं की कीमतें स्वत: ही कम हो जाती हैं । निजी बचतों को प्रोत्साहन देना भी मूल्यवृद्धि रोकने में सहायक होगा । जैसे यदि हम अपनी आय को वर्तमान में ही पूर्णत: न व्यय कर भविष्य के लिए बचत कर उसे राष्ट्रीयकृत बैंकों में जमा करेंगे तो एक ओर तो वर्तमान में माँग घटने से मूल्य कम होंगे तथा दूसरी ओर बैंकों में जमा धनराशि देश के विकास कार्यों में लगेगी, जिससे अधिक उत्पादन होने पर मूल्य घटने में सहायता मिलेगी ।
उपसंहार:
यदि उपर्युक्त सुझावों को ईमानदारी से व्यापारिक रूप दिया जाए तो मूल्यवृद्धि की समस्या से मुक्ति मिल सकती है । यदि मुल्य घटकर भूतकाल स्तर पर न भी पहुंचे तो भी कम से कम वर्तमान स्तर पर तो टिके ही रह सकेंगे । मूल्यों का वर्तमान स्तर पर ही निश्चित रहना महंगाई से त्रस्त समाज के लिए वरदान साबित होगा ।
Hindi Nibandh (Essay) # 14
सामाजिक समस्याएँ पर निबन्ध | Essay on Social Problems in Hindi
प्रस्तावना:
भारतवर्ष अनेक सामाजिक कुरीतियों का घर है । इन कुरीतियों ने पूरे देश को जर्जर कर रखा है । यद्यपि हमने अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए पूरी हिम्मत से अंग्रेजों का सामना किया तथा आजादी प्राप्त कर ली, परन्तु हमारी सामाजिक विषमताएँ आज भी वैसी ही है, जैसी दो सौ वर्ष पहले थी ।
इनमें से कुछ विषमताएँ अंग्रेजों की देन है, तो कुछ हमारे ही स्वार्थी धर्म के ठेकेदारों ने पैदा कर रखी है । एक समय ऐसा भी था जब हमारा देश, हमारा समाज विश्व के सर्वश्रेष्ठ समाजों में गिना जाता था तथा यहाँ की धरती धन-धान्य से परिपूर्ण थी । परन्तु आज तो अनगिनत समस्याएँ हमारे देश में अपनी जड़े जमा चुकी हैं ।
साम्प्रदायिकता की समस्या:
हमारे देश में अनेक धर्मों, जातियों, सम्प्रदायों के लोग रहते हैं । हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी सभी अपने अलग-अलग धर्मों को मानते हैं । हर क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय ‘भाषा’ बोली जाती है । खान-पान, रहन-सहन सभी में बहुत विविधता है इसीलिए विचारधाराएँ भी भिन्न-भिन्न है । पहले लोग दूसरे धर्म का सम्मान करते थे, परन्तु आज लोग धर्मांध हो चुके हैं ।
हर तरफ साम्प्रदायिकता का बोलबाला है । महाराष्ट्र के नेता चाहते हैं कि यहाँ के लोग केवल ‘मराठी’ भाषा बोले, अब ऐसे में दूसरे राज्यों से आए लोग तो अपनी स्थानीय भाषा ही बोलेंगे । ऐसी ही छोटी-छोटी बातों पर विशाल साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं तथा हमारे ही देश की जान व माल की क्षति हो रही है ।
नारी-समानता की समस्या:
हिन्दू समाज की सबसे प्रधान समस्या नारी सम्बन्धित है । यद्यपि भारतीय संविधान ने स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार दिए हैं, किन्तु वे केवल लिखित बातें बनकर रह गई हैं । आज भी नारी पिता, भाई, पति के हाथों का खिलौना है ।
आज भी हमारे समाज में पिता या भाई की इच्छा से ही लड़की को विवाह करना पड़ता है । उसे अपना जीवन साथी चुनने का कोई अधिकार नहीं है और यदि हिम्मत करके वह अपना मनपसन्द साथी चुन भी लेती है, तो भी उसे तिरस्कृत नजरों से देखा जाता है ।
आज भी नारी पति के दुराचार, अन्याय, अत्याचारों को एक मूक पशु की भाँति सहन करती है और यदि हिम्मत कर मुँह खोलती है तो उसे जलाकर मार दिया जाता है या आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया जाता है ।
विवाह सम्बन्धी समस्याएँ:
भारतीय समाज में 21 वीं शताब्दी में भी बाल-विवाह, मेल विवाह, दहेज-प्रथा, विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियाँ सर्वव्यापी हैं । दहेज की समस्या के कारण निर्धन माता-पिता अपनी कन्याओं को बोझ समझते हुए शा तो भूण में ही उनकी हत्या करवा देते हैं या फिर उनका बेमेल-विवाह कर देते हैं ।
सरकार की ओर से प्रतिबन्ध लगाए जाने के बावजूद भी दहेज-प्रथा जोरो पर है तभी तो अमीर लोग करोड़ों खर्च करके अपनी बेटियों की शादियाँ उच्च वर्ग के लड़के से कर देते हैं, परन्तु मध्यम वर्गीय तथा निम्नवर्गीय माता-पिता विवश होकर देखते रह जाते हैं ।
जात-पात की समस्या-जात-पात का भेदभाव भी आज की एक विषम समस्या है । आज भी दलितों तथा नीची जाति के लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है । हरिजनों को तो मन्दिर तक जाने की अनुमति नहीं है । न समाज में परस्पर प्रेम भावना है, न सहानुभूति ।
सभी एक दूसरे के खून के प्यासे बन चुके हैं । सामाजिक तथा सामूहिक हित की कोई बात भी नहीं करता । सभी अपनी ही जाति के उद्धार का ही कार्य करते हैं । नेता भी जिस जाति से सम्बन्ध रखते हैं, उसी जाति के उत्थान को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं ।
भ्रष्टाचार की समस्या:
आज हर तरफ भ्रष्टाचार दिखाई पड़ता है । कालाधन, काला बाजार, मुद्रा-स्फीति, महँगाई आदि सभी की जड़ भ्रष्टाचार ही तो है । सभी अपनी जेबे भरने में लगे हैं । सरकारी कर्मचारी हो या गैर सरकारी, अपने स्वार्थ के विषय में ही सोचता है ।
कोई भी देश की जनता का भला नहीं चाहता, बल्कि पद पर रहते हुए अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है । आज न्यायाधीश से लेकर निचले पद पर कार्यरत सिपाही तक घूसखोरी के धन्धे में माहिर है । बेचारा आम आदमी अपना कार्य करवाने के लिए रिश्वत मजबूरीवश देता ही है ।
विद्यार्थियों तथा युवाओं की समस्या:
आजकल युवाओं, विशेषकर विद्यार्थियों में फैलत । अनुशासनहीनता एक भयंकर समस्या बन चुकी है । आज के युवा में संयम, निष्ठा, त्याग, परिश्रम, अनुशासन, सत्यवादिता आदि गुण लगभग समाप्त हो चुके हैं । वह न तो माता-पिता तथा गुरुओं आदि का आदर करना जानता है, न ही छोटो से प्यार ।
नारी के लिए तो उसके मन में सम्मान ही नहीं है । तभी तो वह अपने परिवारजनों के लिए समस्या बन चुका है । इसके लिए आज की आधुनिकता, चलचित्र, दूषित शिक्षा प्रणाली आदि उत्तरदायी है । इन्हीं कारणों से उसमें असन्तोष पैदा हो रहा है और वह हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराध कर रहा है ।
इन सबके अतिरिक्त निरक्षरता, अज्ञान, निर्धरता, बेरोजगारी, छुआछूत आदि की समस्याएँ भी हमारे देश की जड़े खोखली कर रही है । वर्तमान समय से विद्यालयों में रैगिंग, परीक्षाओं में नकल, शिक्षण-संस्थाओं में दादागिरी भी ज्वलन्त समस्याएँ बन चुकी है । कुर्सीवाद की समस्या हमारी ऐसी समस्या है, जिससे भ्रष्ट राजनीति का जन्म होता है । यह न केवल समाज, अपितु पूरे राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जा रही है ।
उपसंहार:
समस्याएँ तो अनगिनत हैं, परन्तु उनका समाधान भी हो सकता है यदि हम सभी मिल जुलकर इस दिशा में प्रयत्न करे । हम सभी को इन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए भरसक प्रयत्न करने होगे, जिससे कि समाज का अहित न हो सके ।
हमारी राष्ट्रीय सरकार भी इन सामाजिक विषमताओं को समूल नष्ट करने के लिए प्रयासरत है । इनका निबटारा करने पर ही हमारा देश उन्नत राष्ट्र कहला सकेगा ।
Hindi Nibandh (Essay) # 15
सूखे की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Drought in Hindi
प्रस्तावना:
मनुष्य सदियों से प्रकृति के प्रकोपो पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता आ रहा है, लेकिन किसी न किसी रूप में प्रकृति अपना वर्चस्व कायम किए हुए है । ‘सूखा’ अर्थात् ‘जल की कमी’ भी ‘बाढ़’ अर्थात् ‘जल प्रलय’ की ही भाँति बहुत भयंकर है ।
सूखा का अर्थ तथा प्रकार:
जब किसी क्षेत्र में काफी लम्बे समय तक वर्षा नहीं पड़ती तथा अकाल की सी स्थिति पैदा हो जाती है, तो उसे ‘सूखा’ कहते हैं । सूखे का मुख्य कारण जल का अभाव हो जाना है । भारत का लगभग 15% भाग सूखा ग्रस्त है । सूखा तीन प्रकार का होता है- मौसमी सूखा, जलीय सूखा तथा कृषि सूखा । जब काफी लम्बे समय तक वर्षा न हो तो उसे ‘मौसमी सूखा’ कहते हैं ।
हमारे देश में 10% से अधिक मानसूखी वर्षा अत्यधिक वर्षा कहलाती है तथा बाढ़ का संकट लेकर आती है । जब वर्षा 10% के आस-पास होती है तो उसे सामान्य वर्षा तथा जब 10% से बहुत कम वर्षा होती है तो वह अपर्याप्त वर्षा मानी जाती है । जब मानव के जीवनयापन के लिए भी पानी न हो, तभी सूखे की स्थिति पैदा होती है ।
जब भूमिगत जल का स्तर तीव्रगति से घटने लगता है, नदी, नहरे, तालाब, आदि सूखने लगते हैं, तब उसे व्जतीय सूझा कहा जाता है । जलीय सूखा के दौरान दैनिक कार्यों तथा कृषि कार्यों तथा उद्योगों के लिए भी पानी नहीं मिल पाता है ।
‘अकालहू’ अपना ‘कृषि सूखा’ तब आता है, जब मिट्टी की नमी भी सूखने लगती है तथा खेतों में दरारे पड़ जाती है । ऐसे सूखे के समय किसानों की बोई हुई फसले भी पानी की कमी के कारण बढ़ नहीं पाती है तथा किसान दाने-दाने के लिए मोहताज होने लगते हैं ।
अकाल की स्थिति में किसान अपने परिवारजनों के साथ अपने खेतों को छोड़कर भोजन की तलाश मे शहरों की ओर दौड़ते हैं । सूखे के तीनों प्रकार यूँ तो एक दूसरे से भिन्न है, किन्तु यदि मौसमी व जलीय सूखा न पड़े तो कृषि सूखा भी नहीं पड़ेगा क्योंकि कृषि के लिए पर्याप्त जल तो मानसून की वर्षा सै ही प्राप्त होता है ।
सूखा मापने का पैमाना:
सूखे की स्थिति को सही रूप से नापने के लिए एक इण्डेक्स का प्रयोग किया जाता है, जिसे ‘पॉकर डाट सिक्योरिटी इण्डेक्स’ कहते हैं । इस इण्डेक्स की परास +6 (सामान्य से अधिक वर्षा) से -6 (अत्यधिक सूखे की स्थिति) के बिना होती हैं ।
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसकी 70% से अधिक जनसंख्या गाँवो में ही रहती हैं ऋररे भारत देश में लगभग, 5,55,137 गाँव है, जिनमें से 2,31,000 गाँव किसी न किसी समस्या से जूझ रहे है । भारत का लगभग 16% भाग सूखा ग्रस्त घोषित किया जा चुका है ।
सूखे से निपटने के उपाय:
भारत में सूखे की समस्या से निपटने के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे है । भारत सरकार की ओर से अपने यहाँ सिंचाई एवं जल संसाधन मन्त्रालय स्थापित कर रखे हैं इसके अतिरिक्त सभी राज्यों के भी अपने अपने सिंचाई विभाग है जो सिंचाई के साधनों का प्रसार कर रहे हैं ।
वर्षा की कमी से होने वाले सूखे को हम रोक तो नहीं सकते, परन्तु सिंचाई-साधनों के प्रचार-प्रसार में सूखे के द्रव्यमान को कम अवश्य ही किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त पूरे देश में जगह-जगह बाँधों व नदी घाटी परियाजनाओं की स्थापना की गई है ।
भाखडा नांगल परियोजना, हिन्द बाँध परियोजना, हीराकुण्ड योजना, दामोदर घाटी परियोजना आदि की बड़ी नदी घाटी परियोजनाएँ ऐसी है, जिनके द्वारा लाखों हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई कार्य होता है तथा विधुत उत्पादन होता है ।
सूखे से होने वाली हानियाँ:
सूखे से हर तरफ भूखमरी फैल जाती है, क्योंकि जब खेती बरवाद हो जाती है, तो देश का सारा खाद्यान्न समाप्त होने लगता है । लोगों से रोजगार छिन जाते हैं तथा गाँवों में अनाज, दालो, तिलहन आदि का उत्पादन समाप्त हो जाता है । कितने ही लोग मौत का ग्रास बन जाते हैं ।
सूखे से सबसे अधिक नुकसान मवेशियों को होता है क्योंकि आदमी तो शहर में जाकर काम कर सकते हैं, किन्तु मवेशी का क्या किया जाए ? जब इन्सानों को ही खाने के लिए मिलना मुश्किल हो जाता है तो मवेशियों की देखभाल कैसे हो ? सूखे के पश्चात् अनेक बीमारियाँ फैल जाती है ऐसे में पैसे के अभाव में इलाज भी नहीं हो पाता तथा हजारों लोग मर जाते हैं ।
उपसंहार:
सूखे की समस्या भूमिगत जल का अत्यधिक प्रयोग करने से, भू-कटाव तथा वनो के अत्यधिक कटाव से भी पैदा होती है । हमें इन कारणों को समाप्त करने के प्रयास करने चाहिए तथा सिंचाई के साधनों में बढ़ावा लाना चाहिए ।
यदि फिर भी यह त्रासदी हो भी जाए तो सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में जाकर सहायता तथा राहत सामग्री पहुँचानी चाहिए तथा उन्हें दवाईयाँ आदि वितरित करनी चाहिए । मुसीबत के समय में ही सच्ची मानवता की पहचान होती है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 16
बाढ़ (जल-प्रलय): पकृति का क्रूर-परिहास पर निबन्ध | Essay on Flood : Cruel Joke of Nature in Hindi
प्रस्तावना:
ईश्वर की कृपा अपरम्पार है । प्रकृति के रूप में ईश्वर कभी अपना जीवनदायी रूप दिखाता है तो कभी बेहद भयंकर रूप देखने को मिलता है ।
यदि साल भर की छ: सुन्दर ऋतुएँ हमें भरपूर आनन्द तथा सुख देती है, तो दूसरी ओर भूकम्प, दुर्भिक्ष, चक्रवात, महामारी, बाढ़ आदि आपदाएँ ईश्वर के कोप तथा विनाश के परिचायक हैं । विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कार भी इन प्रकोपों के समक्ष घुटने टेक देते हैं ।
बाढ़ भी अत्यन्त विनाशलीला साथ लेकर आती है क्योंकि ‘बाढ़’ अर्थात् ‘जल-प्रलय’ जल का विनाशकारी रूप है । अत्यधिक वर्षा के कारण जब पृथ्वी की जल सोखने की शक्ति समाप्त हो जाती है, तो उसकी परिणति बाढ़ में होती है ।
नदी-नाले, जलाशय, सरोवरों का जल अपने तट-बन्धनो को तोड़कर बस्तियों के अन्दर तक पहुँचने लगता है । जल की निकासी न हो पाने के कारण हर तरफ जल ही जल दिखाई पड़ने लगता है तब वह बाढ़ का रूप धारण कर लेता है ।
बाढ़ के कारण:
प्रत्येक प्राकृतिक प्रकोप मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण ही प्रकट होता है । नदी तटो के निकट भूमि का कृषि तथा आवासीय उपयोग के कारण जल क्षेत्र कम हो रहा है । मानसून में अधिक बारिश तथा पहाड़ों पर बर्फ पिघलने पर नदियाँ उग्र रूप धारण कर लेती हैं ।
जब नदियों का जल-स्तर तथा वेग इतना तीव्र हो जाता है कि कोई भी अवरोध उसे रोक नहीं पाता है, तब सभी तटबन्धन टूट जाते हैं तथा प्रलयकारी जल अपने साथ सब कुछ बहाकर ले जाता है । यह तो बाढ़ आने का प्राकृतिक रूप हैं परन्तु बाढ़ का दूसरा कारण अप्राकृतिक भी है ।
यदि कभी किसी समय नदी या बाँधों आदि में दरारें पड़कर वे टूट जाते हैं तो वहाँ चारों ओर जल-प्रलय का सा दृश्य उपस्थित हो जाता है । परन्तु प्राकृतिक या अप्राकृतिक दोनों कारणों से आयी बाढ़ प्रलयकारी ही होती है ।
बाढ़ के दुष्परिणाम:
बाढ़ के साथ जब तेज हवाएँ भी चलने लगती हैं तो वह तूफान कहलाता है । यह एक भयंकर जल-प्रलय होता है, जो अपने साथ पूरे के पूरे गाँव तक बहाकर ले जाता है । बाढ़ का दृश्य बेहद मार्मिक, वीभत्स तथा कारुणिक होता है, जो मनुष्य की चिर-संचित तथा अर्जित पूँजी को अपने साथ समेट लेता है ।
विधुत, जल, टेलीफोन, चिकित्सा, दूरसंचार जैसी व्यवस्थाएं तहस-नहस हो जाती है । हर ओर स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ी के रोने के आवाजे सुनाई पड़ती है । उनके रहने के लिए घर नहीं बचता, खाने के लिए रोटी नहीं होती, तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं होते, ऊपर से सारी जमा-पूँजी भी बह चुकी होती है ।
हर तरफ ‘हाहाकार’ तथा ‘मातम’ छाया रहता है । बाढ़ के इसी प्रलयकारी दृश्य का वर्णन महाकवि ‘जयशंकर प्रसाद’ ने ‘कामायनी’ में इस प्रकार किया है:
”वे सब डूबे डूबा, उनका विभव, बन गया पारावार । उमड़ रहा है देव सुखो पर दुःख जलधि का नाद अपार ।। ”
बाढ़ के बाद का दृश्य तो और भी भयंकर होता है । दूर-दूर तक जल ही जल दिखाई पड़ता है तथा मक्खी, मच्छर, कीड़े-मकौड़े उस जल पर तैरते रहते हैं । बिजली के खम्भे तथा सड़कों के किनारे खड़े पेड़ झुक जाते हैं ।
जगह-जगह कारे, बस, रेलगाड़ी, आदि यातायात के साधन पानी के बीच फँसे हुए दिखाई पड़ते हैं । बाढ़ के पश्चात् कुओं में बाढ़ का पानी भर जाने व गठ्ठों में पानी व घास सड़ जाने से अनेक जानलेवा बीमारियाँ फैल जाती है ।
लोगों के पास इन बीमारियों के इलाज के लिए न धन बचता है, न साधन । किसान भूमिहीन हो जाते हैं, यहाँ तक कि बड़े-बड़े धनी लोग भी सड़कों पर आ जाते हैं । भूमि इस योग्य नहीं बचती कि उसमें अगली फसल पैदा की जा सके ।
भूमि के ऊपर नदियों की रेत बिछ जाने के कारण भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाती है । दूषित जल पीने से हैजा, आन्त्रशोध जैसी बीमारियाँ फैलना आम बात है ।
बाढ़ की कुछ मुख्य घटनाएँ:
सन् 1978 में दिल्ली में आई बाढ़ ने 100 वर्ष पुराना रिकार्ड तोड़ दिया था । इस बाढ़ के कारण अपार जान-माल की क्षति हुई थी । इसके अतिरिक्त सन् 1975 में पटना की बाढ़ तथा 1978 की उत्तर प्रदेश, बिहार एवं अन्य प्रदेशों में आई हुई चाहे इस प्रलय की साक्षी बन चुकी है ।
सन् 2008 के अगस्त के महीने में एक भयंकर बाढ़ बिहार राज्य में आ चुकी है । यह बाढ़ पिछले वर्षों की सबसे भयंकर बाढ़ साबित हुई है । इस बाढ़ की चपेट में जो भाग सबसे अधिक आए थे वे थे मेधापुरा’, ‘भागलपुर’, ‘अररिया’ तथा ‘चम्पारन’
इस बाढ़ की चपेट में कितने लोग आए इसके बारे में तो कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता । गाँव वालों ने ऐसे भयंकर समय में गन्दे पानी में कच्चे चावल मिलाकर खाए और प्रकृति के प्रकोप को झेला था ।
हाल के वर्षों में चीन देश में आयी बाढ़ के बाद भारत के उड़ीसा प्रदेश की बाढ़ तथा तूफान भी बेहद विनाशकारी थे ।
बाढ़ के समय बचाव व राहत कार्य:
बाढ़ जैसी विपत्ति के समय में विचित्र मेल तथा सद्भाव दिखाई पड़ती है । पुराने शत्रु भी मिलकर एक दूसरे का दुख बोटने लगते है । एक ही वृक्ष पर जल से भयभीत सर्प तथा मानव दोनों बैठ जाते है । अनेक सरकारी तथा निजी संस्थाएँ राहत सामग्री जुटाने में लग जाती है । खाद्य सामग्री, दवाईयाँ वस्त्र आदि भेजे जाते हैं । ऐसे समय में कुछ स्वार्थी लोग बीच में ही सारा सामान खा जाते हैं तथा जरूरतमन्दों को यह सामान नहीं मिल पाता है ।
कुछ लोग तो इतने गिर जाते हैं कि बाढ़ग्रस्त इलाकों में चोरी आदि करने से भी पीछे नहीं रहते है । बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के आस-पास जहाँ निराश्रित बाढ़ पीड़ित लोग शिविर आदि डाले होते हैं, वहाँ जीवनोपयोगी वस्तुएँ मँहगे दामों पर बेचते हैं ।
परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हें जो संकट के समय में पूरे तन-मन-धन से सेवा कार्य करते हैं । ऐसे लोगों की मदद तथा सद्भावना के बल पर ही गिरे हुए लोग दोबारा उठकर खड़े हो पाते हैं ।
Hindi Nibandh (Essay) # 17
भूकम्प: एक भयानक प्राकृतिक प्रकोप पर निबन्ध | Essay on Earthquake : A Natures Terrible Wrath in Hindi
प्रस्तावना:
प्रकृति प्रभु की रचना होने के कारण अजेय है । आदि मानव आदिकाल से ही प्रकृति की शक्तियों जैसे-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिमपात, भूकम्प आदि के साथ संघर्ष करता आया है ।
उसने अपनी बुद्धि, हिम्मत एवं शक्ति के बल पर प्रकृति के अनेक रहस्यों का उद्घाटन तो कर दिया है, परन्तु प्रकृति की इन शक्तियों पर आज भी वह अपना अधिकार नहीं जमा पाया है । प्रकृति अनेक रूपों में हमारे समक्ष आती है । यह कभी अपना सुखदायी तथा कोमल पहलू दिखाकर हमें आनन्दमय कर देती है, तो कभी इतने भयानक रूप में प्रस्तुत होती है कि मनुष्य तो क्या, धरती-अम्बर, जल-थल सब धाराशयी हो जाते है ।
भूकम्प का अर्थ:
भूकम्प शब्द का अर्थ होता है- ‘भूमि का हिलना’ अर्थात् ‘कम्पन करना’ । पृथ्वी एक गतिशील पिण्ड है, जिसमें लगातार कम्पन होते रहते हैं । इस प्रकार के कम्पन का मानव जीवन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब पूछी के ऊपरी भाग में भी कम्पन होने लगता है तो उसे ‘भूकम्प’ कहा जाता है । महाकवि ‘जयशंकर प्रसाद जी’ ने प्रकृति के इस भयंकर प्रकोप का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
”हाहाकार हुआ क्रन्दनमय कठिन कुलिश होते थे चूर । हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था क्रुर ।।”
भूकम्प के कारण:
भूकम्प आने के अनेक कारणों में से कुछ प्राकृत्रिक कारण हैं । इनमें से दो मुख्य कारण हैं ।
(1) विवर्तनिक कारण (2) अविवर्तनिक कारण विवर्तनिक कारण के अनुसार पृथ्वी के दाव के कारण भूकम्प आता है । पृथ्वी का दाब सर्वत्र एक समान न होकर भिन्न-भिन्न है । पृथ्वी के भीतर अधिक गहराई पर तापमान तथा दाब बहुत अधिक है तथा कहीं एकदम कम है ।
जहाँ पर दाब अधिक है, वह कभी न कभी बहुत बढ़ जाता है, जिससे पृथ्वी के भीतर स्थित चट्टाने हिलने-डुलने के कारण मुड़कर टूटने लगती है । इसका प्रभाव ऊपरी चट्टानो, पर भी पड़ने लगता है । फलस्वरूप चट्टाने सरकने लगती हैं तथा कभी-कभी आपस में टकरा भी जाती है, जिससे भूकम्प आते हैं ।
अविवर्तनिक कारण के अनुसार जब ज्चालामुखी के उद्गार निकलते हैं तब भी भू-पटल पर कम्पन होते हैं । इसके अतिरिक्त चट्टानों के खिसकने, बम फटने, भारी वाहनों एवं रेलगाड़ियों आदि के तीव्र गति से चलने पर भी कम्पन पैदा होते हैं परन्तु इस प्रकार के कम्पन साधारण किस्म के होते हैं ।
इसके अतिरिक्त कुछ धर्म भीरु लोग भूकम्प को प्राकृतिक प्रकोप मानते हुए मनुष्य के दुष्कर्मों को इसका कारण मानते हैं । पृथ्वी के किसी भाग पर जब अत्याचार तथा अनाचार हद से अधिक बढ़ जाते हैं, वो उस भाग में देवी-देवता अपना प्रकोप ‘भूकम्प’ के रूप में प्रकट करते हैं ।
अर्थशास्त्रियों का मत है कि जब पृथ्वी पर बोझ जरूरत से अधिक बढ़ जाता है तो प्रकृति उसे सन्तुलित करने के लिए भूकम्प पैदा करती है ।
भूकम्प के दुष्परिणाम:
भूकम्प का कारण चाहे जो की हो परन्तु इसका अन्त विनाश में ही होता है । हमारे सम्मुख अनेक ऐसे उदाहरण है जिनसे भूकम्प के दुष्परिणामों का पता चलता है । सन् 1935 में क्वेटा ने भूकम्प का प्रलयकारी नृत्य देखा था ।
देखते ही देखते एक सुन्दर शहर तहस-नहस हो गया था । क्षण भर में अनगिनत लोग मौत के मुँह में चले गए थे । जापान में तो इस प्रकार के भूकम्प अक्सर आते ही रहते हैं इसीलिए तो वहाँ के लोग लकड़ियों के घर बनाते है, जिससे नुक्सान कम हो । 20 अक्तूबर, 1991 को उत्तरकाशी में जो भूकम्प आया था, वह इतना तीव्रगामी था कि उससे निकली ऊर्जा जापान के हिरोशिमा पर गिराए गए तीस अणु बमों से निकलने वाली ऊर्जा के समान थी ।
लगभग 46 सेकेंड तक आए इस भूकम्प की तीव्रता रिएक्टर पैमाने पर 61 थी जो कि 330 किलो टन परमाणु विस्फोट से भी अधिक थी । अनगिनत लोग तबाह हो गए थे, उत्तरकाशी तथा भटवाडा के मध्य भागीरथी नदी पर बने पुल भी धाराशायी हो गए थे ।
एक अन्य भूकम्प 1993 में महाराष्ट्र में आया था । इस भूकम्प का मुख्य केन्द्र बिनु महाराष्ट्र के लाटूर तथा उस्मानाबाद जिले के उमरगा तथा किल्लारीतालुका कस्वे बने थे जहाँ सब कुछ समाप्त हो गया था । यह भीषण भूकम्प बीसवीं सदी की सबसे दर्दनाक घटना थी जिसने महाराष्ट्र में हाहाकार मचा दिया था ।
कितने ही लोग मर गए तथा कितने ही अपाहिज हो गए थे । इसके पश्चात् 26 जनवरी 2001 को प्रात: 9 बजे गुजरात के ‘भुज’ क्षेत्र में बहुत तीव्र भूकम्प आया था तथा फिर वही जान-माल की हानि का भयंकर मंजर देखने को मिला था । इसके पश्चात् भी अनेक भूकम्प आ चुके हैं तथा हम सभी लाचार तथा बेबस होकर प्रकृति के इस कुरुप पहलू को देखते रहते हैं ।
भूकम्प तथा समाज सेवी संस्थाएँ:
किसी भी त्रासदी के समय इन्सान को इन्सान की ही आवश्यकता होती है । भूकम्प जैसे भयावह समय में भी, जब अनगिनत पशु तथा मानव काल के ग्रास बनने की स्थिति में’ होते है उस समय वहाँ सरकारी तथा गैर-सरकारी स्वयं सेवी संस्थाएँ राहत कार्यों में जुट जाती हैं ।
ये संस्थाएँ भूकम्प-पीड़ितों को राहत-सामग्री जैसे भोजन, दवाईयों, कपड़े, पैसा इत्यादि उपलब्ध कराती है । आजकल ‘प्रधानमन्त्री राहत कोष’ के माध्यम से भी भूकम्प-पीड़ितो की सहायता की जाती है । स्कूलों तथा अन्य शिक्षण-संस्थाएँ भी हर सम्भव सहायता करती है । आवश्यकता पड़ने पर विदेशों से भी सभी प्रकार की सहायता पहुँचाई जाती है ।
उपसंहार:
निःसन्देह भूकम्प एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जो इस वैज्ञानिक मानव की अद्भुत शक्ति को अपने प्रलयकारी शक्तियों एवं प्रभावों से चुनौती देने में हर प्रकार से सफल रही है । यह आपदा हमें यह सबक देती है कि मानव चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, ईश्वर के हाथों में तो वह खिलौना मात्र है इसलिए हमें प्राकृतिक शक्तियों के प्रभावों को स्वीकारते हुए उससे वचने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सदा हम पर अपनी कृपा बनाए रखे तथा ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से हमारी रक्षा करें ।
Hindi Nibandh (Essay) # 18
भिक्षावृत्ति: एक अभिशाप पर निबन्ध | Essay on Begging : A Curse in Hindi
प्रस्तावना:
भीख माँगना एक कला है जिसमें निपुण होने के लिए अभ्यास बहुत आवश्यक है । भीख माँगने के अनेक तरीके हैं जैसे-रोकर भीख माँगना, हँसकर भीख माँगना, पागलों वाली हरकत करके भीख माँगना, आँखें दिखाकर भीख माँगना इत्यादि । इन सभी में भीख पाने का सबसे साधारण तरीका दाता के मन में करुणा पैदा करना है ।
हम भारतीय तो वैसे भी ज्यादा ही कोमल हृदय होते हैं तथा किसी का दुख हमसे देखा नहीं जाता । दूसरी ओर हमारे देश में दान पुण्य को जीवन मुक्ति का मार्ग बताया गया है । अत: हमारे समाज में भिक्षावृत्ति की समस्या तथाकथित दयालु तथा धर्मात्मा लोगों की देन है ।
भिक्षावृत्ति का अर्थ:
भिक्षावृत्ति का शाब्दिक अर्थ है ‘भीख माँगने’ की प्रवृत्ति अर्थात् भीख माँगकर जीवनयापन करना भिक्षावृत्ति कहलाता है । भिक्षावृति का सहारा लेने वालों में न मान-सम्मान होता है, न पुरुषत्व और न ही पुरुषार्थ । भिक्षावृत्ति के लिए लोगों के सामने गिड़गिड़ाना, हाथ फैलाना, झूठे सच्चे बहाने बनाकर स्वयं को दीन-हीन दिखाना कोई आसान काम नहीं है । यह काम एक बेहया या बेशर्म व्यक्ति ही कर सकता है या फिर यह कहे कि हीन मनोवृत्ति के लोग ही भीख माँग सकते हैं ।
भिक्षावृत्ति का इतिहास:
हमारे देश में भिक्षा का इतिहास बेहद पुराना है । प्राचीन काल में भिक्षावृति तथा भिक्षा देने का कार्य पुण्य माना जाता था । लोगों का मानना था कि कोई भी अपने दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए । इसका प्रमाण तो रामायण में भी मिलता है, जब सीता माता भिखारी के वेश में आए रावण को दान देने के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ तक पार कर गई थी ।
ऋषि मुनियों के आश्रम में ब्रह्मचारी तथा संन्यासी भीख माँगकर ही जीवनयापन करते थे तथा जिसके यहाँ भीख माँगने कोई भी आता था वह स्वयं को धन्य समझता था । अध्ययनशील विद्यार्थी को भिक्षा देना अथवा लेना इसलिए उचित समझा जाता था क्योंकि विधाध्ययन के पश्चात् वह देश की सेवा करेगा । समय प्से बदलाव के साथ हमारे देश में मुगलों का शासन स्थापित हुआ ।
मुगलों ने भारतवासियों को लूटा तथा उन्हें निर्धन बना दिया । ऐसी परिस्थितियों में लोगों ने भिक्षावृत्ति को पेट पालने का जरिया बना लिया । इसके पश्चात् हमारे देश पर अंग्रेजों ने शासन किया । उनके शासनकाल में जो व्यक्ति मेहनती तथा परिश्रमी थे तथा जिनमें चाटुकारिता की विधा मौजूद थी, उन्होंने अंग्रेजी की नौकरी करके जीवनयापन किया, परन्तु जो हाथ-पैर नहीं हिलाना चाहते थे उन्होंने भिक्षा माँगना ही अपना पेशा बना लिया ।
वैसे अंग्रेजों के समय में भिक्षावृत्ति बहुत कम थी क्योंकि अंग्रेज इसके सख्त विरोधी थे । इसके पश्चात् सन् 1947 में हमारा देश आजाद तो हो गया, परन्तु अंग्रेज जाते-जाते ‘भारत को सोने की चिड़िया’ के स्थान पर निर्धनता का वस्त्र पहना गए ।
वे यहाँ से जाते-जाते धन-सम्पत्ति सब कुछ लूटकर ले गए । भारत पर अरबों रुपयों का विदेशी ऋण हो गया । बहुत अधिक जनसंख्या बेरोजगार हो गई, ऊपर से प्रकृति की मार अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि ने प्रलयकारी दृश्य उत्पन्न कर दिया ।
परिणामस्वरूप मेहनत-मजदूरी करके रोटी कमानेवाला इन्सान भी सड़क पर आ गया तथा कटोरा लेकर मजबूरी में भीख माँगने लगा । धीरे-धीरे हमारी अर्थव्यवस्था सुधरने लगी परन्तु निकम्मे किस्म के लोगों ने फिर भी भिक्षावृति का दामन नहीं छोड़ा ।
भिखारियों के प्रकार:
भिखारी अनेक प्रकार के होते हैं । एक तो जन्मजात भिखारी होते हैं अर्थात् जो बच्चे भिखारी के यहाँ जन्म लेते हैं वे आगे चलकर भिखारी ही बनते हैं । इस प्रकार भिखारियों की संख्या बढ़ती जाती है ।
कुछ भिखारी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के होते हैं, जो देश में छोटी सी विपत्ति आ जाने पर भी कटोरा लेकर भीख माँगने निकल पड़ते हैं ।
तीसरे प्रकार के भिखारी वे होते हैं जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं या फिर किसी विशेष बीमारी के शिकार होते हैं । अब ऐसे में वे कोई काम तो कर नहीं सकते इसलिए भीख माँगकर ही गुजारा करते हैं ।
चौथे प्रकार के भिखारी वे होते हैं जो वृद्ध समर्थ परिवार से सम्बन्ध रखते हुए भी अपने प्रियजनों द्वारा परित्यक्त कर दिए जाते हैं । इनमें से कुछ मजबूरीवश भिक्षावृत्ति अपनाने लगते हैं ।
अब भिक्षा लेने वाला चाहे किसी भी श्रेणी का क्यों न हो, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण विषय
है । आजकल तो भिखारियों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हो रही है तभी तो चप्पे-चप्पे पर चाहे रेलवे स्टेशन हो या बस स्टॉप, बाजार, गलियों, घरों, लाल बत्तियों, मेलों-खेलों, शादी-ब्याह सभी जगह भिखारी दिखाई पड़ते हैं ।
आजकल कुछ खाते-पीते व्यक्ति भी भिखारी का रूप धारण करके दया-करुणा का लाभ उठाकर मुफा में धन एकत्रित करके मौज-मस्ती करते हैं, नशा, चरस, गाँजा आदि पीते हैं साथ ही भिक्षा न देने वाले को गालियाँ, बददुआ भी देते हैं, साथ ही लूटपाट भी करते हैं ।
एक अन्य श्रेणी उन भिखारियों की भी होती है जो अपने घर से भागकर पेशेवर गुंडों या माफिया गिरोहों के चक्कर मे फँसकर भिखारी बना दिए जाते हैं । इनका बहुत शोषण किया जाता है, हाथ-पैर काट दिए जाते हैं साथ ही भिक्षा माँगने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है । आजकल इस प्रकार के भिखारियों की संख्या बहुत अधिक है । इन सबके अतिरिक्त भी भीख माँगने के नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं ।
भिक्षावृत्ति रोकने के उपाय:
किसी भी समस्या के कारण बताने के स्थान पर उसका समाधान ढूँढ़ना अधिक उघवश्यक हैट्ट । भिक्षावृत्ति को रोकने के भी कारण खोजने होंगे । वैसे हमारे यहाँ यह कार्य बहुत कठिन है क्योंकि यहीं के लोग धर्मभीरु हैं । वे किसी को खाली हाथ लौटाकर अपने ऊपर पाप नहीं चढ़ाना चाहते या फिर वे यह भी सोचते हैं कि दो-चार रुपए देने से क्या फर्क पड़ जाएगा ।
बस यही रवैया भिक्षावृत्ति को बढ़ावा दे रहा है । अत: इसको रोकने के लिए सबसे पहले भिक्षावृत्ति को दण्डनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए । भिसुओं को पकड़कर उनकी जाँच-पड़ताल करनी होगी । शारीरिक रूप से स्वस्थ भिखारियों के लिए कार्य का प्रावधान करना होगा । शारीरिक रूप से अपंग भिखारियों को भी उनकी सामर्थ्य के अनुसार कार्य देने होंगे । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि हमें अपने ऊपर भी रोक लगानी होगी ।
हमें स्वयं से दृढ़-निश्चय करना होगा कि हम किसी को भी भीख नहीं देंगे वरन् उसे कोई कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे । प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना होगा कि तन्दुरुस्त व्यक्ति को भीख देना पुण्य नहीं पाप है । हम भीख देकर उस व्यक्ति को अकर्मण्य बना रहे हैं तथा समाज में कोढू फैला रहे हैं ।
विद्वानों का कहना है कि दान भी पात्र देखकर देना चाहिए । आदि दान देना ही है तो गरीबों के बच्चों को पढ़ाओ, अनाथ असहायों को भोजन करवाओ या फिर किसी भूखे-लाचार को दान दो । कर्महीन मनुष्य भिक्षा या दान का अधिकारी नहीं हो सकता ।
उपसंहार:
जहाँ आज एक ओर हमारा देश प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के शिखर हैं, वहीं दूसरी ओर कर्महीन मनुष्यों की भी कमी नहीं है, जो दूसरों के आगे हाथ फैलाकर अपना जीवनयापन करते हैं । यह सब देखकर दूसरे देश हमारा मजाक बनाते हैं । हमें दूसरे राष्ट्रों की नजरों में ऊपर उठना है, न ही मखौल का विषय बनना है ।
भारत में भिक्षावृत्ति सुधार गृहों या मात्र कानूनी रोक से समाप्त नहीं होगी, वरन् भिक्षा माँगने वाले को भी यह दृढ़ संकल्प करना होगा कि जब भगवान ने हाथ-पैर दिए हैं तो काम करके खाना चाहिए न कि दूसरों के रहमोंकरम पर आश्रित रहकर पेट भरना चाहिए । भारत में भिक्षावृत्ति एक कोढ़ के समान है जो दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । हमें इसको मिल-जुलकर समाप्त करना चाहिए ।
Hindi Nibandh (Essay) # 19
भ्रष्टाचार: एक सामाजिक रोग पर निबन्ध | Essay on Corruption : A Social Disease in Hindi
प्रस्तावना:
मनुष्य एक सामाजिक, सभ्य एवं जागरुक प्राणी है । उसे सामाजिक प्राणी होने के नाते कई प्रकार के लिखित-अलिखित नियमों, अनुशासनों तथा समझौतों का उचित पालन एवं निर्वाह करना होता है ।
जो व्यक्ति इन नियमों का उल्लंघन कर केवल अपने स्वार्थहित के कार्य करता है वह मनुष्य भ्रष्ट होने लगता है और उसके आचरण और व्यवहार को सामान्य अर्थों में भ्रष्टाचार कहा जाता है । आज भ्रष्टाचार का दानव हर क्षेत्र में मानव को दबोच रहा है, उसका गला घोंट रहा है ।
भ्रष्टाचार से अभिप्राय:
भ्रष्टाचार का शब्द ‘भ्रष्ट + आचरण’ नामक दो शब्दों के मेल से बना है । ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है बिगड़ा हुआ, अर्थात् निम्न कोटि की विचारधारा । ‘आचार’ का अर्थ है आचरण । अर्थात् भ्रष्टाचार का अर्थ हुआ बिगाड़ हुआ आचरण । भ्रष्ट आचरण वाला व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को भूलकर अपने स्वार्थ सिद्धि के कार्य करता है । उसकी दृष्टि में नैतिक-अनैतिक का कोई अन्तर नहीं रहता ।
भ्रष्टाचार का उदय:
भ्रष्टाचार की जड़े पूरे विश्व में फैली हुई हैं, तथा इस दिशा में हमारा देश भी पीछे नहीं है । भारतवर्ष में तो प्राचीनकाल से ही भ्रष्टाचार चला आ रहा है । ही आज इसने अधिक विकराल रूप धारण कर लिया है । चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी भ्रष्ट अधिकारियों का उल्लेख मिलता है ।
तत्पश्चात् गुप्त साम्राज्य एवं मुगल साम्राज्य का अन्त तो भ्रष्टाचार के कारण ही हुआ था । भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा में ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ की स्थापना के बाद पहुँचा था । पहले अंग्रेजों ने अपनी जड़े मजबूत करने के लिए भारतीयों को भी भ्रष्टाचारी बनाया । जब भारत स्वतन्त्र हो गया तो स्वयं भारतीयों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया ।
आज तो प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरे तक फैल चुकी है कि लगता नहीं कोई इन जड़ों को उखाड़ पाएगा । भ्रष्टाचार के रूप-हमारे समाज में आज हर स्तर पर फैल रहे भ्रष्टाचार की व्यापकता में निरन्तर वृद्धि हो रही है ।
भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप दें जैसे-रिश्वत लेना, मिलावट करना, वस्तुएँ ऊँचे दामों पर बेचना, अधिक लाभ के लिए जमाखोरी करना, कालाबाजारी करना अथवा स्मगलिंग करना इत्यादि । आज भारत की राजनीति पूर्णतया भ्रष्ट है, जिसमें व्यापारी वर्ग का बहुत बड़ा हाथ है ।
बड़े-बड़े उद्योगपति नेताओं को बड़ी-बड़ी कीमतें देकर उससे कहीं गुना अधिक रियायतें प्राप्त करते हैं । इससे व्यापारी वर्ग को लाभ होता है तो कर्मचारी वर्ग और अधिक निर्धन होता जाता है । आज भारतवर्ष में प्रशासनिक भ्रष्टाचार की भी कोई कमी नहीं है । प्रशासनिक भ्रष्टाचार में पुलिस विभाग सबसे आगे है ।
आज तो देश की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा आई.ए.एस. भी पीछे नहीं है । इसके अधिकारी भी घूसखोरी, रिश्वत खोरी आदि लेने मे पीछे नहीं है । ‘यथा राजा यथा प्रजा’ वही कहावत यहाँ बिल्कुल सही प्रमाणित होती है कि जैसा राजा होगा, प्रजा भी वैसी ही होगी ।
जब देश को चलाने वाले नेता, बडे-बड़े व्यापारी, सरकारी अधिकारी ही पथभ्रष्ट होंगे तो फिर आम जनता से चरित्रवान होने की आशा कैसे की जा सकती है । कहीं हवाला काण्ड तो कहीं चारा काण्ड, बोफोर्स काण्ड, कबूतर काण्ड आदि इसके ज्वलन्त प्रमाण है ।
इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप में भी व्यक्ति भ्रष्टाचारी होता जा रहा हे । आज मानव भौतिक सुखों की चाह में अन्धा होता जा रहा है । भौतिक सुखों को पाने के लिए वह अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक का अन्तर भूल चुका है ।
निजी हित व निजी लाभ प्राप्ति की कामना उसे नैतिकता से दूर कर रही है । आज हर कोई अपने बच्चों को ऊँचे पदों पर देखना चाहता है, घर में सभी सुविधाएं चाहता है ऊपर से मेहनत नहीं करना चाहता । आज यदि हम यह कहें कि भ्रष्टाचार हमारी स्वार्थ-भावना एवं आत्म लिप्सा के ही परिणाम है तो गलत न होगा ।
भ्रष्टाचार वृद्धि के कारण:
भ्रष्टाचार वृद्धि के अनेक कारण है । सर्वप्रथम सत्ता का स्वाद राजनीतिज्ञों को भ्रष्ट कर रहा है क्योंकि सत्ता भ्रष्ट करती है तो पूर्णसत्ता पूर्णरूपेण भ्रष्ट कर देती है । लोग सत्ता के नशे में चूर होकर स्वयं को भगवान समझने लगते हैं तथा एक आम आदमी का खुन् चूसते रहते हैं ।
इसके अतिरिक्त लोगों की आजीविका के साधनों की कमी, जनसंख्या में वृद्धि, बेकारी, भौतिकता एवं स्वार्थपरता में वृद्धि, फैशन का शौक, दिखावा, अशिक्षा, महँगाई, सामाजिक कुरीतियाँ तथा अनगिनत दूसरी समस्याएँ भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है ।
आज मानव अनैतिक तरीकों से धन-संचय करने में लगा है । आज भ्रष्टाचार इतना फैल चुका है कि बिना रिश्वत के फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक नहीं पहुँचती । ईमानदार आदमी पूरी जिन्दगी में एक मकान नहीं बना सकता, वही बेईमान लोगों ने कितने ही घर खरीद रखे हैं ।
आज किसी पीड़ित को थाने में अपनी रिपोर्ट दर्ज करानी हो, कहीं से कोई फॉर्म लेना हो; लाइसेंस प्राप्त करना हो, हर जगह पहले जेब से रिश्वत के रूप में पैसे देने पड़ते हैं । आज तो सबसे पवित्र क्षेत्र माने जाने वाले शिक्षा-क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार जोर पकड़ रहा है ।
आज अयोग्य शिक्षक किसी नेता से सम्बन्ध होने पर आसानी से नौकरी पा लेते हैं, वही योग्य परन्तु ईमानदार व्यक्ति मुँह देखता रह जाता है । भ्रष्टाचार निवास के उपाय-भ्रष्टाचार निवारण के लिए सहज मानवीय चेतनाओं को जगाने, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों की रक्षा करने, आत्म संयमी बनकर अपनी भौतिक आवश्यकताओं पर नियन्त्रण रखने तथा दूसरों के हित का ध्यान रखने की आवश्यकता है ।
भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक रोग को फैलने से रोकने के लिए भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता का प्रचार किया जाना चाहिए । प्रत्येक योग्य एवं शिक्षित व्यक्ति को उसकी योग्यता के आधार पर रोजगार मुहैया कराना चाहिए, जिससे वह गलत-तरीकों से पैसा कमाने के बारे में सोच भी न पाए ।
शासन व प्रशासन से जुड़े सभी व्यक्तियों को अपना दामन पाक साफ रखना चाहिए । इसके अतिरिक्त बढ़ती जनसंख्या पर रोक लगाकर, महंगाई कम करके, कुरीतियों आदि को दूर करके भी भ्रष्टाचार रूपी दानव को नष्ट किया जा सकता है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि व्यक्ति को स्वयं भी दृढ़ संकल्प करना होगा कि भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति एक न एक दिन पकड़ा अवश्य जाता है । गलत काम करने वाला व्यक्ति कभी खुश नहीं रह सकता ।
उपसंहार:
भ्रष्टाचार से व्यक्ति एवं समाज दोनों की आत्मा का हनन होता है । इससे शासन एवं प्रशासन की नींव कमजोर पड़ती है, जिससे व्यक्ति, समाज एवं देश की प्रगति की सभी आशाएँ व सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती है ।
अत: यदि हम वास्तव में अपने देश, समाज व सम्पूर्ण मानव जाति की प्रगति तथा उत्थान चाहते हैं तो इसके लिए हमें सबसे पहले भ्रष्टाचार का जड़ से उन्तुलन करना होगा ।
Hindi Nibandh (Essay) # 20
काले धन की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Black Money in Hindi
प्रस्तावना:
वर्तमान समय में रुपए का मूल्य बहुत कम हो रहा है अर्थात् रुपए की क्रय शक्ति का बहुत हास हुआ है । पूरा विश्व आर्थिक मन्दी के दौर से गुजर रहा है, जिसके लिए प्रमुख रूप से काला धन उत्तरदायी है ।
दूसरे विश्वैयुद्ध के पश्चात् काले धन ने अनेक आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से तो यह समस्या और भी विकट होती जा रही है । जानकारों का मत है कि व्यापारी, जमाखोर, राजनीतिज्ञ एवं नौकरशाहो की मिलीभगत एव षड्यन्त्र से काला धन कमाने का धन्धा होता है । कालेधन के संग्रह से सबसे अधिक लाभ भी पैसे वालों का ही होता है ।
काले धन से अभिप्राय:
काला धन अर्थात् गैर कानूनी धन जो अनैतिक साधनों तथा कर चोरी से उपर्जित किया जाता है । यह धन लोगों के पास गुप्त रूरा से जमा रहता है । जबतक कि यह धन छिपे हुए खजानों तथा तालों में पड़ा रहता है तथा वितरण व प्रसारण आदि से यह धन बाहर ही रहता है, क्योंकि यह उस धन की मात्रा को कम कर देता है ।
इस धन का कोई हिसाब-किताब नहीं होता, क्योंकि यह धन गलत तरीकों से कमाया जाता है । किसी को नहीं पता होता कि यह धन कहीं से कैसे प्राप्त हुआ । सामान्य भाषा में इसे दो नम्बर का पैसा कहते हैं । इस धन के प्रमुख स्रोत उत्पादनकर, आयकर, मृत्युकर, सम्पत्तिकर, सीमाशुल्क, बिक्रीकर आदि की चोरी है । तस्करी, रिश्वत खोरी आदि द्वारा कमाया गया धन काले धन की श्रेणी में ही आता है ।
काले धन के स्रोत:
कालाधन का कोई हिसाब-किताब न होने के कारण लोग इसका सदुपयोग मकान, दुकान, स्वर्ण आभूषण अथवा दूसरी चल-अचल सम्पत्ति के रूप में करते हैं । आज घर में पैसा रखना तो सुरक्षित नहीं है, न इतना पैसा बैंक में रखा जा सकता है, इसलिए लोग काले धन को इस रूप मे इस्तेमाल करते है, ।
काला धन वैसे भी छोटे-मोटे व्यापारी या नौकरी-पेशा व्यक्ति के पास तो होता नहीं है, वरन् यह तो बड़े-बड़े उद्योगपतियों, जमींदारों या त्तरकारी अफसरो, के पास होता है । राजनीतिज्ञों के पास तो यह धन बहुतायत में होता है । पिछले कु वर्षों में काले धन के बारे में लोगों में काफी दिलचस्पी बढ़ी है क्योंकि आज का युग भौतिकवादी युग है । यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी से कार्य करके पैसा कमाना भी चाहे तो वह केवल दो जून की रोटी ही मुश्किल से खा सकता है ।
अत: आज बहुत से साधारण लोग भी इसके मोह-जाल में फँस चुके हैं । तेजी से फैलने वाले इस प्रलोभनकारी छूत रोग की चपेट में आज अनेक सज्जन लोग भी आ चुके हैं ।
काले धन की अनुमानत: मात्रा:
आज हर तरफ काले धन का व्यापार बहुत तेजी से फल-फूल रहा है । ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एण्ड पॉलिसी’ के मोटे अनुमानों के आधार पर भारतवर्ष में ही लगभग 50,000 करोड़ रुपए का काला धन लोगों के पास काले धन के रूप में जमा है ।
यह केवल एक साधारण सा अनुमान है, क्योंकि काले धन का कोई हिसाब-किताब तो होता नहीं है । अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (IMF) एक ने भी अनेक देशों में काले धन की मात्रा का अनुमान लगाया है । इस रिपोर्ट के अनुसार भारतवर्ष में काले धन की सम्पूर्ण मात्रा उसके राष्ट्रीय उत्पादन का लगभग आधे से भी कहीं अधिक है ।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने भारत में काले धन की मात्रा का अनुमान लगभग 95,000 करोड़ रुपए के लगभग लगाया है । अब यह चिन्ता का विषय नहीं तो और क्या हो सकता है कि इतनी बड़ी पूँजी काले धन के रूप में लोगों की तिजोरियों में छिपी पड़ी है । यदि इस धन का प्रयोग राष्ट्रीय हित में किया जाए तो देश में अर्थव्यवस्था कितनी सुदृढ़ हो सकती है ।
बढ़ते काले धन के कारण:
आज काला धन रूपी नाग हम भारतीयों को पूर्णतया अपनी चपेट में ले चुका है । इसके कुछ कारण निम्नलिखित हैं:
(1) बढ़ती धन-लोलुपता काले धन का मुख्य कारण है । आज हर कोई सभी सुख-सुविधाएँ चाहता है । आज मानव भौतिकवादी विचारधारा वाला हो चुका है । पैसा कमाने के लिए वह अनैतिक कार्यों को करता है । इन्हीं अनैतिक कार्यों द्वारा कमाया जाने वाला धन काले धन की श्रेणी में आता है ।
(2) वह मनोवृत्ति जिसके द्वारा काले धन की शक्ति से किसी को खरीदकर उससे गलत काम कराना और फिर उससे काली कमाई करना ।
(1) आज कानून की जटिल प्रक्रिया व अक्षमता भी काले धन का स्रोत बन चुकी है ।
(2) काले धन का सबसे मुख्य कारण है-अनैतिकता अथवा नैतिक मूल्यों का ह्रास ।
काले धन के दुष्परिणाम- (1) आज काले धन के दुष्परिणाम अनेक रूपों में हमारे समक्ष आ रहे हैं । आज पैसे के बलबूते पर काले धन के मालिक किसी भी व्यक्ति को खरीद सकते हैं तथा उससे अपनी मर्जी मुताबिक कार्य करवा सकते हैं ।
(2) अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु सरकारी योजनाओं को विफल कर सकते हैं ।
(3) काले धन के संचय से देश एवं समाज में आय की विषमता तथा धनी औट्टू निर्धन के बीच असमानता बढ़ रही है । धनी व्यक्ति तथा धनवान और अधिक शक्तिशाली होता जा रहा है, वही निर्धन व्यक्ति एक-एक पैसे को मोहताज हो रहा है ।
(4) बढ़ते भ्रष्टाचार का मुख्य कारण काला धन ही है ।
(5) आज काले धन के स्वामी सरकार को भी इस बात के लिए बाध्य कर सकते हैं कि वे उनके हित मे नीतियाँ तैयार करें ।
काले धन को समाप्त करने के उपाय:
सरकार ने काले धन की कमाई को बन्द करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं । पिछले कुछ वर्षों में आयकर विभाग में VIDS तथा स्वर्ण जमा योजना लागू करके काले धन को सफेद धन में बदलने का अवसर दिया जिससे देश को राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है ।
परन्तु आज काला धन गहरे तक अपनी जड़े जमा चुका है जिन्हें उखाड़ फेंकना बहुत मुश्किल है ।
फिर भी इसे रोकने के लिए कुछ सुझाव अवश्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं:
(1) सरकारी खर्चों में कटौती कर खर्च पर उचित नजर रखी जानी चाहिए ।
(2) सरकारी परियोजनाओं पर होने वाले खर्च पर कड़ी निगरानी रखी जाए ।
(3) कर-इकट्ठा करने वाले अधिकारी ईमानदार तथा कार्य कुशल होने चाहिए, जिससे कोई भी कर चोरी न कर सके ।
(4) भारी घाटे के बजट की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिए ।
(5) कर व्यवस्था यथार्थवादी हो, अर्थात् कर की दरे अधिक नहीं होनी चाहिए जिससे सभी लोग आसानी से कर चुका सकें तथा कर-चोरी के बारे में न सोंचे ।
(6) सभी सरकारी कार्यालय कार्यकुशल होने चाहिए । अधिकारी भी ईमानदार, समय के पावन्द तथा रिश्वत खोरी से दूर रहने वाले होने चाहिए ।
उपसंहार:
यदि सरकार ईमानदारी से उपरोक्त सभी उपायों को प्रयोग में लाने तथा राजनैतिक स्वार्थों को छोड़कर व्यवहारिक कदम उठाए तो निश्चित तौर पर काले धन की समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है । सरकार का कर्त्तव्य हे कि वह देश की अर्थव्यवस्था की समस्या को सुलझाने के लिए अर्थशास्त्रियों के सुझावों को पूर्ण गम्भीरता सेष्टमझें तथा फिर व्यवहारिक योजना केनिर्माण हेतु इस समस्या को समाप्त करने का प्रयल करे । ऐसा करने से देश को आर्थिक संकट से छुटकारा मिल सकेगा तथा हमारा देश उचित दिशा में प्रगति कर सकेगा ।
Hindi Nibandh (Essay) # 21
बेरोजकारी की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Unemployment in Hindi
प्रस्तावना:
समस्या प्रधान देश भारतवर्ष की आज की सबसे विकट समस्या ‘बेरोजगारी’ की समस्या है । भारत में यह समस्या द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व भी विद्यमान थी, परन्तु महायुद्ध के पश्चात् सभी को अपनी योग्यतानुसार रोजगार मिल गया । जनसंख्या वृद्धि के कारण आज हमारा देश फिर से बेकारी की चरम सीमा पर है तथा धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करता जा रहा है ।
बेकारी का अर्थ:
जब किर्सी व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कांर्य न मिले, तो वह बोलकर कहलाता है । बेरोजगारी की इस परिधि में बालक, वृद्ध, रोगी, अक्षम, अपंग, अन्धा अथवा पराश्रित व्यक्तियों को सम्मिलित नहीं किया जाता ।
जब काम की कमी तथा काम करने वालों की अधिकता हो, तब भी बेकारी की समस्या उत्पन्न होती है । वर्ष 1951 में भारत में 33 लाख लोग बेरोजगार थे । वर्ष 1961 में बढ़कर यह संख्या 90 लाख हो गयी । आज हमारे देश में 30 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार घूम रहे हैं ।
बेरोजगारी के प्रकार-हमारे देश में बेरोजगारी को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- पूर्ण बेरोजगारी, अर्द्ध बेरोजगारी एवं मौसमी बेरोजगारी । शिक्षित बेरोजगारी में प्राय: वे पड़े लिखे युवा आते हैं जो उच्च शिक्षित होकर भी खाली बैठे हैं या फिर अपनी योग्यता से नीचे के कार्य कर रहे हैं । ये लोग श्रम के गौरव को भूल जाते हैं शारीरिक परिश्रम को हेय समझते हैं तथा अफसरशाही में विश्वास करते हैं ।
शहरों में दूसरे प्रकार की बेरोजगारी, अल्प-शिक्षित या अशिक्षित श्रमिक है, जिन्हें कारखानों में काम न मिल पाने के कारण बेकारी की मार झेलनी पड़ रही है । गाँव के जीवन से उठकर शहरों की चकाचौंध में रमने की इच्छा से भागकर शहर आए ग्रामीण युवक शहरों की औद्योगिक बेरोजगारी को कई गुना बढ़ा देते हैं ।
देहातों में किसानों को अर्द्ध-बेरोजगारी तथा मौसमी बेराजगारी झेलनी पड़ती है क्योंकि वहाँ कृषि का उद्यम मौसमी उद्यम है । खेतिहर मजदूर भी अर्द्ध-बेरोजगार हैं, क्योंकि उन्हें पूरे साल काम धन्धा नहीं मिल पाता है ।
भारत में बेरोजगारी के कारण:
भारत में आज केवल सामान्य शिक्षित ही नहीं अपितु तकनीकी शिक्षा प्राप्त डॉक्टर, इंजीनियर, टैस्नीशियन तक बेरोजगार हैं । रोजगार केन्द्रों में बढ़ रही सूचियीं इस भयावह स्थिति की साक्षी हैं ।
बढ़ती बेरोजगारी के मुख्य कारण इस प्रकार हैं:
(1) अंग्रेजी शासकों का स्वार्थ:
प्राचीनकालीन भारत में एक सुदृढ़ ग्राम केन्द्रित अर्थतन्त्र था, जो ग्रामोद्योग पर केन्द्रित था । विदेशी-शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए इस अर्थतन्त्र को तोड़कर, भारतीयों को नौकरियों का प्रलोभन देते हुए अपने रंग में रंग लिया । लालच में आकर भारतीय अपने पैतृक व्यवसाय को छोड्कर शहरों की ओर भागने लगे । इससे शहरों की स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था जरजर हो गई ।
(2) कुटीर उद्योगों की समाप्ति:
महात्मा गाँधी कहते थे कि मशीन लोगों से उनके रोजगार छीन लेती है । जैसे-जैसे मध्यम तथा भारी उद्योगों का विस्तार होने लगा, कुटीर उद्योग-धन्धे लुप्त होते गए, जबकि कुटीर उद्योगों में पूँजी भी कम लगती है, साथ ही काफी लोगों को रोजगार मिल जाता है ।
(3) जनसंख्या में वृद्धि:
भारत में जनसंख्या में अत्यन्त वृद्धि भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है । अधिक जनसंख्या से बचत प्रभावित होती है, बचत की कमी से विनियोग में कमी आती है । कम विनियोग से रोजगार के अवसर भी कम होते हैं ।
जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती आवास समस्या के कारण प्रतिदिन नए विकसित होने वाले शहरों ने धरती को कम कर दिया है । इस प्रकार हर क्षेत्र में आजीविका के साधन कम होते जाने के कारण बेकारी बढ़ रही है ।
(4) शहरी जीबन की चकाचौंध:
शहरों की चमक-दमक आज एक ओर तौ शहरियों को रोजगार मिलने पर भी गाँव जाने से रोकती है, दूसरी ओर ग्रामीणों को शहर की ओर आकर्षित करती है । पक्के घर, बिजली, रेडियो, फ्रिज, सिनेमा, फैशन आदि के लिए लालयित नई पीढ़ी का गाँव में मन नहीं लगता ।
इससे एक ओर तो ग्रामोद्योगों की समाप्ति होती है तो दूसरी ओर शहरों में भीड़ बढ़ने से नए रोजगार न मिलने की समस्या विकट होती जा रही है ।
(5) दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली:
हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसा पुस्तकीय ज्ञान देती है, जिसका व्यवहारिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है । यह शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों की देन है जिसे आज भी सही माना जा रहा है । अंग्रेज तो हम भारतीयों से केवल ‘बाबूगीरी’ कराना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भारत में ऐसी शिक्षा-प्रणाली का विस्तार किया ।
आज का युवा कोई शारीरिक श्रम नहीं कर सकता तथा अफसरशाही के इतने मौकेमिलते नहीं हैं, इसलिए वह बेरोजगार घूमता रहता है ।
(6) दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था:
हमारे देश में कुछ कार्यों को सामाजिक दृष्टि से हेय माना जाता है अत: उन कार्यों में रोजगार के अवसर प्राप्त होते हुए भी उन्हें करने में हिचक के कारण युवा वर्ग उनसे बचता है । शारीरिक श्रम के प्रति भी लोगों में गौरव की भावना नहीं है, जिससे बेरोजगारी बढ़ती है ।
(7) दोषपूर्ण नियोजन:
स्वतन्त्रता के पश्चात् स्थापित योजना आयोग ने पंचवर्षीय योजनाएँ तो चलाई पर उनमें बेरोजगारी के समाधान के विभिन्न क्षेत्रों की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया । माँग एवं पूर्ति के इस असन्तुलन में तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवकों में बढ़ती बेरोजगारी के लिए दोषपूर्ण नियोजन भी दोषी है ।
(8) महिलाओं का सहभागी होना:
उद्योग धन्धों, वाणिज्य व्यापार तथा सभी नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं का सहभागी होना भी बेकारी बढ़ा रहा है । पहले जीविकापार्जन का कार्य केवल पुरुषों का था परन्तु आज शिक्षा के विस्तार तथा टेलीविजन के विस्तार के कारण महिलाओं में भी चेतना आई है और वे हर क्षेत्र में आगे आ रही है ।
शिक्षा तथा चिकित्सा के क्षेत्र में तो महिलाओं का योगदान अभूतपूर्व है । परन्तु समस्या बेकारी की है क्योंकि जब महिलाएँ भी नौकरी करेंगी तो पुरुषों के लिए तो रोजगार का अभाव होना निश्चित ही है ।
(9) कम्प्यूटर का विकास:
आज कम्प्यूटर के विकास ने अनगिनत लोगों को बेकार कर दिया है । आज प्रत्येक व्यापारिक संस्था, बैंक, कॉलेज, अस्पताल सभी जगह कम्प्यूटर द्वारा 10 लोगों का काम एक व्यक्ति कम्प्यूटर द्वारा पूरा कर रहा है ।
(10) आर्थिक मन्दी:
आज दुनिया के अधिकांश देश मन्दी की मार झेल रहे हैं, साथ ही कर्ज में डूबे हुए हैं । आज हर क्षेत्र में छँटनी का दौर चल रहा है और बेकारी की समस्या बढ़ रही है । पिछले कुछ दिनों में सरकारी प्रतिष्ठानों में न केवल भर्तियाँ बन्द है वरन् छँटनी कार्यक्रम चल रहे हैं ।
आज बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ जैसे एयर इंडिया, रिलाइन्स आदि भी कितने ही कर्मचारी निकाल चुके हैं । निजी क्षेत्रों में मशीनों के नवीनीकरण तथा आटोमेशन के चलते भी रोजगार बहुत कम पैदा हो रहे हैं ।
बेकारी का दुष्प्रभाव:
वर्तमान अर्थव्यवस्थाकीमार सबसे अधिक विकासशील देशों पर पड़ रही है । विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विश्व बैक तथा मुद्रा का लाभ उठा रही है । बेकारी के कारण फैले आक्रोश ने समाज में अव्यवस्था व अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है ।
बेकारी के कारण ही समाज में लूट-पाट, हत्या, बलात्कार, चोरी-डकैटी आदि का वातावरण है । आत्मग्लानि ब आत्महीनता के भावों से भरा आज का बेकार युवा समाज के नियमों का उल्लंधन कर अपने कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ रहा है ।
बेकारी निठल्लेपन को जन्म देती है जो आलस्य का जनक है, आवारागर्दी की सहोदर है तथा शैतानी की जननी है । इससे चारित्रिक ? होता है तथा सामाजिक अपराध बढ़ते हैं । इससे शारीरिक शिथिलता बढ़ती तथा मानसिक क्षीणता तीव्र होती है ।
बेकारी की समस्या का समाधान:
इस समस्या के समाधान के लिए हमें अनेक साहसी कदम उठाने होंगे । सर्वप्रथम तो बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगानी होगी । हमें अपनी शिखा पद्धति में परिवर्तन लाना होगा । सैद्धान्तिक शिक्षा के स्थान पर व्यवहारिक व तकनीकी शिक्षा पर जोर देना होगा ।
सरकार को बड़े उद्योगों के साथ-साथ कुटीर उद्योगों तथा ग्रामोद्योगों के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए । पशुपालन, मुर्गीपालन जैसे कृषि के सहायक धन्यों का विकास भी अपेक्षित है । वर्ष में एक ही खेत में कई फसलें तैयार करने की योजना बनाई जानी चाहिए, जिससे कृषक परिवारों को पूरे वर्ष रोजगार मिल सके ।
महिलाओं को नौकरी देते समय ध्यान रखा जाए कि यदि उनके परिवार में पहले से ही अन्य व्यक्ति रोजगारयुक्त है तो महिलाओं के स्थान पर युवक ही रखे जाएं । कम्प्यूटर स्थापित करने से पूर्व उसके कारण होने वाली छँटनी से प्रभावित व्यक्तियों के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध किए जाने चाहिए ।
रोजगार कार्यालयों में व्याप्त शिथिलता व भ्रष्टाचार को दूर किया जाए, जिससे वहाँ पंजीकृत बेरोजगारों को शीघ्र काम मिल सके । इसके अतिरिक्त हमें लोगों की धार्मिक मान्यताओं में परिवर्तन लाना होगा ।
उपसंहार:
बेरोजगारी की समस्या एक राष्ट्रीय समस्या है तथा इसको हल करने हेतु संकल्प एवं प्रयत्न दोनों की आवश्यकता है । हमारी सरकार की ओर से इस समस्या के समाधान हेतु कई ठोस कदम उठाए गए हैं, जैसे-स्नातक बेरोजगारों को सस्ते दर पर ऋण की व्यवस्था करना, 20 सूत्रीय कार्यक्रम की स्थापना करना, जवाहर रोजगार योजना के तहत ग्रामीणों को काम दिलाना तथा बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना करना इत्यादि । यदि उपर्युक्त सुझावों को व्यवहारिक रूप दे दिया जाए तो भारत की बेकारी की समस्या से काफी हद तक मुक्ति मिल सकती है ।
Hindi Nibandh (Essay) # 22
प्रदूषण की समस्था पर निबन्ध | Essay on Problem of Pollution in Hindi
प्रस्तावना:
हमारा भारतवर्ष एक विशाल देश है, जो लगातार विकास के पथ पर अग्रसर है । आज मानव ने विज्ञान एवं टेस्नोलॉजी के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति कर ली है, किन्तु इस प्रगति ने स्वयं मानव के लिए गम्भीर समस्याएं पैदा कर दी हैं ।
आज मानव प्रकृति का दोहन कर उस पर अपना अधिकार जमाना चाहता है जोकि असम्भव है । वृक्ष धरा के आभूषण कहे जाते हैं, परन्तु आज इनको तीव्रगति से काटा जा रहा है । दिन प्रतिदिन कल-कारखाने बढ़ रहे हैं । उद्योगों में प्रयुका कच्चा माल, रसायन तथा अवशिष्ट सब वायुमण्डल में प्रदूषण फैलाते हैं ।
पर्यावरण एवं प्रदूषण:
मानव पर्यावरण की उपज है अर्थात् मानव जीवन को पर्यावरण की परिस्थितियाँ व्यापक रूप से प्रभावित करती है । पृथ्वी के समस्त प्राणी अपनी बुद्धि व जीवन क्रम को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए ‘सन्तुलित पर्यावरण’ पर निर्भर रहते हैं ।
सन्तुलित पर्यावरण में सभी तत्त्व एक निश्चित अनुपात में विद्यमान होते हैं, किन्तु जब पर्यावरण में निहित एक या अधिक तत्त्वों की मात्रा अपने निश्चित अनुपात से बढ़ या घट जाती है या पर्यावरण में विषैले तत्त्वों का समावेश हो जाता है तो वह पर्यावरण प्राणी जगत के लिए जानलेवा बन जाता है । पर्यावरण में होने वाले इस घातक परिवर्तन को ही प्रदूषण कहते हैं ।
प्रदूषण के विभिन्न रूप:
हर प्रकार का प्रदूषण किसी न किसी रूप में हमारे शरीर में रोगों की वृद्धि करता है । यह प्रदूषण जीवन में तनाव तथा मानसिक तथा शारीरिक व्यग्रता को बढ़ावा देता है ।
(1) वायु प्रदूषण के कारण व प्रभाव:
पृथ्वी के चारों ओर वायु का एक घेरा है जिसे वायुमण्डल कहते हैं । इस वायुमण्डल में अनेक गैसें हैं जैसे-ऑक्सीजन (20.1%), नाइट्रोजन (79%), कार्बनडाइ ऑक्साइड (0.03%) । ये तीनों वायुमण्डल के प्रमुख घटक हैं । वायु में ऑक्सीजन की मात्रा का घटना तथा कार्बन-डाई-ऑक्साइड एवं कार्बन मोनोऑक्साइड सरीखी हानिकारक गैसों की मात्रा का बढ़ना वायु प्रदूषण का लक्षण है ।
इसके अतिरिक्त आजकल वायुमण्डल में अनेक प्रकार की हानिकारक गैसे वाहनों से निकले धुएँ के रूप में पहुँचकर वातावरण को दूषित कर रही है । वायु प्रदूषण का तेजी से बढ़ना देश में औद्योगिकरण की प्रगति का कारण है । वायुमण्डल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा में 16 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो जाने से नगरों में रहने वाले लोगों में श्वाँस रोग व नेत्र रोग हो जाते हैं ।
जब यह गैस साँस के द्वारा हमारे शरीर में पहुँचती है, तो खून की लाल कणिकाओं की ऑक्सीजन की संचित क्षमता को कम कर देती है, जिससे सिर-दर्द, चक्कर आना तथा घबराहट होना आदि जैसी बीमारियाँ हो जाती है । उच्च रक्तचाप व हृदय रोग भी वायु प्रदूषण की ही देन है ।
(2) जल प्रदूषण के कारण व प्रभाव:
जल बिना जीवन असम्भव है । जल के बिना मनुष्य, जीव जन्तु, पेड़-पौधे कोई भी नहीं जी सकता । अत: जल का शुद्ध होना अत्यावश्यक है । जल में अनेक कार्बनिक, अकार्बनिक पदार्थ, खनिज तत्त्व व गैसे घुली होती है । यदि इन तत्त्वों की मात्रा जल में आवश्यकता से अधिक हो जाती है, तो वह जल अशुद्ध हो जाता है तथा यह जल प्रदूषण कहलाता है ।
आज हमारे अधिकांश जल स्रोत जैसे-नदी, झीलें, झरने इत्यादि प्रदूषित हो रहे हैं । कारखानों से निकला औद्योगिक कचरा नदियों आदि में बहा दिया जाता है । इससे सभी जलस्रोत दूषित हो रहे हैं, तथा भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है ।
मनुष्य द्वारा जल स्रोतों के पास मल-मूत्र त्याग करने, तालाबों आदि में पालतू जानवर नहलाने, तालाब या नदी के किनारे कपड़े धोने, आस-पास के वृक्षों के पत्ते एवं कहा जल में गिर जाने से भी जल्द-प्रदूषण फैलता है । जरन प्रदूषण से अनेक खतरनाक बीमारियों जैसे-पेचिस, दस्त, हैजा व पीलिया आदि फैलती हैं ।
(3) ध्वनिप्रदूषण के कारण व प्रभाव:
आजकल बड़े-बड़े नगरों में ध्वनि-प्रदूषण का होना भी एक गम्भीर समस्या है । अनावश्यक, असुविधाजनक तथा अनुपयोगी शोर ही ध्वनि प्रदूषण होता है । यह विशेष रूप से अणुओं के मध्य की दूरी को कम अथवा अधिक होने से पैदा होता है ।
सड़क पर भारी वाहनों के चलने, रेलों के आवागमन के शोर से, लाउडस्पीकरों के शोर से, जेटयान अथवा अन्तरिक्ष में राकेट के छोड़ने से भी ध्वनि प्रदूषण फैलता है । ध्वनि प्रदूषण से अनेक बीमारियों जैसे-अनिद्रा, मानसिक थकान, सिर में दर्द, हृदय गति तथा रक्तचाप आदि बढ़ जाते हैं साथ ही आँखों की रोशनी मंद पड़ जाती है ।
(4) रासायनिक प्रदूषण:
रासायनिक प्रदूषण वह होता है जब अनेक प्रकार के हानिकारक रसायन चाहे वे गैसीय रूप में ही या तरल रूप में या फिर ठोस रूप में, वातावरण में आ जाते हैं तथा मानव जीवन को नुकसान पहुँचाते हैं । हम सभी भोपाल गैस कांड से भली भाँति परिचित है ।
जिससे अनेक लोगों की मृत्यु हानिकारक ‘मिथाइल आइसोसाइनेट’ (CH2NC) के रिसने से हुई थी । वातावरण में उद्योगों व वाहनों के धुएँ से अनेक प्रकार के हानिकारक रसायन पुल रहे हैं, जिससे रसायनिक प्रदूषण तेजी से फैल रहा है ।
(5) रेडियोधर्मी प्रदूषण:
विश्व के अनेक देशों द्वारा आण्विक शक्ति का निर्माण अणु प्रदूषण का कारण है । अणु-शक्ति को निश्चित अवधि से पूर्व निष्किय करने तथा शत्रु देश के लिए उसका प्रयोग करने के कारण अणु-प्रदूषण होता है । जितने भी विकसित देश हैं, वे सभी भारी मात्रा में ऐसी गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जिससे पूरे विश्व का वातावरण गर्म हो रहा है, जिसे ‘ग्लोबल वार्मिग’ कहते हैं ।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही उत्तरी ध्रुव पर ग्लेशियरों, बर्फ के पहाड़ों पर बर्फ पिघल रही हैं और समुद्रों व महासागरों का जल स्तर बहुत तेजी से बढ़ रहा है । पृथ्वी के चारों ओर जो ‘ओजोन’ परत है, रेडियोऐक्टिव प्रदूषण के कारण इस ओजोन परत में छेद हो गया है और वह छेद बढ़ता ही जा रहा है, जिससे पृथ्वी पर अब ये पराबैंगनी किरणे आने लगी हैं, जिससे कैंसर रोग बढ़ रहा है, जो लाइलाज बीमारी है ।
प्रदूषण दूर करने के उपाय:
बढ़ता प्रदूषण आज हमारी सबसे बड़ी समस्या है । यह हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, जिसे दूर करने अथवा कम करने के उपाय अवश्य किए जाने चाहिए अन्यथा हमारा जीवन नरक से भी बदतर हो जाएगा । इस समस्या के समाधान में वनों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों का सबसे बड़ा योगदान है ।
इसके लिए हमें वनों को काटने के स्थान पर उनकी सुरक्षा करनी चाहिए साथ ही अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाने चाहिए । प्लास्टिक की थैलियाँ भी प्रदूषण का मुख्य कारला है । आज दिल्ली जैसे महानगर में सरकार की ओर से इन थैलियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है परन्तु हमारे निजी सहयोग के बिना प्रदूषण को रोकना असम्भव है ।
उपसंहार:
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रदूषण चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो सभी के लिए हानिकारक है और इनसे बचने की दिशा में सामूहिक व व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए ।
Hindi Nibandh (Essay) # 23
आरक्षण-नीति पर निबन्ध | Essay on Reservation Policy in Hindi
प्रस्तावना:
हमारे देश भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही जाति प्रथा प्रचलित रही है । उच्च वर्गीय लोग निम्नवर्गीय लोगों को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं साथ ही उनका शोषण भी करते हैं ।
यह स्थिति भारत जैसे देश में और भी कष्टदायक हो जाती है क्योंकि यहीं अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 24 प्रतिशत है । इन जातियों के लोग पिछड़े हुए होने के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से भी कमजोर हैं ।
इन जातियों के उत्थान हेतू महात्मा गाँधी जैसे महान पुरुषों ने अनेक कार्य किए । स्वतन्त्र भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के हितों की रक्षा व उत्थान के लिए सीटों का प्रावधान है । संविधान की धारा 330 में लोकसभा में इनके लिए आरक्षण का प्रावधान है, साथ ही राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में भी कुछ सीटे सुरक्षित हैं ।
संविधान की धारा 335 और 16(4) के अनुसार सरकार अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में पर्याप्त आरक्षण कर सकेगी बशर्ते उनकी नियुक्तियों से प्रशासन की कुशलता पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े । आरक्षण का अर्थ- ‘आरक्षण’ का अर्थ है कोई वस्तु, स्थान या सुख-सुविधा किसी विशेष व्यक्ति, वर्ग या समूह के लिए सुनिश्चित कर देना ।
भारत के संविधान में इसका अर्थ है- अपने या अन्य के लिए कोई स्थान सुरक्षित करना या कराना । जो लोग सदियों से दलित, पीड़ित या उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रहे हैं, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखकर उन्हें प्रगति के पथ पर अग्रसर करना ।
परन्तु आज नेता लोग अपने स्वार्थ के लिए पिछड़े व दलितों के नाम पर खेल खेलकर सत्ता की कुर्सी हथियाना चाहते हैं । आरक्षण का पूर्व इतिहास- 11 नवम्बर, 1930 को लन्दन में प्रथम ‘गोलमेज सम्मेलन’ हुआ था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने ‘अछूतों’ को अलग वर्ग मानकर उनके प्रतिनिधि के रूप में डा. भीमराव अम्बेडकर को भी अन्य वर्गो के प्रतिनिधियों के साथ आमन्त्रित किया था ।
गोलमेज सम्मेलन में डा. अम्बेडकर ने शोषित वर्ग की जनसंख्या के अनुसार ही अपना प्रतिनिधित्व भी माँगा था । उनकी यही माँग आरक्षण की नींव बनी । अगस्त 1932 में अंग्रेजों ने ‘कमुनल अवॉर्ड’ घोषित किया जिसमें अछूतों को पर्याप्त राजनीतिक अधिकार दिए गए ।
उसी में अछूतों के लिए अलग निर्वाचन-मण्डल की बात उठी, जिसे महात्मा गाँधी ने अस्वीकार कर दिया । बाद में पूना जेल में 24 सितम्बर 1932 को गाँधी जी एवं डा. अम्बेडकर के मध्य एक समझौता हुआ, जो ‘पूना एक्ट’ कहलाया ।
स्वतन्त्रता के पश्चात् आरक्षण:
अगस्त 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् ‘पूना एक्ट’ को संविधान में सवैधानिक गारंटी देने की बात उठी । तत्पश्चात् आरक्षण के निर्धारण सम्बन्धी कट्ठा कालेलकर आयोग 29 जून, 1953 को गठित किया गया । जिसने अपना प्रतिवेदन 30 मार्च, 1955 को प्रस्तुत किया, किन्तु तत्कालीन सरकार ने न तो उसे संसद में प्रस्तुत किया तथा न ही कोई प्रभावी कार्यवाही ही की ।
1978 में वी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में दूसरा आयोग गठित किया गया जिसने 31 दिसम्बर 1980 को राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन दे दिया, किन्तु उसकी भी कालेलकर आयोग के प्रतिवेदन जैसी ही दुर्दशा हुई । अलग-अलग समुदाय को अब तक कितना आरक्षण मिला है इस सम्बन्ध में निष्पक्ष विवरण प्रकाशित ही नहीं किया जाता है ।
नौवे आम चुनाव को दृष्टि में रखकर 12 मई, 1989 को घोषणा की गई कि तीन महीनों में रिक्त पदों पर केवल आरक्षित श्रेणियों के प्रत्याशी ही लेकर विगत चालीस वर्षों की कमी पूरी की जाएगी । इस अभियान के अन्तर्गत केन्द्र सरकार, सभी दलों की राज्य सरकारों एवं अन्य प्रतिष्ठानों में देश भर में आरक्षित श्रेणी के हजारों व्यक्तियों को नौकरी दी गई । फलस्वरूप देश में रहने वाली अन्य जातियों को अपना भविष्य अन्धकारमय लगने लगा तथा आरक्षण का विरोध होने लगा ।
वर्तमान ‘आरक्षण नीति’ का विरोध:
सर्वप्रथम समय पाकर तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री. वी.पी. सिंह ने कुर्सी पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए ‘मंडल आयोग’ को लागू करने का प्रयत्न किया । परिणामस्वरूप इसके विरोध में जो मारी-मारी, तोड़-फोड़, आगजनी, आत्महत्याएँ आदि हुई वे भुलाई नहीं जा सकती ।
इन आन्दोलनों में बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात तथा मध्य प्रदेश आदि राज्य विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं । विरोधी पक्ष आरक्षण के विरोध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं:
(1) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से जातिवाद और अधिक सुदृढ़ होगा, जो देश के उत्थान में सबसे बड़ी बाधा है ।
(2) जातिगत आधार पर आरक्षण होने से अयोग्य व्यक्ति भी ऊँचे पदों पर आसीन हो जाते हैं, जिससे कार्यप्रणाली अयोग्य हाथों में चली जाती है तथा प्रशसनिक सेवाओं का स्तर गिर जाता है ।
(3) जातिगत आरक्षण में केवल कुछ चतुर व्यक्ति ही लाभान्वित हो पाते हैं, शेष तो वंचित ही रह जाते हैं । इस प्रकार के आरक्षण से कर्महीनता आती है, जन्म का महत्त्व स्थापित होता है तथा इस प्रकार जातिप्रथा कभी भी समाप्त नहीं हो पाएगी ।
(4) जातिगत आरक्षण से सवर्ण जातियों के अधिक योग्य युवक भी नौकरी से वंचित रह जाते हैं जिससे उनमें कुंठा पैदा होती है तथा कुंठित नवयुवक समाज-विरोधी गतिविधियों जैसे हिंसा, बलात्कार, लूटपाट, हत्या आदि के हिस्से बन जाते हैं ।
(5) आरक्षण के कारण आरक्षितों में अहंकार बड़ा है जो सामाजिक व मानसिक अपंगता का परिचायक है ।
(6) पिछड़ापन कभी जातिगत नहीं होता, वह तो व्यक्तिगत एवं पारिवारिक होता है, जो सवर्ण व निम्न सभी जातियों में मिल जाता है अत: आरक्षण का आधार ‘जाति’ नहीं अपितु ‘आर्थिक’ होना अधिक न्यायसंगत है ।
वर्तमान समय में आरक्षण:
आजकल तो ‘आरक्षण’ शब्द इतना व्यापक हो चुका है कि सभी लोग चाहे वे मुसलमान हो, सिख या ईसाई, नारी-पुरुष सभी अपना अलग-अलग आरक्षण चाहते हैं । आज आरक्षण के नामपर सभी जातियों में इतनी रस्साकसी हो रही है कि सभी प्रदेश अलग-अलग आरक्षण की माँग करने लगे हैं । मराठी, बंगाली, गुर्जर सभी आरक्षण चाहते हैं यह देखकर तो ऐसा लगता है कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब सभी किसी-न-किसी वर्ग में आरक्षित होंगे ।
उपसंहार:
प्रत्येक समस्या की भाँति इस समस्या का एक समाधान यह है कि ‘आरक्षण’ शब्द के स्थान पर ‘भारतीय’ शब्द रखकर सबको एक छत के नीचे खड़ा कर दिया जाए तथा सभी योग्यता के आधार पर आगे आए । यदि दलितों को सुविधा देनी ही है, तो उनकी पढ़ाई में मदद करनी चाहिए ।
ऐसा होने पर ही हमारे देश का कल्याण सम्भव है । इसके अतिरिक्त सरकार को ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए कि प्रत्येक प्रतिशाली छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी या व्यवसाय कर सके । निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘आरक्षण’ शब्द का प्रयोग सूझ-बूझ के साथ किया जाना चाहिए ताकि व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय दोनों स्तर पर हमारा देश प्रगति कर सके ।
Hindi Nibandh (Essay) # 24
जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर निबन्ध | Essay on Problem of Increasing Population in Hindi
प्रस्तावना:
देश का आर्थिक विकास एवं कल्याण निश्चित रूप से जनसंख्या वृद्धि की दर पर निर्भर करता है । जनसंख्या उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत ही नहीं होता, अपितु उत्पादन का उद्देश्य भी इसी पर निर्भर करता है ।
जनसंख्या वृद्धि की समस्या अनेक अन्य समस्याओं को भी उत्पन्न करती है, यह मानव की न्यूनतम आवश्यकताएँ जैसे रोटी, कपड़ा एवं मकान की कमी उत्पन्न कर जीवन स्तर को गिराती है तथा देश के विकास कार्यों में बाधक बनती है ।
जनसंख्या वृद्धि का अर्थ:
जनसंख्या वृद्धि, जन्मदर एवं मृत्युदर का अन्तर अर्थात् प्रतिवर्ष प्रति हजार के अनुपात में अधिक शिशुओं का जन्म एवं जीवित लोगों का प्रति हजार के अनुपात मे, कम लोगों की मृत्यु होना है । दूसरे शब्दों में जन्मदर का बढ़ना एवं मृत्युदर का घटना ही जनसंख्या वृद्धि का कारण बनता है ।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मात्यस’ के अनुसार जनसंख्या गणोत्तर (2,4,8,10) के अनुपात में बढ़ती है जबकि ख्ग्द्य सामग्री अंकगणितीय (1,2,3,4) के अनुपात में बढ़ती है । इस प्रकार जनसंख्या खाद्य सामग्री के अनुपात में तेजी से बढ़ती है ।
ADVERTISEMENTS:
जनसंख्या वृद्धि आज एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है । सही अर्थों में आज जन वृद्धि ‘जनसंख्या विस्फोट’ के स्तर तक पहुँच चुकी है । ऐसा माना जाता है कि यदि जन-वृद्धि का क्रम इसी प्रकार बढ़ता रहा तो जीवन के लिए उपलब्ध सभी साधन समाप्त हो जाएँगे ।
मानव घास-फूस के अतिरिक्त एक दूसरे का शिकार करके खाने लगेंगे तथा ‘नरभक्षी’ बन जाएँगे । प्रसिद्ध विद्वान प्रो, कार सान्डर्स का मत है कि संसार की जनसंख्या में 10 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है तथा यदि यह वृद्धि इसी गति से होती रही तो मानव को पृथ्वी पर खड़े रहने तक का स्थान नहीं मिल पाएगा, तब शायद वह पृथ्वी के भीतर बिल मेँ रहा करेगा ।
भारत में जनसँख्या की स्थिति:
स्वतन्त्र भारत को अपने आर्थिक विकास के लिए जिन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जनसंख्या वृद्धि उनमें सर्वोपरि है । जनसंख्या के आधार पर हमारा देश चीन के पश्चात् दूसरे स्थान पर है तथा संसार की कुल जनसंख्या का 15 प्रतिशत भाग भारत में रहता है, जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का सातवीं स्थान है ।
आज हमारे देश की कुल जनसंख्या एक अरब अर्थात् 100 करोड़ के कड़े को भी पार कर चुकी है । 1951 में भारत की जनसंख्या 43 करोड़ थी । भारत की कुल आबादी का 50 प्रतिशत भाग 14 वर्ष से नीचे की आयु का है तथा 8 प्रतिशत 55 वर्ष से ऊपर की आयु का है अर्थात् हमारे देश में काम करने वालों के स्थान पर आश्रितों की संख्या अधिक है ।
यदि जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश नहीं लगाया गया तो अगले 30-35 वर्षों में भारत की जनसंख्या दोगुनी हो जाएगी तथा विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश भी भारत ही बन जाएगा । आज भारत में हर सेंकड एक बच्चा पैदा होता है, दूसरी ओर औसत आयु 27 वर्ष से बढ्कर 55 वर्ष हो गई है ।
भारत र्मे जनसंख्या वृद्धि के कारण:
भारत में जनसंख्या वृद्धि के दो प्रकार के कारण हैं-आन्तरिक कारण एवं बाह्य कारण । आन्तरिक कारणों में है- जन्मदर में वृद्धि तथा मृत्युदर में कमी जन्मदर बढ़ने के कुछ मूलभूत कारण हैं व्यापक बाल-विवाह प्रथा, भाग्यवादी दृष्टिकोण, अन्धविश्वास पूर्ण परम्पराएँ एवं समाज में व्यापक कुरीतियाँ, सन्तान उत्पत्ति को धार्मिक वृत्ति मानना व भगवान की देन मानना, विशेषकर पुत्र-प्राप्ति के लिए लगातार बच्चे पैदा करते रहना, गर्म जलवायु एवं अनिवार्य विवाह-प्रथा, निर्धनता, अशिक्षा, दूरदर्शिता का अभाव आदि ।
इसके अतिरिक्त चिकित्सा एवं अन्य सुविधाओं के बढ़ जाने के कारण भी मृत्युदर में गिरावट आई है । लोग परिवार नियोजन को न अपनाकर अपनी सुविधानुसार बच्चे पैदा कर रहे हैं । ये सभी जनसंख्या वृद्धि के आन्तरिक कारण हैं ।
बाह्यों कारणों में सन् 1947 में भारत-विभाजन के फलस्वरूप एवं सन् 1971 में बांग्लादेश निर्माण के पश्चात् लाखों शरणार्थियों का भारत में आना तथा इसके बाद भी समय-समय पर दूसरे देशों से आकर भारत में बसने वाले अनेक लोगों के कारण जनसंख्या वृद्धि हो रही है ।
जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम:
आज हम भारतवासी इस समस्या के अनेक दुष्परिणाम झेल रहे हैं । प्रतिव्यक्ति आय कम होना, निर्धनता की रेखा से नीचे जानेवालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होना, जनसंख्या का भूमि पर अत्यधिक दवाब, जीवन-स्तर में गिरावट, चिकित्सा व शिक्षा सुविधाओं की कमी, बढ़ती बेकारी, आवास की समस्या, पानी-बिजली की समस्या, खाद्य-सामग्री की समस्या, महँगाई की समस्या इत्यादि ।
ADVERTISEMENTS:
इन सभी समस्याओं की जड़ बढ़ती जनसंख्या ही है जो अपने साथ और भी कई समस्याएँ लेकर आ रही है । भिक्षावृष्टि, हत्या, लूटपाट, बलात्कार, चोरी-डकैती वगैरह भी बढ़ती जनसंख्या की ही देन है ।
समस्या का समाधान:
जनसंख्या नियन्त्रण के लिए उचित सामाजिक वातावरण का निर्माण आज की आवश्यकता है । सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल-विवाह तथा शीघ्र विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए । पुत्र की अनिवार्यता का रूढ़िवादी विचार समाप्त करना होगा ।
स्त्रियों की स्वतन्त्रता में वृद्धि होनी चाहिए तथा उनकी शिक्षा पर भी जोर दिया जाना चाहिए ताकि वे परिवार नियोजन का महत्त्व समझ सकें । इस दिशा में सरकार की ओर से परिवार-नियोजन, स्वास्थ्य, चिकित्सा तथा शिक्षा-प्रसार के अनेक प्रयास किए गए है ।
इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत तौर पर भी हमें जागरुक होना होगा, हमें जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणार्मो के बारे में सोचना होगा क्योंकि प्रत्येक बच्चा जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेदार है । हमें अपने ऊपर संयम रखना होगा तथा बच्चों को ईश्वर की देन न मानकर केवल एक या दो ही बच्चे पैदा करने होंगे, चाहे वे लड़की हो या लड़का ।
उपसंहार:
बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करके ही देश का सर्वागीण विकास सम्भव है । तभी हम बेकारी की समस्या दूर कर पाएँगे, देश की आर्थिक व्यवस्था में सुधार ला पाएँगे तथा देश को उन्नति को चरम पर देख पाएँगे ।