List of popular essays for school and college students in Hindi Language!

Contents:

  1. छत्रपति वीर शिवाजी पर निबन्ध | Essay on Chatrapati Veer Sivaji in Hindi
  2. महान भारतीय वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई पर निबन्ध | Essay on Rani Laxmibai : The Great Heroine of India in Hindi
  3. महान कवि कबीरदास पर निबन्ध | Essay on Great Poet Kabirdas in Hindi
  4. कविवर सूरदास पर निबन्ध | Essay on Surdas : The Leading Poet in Hindi
  5. गोस्वामी तुलसीदास पर निबन्ध | Essay on Goswami Tulsidas in Hindi
  6. नाटककार जयशंकर प्रसाद पर निबन्ध | Essay on Jaysankar Prasad : The Dramatist in Hindi
  7. मुंशी प्रेमचन्द पर निबन्ध | Essay on Munsi Premchand in Hindi
  8. आधुनिक मीरा: श्रीमती महादेवी वर्मा पर निबन्ध | Essay on Srimati Mahadevi Burma : The Modern Meera
  9. जीवज में त्योहारों का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Festivals in Life in Hindi
  10. स्वतन्त्रता दिवस पर निबन्ध | Essay on Independence Day in Hindi
  11. गणतन्त्र दिवस पर निबन्ध | Essay on Republic Day in Hindi
  12. शिक्षक-दिवस पर निबन्ध | Essay on Teacher’s Day in Hindi
  13. बालदिवस पर निबन्ध | Essay on Children’s Day in Hindi
  14. दीपों का त्योहार: दीपावली पर निबन्ध | Essay on Festival of Light : Diwali in Hindi
  15. भरतीय शौर्य पर्व: दशहरा पर निबन्ध | Essay on Dussehra : A Celebration of Indian Heroism in Hindi

Hindi Nibandh (Essay) # 1

छत्रपति वीर शिवाजी पर निबन्ध | Essay on Chatrapati Veer Sivaji in Hindi

प्रस्तावना:

भारतीय इतिहास अनगिनत महान विभूतियों तथा वीरों से परिपूर्ण है, जिन्होंने अपने महानतम कार्यों से अपना नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित करा लिया है । हमारी भारतभूमि पर श्रीराम, श्रीकृष्ण, महावीर, गौतम, बुद्ध, अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप तथा छत्रपति शिवाजी जैसे अनेक महानायकों ने जन्म लिया है ।

जन्म परिचय एवं शिक्षा:

हिन्दू धर्म के रक्षक छत्रपति वीर शिवाजी का जन्म सन् 1627 ई. को पूना से लगभग 50 मील दूर शिवनेरी दुर्ग में हुआ था । आपके पिताजी का नाम शाहजी भोंसले था, जो बीजापुर के शासक के यहीं उच्च पद पर कार्यरत थे । शिवाजी की माता जीजाबाई शाहजी की दूसरी पली थी ।

शिवाजी के लालन-पालन तथा शिक्षा-दीक्षा का सम्पूर्ण दायित्व उनकी माता जीबाबाई पर ही था । जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की एक श्रेष्ठ महिला थी, जिन्होंने बालक शिवाजी के जीवन को उच्च तथा श्रेष्ठ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।

इसके लिए जीजाबाई ने शिवाजी को रामायण तथा महाभारत की प्रेरणादायक कथाओं के सहित अन्य महान वीर महापुरुषों की जीवन गाथाएँ भी सुनाई । इससे बालक शिवाजी में स्वाभिमान तथा शौर्य उत्साह की भावना कूट कूटकर भर गयी ।

धार्मिक विचारों के कारण आपको साधु-संतों की संगति में रहकर धर्म तथा राजनीति की शिक्षा मिली । आपकी शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी उनके गुरु रामदास तथा दादाजी कोणदेव पर थी । इन दोनों राष्ट्रभक्तों तथा गुणी गुरुओं की शिक्षा का शिवाजी पर गहरा प्रभाव पड़ा ।

वैयक्तिक विशेषताएँ-शिवाजी प्रारम्भ से ही अपनी अलग पहचान बनाने में विश्वास रखते थे । 17-18 वर्ष की आयु में ही आपने कुछ मराठा सैनिकों को एकत्रित किया एवं तोरण के दुर्ग पर आक्रमण करके उस पर विजयश्री प्राप्त की । इस दुर्ग से शिवाजी को भारी मात्रा में धन सम्पत्ति तथा हथियार मिले ।

जिसका लाभ उन्होंने आगे बढ़ने में उठाया । तोरण का दुर्ग बीजापुर के सुन्तान के अधिकार में आता था इसलिए वह शिवाजी से क्रोधित हो गया तथा उसने अफजल खाँ के नेतृत्व में बीजापुर को एक बड़ी, फौज शिवाजी को मरवाने के लिए भेजी ।

ADVERTISEMENTS:

शिवाजी जानते थे कि वह इसयुद्ध में जीत नहीं सकते अत: उन्होंने अफजल खाँ द्वारा भेजे गए सन्धि प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, तथा उसके शिविर में चले गए । अफजल खाँ भी कुटिलता से शिवाजी को मारना चाहता था ।

उसने शिवाजी से गले लगने के लिए कहा तथा जब दोनों गले मिल रहे थे तब उसने शिवाजी को अपनी भुजाओं में जकड़कर मारना चाहा, किन्तु इसके विपरीत शिवाजी ने अपने बगनखे के कर से अफजल खान को समाप्त कर दिया तथा उसकी सेना भाग खड़ी हुई ।

इस हमले में शिवाजी को भारी भाग में धन सम्पत्ति प्राप्त हुई जिससे उनकी स्थिति और भी अधिक सुदृढ़ हो गई । इस घटना से उत्साहित होकर शिवाजी ने मुगलों पर जोरदार आक्रमण किया तथा उनके कई महत्त्वपूर्ण दुर्गो पर अधिकार प्राप्त कर लिया, जिससे तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब नाराज हो गया । वह शिवाजी को समाप्त करना चाहता था ।

इसके लिए औरंगजेब ने अपने सेनापति शाईस्ता खाँ को एक विशाल सेना के साथ शिवाजी को समाप्त करने भेजा । शाईस्ता खाँ ने कई मराठा प्रदेशों को रौंद डाला । इसके बाद वह पूना पहुँचा । शिवाजी ने अपने सैनिकों को रात के समय बारातियों के भेष में पूना भेजा ।

बदले भेष के कोरण सिपाहियों को कोई पहचान न सका तथा मौका देखकर शिवाजी ने मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया । इस आक्रमण से शाईस्ता खाँ डरकर भाग खड़ा हुआ लेकिन उसका बेटा मारा गया । इस हमले में भी शिवाजी को बहुत भारी मात्रा में धन सम्पत्ति तथा हथियार मिले तथा दक्षिण भारत में उनकी धाक जम गई ।

अब दक्षिण भारत के अन्य सभी राज्य उनसे घबराने लगे । इस जीत से औरंगजेब भी चिन्तित हो उठा क्योंकि शिवाजी निरन्तर मुगल साम्राज्य के दुर्गो पर आक्रमण करके उन्हें जीत रहे थे । इस पराजय के पश्चात् औरंगजेब ने राजा जयसिंह को शिवाजी से युद्ध करने भेजा । जयसिंह ने वीरता तथा चालाकी से कई किले जीते । शिवाजी ने दोनों ओर युद्ध में हिन्दुओं को मरते देख जयसिंह से संधि कर ली ।

राजा जयसिंह के विशेष आग्रह पर शिवाजी औरंगजेब के आगरा दरबार में उपस्थित हुआ । वहाँ शिवाजी को बहुत अपमानित होना पड़ा साथ ही उन्हें बन्दी भी बना लिया गया । किन्तु शिवाजी शान्त बैठने वालो में से नहीं थे । यहाँ से मुक्ति पाने के लिए शिवाजी ने कूटनीति का सहारा लिया तथा मिठाई तथा फल के टोकरों में छिपकर भाग निकले ।

शिवाजी कई स्थानों से होते हुए रायगढ़ पहुँचे, जहाँ उन्होंने काशी के प्रसिद्ध पण्डित गाग भट्ट से अपना राज्याभिषेक कराया तथा छत्रपति की उपाधि ग्रहण की । इस प्रकार शिवाजी का अपना स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु मराठा साम्राज्य बनाने का सपना पूरा हुआ ।

शिवाजी की शासन व्यवस्था:

जिस प्रकार शिवाजी ने अपनी अटूट इच्छाशक्ति एवं अथक प्रयासों से अपने साम्राज्य की स्थापना की, उसी प्रकार उन्होंने अपने शासन प्रबन्ध की रचना भी की, उसी प्रकार उन्होंने अपने राज्य के सैनिक एवं असैनिक प्रशासन के मुखिया थे ।

ADVERTISEMENTS:

आपने अपने शासन कार्य में सुविधा हेतु आठ मंत्रियों की एक परिषद ‘अष्टप्रधान’ स्थापित की । आपने अपने राज्य की जनता की भलाई के लिए अनेक कार्य किए । उनके शासनकाल में कोई भी व्यक्ति किसी भी समय अपनी समस्या लेकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो सकता था ।

आप एक श्रेष्ठ सेनापति तथा योग्य प्रशासक सिद्ध हुए । आपने अपने शासनकाल में अनेक नियम बनाए थे जैसे-कोई भी सैनिक युद्ध के लिए जाते समय अपनी पत्नी को साथ नहीं ले जा सकता था, युद्ध के दौरान कोई भी सैनिक शत्रु के धार्मिक स्थल जैसे मस्तिद आदि को हानि नहीं पहुँचाएगा, कोई भी सैनिक किसी भी स्त्री या बच्चे पर बार नहीं करेगा इत्यादि ।

शिवाजी धार्मिक आधार पर हर प्रकार के पक्षपात के कट्टर विरोधी थे, इसीलिए आपने अपनी सेना में हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों को भर्ती किया था । उनके लिए योग्यता अधिक मायने रखती थी । शिवाजी ने 1,00,000 पैदल सैनिकों एवं 40,000 घुड़सवारों की विशाल सेना का संगठन किया था, जिसके कारण कोई भी शासक उनके समक्ष आने का साहस नहीं कर पाता था । शिवाजी के प्रयासों के कारण ही मराठो की राजनैतिक व सैनिक शक्ति के रूप में पहचान स्थापित हुई ।

निष्कर्ष:

सन् 1608 ई. में 53 वर्ष की आयु में शिवाजी का निधन हो गया । आपके प्रयासों के फलस्वरूप ही मराठा राज उनकी मृत्यु के डेढ़, सौ वर्षों के बाद तक भी चलता रहा । आज शिवाजी को मरे सालों बीत चुके है किन्तु उनका नाम इतिहास के गौरवपूर्ण व श्रेष्ठ व्यक्तियों में अंकित होकर अमर हो चुका है । हम सभी भारतीयों को उन पर गर्व है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 2

महान भारतीय वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई पर निबन्ध | Essay on Rani Laxmibai : The Great Heroine of India in Hindi

प्रस्तावना:

मातृभूमि की रक्षा करना तथा इस प्रयास में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना भारतीयों की सदा से ही परम्परा रही है । हमारी भारतभूमि पर केवल वीर पुरुषों ने ही जन्म नहीं लिया है अपितु युग की अमिट पहचान प्रस्तुत करने वाली वीरांगनाओं ने भी इस धरती को विभूषित किया है ।

ADVERTISEMENTS:

भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने वाली भारतीय नारियों का गौरव गान पूरा संसार एक स्वर में करता है । ऐसी ही वीरांगनाओं में महारानी लक्ष्मीबाई का नाम अग्रणीय है, जिन्होंने स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे । भारत की स्वतन्त्रता के लिए सन् 1857 में लड़े गए प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम का इतिहास उन्होंने अपने रक्त से लिखा था ।

जन्म-परिचय:

लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवम्बर, 1885 ई. को पुण्यसलिला भागीरथी के तट पर स्थित ‘वाराणसी’ में हुआ था । आपकी माता का नाम भागीरथी तथा पिता का नाम मोरोपन्त था । लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम ‘मनुबाई’ था ।

मनु बाल्यावस्था से ही एक अद्‌भुत बालिका के रूप में अत्यधिक चंचल, हठी, कुशाग्र बुद्धि, निडर तथा साहसी थी, इसीलिए सब उन्हें प्यार से छवीली’ कहते थे । जब मनुबाई’ केवल चार वर्ष की थी, तभी आपकी माता का देहान्त हो गया; तब इनके पिता मोरोपन्त इन्हें लेकर बनारस से बिठूर (कानपुर के निकट) वापस आ गए ।

ADVERTISEMENTS:

अपनी पुत्री मनुबाई के लालन-पालन का उत्तरदायिब अब इन्हीं के कन्धों पर था । तत्पश्चात् आपका पालन-पोषण वाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ । वाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नानाजी के साथ आप राजकुमारी जैसे वस्त्र पहनकर व्यूह रचना, तीर चलाना, घुड़सवारी करना तथा युद्ध करना आदि खेल खेला करती थी ।

बिवाह एवं वैधव्य:

मनु जब कुछ बड़ी हो गई, तब 1842 ई में मनुबाई का पाणिग्रहण संस्कार झाँसी के अन्तिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ । विवाह के पश्चात् ‘मनुबाई’ झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी । राजमहलों में आनन्द उत्सव मनाए गए, तथा घर-घर में खुशी के दीप जलाए गए ।

विवाह के कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परन्तु दुर्भाग्यवश तीन महीने बाद ही उनके उस पुत्र की मृत्यु हो गई । पुत्र-वियोग में गंगाधर राव ने भी बिस्तर पकड़ लिया । अनेक उपचारों के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हुए तो उन्होंने दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया ।

किन्तु रानी लक्ष्मीबाई के दुखों का शायद यही अन्त नहीं था तभी तो 28 नवम्बर, 1853 को राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए । रानी लक्ष्मीबाई तो एकदम अकेली हो गई थी । मात्र अठारह वर्ष की छोटी सी आयु में ही वे विधवा हो गई पूरा अन्य दुखों के अथाह सागर में डूब गया ।

ADVERTISEMENTS:

गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात् झाँसी की रानी को असहाय एवं अनाथ मानकर अंग्रेजों की स्वार्थलिप्सा जाग्रत हो उठी । वे तो अपना साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने उनके दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया तथा झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने की आज्ञा दे दी, किन्तु लक्ष्मीबाई शेरनी की भाँति दहाड़ते हुए बोली, ”झाँसी मेरी है, मैं अपने प्राण रहते इसे कभी भी नहीं छोड़ेगी ।”

तभी से उनके हृदय में अंग्रेजों के प्रति घृणा तथा विद्रोह की ज्वाला सुलगने लगी । तभी से रानी ने महान कूटनीतिज्ञ की भांति अपनी शक्ति संचय करना प्रारम्भ कर दिया ।

प्रथम स्वतन्त्रता-संग्राम में योगदान:

सन् 1857 में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम हुआ । यह चिंगारी श्री मंगल पांडे द्वारा मेरठ में स्कूटित हुई थी । धीरे-धीरे इस युद्ध की लपटे दिल्ली, लखनऊ, बनारस आदि में भी फैलने लगी । उसी समय अंग्रेजों ने झाँसी पर भी धावा बोल दिया, शायद वे रानी की हिम्मत का अन्दाजा नहीं लगा पाए थे ।

वे नहीं जानते थे कि रानी कोई साधारण स्त्री नहीं थी, वरन् वह तो साक्षात् चण्डी बन चुकी थी, तभी तो उन्होंने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए । अंग्रेजों द्वारा गोले बरसाए गए जिसका रानी ने मुँह तोड़ जवाब दिया । परन्तु अधिक सेना न होने तथा कुछ विश्वासघाती देशद्रोहियों के कारण विजयश्री अंग्रेजों के ही हाथ आई ।

रानी ने एक बार अपने गढ़ के कोठे पर से अपनी प्यारी झाँसी को देखा तथा अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को लेकर झाँसी के किले से बाहर निकल आई । अंग्रेजों ने रानी को पकड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन वे अंग्रेजों के हाथ न आई तथा ‘कालपी’ जा पहुँची । कालपी के राजा ने लगभग 250 सैनिक युद्ध करने के लिए दे दिए ।

इन सैनिकों की सहायता से रानी भूखी शेरनी की भांति अंग्रेजों पर टूट पड़ी, किन्तु बिजयी नहीं हो पायी तथा ‘कालपी’ पर भी अंग्रेजों का ही अधिकार हो गया । इसके पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई तथा दामोदर राव ग्वालियर पहुँच गए । वहाँ भी रानी ने डटकर अंग्रेजों का सामना किया । अकेली रानी ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए । चारों ओर खून की नदियाँ बहने लगी ।

जब रानी अपने घोड़े पर बैठी हुई एक नाला पार कर रही थी तब एक अंग्रेज ने पीछे से उन पर बार कर दिया तथा वहीं पर लक्ष्मीबाई की जीवन लीला समाप्त हो गई किन्तु मरते मरते उन्होंने अपने मारने वाले अंग्रेज का जीवन भी समाप्त कर डाला । मृद्यु का आलिंगन कर सनी भगवान की प्यारी हो गई ।

उपसंहार:

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन चित्रण प्रत्येक महिला के लिए आदर्श है जो बताता है कि नारी अबला नहीं, वरन् सबला है । लक्ष्मीबाई तो ममता दृढ़ता वीरता, त्याग की साक्षात् प्रतिमा थी । जिस स्वतन्त्रता संग्राम का बीज रानी ने बोया था, उसका फल हम भारतीयों को 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त हुआ ।

आज भी उनके जीवन की प्रत्येक घटना भारतीयों में नव-स्कूर्ति तथा नव चेतना का संचार कर रही है । उनका नाम ही आज भी भारतीय नारी का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है कि एक नारी ने पुरुष समाज में कुछ कर दिखाया । हम भारतीय सदा उनके ऋणी रहेंगे ।


Hindi Nibandh (Essay) # 3

महान कवि कबीरदास पर निबन्ध | Essay on Great Poet Kabirdas in Hindi

प्रस्तावना:

हिन्दी भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि संत कबीरदास जी हैं । अधिकांश विद्वानों का मत है कि कबीरदास जी का जन्म सन् 1455 ई. में काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था ।

उस विधवा ने लोकलाज के भय से पैदा होते ही आपको तालाब के किनारे छोड़ दिया था, तब ‘नीस’ नामक जुलाहे ने आपका पालन पोषण किया । आपकी मृत्यु सन् 1556 ई. में हुई थी ।

शिक्षा:

कबीरदास का जीवन एक अच्छे तथा कुशल गृहस्थ की भांति व्यतीत हुआ । घर-गृहस्थी से अवकाश न मिल पाने के कारण आपकी शिक्षा नहीं हो पाई । स्वयं के अशिक्षित होने के विषय में स्वयं कबीरदास जी ने लिखा है :

“मसि भगद छुऔ नहिं, कलम गहयो नहिं हाथ ।’”

कबीरदास जी को भले ही पुस्तकीय ज्ञान न प्राप्त हुआ हो, परन्तु उन्हें सांसारिक अनुभव भरपूर मात्रा में प्राप्त था । उन्होंने तत्कालीन हिंदू संत रामानन्द जी से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी । इस विषय में कबीरदास जी ने स्वयं लिखा है :

”काशी में हम प्रकट भए, रामानन्द चेताए ।”

यह बात तो सर्वविदित ही है कि आपका पालन पोषण काशी के जुलाहे दम्पति नीरु तथा लीमा ने किया था । उन्होंने आपका विवाह ‘लोई’ नामक सुन्दर कन्या से करा दिया, जिससे ‘कमाल’, ‘कमाली’ नामक पुत्र-पुत्री उत्पन्न हुए । अपने पुत्र के विषय में स्वयं कबीरदास जी ने लिखा है :

“बुडा वंश कबीर का, ऊपजा पूत कमाल ।।”

वैयक्तिक विशेषताएँ:

कबीरदास जी के विषय में अध्ययन करने से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि आप तत्कालीन हिन्दू धर्म प्रवर्तक और प्रचारक आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से प्रभावित थे ।

आप किसी भी प्रकार के अवतारवादी दृष्टिकोण के पक्षधर नहीं थे वरन् आपका जीवन दर्शन तथा आचरण सभी कुछ सर्वशक्ति सम्पन्न केवल परब्रह्म से ही प्रभावित था । आपने सगुण मतावलाम्बियों का विरोध करते हुए कहा है कि:

“दशरथ सूत तिहुं लोक बखाना । राम का मरम नहीं है जाना ।।”

आप एक महान समाज-सुधारक तथा चिन्तक भी थे । उनकी सामाजिक चेतना में जात-पाँत, ख्याछूत वर्ण भेद आदि के लिए कोई जगह नहीं थी । आपने अपने समय में प्रचलित अंधविश्वासों व धर्म के खोखले प्रदर्शन का भरपूर विरोध किया तथा सर्बसमन्वय का प्रबलता से पक्ष लिया । मूर्ति पूजा के विरोध में आपने कहा है:

“कंकर पत्यर जोरि के, मस्जिद लई बनाय । ता चढ मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ सुदाय ।।”

इसी प्रकार हिन्दुओं की मूर्ति पूजा के विरोध में आपने कहा है:

”पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार । ताते या चक्की भली, पीस खाय संसार । हम भी पाहन पूजते, होते धन के रोझ । सतगुरु की किरपा भई, सिर से उतरया बोझ ।।”

जातिगत ऊँच-नीच का तीव्र विरोध करते हुए आपने सभी को मानवता का पथगामी बनने के लिए कहा:

”साई के सब जीव हैं, कीसई कुंजर दोय ।”

”जाति-पाँति पूछै नाहि कोऊ ।

हरि को भजै सो हरि को होऊ ।।

उन्होंने एक ओर ब्राह्मणों को उनके झूठे ब्राह्माणत्व का विरोध करते ह्म फटकार लगाई :

”जो जू बाँभन बांभनी आया ।

आन राह हवै क्यो नहि आया ।।

दूसरी ओर मुसलमानों के आडम्बरो का विरोध करते हुए कहा है:

”दिन को रोजा रखत है, राति हनत है गाय । यह तो खून वह बन्दगी, कैसे खुशी सुदाय ।।”

प्रसिद्ध रचनाएँ:

कबीरदास की तीन प्रसिद्ध रचनाएँ हैं:

‘साखी, ‘सबद’ तथा ‘रमैनी’ । इन तीनों कृतियों में आपने समस्त संसार के व्यापार का चित्रण किया है । कबीरदास की साखियों अत्यन्त लोकप्रिय है, जिन्हें पढ़ने व मनन करने से अज्ञानी तथा मोहग्रस्त व्यक्ति भी जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है ।

कबीरदास जी ने अपनी रचनाओं में गुरु-महिमा का जो स्वरूप खींचकर प्रस्तुत किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता । गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हुए आपने कहा है:

1. गुरु शाबिन्द होऊ खड़े, काके लागो पाय,

बहिलसि गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय ।।

2. सैट गुर का महिमा अनंत, अनंत किया उपकार ।

लोचन अनंत ऊघड़िया, अनंत दिखावण हार ।।

3. कबीर हरि के रूठने, गुरु के सरने जाए ।

कह कबीर गुरु रूठते, हरि नाहिं होत सहाए ।।

काव्यगत विशेषताएँ:

कबीरदास जी की भाषा तद्‌भव, देशज तथा विदेशी शब्दों के मेल से बनी भाषा है जिसमें लोक-प्रचलित शब्दों की बहुतायत है । लोकोक्तियों तथा मुहावरों का सुन्दर प्रयेग किया गया है । शैली-बोधमन्य होने के साथ-साथ चित्रात्मक है । ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ ने कबीरदास को ‘श्वाणी का तानाशाह’ कहा है । किसी कवि का यह कथन कबीरदास जी की लोकप्रियता सिद्ध करता है:

”तत्व तत्त्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठि । बची खूचीं कबीरा कही, और कहीं सब झूठि ।।”

उपसंहार:

सन्त कवि कबीरदास जी का व्यक्तित्व निःसन्देह ही समन्वयवादी था । वे अपने युगीन-परिस्थितियों के पूर्ण अनुभवी थे तथा इन्हीं परिस्थितियों के वशीभूत होकर आपने सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाया । उनका यह सुधारात्मक दृष्टिकोण मृतप्राय हो गए समाज में आज भी प्रेरणा-संचार करता है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 4

कविवर सूरदास पर निबन्ध | Essay on Surdas : The Leading Poet in Hindi

प्रस्तावना:

महाकवि सूरदास हिन्दी काव्य जगत के भानु है । अपने इष्टदेव की आराधना अर्चना में इस कविवर ने तल्लीन होकर जो काव्य सृजन किया है वह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है ।

भक्ति, संगीत तथा काव्य की त्रिवेणी आपके पदों में निरन्तर प्रवाहित है । हिन्दी साहित्य में मात्र सूरदास ही ऐसे कवि हुए हैं जिनकी तुलना कवि शिरोमणि तुलसीदास से की जाती है । सूर सूर तुलसी ससि कहकर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि सूरदास जी तुलसीदास के ही समान महान कवि थे ।

जीवन परिचय:

महाकवि सूरदास सगुणमार्गी कृष्ण भक्ति शाखा के मुख्य कवि हैं । उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में अनेक मत हैं । विद्वानों के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् 1535 (सन् 1478 ई.) में हस्तिनापुर (वर्तमान में दिल्ली) के निकट सीही गाँव में हुआ था ।

आप जाति के सारस्वत ब्राह्मण थे । इनके जन्म से ही अन्धे होने तथा बाद में अन्धे होने के बारे में विद्वानों में विरोधाभास है । इसके अतिरिक्त आपकी शिक्षा-दीक्षा केविषय में भी कोई उचित जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है ।

यह तो सर्वाविदित है कि सूरदास बचपन से ही विरक्त प्रवृत्ति के थे तथा संगीत प्रेमी थे । युवावस्था आपने आगरा तथा मथुरा के बीच गौ घाट पर रहने वाले साधुओं के साथ बिताई थी । संगीत के प्रति स्वभाविक रुचि होने के कारण समय मिलते ही आप तानपुरा पर गीत गुनगुनाने लगते थे ।

आप मरुघाट पर रहकर विनय के पद गाया करते थे । महाप्रभु बल्लभाचार्य आपके गुरु थे तथा उन्हीं से प्रेरणा पाकर आप भागवत के आधार पर कृष्ण की लीलाओं का गान करने लगे । आप श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन किया करते थे ।

बल्लभाचार्य के पुत्र बिट्‌ठलनाथ ने अष्टछाप के नाम से जिन आठ कृष्ण भक्त कवियों का संकलन किया, उनमें सूरदास श्रेष्ठतम कवि हैं । सूरदास जी की मृत्यु सम्बत् 1640 में ‘पारसोली’ ग्राम में हुई थी । प्रसिद्ध रचनाएँ-सूरदास जी ने लगभग पच्चीस ग्रन्धों की रचना की थी, परन्तु विद्वानों ने उनके केवल तीन ग्रन्धों को ही प्रमाणिक माना है, जो निम्नलिखित हैं:

सूरसागर:

सूरसागर सूरदास जी की सर्वश्रेष्ठ एवं महानतम रचना है । इसमें कृष्ण लीला सम्बन्धी बिभिन्न प्रसंगों के पद संग्रहीत हैं । इसमें कवि का ध्यान मुख्य रूप से कृष्ण की लीलावर्णन में ही रचा-बसा है । कृष्ण की बाल-लीला, रूप-माधुरी, प्रेम, विरह तथा भ्रमर गीत के प्रसंग कवि ने विस्तारपूर्वक वर्णित किए हैं । सूरदास के कुल पदों की संख्या करीब सवा लाख बताई जाती है परन्तु अभी तक प्राप्त पदों की संख्या लगभग दस हजार है ।

सूरदास ने अपने पदों में कृष्ण-जन्म की बधाईयों से अपने पदों को प्रारम्भ कर उनके कौमार्यावस्था तक का वर्णन किया है । इस ग्रन्ध में सूरदास जी ने दर्शाया है कि बालकृष्ण हाथ में माता यशोदा द्वारा दिए गए नवनीत (मक्खन) को लिए हुए अपने सौन्दर्य से विशेष आकर्षण प्रकट कर रहे हैं-

”सोभित कर नवनीत लिए । पुटसुनि चलत रेनु तन मंडित दधि मुख लेप किए ।।

सामान्य बालकों की तरह कृष्ण का माता यशोदा से यह प्रम करना सचमुच बड़ा रोचक लगता है-

”मैया कबहि बढैगी चोटी । किती बार मोहि ह्म पिबत भई यह अजहूँ छोटी । तू जो कहाती बल की बेनी ज्यो मैं लॉबी मोटी ।।

कृष्ण जब कुछ बड़े हो जाते हैं; तब राधिका को पहली बार देखकर कैसे मोहित हो जाते हैं और उससे प्रश्न पूछने पर वह किस प्रकार से कृष्ण को उत्तर देती हैं, इसका वर्णन सूरदास ने संयोग मृगार द्वारा बड़े ही स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है:

बूझत स्याम कौन तू गोरी ।

कहाँ रहति काकी है तू बेटी, देखी नहीं कबहूँ स्ज खोसई । काहें को हम ब्रज तन आवत, खेलति रहति आपनि पैरी । सुनति रहति नंद के ढोटा, कुरत फिरत माखन-दधी चोरी । ‘तुम्हरो कहाँ चोरि हम लैहे, खेलन चलौ संग मिलि जोरी । सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका गोरी ।।

(2) सूरसारावली:

यह एक छन्द संग्रह है तथा इसमें दो-दो पक्तियों के ग्यारह सौ सात छन्दों का समावेश है, जिनमें होली के जेल के रूपक में सृष्टि रचना का वर्णन है ।

(3) साहित्य लहरी:

यह सूरदास के दृष्टकूट पदों की रचना है । इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम, अनुराग, नायिका-भेद, अलंकार तथा रस का विवेचन है । इसमें एक सौ अठारह पद हैं । यह एक शृंगार रस प्रधान काव्य है, जिसने अन्य रसों का भी प्रतिपादन है ।

साहित्यिक विशेषताएँ:

सूरदास उच्च कोटि के भक्त कवि थे । भक्ति उनके लिए साधन मात्र न होकर साध्य थी । बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने के कारण आपने पुष्टिमार्गीय भक्ति को ग्रहण किया था । वात्सत्य तथा माधुर्य भाव की भक्ति आपकी मुख्य भक्ति थी । सूर की गोपिकाएँ उनकी माधुर्य भक्ति का ही आदर्श स्वरूप हैं । आपके काव्य में विनय तथा दास्वभाव के भी अत्यन्त सुन्दर उदाहरण मिलते हैं ।

”अब मैं नाच्यो फत गोपाल” पद में भक्त सूरदास नंदलाल से बिनय करते हैं:

”सूरदास की सदै अविधा दूरि करौ नन्दलाल ।” सूरदास की अपनी लघुता तथा दीनता एवं अपने इष्टदेव कृष्ण की महत्ता का वर्णन उनके विनय पदों का मुख्य सार है ।

क्रीड़ावर्णन में भी सूरदास मानो सिद्धदस्त है । एक दिन साथियों में क्षोभ बढ़ गया क्योंकि कृष्ण ने दाब देने से मना कर दिया था, परन्तु बात्यावस्था में तो साम्यवाद की प्रधानता रहती है, वहाँ न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई धनी है न ही कोई निर्धन । इसका सूर ने कितना स्वाभाविक वर्णन किया है:

”खेलत ने को काकी गुसइयाँ । हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ । जाति पांति हमसे बढ़ नाहि, नाहिन बसत तुम्हारी छैयाँ । अति अधिकार जनाबत याते, अधिक तुम्हारे है कहु गैयाँ ।”

कला पक्षीय विशेषताएं:

सूर के काव्य का भाव-पक्ष ही नहीं अपितु कला पक्ष भी सर्वश्रेष्ठ है । ब्रजभाषा को काव्यपयोगी भाषा बनाकर उसमें माधुर्य संचार का श्रेष्ठ श्रेय सूरदास को ही जाता है । आपके काव्य में फारसी, उर्दू तथा संस्कृत के भी शब्द मिलते हैं ।

आपने सादृश्य मूलक उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक तथा श्लेष, वक्रोक्ति, यमक आदि अलंकारों का रमणीय प्रयोग किया है । सूरदास जी ने अपने काव्य के वर्णनात्मक भाग में चौपाई, चौबोला, दोहा रोला, रूपकाव्य, सोरण, सबैया आदि छन्दों का प्रयोग किया है । बाल-लीला तथा गोपी-प्रेम के प्रसंग में शैली सरस, प्रवाहपूर्ण तथा माधुर्यपूर्ण है जबकि दृष्टकूट पदों में शैली अत्यन्त अस्पष्ट ब कठिन हैं ।

उपसंहार:

कविवर तुलसीदास ने जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के चरित्र-चित्रण के द्वारा समस्त जनमानस को जीवनादर्श का मार्गदर्शन कराया, वही महाकवि सूरदास जी ने लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की विविध हृदयस्पर्शी लीलाओं के द्वारा जनमानस को सरस तथा रोचक बनाने का अद्‌भुत प्रयास किया है ।

निःसन्देह हिन्दी साहित्य आप सरीखे कवि को पाकर धन्य हो गया है । अयोध्या सिंह ‘उपाध्याय जी के शब्दों में- ”वास्तव में बे सागर के समान बिशाल थे और उन्होंने सागर की ही उत्ताल-तरंग-माला संकलित की है । उनके काव्य में मौजूद श्रुंगार हास्य, करुण, बात्सत्य आदि रसों का सुन्दर चित्रण अवर्णनीय हैं ।”


Hindi Nibandh (Essay) # 5

गोस्वामी तुलसीदास पर निबन्ध | Essay on Goswami Tulsidas in Hindi

प्रस्तावना:

अपने कृतियुष्पों से माँ भारती के श्री चरणों की पूजा करते हुए अनेक कवियों ने हिन्दी काव्य को सुसमृद्ध किया है । गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्यकार में चमकते हुए सूर्य की भांति हैं जिन्होंने भारतीय जन-मानस को सबाधिक प्रभावित किया है ।

तुलसीदास हिन्दी के लोकनायक कवि एवं भारतीय-संस्कृति केकर्णधार हैं । केवल भारतीय ही नहीं, अपितु अंग्रेजी साहित्यकारों ने भी तुलसीदास जी को विश्व के महानतम कवियों में से एक माना है । इस सूक्ति को किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है:

”सूर-सूर, तुलसी शशि, उड़ान केशवदास । अब के कवि खधोत सम, जह तह करत प्रकाश ।।”

जीवन-परिचय:

महाकवि तुलसीदास जी के जन्म के विषय में विद्वान एक मत नहीं हैं । कुछ लोग सूकद क्षेत्र (सोरो) को आपका जन्म स्थान मानते हैं किन्तु अधिकतर लोगों का मत है कि आपका जन्म यमुना तट पर स्थित बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में संवत् 1554 में श्रावण शुक्ला सप्तमी को हुआ था । इस पक्ष के समर्थक अपना पक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :

”पन्द्रह सौ चौवन दिखे कालिन्दी के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धर्‌यो शरीर ।।

आपकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराज दूबे था । आपका जन्म ब्राह्मण जाति में हुआ था तथा आपके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । दुर्भाग्यवश बाल्यावस्था में ही आपके माता-पिता का वात्सल्य पूर्ण हाथ आपके सिर से उठ गया, जैसा कि उन्होंने स्वयं ही लिखा है :

“मातु पिता जग ज्याइ तज्यो, विधि हूँ न लिखी कहु भाल भलाई ।।”

सामाजिक परिस्थतियों:

तुलसीदास जी के जन्म के समय भारतवर्ष विदेशी शासकों से आक्रान्त था । देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्थिति डाँवाडोल हो रही थी । उचित नेतृत्व के अभाव में जनता आदर्शहीन तथा उद्देश्यहीन होकर भटक रही थी ।

विदेशियों के प्रभाव से देश में विलासिता भर चुकी थी । निम्नवर्गीय लोगों में अशिक्षा तथा अज्ञानता का साम्राज्य था तथा विद्वानों का भी उचित आदर-सम्मान नहीं होता था । तुलसीदास के गुरु जी स्वामी नरहरिदास थे । आपका आरम्भिक जीवन बेहद दुखों से भरा हुआ था ।

अभुक्त मूल नक्षत्र मै पैदा होने से माता-पिता ने आपका परित्याग कर दिया था और आपको दर-दर की ठोकरे खानी पड़ी थी । आपका विवाह दीनबन्धु पाठक की बिदुषी कन्या रत्नावली से हुआ था और आप अपनी पत्नी से बेहद प्यार करते थे ।

ऐसा माना जाता है कि एक बार आप वासना के वशीभूत होकर रस्सी के सहारे नदी पार कर अपनी धर्मपत्नी के पास रात्रि में ही पहुँच गए तो आपकी पली ने आपको फटकार दिया था कि हमारे शरीर में ऐसा क्या है जो आप इतने कष्ट उठाकर आए हैं ।

जितना प्रेम आप हमारे शरीर से करते हैं, वैसा अगर राम नाम से करोगे तो तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी । तभी से तुलसीदास गृहस्थ जीवन का परित्याग कर ईश्वर भक्ति में लीन हो गए तथा भारत के प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों, विशेषकर काशी, चित्रकूट तथा अयोध्या आदि की यात्रा करते रहे ।

पली प्रेम ने आपके जीवन को एक नया मोड़ दिया, एक नवीन चेतना प्रदान की, जिससे आप कवि शिरोमणि बन पाए । संवत् 1680 में आपका देहावसान हो गया, जैसा कि इस दोहे से प्रमाणित होता है:

”संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर । श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यौ शरीर ।। ”

व्यक्तित्व विशेषताएं:

कवि शिरोमणि तुलसीदास जी महान समाजसुधारक, लोकनायक, भविष्यदृष्टा, कवि तथा सभ्यता एवं संस्कृति के कर्णधार थे । आपके विषय में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत व्यक्त किए हैं- नाभादास ने आपको ‘कालेकाल का वाल्मीकि’ कहा था, स्मिथ ने आपको मुगलकाल का सबसे बड़ा व्यक्ति तथा ग्रिर्यसन ने बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक माना है । वास्तव में तुलसीदास असाधारण व्यक्तित्व के धनी लोकनायक महात्मा थे ।

साहित्यिक विशेषताएँ:

तुलसीदास जी ने अपने जीवन काल में सैंतीस ग्रन्थों की रचना की थी परन्तु नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्यावली के अनुसार उनके बारह ग्रन्थ ही प्रामाणिक माने जाते हैं ।

रामचरित मानस, गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, जानकी मंगल, कृष्ण गीतावली, रामलला, नदहू, बरबै रामायण, पार्वती मंगल, बैरागी, सन्दीपिनी, रामाज्ञा प्रश्न आदि है । इनमें से ‘विनय पत्रिका’, गीताबली’ आदि गीति रचनाएँ हैं तो ‘कविताबली’ तथा ‘दोहाबली’ मुक्तक काव्य है ।

इनमें से ‘समचरितमानस’ सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य है, जो न केवल भारतवर्ष का सर्वोकृष्ट काव्य-अन्य है, अपितु विश्व के अन्य महाकाव्य ग्रन्धों में भी एक महान काव्य है । इसमें तत्कालीन सामाजिक, राष्ट्रीय तथा मानव जीवन से सम्बन्धित परिस्थितियों पर बड़ी ही गम्भीरतापूर्वक प्रकाश डाला गया है ।

रामचरितमानस का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कवि ने इसके अनुसार जीवन धारण करने वालों का जीवन ही सार्थक माना है । कवि शिरोमणि तुलसीदास जी ने इसमें प्रभु राम का सम्पूर्ण जीवन चरित्र बड़े सुन्दर ढंग में वर्णित किया है ।

साहित्यिक विशेषताएँ:

आपकी काव्य रचनाओं में पाणित्य दर्शन न होने के कारण भावपक्ष एवं कलापक्ष अत्यन्त सशक्त है तथा इसमें सभी रसों की धाराएँ बहती हैं । आपने अवधी तथा ब्रजभाषा का प्रयोग किया है । भाषा शुद्ध, परिकृत, परिमार्जित एवं साहित्यिक है ।

तुलसीदास ने भाषा प्रयोग में संस्कृत के तत्सम एवं तद्‌भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया है । कही-कही तो आपने संस्कृत के विभक्ति रूपों एवं क्रिया रूपों को भी अपनाया है । आपने अलंकारों का प्रयोग जान-बूझकर नहीं किया है किन्तु अर्थ की सफल अभिव्यक्ति के लिए, भावों के सौन्दर्य की अतिवृद्धि के लिए तथा रूपचित्रण प्रस्तुत करने के लिए स्वत: ही अलंकारों का प्रयोग हो गया है ।

आपके काव्य में चौपाई, दोहा, सोरण पद, तोद्री, सारंग, मल्हार, चंचरी, भैरव, वसन्त तथा रामकली आदि विभिन्न छन्दों तथा रागों का प्रयोग हुआ हैं । तुलसीदास जी ने अपने समय में प्रचलित सभी शैलियों का प्रयोग किया है ।

आपने शक्ति ष्णै शैव मत का, वैष्णोपासना में राम तथा कृष्ण की उपासना का, वेदान्त में निर्गुण और सगुण पक्ष का तथा चारों आश्रमों का व्यापक समन्वय प्रस्तुत किया है ।

उपसंहार:

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के सर्वोच्च कवि हैं । उन जैसा कवि सदियों में एक बार ही पैदा होता है । ‘रामकाव्य’ के तो वे सम्राट थे । जैसा भाव सौन्दर्य, गांभीर्य, भाषा शैली का उत्कर्ष उनके काव्य में दिखाई देता है, वैसा अन्यत्र नहीं । तुलसीदास लोकदृष्टा, जागरुक विचारक तथा सामाजिक मनोविज्ञान के सच्चे पारखी थे ।

हिन्दी साहित्य तथा हिन्दू-समाज सदा आपका ऋणी रहेगा । आपके दिव्य सन्देश ने मृतप्राय हिन्दू जाति के लिए संजीवनी का कार्य किया है । आपके साहित्य के विषय में साहित्यिक विद्वानों की यह उक्ति अक्षरक्ष: सत्य है:

”कबिता करके तुलसी न लसे, कबिता लसी पा तुलसी की कला ।।”


Hindi Nibandh (Essay) # 6

नाटककार जयशंकर प्रसाद पर निबन्ध | Essay on Jaysankar Prasad : The Dramatist in Hindi

प्रस्तावना:

युग की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समय-समय पर युग-प्रवर्तकों का उदय होता रहा है । समाज एवं राष्ट्र की दशा को चित्रित करने वाला साहित्य का युगान्तकारी परिवर्तन कोई सिद्धहस्त साहित्यकार ही प्रस्तुत कर सकता है ।

कविवर जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी के नाट्‌य साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात किया । प्रसाद जी जैसे युगान्तकारी नाटककार के आगमन के साथ ही हिन्दी नाट्‌य साहित्य में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया ।

उन्होंने अपने भावपूर्ण ऐतिहासिक नाटकों में राष्ट्रीय जागृति, नवीन आदर्श एवं भारतीय इतिहास के प्रति अगाध श्रद्धा प्रस्तुत की है । सर्वगुण सम्पन्न इस नाटककार ने कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध आदि विधाओं में रचना करके में हिन्दी साहित्य को सम्पन्नता प्रदान की है ।

जन्म परिचय एवं शिक्षा:

श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल द्वादशी सं. 1946 वि. (सन् 1889 में काशी में एक सुप्रतिष्ठित सूँधनी साहू के परिवार में हुआ था । आपको पारिवारिक सुख नहीं मिल पाया क्योंकि जब आप मात्र बारह वर्ष के थे तभी श्री देवी प्रसाद जी का निधन हो गया था ।

पन्द्रह वर्ष की आयु में माता तथा सत्रह वर्ष की आयु में बड़े भाई भी चल बसे । उस समय आप सातवीं कक्षा में पढ़ते थे । आपकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई थी । घर में ही आपने अंग्रेजी, बंगाली, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा उर्दू आदि भाषाओं का अध्ययन किया ।

प्रसाद अत्यन्त मेधावी तथा प्रतिभा सम्पन्न थे । आपने अल्पायु में ही काव्य रचना के अंकुर प्रस्युटित होने लगे । कवि-गोष्ठियों तथा कवि-सम्मेलनों के द्वारा आपकी प्रतिभा और अधिक निखरने लगी थी । आपकी पहली कविता नौ वर्ष की आयु में ही प्रकाश में आ गई थी । विषम परिस्थितियों के कारण आपका सम्पन्न परिवार ऋण के बोझ तले दब गया ।

अत: जीवन भर आपको कष्टमय जीवन जीना पड़ा था, परन्तु आपने कभी भी हार नहीं मानी । चिन्ताओं ने आपके शरीर को जर्जर कर दिया था तथा आप क्षयरोग के शिकार हो गए थे । 15 नवम्बर, 1937 को काशी में ही आपकी मृत्यु हो गयी ।

प्रसादजी की प्रमुख रचनाएँ:

सर्वगुण सम्पन्न प्रसाद जी जैसा. साहित्यकार हिन्दी साहित्य में कोई दूसरा नहीं है । आपने नाटक, काव्य, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, सम्पादन आदि सभी विधाओं पर कुछ-न-कुछ अवश्य लिखा है परन्तु आप मुख्यत: नाटककार तथा कवि ही थे ।

आँसू, झरना, प्रेम पथिक, चित्राधार, लहर, करुणालय, कानन कुसुम, कामायनी आपकी प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं । इन सभी में कामायनी हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । कंकाल, तितली तथा इरावती अपूण आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं । अंधी, छाया, इन्द्रजाल आकाशदीप, प्रतिध्वनि में आपकी कहानियाँ संकलित हैं ।

अजातशत्रु, राज्य श्री, चन्द्रगुप्त, स्कन्धगुप्त कामना, ध्रुवस्वामिनी, एक घूँट, विशाख, कल्याणी, जनमेजय का नागयज्ञ आदि आपके प्रसिद्ध नाटक हैं । आपने ‘इन्द्र’ नामक मासिक पत्रिका का भी सम्पादन किया । इसके अतिरिक्त आपने दार्शनिक एवं साहित्यिक विषयों पर कुछ निबन्ध भी लिखे हैं ।

काव्यगत विशेषताएं:

भाव पक्ष महाकवि प्रसाद जी को काव्यक्षेत्र में अप्रतिम लोकप्रियता प्राप्त हुई है । यो तो आपके प्राय: सभी काव्य अदभुत तथा विशिष्ट है, परन्तु ‘कामायनी’ आपकी अमर काव्यकृति है । आपने अपनी प्रतिभा के बल से काव्य के विषय तथा क्षेत्र में मौलिक परिवर्तन किए । आपने प्राचीन एवं अर्वाचीन का अद्‌भुत समन्वय करके एक नई धारा को अवतरित किया ।

आपने अपने काव्य में नारी के कोमल अवयवों का उत्तेजक वर्णन न कर उसके आन्तरिक गुणों पर अधिक बल दिया । आपने रीति-कालीन कवियों की भांति नारी को केवल नायिका रूप में न देखकर त्यागमयी बहिन, प्रेममयी प्रेयसी तथा श्रद्धामयी माता के रूप में भी देखा । आपने नारी का श्रद्धामयी रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है

”नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पद तल में । पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।।”

इसके अतिरिक्त प्रसादजी हिन्दी काल, में छायावादी काव्य धारा के जनक माने जाते हैं । आपको प्रकृति से स्वभाविक प्रेम है तथा आपका प्रकृति निरीक्षण सर्वथा सूक्ष्म है तथा प्रकृति-चित्रण अत्यन्त अनुपम है । कलापक्ष-प्रसादजी कलापक्ष की दृष्टि से भी एक महान कलाकार है । आपकी भाषा संस्कृत प्रधान है । आपकी शैली अलंकृत एवं चित्रात्मक है तथा शब्दावली समृद्ध एवं व्यापक है ।

आपने गद्य तथा पद्य दोनों में भावात्मक शैली का प्रयोग किया है । छन्द योजना अति सुन्दर एवं आकर्षक है । प्रसादजी प्रेम पथ के सच्चे पथिक है । ‘आँसू’ कविता के द्वारा प्रसादजी ने अपनी प्रेयसी से विमुक्त हो जाने का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हुए सच्चे प्रेम-प्रेमिका की प्रेमानुभूति वर्णित की है:

”जो धनीभूत पीड़ा जी, मस्तिष्क में स्मृति सी छाई । दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई ।।

आपने अपने काव्य में रूपक, उपेक्षा, अनुप्रास, अतिशयोक्ति, उपमा आदि अलंकारों की अद्‌भुत छटा प्रस्तुत की है । उपमा अलंकार का एक सुन्दर दृश्य यहाँ प्रस्तुत है:

”धन में सुन्दर बिजली सी, बिजली में चपल चमक-सी । आँखों में काली पुतली, पुतली में स्याम झलक-सी ।।

नाटकीय विशेषताएँ:

प्रसादजी के ऐतिहासिक नाटकों में सर्वप्रथम रचना ‘राज्यश्री’ है । इसमें हर्षकालीन भारत का सुन्दर चित्रण है । अजातशमु द्वारा प्रसादजी को एक नाटककार के रूप में सबसे अधिक प्रसिद्धि ‘मिली’ । चन्द्रगुप्त तथा स्कच्छूप्त प्रसाद जी के सर्वोकृष्ट नाटक है । उनके नाटकों में राष्ट्रप्रेम की भावना मिलती है । ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक के एक गीत की पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं:

”अरुण यह मधुमय देश हमारा । जहाँ पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा ।।

‘जनमेजय का नागयज्ञ’ आपका पौराणिक नाटक है तथा ‘कामना’ तथा ‘एक घूँट’ भावनाट्‌य है । ‘ध्रुवस्वामिनी’ एक ऐतिहासिक नाटक है, जिसमें नाटककार ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्राचीनकाल में भी विधवा विवाह का चलन था ।

अत: आपकी समस्त रचनाओं में गम्मीर चिन्तन, इन्द्र, सूक्ष्म चरित्र-चित्रण, गम्भीर सांस्कृतिक वातावरण तथा सुगठित कथास्सों के कारण प्रसाद जी के नाटक उच्चकोटि के हैं ।

उपसंहार:

निःसंदेह जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के गौरव हैं । आपके नाटक अतीत के चित्रपट पर वर्तमान की समस्याओं के चित्र अंकित करते हैं । ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, साहित्यिक एवं राष्ट्रीय सभी दृष्टियों से प्रसाद जी के नाटक हिंदी साहित्य की अस्त निधि हैं । हम भारतीय सदा उनके ऋणी रहेंगे ।


Hindi Nibandh (Essay) # 7

मुंशी प्रेमचन्द पर निबन्ध | Essay on Munsi Premchand in Hindi

प्रस्तावना:

जीवन की यथार्थता को प्रकट करने वाली साहित्यिक विधा ‘उपन्यास’ आधुनिक युग की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी विधा है । उपन्यास को ‘गद्य का महाकाव्य’ कहा जाता है । इस लोकप्रिय विधा के सबसे लोकप्रिय साहित्यकार ‘मुंशी प्रेमचन्द’ हैं ।

आपने अपने उपन्यासों के माध्यम से भारतीय समाज के प्रत्येक पाठक को बहुत प्रभावित किया है । जो स्थान रुसी भाषा में गार्की का तथा बंगला भाषा में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय है वही स्थान हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द जी का है ।

जीवन-परिचय एवं शिक्षा:

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 मई, सन् 1880 ई. को काशी नगर से पाँच मील दूर स्थित हमही नामक ग्राम में एक निर्धन कायस्थ परिवार में हुआ था । आपका बचपन का नाम धनपत राय था । आपके पिता का नाम बाबू अजायबराय तथा माता का नाम आनन्दी देवी था ।

आपके पिता डाकखाने में 20 रु. मासिक वेतन पर मुंशी का कार्य करते थे । जब आप छोटे ही थे तभी आपकी माँ का देहान्त हो गया था । जब आप सात वर्ष के थे तभी आपके पिता ने दूसरी शादी कर ली । गरीबी तथा सौतेली माँ के निष्ठुर व्यवहार से प्रेमचन्द बहुत आहत रहते थे ।

मुंशी प्रेमचन्द के समय में ‘बाल विवाह’ का चलन था इसलिए जब आप मात्र चौदह-पन्द्रह वर्ष के थे तभी आपका विवाह हो गया था । आपके विवाह के कुछ दिनों बाद ही आपके पिता की भी मृत्यु हो गयी । घर गृहस्थी का पूरा भार आपके कन्धों पर आ गिरा ।

आपका बचपन बहुत कष्टमय गुजरा परन्तु साहस, परिश्रम तथा कष्टों के बीच इन्होंने अपनी पढ़ाई के बीच गरीबी आड़े नहीं आने दी । आपकी प्रारम्भिक शिक्षा पाँचवे वर्ष से आरम्भ हुई थी । आपने किंग्सवे कॉलेज से हाई स्कूल की परीक्षा पास की ।

तलश्चात् सरकारी नौकरी में रहते हुए सी.टी. तथा इन्टर की परीक्षा पास की । कुछ समय अध्यापक की नौकरी करने के बाद आपको गोरखपुर में स्कूल इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गयी । स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण आपने यह नौकरी छोड़ दी ।

आप पुन: बस्ती के सरकारी विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हो गए । वहीं से गोरखपुर जाकर बी.ए., की परीक्षा उत्तीर्णकी । असहयोग आन्दोलन तथा गाँधीवादी विचारों से प्रभावित होकर आपने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । तत्पश्चात् आप आजीवन साहित्य साधना में ही लीन रहे ।

आरम्भ में आपने कहानी लेखन का कार्य किया तथा आपने उर्दू में पवाबराय के नाम से कहानियाँ लिखी । हिन्दी का लेखक बनते ही आपने अपना बचपन का नाम धनपतराय बदलकर ‘प्रेमचन्द’ कर लिया तथा इसी-नाम से किताबें लिखी । 18 अक्तूबर, सन् 1936 को आपका निधन हो गया ।

साहित्यिक कार्य-प्रेमचन्द एक उच्चकोटि के कलाकार थे तथा लिखने के व्यसनी थे । उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, जीवनी-चरित आदि के रूप में आपने हिन्दी-साहित्य की बहुत सेवा की पर आपकी प्रमुख देन कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में हैं ।

प्रेमचन्द के प्रमुख साहित्यिक कार्य इस प्रकार हैं:

1. कहानी संग्रह:

आपने लगभग 250 कहानियाँ लिखी हैं । सप्त सरोज, नवनिधि, प्रेमपूर्णिमा, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोगा, लाल फीता, प्रेम प्रमोद, प्रेम द्वादशी, प्रेमतीर्थ शान्ति, प्रेम चतुर्थी, पाँच फूल, अग्नि समाधि सप्त सुमन, समर यात्रा, प्रेम सरोवर, प्रेरणा, प्रेम पुंज मानसरोवर (आठ भाग), कुत्ते की क्सनी हिन्दी की आदर्श कहानियों, नारी जीबन की कहानियों, कफन, जंगल की ध्यानियाँ, प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ कहानियों, प्रेम पीयूष आदि आपके कहानी संग्रह है ।

(2) निबन्ध संग्रह:

स्वराज्य के फायदे, कुछ विचार, साहित्य का उद्देश्य ।

(3) जीवन-चरित:

महात्मा शेखवादी, कलम, रामचर्चा तलवार और न्याय एवं

दुर्गादास ।

(4) अनूदित रचनाएँ:

आपने कई पुस्तकों का सफल अनुवाद किया है । अनातोले के ‘टीप्स’ का अनुवाद अहंकार नाम से किया । इलियट के ‘साइलस मार्नर’ का अनुवाद ‘सुखदास’ नाम से किया ।

‘चांदी की डिबिया हड़ताल, ‘न्याय’ ‘सृष्टि का आरम्भ’, आपके अनूदित नाटक हैं । आजाद कथा नाम से आपने रतननाथ सरशार द्वारा लिखित किसान-ए-आजाद का अनुवाद किया । ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ भी अनुवादित ग्रन्ध हैं ।

(5) सम्पादित ग्रन्थ:

मनमोदक, गल्प समुच्चय तथा गल्पर्नल ।

(6) बाल-साहित्य:

कुत्ते की कहानी, मनओदक राम चर्चा आदि ।

(7) उपन्यास:

कर्मभूमि, प्रेम, निर्मला, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, सेवा सदन, मंगलसूत्र (अधूरा), गोदान, गबन, प्रतिज्ञा, दुर्गादास हैं । कला की दृष्टि से ‘सेवासदन’ आपका प्रथम प्रौढ़ उपन्यास है, जिसमें वेश्या समस्या का प्रतिपादन किया गया है ।

‘प्रेमाश्रम’ में किसान-जमींदार के संघर्ष का मार्मिक चित्रण है । ‘गबन’ में मध्यवर्गीय समाज की आर्थिक स्थिति तथा उससे उत्पन्न विडम्बनाओं का चित्रांकन है । कर्मभूमि में स्वतन्त्रता संघर्ष की झाँकी प्रदर्शित की गई है । ‘गोदान’ हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है जिसमें प्रेमचन्द ने किसानों की समस्याओं तथा उनके जीवन का यथार्थवादी चित्रण किया है । ‘गबन’ का नायक होसई’ भारतीय किसान का प्रतिनिधि है ।

साहित्यिक विशेषताएँ:

यह बात तो सर्वविदित है कि जयशंकर प्रसाद सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार है, क्योंकि उनके उपन्यासों में प्राय: सभी समस्याओं तथा राष्ट्रीय चेतना एवं जनचेतना की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है । प्रेमचन्द्र सुधारवादी सिद्धान्त वाले थे इसलिए उन्होंने अपने उपन्यासों में पुल-विवाह, बालू-विवाह, विधवा-विवाह पर रोक, दहेज-प्रथा, बेमेल-विवाह, वेश्यावृत्ति आदि समस्याओं को दूर करने का प्रयल किया है ।

राजनीति में वे गाँधीवादी विचारों से सहमत थे । सन् 1921 से 1930 के दशक में हुए आन्दोलनों तथा उसके परिणामों की सामाजिक प्रतिक्रिया ही उनके उपन्यासों तथा कहानियों की विषय बनी । इसके अतिरिक्त गाँववासी होने के कारण प्रेमचन्द किसानों के जीवन; उनकी सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति से भलीभाँति परिचित थे और वही चित्रण उन्होंने अपने उपन्यासों में भी किया है ।

प्रेमचन्द की भाषा सीधी-साधी, ठेठ हिन्दुस्तानी, प्रौढ़, परिकृत, संस्कृत पदावली से प्रौढ़ एवं उर्दू से चंचल है । मुहावरों एवं कहावतों का पर्याप्त प्रयोग किया गया है । अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । शैली अत्यन्त आकर्षक एवं मार्मिक है ।

उपसंहार:

मुंशी प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य की अनवरत सेवा की है । उनके साहित्य की सर्वश्रेष्ठ विशेषता उसकी राष्ट्रीयता एवं भारतीय संस्कृति के प्रर्तिपादन में है । उनका मत था कि किसी भी राष्ट्र एवं समाज की उन्नति तभी संभव है जब वह अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा के प्रति सजग रहे ।

आपकी अमूल्य कृतियों के लिए हिन्दी साहित्य सदैव आपका ऋणी रहेगा । इस उपन्यास सम्राट के विषय में नरेंद्र कुमार पाण्डेय ने कहा है:

“मानवता के क्रन्दन को, तुमने शुभ शाश्वत वाणी दी, निपट निरीहो के सम्बल, तुमने अनुपम कुर्बानी दी । उपन्यास सम्राट किया तुमने जन-मन कुसुमित, प्रेमचन्द ! शत शत प्रणाम, तुम पर स्वदेश है गर्वित ।।”


Hindi Nibandh (Essay) # 8

आधुनिक मीरा: श्रीमती महादेवी वर्मा पर निबन्ध | Essay on Srimati Mahadevi Burma : The Modern Meera

प्रस्तावना:

आधुनिक मीरा के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती महादेवी वर्मा का काव्य स्वर आँसुओं तथा विरह-वेदना से पूर्ण है साथ ही उसमें नारी के सहज एवं स्वभाविक स्वाभिमान की भी झलक देखने को मिलती है ।

महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा इसलिए कहा जाता है क्योंकि प्रेम की पीड़ा का गीतों में साकार रूप दोनों के ही काव्य में देखने को मिलता है । मीरा का प्रिय स्पष्टत: एवं सर्वज्ञात, सगुण, साकार एवं लीला बिहारी श्रीकृष्ण हैं, जबकि महादेवी का प्रिय तथा आराध्य बेसे तो अज्ञात है, परन्तु उसकी अपनी सत्ता से भिन्न भी नहीं है ।

जन्म परिचय एवं शिक्षा:

श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में सन् 1907 ई. को हुआ था । आपके पिता वहाँ के एक प्रसिद्ध वकील थे । आपकी आरम्भिक शिक्षा जबलपुर से एवं उच्च शिक्षा इलाहाबाद में हुई थी । इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में एम.ए. करने के पश्चात् श्रीमती वर्मा प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्राचार्या के महत्त्वपूर्ण पद भी कार्यरत रही । आपका विवाह कम, आयु में ही कर दिया गया था, परन्तु आपकी चेतना में तो सांसारिकता का मोह एवं स्वार्थ बिस्कुल भी नहीं था ।

इसलिए आप ससुराल में कभी भी नहीं गई तथा सदा ही साहित्य साधना में ही लीन रही । आप अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ जुड़कर मानव सेवा भी करती रही । प्रारम्भ से ही आपका झुकाव बौद्ध मत की ओर था इसलिए आप बौद्ध भिसु भी बनना चाहती थी, किन्तु असफल रही ।

महादेवी वर्मा का काव्य:

महादेवी वर्मा के काव्य में सर्वत्र ईश्वरीय सत्ता का समावेश है । उनकी कविताओं में अज्ञातप्रिय का संकेत भी सर्वत्र मिलता है । विस्मय खोज, प्रेम में तन्मयता, प्रेम की पीर, मिलन का संकेत, प्रिय की सर्वव्यापकता ही उनके काव्य की विषय वस्तु है । यथा :

”कौन तुम मेरे हृदय में,

कौन मेरी कसम मेनित मधुरता भरता अलक्षित । कौन फासे लोचनो में घुमड़ फिर झरता अपरिचित ।” आपकी सखी तो वेदना ही है तभी तो आप पीड़ा रूपी प्रियतम (परमात्मा) को प्राप्त करना चाहती है । वे कहती है:

”परिचय इतना, इतिहास यही, कल उमड़ी थी मिट आज चली मैं नीरमनी दुःख की बदली ।।

पीड़ा के साथ-साथ उनके हृदय में दया का अथाह सागर भी समाया है । वे व्यक्तिगत पीड़ा को लोक की पीड़ा मानती है । वे करुणा चाहती है तथा करुणा को बिखेरना भी चाहती है । उनके गीतों में करुणा का समावेश इस प्रकार हुआ है :

“तुम दुःख बन बस पथ में आना, भूली में नित सु पाटल सा । खिलने देना मेरा जीवन, क्या हार बनेगा वह जिनसे । सीखा न हृदय को विधवाना ।।

महादेवी जी छायावादी काव्यधारा की प्रमुख आधारस्तम्भ मानी जाती है । रहस्यवादी काव्य चेतना का विकास सर्वाधिक आपकी रचनाओं में ही दिखाई पड़ता है । कवयित्री के रूप में आपने छायावादी रहस्यवादी स्वरूप को तब भी छूता से बनाए रखा जब आधुनिक काव्य क्षेत्र में नए-नए वाद जन्म लेकर समाप्त होते रहे । इसी कारण इन्हें छायावादोत्तर युग की और इस धारा की एकमात्र अन्तिम कवयित्री स्वीकार किया गया है ।

नीहाए’, ‘नीरजा’, रीश्म’, ‘यात्रा’, ‘दीपशिखा’, सम्मागीत’ आदि आपके प्रमुख काव्य संग्रह हैं । यामा’ एवं ‘सन्धिनी’ में आपकी प्रमुखएवं प्रतिनिधि कविताएँ संकलित हैं । संगीतात्मकता, ध्वन्यात्मकता चित्रमयता आदि गृण आपकी समूची कविताओं में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । ‘दीपक’ आपकी अनवरत साधना का प्रतीक है ।

महादेवी जी का गद्द-संकलन:

गद्य के क्षेत्र में महादेवी वर्मा की एक विशिष्ट शैली है । रेखाचित्र एवं शब्दचित्र को तो आपने चरम शिखर तक पहुँचाया है । ‘अतीत के चलचित्र’, ‘पथ के साथी’, ‘स्मृति की रेखाएँ’ ‘तथा मृखला की कडियाँ’ आपकी प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं ।

नारी जाति की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए आपने समय-समय पर वैचारिक गरिमा से मण्डित अनेक निबन्ध में लिख डाले । आपके गय में भी छायावादी काव्य के सभी गुण स्पष्ट प्रतीत होते हें ।

पुरस्कारों से सम्मानित:

श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक कुशल सम्पादिका के रूप में भी मान एवं यश अर्जित किया है । आपको ‘नीरजा’ नामक काव्य संकलन के लिए प्लेक्सरिया पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था जबकि यामा’ पर ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ प्राप्त हुआ था ।

उपसंहार:

निःसन्देह मीरा जैसी प्रेम की पीर महादेवी के अतिरिक्त आधुनिक काव्य में कही और नहीं देखी जा सकती है । आज श्रीमती महादेवी वर्मा का पार्थिव शरीर हमारे मध्य नहीं हैं, लेकिन अपने भावों तथा विचारों के रूप में आपने जो काव्य एवं गद्य-साहित्य हमें प्रदान किया है उसमें मानवीय करुणा, विरह प्रेम वेदना की जो आत्मा तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठापित की है, उसके कारण हिन्दी साहित्य में आप सदा अमर रहेंगी । आत्मा तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठापित की है, उसके कारण हिन्दी साहित्य में आप सदा अमर रहेंगी ।


Hindi Nibandh (Essay) # 9

जीवज में त्योहारों का महत्व पर निबन्ध | Essay on Importance of Festivals in Life in Hindi

प्रस्तावना:

भारतवर्ष विभिन्नताओं का देश है जहाँ जाति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाजों, त्योहारों सभी में विभिन्नताएँ पायी जाती है । परन्तु इस विभिन्नताओं में एकता ही भारत की पहचान है ।

भारतीय त्योहार ही सांस्कृतिक चेतना तथा मानव की उन्नत भावनाओं के प्रतीक है तथा जन-जीवन में जागृति के प्रेरणा-स्रोत हैं । त्योहार राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के परिचायक है । त्योहारों ने ही भारतवर्ष की भूमि को देव-भूमि बना दिया है ।

विभिन्न त्योहारों का आधार-हमारे देश में अनेक त्योहारों का आगमन होता रहता है । इनमें कुछ त्योहार ऋतु तथा मौसम के अनुसार मनाए जाते हैं, तो कुछ त्योहार सांस्कृतिक या किसी घटना विशेष से सम्बन्धित होकर सम्पन्न होते हैं ।

कुछ त्योहारों का आधार अतीत के उन महापुरुषों का जीवन है, जिनसे मानव जीवन का बहुत हित हुआ है यो फिर जिन महापुरुषों ने संसार में जन्म लेकर अपने अद्‌भुत तथा विस्मयकारी कार्यों से पूरे विश्व को चमकृत कर दिया हे । कुछ त्योहार ऐसे भी है, जिन्हें हम राजनैतिक त्योहारों की श्रेणी में रख सकते हैं ।

भारतवर्ष के विविध त्योहार:

भारतवर्ष में मुख्यतय: त्योहारों के दो प्रमुख वर्ग हैं-धार्मिक तथा राष्ट्रीय । धार्मिक त्योहार हमारी संस्कृति व सभ्यता को उजागर कर पौराणिक संस्कृति के परिवेश में हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं । नागंपचमी, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, दीपावली, होली, क्रिसमस, बकरीद, ओणम, मुहर्रम, रामनवमी, महावीर जयन्ती आदि धार्मिक त्योहार हैं ।

15 अगस्त (स्वतन्त्रता दिवस), 26 जनवरी (गणतन्त्र दिबस), 14 नवम्बर (बाल दिवस), 5 सितम्बर (शिक्षक दिबस), 2 अक्तूबर (गाँधी जयन्ती) आदि राष्ट्रीय एवं राजनीतिक महत्त्व के त्योहार हैं । इनके अतिरिक्त बौद्ध समाज-बुद्ध जयन्ती, जैन समाज-महावीर जयन्ती, सिख समाज-गुरु नानक देव जयन्ती पर्व को विशेष उल्लास से मनाते हैं ।

कुछ त्योहार प्रान्तीय आधार पर भी मनाए जाते हैं जैसे, चैती पंजाब की वैसाखी, तमिलनाडु का पोंगल, केरल का ओणम, नववर्ष के पर्व हैं । सावन मास की हरियाली तीज एवं गणगौर प्रसिद्ध प्रान्तीय पर्व हैं । उत्तर प्रदेश की मकर-संक्रान्ति, महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी, पंजाब की लोहड़ी एवं बंगाल की दुर्गापूजा भी प्रान्तीय त्योहार है ।

भारत-त्योहारों का देश:

प्रत्येक राष्ट्र के निवासी अपने राष्ट्र के त्योहारों को धूमधाम से मनाते हैं । लेकिन जितने त्योहार हमारे देश में मनाए जाते हैं किसी और देश में तो उससे आधे त्योहारों की भी कल्पना नहीं की जा सकती । यहीं विभिन्न जातियों व धर्मों के लोग अपनै विशेष त्योहारों को पूरी श्रद्धा, लगन निष्ठा तथा खुशी से मनाते हैं ।

वास्तव में भारतीय संस्कृति के आदर्शों की झलक इन्ही त्योहारों में देखी जा सकती है । प्रत्येक जाति एवं राष्ट्र अपने सांस्कृतिक गौरव एवं पारम्परिक महत्त्व को जीवित रखने के लिए ये त्योहार मनाते हैं । जो राष्ट्र जाति या व्यक्ति विशेष इन त्योहारों को रुचिपूर्वक नहीं मनाता वह जीवित होते हुए भी मृतप्राय: है ।

ऐसे व्यक्ति या जाति का न कोई परिचय होता है और न ही कोई इतिहास । किसी कवि ने सत्य ही कहा है:

”जो त्योहार अपने मनाते नहीं हैं । कभी सर बुलन्दी वो पाते नहीं हें ।।

भारतवासी तो जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त किसी-न-किसी त्योहार से जुड़े होते हैं । इन त्योहारों से उनकी भावनाएँ भी संलग्न होती हैं । इसका कारण है हमास देश का विशाल क्षेत्रफल, देश की आध्यात्मिकता, यहाँ की ऋतु परम्परा, यहाँ की गौरवपूर्ण दीर्घ परम्परा वाली संस्कृति, यहाँ के महापुरुष एवं आदर्श नायक-नायिकाएँ एवं राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए किया गया लम्बा संघर्ष तथा विभिन्न-जातियों एबै सम्प्रदायों का विशाल जन समूह । इन सभी कारणों से भारत में हर दिन एक नया त्योहार लेकर आता है ।

त्योहारों की उपयोगिता:

किसी भी देश के तीज-त्योहार उसके वासियों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं । ये त्योहार अपने-अपने आदर्श लेकर आते हैं । यदि हिन्दू लोग दशहरा का त्योहार भगवान राम की विजय, उनकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए मनाते हैं तो दीपावली भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाते हैं ।

प्रेम, त्याग एकता, दान, दया तथा सेवा के आदर्श ही प्रत्येक त्योहार के प्राण होते हैं । इन आदर्शों से प्रेरणा पाकर ही समाज उन्नत, समृद्धिशाली तथा विकासशील बनता है । इन त्योहारों के बिना तो हमारा जीवन नीरस तथा सूना हो जाएगा ।

ये त्योहार हमारे जीवन में परिवर्तन लेकर आते हैं । इसके अतिरिक्त ये त्योहार व्यापार बढ़ाने में भी मददगार होते हैं । त्योहार के बहाने से की जाने वाली कपड़ों, खिलौनों, मिठाईयों, सजावटी सामानों आदि की खरीदारी व्यापार तथा लेन-देन को बढ़ावा देती है ।

जब हम अपने नीरस जीवन से ऊबने लगते हैं तो ये त्योहार हमारे लिए नवीन आशा लेकर आते हैं । इन्हीं त्योहारों के बहाने हम अपने सगे-सम्बन्धियों तथा मित्रों आदि से मिलजुल लेते हैं, उपहारों तथा मिठाईयों आदि का आदान-प्रदान कर लेते हैं साथ ही अपने परिवार के साथ कुछ समय बिता पाते हैं अन्यथा तो आज के आपाधापी वाले युग में किसी के पास समय ही नहीं है ।

उपसंहार:

मानवीय मूल्यों तथा मानवीय आदर्शों को स्थापित करने वाले हमारे देश के त्योहार तो शृंखलाबद्ध है । एक त्योहार समाप्त होता है तो हम दूसरे त्योहार की आशा करने लगते हैं । ये त्योहार ही भारतीय जनजीवन में उमंग तथा उत्साह लेकर आते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं ।

ये त्योहार हमें हमारी सांस्कृतिक एकता का पाठ पढ़ाते हैं । महापुरुषों से सम्बन्धित त्योहार हमें उन्हीं के आदर्शों पर चलने की प्रेरणा देते है वही राष्ट्रीय त्योहार हमारी सोयी राष्ट्र भक्ति भावना को जागृत करते हैं । व्यस्तता के पश्चात् विश्रान्ति और स्थिरता के अनन्तर परिवर्तन जिन्दगी की अनिवार्य माँग है और ये त्योहार इसकी पूर्ति करते हैं ।

आज बहुत से स्वार्थी तथा धर्मांध व्यक्ति राष्ट्रीयता तथा प्रान्तीयता के नाम पर इन त्योहारों का स्वरूप बिगाड़ने में लगे हुए हैं किन्तु हम जागरुक भारतवासियों को इन झंझटों में न पड़कर प्रत्येक त्योहार को खुशी तथा उल्लासपूर्वक मनाना चाहिए क्योंकि विशुद्ध प्रेम, सद्‌भाव क्या सहानुभूति द्वारा मनाए जाने पर ही इन त्योहारों की सार्थकता प्रकट होती है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 10

स्वतन्त्रता दिवस पर निबन्ध | Essay on Independence Day in Hindi

प्रस्तावना:

पराधीनता का दुख कितना कप्सद होता है यह बात हम भारतीयों से बेहतर और कौन समझ सकता है ? हम भारतीयों ने बरसों अंग्रेजों की गुलामी की कड़वाहट सहन की है । परन्तु स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य की स्वभाविक प्रवृति होती है ।

पराधीन व्यक्ति या देश यदि कुछ विवशताओं के कारण परतन्त्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ भी भीतर ही भीतर अपने शासक के विरुद्ध संघर्ष का आहान अवस्थ करता है । वह स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयास करता है क्योंकि- “पराधीन सपनेहुं सुख नाही ।” पराधीन व्यक्ति तो स्वप्न में भी सुखी नहीं रह सकता ।

स्वन्त्रता दिवस:

15 अगस्त, 1947 ई. को भारतवर्ष ने सदियों की परतन्त्रता के पश्चात् अंग्रेजी शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त की थी । अंग्रेजों से पूर्व करीब बारह सौ वर्षों तक मुगलों ने भी हम पर शासन किया था । यह दिन हमें बहुत कष्ट सस्करप्राप्त ध्या था । अत: 15 अगस्त का दिन प्रत्येक भारतवासी के लिए गौरब का दिन है तथा प्रत्येक भारतीय इसे पूर्ण सम्मान व श्रद्धा के साथ मनाता है ।

स्वतन्त्रता दिवस का महत्व:

हमारा भारतवर्ष सदियों तक दासता की बेडियों में जकड़ा रहा परन्तु हम भारतीय भी सदा इन बेड़ियों को काटने का प्रयास करते रहे । यह तो सर्वविदित है की देश की आजादी के लिए हमारे देश के अनेक अनमोल रलों ने अपने प्राणों की बलि दे दी ।

स्वतन्त्रता संग्राम की नींव झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के कर-कमलों द्वारा सन् 1857 में रखी गई थी । लक्ष्मी बाई तथा अग्रेंजों के बीच घमासान युद्ध हुआ । उन्होंने बहादुर देशभक्त सहयोगियों नाना साहब तात्या टोपे, बहादुरशाह आदि के साथ मिलकर अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए थे । इस संग्राम में लड़ते-लड़ते रानी ने अपने प्राणों की अकृति दे दी ।

इस प्रकार आजादी की जो चिंगारी 1857 में सुलगी थी, थोड़ी देर के लिए भस्म के नीचे क्क तो गई थी, परन्तु बुझी नहीं थी । समय पाकर बह फिर से भड़क उठी । सन् 1885 में ‘इडियन नेशनल कांग्रेस’ का जन्म इसी उद्देश्य से ह्वा था । इसके अन्तर्गत लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लालपत राय जैसे नेताओं ने कांग्रेस का नेतृत्व किया ।

अंग्रेजों के दमन:

चक्र के विरुद्ध क्रान्तिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी । स्वतन्त्रता की इस लड़ाई में राजगुरु, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, ऊधमसिंह, खुदीराम बोस, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नवयुवकों ने भी बढ्‌कर हिस्सा लिया । महात्मा गाँधी तथा अन्य नेताओं के नेतृत्व में भारतीयों ने ‘सत्याग्रह तथा ‘असहयोग आन्दोलनों’ में भाग लेकर जेल की यातनाएं सही, लाठियों तथा गालियों की मार सही, परन्तु पूर्ण-स्वराज्य की माँग से पीछे नहीं हटे ।

स्वाधीनता के इस संघर्ष में अनेक बुद्धिजीवियों चिन्तकों तथा समाज-सेवियों ने भी हिस्सा लिया । हिन्दी कवियों एवं लेखकों के योगदान भी अभूतपूर्व रहे । इनमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्बेदी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

इन कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से लोगों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा की । इस दिशा में मुंशी प्रेमचन्द्र का योगदान भी सराहनीय रहा । इस प्रकार शहीदों, क्रान्तिकारियों, लेखकों, कवियों सभी के पारस्परिक सहयोग से 15 अगस्त, 1947 ई. को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ तथा सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । भक्तों ने मन्दिरों, मस्तिदों, गुरुद्वारों में जाकर प्रार्थनाएँ की तथा मिठाईयाँ बाँटी ।

स्वतन्त्रता दिवस महोत्सव:

प्रत्येक वर्ष यह पर्व सभी शहरों, नगरों, गाँवों, विद्यालयों आदि में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । सभी सरकारी, स्वयं सेवी कार्यालयों व अन्य राजकीय स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है । शिक्षा संस्थाओं में ध्वजारोहण तथा ध्वजाभिवाहन की रस्म एक दिन पहले अर्थात् 14 अगस्त को पूरी की जाती है । विद्यार्थी ‘भारत माता की जय’, हिनुस्तान की जय, ‘जय हिन्द’ जैसे नारे लगाते हैं ।

बच्चों के बीच मिष्ठान वितरित की जाती है । भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में स्वाधीनता दिवस विशेष रूप सें मनाया जाता है । इस दिन ऐतिहासिक स्थल लाल किले के प्राचीर पर भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं ।

तत्पश्चात् वहाँ उपस्थित विशाल जन-समूह बड़े सम्मान से राष्ट्रगान गाता है । राष्ट्रीय ध्वज को 21 तोपो की सलामी दी जाती है । इसके बाद प्रधानमन्त्री देश के नाम अपना महत्त्वपूर्ण सन्देश देते हैं । इस शुभ अवसर पर विदेशी राजदूत व अतिथिगण भी उपस्थित होते हैं । विदेशों से अनेक बधाई सन्देश आते हैं । ‘जन-गण-मन’ के राष्ट्रगान के साथ इस कार्यक्रम की समाप्ति होती है ।

लालकिले पर एकत्रित अपार भीड़ में आनन्द, उत्साह तथा प्रसन्नता का भाव अवर्णनीय होता है । सभी के हृदय गर्व से फूले नहीं समाते । रात्रि के समय सभी सरकारी इमारतों, जैसे राष्ट्रपति भवन, संसद भूवन आदि पर विशेष रोशनी की जाती है । कई स्थानों पर आतिशबाजी भी की जाती है ।

उपसंहार:

इस स्वतन्त्रता को प्राप्त करने के लिए हमने बहुत कुछ खोया है । मुस्तिम लीग के नेताओं के हठ तथा अंग्रेजों की कूटनीति के कारण भारत को दो भागों में विभाजित होना पड़ा-हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान के रूप में । परिणामस्वरूप कितने ही लोगों को बेघर होना पड़ा, साम्प्रदाय विद्वेष के कारण अनेकों वीरों की जाने चली गई तथा देश के सामने अनेक समस्याएँ ऐसी भी खड़ी हो गई जिनका हल आजतक भी नहीं निकल पाया है ।

परन्तु इतनी कुर्बानियाँ देने के बाद भी आज हम प्रसन्न है क्योंकि अब हम स्वतन्त्र हैं । हमारा अपना स्वतन्त्र संविधान है, राष्ट्रीय चिह है, जो हमें गार्वित महसूस कराते हैं । हमें भी अपनी इस स्वतन्त्रता को सदैव जीवित रखने की शपथ लेनी चाहिए । हमे इस पावन राष्ट्रीय पर्व के शुभ अवसर पर अपने अमर शहीदों के प्रति हार्दिक श्रद्धा भावना प्रकट करते हुए उनके आदर्शों पर चलना चाहिए । इससे हमारी स्वाधीनता निरन्तर सुदृढ़ रूप में लौह स्तम्भ की भाँति अडिग तथा अमर रहेगी ।


Hindi Nibandh (Essay) # 11

गणतन्त्र दिवस पर निबन्ध | Essay on Republic Day in Hindi

प्रस्तावना:

26 जनवरी अथवा गणतन्त्र दिवस हमारे राष्ट्र का गौरवमयी पर्व है । 15 अगस्त, सन् 1947 को हमारा भारतवर्ष ! अंग्रेजों की दासता से मुक्त तो हुआ था परन्तु 26 जनवरी, 1950 को इसे सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न गणतन्त्र घोषित किया गया था ।

देश का शासन पूर्णरुपेण भारतीयों के हाथ में आ गया था तथा प्रत्येक भारतीय देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करने लगा था । हमारे देश के इतिहास में यह दिन बहुत महत्त्वपूर्ण है ।

गणतन्त्र दिवस:

महान राष्ट्रीय पर्व – 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होकर हमने चैन की साँस ली थी, परन्तु अभी हमारी स्वतन्त्रता अधूरी थी । अभी भी हमारे भारतीय नेता पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे ।

26 जनवरी, 1950 को हमारा यह सपना पूरा हुआ तथा जनता द्वारा बनाया गया संविधान लागू किया गया । भारत उस दिन एक समूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित हुआ । वह दिन देश के इतिहास में राष्ट्रीय गौरव का दिवस था ।

डा. भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा तैयार संविधान को लागू करने की तिथि को लेकर काफी विचार विमर्श किया गया । 26 जनवरी, 1950 को इसे लागू किया गया । देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए गए ।

डा. अम्बेडकर द्वारा निर्मित भारतीय संविधान में 22 भाग, 9 अनुसूचियाँ तथा 395 अनुच्छेद हैं । इसी दिन सूर्योदय के समय भारत की राजधानी दिल्ली में भारतीय गणतन्त्र राज्य के रूप में नवीन युग का उदय हुआ था । इस दिन से ब्रिटिश शासक की सर्वोपरि सत्ता समाप्त हो गई तथा भारतीय गवर्नर जनरल राजगोपालाचार्य ने डी. राजेन्द्रप्रसाद को भारत के प्रथम राष्ट्रपति का पद सौंपा था ।

लोकतन्त्रात्मक गणराज्य में प्रत्येक वयस्क को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है तथा जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही संसद के सदस्य होते हैं । संसद ही देश के लिए कानून बनाती है तथा संसद के हाथ में सरकार की वास्तविक सत्ता होती है ।

जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि हीराष्ट्रपति को चुनते हैं । सरकार की कार्यपालिका इन्हीं जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होती है । अत: 26 जनवरी, 1950 ही वह दिन है जब भारत वास्तविक जनतन्त्र बना ।

26 जनवरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

26 जनवरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अत्यन्त गौरवशाली है । 26 जनवरी, 1929 ई. को अखिल भारतीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ‘रावी’ नदी के तट पर पं. जवाहरलाल नेहरू ने सिंह समान गर्जना करते हुए स्वतन्त्रता की माँग की थी ।

उन्होंने यह प्रण लिया था कि भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपने प्राणों की भी आहुति दे देंगे तथा अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर देंगे । इस पूर्ण स्वतन्त्रता के समर्थन में 26 जनवरी, 1930 को ‘स्वराज्य दिवस’ मनाया गया ।

पूरे देश में राष्ट्रीय ध्वज के नेतृत्व में जुलूस निकाले गए, सभाएँ आयोजित की गई तथा प्रतिज्ञा पत्र पड़े गए । इस दिन के लिए कितने ही लोगों ने कारावास की यातनाएँ सही तथा कितनो ने ही अपने प्राणों की आहुति दे दी ।

अत: लम्बे इन्तजार के बाद 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र हो गया । 26 जनवरी के ऐतिहासिक महत्त्व को बनाए रखने के लिए इसी दिन सन् 1950 को देश का नवीन संविधान लागू किया गया । हमारा संविधान यूँ तो दिसम्बर 1949 में ही बनकर तैयार हो गया था, परन्तु 26 जनवरी, 1950 को इसे कार्यान्वित किया गया ।

गणतन्त्र दिवस मनाने की विधि:

गणतन्त्र दिवस भारत के प्रत्येक छोटे-बड़े शहरगांव में बड़ी धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है । 26 जनवरी की पूर्व संध्या में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में इस दिवस के महत्त्व को याद करते हुए नागरिकों को अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत रहने की प्रेरणा देते हैं ।

यह एक सरकारी अवकाश का दिन होता है । नगरों में बड़े-बड़े जुलूस आयोजित किए जाते हैं । राज्यों में राज्यपालों को सलामी दी जाती है । सभी शिक्षण संस्थाओं में भी यह पर्व एक दिन पहले ही मना लिया जाता है । प्रधानाचार्य महोदय झंडा फहराते हैं तथा राष्ट्रगान गाते हैं ।

वे बच्चों को महापुरुषों के बलिदानों से अवगत कराते हुए देश की रक्षा का वचन लेते हैं । बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रमों, नृत्य, वादन आदि के माध्यम से देशभक्ति की भावना को प्रदर्शित करते हैं । इस दिन सभी राजकीय भवनों पर रोशनी की जाती है । राजधानी दिल्ली में तो इस समारोह की तैयारियाँ कई महीने पहले से ही प्रारम्भ हो जाती है ।

दिल्ली में गणतन्त्र परेड का वर्णन-इस दिन दिल्ली में एक भव्य परेड निकलती है जिसे देखने के लिए देश-विदेश से असंख्य लोग आते हैं । 26 जनवरी को सूर्योदय से पहले ही बूढ़े-बच्चे, स्त्री-पुरुष सुन्दर कपड़ों में सज धजकर इण्डिया गेट पर एकत्रित हो जाते हैं ।

इस दिन सुबह इंडिया गेट पर स्थित ‘अमर जवान ज्योति’ का अभिवादन प्रधानमन्त्री द्वारा किया जाता है । तत्पश्चात् राष्ट्रपति इस अवसर पर सैनिकों द्वारा निकाली जाने वाली परेड की सलामी लेने के लिए इंडिया गेट के पास ही स्थित मंच पर आते हैं ।

उनका तीनों सेनाओं अर्थात् जल सेना, थल सेना, वायु सेना के सेनाध्यक्षों द्वारा स्वागत किया जाता है । इस अवसर पर राष्ट्रपति द्वारा सैनिकों को उनके उकृष्ट कार्यों के लिए सम्मानित भी किया जाता है ।

इसके पश्चात् परेड आरम्भ होती है । इसमें सबसे पहले जल, थल तथा वायु सेना के वे अधिकारी होते हैं, जिन्हें परमवीर चक्र, अशोक चक्र तथा शौर्य चक्र आदि से सम्मानित किया जाता है । उसके पश्चात् सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियाँ आती हैं ।

सीमा सुरक्षा बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल, भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल सहित अन्य अर्द्ध सैनिक बलों की टुकड़ियों भी परेड में हिस्सा लेते हैं जो राष्ट्रीय धुन बजाते हैं । इसके बाद सरकारी उपक्रमों सहित प्रत्येक राज्य की मनोरम तथा लुभावनी झाँकियाँ प्रस्तुत की जाती है, जो उस राज्य की संस्कृति एवं उपलब्धि को दर्शाती है । परेड के अन्त में स्कूली बच्चे करतब दिखाते हैं ।

राजपथ से प्रारम्भ होने वाली यह परेड इंडिया गेट, कनॉट प्लेस होते हुए लालकिला पहुँचती है । परेड के अन्त में वायु सेना के विमान तिरंगी गैस छोड़ते हुए विजय चौक के ऊपर से गुजरते हैं कुछ विमान पुष्पों की वर्षा करते हैं, रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ाए जाते हैं ।

संध्या के समय सभी सार्वजनिक भवनों पर बिजली की जगमगाहट दर्शनीय होती है । अनेक स्थानों पर कवि सम्मेलनों, हास्य कार्यक्रमों तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है ।

उपसंहार:

हमारा यह राष्ट्रीय पर्व हमें देश पर बलिदान होने वाले अमर शहीदों की स्मृति दिलाकर हमारी आँखों में आँसू ले आता है साथ ही हमारे मुख पर स्वतन्त्रता की खुशी भी लेकर आता है । यह पर्व हमें संविधान के प्रति कृतज्ञ तथा निष्ठावान रहने की प्रेरणा देता है । हम भारतीयों का यह कर्त्तव्य है कि हम महापुरुषों के बलिदानों को व्यर्थ न जाने दे तथा अपनी भारत माता की तन, मन, धन से सेवा करें तथा बाहरी ताकतों से उसकी रक्षा करें ।


Hindi Nibandh (Essay) # 12

शिक्षक-दिवस पर निबन्ध | Essay on Teacher’s Day in Hindi

प्रस्तावना:

मनुष्य को एक अच्छा इन्सान, जागरुक नागरिक तथा जिम्मेदारी मानव बनाने का कार्य शिक्षा ही करती हैं । शिक्षा के अभाव में मनुष्य जानवर के समान छू होता है । वह न तो स्वयं को उन्नत कर सकता है, न ही जाति, परिवार या राष्ट्र का ही उत्थान कर सकता है ।

शिक्षा द्वारा ही मनुष्य को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का बोध होता है । आज संसार में जितने भी राष्ट्र उन्नति के शिखर पर पहुँचे हैं, वे सभी उच्च शिक्षा के बल पर ही वहाँ तक पहुँच पाए हैं । शिक्षा देने का कार्य शिक्षक ही करता है ।

वह देश के भावी नागरिकों अर्थात् बच्चों के व्यक्तित्व को संवारता है तथा उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान कराता है । शिक्षक दिवस मनाने की तिथि-शिक्षक दिवस प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को पूरे देश में अति उत्साहपूर्वक मनाया जाता है ।

यह दिन हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन के जन्म दिवस के उपलक्ष में मनाया जाता है । डा. राधाकृष्णन ने 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति का पद भार सँभाला । वे संस्कृतज्ञ, दार्शनिक होने के साथ-साथ शिक्षाशास्त्री भी थे ।

राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे शिक्षा क्षेत्र से ही सम्बद्ध थे । राधाकृष्णन ने सन् 1908 में मद्रास विश्वविद्यालय से एम.ए. (दर्शन शास्त्र) में उत्तीर्ण किया । उस समय वे मात्र 20 वर्ष के थे । 1920 में आपकी नियुक्ति मद्रास प्रेजीडेन्सी कॉलेज में दर्शन विभाग के प्रवक्ता पद पर हुई । आप अपना खाली समय भारतीय दर्शन एवं धर्म का अध्ययन करने में व्यतीत करते थे ।

1920 से 1921 तक आपको कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के किंग जार्ज पंचम पद को सुशोभित किया गया । 1939 से 1948 तक आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर आसीन रहे । इसके बाद आप मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए ।

राष्ट्रपति बनने के पश्चात् जब आपका जन्म दिवस आयोजित करने का कार्यक्रम बना तो आपने जीवन का अधिकतर समय शिक्षक रहने के नाते इस दिवस को शिक्षकों का सम्मान करने हेतु शिक्षक दिवस मनाने की बात कही । उस समय से प्रतिवर्ष यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है ।

शिक्षक का महत्त्व:

भारतवर्ष सदा से ही गुरुओं, आचार्यों व शिक्षकों का देश रहा है । हमारे देश में प्राचीनकाल से ही विद्यार्थी व ब्रह्माचारी गुरुकुलों तथा आश्रमों में गुरुओं व आचार्यों के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करते आए हैं । शिक्षक तो वह व्यक्ति होता है जो पाषाण से कठोर मानव को भी मोम की भाँति मुलायम बना सकता है ।

शिक्षक बालकों में सुसंस्कार तो डालते ही हैं, साथ ही शिक्षक बालकों के हृदय से अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर कर उन्हें देश का श्रेष्ठ नागरिक बनाने का दायिन्न भी बहन करते हैं । शिक्षक तो ज्ञान द्वारा बालकों का तीसरा चसु भी खोल देने की क्षमता रखते हैं । शिक्षक उस दीपक के समान हैं जो अपनी ज्ञान ज्योति से बालकों को प्रकाशमान करते हैं ।

महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक ‘महर्षि अरविन्द के विचार नामक पुस्तक में शिक्षक के सम्बन्ध में लिखा है- ”अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के माली होते हैं । वे संस्कार, जड़ों में खाद देते हैं तथा अपने श्रम से उन्हें सींच सींचकर महाप्राण शक्तियाँ बनाते हैं ।”

इटली के एक उपन्यासकारने शिक्षक की महत्ता इस प्रकार वर्णित की है, “शिक्षक उस मोमबत्ती के समान हैं जो स्वयं जलकर दूसरो को प्रकाशवान करते हैं ।” सन्त कबीरदास ने तो गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊंचा माना है:

”गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो मिलाय ।।”

शिक्षक दिवस मनाने का महत्त्व:

शिक्षकों द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यो का मूल्यांकन कर उन्हें सम्मानित करने का दिन ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । इस दिन देश के सभी विद्यालयों एवं अन्य शिक्षण संस्थाओं में सभाएँ व गोष्ठियाँ होती हैं । बच्चों को अध्यापकों के मान-सम्मान से सम्बन्धित प्रेरणा दी जाती है तथा उन्हें यह आभास कराया जाता है कि हमारे जीवन में गुरु का स्थान कितना ऊँचा है ।

अनेक विद्यालयों में इस दिन विद्यार्थी ही अध्यापन कार्य करते हैं । इससे उनके मन में यह भावना जागृत होती है कि शिक्षण कार्य कोई व्यवसाय नहीं है अपितु यह तो मानब सेवा है इसलिए अधिक से अधिक युवाओं को इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए ।

अध्यापकों के संघ-संगठन भी इस दिन शिक्षकों के गौरव के अनुरूप उसे स्थायी बनाए रखने के लिए बिभिन्न विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । इस दिन राज्य-सरकारों द्वारा अपने स्तर पर शिक्षण के प्रति समर्पित तथा बिद्यार्थियों के प्रति स्नेह रखने वाले शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है । राष्ट्रीय स्तर पर ये पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा दिल्ली में प्रदान किए जाते हैं ।

उपसंहार:

गुरु से आशीर्वाद लेने की परम्परा भारत में प्राचीनकाल से चली आ रही है । आषाढ़ माह में पड़ने वाली पूर्णिमा को ‘व्यास पूर्णिमा’ अथवा ‘गुरु पूर्णिमा’ नाम इसी के निमित दिया गया है । आज यह एक चिन्ता का विषय बन चुका है । शिक्षक अपने कार्यक्षेत्र से विमुख होकर राजनीति में प्रवेश कर्‌ने लगे हैं तथा विद्यार्थी भी पहले जितने निष्ठावान नहीं रहे हें ।

हमारा ‘शिक्षक दिवस’ को मनाने का उद्देक्ष्य है कि राष्ट्र के निर्माता कहे व माने जाने वाले शिक्षक को उचित सम्मान मिले तथा वह भी अपने शिष्यों का सही मार्गदर्शन करे । यदि हम सच्चे मन से अपने आदर्श अध्यापक डा. राधाकृष्णन के आदर्शों पर चलते हुए शिक्षक दिवस को मनाए तो प्राचीन काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परम्परा को पुनर्जीवित किया जा सकता है ।


Hindi Nibandh (Essay) # 13

बालदिवस पर निबन्ध | Essay on Children’s Day in Hindi

प्रस्तावना:

बच्चे राष्ट्र की आत्मा होते हैं देश की मुस्कुराहट तथा देश के भावी नागरिक होते हैं । बच्चे तो प्रकृति की सबसे अनमोल देन है, जो हर किसी के जीबन में खुशी लेकर आते हैं ।

बच्चे यदि शिक्षक की प्रयोगशाला हे तो मनोविज्ञान का अ भी बच्चे ही होते हैं । किसी भी राष्ट्र की उन्नति वहाँ के बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य पर निर्भर करती है क्योंकि आगे जाकर ये बच्चे ही देश की बागडोर संभालेंगे । बच्चों का भविष्य संवारना, उन्हें अच्छी शिक्षा देना ही सच्ची देश सेवा है ।

बच्चे तो वे कोमल कलियाँ हैं, जो कल खिलकर सुन्दर ख्त बनेंगे । इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर ‘बालदिवस’ का प्रारम्भ हुआ । ‘बाल दिबस’ का अर्थ दिवस’ का अर्थ ‘बच्चों का दिन’ है अर्थात् जिस दिन सारे देश में बच्चों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं बालकों के मानसिक व शारीरिक विकास की योजनाएँ बनाकर उनको कार्यान्वित किया जाता है, वही दिन बाल दिवस कहलाता है ।

बाल दिन अनेक कल्याण संस्थाओं, केन्द्रीय व प्रान्तीय संस्कारों का बाल-कल्याण की ओर ध्यान आकर्षित करने का पावन दिन है । बाल दिवस का उद्देश्य बच्चों को भी उनके अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति सचेत करना है । बाल दिवस प्रतिवर्ष 14 नवम्बर को पूरे भारतवर्ष में बड़े जोश व उत्साह से मनाया जाता है ।

यह दिवस हमारे स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस वाले दिन मनाया जाता है । पं. नेहरू को गुलाब के फूल व फूल जैसे कोमल बच्चे बहुत प्यारे लगते थे । अत: वे अपने जन्मदिन का कुछ समय बच्चों के साथ अवश्य व्यतीत करते थे । इसीलिए नेहरूजी ने अपने जन्मदिन को बच्चों का दिन अर्थात् ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया ।

बाल-दिवस मनाने की विधि-बाल-दिवस सम्पूर्ण राष्ट्र में हर्षोल्लास से मनाया जाता है । इस दिन बच्चों की खुशी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न खेलों तथा मेलो आदि का आयोजन किया जाता है । बच्चे स्वयं-निर्मित वस्तुओं की प्रदर्शनियाँ लगाते हैं तथा वे खूब मौज-मस्ती करते हैं । अनेक स्थानों पर कविता, लेख, नृत्य, संगीत, वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ होती हैं तथा श्रेष्ठ बच्चों को पुरस्कृत भी किया जाता है ।

बाल-दिवस के अवसर पर दिल्ली में ‘नेशनल स्टेडियम’ के पास बाल-मेला भी लगता है तथा यह मेला कई दिनों तक चलता है । इस मेले में बच्चों से सम्बन्धित पुस्तकें, कैसेट आदि बिकते हैं । बच्चों के लिए हाथी-घोड़े तथा ऊँट आदि की सवारी का भी प्रबन्ध होता है ।

इस मेले का शुभारम्भ बच्चों द्वारा ही किया जाता है तथा बच्चे भी खुशीपूर्वक इस मेले का आनन्द लेते हैं । इस अवसर पर देश के प्रधानमन्त्री वहाँ आते हैं तथा अपने व्याख्यानों द्वारा सभी बच्चों को पं. नेहरू जी के आदर्शों पर चलने की प्रेरणा देते हैं । बच्चों में मिठाईयाँ तथा गुलाब का फूल वितरित किया जाता है ।

विद्यालयों में बाल:

दिवस का आयोजन-इस दिन की मुख्य शोभा विद्यालयों में देखने को मिलती है । सभी स्कूलों में यह दिन अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है परन्तु सभी का उद्देश्य बच्चों की खुशी ही होता है । इस दिन बच्चों द्वारा कविता, गीत, नाटक, भाषण, खेल-कूद, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं आदि के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं ।

किसी-किसी विद्यालय में बच्चे अपने प्रिय नेता की भाँति सज-धज कर आते हैं तथा उनके जीवन-चरित्र पर प्रकाश डालते हैं । इन सभी कार्यक्रमों में विजयी छात्रों को पुरस्कृत किया जाता है । इस उपलक्ष में प्रबन्धकों व प्रधानाचार्य द्वारा विद्यार्थियों में मिष्ठान वितरित की जाती है ।

देश की राजधानी दिल्ली में शिक्षा-विभाग की ओर से यह दिवस सामूहिक रूप से ‘छत्रसाल’ स्टेडियम में मनाया जाता है, जहाँ सभी विद्यालयों के चुनिन्दा व श्रेष्ठ विद्यार्थी एकत्रित होते हैं तथा रंगारंग कार्यक्रमों द्वारा दर्शकों का मन मोह लेते हैं ।

बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू-बच्चे पं. जवाहरलाल नेहरू जी को बहुत प्यार करते थे तथा उन्हें प्यार से ‘चाचा नेहरू’ कहकर पुकारते थे । नेहरू जी भी बच्चों पर जान छिड़कते थे तथा उनके मध्य घुल मिल जाते थे । अपने व्यस्त जीवन से वे बच्चों के लिए कुछ समय अवश्य निकाल लेते थे ।

वे बच्चों को कहानियाँ सुनाते थे, उनके साथ बातें करते थे तथा उन्हें प्यार करते थे । यह सब देखकर बच्चे भी बहुत खुश होते थे । आज भी बच्चे अपने ‘चाचा नेहरू’ को बेहद प्यार करते हैं क्या उनकी समाधि ‘शान्तिवन’ में जाकर श्रद्धा-सुमन अर्पित कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । वे चाचा नेहरू के बताए सब, कर्तव्यनिष्ठा, प्रेम, त्याग आदि आदर्शों पर चलने का प्रयास करते हैं । इस दिन बच्चों को नेहरूजी का स्मृति चिह ‘गुलाब का फूल’ अवश्य भेंट किया जाता है ।

उपसंहार:

बाल दिवस राष्ट्र के भविष्य के कर्णधारो में सद्‌गुणों, परम्पराओं तथा भारतीय संस्कृति के बीज बोने का दिन है । प्रेम, सुशिक्षा तथा पवित्र व्यवहार के जल-सिंचन से ही ये बीज अंकुरित होकर पुष्पित-पल्लवित होंगे । बच्चों के समूर्ण विकास द्वारा ही देश का सर्वांगीण विकास सम्भव है और बाल दिवस का दिन हमें यही प्रेरणा देता है कि हमें बच्चों के भविष्य को सुरक्षित तथा उज्ज्वल बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिए ।


Hindi Nibandh (Essay) # 14

दीपों का त्योहार: दीपावली पर निबन्ध | Essay on Festival of Light : Diwali in Hindi

प्रस्तावना:

भारतवर्ष, विविध त्योहारों का देश है तभी तो भारतवासी अपने जीवनके उत्पीड़न, शोक, चिन्ता तथा दुख को भुलाकर गाते मुस्कुराते हुए नए-नए त्योहार मनाते हैं । जहाँ तक हिन्दू-पर्वों त्योहारों की बात आती है, तो यह कहना गलत न होगा कि हिन्दुओं के त्योहार अन्य सभी जातियों व साम्प्रदायों से कहीं अधिक विविधता लिए हुए हैं ।

इन त्योहारों में दीपावली एक प्रमुख त्योहार है । दीपावली हमारे देश की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय धरोहर का प्रतीक है । अनेक महापुरुषों की सुखद स्मृतियाँ सँजोये हुए यह त्योहार भारतीय जनमानस को अनुप्रेरित करता है । दीपावली मनाने की तिथि-दीपावली का शाब्दिक अर्थ है-दीपों की पंक्ति अथवा दीपों का त्योहार ।

यह ज्ञान के प्रकाश का पर्व है तथा स्वच्छता एवं पावनता का उत्सव है । दीपावली का त्योहार प्रत्येक हिन्दू चाहे वह धनी हो या निर्धन, शिक्षित हो या अशिक्षित, समान रूप से पूर्ण खुशी एवं उल्लास के साथ मानता है । दीपावली का पर्व प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को असंख्य दीपों की जगमगाहट में उल्लासपूर्वक मनाया जाता है ।

यह पर्व तनम्भन, घर-बाहर, देश-नगर सभी स्थानों को प्रकाशमय देता है । यह त्योहार अनगिनत बल्बों, मोमबत्तियों, दीपों, कंडीलों, झालरों के प्रकाश से अमावस्या के घोर अन्धकार को भी पूर्णिमा में परिवर्तित कर देता है । यह इस बात का प्रमाण है कि यदि मनुष्य के हृदय में खुशी हो तो वहाँ अन्धकार के लिए कोई स्थान नहीं होता ।

घरों, चौराहों, दुकानों, बाजारों, सरोवरों आदि अनेक स्थानों पर ये दीपक असंख्य तारों की भाँति टिमटिमाते हुए बहुत ही खूबसूरत लगते हैं । इसीलिए तो दीपावली के त्योहार को ‘आलोक पर्व’ भी कहते हैं । दीपावली का त्योहार पूरे पाँच दिनों तक चलता है ।

यह त्योहार कार्तिक कृष्ण उपदेशी से लेकर कार्तिक शुक्ल द्वितीय तक मनाया जाता हैं । कार्तिक कृष्ण की भयोदशी को ‘धनतेरस’ कहते हैं । माना जाता है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने किसी राक्षस का वध किया था । इस दिन नए बर्तन तथा सोना चाँदी खरीदना बहुत शुभ माना जाता है । धनतेरस के अगले दिन ‘छोटी दीपावली’ आती है ।

इस दिन भगवान श्री राम, लक्ष्मण व सीता अयोध्या के मुख्य द्वार तक आ गए थे, किन्तु अयोध्या में उन्होंने प्रवेश नहीं किया था इसीलिए प्रत्येक हिन्दू परिवार अपने घर के मुख्य द्वार पर दीया जलाकर यह दर्शाता है कि भगवान अभी नगर के बाहर है तो उन्हें वहाँ भी प्रकाश मिलना चाहिए ।

अगले दिन बड़ी दीपावली होती है तथा इसके अगले दिल गोवर्धन पूजा होती है । इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनकी (सबसे छोटी) ऊँगली पर उठाकर ब्रजवासियों को वर्षा से बचाया था । गोवर्धन के अगले दिन भाई दूज आता है इस दिन बहने अपने भाई को तिलक करती हैं तथा उसकी लम्बी उम्र की कामना करती हैं ।

दीपावली मनाने के कारण:

दीपों का पर्व दीपावली किसी न किसी रूप में भारत की लगभग सभी जातियाँ मनाती हैं । इस उत्सव के साथ अनेक पौराणिक एवं दन्तकथाएँ जुड़ी हैं । ऐसा माना जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की समाप्ति इसी दिन हुई थी ।

इसी दिन अयोध्या के राजा रामचन्द्र जी रावण को मारकर और चौदह वर्ष का वनवास काटकर लक्ष्मण तथा सीता सहित अयोध्या लौटे थे । उन्हीं के आगमन की खुशी से अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाकर प्रभु का स्वागत किया था तथा अपनी खुशी भी प्रकट की थी ।

घर-घर मिठाईयाँ तथा उपहार बाँटे गए थे । तभी से परम्परास्वरूप यह त्योहार आनन्द उल्लास तथा विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाने लगा । जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि इसी दिन जैन धर्म के प्रवर्त्तक तथा चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था ।

इसी दिन सिक्सों के छठे गुरु हरगोविन्द सिंह जी 40 दिन नजरबन्द रहने के पश्चात् अमृतसर पधारे थे । आर्यसमाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती को भी इसी दिन निर्वाण प्राप्त हुआ था । स्वामी रामतीर्थ ने इसी महान दिन अपनी नश्वर देह का परित्याग कर दिया था ।

पौराणिक गाथाओं के अनुसार सागर मन्यन होने पर इसी दिन लक्ष्मी माँ का आविर्भाव हुआ था । इस देवी की पूजा अर्चना करते हुए यह त्योहार आर्थिक सम्पन्नता का प्रतीक बन चुका है । व्यापारीगण इस दिन को अति पवित्र मानते हैं । वे इस दिन लक्ष्मी की प्रतिमा का पूजन करते हैं तथा पूजन के व्यापार से ही नए वहीखाते का शुभारम्भ करते हैं । सारी रात्रि लक्ष्मी पूजन होता है । लक्ष्मी पूजन को लक्ष्य करके लक्ष्मी लोक का पाठ भी किया जाता है ।

लोग रात भर लक्ष्मी के आगमन की प्रतीक्षा में अपने घर खुले रखते हैं । ऋतु परिवर्तन तथा स्वच्छता की दृष्टि से भी यह त्योहार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हे । वर्षाऋतु की समाप्ति अपने प्रभाव के रूप में अनगिनत विषैले कीटाणु, मच्छर, मक्खी, खटमल आदि छोड़ जाती हैं ।

इनसे अनेक प्रकार के रोग फैलने की आज्ञका बनी रहती है जिस कारण लोग दीपावली से पूर्व: अपने घरों, दुकानों,ऑफिसों आदि में लिपाई-पुताई करवाते हैं । सारा कहा करकट बाहर निकालकर घरों को माँ लक्ष्मी के आगमन के लिए एकदम साफ-सुथरा कर देते हैं क्योंकि लोगों की ऐसी मान्यता है कि लक्ष्मी साफ घर में ही प्रवेश करती है ।

दीपावली मनाने की विधि:

इस दिन लोग सुबह सबेरे ही घरों की सफाई कर उसे खूब सजाते हैं । घरों में विभिन्न पकवानों की व्हाबू आती है । गलियों तथा बाजारों की शोभा देखते ही बनती है । हलवाईयों की दुकाने विशेष आकर्षण का केन्द्र होती है क्योंकि इस दिन सभी लोग मिठाईयाँ खरीदते हैं तथा अपने सगे-सम्बन्धियों तथा मित्रों आदि में वितरित करते हैं ।

सभी नए कपड़े पहनते हैं, बच्चे नए-नए खिलौने खरीदते हैं । पटाखे, फुलझड़ियाँ अनारबम हवाइयों, चकरी आदि छुड़ाकर अपनी खुशी प्रकट करते हैं । हर तरफ रोशनी, खुशी तथा उमंग का वातावरण होता है । संध्या समय सभी गणेश लक्ष्मी का पूजन करते हैं तथा एक दूसरे को दीपावली की मुबारकबाद देते हैं । प्रत्येक कोना रोशनी की जगमगाहट से नहाया होता है, अर्थात् अन्धेरे के लिए कोई स्थान नहीं होता ।

जुए की कुप्रथा:

कुछ गलत लोग इस दिन जुआ खेलकर इस त्योहार की पवित्रता को भंग कर देते हैं । इन् लोगों का मत होता है कि इस दिन जुआ खेलना अच्छा शगुन होता है जो जुए में जीतता है उस पर पूरे साल माँ लक्ष्मी मेहरबान रहती है ।

परन्तु होता इसके, विपरीत है तथा अनेक धर बरबाद हो जाते हैं । जुआ खेलने के साथ-साथ कुछ लोग शराब भी पीते हैं वस्तुत: मंदिरापान तथा धुत-क्रीड़ा द्वारा इस त्यौहार को मलिन होने से बचाना हम सबका कर्त्तव्य है ।

उपसंहार:

दीपावली हर्ष एवं उल्लास का पर्व है । यह उत्सव वास्तब में वीर-पूजा एवं वीर-विजय का स्मृति चिह है । इसे अज्ञान की अपेक्षा ज्ञान का प्रतीक माना जाता है । दीपक अमावस्या का अन्धकार हरता है । रावण की कुबुद्धि के अन्धकार को श्रीराम जी की भक्ति के ज्ञान ने दूर किया था । इसी प्रकार भारतवासियों को भी अपने देश से अज्ञान व अन्धकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश से सर्वत्र प्रसन्नता तथा ऐश्वर्य लाना चाहिए ।


Hindi Nibandh (Essay) # 15

भरतीय शौर्य पर्व: दशहरा पर निबन्ध | Essay on Dussehra : A Celebration of Indian Heroism in Hindi

प्रस्तावना:

हिन्दुओं द्वारा मनाए जाने वाले त्योहारों का किसी-न-किसी रूप में कोई विशेष महत्त्व अवश्य है । इन पर्वों से हमें जीवन में उत्साह के साथ-साथ आनन्द प्राप्ति भी होती है । हम इन त्योहारों से परस्पर प्रेम तथा भाई चारे की भावना ग्रहण कर अपने जीवन-रथ को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाते हैं ।

हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक त्योहारों में होली, रक्षाबन्धन, दीपावली, जन्माष्टमी की भाँति विजयदशमी (दशहरा) भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । दशहरा हिन्दुओं का पुनीत, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पर्व है । यह ग्रीष्म ऋतु का अन्त करके विजय का शंखनाद करता हुआ प्रतिवर्ष अक्सर मास में आता है ।

विजयदशमी से अभिप्राय:

विजयदशमी अथवा दशहरा दश+हरा शब्दों के मेल से बना है । क्षत्रिय श्रीराम भगवान ने राक्षस रावण के दस सिरों का हरण किया था, इसलिए यह दशहरा कहलाया गया । रावण के दस सिर दस प्रकार के पापों को प्रमाणित करते हैं ।

कुछ लोग दसों इन्द्रियाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ- मुख, चक्षु, ध्राण, नासिका, रसना, त्वचा एवं पाँच कर्मोन्द्रियाँ-मुख, हस्त, पैर, आनन्देन्द्रिया व शौचेन्द्रिय को मारने अर्थात् वश में करने के संकेत स्वरूप इस त्योहार को मनाते हैं । यह त्योहार अधर्म पर धर्म एवं असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है इसलिए इसे ‘विजयदशमी’ कहा जाता है ।

रामचन्द्र जी सत्य एवं धर्म के प्रतीक हैं तो रावण असत्य एवं अधर्म का प्रतीक है । दशहरा मनाने का काल-दशहरा शरद्-ऋतु के आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में दशमी को मनाया जाता है । इस समय खरीफ की फसल की कटाई करके किसान ‘रबी’ की फसल की बुवाई की तैयारी करने लगते हैं ।

अपने मन की खुशी को प्रकट करने के लिए वे इस त्योहार को बढ़ चढ़कर मनाते हैं । इस अवसर पर कहीं दुर्गा पूजा होती है तो कहीं भगवान राम की आराधना की जाती है । अत: दशहरा ‘दुर्गा पूजा’ तथा ‘शस्त्र पूजा’ के रूप में भी मनाया जाता है । क्षत्रिय अपने शस्त्रों की पूजा करते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

स्थगित कार्यों के शुभारम्भ के लिए दशहरा पर्व को शुभ माना जाता है । प्राचीनकाल में राजपूत इसी शुभ अवसर पर अपने शत्रुओं पर आक्रमण करने की ठानते थे । आज भी गाँबों में इस दिन बड़े-बड़े दंगल होते हैं जिसमें मल्ल विद्या एवं शस्त्रों का प्रदर्शन होता है । यह त्योहार प्रतिपदा से श्रीराम की लीलाओं के आरम्भ से लेकर भरत मिलाप तथा राजगद्दी के रूप में द्वादशी तक चलता है ।

दशहरा मनाने की विधि:

पूरे भारतवर्ष में यह त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । इसके दस दिन पहले से नवरात्रों के दौरान भगबान राम के जीवन-चरित्र पर आधारित लीला का मंचन ‘रामलीला’ के द्वारा किया जाता है । दशहरा वाले दिन श्रीराम तथा रावण का ऐतिहासिक युद्ध होता है जिसमें राक्षस रावण मारा जाता है ।

अन्त में किसी खुले मैदान में रावण मेघनाद व कुम्भकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं । इन पुतलों में आतिशबाजी भरकर आग लगाई जाती है । यह प्रदर्शन बच्चों का मनोरंजन करता है तो हम सभी को भी भगवान श्रीराम जी के आदर्शों का अनुसरण करने की प्रेरणा देकर जाता है ।

इस दिन पूरे देश में अनेक मेलों तथा रामलीलाओं का आयोजन किया जाता है । बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी नए वस्त्र धारण कर इन मेलों का आनन्द लेते हैं, खाते-पीते हैं, झूले झूलते हैं साथ ही राम जी की लीला का भी आनन्द लेते हैं । घरों में स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं ।

बंगाल में दशहरा का पर्व ‘दुर्गा पूजा’ के रूप में मनाया जाता है । ये लोग प्रतिपदा से अष्टमी तक दुर्गा-पूजन करते हैं । यहीं के लोगों में यह धारणा है कि इस दिन ही महाशक्ति दुर्गा ने कैलाश पर्वत को प्रस्थान किया था ।

अत: बंगाल में विजयदशमी वाले दिन दुर्गा माँ की प्रतिमा बनाकर गलियोंम्बाजायें में झाँकियाँ निकाली जाती हैं और फिर उस प्रतिमा को गंगा में विसर्जित कर दिया जाता है । ऐसा भी माना जाता है कि रावण के विरुद्ध रामजी को विजयी बनाने में दुर्गा माँ ने बहुत सहायता की थी ।

इस त्योहार का सम्बन्ध शक्ति रुपिणी दुर्गा द्वारा महिषासुर नामक राक्षस के वध से भी जोड़ा जाता है । लोगों का मानना है कि सभी उस राक्षस के अत्याचारों से बहुत त्रस्त थे । देवताओं ने अपनी वेदना ब्रह्मा से कही तो बखा जी ने दुर्गा रूपी शक्ति का निर्माण किया था । उसी दुर्गा माँ ने दसवें दिन महिषासुर का वध किया था ।

महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में यह त्योहार आज भी सीलंगन अर्थात् सीमोल्लंघन के रूप में मनाया जाता है । इसके पीछे यह मत है कि क्षत्रिय शासक सीमा का उल्लंघन करते थे । यहाँ शाम के समय लोग नव वस्त्रों में सज धजकर गाँब की सीमा पार ‘समी’ नामक एक वृक्ष के पत्तों के रूप में ‘सोना’ लूटकर गाँव लौटते हैं तथा उस पत्ते रूपी सोने का आपस में आदान-प्रदान करते हैं ।

वहीं ‘समी’ के वृक्ष को ऋषियों की तपस्या का तेज माना जाता है । राजस्थान में इस दिन राजा-महाराजाओं की सवारियों निकलती है तथा उनके अस्त्र शस्त्र प्रदर्शित किए जाते हैं । गुजरात में इस पर्व के दिन नृत्य- संगीत आदि समारोहों के साथ देवताओं की पूजा की जाती है । पूरे देश में ‘कूल्लू’ (हिमाचल प्रदेश) का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है ।

दशहरा का महत्त्व:

ADVERTISEMENTS:

यह दिन हमारे समाज में बहुत शुभ माना जाता है । प्राचीन संस्कृति में विश्वास करने वाले लोग इसी दिन शुभ कार्य प्रारम्भ करते हैं नया घर दुकान खरीदते हैं । प्राचीनकाल में राजपूत, मराठे इसी दिन शत्रु पर चढ़ाई करते थे ।

हिन्दू नारियाँ इस दिन घर की साफ-सफाई कर दशहरे का पूजन करती है और फिर अपने भाईयों के कानो में नौरते’ लगाती है, जो भाई-बहिन का परस्पर स्नेह दर्शाता है । इसी शुभ दिन भगवान बुद्ध का भी जन्म हुआ था ।

जिस कारण इस पर्व का महत्त्व कई गुना बढ़ जाता है । निष्कर्ष-विजयदशमी का पर्व हमारी भारतीय परम्परा, संस्कृति तथा गौरव का परिचायक है । यह त्योहार हमें प्रेरणा देता है कि अन्याय, दुराचार तथा अत्याचार को सहन करना भी पाप है ।

हमें भी भगवान राम की भाँति रावण जैसे राक्षसों का वध करना चाहिए । आज जो भी बुराईयाँ हमारे समाज में फैल रही है वे भी रावण की ही भाँति हमारा विनाश कर रही हैं इसलिए इन बुराइयों को मारकर ही हम भगवान राम के जीवन से प्रेरणा लेने की बात कह सकते हैं ।

विजयदशमी को मनाते समय हमें पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, नैतिक अनैतिक जैसे माननीय एवं पाशविक प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है । विजयदशमी का पर्व असत्य पर सत्य की विजय .का सन्देशवाहक है । इस पर्व को पूरी निष्ठा तथा सत्यता से मनाए जाने में ही इसकी सार्थकता है ।

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