List of popular Hindi stories for Kids!


Content:

  1. सन्यासी का चूहा |
  2. कार्य और कारण |
  3. अतिलोभ नाश का मूल |
  4. भाग्य का फल |
  5. कर्महीन वर पावत नाही |
  6. मित्रता में है बड़ी शक्ति |
  7. कौओ और उल्लू |
  8. उल्लू और कौवे के वैर का कारण |
  9. बड़े नाम की महिमा |
  10. नीच का न्याय |

Hindi Story # 1 (Kahaniya)

सन्यासी का चूहा |

दक्षिण देश के एक प्रान्त में महिलारोप्य नगर से थोड़ी दूर भगवान् शिव का एक मंदिर था । वहां ताम्रक्तु नाम का एक सन्यासी रहता था । वह सन्यासी नगर से भिक्षा मांग कर लाता और उससे अपनी जीविका चलाया करता था ।

प्रात: काल उस बची हुई भिक्षा को उन सेवकों में बांट देता था जो मंदिर की सफाई आदि का कार्य करते थे । एक दिन मेरे जाति-भाई चूहों ने मेरे पास आकर कहा : ”स्वामी ! यह सन्यासी अपनी भिक्षा का पात्र एक दी पर टांग देता है जिससे हम उस पात्र तक नहीं पहुंच सकते । आप चाहें तो खूंटी पर टंगे भिक्षा-पात्र तक पहुंच सकते हैं । आपकी कृपा से हमें भी प्रतिदिन उसमें से अन्न-भोजन मिल सकता है ।”

उनका अनुरोध सुनकर मैं उन्हें साथ लेकर रात को वहां पहुंच गया । मैं कूदकर भिक्षा-पात्र पर चढ़ गया और उसमें रखे अन्न को अपने साथियों के लिए गिराकर स्वयं भी खाने लगा । इस प्रकार मैं प्रतिदिन सन्यासी द्वारा लाए गए अन्न को खाकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा ।

मेरे जाति-भाई भी बहुत खुश थे । उनके भोजन की व्यवस्था भली-भांति चल रही थी । प्रतिदिन अपने अन्न के चोरी हो जाने से सन्यासी परेशान हो गया । एक दिन वह कहीं से एक फटा हुआ बांस ले आया । मेरे भय से वह सोते समय उस भिक्षा-पात्र को बांस से ठकठकाने लगा ।

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बांस से चोट न लग जाए इसलिए अब मैं उस भिक्षा पात्र तक जाने से कतराने लगा । अन्न न मिलने के कारण मुझे और मेरे सजातीय भाई-बंधुओं के भूखे मरने की नौबत आ गई । कुछ दिन बाद उस मंदिर में बृहत्सिफक नामक एक सन्यासी अतिथि बनकर आया । वह ताम्रफ्टू का घनिष्ट मित्र था ।

ताम्रचूड़ ने उसका बहुत स्वागत-सत्कार किया । रात को भोजन के उपरान्त दोनों में देर तक धर्म-चर्चा भी होती रही । किंतु ताम्रफ्टू ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षा-पात्र को खटखटाने का कार्यक्रम चालू रखा । आगंतुक सन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी ।

उसने समझा ताम्रफ्टू उसकी बात को पूरे मन से नहीं सुन रहा है । इसे उसने अपना अपमान समझा । तब वह क्रोध से भरकर बोला : ”ताम्रचूड़ तुम मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहे । न तो तुम मन से मेरी बात सुन रहे हो और न मेरे प्रश्नों के उत्तर सही ढंग से दे रहे हो ।

यह मेरा अपमान है । मैं इस अपमान को सहन नहीं कर सकता, इसीलिए तुम्हारा यह मंदिर छोड़कर बाहर जा रहा हूं ।” अपने मित्र की बात सुनकर ताम्रक्‌ट बोला : ”मित्र ऐसी बात मत कहो । तुम्हारे समान मेरा कोई दूसरा मित्र नहीं है । मेरी व्यग्रता का कारण तो कुछ और ही है ।” ”और कौन-सा कारण हो सकता है ?”

ताम्रचूड़ के मित्र ने पूछा । ताम्रचूड़ बोला : ”एक चूहा प्रतिदिन मेरे भिक्षा-पात्र से अन्न चुरा कर खा जाता है । चूहे को डराने के लिए ही मैं भिक्षा-पात्र को बांस से खटखटाता रहता हूं ।  उस चूहे ने तो उछलने में बिल्ली और बंदर को भी मात दे रखी है ।

ताम्रचूड् की बात सुनकर सन्यासी मित्र कुछ नर्म हुआ । उसने पूछा : ”तुम्हें मालूम है कि उस चूहे का बिल कहां है ?” ताम्रफ्टू ने कहा : ”नहीं मैं नहीं जानता ।” सन्यासी मित्र ने कहा : ”उसका बिल अवश्य ही किसी खजाने के ऊपर है। इसीलिए वह उसकी गर्मी से इतना उछलता है।

कोई भी काम अकारण नहीं होता । कुटे हुए तिलों को यदि कोई बिना कुटे तिलों के भाव बेचने लगे, तो भी उसके पीछे कोई कारण है ।” ताम्रचूड़ ने पूछा : ”मित कुटे हुए तिलों का उदाहरण आपने कैसे दिया ?” वृहत्सिफक ने तब उसे कुटे हुए तिलों की बिक्री की यह कहानी सुनाई ।


Hindi Story # 2 (Kahaniya)

कार्य और कारण |

रेक बार वर्षा ऋतु काल में मैंने एक अनुष्ठान करने का विचार किया । इसके लिए मैंने एक ब्राह्मण से कोई ऐसी जगह देने की प्रार्थना की, जहां बैठकर मैं अपने उस अनुष्ठान को पूरा कर सकूं । ब्राह्मण ने मेरा अनुरोध स्वीकार कर अपने घर में जगह दे दी । मैं उसके यहां रहकर अपना अनुष्ठान करने लगा ।

एक दिन प्रात: उठने पर मुझे लगा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न हो गया है । मैं उनके विवाद को ध्यानपूर्वक सुनता रहा । ब्राह्मण अपनी पत्नी से कह रहा था : ”आज सूर्योदय के समय कर्क-संक्रान्ति आरंभ होने वाली है । यह बड़ी फलदायी होती है ।

मैं तो दान देने के लिए एक-दूसरे गांव में चला जाऊंगा तुम भगवान् सूर्य को दान लेने के लिए किसी ब्राह्मण को बुलाकर भोजन करा देना ।” ब्राह्मणी कर्कशा थी । गुस्से में भरकर अपने पति से बोली : ”तुम जैसे कंगले के यहां भोजन मिलेगा कहां से ? ऐसी बात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई मैं तो जब से इस घर में आई हूं कोई सुख पाया ही नहीं ।

न कभी कोई आभूषण पहना और न मिष्ठान या पकवान ही खाए ।” ब्राह्मण अपनी पत्नी के उग्र स्वभाव से परिचित था । वह डरते-डरते बोला : ”अरी भाग्यवान ! त्योहार के दिन क्यों ऐसी बातें मुख से निकालती हो । तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए ।

अपनी इच्छा के अनुरूप कभी किसी को कुछ मिला है क्या । सबकुछ प्रभु की इच्छा पर निर्भर करता है । हमें पेटभर कर भोजन मिल जाता है यही हमारे लिए बहुत है । मनुष्य को ज्यादा लोभ नहीं करना चाहिए । ज्यादा लोभ करने वाले व्यक्ति के मस्तक में शिखा निकल जाती है ।”


Hindi Story # 3 (Kahaniya)

अतिलोभ नाश का मूल |

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किसी जंगल में एक भील रहता था । वह शिकार करके अपनी जीविका चलाता था । एक दिन उसके मन में आया कि आज हिरण का शिकार करेगा । बहुत दिनों से कोई अच्छा मांस खाने को नहीं मिला था ।

फिर हिरण का मांस बेचकर धन भी प्राप्त हो जाएगा । यही सोचकर वह घर से निकला और पास के घने जंगल में पहुंचा । वहां उसने एक बड़े से जंगली सुअर को देखा उससे कुछ ही दूरी पर एक हिरण भी विचर रहा था ।

शिकारी ने पहले तो सुअर को मारना चाहा दूसरे ही क्षण उसने सोचा कि यदि वह पहले सुअर का शिकार करता है तो हिरण तो जरा-सी आवाज सुनकर ही भाग जाएगा । इसलिए उसने पहले हिरण का शिकार करना ठीक समझा ।

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फिर क्या था शिकारी ने उसी समय तीर कमान पर चढ़ाया और निशाना साध कर छोड़ दिया । निशाना अचूक था । अगले ही पल बेचारा हिरण धरती पर गिरकर तड़पने लगा । शिकारी ने भागकर, हिरण को उठाकर कंधे पर डाल लिया और अब सुअर के शिकार को निकल पड़ा जो इसी बीच न जाने कहां छिपा बैठा था ।

वह मन में भविष्य की योजना बनाता जा रहा था । उसने सोचा कि मैं हिरण के पूरे मांस को बेच दूंगा और सुअर के मांस में से भी थोड़ा सा रखकर बाकी बेच डालूंगा । इन दोनों के मांस को बेचकर जो धन मिलेगा उससे अपनी शादी रचा लूंगा ।

जब खोजते-खोजते वह सुअर निकट आ गया तो उसने मृग को उतार कर नीचे रख दिया ताकि ढंग से सुअर का शिकार कर सके । उसने आगे बढ्‌कर सुअर पर तीर चला दिया । जैसे ही सुअर की छाती में तीर लगा वह क्रोध में भरकर पलटा और शिकारी की ओर झपटा ।

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सुअर के शरीर से खून बह रहा था । मगर इस पर भी वह मरने से पूर्व अपने शत्रु शिकारी से बदला लेना चाहता था । वैसे भी जब प्राणी की मौत आती है तो उसका कोई न कोई बहाना बन जाता है । वह बहाना जल में डूबने का हो या आग में जलने का । मृत्यु जब आती है तो उसे कोई रोक नहीं सकता ।

जो दिन भर शिकार करता रहा था, हजारों जानवरों की हत्या उसने अपने हाथों से कर डाली थी, आज उस जंगली सुअर को मारने का लोभ कर बैठा। क्रोध से भरे सुअर ने उस पर हमला किया और शिकारी को एक ही झपट्‌टे में धरती पर लंबा कर दिया ।

सुअर को भी शायद अपने जीवन में यह अंतिम हत्या करनी थी, क्योंकि जैसे ही शिकारी धरती पर गिरा तो उसके साथ सुअर भी गिर पड़ा । दोनों के मरते वक्त पास वाले वृक्ष की जड़ में रहने वाला सांप जैसे ही अपने बिल से बाहर निकला वैसे ही तड़पता हुआ सुअर उस पर गिर पड़ा ।

सुअर के नीचे दबकर सांप भी कुचल गया । अब उस वृक्ष के पास चार शव पडे थे । मृग का शिकारी का सुअर का और सांप का । यह भी इत्तफाक की बात थी कि घूमता-घामता एक गीदड़ वहां निकला और एक साथ चार शवों को पड़े देखकर वह खुश भी हुआ और चकित भी ।

वह सोचने लगा आज दैववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है । कई बार बिना उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है । इसे पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए । यह सोचकर वह मृत लाशों के पास गया । लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इतने सारे भोजन में से सबसे पहले कौन-सा भोजन खाए और किसे बचा कर रखे ।

इसी उलझन में पड़े गीदड़ ने सोचा कि पहले महीने तो इस शिकारी का मांस खाकर काम चलाएगा । दूसरे महीने में सुअर और मृग का मांस खाकर अपना काम चलाएगा । जब इनका मांस समाप्त हो जाएगा तो फिर सांप का मांस खाना शुरु कर देगा ।

मगर अब ? हां, अब क्या खाया जाए ? गीदड़ यही सोच रहा था कि अचानक उसकी नजर शिकारी के धनुष पर पड़ी जिसकी डोरी चमड़े की थी उसने सोचा आज का काम तो इस चमड़े की डोरी से भी चल जाएगा । यही सोचकर उसने उस चमड़े की डोरी पर अपने दांत गाड़ दिए ।

उसी समय वह डोरी टूट गई उसका एक सिरा बड़ी तेजी से गीदड़ के माथे को भेदकर ऊपर निकल आया मानो माथे पर शिखा निकल आई हो । इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी अधिक लालच के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठा ।

यह कथा सुनाकर ब्रहमण बोला-इसीलिए मैं कहता हूं कि अधिक लोभ कभी नहीं करना चाहिए, किंतु लोभ का बिल्कुल त्याग भी नहीं करना चाहिए । आयु, कर्म धन विद्या तथा मरण तो मनुष्य को उसकी गर्भावस्था में ही विधाता प्रदान कर देता है । इन्हें वह पौरुष से प्राप्त नहीं कर सकता ।

यह सुनकर ब्राह्मणी बोली : ‘यदि ऐसी बात है तो घर में थोड़े से तिल पड़े हुए हैं । इस बीच कोई कुत्ता आया और उसने उन तिलों पर पेशाब कर दिया । ब्राह्मणी ने जब यह देखा तो उसे बड़ी चिंता हुई और वह अपने भाग्य को कोसने लगी । फिर उसने एक उपाय सोच लिया ।

उसने वह सारे तिल एक छाज में भरे और घर-घर घूमती हुई कहने लगी कि ‘कोई इन छंटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छंटे तिल दे दे ।’ फिर अचानक ऐसा हुआ कि मैं जिस घर में शिक्षा के लिए गया हुआ था । उसी घर में वह ब्राह्मणी भी तिल बदलने के लिए पहुंच गई और उस घर की स्वामिनी से कहने लगी ‘बिना छंटे तिलों के बदले यह छंटे हुए तिल ले लो ।’

उस घर की स्वामिनी यह सौदा करने को ही थी कि उसका लड़का जिसने अर्थशास्त्र पढ़ा था बोला : ‘माता ! इन तिलों को मत लो । कौन पागल होगा जो बिना छंटे तिलों के बदले छंटे हुए तिल दे देगा ? यह बात अकारण ही नहीं हो सकती । अवश्य ही इन् छंटे हुए तिलों में कोई दोष होगा ।’

बेटे की बात सुनकर माता ने यह सौदा स्वीकार न किया । कहानी सुनाकर बृहत्सिफक ने ताम्रक्तु से कहा : ‘इसीलिए मैं कहता हूं कि कोई काम अकारण नहीं होता । चूहे के इतनी ऊंचाई पर उछलने के पीछे भी कोई कारण जरूर है । अच्छा एक बात बताओ क्या तुम्हें उस चूहे के आने-जाने के मार्ग का पता मालूम है ?’

ताम्रचूड़ बोला : ‘नहीं मित्र ! मैं इतना ही जानता हूं कि वह अकेला नहीं आता अपने साथियों के साथ आता है और उन्हीं के साथ चला जाता है’ । बृहत्सिफक ने कहा : ‘मित्र क्या तुम्हारे पास फावड़ा है ? ताम्रचूड़ बोला : ‘हां, फावड़ा तो है ।’ यह कहकर वह फावड़ा ढूंढने के लिए चला गया ।

दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर मेरा बिल खोदने का निश्चय किया । मैं यह सोचकर बहुत भयभीत हो गया कि हमारे पदचिन्ह देखकर अब ये सन्यासी हमारे बिल तक जरूर पहुंच जाएंगे और उसे नष्ट कर देंगे ।  बहुत सोच विचार कर मैंने अपना बिल छोड़ देने का निश्चय कर लिया और उसी रात अपने साथियों के साथ उस स्थान से निकल पड़ा ।

अभी हम रास्ते में कुछ ही दूर गए थे कि एक मोटे ताजे बिल्ले ने हमें देख लिया और वह हम पर झपट पड़ा । मेरे कई साथी मारे गए । जो बचे वे भी लहू-लुहान हो गए थे । उन्होंने मुझ पर दोषारोपण किया कि मेरे ही कारण उन पर विपत्ति आई थी ।

वे सब मेरा साथ छोड़कर चले गए । इस बीच सन्यासी ताम्रचूड् और उसके मित्र ने मेरे बिल का पता लगा कर उसे खोदना शुरू कर दिया । खोदते-खोदते उनके हाथ वह खजाना लग गया जिसके कारण मैं बिल्ली और बंदर से भी ऊंची छलांग लगा सकता था ।

दोनों वह खजाना लेकर वहां से लौट गए । मैं डरते-डरते अपने बिल के निकट पहुंचा और अपने बिल की दुर्दशा देखकर स्तब्ध रह गया । मैं सोच में पड़ गया कि अब कहां जाऊं ? कहां मिलेगी मेरे मन को शांति ? किस जगह मैं सुरक्षित रूप से रह पाऊंगा ?

एक-दो दिन मैंने इसी निराशा में इधर-उधर भटकते हुए निकाले । फिर मैं उसी मंदिर में चला आया । ताम्रछृ ने फिर खूंटी पर रखे भिक्षापात्र को बांस से खटखटाना आरंभ कर दिया । यह देख उसके मित्र बृहत्सिफक ने कहा : ‘मित्र ! अब तुम बेफिक्र होकर सो जाओ ।

डरने की कोई बात नहीं है । चूहा अब तुम्हारे भिक्षा-पात्र तक नहीं कूद सकता । धन और घर नष्ट हो जाने से उसका सारा उत्साह और शक्ति समाप्त हो गई है । सभी जीवन धन-बल के उत्साही होते हैं और सामर्थ्य बढ़ाकर दूसरों को पराजित करते हैं ।’

संन्यासी का कहना सच था मैंने कई बार पूरे वेग से उछलकर उस भिक्षापात्र तक पहुंचना चाहा किंतु हर बार असफल रहा । मेरी यह दशा देखकर दोनों संन्यासी मुस्कराते हुए मुझ पर व्यंग्य करते रहे । विवश होकर मैं वहां से निकल आया ।

फिर एक दिन मैंने विचार किया कि मैं फिर उस मंदिर में जाकर खजाना प्राप्त करने की कोशिश करूंगा ? चाहे इस प्रयास में मेरी जान ही क्यों न चली जाए । यही सोचकर मैं मंदिर में गया । मैंने देखा कि मंदिर के संन्यासी खजाने की पेटी को सिर के नीचे लगाकर सो रहे थे ।

मैंने पेटी में छेद करके जब उस धन को चुराने की कोशिश की तो संन्यासी जाग गए । वे लाठी लेकर मेरे पीछे दौड़े । एक लाठी मेरे सिर पर आकर लगी तो मैं तड़प उठा । किसी तरह गिरते-पड़ते जान बचाई और एक सुरक्षित स्थान पर जाकर छुप गया ।

मैं बहुत बुरी तरह से घायल हो गया था । शायद मेरी आयु के दिन शेष थे तभी तो मैं मरने से बच गया था अन्यथा मरने में कोई कसर बाकी नहीं रह गई थी । इतनी कथा सुनाकर हिरण्यक ने कहा : ‘बस तभी से मुझे वैराग्य हो गया है और इसीलिए मैं लघुपतनक के साथ उसकी पीठ पर बैठ कर यहां आ गया हूं । अब मुझे विश्वास हो गया है कि जो वस्तु भाग्य में होगी वह तो हमें मिलेगी ही और जो वस्तु दूसरों की है वह हमें कभी नहीं मिल सकती ।’ 


Hindi Story # 4 (Kahaniya)

भाग्य का फल |

किसी नगर में सागर दत्त नाम का एक वैश्य रहता था । एक बार उसके पुत्र ने सौ रुपए में एक किताब खरीदी जिसमें पुस्तक के लेखक ने लिखा था : ‘जो वस्तु जिसको मिलनी होती है वह उसे अवश्य मिलती है । उस वस्तु की प्राप्ति में विधाता भी बाधा नहीं डाल सकता ।

इसीलिए मैं किसी वस्तु के नष्ट हो जाने पर दुखी नहीं होता और किसी वस्तु के मिलने पर आश्चर्य भी नहीं करता हूं क्योंकि जो वस्तु दूसरों को मिलने वाली होगी वह हमें नहीं मिल सकती और जो वस्तु हमें मिलने वाली होगी वह दूसरों को नहीं मिल सकती ।’

उस पुस्तक को देखकर सागरदत्त ने अपने पुत्र से पूछा : ‘बेटा तुमने यह पुस्तक कितने में खरीदी ?’ ‘सौ रुपए में पिताजी ।’ पुत्र बोला । वैश्य सागरदत्त यह सुनकर क्रोधित होकर बोला : ‘अरे मूर्ख ! जब तुम लिखे हुए एक श्लोक को सौ रुपए में खरीदते हो तो तुम अपनी बुद्धि से क्या धन कमाओगे ? तुम जैसे मूर्ख को अब मैं अपने घर में नहीं रख सकता ।’

इस प्रकार सागरदत्त ने अपने पुत्र को घर से निकाल दिया । अपने पिता के ऐसे व्यवहार से उसका पुत्र क्षुब्ध हुआ । वह न सिर्फ घर से ही निकल गया अपितु उसने वह नगर भी छोड़ दिया । वह किसी दूसरे नगर में रहने लगा । कुछ दिनों के बाद उस नगर में एक व्यक्ति ने उससे उसका परिचय जानना चाहा । बोला : ‘महाशय आपका क्या नाम है और आप कहां से आए हैं ?’

उत्तर में उस वैश्य-पुत्र ने सिर्फ इतना ही कहा : ‘मनुष्य अपने प्राप्तव्य को ही प्राप्त करता है ।’ इसके पश्चात् तो जो कोई भी उसका नाम व स्थान पूछता तो वह यही उत्तर देता । तब से लोग उसे ‘प्राप्तव्य-अर्थ’ के नाम से ही पुकारने लगे ।

कुछ दिन के बाद उस नगर में एक उत्सव का आयोजन हुआ । उस उत्सव को देखने के लिए नगर की राजकुमारी चंद्रावती भी अपनी सहेलियों के साथ वहां पहुंची । इस बीच किसी देश का राजकुमार उसकी दृष्टि में आ गया । राजकुमारी उस पर मुग्ध हो गई ।

तब उसने अपनी सहेली से कहा : ‘सखी जैसे भी हो सके इस राजकुमार के साथ मेरे मिलन का प्रबंध कर दो ।’ राजकुमारी की आज्ञा पाकर वह सहेली तत्काल उस राजकुमार के पास पहुंची और उससे कहा : ‘मुझे राजकुमारी चंद्रावती ने आपके पास भेजा है ।

उसका कहना है कि वह आपकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गई है और यदि आप तुरंत उससे न मिले तो वह आत्महत्या कर लेगी ।’ राजकुमार बोला : ‘यदि ऐसी ही बात है तो मुझे बताओ मैं किस प्रकार उसके पास पहुंच सकता हूं ?

राजकुमारी की सहेली बोली : ‘रात को राजकुमारी के शयन कक्ष के नीचे आपको एक रस्सी लटकती हुई मिलेगी । उस पर चढ़कर तुम अंदर आ जाना ।’ राजकुमार बोला : ‘ठीक है, ऐसा ही होगा ।’ राजकुमार से भेंट का प्रबंध पक्का कराकर सहेली राजकुमारी चंद्रावती के पास लौट आई ।

रात्रि में राजकुमार ने सोचा : ‘राजकुमारी से छिपकर भेंट करना अनुचित होगा क्योंकि कहा गया है कि गुरु की पत्नी मित्र की पत्नी स्वामी या सेवक की पत्नी के साथ समागम करने से पाप लगता है ।  ऐसा पाप कभी भी नहीं करना चाहिए जिससे अपयश और अपमान हो । यह सोचकर उसने राजकुमारी से मिलने का विचार त्याग दिया ।

संयोगवश उस रात वह वैश्य-पुत्र प्राप्तव्य-अर्थ उस ओर से निकल रहा था । उसने राजमहल के कक्ष के नीचे रस्सी लटकी देखी तो वह उस पर चढ़कर राजकुमारी के कक्ष में पहुंच गया । राजकुमारी ने उसको वही राजकुमार समझा और बड़े मन से उसका आतिथ्य-सत्कार किया ।

उसने उसे स्वादिष्ट भोजन कराया और अपने पलंग पर सोने के लिए स्थान दिया । उसके पास लेटकर राजकुमारी ने कहा : ‘मैं आपके दर्शन मात्र से ही आपसे प्रेम करने लगी हूं । मैं अब आपको छोड़कर किसी का वर्णन नहीं करूंगी । परंतु आप मुझसे कुछ बोल ही नहीं रहे हैं । आप मुझ से बातें कीजिए न ।’

वैश्य-पुत्र के मुख से यही शब्द निकले : ‘मनुष्य प्राप्तव्य वस्तु को प्राप्त कर ही लेता है ।’ उसकी बात सुनकर राजकुमारी समझ गई कि यह कोई दूसरा व्यक्ति है । राजकुमारी से क्रोधित होकर उसे अपने कक्ष से भगा दिया । वैश्य-पुत्र एक टूटे-फूटे देव मंदिर में जाकर सो गया ।

रात को किसी समय अपनी प्रेयसी के संकेत पर नगर का एक रक्षक भी उससे मिलने उस देव-मदिर में आ पहुंचा । वैश्य-पुत्र को वहां मौजूद देखकर वह सकपका गया और उससे पूछा : ‘महाशय आप कौन हैं ?वैश्य-पुत्र ने वही रटा-रटाया उत्तर दे दिया : ‘मनुष्य अपने प्राप्तव्य को ही प्राप्त करता है ।’

यह सुनकर नगर रक्षक बोला : ‘यह तो सुनसान जगह है । आप मेरे स्थान पर जाकर सो जाइए ।’ वैश्य-पुत्र ने उसकी बात स्वीकार तो कर ली किंतु उनींदी अवस्था में होने के कारण भूल से वह उसके स्थान पर न जाकर किसी अन्य स्थान पर जा पहुंचा । वह स्थान किसी राज्यधिकारी का था ।

उसकी कन्या विनयवती भी वहां अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी । वैश्य-पुत्र को वहां पहुंचा देखकर उसने यही समझा कि यही उसका प्रेमी है । उस कन्या ने वैश्य-पुत्र की खूब खातिरदारी की और उसके साथ गंधर्व विवाह कर लिया ।

एक ही पलंग पर उसके साथ लेटते हुए वह प्रेम-विभोर होकर बोली : ‘क्या बात है आर्य । आप मुझसे बात नहीं कर रहे हैं ?’ वैश्य-पुत्र ने उसको भी वही उत्तर दे दिया : ‘मनुष्य अपने प्राप्तव्य को पा ही लेता है ।’ उसकी बात सुनकर वह राज्यधिकारी की कन्या समझ गई कि उससे भूल हो गई है ।

यह उसका प्रेमी नहीं है । वह मन में विचार करने लगी कि बिना सोचे-विचारे कुछ करने पर ऐसा ही होता है ।’  तब दुखी होकर उसने वैश्य-पुत्र को दुत्कार कर वहां से भगा दिया । वैश्य-पुत्र एक बार फिर सड़क पर आ गया । सामने से एक बारात आ रही थी ।

वरकीर्ति नामक युवक बड़ी धूम-धाम से अपनी बारात लेकर जा रहा था । वैश्य-पुत्र भी उस बारात में शामिल हो गया और बारातियों के साथ चलने लगा । बारात अपने स्थान पर पहुंची वहां उसका खूब स्वागत-सत्कार हुआ । विवाह का मुहूर्त होने पर सेठ की कन्या सज धज कर विवाह मंडप में पहुंची ।

तभी एक दुर्घटना घटित हो गई । एक मस्तहाथी अपने महावत को मारकर वहां आ पहुंचा और इधर-उधर दौड़ने लगा । यह देखकर बारातियों ने वर का हाथ पकड़ा और जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए ।  कन्या पक्ष के लोग भी भागकर अपने-अपने घरों में घुस गए ।

विवाह मंडप में अकेली कन्या खड़ी रह गई । कन्या को अकेला खड़ा देखकर वह वैश्य-पुत्र उसके पास पहुंचा और उसे सांत्वना दी : ‘डरो मत । मैं तुम्हारा रक्षक हूं ।’  यह कहकर उसने दाहिने हाथ से कन्या का हाथ पकड़ लिया और डण्डे की सहायता से उस हाथी को मारने लगा ।

संयोगवश हाथी भयभीत हो गया और वहां से चला गया । हाथी के चले जाने के बाद वरकीर्ति के बाराती भी मंडप में लौट आए । तब तक विवाह का मुर्हूत निकल चुका था । वरकीर्ति ने जब यह देखा कि उसकी वधू का हाथ किसी अन्य के हाथ में है और वह उसके साथ सटकर खड़ी है तो उसे गुस्सा आ गया ।

वह कन्या के पिता से बोला : ‘आपने अपनी कन्या का हाथ किसी और पुरुष के हाथ में दे दिया है । यह बहुत अनुचित बात है ।’ कन्या का पिता बोला : ‘हाथी के डर से मैं भी तो आप लोगों के साथ यहां से भाग गया था । यह घटना किस प्रकार घट गई इस बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है ।’ फिर उसने अपनी पुत्री से पूछा : ‘बेटी सच-सच बताओ यहां क्या-क्या घटित हुआ था ?’

कन्या बोली : ‘पिता जी इन्होंने ही आज मेरी जीवन रक्षा की है । अत: अब मैं इनको छोड्‌कर किसी दूसरे के साथ विवाह नहीं करूंगी ।’ वाद-विवाद और कहा-सुनी में सारी रात बीत गई । अगले दिन वहां भीड़ इकट्‌ठी हो गई । राजकुमारी चन्द्रावती भी वहां पहुंच गई ।

थोड़ी देर में राजा भी वहां पहुंच गया । उसने आते ही वैश्य-पुत्र से पूछा : ‘युवक तुम निर्भय होकर सारी घटना का विवरण सुना दो ।’ वैश्य-पुत्र ने कहा : ‘मनुष्य प्राप्तव्य-अर्थ को ही प्राप्त करता है ।’ उसकी बात सुनकर राजकुमारी बोली : ‘विधाता भी उसे नहीं रोक सकता है ।’

यह सुनकर उस राज्याधिकारी की कन्या विनयवती जो इस सारे तमाशे को देख रही थी बोल उठी : ‘इसीलिए मैं बीती बात के लिए पश्चात्ताप नहीं करती हूं और उस पर मुझे विस्मय भी नहीं होता ।’ उन दोनों की बातें सुनकर विवाह-मंडप में आई सेठ की कन्या बोली : ‘जो वस्तु मेरी है । वह दूसरों को नहीं मिल सकती ।’

राजा के लिए यह सब पहेली बन गया था । उसने उन तीनों कन्याओं से पृथक-पृथक सारी बातें सुनीं और जब आश्वस्त हो गया तो उसने सबको अभयदान दे दिया । उसने अपनी कन्या को सम्पूर्ण अलंकारों से सजाकर एक हजार ग्रामों के साथ अत्यंत मान-सम्मान के साथ प्राप्तव्य-अर्थ को समर्पित कर दिया ।

राजा ने कहा : ‘आज से तुम मेरे पुत्र हो ।’ इस प्रकार उस वैश्य पुत्र को राजा ने युवराज के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया । राज्यधिकारी ने भी उसी प्रकार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर अपनी कन्या विनयवती को उसे सौंप दिया । सेठ की कन्या का हाथ तो वह वैश्य-पुत्र पहले ही थाम चुका था ।

अत: सेठ की कन्या का विवाह भी उसके साथ हो गया । प्राप्तव्य-अर्थ तीनों पल्यिाएं के साथ-साथ अपने परिवार को भी वहां ले आया और आनंद के साथ जीवन व्यतीत करने लगा । यह कथा सुनाकर हिरण्यक चूहा बोला : ‘इसीलिए मैं कहता हूं कि मनुष्य अपने प्राप्तव्य अर्थ को ही प्राप्त करता है ।

मनुष्य को जो वस्तु मिलनी होती है, वह उसे अवश्य मिलती है । यही भाग्य का विधान है जो भाग्यफल से प्राप्त हुआ है । जीवन के इन दुखों के कारण ही मुझे वैसा व हुआ है ।’ यह सुनकर मंथरक बोला : ‘मित्र ! मैं तुम्हारा हितैषी हूं इसमें संदेह नहीं । आप लोगों का यहां स्वागत है । अब से इस स्थान को आप अपना ही घर समझ कर निवास कीजिए ।

जो बीत गया उसके विषय में अब सोच-विचार नहीं करना चाहिए । आप लोग तो बुद्धिमान हैं । भाग्य के विरुद्ध मनुष्य किसी प्रकार कुछ धन अर्जित कर ले तो वह उसका उपयोग नहीं कर पाता । दुर्भाग्य के कारण उसका कमाया हुआ पहले का धन भी नष्ट हो जाता है ।

भाग्य प्रबल है तो सारे कार्य अपने-आप बन जाते हैं और भाग्य विपरीत हो तो बने-बनाये कार्य भी बिगड़ जाते हैं । सोमिलक नाम के एक जुलाहे के साथ भी ऐसा ही हुआ था ।’ हिरण्यक ने पूछा : ‘यह सोमिलक कौन था और उसके साथ कौन-सी घटना घटी थी ?’  मंथरक बोला : ‘सुनो सुनाता हूं ।’


Hindi Story # 5 (Kahaniya)

कर्महीन वर पावत नाही |

किसी नगर में सोमिलक नाम का एक जुलाहा रहता था । वह एक कुशल कारीगर था । वह नगर के सब जुलाहों से बढ़िया वस्त्र-बुना करता था, किंतु दुर्भाग्य से उसका निर्वाह भली-भांति नहीं हो पाता था ।

नगर में और भी जुलाहे रहते थे जो उसके मुकाबले साधारण ही थे । किंतु वे सब अपने धंधे से खूब फल-फूल रहे थे । यह देखकर एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा: ‘ऐसा लगता है कि यह नगर मेरे लिए शुभ नहीं है । मुझे किसी अन्य नगर में जाकर यत्न करना चाहिए ।’

उसकी पत्नी बोली : ‘स्वामी तुम्हें कुछ भ्रम हो गया है । धन मिलना न मिलना तो भाग्य से होता है । जो वस्तु भाग्य में नहीं होती वह कहीं भी नहीं मिलती । इसलिए तुम बाहर कहीं मत जाओ । यहीं रह कर उद्यम करो ।’

जुलाहा बोला : ‘तुम्हारा ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि उद्योग किए बिना तो परिश्रम से किया हुआ कर्म भी फल नहीं देता । भोजन को यदि मुख में न डाला जाए तो वह अपने आप मुख में थोड़े ही पहुंच जाएगा ।

भाग्य भी उन्हीं का साथ देता है जो परिश्रमी होते हैं उद्यम करते हैं । लक्ष्मी उद्यमी व्यक्तियों के पास ही पहुंचती है । भाग्य की बात कायर करते हैं इसलिए मैं तो विदेश जरूर जाऊंगा ।’ इस प्रकार निश्चय करके वह जुलाहा वर्धमान नामक नगर में जा पहुंचा ।

वहां उसने तीन वर्ष खूब मेहनत करके तीन सौ स्वर्ण मुद्राएं अर्जित की और उन्हें लेकर अपने घर लौट पड़ा । चलते-चलते उसे रास्ते में रात हो गई । जंगली जानवरों के डर से वह रात बिताने के लिए एक बरगद के पेड़ पर चढ़कर सो गया ।

सोते-सोते उसने सपना देखा कि दो भयानक पुरुष उसके पास पहुंचे और उसकी ओर देखते हुए परस्पर बातें करने लगे । एक ने दूसरे से कहा : ‘क्या तुम्हें मालूम नहीं था कि सोमलिक के भाग्य में भोजन और वस्त्र के अतिरिक्त धन नहीं है । फिर तुमने उसको तीन सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दी ?’

दूसरे ने कहा : ‘जो उद्यमी है, उसे उद्यम का फल तो मिलना ही चाहिए । मैंने इसके उद्यम के अनुसार ही धन दिया है । इसके भाग्य का अंतिम निर्णय तो तुम्हारे हाथ में है ।’ सोमिलक हड़बड़ा कर उठ बैठा । उसने जब अपनी पोटली टटोली तो उसे खाली पाया ।

इससे उसको भारी दुख हुआ । वह सोचने लगा कि कष्ट से कमाया धन किस प्रकार सहसा चला गया है । अब मैं खाली हाथ कौन सा मुंह लेकर पत्नी के पास जाऊंगा ? यही सोचकर वह पुन: उसी नगर को वापस लौट पड़ा । इस बार उसने एक वर्ष में पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं अर्जित कर ली ।

उनको लेकर वह फिर उसी मार्ग से अपने घर के लिए लौट पड़ा । पहले की तरह इस बार भी उसी बरगद के वृक्ष के समीप उसको रात हो गई । किंतु इस बार वह वहां से चलता ही रहा । तभी उसने सामने से दो भयानक चेहरों वाले प्राणियों को आते देखा ।

वह भयभीत होकर एक वृक्ष के नीचे गया और उनकी बातें सुनने लगा ‘तुमने इस बार सोमलिक को पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं दे दी हैं । क्या तुम जानते नहीं कि उसको भोजन और वस्त्र के अलावा और अधिक कुछ मिलने वाला नहीं है ?’

दूसरा बोला : ‘मेरा काम उद्यमियों को उनके कर्मो का फल देना है वह मैंने उसे दे दिया है । किंतु उसके अंतिम उपभोग का काम तुम्हारा है । परिणाम तो तुम्हें ही देना है फिर मुझे ताना क्यों मार रहे हो ?’ उन दोनों की बातें सुनकर सोमलिक डर गया ।

उसने घबरा कर अपनी पोटली टटोली तो उसमें से स्वर्ण मुद्राएं गायब थीं । इससे उसके मन को बहुत आघात पहुंचा । वह आत्महत्या करने को तैयार हो गया । उसने इधर-उधर से कुछ तिनके इकट्‌ठे करके उनकी रस्सी बनाई और उसे लेकर एक वृक्ष पर चढ़ गया ।

उसने रस्सी का एक सिरा एक डाल से बांधा और दूसरा सिरा फंदा बनाकर अपने गले में डाल लिया । अभी वह नीचे कूदने को तत्पर हुआ ही था कि तभी आकाशवाणी हुई और एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ और उसे रोकते हुए बोला-ठहरो सोमलिक यह पाप मत करो । तुम्हारे धन को चुराने वाला मैं हूं ।

मैं तुम्हारे पास भोजन-वस्त्र से अधिक और धन नहीं देखना चाहता था । इसलिए अब तुम अपने घर लौट जाओ । तुम्हारे परिश्रम से मैं प्रसन्न हूं । इसलिए तुमसे कहता हूं कि तुम चाहो तो मुझसे एक वर मांग सकते हो । मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा ।

सोमलिक ने कहा : ‘यदि आप वरदान देना ही चाहते हैं तो ऐसा वरदान दो जिससे मेरे पास अधिक से अधिक धन हो जाए’ । तब अदृश्य दिव्य पुरुष ने कहा : ‘धन का क्या उपयोग ? तेरे भाग्य में उसका उपयोग नहीं है । भोगरहित धन को लेकर क्या करेगा ?’

सोमलिक तो धन का भूखा था बोला : ‘भोग हो या न हो मुझे धन ही चाहिए । बिना उपयोग या उपभोग के भी धन की बड़ी महिमा है । संसार में वही पूज्य माना जाता है जिसके पास धन का संचय हो । धन के कारण अकुलीन भी समाज में आदर पाते हैं । संसार उनकी ओर आशा लगाए बैठा रहता है जिस तरह एक गीदड़ बैल से आशा रखकर उसके पीछे पन्द्रह दिन तक घूमता रहा ।’


Hindi Story # 6 (Kahaniya)

मित्रता में है बड़ी शक्ति |

किसी नगर में तीक्या विषाण नाम का एक बैल रहता था । बहुत उन्मत होने के कारण उसे किसान ने छोड दिया था । अपने साथी बैलों से भी छूटकर जंगल में मतवाले हाथी की तरह बेरोकटोक घूमा करता था । उसी जंगल में पलोभन नाम का एक गीदड़ भी रहता था ।

एक दिन वह गीदड़ अपनी पत्नी सहित नदी के किनारे बैठा था कि वह बैल वहीं पानी पीने आ गया । बैल के कंधे पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी ने गीदड़ से कहा : ‘स्वामी इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखा । न जाने किस दिन यह जमीन पर गिर जाए । तुम इसके पीछे-पीछे जाओ-जब यह जमीन पर गिरे ले आना ।’

पत्नी की बात सुनकर गीदड़ बोला : ‘प्रिये न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे । कब तक इसका पीछा करूंगा ? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ । हम यहां चैन से बैठे हैं । जो चूहे इस रास्ते से जाएंगे उन्हें मार कर ही हम भोजन कर लेंगे ।

तुझे यहां अकेली छोड़कर जाऊंगा तो शायद कोई दूसरा गीदड़ इस घर को अपना बना ले । अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होता ।’ यह सुनकर गीदड़ी बोली : ‘नहीं जानती थी तू इतना कायर और आलसी है ।

तुझमें इतना भी उत्साह नहीं है । जो थोड़े-से धन से संतुष्ट हो जाता है वह थोड़े-से धन को भी गंवा बैठता है । इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के मांस से ऊब गई हूं । बैल के ये मौसपिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं । इसलिए अब इसी का पीछा करना चाहिए ।’

गीदड़ी के आग्रह पर गीदड़ को बैल के पीछे जाना पड़ा । सच तो यह है कि पुरुष तभी तक प्रभु होता है जब तक उस पर स्त्री का अंकुश नहीं पड़ता । स्त्री का हठ पुरुष से सब कुछ करा देता है । तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे-पीछे घूमने लगे । उनकी आखें उसके लटकते मांसपिण्ड पर लगी थीं ।

लेकिन वह मौसपिण्ड ‘अब गिरा’ तब गिरा लगते हुए भी गिरता नहीं था । अंत में दस-पंद्रह दिन इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा : ‘प्रिये न जाने यह गिरे भी या नहीं इसलिए अब उसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो ।’

गीदड़ी को भी गीदड़ का विचार पसंद आ गया । बैल का पीछा करके वह भी परेशान हो गई थी । तब दोनों ने बैल का पीछा छोड़ा और किसी अन्य शिकार की खोज में चले गए । सोमलिक ने दिव्य पुरुष को यह कथा सुनाकर आगे कहा : ‘इसीलिए मैं कहता हूं कि धनी व्यक्ति के पीछे ही सभी लोग आते हैं ।

अब यदि उस बैल के शरीर पर इतना बड़ा मौसपिण्ड न होता तो क्या इतने दिन वे गीदड़ और गीदड़ी उसका पीछा करते रहते ?’ सोमलिक की बात सुनकर दिव्य पुरुष ने कहा : ‘ठीक है ! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो तुम पुन: वर्धमानपुर लौट जाओ ।

वहां गुप्तधन और उपयुक्त धन नाम के दो वैश्य पुत्र रहते हैं । उन दोनों के स्वभाव को जानकर, उनमें से एक की प्रकृति के अनुसार तुम मुझसे वर मांग लेना । यदि तुम भोगहीन धन चाहते हो तो मैं तुम्हें गुप्त धन के जैसा बना दूंगा । और यदि तुमको उपभोग में आने वाला धन चाहिए तो मैं तुम्हें उपयुक्त धन के अनुरूप बना दूंगा ।’

इतना कह कर दिव्य पुरुष अदृश्य हो गया । निराश होकर सोमलिक वर्धमानपुर लौट आया । थका मांदा घर-घर गुप्तधन का पता पूछता हुआ वह अंत में उसके घरु पहुंच गया । जिस समय वह उसके घर पहुंचा सूर्यास्त हो चुका था । जब वह घर में दाखिल होने लगा तो गुप्तधन और उसके परिवार के सदस्य उसे फटकारने लगे लेकिन वह तिरस्कृत होकर भी उसके घर में घुस ही गया ।

भोजन के समय उसे भी गुप्तधन ने थोड़ा-सा भोजन दे दिया । रात को जब सोमलिक सोया हुआ था तो सपने में उसने फिर उन्हीं दोनों पुरुषों को परस्पर बातें करते सुना । उनमें से एक ने कहा : ‘हे कर्त्ता क्या आपने गुप्तधन के भाग्य में कुछ अधिक व्यय निश्चित कर दिया था जो इसने अपने भोजन में से सोमलिक को भी भोजन करा दिया है ।

यदि ऐसा है तो आपने यह ठीक नहीं किया ।’ दूसरे पुरुष ने कहा : ‘हे कर्म ! मेरा कोई दोष नहीं है । पुरुष को लाभ और हानि प्रदान करना मेरा कर्त्तव्य है, किंतु उसका फल देना आपके ही हाथ में है ।’ सुबह जब सोमलिक सोकर उठा तो उसे मालूम हुआ कि गुप्तधन बहुत बीमार है ।

उसे हैजा हो गया है । बीमार होने के कारण उसने उस दिन भोजन नहीं किया । सोमलिक उसके घर से निकल कर उपयुक्त धन के घर चला गया । वहां पहुंचने पर किसी ने उसका तिरस्कार नहीं किया । अपितु सभी ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया ।

उसको अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनने को दिए । रात को उसे स्वादिष्ट भोजन कराया गया और एक आरामदायक बिस्तर पर सुलाया गया । रात्रि में सोमलिक ने फिर उन्हीं दोनों पुरुषों को सपने में कहते सुना : ‘कर्त्ता महोदय उपयुक्त धन ने आतिथ्य में बहुत खर्च कर दिया है ।

अब बताइए, इसके ऋण का भुगतान कैसे होगा ? इसने तो सारा धन महाजन से ऋण लिया था ।’ प्रात: होने पर एक राजकीय कर्मचारी उपयुक्त धन के पास आया और उसे कुछ धन दे गया । यह सब देखकर सोमलिक ने निश्चय कर लिया कि संचय रहित इस उपयुक्त धन का धन ही श्रेष्ठ है ।

यह गुप्तधन की भांति कंजूस तो नहीं है । उसने उस दिव्य पुरुष से उपयुक्त धन जैसा बनने का वर मांग लिया । तब से उसका नाम सोमलिक दत्त मुक्तधन हो गया । यह कथा सुनाकर मंथरक ने हिरण्यक से कहा : ‘मित्र ! अब तुम्हें धन हानि के विषय में सोच-सोचकर दुखी नहीं होना चाहिए ।

तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे । भोग के बिना उसका तेरे लिए उपयोग भी क्या था ? उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यह है कि उसका दान कर दिया जाए । शहद की मक्खियां इतना मधु संचय करती हैं । किंतु उपयोग नहीं कर सकतीं । इस संचय से क्या लाभ ?’

अभी वे तीनों इस प्रकार की बातें कर ही रहे थे कि वहां चित्रांग नाम का हिरण कहीं से दौड़ता-हांफता आ गया । एक शिकारी उसका पीछा कर रहा था । उसे आता देखकर कौआ उड़कर वृक्ष की एक शाखा पर बैठ गया । हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मंथरक तालाब के पानी में जा छिपा ।

कौए ने हिरण को अच्छी तरह से देखने के बाद मंथरक से कहा : ‘मित्र मंथरक ! डरने की कोई बात नहीं है यह कोई मनुष्य नहीं है । यह तो एक वन्य प्राणी है जो अपनी प्यास बुझाने के लिए इस तालाब पर आया है ।

मंथरक बोला : ‘यह हिरण बार-बार पीछे मुड़ कर देख रहा है और डरा हुआ-सा हैं यह प्यासा नहीं है बल्कि शिकारी के डर से भागा हुआ है । देख तो सही इसके पीछे शिकारी आ रहा है या नहीं ।’  मंथरक की बात सुनकर चित्रांग हिरण बोला : ‘आपने मेरे भय का कारण ठीक ही समझा है भद्र ! मैं शिकारी के बाणों से डर कर बड़ी कठिनाई से यहां पहुंच पाया हूं ।

तुम मेरी रक्षा करो । मैं अब तुम्हारी शरण में हूं । मुझे कोई ऐसी जगह बताओ जहां शिकारी नहीं पहुंच सके ।’ मंथरक ने हिरण को घने जंगलों में भाग जाने की सलाह दी किंतु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बताया कि शिकारी दूसरी दिशा में चला गया है । इसलिए अब डर की कोई बात नहीं है ।

खतरा टल गया है । अत: आप चाहें तो आराम से वन में जा सकते हैं । यह सुनकर चित्रांग हिरण बोला : ‘मित्र, अकेला वन में जाकर करूंगा भी क्या ? मेरे रिश्तेदार और सगे-संबधियों को तो उन शिकारियों ने मार दिए । आप कृपा कर मुझे भी अपना साथी बना लीजिए ।

मैं भी आपकी संगति का लाभ उठा लिया करूंगा ।’  तब से चित्रांग भी उनका मित्र बन गया । चारों मित्र मिल-जुलकर आनंदपूर्वक वहां रहने लगे । एक दिन की बात है, रोज की तरह चित्रांग हिरण निर्धारित समय पर वापस नहीं आया ।

इससे उन तीनों को चिंता होने लगी । तीनों मित्र उसके विषय में तरह-तरह की चिंताएं व्यक्त करने लगे । मंथरक ने लघुपतनक से कहा : ‘मित्र हम दोनों तो दूर तक नहीं जा सकते । तुम उड़ने वाले जीव हो । उड़कर जाओ और देखो कि चित्रांग किस विपत्ति में फंस गया है ।’

लघुपतनक उसकी खोज के लिए उड़ चला । थोड़ी ही देर में उसने चित्रांग को खोज लिया । वह एक तालाब के किनारे किसी बहेलिए के जाल में फंसा पड़ा था । कौआ उसके पास पहुंचा । उसने हिरण से पूछा : ‘मित्र, तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई ?’

चित्रांग बोला : ‘मित्र, मेरा मृत्यु काल आ चुका है । यह अच्छा ही हुआ कि अंतिम समय में आप जैसे मित्र के दर्शन हो गए । आप लोगों के साथ रहते इतने दिन आनंद से बीते हैं । मेरे मुख से कभी आप लोगों के लिए कोई अनुचित वाक्य निकल गया हो तो उसके लिए क्षमा कर देना ।’

लघुपतनक ने चित्रांग को धैर्य बंधाया । बोला-चिंता मत करो मित्र । मैं अभी अपने मित्र हिरण्यक को लेकर आता हूं । वह जल्दी ही इस जाल को काट कर तुम्हें मुक्त कर देगा ।’  यह कहकर लघुपतनक शीघ्र ही हिरण्यक को वहां ले आया ।

चित्रांग को उस हालत में देख कर हिरण्यक ने पूछा : ‘मित्र तुम तो नीति शास्त्र को भली-भांति समझते थे फिर किस तरह इस जाल में फंस गए ?’ यह सुनकर चित्रांग बोला : ‘मित्र यह समय व्यर्थ की बातों में नष्ट करने का नहीं है । बहेलिया आता ही होगा इसलिए तुम जल्दी से इस जाल को काटकर मुझे मुक्त कर दो ।’

हिरण्यक जब काटने को तैयार ही हुआ था कि लघुपतनक वृक्ष के ऊपर से बोला:  ‘यह तो बहुत बुरा हुआ’ । चित्रांग ने पूछा: ‘क्या हुआ बहेलिया आ रहा है क्या?’ लघुपतनक बोला : ‘नहीं मंथरक आ रहा है । हिरण्यक बोला : ‘तब तो खुशी की बात है । इसमें दुखी होने की क्या बात है ?’

लघुपतनक बोला : ‘नहीं मित्र तुम बात को समझे नहीं । दुर्भाग्यवश यदि बहेलिया यहां आ पहुंचा तो मैं तो उड़कर वृक्ष पर चला जाऊंगा । तब तुम बिल में घुस जाओगे चित्रांग भागकर घने जंगल में घुस जाएगा किंतु मंथरक कैसे अपनी जान बचा पाएगा ?’

मंथरक के वहां पहुंचने पर हिरण्यक ने उससे पूछा : ‘मित्र यहां आकर तुमने अच्छा नहीं किया । तुम वापस लौट जाओ । कहीं बहेलिया यहां आ पहुंचे ।’ कछुआ बोला : ‘मित्र ! मित्र को विपत्ति में फंसा जानकर मुझसे रहा नहीं गया । सोचा यहां आकर विपत्ति में इसकी सहायता करूंगा ।’

वे अभी बातें कर ही रहे थे कि दूर से बहेलिया आता दिखाई दे गया । यह देखकर हिरण्यक ने जल्दी से जालकाट कर चित्रांग को मुक्त कर दिया । जाल कटते ही चित्रांग तेजी से दौड़कर वन में घुस गया । कौआ उड़कर वृक्ष पर बैठ गया और हिरण्यक समीप के एक बिल में जा घुसा ।

मंथरक भी अपने लिए कोई छिपने की जगह तलाश करने लगा । फिर वही हुआ जिसका डर था । हिरण के भाग जाने से दुखी बहेलिया जो धीरे-धीरे भूमि की ओर देखता हुआ आ रहा था उसने कछुए को रेंगते हुए देख लिया । यह देखकर उसने मन में सोचा-हिरण तो हाथ आया नहीं ।

आज इसे ही ले चलता हूं । आज इसी को खाकर पेट भर लूंगा । यह सोचकर उसने कछुए को पकडू लिया और उसे अपने धनुष की नोक में लटका कर धनुष को कंधे पर रखकर अपने घर की ओर चल पड़ा । अपने मित्र की ऐसी दशा देखकर लघुपतनक को बड़ा दुख हुआ ।

इसी बीच चित्रांग और हिरण्यक भी उस स्थान पर पहुंच गए और मंथरक के लिए शोक प्रकट करने लगे । तब चूहा बोला : ‘मित्रों ! अब समय नष्ट करने से कोई लाभ नहीं है हमें उस बहेलिए का पीछा करके किसी न किसी तरह से अपने मित्र को छुड़ाना चाहिए ।’

कौआ बोला : ‘यदि ऐसी बात है तो आप मेरे कहने के अनुसार काम करें । पहले चित्रांग बहेलिए के आगे कहीं छोटे-से तालाब के किनारे निर्जीव-सा होकर पड़ जाए । मैं इसके सिर पर बैठ कर धीरे-से इसको कुरेदूंगा ।

ऐसा करने से बहेलिया सोचेगा कि हिरण मर चुका है । तब वह अपना धनुष जमीन पर रखकर चित्रांग को देखने के लिए आएगा । उसी समय हिरण्यक मंथरक के पास पहुंच कर उसके बंधन काट देगा । बंधन मुक्त होते ही मंथरक तेजी से भागकर तालाब में घुस जाएगा ।’

ऐसा ही किया गया बहेलिया जब आगे चलकर उस तालाब के निकट पहुंचा तो उसने मृत पड़े हिरण को देख लिया । उसको यह देखकर प्रसन्नता हुई । वह सोचने लगा कि कछुए को तो मैंने बांध रखा है अब इस हिरण को ले जाता हूं ।’

यही सोचकर उसने अपना धनुष जमीन पर रख दिया । वह अभी कुछ ही कदम चला था कि हिरण्यक बिल में से निकल कर तेजी से उस तांत को कुतरने लगा जिससे मंथरक बंधा हुआ था । बात की बात में उसने तांत काट डाली । मुक्त होते ही मंथरक तेजी से तालाब के पानी में सरक गया ।

बहेलिया धीरे-धीरे चित्रांग के नजदीक पहुंच रहा था । तभी लघुपतनक चित्रांग के शरीर से उड़कर वृक्ष पर जा बैठा । चित्रांग के लिए यह एक प्रकार का संकेत था । वह तुरंत उठ खड़ा हुआ और चौकड़ी मारता हुआ जंगल में घुस गया ।

यह देखकर बहेलिया हतप्रभ रह गया । लज्जा महसूस करता हुआ वह वापस लौट पड़ा और धनुष के पास पहुंचा तो देखा कि धनुष की तांत कटी है और कछुआ भी गायब है इससे वह बहुत निराश हो गया और थके-थके से कदम रखता हुआ वापस लौट पड़ा ।

दूसरी ओर चारों मित्र प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे । मित्रता के बल पर ही चारों ने बहेलिए से मुक्ति पाई थी । मित्रता में बड़ी शक्ति है । मित्र संग्रह करना जीवन की सफलता में बड़ा सहायक है । विवेकी व्यक्ति को सदा मित्र-प्राप्ति में यत्नशील रहना चाहिए ।


Hindi Story # 7 (Kahaniya)

कौओ और उल्लू |

दक्षिण देश के किसी प्रांत में महिलारोप्य नामक एक नगर था । उस नगर के पास ही एक बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष था । जिस पर सैकड़ों कौवे घोसला बनाकर रहते थे । उन कौओं का एक मुखिया था-मेघवर्ण ।

पीपल के उस वृक्ष से कुछ ही दूर एक पर्वत की गुफा में उन्नओं का एक विशाल झुण्ड रहता था । जिसके मुखिया का नाम अरिदमन था । उन्न और कौवों में स्वाभाविक बैर होता है । रात को अरिदमन अपने साथियों के साथ पीपल के वृक्ष के पास चक्कर लगाता रहता था और जो भी इक्का-दुक्का कौवा उसको नजर आ जाता उसे मार डालता था ।

इस तरह से उसने सैकड़ों कौवों को मार डाला था । कौवों का मुखिया मेघवर्ण उन्नओं के आतंक से सदैव ही त्रस्त रहता था । एक दिन उसने अपने सलाहकार मंत्रियों को एकत्र करके मंत्रणा की ‘मित्रों ! हमारा जन्मजात बैरी उन्न बहुत ही चालाक जीव है ।

वह दिन प्रतिदिन हमारी संख्या कम करता जा रहा है । रात के अंधेरे में वह न जाने कहां से अपने साथियों के साथ यहां आता है और हमारे एक-दो साथियों को मारकर अंधेरे में गायब हो जाता है । हमें ऐसा कौन-सा उपाय करना चाहिए जिससे इस बैरी से छुटकारा मिल सके ?

मेघवर्ण के पांच सलाहकार थे । उज्जीवी संजीवी अनुजीवी प्रजीवी और चिरंजीवी । अपने मुखिया की बात सुनकर पहले उज्जीवी बोला : ‘महाराज ! बलवान शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिए । उससे तो संधि कर लेना ही बेहतर है । युद्ध से हानि ही होती है ।

समान बल वाले शत्रु से भी पहले संधि करके, कछुए की भांति सिमटकर, शक्ति संग्रह करके ही युद्ध करना उचित होता है ।’ फिर संजीवी ने कहा : ‘महाराज शत्रु के साथ संधि नहीं करनी चाहिए । शत्रु संधि करने के बाद ही दूसरे पक्ष का विनाश करता है । पानी कितना ही गर्म क्यों न हो जाए आग को तो वह हर हाल में बुझा ही देता है ।

क्रूर अत्यंत लोभी और धर्महीन वैरी के साथ तो कभी संधि करनी ही नहीं चाहिए । अपने शत्रु को हमेशा छल-बल से पराजित करने की चेष्टा करनी चाहिए उससे संधि करना सदैव घातक सिद्ध होता है ।’ इस बार मेघवर्ण ने अपने तीसरे सलाहकार अनुजीवी से पूछा : ‘अनुजीवी ! तुम्हारी क्या राय है इस बारे में ?’

अनुजीवी बोला: ‘महाराज मेरी तो यही राय है कि हमें उचित समय देखकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए । हमारा शत्रु बहुत बलवान और क्रूर है । हम अधिक दिन तक यहीं रहें तो एक-एक करके हम सबको मार डालेगा ।

समय की मांग यही है कि इस समय हम यहां से चले जाएं फिर अपने दुश्मन की खोजकर और अपना बल जुटाकर उस पर प्रबल वेग से आक्रमण कर दें ।’ इस पर प्रजीवी नाम के उसके एक सलाहकार ने अपनी राय बताई : ‘महाराज मेरी सम्मति में तो ये तीनों ही बातें ठीक नहीं हैं ।

अपने स्थान पर दृढ़ता से जमे रहना ही सबसे अच्छा उपाय है । मगरमच्छ अपने स्थान पर बैठ कर हाथी जैसे विशाल जीव को परास्त कर देता है । हाथी को भी वह पानी में खींच लेता है । यदि वह अपना स्थान छोड़ दे तो एक चूहे से भी हार जाए ।

अपने दुर्ग में बैठकर हमारा एक-एक सिपाही सौ-सौ दुश्मनों का भी नाश कर सकता है । हमें अपने दुर्ग को और दृढ़ बनाना चाहिए ।’ प्रजीवी की राय जानने के बाद मेघवर्ण ने अपने पांचवें सलाहकार चिरंजीवी से पूछा : ‘तुम क्या कहते हो चिरंजीवी ?’

क्या तुम्हारी भी यही राय है जो प्रजीवी की है ?’ चिरंजीवी बोला : ‘नहीं महाराज मेरी राय इन सबसे भिन्न है । मेरी राय में तो हमें किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने पक्ष में करके बैरी को परास्त करना चाहिए । इसलिए हमें आज ही से किसी बलशाली सहायक की खोज शुरू कर देनी चाहिए ।

यदि कोई एक ऐसा बलशाली समर्थक न मिले तो अनेक छोटे-छोटे मित्रों की सहायता से भी अपने पक्ष को मजबूत कर सकते हैं । आपने देखा ही है महाराज छोटे-छोटे तिनकों से गुथी हुई रस्सी भी इतनी मजबूत बन जाती है कि वह हाथी तक को जकड़ कर बांध देती है ।’

अपने पांचों मंत्रियों से सलाह कर मेघवर्ण अपने परिवार के सबसे बयोवृद्ध और अनुभवी स्थिरजीवी नाम के कौवे के पास पहुंचा और उसे अपने सलाहकारों की सलाह से परिचित कराया । सुनकर स्थिरजीवी ने कहा : ‘वत्स ! तुम्हारे सभी मंत्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक सलाह दी है ।

अपने-अपने समय में सभी नीतियां अच्छी होती हैं किंतु मेरी सम्मति तो यही है कि तुम्हें इस समय भेद-नीति का सहारा लेना चाहिए । उचित यही है कि पहले हम अपने शत्रु से संधि करके उनका विश्वास जीतें किंतु स्वयं उनपर विश्वास न करें ।

उनसे संधि करके युद्ध की तैयारियां करते रहें और अवसर देखकर उन्हें युद्ध करके परास्त कर दें । संधिकाल में हमें दुश्मन के कमजोर ठिकानों का पता लगाते रहना चाहिए । उनसे परिचित होने के बाद ही हमला करना उचित होगा ।’ यह सुनकर मेघवर्ण बोला:

‘आपका कहना बिल्कुल ठीक है किंतु प्रश्न तो यह है कि दुश्मन का निर्बल स्थान किस तरह देखा जाए ? स्थिरजीवी ने उत्तर दिया : ‘अपने गुप्तचरों द्वारा तुम अपने दुश्मन के निर्बल स्थानों का पता मालूम कर सकते हो क्योंकि गुप्तचर ही राजा की आखों का काम करते हैं ।

स्थिरजीवी से यह सुनने के बाद मेघवर्ण ने पूछा: ‘तात ! यह तो बताइए कि कौवों और उन्नओं का स्वाभाविक बैर किस कारण से है ?’ तब स्थिरजीवी ने यह कथा सुनाई ।


Hindi Story # 8 (Kahaniya)

उल्लू और कौवे के वैर का कारण |

ऐक बार हंस, तोता, बगुला, कोयल, चातक, कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके यह सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है ।

व्याधों से उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता, इसलिए पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया जाए । कई दिनों की बैठक के बाद सबने एक सम्मति से सर्वाग सुन्दर उल्लू को राजा चुना । अभिषेक की तैयारियां होने लगीं विविध तीर्थों से पवित्र जल मंगाया गया, सिंहासन पर रत्न जड़े गए ।

स्वर्णघट भरे गए मंगलपाठ शुरू हो गया । ब्राह्मणों ने वेद पाठ शुरू कर दिया नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर ली, उलूकराज राजसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि कहीं से एक कौआ आ गया । कौवे ने सोचा यह समारोह कैसा ? यह उत्सव किसलिए ? पक्षियों ने भी कौवे को देखा तो आश्चर्य में पड़ गए ।

उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था । फिर भी उन्होंने सुन रखा था कि कौवा सबसे चतुर कूटनीतिज्ञ पक्षी है, इसलिए उससे मंत्रणा करने के लिए सब पक्षी उसके चारों ओर इकट्‌ठे हो गए । उलूकराज के राज्यभिषेक की बात सुनकर कौवे ने हंसते हुए कहा : ‘यह चुनाव ठीक नहीं हुआ ।

मोर, हंस, कोयल, सारस, चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते दिवर-धउन्न और टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है । यह स्वभाव से ही रौद्र है और कटुभाषी है । फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है । एक राजा के रहते दूसरे को राज्यासन देना गलत है ।

पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है, वही अपनी आभा से सारे संसार को प्रकाशित कर देता है । एक से अधिक सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है । प्रलय में बहुत से सूर्य निकल आते हैं उनसे संसार में विपत्ति ही आती है कल्याण नहीं होता ।

राजा एक ही होता है । उसके नाम कीर्तन से ही काम बन जाते हैं । चंद्रमा के नाम से ही खरगोशों ने हाथियों से छुटकारा पाया था ।’ पक्षियों ने पूछा : ‘वह कैसे ?’ तब कौए ने हाथी और खरगोशों की यह कहानी सुनाई ।


Hindi Story # 9 (Kahaniya)

बड़े नाम की महिमा |

एक बार पूरा देश ही सूखे का शिकार हो गया । इंसान तो इंसान बेचारे जंगली जानवर भी प्यासे मरते हुए दूर-दराज के क्षेत्रों में पानी की तलाश में भागने लगे । जिधर भी पानी मिलने का आशा होती उधर ही यह जानवर भागने लगते ।

काशीपुर के जंगल में एक सरोवर के किनारे हाथियों का एक झुण्ड रहता था । झुण्ड का सरदार कर्ण नाम का हाथी था । इन हाथियों का परिवार कई वर्षा से इसी सरोवर के पास रहता था । परंतु जब इस सरोवर में पानी कम हो गया तो हाथियों को नहाने और पीने के पानी की बहुत तंगी होने लगी ।

ऐसे हालात में हाथियों के सरदार ने यह फैसला कर लिया कि वे अब इस सरोवर को छोड़कर साथ वाले सरोवर में चले जाएंगे वहां खूब पानी है । हाथियों का सरदार उस सरोवर का पानी दिखाने के लिए सभी हाथियों को ले आया । उस सरोवर पर रहने वाले खरगोशों के सरदार ने जैसे ही हाथियों के झुण्ड को सरोवर पर देखा तो वह एकदम से डर गया ।

परंतु कहां हाथी और कहां खरगोश । इन दोनों में क्या तुलना हो सकती थी । उस दिन के बाद तो सभी हाथी मजे से उस सरोवर में नहाने लगे और खूब जी भर कर पानी पीते रहे ।  खरगोश बेचारे इस डर के मारे कि कहीं हाथियों के कदमों तले कुचल न जाएं एक कोने में दुबक कर बैठे रहते ।

वे बेचारे कर भी क्या सकते थे । उसी रात खरगोशों की एक सभा हुई जिसमें इस नई मुसीबत से छुटकारा पाने पर विचार हुआ । सब खरगोश इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि हम शक्ति से तो इन हाथियों से जीत नहीं सकते हां यदि बुद्धि की शक्ति से काम लिया जाए तो हमारी जानें बच सकती हैं ।

उनके राजा ने अपनी बात पर जोर देते हुए सब साथियों की ओर देखकर कहा : ‘देस्तों बुद्धि से ही काम लेना पड़ेगा । एक बार हमारी जाति के ही खरगोश ने अपनी बुद्धि के बल पर एक शेर को मार डाला था अब मैं इन हाथियों को इस सरोवर से भगा दूंगा ।’

सुबह होते ही खरगोशों का राजा बड़े धैर्य से हाथियों के सरदार के पास जाकर बोला: ‘हे गजराज ! आप लोग यहां पर क्या करने आए हैं ?’ हाथियों का सरदार बोला : ‘तुम हमसे पूछने वाले कौन हो ?’ खरगोशों का राजा बोला : ‘मैं खरगोश हूं ।

चन्द्रमा का दूत, मैं देवराज इंद्र के कहने पर ही आपके पास आया हूं ।’ हाथी बोला : ‘चंद्रमा ने तुम्हें हमारे पास क्यों भेजा है ?’ खरगोश बोला : ‘उन्होंने कहा है कि आप लोगों ने बहुत बड़ा पाप किया है ?’ हाथी आश्चर्य से बोला : ‘पाप और हमने ?’

खरगोश बोला : ‘देखो गजराज ! आप जिस सरोवर में पानी पीते हैं उसी जल को नहाकर गंदा भी करते हैं । आपके सारे साथियों ने मिलकर चंद्रमा के इस सरोवर को अपवित्र कर दिया है । अब तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि चन्द्रमा का क्रोध तुम्हारा सर्वनाश कर देगा ।’

हाथी क्रोध से बोला : ‘अरे खरगोश के बच्चे कहीं तू हमें पागल तो नहीं बना रहा ? जिस चंद्रमा की तुम बात कर रहे हो उसे हमने तो कहीं देखा नहीं ।’ खरगोश बोला : ‘यदि ऐसी बात है तो आप अकेले ही आज रात को मेरे पास आ जाना । मैं आपको चंद्र भगवान् के साक्षात् दर्शन करा दूंगा ।’ हाथी बोला : ‘यह नहीं होगा ।’

खरगोश बोला : ‘क्यों ?’ हाथी बोला : ‘इसलिए कि भगवान् चंद्र के दर्शन मैं अकेला नहीं करूंगा बल्कि मेरे साथी भी करेंगे । उनके दर्शनों से हमारा जीवन सफल हो जाएगा ।’ रात आई तो खरगोश सरोवर के किनारे उन हाथियों के साथ आकर खड़ा हो गया उधर से आकाश में पूर्णिमा का चांद चमकता हुआ निकला ।

उसका प्रतिबिम्ब सरोवर के पानी में साफ दिखाई दे रहा था । खरगोश बोला : ‘गजराज अपनी आखें बंद करो क्योंकि अब मैं उन्हें आपके बारे में बता रहा हूं ।’ यह कहते हुए खरगोश ने अपना सिर झुकाकर आगे के दोनों पंजे जोड़े और कहने लगा : ‘हे प्रभु चंद्र ! देखो आज आपके दर्शनों के लिए गजराज और उनके साथी आए हैं ।

इन लोगों ने आपके सरोवर को अपवित्र करने की भूल की है इसके लिए क्षमा चाहते हैं इनको दर्शन दो प्रभु और इन्हें माफ कर दो ।’ चालाक खरगोश अपने आप बोलता चला गया । सारे हाथी डर के मारे सिर झुका कर खड़े रहे ।

फिर खरगोश ने हाथियों के सरदार से कहा: ‘हे गजराज आप औखें खोलकर सरोवर में विराजमान भगवान् चंद्र के दर्शन करो ।’ खरगोश की बात सुन कर सारे हाथी सरोवर के पानी में झांकने लगे । उस पानी में आकाश के चमकते चांद की छटा साफ दिखाई पड़ रही थी । सब हाथियों ने चंद्रमा के दर्शन किए फिर सिर झुका कर प्रणाम करने लगे ।

तभी गजराज बोला: ‘हे प्रभु हमसे जो भूल हो गई उसके लिए हम क्षमा चाहते हैं और साथ ही यह प्रतिज्ञा भी करते हैं कि आज के पश्चात् आपके इस पवित्र सरोवर को हम गंदा नहीं करेंगे ।’ यह कहानी सुनाने के बाद कौवे ने कहा : ‘यदि तुम उन्न जैसे नीच आलसी कायर, व्यसनी और पीठ पीछे कटुभाषी पक्षी को राजा बनाओगे तो कपिंजल की तरह नष्ट हो जाओगे ।’


Hindi Story # 10 (Kahaniya)

नीच का न्याय |

पहले मैं जिस वृक्ष पर रहता था उसी वृक्ष पर कपिंजल नाम का एक चटक (तीतर) भी रहता था । हम दोनों में बहुत स्नेह था । शाम को जब हम इकट्‌ठा होते थे तो आपस में सुख-दु ख की बातें किया करते थै । समय इसी तरह सुखपूर्वक गुजर रहा था ।

एक दिन वह अपने साथियों के साथ बहुत दूर धान की नई-नई कोंपलें खाने चला गया । बहुत रात बीतने पर भी वह घोंसले में नहीं लौटा तो मुझे चिंता हुई । मैं सोचने लगा : ‘किसी बधिक ने उसे बांध न लिया हो कहीं ऐसा न हो कि उसे किसी बिल्ली ने ही खा लिया हो ।’ बहुत रात बीतने पर उस वृक्ष के खाली पड़े खोल में एक खरगोश घुस आया ।

उसका नाम शीघ्रगो था । मैं अपने मित्र के वियोग में इतना दुखी था कि मैंने उस खरगोश को रोका तक नहीं । कई दिन बाद कपिंजल अचानक लौट आया । धान की नई-नई कोंपलें खाकर वह खूब मोटा-ताजा हो गया था । उसने अपने घर में खरगोश को देखा तो क्रोधित हो उठा । उसने खरगोश को खूब फटकारा ।

वह बोला : ‘यह मेरा घर है । तुम इस घर में कैसे घुसे? अच्छा यही है कि फौरन यहां से चले जाओ ।’ खरगोश भी अकड़ गया । वह कहने लगा : ‘यह तुम्हारा घर कैसे हो गया ? तुम जब रहते थे तब यह तुम्हारा घर रहा होगा । अब मैं यहां रहता हूं इसलिए अब यह मेरा घर है । तुम अब मेरी बात से सहमत नहीं हो तो चलो किसी धर्मशास्त्री के पास चलकर इसका निर्णय कर लो ।’

इस प्रकार विवाद करते हुए जब वे दोनों चलने लगे तो मैं भी कौतूहलवश उनके साथ चल पड़ा । उनकी लड़ाई और समझौते की बातचीत को एक जंगली बिलाव सुन रहा था । उसने सोचा मैं पंच बन जाऊं तो कितना अच्छा है ।

दोनों को मारकर खाने का अच्छा मौका मिल जाएगा । यही सोचकर हाथ में माला लेकर और सूर्य की ओर मुख करके वह एक नदी किनारे आसन बिछाकर बैठ गया और धर्म का उपदेश करने लगा । दोनों उसके निकट पहुंचे । खरगोश ने उसके मुख से धर्मोपदेश सुनने के बाद बोला : ‘हे देखो कोई तपस्वी बैठा है इसी को पंच बनाकर अपना न्याय करा लें ।

चटक उस बिलाव को देखकर डर गया । वह दूर से ही बोला : ‘मुनिवर ! तुम हमारे झगड़े का निबटारा कर दो और जिसका पक्ष तुम्हें धर्मविरुद्ध दिखाई दे उसे तुम बेशक खा लेना ।’ यह सुनकर बिलाव ने औखें खोली और बोला : ‘ऐसी बातें मत करो ।

मैंने अब हिंसा का मार्ग छोड़ दिया है इसलिए अब मैं किसी धर्मविरोधी व्यक्ति की भी हिंसा नहीं करूंगा । हां तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है । किन्तु मैं वृद्ध हूं । दूर से तुम्हारी बात नहीं सुन सकता, इसलिए मेरे पास आओ और अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करो ।’

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बिलाव की इस बात पर दोनों ने विश्वास कर लिया । दोनों ने उसे पंच मान लिया । फिर जैसे ही वे दोनों बिलाव के निकट पहुंचे, बिलाव ने झपट्‌टा मार कर दोनों को दबोच लिया और मार कर खा गया । कौवे द्वारा सुनाई कहानी को सुनकर सभी पक्षियों ने उन्न का अभिषेक करना स्थगित कर दिया और अपने-अपने स्थानों को लौट गए ।

वहां सिर्फ उन्न कौआ और कृकालिका ही रह गए । बनता काम बिगड़ते देख उन्न कौवे पर बहुत क्रोधित हुआ । उसने कौवे को भयानक ढंग से घूरते हुए कहा : ‘अरे दुष्ट कौवे, तूने ही मेरे राज्यभिषेक में विप्न डाला है । याद रख, मैं इस अपमान का बदला लूंगा । आज से मेरा-तेरा परम्परागत वंश बैर रहेगा ।’

उन्न को क्रोधित होता देख कौवे ने सोचा, मैंने अकारण ही उन्न से बैर मोल ले लिया । दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप करना और सच्ची बात कह देना भी कभी-कभी बहुत कष्टप्रद हो जाता है ।  यह विचार करता हुआ वह वहां से उड़ गया । बस तभी से उन्नओं का कौवों के साथ बैर चला आ रहा है ।

तब मेघवर्ण ने स्थिरजीवी से पूछा : ‘तात ! इस परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? स्थिरजीवी ने कहा : तुम्हारे सलाहकारों ने जो उपाय बताए हैं उनके अलावा एक उपाय और भी है । वह उपाय है छल द्वारा अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करना ।

अब मैं इसी उपाय को काम में लाऊंगा । मैं स्वयं उन्नओं के बीच जाऊंगा और छल द्वारा उन्हें नष्ट करने का उपाय करूंगा । छल द्वारा बुद्धिमान व्यक्ति को भी धोखा दिया जा सकता है । एक महाविद्वान ब्राह्मण को कुछ धूर्तों ने छल द्वारा ही ठग लिया था ।


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