List of popular Hindi stories for Storytelling Competition!
Hindi Stories For Storytelling Competition # 1
हीरे-मोतियों की वर्षा |
एक समय की बात है कि एक गांव में एक पंडित रहता था । उसके पास धन-सम्पत्ति तो कोई थी नहीं । गांव के कुछ बच्चों को पढ़ाकर उनके मां-बाप जो थोड़ा बहुत दे दें, उससे अपना गुजारा चलाता था ।
इस प्रकार वह गरीबी में जीवन बिता रहा था । हां, उसे वैदर्भ मंत्र आता था । वह मत्र ऐसा चमत्कारी था कि उसे पढ़ने पर आकाश से हीरे-मोती आदि जवाहरातों की वर्षा हो सकती थी । पर वह मंत्र तभी पढ़ा जा सकता था, जब नक्षत्र, चांद व सितारों का खास योग बनता और वह योग वर्ष में केवल एक बार कुछ ही मिनटों के लिए बनता था ।
यह बताना कठिन था कि किस घड़ी में वह योग बनेगा । इसलिए बेचारा पंडित ऐसा चमत्कारी मंत्र जानते हुए भी उसका फायदा न उठा पा रहा था । उस योग को पकड़ने के लिए कौन वर्ष भर रात को आकाश को देखता रहता ?
गरीबी से तंग आकर उसने शहर जाने का फैसला कर लिया । उसके साथ उसका एक प्रिय शिष्य भी चल पड़ा । वह शिष्य अनाथ था । पंडित के सीथ ही रहता था । गांव से काफी दूर आने पर पंडित और उसके चेले को एक घने जगल में से गुजरना पड़ा ।
उस जंगल में डाकुओं के गिरोह रहते थे, जो मौका पातेही उधर से जाने वाले यात्रियों को लूटलेते थे । एक डाकू दल की नजर जंगल से जाते पंडित और चेले पर पड़ी । बस क्या था डाकू उन दोनों पर टूट पड़े । उनकी पोटलियां खोल डाली । उसमें सतू के सिवा कुछ नहीं था । डाकूओं ने दोनों की तालाशी ली । उन्हें एक फूटी कौड़ी भी न मिली ।
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पंडित बोला : ”डाकू सरदारजी, हमारे पास कुछ नहीं है । हमें जाने दीजिए ।” सरदार बड़ा क्रूर था । उसने पंडित को एक पेड़ से बंधवा दिया और बोला : “मेरा नाम फूंगा सिंह है । मैं पत्थरों से भी तेल निकाल लेता हूं । मैं तेरे घर वालों से पैसे वसूल करुंगा । अगर जिन्दा रहना चाहता है तो अपने चेले को गांव भेजकर पाच सौ रुपये मंगवा ले ।”
पंडित बेचारा डरकर थर-थरकांपने लगा । चेले ने उसे ढानड़स बधाया : ”गुरु जी, मैं गाँव जाकर कुछ न कुछ इंतजाम करही लूंगा । आपचिंता नकरो । एक दो दिन में लौट आऊंगा । पर आप वैदर्भ मंत्र के बारेमें मत बताना । वर्ना डाकू आपको सदा के लिए बंदी बना लेंगे ।”
चेला चला गया । रात आई । सदियों के दिन थे । ठंड बढ़ने लगी । पंडित ठंड से ठिठुरने लगा । भगवान से मदद मांगने के लिए पंडित ने आकाश की और देखा तो चौंक उठा । आज आकाश में चांद, सितारों व नक्षत्रों का वह महायोग बन रहा था, जिसमें वैदर्भ मंत्र पढ़ा जा सकता है । अपनी जान छुड़ाने के उतावलेपन में वह चेले की चेतावनी भूल गया ।
पंडित बोला : “सरदार, अगर मैं आकाश से जवाहरात की वर्षा कर दूं तो मुझे छोड़ दोगे ? मुझे वैदर्भ मंत्र आता है ।” पहले तो डाकू सरदार ने सोचा कि ठंड के मारे पंडित का दिमाग खराब हो गया है । फिर उसने सोचा कि इसकी बात आजमाने में हर्ज क्या है । पंडित को खोल दिया गया ।
पंडित ने स्नान किया और मंत्र पढ़ने लगा । मैत्र समाप्त होते ही आकाश से प्रकाश की धारा-सी नीचे आई । उसी धारा के साथ जगमगाते हीरे, मोती, नीलम व मणियों की बौछार आ गिरी । डाकू खुशी से उछल पड़े । सरदार के आदेश पर सभी डाकू जवाहरात चुनने लगे ।
सारे जवाहरात चुनकर चद्दर में लपेटकर पोटली बांधी ही जाने वाली थी कि एक और डाकू दल वहाँ आ धमका । दूसरे दल के सरदार ने हवा में गोली चलाते हुए कहा : “यह सब जवाहरात हमारे हवाले कर दो ।” डाकू फूंगा सिंह बोला : “भाई मोहरसिंह, इस पंडित को ले जाओ न ।
इसे वह मंत्र आता है जिससे आसमान से हीरे-मोती की वर्षा होती है । इसी ने तो यह वर्षा करवाई है ।” डाकू मोहर सिंह ने पंडित को दबोचा : ”पंडित चल । हमारे लिए वर्षा करवा । पंडित हकलाया-अब वर्षा नहीं हो सकती । मुहूर्त निकल गया है ।”
क्रोधित मोहर सिंह ने अपनी तलवार पंडित की छाती में घुसेड़ दी । उसके साथ ही दोनों डाकू दलों में युद्ध छिड़ गया । कई घंटे मारकाट चली । सभी डाकू मारे गए । केवल दोनों सरदार बचे और आपस में लड़ते रहे । दोनों बराबर की टक्कर के थे ।
दोनों बहुत थक गए तो हांफता हुआ फूंगा बोला : ”भाई मोहरे, अब लड़ने का कोई फायदा नहीं । सब मारे गए हैं । हम दो ही तो बचे हैं । आधा-आधा बाट लेते हैं ।” मोहर सिंह को भी यह बात जंच गई । वह मान गया । दोनों डाकूओं ने सारे जवाहरात पोटली में बाध लिए ।
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उन्हें बहुत जोर की भूख लग रही थी । थकान ने भूख और बढ़ा दी थी । उन्होंने फैसला किया कि पहले कुछ खाया जाए । फिर इत्मीनान से बैठकर जवाहरात का बटवारा करेंगे । एक जवाहरात की पहरेदारी करेगा । दूसरा निकट की बस्ती से जाकर खाना लाएगा । खाना लाने कौन जाएगा । इसका फैसला सिक्का उछालकर हुआ ।
उन्होंने जवाहरात वाली पोटली एक पेड़ की खोह में छिपा दी । निकट ही मोहर सिंह मोर्चा बाँधकर पहरे पर बैठ गया । फूगा सिंह खाना लाने चल दिया । फूला सिंह के जाते ही मोहर सिंह ने सोचा : ‘फूगा सिंह को रास्ते से हटाकर सारे जवाहरात पर अकेले कब्जा किया जा सकता है ।
मैं क्यो इसे हिस्सा दूं ? मैं घात लगाकर बैठूंगा । जैसे ही वह खाना लेकर लौटेगा, पीछे से हमला करके एक ही वार में उसका काम तमाम कर दूंगा ।’ बस ऐसा निर्णय कर मोहर सिहं फूंगा सिंह के लौटने के रास्ते में एक बड़े पत्थर के पीछे छिपकर प्रतीक्षा करने लगा ।
उधर बस्ती की ओर जाता फूंगा सिंह सोचने लगा कि मोहर सिंह को यमलोक भेजकर सारे जवाहरातों को हड़पा जा सकता है । आखिर मोहर सिंहका हक क्या है ? दाल-भात में मूसलचंद की तरह आ कूदा था । फूंगे ने बस्ती में पहुँचकर खूब हलवा पूरी खाई ।
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फिर मोहरसिंह के लिए हलवा पूरी लेकर उसने उसमें जहर मिला दिया और पोटली ‘बांधकर वापस लौटने लगा । जैसे ही फूंगा सिंह बड़े पत्थर के पास से गुजरा उसके पीछे छिपे मोहर सिंह ने पीठ की ओर से उसे भाला मारा ।
भला दिल को चीरता हुआ छाती से बाहर निकला । फूंगा वहीं ढेर हो गया । मोहर सिंह ने ठहाका लगाया । फिर वह फूंगा सिंह का लाया खाना खाने बैठ गया । खाना खाते ही मोहर सिंह का शरीर ऐंठने लगा और वह तड़प-तड़पकर मर गया ।
जब पंडित का चेला वापस लौटा तो उसे वहां पंडित और डाकुओं की लाशें बिछी मिली । उसने माथा पीटा : “गुरु जी, तुमने डाकुओं को मंत्र की बात बताने की मूर्खता कर ही डाली । हाय ।”
सीख : लालच से सर्वनाश हो जाता है । हीरे-मोती व सोने का लालच तो बहुत ही बुरा है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 2
सेनापति गीदड़ |
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एक बार एक वन में एक गीदड़ रहता था । वह छोटे-मोटे जीवों का शिकार करके अपना पेट भरता । एक दिन एक खरगोश का पछिा करते हुए उसके पंजे में एक जहरीला कांटा चुभ गया । उसका पैर सूज गया । कुछ दिन बाद सूजन तो उतर गई, परन्तु जहर के कारण पैर लंगड़ा हो गया ।
अब उसके लिए शिकार करना मुश्किल हो गया । भूखों मरने लगा । मरे हुए किसी जानवर की तलाश में लगड़ाता हुआ घूमने लगा । एक जगह उसने एक शेर को शिकार करके मांस खाते देखा । वह शेर के पास जाकर गिड़गिड़ाया : “महाराज, मुझे अपना सेवक रख लीजिए । आपकी सेवा करके मेरा जीवन सफल हो जाएगा ।”
शेर को लंगड़े गीदड़ पर दया आ गई । उसने यह भी देख लिया कि गीदड़ कई दिनों का भूखा है । पेट कमर के साथ चिपकने लगा है । शेर ने शीघ्र अपना खाना समाप्त किया और गीदड़ से बचा हुआ शिकार खाने को कहा । भूखा गीदड़ मांस और हड्डियों पर टूट पड़ा ।
जब गीदड़ ने पेट भर लिया तो शेर ने कहा : “अब तुम्हारा एक ही काम होगा । रोज उस टीले पर चढ़कर नीचे के वन पर नजर रखना । जैसे ही कोई शिकार नजर आए, दौड़कर मेरे पास आना और खबर देना । फिर कहना दमको पूरी शक्ति से, हे जगल के राजा शेर ।”
गीदड़ ने दूसरे दिन टीले पर से नीचे एक हाथी को देखा । वह दौड़ा हुआ शेर के पास गया । हाथी की सूचना दी और आदेश के अनुसार चिल्लाया : ”दमको पूरी शक्ति से, हे जंगल के राजा शेर ।” शेर दहाड़ता हुआ गया और देखते ही देखते उसने हाथी को मार डाला । शेर ने छककर भोजन किया । गीदड़ को भी इतना खाने को मिला कि पेट ठूस्स हो गया ।
सूचना देने के बाद कहता दमको पूरी शक्ति से हे जंगल के राजा शेर और शेर शिकार पर टूट पड़ता । दिन मजे से गुजरने लगे । मुफ्त की खाते-खाते गीदड़ मोटा हो गया । उसकी अक्ल भी मोटी हो गई । एक डकार लेते हुए उसने सोचा कि शेर की शक्ति का असली मंत्र ‘दमको पूरी शक्ति से…।’ नारा है ।
वह भी इस मैत्र के सहारे हाथी को भी मार सकता है । शेर भी तो इसी मंत्र के बल पर उछलता है । गीदड़ ने शेर से कहा : “महाराज, आपका किया शिकार मैंने बहुत खाया । अब आप आराम कीजिए और मुझे सेवा का मौका दीजिए । शिकार मैं करूंगा । आप बस खाया करना ।”
शेर चौंका : ”अरे लंगड़े गीदड़, तुम कैसे शिकार कर पाओगे ?” गीदड़ बोला : “उसकी चिन्ता मत करो । आप टीले पर जाकर नीचे वन में देखते रहना । जैसे ही कोई शिकार नजर आए, दौड़कर मेरे पास आना और बताना । फिर….।” ”फिर क्या?” शेर ने पूछा ।
”फिर चिल्लाना ‘दमको पूरी शक्ति से, हे जंगल के सेनापति गीदड़’ ।” गीदड़ ने कहा । शेर को दिल ही दिल में बड़ी हंसी आई । उसने समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु गीदड़ की तो बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी । वह शेर की नकल करने पर उतारू था ।
शेर जान गया कि मूर्ख गीदड़ दमको पूरी शक्ति से…।’ नारे को मत्र समझ बैठा है । जब तक इस गलती का फल नहीं भुगतेगा तब तक गीदड़ की अक्ल ठिकाने नहीं आएगी । दूसरे दिन शेर टीले पर जाकर बैठ गया। कुछ देर बाद उसे नीचे एक हाथी जाता दिखाई दिया ।
शेर झपटकर गीदड़ के पास आया और बोला : ”सेनापति गीदड़, नीचे एक हाथी जा रहा है ।” फिर शेर दहाड़ा : ”दमको पूरी शक्ति से, हे जंगल के सेनापति गीदड़ ।” इतना सुनते ही गीदड़ लंगड़ाता हुआ हाथी की दिशा में भागा । हाथी के निकट पहुंचकर उसने तीन टांगों के बल पर हाथी पर छलाग मारने की कोशिश की ।
हाथी ने गीदड़ को हवा में ही छ से पकड़कर ऊपर की ओर इतनी जोर से उछाला कि गीदड़ एक ऊंचे पेड़ की चोटी के बराबर ऊँचा जा पहुचा । वहा से वह नीचे गिरा । नीचे उसकी हड्डी और पसली एक हो गई । ऊपर से हाथी ने अपना पैर उस पर रखकर उसका क्रियाकर्म कर दिया । इस प्रकार वहम का शिकार होकर गीदड़ जान से हाथ धो बैठा ।
सीख : नकल करने के लिए भी अक्ल की जरूरत पड़ती है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 3
पहेलीबाज भिखारी |
बहुत पुराने समय में एक राजा था । वह बड़ा दानी और उदार था । बुद्धिमानों का बड़ा आदर करता था । एक दिन महल के द्वार पर एक आ फटेहाल भिखारी आया । वह द्वारपाल से बोला : ”मुझे राजा के पास सहायता मांगने जाना है । मुझे भीतर जाने दो ।”
द्वारपाल ने कहा : ”अरे भिखमंगे, साफ साफ क्यों नहीं कहता कि भीख मांगनी है ?” भिखारी बोला : ”जुबान संभालकर बोलो । जाओ, राजा से कहो कि तुम्हारा भाई मिलने के लिए आया है ।” भिखारी की बात सुनकर द्वारपाल सहम गया । सब जानते थे कि राजा का कोई भाई-वाई नहीं है ।
पर शायद कोई दूर के रिश्ते का हो । यह सोचकर द्वारपाल ने राजा को सूचना देना ही अच्छा समझा । राजा ने सुना तो सोच में पड़ गया । उसे बात बड़ी रहस्यमय लगी । उसे लगा कि वह भिखारी कोई पहेली बुझाना चाहता है । उसने भिखारी को अपने पास बुलवा लिया और अपने पास बिठाया ।
वह बैठ गया तो राजा ने पूछा : ”कहिए भाई साहब, क्या हाल है ?” भिखारी बोला : “भाई, हाल ठीक नहीं है । विपत्ति में हूं । जिस महल में मैं रहता हूं । वह पुराना पड़ चुका है । कभी भी टूटकर गिर सकता है । मेरे बत्तीस नौकर थे, वे एक-एक करके चले गए । पांच रानियां हैं, वे बूढ़ी हो चुकी हैं ।
मेरी सेवा नहीं कर पातीं । मेरी कुछ सहायता कीजिए ।” राजा ने गौर से फकीर की ओर देखा । फिर मुस्कराया । राजा ने खजांची को बुलाकर फकीर को सौ रुपये देने का आदेश दिया । फकीर बोला : ”भाई, सौ रुपये तो बहुत कम हैं । मैं आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूं ।”
राजा बोला : ”भाई साहब, इस बार राज्य में सूखा पड़ा । लगान कम आया है । इससे अधिक नहीं दे पाऊंगा ।” भिखारी ने ठंडी आह भरकर कहा : “तो फिर मेरे साथ सात समुद्र पार चलिए । कहते हैं वहां सोने की खानें हैं । वहाँ से लाकर अपना कोष भर लीजिए ।”
राजा ने पूछा : “पर समुद्र पार कैसे करेंगे ?” भिखारी ने उत्तर दिया : ”मेरे पैर पड़ते ही समुद्र सूख जाएगा । मेरे पैरों की शक्ति तो आप जान ही गए हैं ।” राजा ने खजांची को आदेश दिया कि भिखारी को एक हजार रुपये दिए जाएं । जब भिखारी पैसे लेकर चला गया तो दरबारियों ने राजा से कहा : “महाराज, आपकी और उस भिखारी की बातें हमारी समझ में नहीं आईं ।”
राजा बोला : “वह भिखारी काफी बुद्धिमान था । पहेलियों में बात की उसने । मैं राजा हूँ वह रक । भाग्य के सिक्के के ये दो पहलू हैं, इस नाते हम भाई हुए । जिस महल में वह रहता है वह उसका शरीर है जो पुराना हो चुका है । कभी भी मृत्यु हो सकती है । उसके बत्तीस नौकर दाँत थे जो साथ छोड़ चुके हैं । पाँच रानियां उसकी इंद्रियां हैं जो कमजोर हो चुकी हैं ।”
एक मंत्री ने प्रश्न किया : ”लेकिन समुद्र की बात क्या थी, महाराज ?” राजा ने उत्तर दिया-वह पहेली बनाकर मुझे ताना दे रहा था कि उसके पैरों में सब कुछ सुखाने की शक्ति है । जैसे राजमहल में उसके पैर रखते ही मेरा कोष सूख गया । इसलिए मैंने सौ रुपये के स्थान एँ फैम्भ पर उसे एक हजार रुपये दे दिए ।” कभी-कभी बहुत ही सामान्य लगने वाले लोग भीतर से बहुत गहरे निकलते हैं ।
सीख: किसी को तुच्छ समझकर उसे दुत्कारना नहीं चाहिए । कौन जाने किससे कुछ ज्ञान सीखने को मिले ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 4
सोने का मृग रूरु |
किसी समय बनारस नगर में एक अमीर व्यापारी रहता था । उसका बेटा महाधनक अधिक लाड़-प्यार के कारण बिगड़ गया और निकम्मा हो गया । कभी उसने काम सीखने का प्रयत्न नहीं किया ।
शादी के बाद सुधर जाएगा, यह सोचकर पिता ने उसका विवाह कर दिया । पर वह और भी निकम्मा हो गया । मौज-मस्ती में डूबा रहता । व्यापारी की अचानक मृत्यु हो गई । सारे कारोबार का बोझ महाधनक पर आ पड़ा । उसे तो कुछ आता नहीं था ।
जमा जमाया व्यापार नष्ट होने लगा । तोगों का पैसा डूब गया । घर खाली हो गया । बीवी तंग आकर अपने पिता के पास चली गई । लेनदारों ने तगादेकरना शुरू किया । कुछ समय महाधनक ने बहाने बनाकर उनको टाला । पर कब तक ? एक दिन सब लेनदारों ने उसे आ घेरा । उसने और कुछ समय की मोहलत मांगी ।
एक लेनदार, जिसने सबसे ज्यादा कर्ज दे रखा था, महाधनक का गिरहबान पकड़कर बोला : “सीधी तरह मेरे पैसे निकाल वरना तेरा गला घोंट दूगा । नालायक झूठा कहीं का । कितनी बार मोहलत मांगेगा ?” कुछ दूसरे व्यापारी बोले : “हां, मारो-मारो बेईमान को ।”
बूढ़ा व्यापारी, जो महाधनक के पिता का मित्र था, बोला : ”देखो भाई, इसको मारने से तो पैसा डूब ही जाएगा । इससे पक्का वायदा ले लो । सुनो यह क्या कहता है ।” महाधनक को लज्जा तो आई ही थी । उसे गुस्सा भी आ गया था । वह नाटक करने लगा : ”तुम्हारा पैसा मैं अभी चुकाता हूं । सब हिसाब लगा लो कि किसने कितना पैसा लेना है और मेरे पीछे-पीछे आओ ।”
अब जुलूस-सा चल पड़ा । आगे-आगे महाधनक और उसके पीछे-पीछे दर्जनों लेनदार । वह शहर से बाहर आ गए तो एक ने पूछा : ‘भई, तू हमें कहां ले जा रहा है ?” ”नदी किनारे । वहां मैंने नदी के तल में खजाना छिपा रखा है ।” महाधनक ने उत्तर दिया ।
सब नदी किनारे पहुंचे । वहां महाधनक ने सबको बताया कि वह खजाना लेकर आएगा । किनारे खड़े होकर प्रतीक्षा करें । ऐसा कहकर वह नदी में कूद गया । धार में जाकर उसने पानी से सिर निकालकर आवाज दीं : ”भाईयो, अब मैं अगले जन्म में ही मिलूंगा । वहीं अपने बही-खाते लेकर आना ।”
वास्तव में तंग आकर महाधनक आत्महत्या कर रहा था । सारे लेनदार माथा पीटते हुए लौट गए । पर आत्महत्या करना इतना आसान थोड़े ही है ? महाधनक जैसे कायर व निकम्मे के बस का तो था ही नहीं । गहरे पानी में पहुचकर हाथ पैर मारने लगा और ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगा ।
नदी के दूसरे किनारे पर साल के पेड़ों का घना वन था । उसमें रुरु नामक एक अलौकिक सोने का मृग रहता था । उसका दिल भी सोने की तरह था । एकदम खरा । उसने किसी आदमी की सहायता के लिए पुकार सुनी तो नदी की ओर दौड़ पड़ा । एक आदमी को डूबते देख वह पानी में कूद पड़ा और तैरता हुआ उस तक पहूँचा और बोला : ”मानव घबरा मत । मैं आ गया हूं । मेरी पीठ पर लद जा ।”
महाधनक उसकी पीठ पर लद गया । स्वर्णमृग ने उसे किनारे लाकर उतारा । फेफड़ों से पानी निकल जाने पर महाधनक बोला : “हे सोने के मृग, मुझे बचाने के लिए अति धन्यवाद । मैं कैसे इस उपकार का बदला चुकाऊं ?”
सोने के मृग ने कहा : “बस यही उपकार करना कि मेरे बारे में किसी को मत बताना । मानवों की दुनिया लोभी है ।” महाधनक ने अपनी जिव्हा रुरु मृग के बारे में न खोलने का वचन दिया । महाधनक नदी के पार के राज्य के एक कस्वे में जाकर रहने लगा ।
उस राज्य की रानी बड़ी धर्मपरायण थी । एक रात उसने स्वप्न देखा कि एक स्वर्ण मृग उसे बहुत अच्छे धार्मिक उपदेश दे रहा है । आंख खुलते ही उसने राजा को जगाया और बोली : ”महाराज, अभी मैंने एक विचित्र सपना देखा । एक स्वर्णमृग गुझे उपदेश दे रहा था ।
क्या ऐसे मृग वास्तव में होते हैं ?” राजा ने उत्तर दिया : ”रानी, मैंने पूर्वजों को कहते सुना है कि ऐसे मृग होते हैं । पर कभी साक्षात नहीं देखा और न ही कोई ऐसा व्यक्ति मिला जिसने देखा हो ।” रानी ने विनती की : ”महाराज, अगर ऐसे मृग होते हैं तो ढुंढवाइये न ।
मैं चाहती हूं कि ऐसे अलौकिक मृग के उपदेश सुनू ।” राजा ने आश्वासन दिया : ‘प्रिय ! मैं पूरी कोशिश करूगा । यदि ऐसा कोई मृग है तो मेरी रानी को उपदेश देने उसे अवश्य आना पड़ेगा ।” बस, राजा के आदेश की देर थी कि सारे राज्य में मुनादी करवा दी गई कि यदि कोई स्वर्ण मृग के बारे में कुछ भीम्मानता है तो उसे बहुत बड़ा पुरस्कार मिलेगा ।
महाधनक ने यह घोषणा सुनी तो उसका बेईमान दिल डोल गया । महाधनक राजा के पास जाकर बोला : ”महाराज ! मैं उस स्वर्ण मृग को जानता हूं । मैं आपको उसका पता बता सकता हूं ।” राजा स्वयं महाधनक के साथ नदी के किनारे उस साल के वन के निकट गया ।
सैनिकों ने सारा वन घेर लिया और होक लगाने लगे । सैनिकों का हो-हल्ला सुनकर सोने का मृग वन से निकला और राजा के पास आकर बोला : ”राजा ! अपने सैनिकों का हो-हल्ला बद करवाइये । इससे वन की शांति भंग हो रही है । दूसरे मुझे यह बताइये कि आपको मेरा पता किसने बताया ?”
मनुष्यों की तरह बोलते हिरण को देखकर राजा चकित रह गया । राजा ने अपनी बगल में खड़े महाधनक की ओर इशारा किया कि पता इसने बताया है । तब राजा को हिरण ने सारी कहानी बताई कि कैसे महाधनक ने विश्वासघात किया है ।
राजा वहीं नीच महाधनक को मारने लगा तो हिरण ने रोका : “मैं इसकी हत्या का कारण नहीं बनना चाहता । बस पहचान लीजिए । कभी इस पर विश्वास न करना ।” राजा ने हाथ जोड़कर रुरु से महल चलकर रानी को उपदेश देने की प्रार्थना की । रुरु बोला : ”मैं चलूंगा महाराज ! पर एक शर्त पर । अब से तुम्हारे राज्य में किसी जीव की हत्या नहीं होगी ।”
राजा तुरन्त मान गया । रुरु ने महल में जाकर रानी को अच्छी-अच्छी बातें बताई । राजा ने अपने राज्य में जीव हत्या पर पूरी तरह रोक लगा दी । महाधनक को कोई पुरस्कार नहीं मिला ।
सीख: विश्वासघाती को अपमान ही मिलता है । इंसान को काम सीखना चाहिए । नाकारा व्यक्ति अपना ही जीवन नष्ट करता है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 5
सिक्के का धनी |
काफी समय पूर्व एक नगर में श्रवण नामक एक मेहनती युवक रहता था । वह भिश्ती था । नदी से अपनी मश्क में पानी भर कर लाता । जिनको पानी की जरूरत होती उन्हें पानी पिलाता । दुकानों के आगे छिड़काव करता ।
कभी-कभी महल में भी पानी पचाता । पगार बहुत कम मिलती थी । मुश्किल से दो समय की रोटी जुटती । लेकिन वह मस्त रहता । पानी लादे कुछ न कुछ गुनगुनाता ही रहता । इससे समय भी कटता और गरीबी का बोझ भी कुछ कम लगता ।
एक दिन वह अपनी मश्क लादे जा रहा था कि उसे सड़क पर एक रुपये का सिक्का पड़ा दिखाई दिया । उसने लपककर उठा लिया । उसे जैसे खजाना ही मिल गया हो । उसने अब तक केवल पाइयां और पैसे ही देखे थे । उस दिन उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे ।
वह अपने हिसाब से अमीर बन गया था । अपनी झोंपड़ी में लौटा तो रात भर नींद नहीं आई । उसने सोचा कि इतनी बड़ी रकम झोपड़ी में रखना ठीक नहीं । कोई चुराकर ले जाए तो ? किसी सुरक्षित जगह छिपाकर रखना चाहिए । बहुत सोचकर उसने निर्णय लिया ।
नगर के किले की दक्षिणी दीवार के अत में एक जगह ईंट ढीली हुई पड़ी थी । श्रवण सिक्का वहीं छिपाने के लिए सुबह ही उठकर चल दिया । उसने एक ईंट निकालकर उसके पीछे सिक्का रखकर फिर ईंट वहीं रख दी । वह जगह उसने खूब याद कर ली । दीवार की तीसरी लाइन को किनारे से पहली ईंट ।
सिक्के का मालिक बनने के बाद उसमें बहुत जोश आया । पहले से बहुत तेजी और अधिक लग्न से काम करने लगा । उसकी आमदनी पहले से बढ़ गई । काम ज्यादा मिलने लगा । फिर उसने हिम्मत करके एक गरीब व्यक्ति की सुन्दर कन्या से विवाह कर लिया ।
उसकी बीवी भी बहुत अच्छी निकली । श्रवण की खूब सेवा करती । श्रवण की बड़ी इच्छा होती कि बीवी को अच्छे कपड़े दे, सुन्दर जेवर दे, ढेर सारे बर्तन लाए और शहर की सैर कराए । पर इतने पैसे कहां थे ? एक दिन पास के कस्वे में एक मेला लगा । मेले का नाम सुनते ही बीवी खिल उठी ।
श्रवण ने बीवी को मेले की सैर कराने का फैसला किया । वह बोला : “प्यारी हम मेले में जाएंगे । मेरे पास एक रुपये का सिक्का है । खूब मौज करेंगे ।” बीवी चहकी : ”एक सिक्का मेरे पास भी है बापू ने दिया था ।” दोनों बहुत खुश हुए ।
बीवी नहा-धोकर तैयारहोने लगी । श्रवण किले की दीवार से सिक्का लाने चल पड़ा । दोपहर का समय था । बड़ी तेज गर्मी पड़ रही थी । सब अपने घर में दुबके पड़े थे । पर श्रवण तो अपनी पुन में लम्बे डग भरता जा रहा था ।
राजा ने अपने महल से एक युवक को तेजी से सड़क पर जाते देखा । उसे आश्चर्य हुआ कि ऐसी तपती धूप में ऐसा कौन-सा कार्य हो सकता है, जिसके लिए यह युवक इस प्रकार चला जा रहा है । राजा जरा सनकी था ।
उसने एक सैनिक को भेजकर श्रवण को बुलवा लिया । श्रवण घबराया हुआ था कि कहीं उससे अपराध तो नहीं हुआ । वह हाथ जोड़कर बोला : ”महाराज, क्या मुझसे अनजाने में कोई भूल हुई है ?” राजा बोला : “नहीं युवक ! मैं जानना चाहता हूं कि ऐसी गर्मी में तुम क्या करने के लिए इतनी तेजी से जा रहे हो ?”
श्रवण ने उत्तर दिया : “महाराज ! मैंने किले की दीवार में एक सिक्का छिपा रखा है । वही लेने जा रहा था । बीवी को मेले में ले जाऊगा । शादी के बाद बेचारी को मैं सैर भी नहीं करा सका ।” राजा हंस पड़ा : “अहा ! हा हा हा ! बस एक सिक्के के लिए इतना कष्ट ।
मैं तुम्हें दस सिक्के देता हूं । अपनी पत्नी को खूब सैर कराओ ।” श्रवण बोला : ‘सरकार। वह सिक्का तो ले ही आऊंगा, फिर मेरे पास ग्यारह हो जाएंगे ।’ “ओहो, भूल जाओ उस सिक्के को । मैं तुम्हें पचास सिक्के देता हूं ।” राजा ने कहा ।
श्रवण गद्गद् हुआ : ‘महाराज, आप कितने दयालु हैं । अब तो मेरे पास इक्यावन सिक्के हो जाएंगे । उस सिक्के को मिलाकर । कपड़ा जेवर और बर्तन-भांडे भी आ जाएंगे ।” राजा अब तैश में आने लगा : ”युवक, तुम सौ सिक्के ले लो । उस सिक्के की जिद छोड़ दो ।”
श्रवण बोला : “सी सिक्के ! मेरे तो भाग खुल गए सरकार । पर गुस्ताखी माफ करें सरकार । उस सिक्के को तो लाना ही पड़ेगा, क्योंकि सौ की संख्या लेकर जाना ठीक नहीं होता । एक सौ एक की संख्या ही शुभ होती है ।”
अब दरबार में सन्नाटा छा गया । सब दरबारी एक दूसरे का मुह देखकर मुस्कराने लगे और कोहनियां मारने लगे । राजा के जिद्दी स्वभाव को सब जानते थे । वह किसी न किसी तरह अपनी बात मनवाए बिना मानता ही नहीं था ।
आज श्रवण के रूप में उन्हें दूसरा जिद्दी मिल गया था । सब उत्सुकता से देखने लगे कि जिद्दियों के बीच इस रस्साकसी का क्या नतीजा निकलता है । राजा भी दरबारियों के मन की बात ताड़ गया । अब उसके लिए भी यह इज्जत का सवाल बन गया था । उसने मन ही मन में श्रवणकुमार से सिक्का लेने की जिद छुड़वाने की ठान ली ।
राजा ने पांच सौ सिक्के और फिर एक हजार सिक्कों की पेशकश की परन्तु श्रवण किसी न किसी तरह अपना वह सिक्का बीच में जोड़ लेता था । राजा ने खीजकर कहा : ”युवक, तुम्हें मैं पचास हजार सिक्के दे रहा हूं । तुम उस सिक्के को भूल जाओ ।”
सभी दरबारियों की ऊपर की सास ऊपर और नीचे की नीचे रह गई । श्रवणकुमार की आखें भी विस्मय से चौड़ी हो गईं । वह हकलाता हुआ बोला : ‘महाराज, आप जैसा दयालु राजा इस संसार में नहीं होगा । पचास हजार सिक्के ।
मैंने तो सपने में भी इतने धन की कल्पना नहीं की थी । वह सिक्का मेरे लिए कितना भाग्यशाली निकला । आप ही बताइये मालिक कि ऐसे भाग्यशाली सिक्के को मैं कैसे छोड़ूँ ? अब तो उसे जरूर निकालकर लाऊंगा ।” राजा का चेहरा तमतमा गया ।
दरबारियों ने मुश्किल से अपनी हंसी रोकी । राजा भी हार मानने वाला नहीं था । उसने घोषणा की : ”युवक मैं तुम्हें अपने राज्य का आधा भाग देता हूं । पर शर्त यह है कि तुम उस सिक्के को भूल जाओ ।” सभी दरबारी सन्त रह गए । किसी को यह गुमान नहीं था कि राजा इस सीमा तक जाएगा ।
सबने श्रवणकुमार की ओर देखा । श्रवण हाथ जोड़कर बोला : ”महाराज, मैं आपकी प्रजा हूं । आपकी आज्ञा कैसे टाल सकता हूँ ।” राजा ने विजयी भाव से दरबारियों की ओरदेखा । फिर राजा ने कहा : ”मैं प्रसन्न हुआ । अब बताओ कि तुम राज्य का कौन-सा आधा भाग लेना चाहते हो ?”
श्रवण ने कहा : “महाराज, मुझे राज्य का दक्षिणी आधा भाग दे दीजिए, क्योंकि दक्षिणी भाग में वह दीवार भी आती है जिसमें मेरा सिक्का है । मुझे अपना सिक्का भी मिल जाएगा ।” सब लोगहंस पड़े । राजा भी हंस पड़ा । इस बार उसे क्रोध नहीं आया ।
उसने श्रवण को गले लगाते हुए कहा : ‘तुम अपनी प्रजाकी उसी प्रकार रक्षा करना जैसे तुमने अपने सिक्के की की है । अब जाओ, मेरा रथ ले जाओ । अपनी पत्नी को रानी की तरह सजाकर मेला दिखा लाओ । कल तुम्हारा राज्याभिषेक होगा ।’
सीख: इंसान को अपनी छोटी से छोटी चीज की भी कद्र करनी चाहिए । इसी से सफलता मिलती है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 6
बिल्ली का न्याय |
एक वन में एक पेड़ की खोह में एक चकोर रहता था । उसी पेड़ के आस-पास कई पेड़ और थे, जिनपर फल व बीज उगते थे । उन फलों और बीजों से पेट भरकर चकोर मस्त पड़ा रहता । इसी प्रकार कईवर्ष बीत गए ।
एक दिन उड़ते-उड़ते एक और चकोर सांस लेने के लिए उस पेड़ की टहनीपर बैठा । दोनों में बातें हुईं । दूसरे चकोर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह केवल पेड़ों के फल व बीज चुगकर जीवन गुजार रहा था । दूसरे चकोर ने उसे बताया : ‘भई, दुनिया में खाने के लिए केवल फल और बी जही नहीं होते और भी कईस्वादिष्ट चीजेंहैं ।
उन्हें भी खाना चाहिए । खेतों-में-उगनेवाले अनाज तो बेजोड़ होते हैं । कभी अपने खाने का स्वाद बदलकर तो देखो ।” दूसरे चकोर के उड़ने के बाद वह चकोर सोच में पड़ गया । उसने फैसला किया कि कल ही वह दूर नजर आने वाले खेतों की ओर जाएगा और उस अनाज की चीज का स्वाद चखकर देखेगा ।
दूसरे दिन चकोर उड़कर एक खेत के पास उतरा । खेत में धान की फसल उगी थी । चकोर ने कोंपलें खाईं । उसे वह अति स्वादिष्ट लगी । उस दिन के भोजन में उसे इतना आनंद आया कि खाकर तृप्त होकर वहीं आखें मूंदकर सो गया ।
इसके बाद भी वह वहीं पड़ा रहा । रोज खाता-पीता और सो जाता । छ:-सात दिन बाद उसे सुध आई कि घर लौटना चाहिए । इस बीच एक खरगोश घर की तलाश में घूम रहा था । उस इलाके में जमीन के नीचे पानी भरने के कारण उसका बिल नष्ट हो गया था ।
वह उसी चकोर वाले पेड़ के पास आया और उसे खाली पाकर उसने उसपर अधिकार जमा लिया और वहां रहने लग गया । जब चकोर वापस लौटा तो उसने पाया कि उसके घर पर तो किसी और का कब्जा हो गया है । चकोर क्रोधित होकर बोला : “ऐ भाई, तू कौन है और मेरे घर में क्या कर रहा है ?”
खरगोश ने दाँत दिखाकर कहा : “मैं इस घर का मालिक हूं । मैं सात दिन से यही रह रहा हूं । यह घर मेरा है ।” चकोर गुस्से से फट पड़ा : ‘सात दिन ! भइए, मैं इस खोह में कई वर्षों से रह रहा हूं । किसी भी आस-पास के पंछी या चौपाए से पूछ ले ।’
खरगोश चकोर की बात काटता हुआ बोला : ”सीधी-सी बात है । मैं यहां आया । यह खोह खाली पड़ी थी और मैं यहां बस गया । मैं क्यों अब पड़ोसियों से पूछता फिरूं?” चकोर गुस्से में बोला : “वाह ! कोई घर खाली मिले तो क्या इसका यह मतलब हुआ कि उसमें कोई नहीं रहता ? मैं आखिरी बार कह रहा हूँ कि शराफत से मेरा घर खाली कर दे वर्ना…।”
खरगोश ने भी उसे ललकारा : ‘वर्ना तू क्या कर लेगा ? यह घर मेरा है । तुझे जो करना है, कर ले ।’ चकोर सहम गया । वह मदद और न्याय की फरियाद लेकर पड़ोसी जानवरों के पास गया सबने दिखावे की हूं-हूं की, परंतु ठोस रूप से कोई सहायता करने सामने नहीं आया ।
एक बूढ़े पड़ोसी ने कहा : ‘ज्यादा झगड़ा बढ़ाना ठीक नहीं होगा । तुम दोनों आपस में कोई समझौता कर लो ।’ पर समझौते की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, क्योंकि खरगोश किसी शर्त पर खोह छोड़ने को तैयार नहीं था । अत में लोमड़ी ने उन्हें सलाह दी-तुम दोनों किसी ज्ञानी-ध्यानी को पंच बनाकर अपने झगड़े का फैसला उससे करवाओ ।”
दोनों को यह सुझाव पसंद आया । अब दोनों पंच की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे । इसी प्रकार घूमते-घूमते वे दोनों एक दिन गंगा किनारे आ निकले । वहां उन्हें जप-तप में मग्न एक बिल्ली नजर आई । बिल्ली के माथे पर तिलक था । गले में जनेऊ और हाथ में माला लिए मृगछाल पर बैठी वह पूरी तपस्विनी लग रही थी । उसे देखकर चकोर व खरगोश खुशी से उछल पड़े ।
उन्हें भला इससे अच्छा ज्ञानी-ध्यानी कहा मिलेगा । खरगोश ने कहा : “चकोर जी, क्यों न हम इससे अपने झगड़े का फैसला करवाए ?” चकोर पर भी बिल्ली का अच्छा प्रभाव पड़ा था । पर वह जरा घबराया हुआ था । चकोर बोला-मुझे कोई आपत्ति नहीं है । पर हमें जरा सावधान रहना चाहिए ।”
खरगोश पर तो बिल्ली का जादू चल गया था । उसने कहा : ‘अरे नहीं । देखते नहीं हो, यह बिल्ली सांसारिक मोह-माया त्यागकर तपस्विनी बन गई है ।’ सच्चाई तो यह थी कि बिल्ली उन जैसे मूर्ख जीवों को फांसने के लिए ही भक्ति का नाटक कर रही थी । फिर चकोर और खरगोश पर और प्रभाव डालने के लिए वह जोर-जोर से मंत्र पढ़ने लगी ।
खरगोश और चकोर ने उसके निकट आकर हाथ जोड़कर जयकारा लगाया : “जय माता दी । माता को प्रणाम ।” बिल्ली ने मुस्कराते हुए धीरे से अपनी औखें खोलीं और आशीर्वाद दिया : “आदुष्मान भव, तुम दोनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें हैं । कया कष्ट है तुम्हें बच्चो ?”
चकोर ने विनती की : ‘माता हम दोनों के बीच एक झगड़ा है । हम चाहते हैं कि आप उसका फैसला करें ।’ बिल्ली ने पलकें झपकाई : “हरे राम, हरे राम ! तुम्हें झगड़ना नहीं चाहिए । प्रेम और शांति से रहो ।” उसने उपदेश दिया और बोली : ‘खैर, वता ओ, तुम्हारा झगड़ा क्या है ?’ चकोर ने मामला बताया ।
खरगोश ने अपनी बात कहने के लिए मुह खोला ही था कि बिल्ली ने पंजा उठाकर उसे रोका और बोली : ”बच्चो, मैं काफी बूढ़ी हू । ठीक से सुनाई नहीं देता । औखें भी कमजोर हैं । इसलिए तुम दोनों मेरे निकट आकर मेरे कान में जोर से अपनी-अपनी बात कहो ताकि मैं झगड़े का कारण जान सकू और तुम दोनों को न्याय दे सकूँ । जै सियाराम ।”
वे दोनों भगतिन बिल्ली के बिल्कुल निकट आ गए ताकि उसके कानों में अपनी-अपनी बात कह सकें । बिल्ली को इसी अवसर की तलाश थी । उसने ‘म्याऊं’ की आवाज लगाई और एक ही झपट्टे में खरगोश और चकोर का काम तमाम कर दिया । फिर वह आराम से उन्हें खाने लगी ।
सीख: दो के झगड़े में तीसरे का ही फायदा होता है, इसलिए झगड़ों से दूर रहो ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 7
वशीकरण मंत्र |
प्राचीन समय की बात है । बनारस नगर में राजा ब्रह्मदत्त का राज्य था । उसी राजा का पुरोहित बहुत तंत्र-मंत्र जानता था । पर वशीकरण मत्र अभी सिद्ध नहीं कर पाया था । एक दिन उसने वह मत्र भी सिद्ध करने की टान ली ताकि राजा भी उसके वश में रहे ।
पुरोहित बनारस के पास एक घने जगल में गया । वहा उसने एक बड़े वृक्ष के समीप मृगछाला बिछाकर आसन लगाया और आंखें मूंदकर मंत्र का जाप करने लगा । एक गीदड़ उसे देख रहा था । गीदड़ को आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगा कि यह आदमी जगल में इस तरह बैठकर क्या बड़बड़ा रहा है ।
गीदड़ दबे पाँव ध्यानमग्न पुरोहित के निकट आया । उसने पुरोहित का वशीकरण मंत्र सुना । बार-बार वही मंत्र दोहराया जा रहा था । बार-बार सुनकर गीदड़ को भी वह मंत्र याद हो गया । वह भी पेड़ के दूसरी ओर जाकर वैसे ही बैठकर मंत्र जपने लगा । गीदड़ देखना चाहता था कि ऐसा करने पर होता क्या है ।
आखिर आदमी बिना किसी मतलब के कोई काम नहीं करता । कुछ न कुछ कारण जरूर होगा । बस यही क्रम रोज चलने लगा । उधर पुरोहित आकर आसन पर बैठकर मत्र जपना शुरू करता । पेड़ के दूसरी ओर गीदड़ उसी की नकल उतारता हुआ मंत्र जपता ।
इक्कीसवें दिन जब पुरोहित ने 1008 वीं बार मत्र पड़ा तो अजीब घटना हुई । वायु में गड़गड़ाहट-सी हुई । प्रकाश चमका । एक देवता हुए तुम्हें प्रकट और बोले : ”जाओ, सिद्धि मिल गई ।” फिर वह लुप्त हो गए । पुरोहित खुशी से नाचने लगा : “अहा । अब मैं वशीकरण मंत्र सिद्ध बन गया । सब मेरे इशारों पर नाचेंगे ।”
तब गीदड़ को पता लगा कि वह वशीकरण मत्र था । पुरोहित तो चला गया । गीदड़ बोला : “भाई जब देवता ने आशीर्वाद दिया था तो उनका हाथ मेरी ओर भी उठा था । मैं भी सिद्ध तो नहीं बन गय ?” तभी वहां से उसे एक चीता जाता दिखाई दिया । गीदड़ ने मैत्र पढ़कर कहा : ”ऐ चीते, वापस मुड़ और भाग ।” उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब चीता मुद्रा और दुम दबाकर दौड़ गया ।
गीदड़ नाचने लगा । अब वह वशीकरण मँत्र के बल पर सभी जानवरों को वश में करके राजा बन सकता था । उसी समय वहां से एक अति सुंदर गीदड़ी गुजरी । गीदड़ उससे बोला : ”हसीना, मुझसे विवाह कर ले । मैं इस काल का होने वाला राजा हूं । रानी बनेगी तू । पता है मुझे वशीकरण मंत्र आता है ।”
ऐसा कहकर उसने एक खरगोश को पंजों में जकड़े हवा में ऊपर उड़ते चील से मंत्र पढ़कर कहा : ‘ऐ चील, यह खरगोश मेरे चरणों में डाल दे ।’ चील पर मँत्र का असर हुआ । वह मुड़ी और उसने आकर खरगोश गीदड़ के पैरों में डाल दिया । गीदड़ी तो भौंचक्की रह गई । वह तुरन्त उससे शादी के लिए राजी हो गई ।
बस आनन-फानन में सारे जगल में गीदड़ के मत्र की बात फैल गई । सब उससे डरने लगे । किसी ने उसका विरोध किया तो उसने मत्र पढ़कर उसे खरगोश बना दिया । अब सबके पास गीदड़ को राजा स्वीकार करने के इलावा कोई चारा नहीं था । गीदड़ राजा बन गया और गीदड़ी रानी । दोनों सब जानवरों पर मनमाने हुक्म चलाने लगे ।
जंगल का राजा बनने के बाद गीदड़ के दिल में और बड़े अरमान उठने लगे । एक दिन उसने घोषणा की : ”प्रजाजनो, इंसान ने हमें बहुत सताया है । अब हमारी बारी है । मेरे जैसा पराक्रमी राजा जंगल में आज तक पैदा नहीं हुआ । इसलिए अब हम मानवों को गुलाम बनाएंगे ।”
गीदड़ ने पहले बनारस नगर पर कब्जा करने का फैसला किया । बस गीदड़ की सेना चल पड़ी । बड़ी निराली शान थी । जगल के सबसे बड़े हाथी पर शेर खड़ा हो गया । शेर की पीठ पर गीदड़ और उसके पीछे गीदड़ी बैठी । इस प्रकार वह सेना के बीच में अलग ही नजर आते थे ।
उनके आगे-पीछे दाए-बाए शेर, बाघ, भालू, चीते व भेड़ियों की टोलियां थीं । उनके पीछे गैंडे जंगली सूअर, जंगली बैल और भैंसे । और पीछे जंगल के दूसरे जानवर । बड़ी विशाल सेना थी । रास्ते में उन्होंने कड् गाव उजाड़ दिए । खबर पाकर बनारस में भगदड़ मच गई । नगर खाली हो गया । सब राजा के साथ किले में बद होकर बैठ गए ।
जंगली सेना किले के द्वार तक पहुंची । गीदड़ ‘हूं हूं’ करके ललकारने लगा । राजा चिन्तित । उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? क्या वह आत्म समर्पण कर दे ? पुरोहित को खबर मिली तो वह राजा के पास गया । उसने राजा को कुछ उपाय करने का आश्वासन दिया ।
पुरोहित बहुत चतुर था । पुरोहित किले के परकोटे पर आया । गीदड़ को देखते ही उसका माथा ठनका । उसे लगा इसे कहीं देखा है । गीदड़ ने चिल्लाकर कहा : “अपने राजा से आत्मसमर्पण के लिए कहो । वर्ना हम किले के अंदर घुसकर सबको मार डालेंगे ।”
पुरोहित ने पूछा : “गीदड़ राजा, हम किले का द्वार नहीं ऐ खोलेंगे तो किले के भीतर कैसे घुस पाओगे ?” गीदड़ भभककर बोला : “मैं शेरों खो दहाड़ने का आदेश दूगा । उनकी दहाड़ों से किले की दीवारें भरभरा जाएंगी । फिर हाथी और गैंडे टक्कर मारकर दीवारें गिरा देंगे ।”
धमकी खतरनाक थी । पुरोहित ने सोचा कि इनमें फूट डालकर ही बात बन सकती है । इसलिए उसने जानबूझकर गीदड़ को उकसाया : ”लेकिन शेर और हाथी तो बहुत श्रेष्ठ जानवर हैं, वे एक तुच्छ गीदड़ का आदेश क्यों मानेंगे ?”
गीदड़ चिल्लाया : ”मूर्ख, यह सब मेरे गुलाम हैं । मुझे वशीकरण मंत्र आता है । मैं जो आदेश दूंगा वह सबको करना पड़ेगा ।” चालाक पुरोहित ने और उकसाने के लिए कहा : “यकीन नहीं आता । अच्छा जरा जिस शेर पर आप बैठे हो उसे दहाड़ने का आदेश देकर तो दिखाओ ।”
गीदड़ फीं फीं फीं करके हसा और बोला : ”अभी, देख ।” गीदड़ ने आदेश दिया : ”शेर, दहाड़ो ।” आदेश पाते ही शेर दहाड़ पड़ा । दहाड़ सुनते ही सब जानवरों का कुदरती स्वभाव जाग उठा । वशीकरण मत्र का असर उड़ गया । नीचे वाला हाथी घबराकर बहक गया । वह भी चिंघाड़ उठा ।
उसके बहकते ही गीदड़ और गीदड़ी धड़ाम से नीचे आ गिरे । साथ ही शेर नीचे कूदा । बाकी शेरों से भी चुप नहीं रहा गया । वे सब भी दहाड़ उठे । जवाब में हाथी चिंघाड़े । चारों ओर भगदड़ मच गई । बाघ, चीते व लक्कड़बग्घे भी घबराकर गुर्राते हुए इधर-उधर जिसका जिधर सींग समाया भागने लगे ।
इससे चारों ओर खलबली मच गई । छोटे जानवर बड़े जानवरों के पैरों के नीचे कुचले जाने लगे । कुछ ही समय में हजारों जानवर मारे गए । बाकी जान बचाकर जंगल की ओर भागे और अपनी जान की खैर मनाने लगे ।
गीदड़ राजा तो हाथी के पैरों के नीचे आकर बुरी तरह कुचलकर मारा गया । गीदड़ी शेर को हवा में छलांग मारते देख डर के मारे ही मर गई थी । राजा वहदत, पुरोहित व दूसरे लोग यह सब तमाशा किले की प्राचीर से देखते रहे ।
सीख: हमें अपनी हैसियत के अनुसार ही काम करने चाहिए । औकात से बढ़कर नहीं, अन्यथा नुकसान के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होता ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 8
भाग्य व बुद्धि का मुकाबला |
एक दिन एक स्थान पर भाग्य व बुद्धि की मुलाकात हो गई । दोनों बैठकर बातें करने लगे । बातें करते-करते उनमें बहस छिड़ गई । भाग्य ने कहा : ”मैं बड़ा हूं । अगर मैं साथ न दूं तो आदमी कुछ नहीं कर सकता । मैं जिसका साथ देता हूं उसकी जिन्दगी बदल जाती है ।
उसके पास बुद्धि हो या न हो ।” बुद्धि ने कहा : ”उसके बिना किसी का काम नहीं चल सकता । बुद्धि न हो तो केवल भाग्य से कुछ नहीं बनता ।” आखिर उन दोनों ने फैसला किया कि खाली बहस करने की बजाय अपनी-अपनी शक्ति का प्रयोग करके देखते हैं । पता लग जाएगा कि कौन बड़ा है ।
वे दोनों एक किसान के पास गए । किसान गरीब था । अपनी कुटिया के बाहर बैठा अपनी किस्मत को रो रहा था । भाग्य ने कहा : ”देखो, इस किसान के पास बुद्धि नहीं है । मैं इसका भाग्य बदलता हूं । यह खुशहाल और सुखी हो जाएगा । तुम्हारी जरूरत ही नहीं पड़ेगी ।”
किसान की कुटिया के साथ ही उसका एकमात्र खेत था । उसमें उसने ज्वार बो रखी थी । बालियां आ ही रही थी । इस बार उसने बालियों को निकट से देखा । बालियों में ज्वार के स्थान पर भाग्य के प्रताप से मोती लगे थे ।
बुद्धिहीन किसान ने अपना माथा पीटा : ”अरे इस बार तो सत्यानाश हो गया । ज्वार के स्थान पर ये पत्थर-कंकड़ से भला क्या उग आए हैं ?” वह रो ही रहा था कि उधर से उस राज्य का राजा और उनका मंत्री गुजरे । उन्होंने दूर से ही ज्वार की वह खेती देखी ।
मोतियों की चमक देखते ही पहचान गए । दोनों बग्घी से उतरे और निकट से देखा । वे तो सचमुच के मोती थे । दोनों बोले कि यह कितना धनी किसान है जिसके खेत में मोती ही मोती उगतै हैं । मंत्री ने किसान से कहा : ”भाई, हम एक बाली तोड़कर ले जाएँ ?”
किसान बोला : “एक क्या सौ पचास उखाड़ लो । पत्थर ही पत्थर तो लगे हैं इनमें ।” राजा ने मंत्री को कोहनी मारकर कान में कहा : ”देखो, कितना विनम्र है यह । अपने मोतियों को पत्थर कह रहा है ।” मंत्री ने कहा : और दिल भी विशाल है । हमने एक मांगा और यह सौ-पचास ले जाने के लिए कह रहा है ।”
वे दो बालियां तोड़कर ले गए । बग्घी में बैठे राजा ने मोतियों को हाथ में तौलते हुए कहा : “मंत्री, हम राजकुमारी के लिए योग्य वर छू रहे थे न । दूर क्यों जाएं ? यह किसान जवान है, धनी है और कितना बड़ा दिल है इसका । मोतियों को पत्थर कहता है, क्या ख्याल हैं ?”
मंत्री बोला : ”महाराज, आपने मेरे मुंह की बात छीन ली ।” मंत्री बग्घी से उतरकर किसान के पास गया । उसने किसान के हाथ पर एक अशर्फी रखकर कहा : ”युवक, हम तुम्हारा विवाह राजकुमारी से तय कर रहे हैं ।” किसान घबराया : “न…नहीं मालिक। मैं एक निर्धन किसान और…? ।”
मंत्री समझा कि विनम्रता के कारण ही वह ऐसा कह रहा है । उन्होंने उसकी पीठ थपथपाकर उसे चुप करा दिया । राजा के जाने के बाद किसान ने लोगों को बताया कि उसकी शादी राजकमारी से तय हो गई है । सब हंसे । एक ने कहा : ”अरे बेवकूफ, यह शायद तुझे मरवाने की चाल है ।
हम तो तेरे साथ नहीं चलने के, कहीं हम भी न मारे जाएं । अकेले अपनी बारात ले जाइयो ।” किसान को अकेले ही जाना पड़ा । राजा ने इसका बुरा नहीं माना । मंत्री ने उसे अपने घरठहराया । वहीं से उसकी बारात गई और धूमधाम से राजकमारी से उसकी शादी हो गई ।
शादी हो जाने के बाद राजा ने दामादकोमहल काही एक भाग दे दिया । राजा के कोई पुत्र नहीं था, अत: वह दामाद को अपने पास ही रखना चाहता था ताकि राजसिंहासन भी बाद में उसे सौंप सके । राज परिवार की परम्परा के अनुसार राजकुमारी वधु के वेष में सज-धजकर खाना लेकर रात को अपने पति के कक्ष में गई ।
किसान ने इतनी सुन्दरता से सजी और आभूषणों से लदी कन्या सपने में भी नहीं देखी थी । वह डर गया । उसके मूर्ख दिमाग में अपनी दादी की बताई कहानी कौंध गई, जिसमें एक राक्षसी सुन्दरी का वेष बनाकर गहनों से सजी-धजी एक पुरुष को खा जाती थी ।
उसने सोचा कि यह भी कोई राक्षसी है जो उसे खाने के लिए आई है । वह उठा और राजकुमारी को धक्का देकर गिराता हुआ चिल्लाता बाहर की ओर भागा । भागता-भागता वह सीधे नदी किनारे पहुँचा और पानी में कूद गया । उसने सोचा कि राक्षसी का पति होकर जीने से अच्छा मर जाना होगा ।
राजकुमारी के अपमान की बात जान राजा आगबबूला हो गया । राजा के सिपाहियों ने किसान दूल्हे को डूबने से पहले ही बचा लिया । उधर राजा ने आदेश जारी कर दिया कि दूसरे दिन उसे मृत्युदंड दिया जाएगा । बुद्धि ने भाग्य से कहा : ”देखा, तेरा भाग्यवान बुद्धि के बिना मारा जाने वाला है ।
अब देख मैं इसे कैसे बचाती हूं ।” इतना कह बुद्धि ने किसान में प्रवेश किया । किसान को राजा के सामने पेश किया गया तो किसान बोला : ”नरेश, आप किस अपराध में मुझे मृत्युदंड देने चले हैं ? मेरे कुल में मान्यता है कि विवाह के पश्चात पहली रात को यदि वर वधु की जानकारी में कोई व्यक्ति नदी में डूब मरे तो वधू या धवा जाती है या संतानहीन रह जाती है ।
जब मेरी पत्नी मेरे कक्ष में आई तो नदी की ओर से मुझे ‘बचाओ-बचाओ’ की पुकार सुनाई दी । मैं अपनी रानी पर किसी अनिष्ट की आशंका से ही काप उठा और उठकर डूबने वाले को बचाने के लिए भागा । आप मुझे कोई भी दंड दें, मैं अपनी पत्नी के लिए कुछ भी करूंगा ।”
उसकी बात सुनते ही राजा ने उठकर किसान को गले लगा लिया । पिता पुत्री ने लज्जित होकर किसान से अपने असंगत व्यवहार के लिए माफी मांगी । फिर तीनों खुशी-खुशी अंतरंग महल की ओर चल दिए ।
बुद्धि ने मुस्कराकर खिसियाए भाग्य की ओर देखा ।
सीख: जीवन में सफलता के लिए बुद्धि व भाग्य दोनों का मेल जरूरी है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 9
बेटे की सीख |
एक बहुत भला-मानस किसान था । अपने खेत में वृब श्रम करता । पर उसके पास ज्यादा खेत नहीं थे, इसलिए वह अमीर नहीं था । बस घर का खर्चा ठीक-ठाक चल जाता । उसके एक बेटा था, उसका नाम था तामस । किसान उसे बहुत प्यार करता था ।
खुद कम खाकर भी उसे कमी न होने देता । तामस दिन भर खेलता रहता था । किसान की पत्नी प्राय: कहती : “देखो जी, तामस बेटा तो किसान का ही है न । उससे खेतों में काम करवाओ । काम सीखेगा । इस तरह तो नाकारा हो जाएगा । तुम कब तक अपने हाड़ तोड़ते रहोगे । बुढ़ापा आने लगा है तुम्हें ।”
पर किसान यह कहकर टाल देता : ‘भागवान, अपना एक ही तो बेटा है । खूब खेलने खाने दो । वक्त आने पर अपने आप सुध आ जाएगी । अभी तो मेरे हाथ-पैर चल रहे हैं । फिर तामस तो है ही । बुढापे में हम दोनों को कष्ट नहीं होने देगा ।’
पत्नी कहती : ‘आजकल के बेटों का कोई भरोसा नहीं ।’ तामस खेलते व मस्ती मारते जवान हुआ । खेतों पर जाकर खेती के काम में अपने पिता का हाथ बंटाने की उसे कभी फिक्र न हुई । फिर बाप ने उसका विवाह भी कर दिया । किसान अब आ हो चला था ।
अब भी उसे ही सारा काम करना पड़ता । सारी गृहस्थी का बोझ उठाए था । बेटा तो अपनी बीवी के नाज नखरों के सिवा और कुछ उठाता नहीं था । खुद निठल्ला बैठा बीवी से बतियाता रहता और आ बाप मजदूर की तरह काम करता, पर उसे लाज न आती ।
दिन-रात काम करते-करते किसान को दमे और खांसी की बीमारी हो गई । पत्नी ने उसे खटिया पर लिटा दिया । बेटे को खरी-खोटी सुनाकर खेती का काम संभालने को कहा । तामस बूढ़े को कोसता हुआ खेतों पर जाता । कुछ समय बाद बहू मां बन गई । एक बेटे को जन्म दिया उसने, वह खुद तामस की ढील के कारण आलसी हो गई थी ।
बच्चे की देखभाल दादी-दादा को ही करनी पड़ती । बच्चा दोनों से बहुत हिलमिल गया । उन्हीं के पास पड़ा रेहता । किसान की पत्नी पहले से ही बेचारी अंदर से टूटी हुई थी । एक दिन उसका अचानक निधन हो गया । बूढ़ा अपनी पत्नी के बिना बेसहारा-सा हो गया ।
तामस कामचोर तो था ही । खेती बहुत कम अन्न देने लगी, तो घर में तंगी होने लगी । पति-पत्नी उसका दोष बुड्ढे पर मढ़ते जो बैठा खाट तोड़ता रहता था और घर का अन्न बरबाद कर रहा था । पर पोता अपने दादा पर जान छिड़कता था ।
हर समय उसी की खाट के आसपास मंडराता रहता, खेलता और बूढ़े से बतियाता । इससे बेटा-बहू और चिढ़ जाते । एक दिन तामस से बीवी ने कहा : ‘यह बुड्ढा तो हमारे घर का शनिचर बन गया है । घर का राशन खराब कर रहा है । ऊपर से रात-भर खांस-खांसकर हमें सोने नहीं देता ।
तुम्हें सोने को नहीं मिलेगा तो खेतों पर काम कैसे करोगे ? और हमारे बेटे को अपने से चिपकाए रखता है । उसे दमा या क्षयरोग लगा देगा । कुछ करके बुड्ढे की छुट्टी करो वरना मैं यहाँ नहीं रहूंगी ।” तामस बोला : ”भागवान, मैं खुद बुड्ढे से परेशान हू । कल ही उसको ठिकाने लगा दूगा । तू चिंता न कर ।”
दूसरे दिन तामस ने बैलगाड़ी जोती । उसमें खुदाई के औजार कुदाली, फावड़ा व बेलचा रखा । फिर अपने बूढ़े बाप को लाकर गाड़ी पर लादा ।बेटे ने पूछा : “बापू बाबा को कहा ले जा रहे हो ?” तामस ने उत्तर दिया : ”शहर । वहा बहुत बड़ा वैद्य रहता है । बाबा का इलाज कराना पड़ेगा ।”
बेटा भी साथ चलने की जिद करने लगा । उसे तामस और उसकी पत्नी ने समझाया । पर वह नहीं माना और रोने लगा । कहीं पड़ोसी बूढ़े को बैलगाड़ी में ले जाते न देख लें, इस डर से उसे साथ ले जाना पड़ा । जब बैलगाड़ी एक जंगल के पास पहुंची तो तामस ने बैलों को रोक दिया ।
वह कुदाली, फावड़ा व बेलचा उठाकर चुपचाप पेड़ों के पीछे चला गया । काफी देर हो गई तो बेटा बैलगाड़ी से उतरकर अपने बापू को देखने उसी ओर गया । तामस एक बहुत बड़ा गड्ढा खोद चुका था । उस समय वह फावड़े से मिट्टी बाहर फेंक रहा था । वेटे ने पूछा : ”बापू यह क्या कर रहे हो ?”
तामस को बताना ही पड़ा : ”यह गड्ढा बाबा के लिए है । बाबा को दर्द बहुत होता है न । इस गड्ढे में वह आराम से सोता रहेगा ।” बेटा सब समझ गया । तामस गड्ढे से सारी मिट्टी बाहर फेंक चुका तो स्वयँ बाहर आ गया । बाहर उसने देखा कि उसका बेटा कुदाली लेकर एक दूसरा गड्ढा खोदने में लगा है ।
तामस ने पूछा : ”बेटा, यह गड्ढा क्यों खोद रहा है ?” बेटे ने उत्तर दिया : ”बापू ! यह गड्ढा तुम्हारे लिए है । तुम एक दिन बाबा की तरह बूढे हो जाओगे । बीमार होकर मेरे लिए बोझ बन जाओगे तो मैं तुम्हें लाकर इस गड्ढे में डाल दूँगा जैसे तुम बाबा को उस गड्ढे में डालने वाले हो ।
तुम्हें बैलगाड़ी में बैठकर गड्ढा खुदने का इंतजार नहीं करना पड़ेगा । मैं भी इस परम्परा को निभाऊंगा ।” बेटे की बात सुन तामस की आखें खुल गईं । वह अपने बूढ़े बाप को वापस घर ले आया । उसने बाप का इलाज करवाया और उसकी सेवा करने लगा ।
सीख: 1. जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, उसे अपने लिए भी गड्ढा खुदा हुआ मिलता है ।
2. दूसरों के साथ हमेशा ऐसा व्यवहार करो जैसा तुम दूसरों से स्वयं के लिए चाहते हो ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 10
धोबी और गधा |
एक समय की बात है कि एक धोबी के पास एक गधा था । जब वह धोबी अपनी ससुराल जाता था तो गधे पर चढ़कर जाता था । परंतु लौटते समय ससुराल के गांव से बाहर आते ही उतर जाता और रस्सी से पकड़कर गधे को ले आता ।
उसे पता था कि लौटने पर गधे को कपड़ों के गट्ठर उठाने पड़ेंगे । बेचारे को आराम मिलना चाहिए । एक बार वह धोबी अपनी ससुराल से आ रहा था । पीछे-पीछे उसका गधा । गधे के गले में बंधी थी रस्सी । रस्सी का सिरा धोबी के हाथ में था । गधा स्वयं चल रहा था, इसलिए रस्सी काफी ढीली थी ।
धोबी किसी ख्याल में डूबा हुआ था । सोचता हुआ बस सामने देखकर चल रहा था । दो ठगों ने इस प्रकार उन्हें जाते देखा तो धोबी से गधा ठगने की चाल चली । वे दबे पांव धोबी के पास पहुंचे । वहां उन्होंने चतुराई से चलते हुए इस प्रकार गधे के गले से रस्सी खोली कि धोबी को कोई शक ही नहीं हुआ ।
एक ठग गधे को लेकर झाड़ियों में गायब हो गया । दूसरे ठग ने रस्सी का सिरा अपने गले में बांध लिया और गधा बनकर चलने लगा । जब वे काफी दूर निकल गए तो गधा बना हुआ ठग खड़ा हो गया । धोबी तो चला ही जा रहा था, रस्सी तन गई ।
धोबी ने बिना पीछे देखे रस्सी को खींचा और बड़बड़ाया : ”अबे, अब चलता क्यों नहीं ?” ठग ने अपने गले को दबने से बचाने के लिए रस्सी हाथों से पकड़ ली थी । जब खींचने के बाद भी रस्सी ढीली नहीं हुई तो धोबी ने पीछे मुड़कर देखना चाहा कि गधा क्यों नहीं चल रहा है ।
गधे की जगह एक आदमी को रस्सी से बधा देखकर धोबी चकित हुआ । वह हकलाकर बोला : “अयं । म…मेरा गधा कहां चला गया ? तुम कौन हो भई ?” ठग बोला : ”मालिक ! मैं ही वह गधा हूं । मैंने इंसान के रूप में ही जन्म लिया था । बचपन में मैं बहुत शरारती था । बहुत शैतानियां कीं ।
एक दिन दुखी होकर मेरी माता ने मुझे सात वर्ष गधा बनकर प्रायश्चित करने का शाप दिया । तब से गधा बनकर आपकी सेवा कर रहा था । कुछ क्षण पूर्व शाप के सात साल पूरे हुए तो मैं फिर आदमी बन गया ।” धोबी बोला : ”लेकिन मैंने तो तुम्हें तीन वर्ष पूर्व मेले में खरीदा था ।”
ठग ने बात बनाई : ”हां, उससे पहले मैं एक दो दूसरे धो बियों के पास रहा ।” धोबी ने उसकी बात का विश्वास कर लिया । रस्सी खोलकर उसने अपनी जेब में जितने पैसे थे, निकाल कर ठग को दिए और सलाह दी : “यह पैसे लो । अपनी मां के पास लौट जाओ । अब शरारत न करना । खूब मेहनत करना और अपनी मां की सेवा कर उसे खुश रखना ।”
ठग पैसे लेकर चलता बना । दोनों ठग मिले तो धोबी की मूर्खता पर खूब हंसे । ठगों ने वह गधा अच्छे दामों में गधों के व्यापारी को बेच दिया । कुछ दिनों बाद पशु मेला लगा । मेले में वह गधा भी बिकने के लिए आया । उधर धोबी भी नया गधा खरीदने मेले में आया और गधों को देखता हुआ वह उस अपने वाले गधे के पास आया ।
गधा उसे जाना-पहचाना-सा लगा । धोबी ने उसकी पीठ पर अपना लगाया निशान देखा । गधा भी अपने मालिक को पहचानकर खुशी से कान फड़फड़ाने लगा । धोबी बोला : ”तुझे मां ने फिर गधा बना दिया ? घर जाते ही फिर कोई शैतानी कर बैठा । मैं तेरे जैसे नालायक को नहीं खरीदूंगा ।”
धोबी को गधे से बात करते देख लोग हंसने लगे । लोगों ने समझा यह पागल हो गया है । यह बात धोबी के गांव भी पहुंच गई । गाव वालों ने कहा या तो इसका दिमाग खराब हो गया या भंग-वंग का नशा करने लगा है ।
कहीं किसी दिन कपड़ों को जला-वला न दे या फाड़ न डाले । यह सोचकर लोगों ने उसे पुलने के लिए कपड़े देना भी बंद कर दिया । घोबी न घर का रहा न घाट का ।
सीख: दूसरों की बातों का बिना सोचे-समझे विश्वास नहीं करना चाहिए ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 11
चिन्ता का रोग |
बहुत समय पूर्व एक राजा था । राजाबनेउसेदस वर्ष हो चुके थे । पहले कुछ वर्षतोकोईसमस्या नहीं आई । फिर एक बार अकाल पड़ा । राज्य में त्राहिमाम मच गया । उस वर्ष लगान न के बराबर आया ।
राजा को प्राय: यही चिन्ता रही कि खर्चा कैसे घटाया जाए ताकि काम चल सके । उसके बाद यही आशंका रहने लगी कि कहीं इस बार भी अकाल न पड़ जाए । पड़ोसी राजाओं का भी भय रहता कि मौका मिलने पर हमला न कर दें ।
एक बार उसने कुछ मंत्रियों को उसके विरुद्ध षड्यत्र रचते भी पकड़ा था । इसलिए षड्यंत्रों की चिन्ता भी सताती रहती । राजा को चिन्ताओं के मारे नींद न आती । भूख भी कम लगती थी । शाही मेज पर सैकड़ों पकवान परोसे जाते, पर वह दो-तीन कौर से अधिक न खा पाता ।
राजा अपने शाहीबाग के माली को देखता था । जो बड़े स्वाद से प्याज और चटनी के साथ सात-आठ मोटी-मोटी रोटियां खा जाता था । रात को लेटते ही गहरी नींद में सो जाता और सुबह कई बार जगाने पर ही उठता । राजा को उससे ईर्ष्या होती ।
एक दिन दरबार में उसके कुलगुरु ऋषि पधारे । राजा ने अपनी समस्या कुलगुरु के सामने रखी और हल सुझाने के लिए कहा । गुरुबोले : ”वत्स, यह सब राज-पाट की चिन्ता के कारण है । राजपाट त्याग दो । तुम्हारी नींद व भूख दोनों वापस लौट आएंगे । सिंहासन अपने बेटे को सौंप दो ।”
राजा ने कहा : ”नहीं गुरुदेव । वह तो पाच वर्ष का अबोध बालक है ।” “तो फिर मुझे सौंप दो ।” ऋषि ने सुझाया । राजा को गुरु का सुझाव ठीक लगा । उसने उसी समय राज-पाट गुरु को सौंप दिया और स्वयं उस बंधन से मुक्त हो गया । गुरु ने पूछा : “अब तुम क्या करोगे ?”
राजाने बताया कि वह व्यापार करेगा । उसने कोषा ध्यक्ष को पचास हजार मुद्राए लानेके लिए कहा । व्यापारके लिए धन तो चाहिए न । गुरु बोले : ”राजा, अव यह राज और राजकोष मेरा है । तुम इसमें से धन नहीं ले सकते मैं तुम्हें कुछ नही ले जाने दूंगा ।”
राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया । राजा ने बताया कि अब वह किसी दूसरे रज में जाकर कोई नौकरी करेगा । इस पर गुरु ने कहा : ”नौकरी करनी ही है तो दूसरे राज्य में क्यों जाते हो ? मेरी ही नौकरी कर लो ।” ”ठीक है मालिक, मेरा काम क्या होगा?” राजा ने पूछा ।
गुरु ने बताया : “देखो, मैं तो ठहरा एक साधु । आश्रम में रहता हूं और वहीं रहूंगा । पर मुझे यह राजपाट मिला है । इसे चलाने के लिए मुझे एक नौकर चाहिए । तुम पहले की तरह ही महल में रहोगे । गद्दी पर बैठोगे और शासन चलाओगे । यही तुम्हारी नौकरी रहेगी ।”
राजा ने स्वीकार कर लिया । गुरु तो आश्रम चले गए । राजा पहले की तरह राज चलाने लगे । कोई अंतर नहीं आया था । अतर था तो केवल यह कि पहले वह जिम्मेवारियों से लदा और चिन्ताओं से घिरा राजा था तो अब केवल नौकरी के तौर पर राजा था ।
कुछ महीनों के बाद गुरु फिर पधारे । राजा ने गुरु को सिंहासन पर विटाया और सग्य नौकरकी भांति खड़ा रहा । गुरु ने पूछा : ”कहो तुम्हारी भूख व नींद का क्या हाल है” राजा ने उत्तर दिया : ”मालिक, अब भूख लगती और खुब सोता हूं ।” गुरु ने समझाया : ”देखो ! सब कुछ पहले जैसा है अन्दर यही है कि पहले तुमने इस काम को चिंताओं की गठरी बनाकर अपने उपर बोझ लादने के लिए नहीं ।”
सीख: हमें अपना काम कर्तव्य समझकर ही करना चाहिए । बच्चो, तुम पढ़ाई करते हो, होमवर्क करते हो । उसे बिना किसी चिंता के एक विद्यार्थी का कर्तव्य समझ कर करो ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 12
रंगा सियार |
एक बार की बात है कि एक सियार जंगल में एक पुराने पेड़ के नीचे खड़ा था । पूरा पेड़ हवा के तेज झौंके से गिर पड़ा । सियार उसकी चपेट में आ गया और बुरी तरह घायल हो गया ।
वह किसी तरह घिसटता-घिसटता अपनी मांद तक पहुंचा । कई दिन बाद वह मांद से बाहर आया । उसे भूख लग रही थी । शरीर कमजोर हो गया था । तभी उसे एक खरगोश नजर आया । उसे दबोचने के लिए वह झपटा । सियार कुछ दूर दौड़कर हांफने लगा ।
उसके शरीर में जान ही कहां रह गई थी ? फिर उसने एक बटेर का पीछा करने की कोशिश की । यहा भी वह असफल रहा । हिरण का पीछा करने की तो उसकी हिम्मत भी न हुई । वह खड़ा सोचने लगा । शिकार वह कर नहीं पा रहा था ।
भूखों मरने की नौबत आई ही समझो । क्या किया जाए ? वह इधर-उधर घूमने लगा । कहीं कोई मरा जानवर नहीं मिला । घूमता-घूमता वह एक बस्ती में आ गया । उसने सोचा शायद कोई मुर्गी या उसका बच्चा हाथ लग जाए । सो वह इधर-उधर गलियों में शिकार की तलाश में घूमने लगा ।
तभी कुत्ते भौं-भौं करते उसके पीछे पड़ गए । सियार को जान बचाने के लिए भागना पड़ा । गलियों में पुसकर उनको छकाने की कोशिश करने लगा । पर कुत्ते तो कस्बे की गली-गली से परिचित थे । सियार के पीछे पड़े कुत्तों की टोली बढ़ती जा रही थी और सियारके कमजोर शरीर का बल समाप्त होता जा रहा था सियार भागता हुआ रंगरेजों की बस्ती में आ पहुंचा था ।
वहां उसे एक घर के सामने एक बड़ा ड्रम नजर आया । वह जान बचाने के लिए उसी ड्रम में कूद पड़ा । ड्रम में रंगरेज ने कपड़े रंगने के लिए रग घोल रखा था । कुत्तों का टोला भौंकता हुआ आगे भागता चला गया । सियार सांस रोककर रंग में डूबा रहा ।
वह केवल सांस लेने के लिए अपनी धटना वाक्य निकालना जब उसे पूरा यकीन हो गया कि अब कोई खतरा नहीं है तो वह बाहर निकला । वह रंग में भीग चुका था । जंगल में पहुँचकर उसने देखा कि उसके शरीर का सारा रंग हरा हो गया है ।
उस ड्रम में रंगरेज ने हरा रंग घोल रखा था । उसके हरे रंग को जो भी जंगली जीव देखता, वह भयभीत हो जाता । उनको खौफ से कांपते देखकर रंगे सियार के दुष्ट दिमाग में एक योजना आई । रंगे सियार ने डरकर भागते जीवों को आवाज दी : ‘भाइयो, भागो मत । मेरी बात सुनो ।’ उसकी बात सुनकर सभी भागते जानवर ठिठके ।
उनके ठिठकने का रंगे सियार ने फायदा उठाया और बोला : ”देखो, देखो मेरा रंग । ऐसा रग किसी जानवर का धरती पर है ? नहीं न । मतलब समझो । भगवान ने मुझे यह खास रंग देकर तुम्हारे पास भेजा है । तुम सब जानवरों को बुला लाओ तो मैं भगवान का संदेश सुनाऊं ।”
उसकी बातों का सब पर गहरा प्रभाव पड़ा । वे जाकर जगल के दूसरे सभी जानवरों को बुलाकर लाए । जब सब आ गए तो रगा सियार एक ऊंचे पत्थर पर चढ़कर बोला : ‘वन्य प्राणियो, प्रजापति ब्रह्मा ने मुझे खुद अपने हाथों से इस अलौकिक रंग का प्राणी बनाकर कहा कि संसार में जानवरों का कोई शासक नहीं है ।
तुम्हें जाकर जानवरों का राजा बनकर उनका कल्याण करना है । तुम्हारा नाम सम्राट कष्ठम होगा । तीनों लोकों के वन्य जीव तुम्हारी प्रजा होंगे । अब तुम लोग अनाथ नहीं रहे । मेरी छत्र-छाया में निर्भय होकर रहो ।”
सभी जानवर वैसे ही सियार के अजीब रग से चकराए हुए थे । उसकी बातों ने तो जादू का काम किया । शेर, बाघ व चीते की भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई । उसकी बात काटने की किसी में हिम्मत न हुई ।
देखते ही देखते सारे जानवर उसके चरणों में लोटने लगे और एक स्वर में बोले : “हे ब्रह्मा के दूत, प्राणियों में श्रेष्ठ रूप, हम आपको अपना सम्राट स्वीकार करते हैं । भगवान की इच्छा का पालन करके हमें बड़ी प्रसन्नता होगी ।”
एक बूढ़े हाथी ने कहा : “हे सम्राट, अब हमें बताइए कि हमारा क्या कर्तव्य है ?” रंगा सियार सम्राट की तरह पजा उठाकर बोला : “तुम्हें अपने सम्राट की खूब सेवा और आदर करना चाहिए । उसे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए । हमारे खाने-पीने का शाही प्रबंध होना चाहिए ।”
शेर ने सिर झुकाकर कहा : “महाराज, ऐसा ही होगा । आपकी सेवा करके हमारी जीवन धन्य हो जाएगा ।” बस, सम्राट ककुदुम बने रंगे सियार के शाही ठाठ हो गए । वह राजसी शान से रहने लगा । कई लोमड़िया उसकी सेवा में लगी मांस खाने की इच्छा जाहिर करता, उसकी बली दी जाती ।
जब सियार घूमने निकलता तो हाथी आगे-आगे छ उठाकर बिगुल की तरह चिंघाड़ता चलता । दो शेर उसके दोनों ओर कमांडो बॉडीगार्ड की तरह होते । रोज कलूम का दरबार भी लगता । रंगे सियार ने एक चालाकी यह कर दी थी कि सम्राट बनते ही सियारों को शाही आदेश जारी कर उस जंगल से भगा दिया था ।
उसे अपनी जाति के जीवों द्वारा पहचान लिए जाने का खतरा था । एक दिन सम्राट कलूम खूब खा-पीकर अपने शाही मांद में आराम कर रहा था कि बाहर उजाला देखकर उठा । बाहर आया । चांदनी रात खिली थी ।
पास के जंगल में सियारों की टोलियां ‘हू हू…’ की बोली बोल रही थी । उस आवाज को सुनते ही कखम अपना आपा खो बैठा । उसके अंदर के जन्मजात स्वभाव ने जोर मारा और वह भी मुंह चांद की ओर उठाकर और सियारों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘हू हू…’ करने लगा ।
शेर और बाघ ने उसे ‘हू हू…’ करते देखलिया । वे चौंके, बाघ बोला: “अरे, यह तो सियार है । हमें धोखा देकर सम्राट बना रहा । मारो नीच को ।” शेर और बाघ उसकी ओर लपके और देखते ही देखते उसका तिया-पांचा कर डाला ।
सीख : नकलीपन की पोल देर या सबेर जरूर खुलती है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 13
सोने का हंस |
एक गांव में एक छोटा-सा मंदिर था । उस मंदिर का पुजारी बहुत नेक था । गरीबों का पूजा-पाठ व श्राद्ध वह मुफ्त किया करता था । कोई कदम-दुखिया मिले तो मंदिर के बढ़ाने से कुछ भाग उन्हें दे देता था ।
उसके परोपकारी स्वभाव के कारण मंदिर में बढ़ावा भी अधिक आता था । सब उसका बहुत आदर करते थे । पुजारी का अपना परिवार भी था । बीवी थी और दो बच्चे थे । चढ़ावे की बची राशि से परिवार का खर्चा चलता था । वे ठाठ में तो नहीं रहते थे, परन्तु संतुष्ट और सुखी थे ।
आपस में प्रेम था उनमें एक दसरे का दुख-सुख बांटने का स्वभाव था । सब आनंद-मंगल था । फिर एक दिन उस परिवार पर दुर्भाग्य का साया पड़ा । अचानक दिल का दौरा पड़ने से पुजारी की मृत्यु हो गई । बीवी विधवा और बच्चे अनाथ हो गए । पुजारी कोई बड़ी सम्पत्ति तो छोड़कर नहीं गया था ।
उसकी मृत्यु के बाद घर की हालत बुरी हो गई । कुछ दिन लोगों ने सहायता की, फिर हाथ खींच लिया । मंदिर में चढ़ावा तो पुजारी के प्रताप से ही आता था । वह घटकर मामूली-सा रह गया । दिन में बस दो-चार सिक्के । पुजारी की बीवी व बच्चों के दिन बहुत गरीबी में बीतने लगे ।
उधर पुजारी ने हंस का जन्म लिया । उन सुनहरे हंसों में, जो मानसरोवर झील में रहते थे । दूसरों की सहायता करने वालों को ही उन हंसों का जन्म मिलता था । वे सरोवर में तैरते, कमल के फूलों का पराग पीते और मोती चुनकर खाते । हंस का जन्म लिए पुजारी को भाग्यवश अपने पूर्व जन्म की सारी बातें याद रह गईं ।
उसे प्राय: अपने पूर्व जन्म की बीवी और बच्चों की याद आती । वह सोचता कि जाने अब वे किस दशा में होंगे । एक दिन हंसों के राजा ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा । हस ने सारी बात बता दी । राजा बोला : ”मित्र, विलक्षण प्राणियों को ही पूर्वजन्म की बातें याद रहती हैं ।
तुम्हें उनकी इतनी चिन्ता है तो जाओ उनका हाल देख आओ । मैं तुम्हें इसकी छूट देता हूं ।” वह हंस उड़ चला । कई घंटों की उड़ान के बाद वह अपने गांव पहुँचा, गांव के मंदिर के ऊपर पहुंचकर वह मंदिर की बगल में बने अपने छोटे से मकान की छत पर उतरा ।
नीचे उसने जो दृश्य देखा उसे देखकर उसकी छाती फटगई । बच्चे चीथड़े पहने धूल में लोट रहे थे और मां से खाना मांग रहे थे । उनकी मां फटी साड़ी पहने बाल बिखेरे अपने भाग्य को कोस रही थी : “अरे भुखमरो, मैं क्या खिलाऊं तुम्हें ? तुम्हारा बाप जायदाद तो छोड़ नहीं गया । अब किससे मांगूं ?”
बच्चे रोने लगे । हंस छत से नीचे उतरा और बोला : ‘मैं आ गया हूं । अब चिंता मत करो ।” बच्चे और उनकी मा हैरान होकर सुनहरे हंस को देखने लगे । उनकी समझ में कुछ नहीं आया । हंस ने रहस्य खोला : ”मैं ही पिछले जन्म में जर्नादन पुजारी था ।
सुभागे तुम्हारा पति और बच्चो, तुम्हारा पिता । मैंने अब स्वर्ण हँस के रूप में नया जन्म पाया है । तुम्हारी दुर्दशा देखकर मुझे बहुत कष्ट हो रहा है । मैं तुम्हें इस हाल में नहीं रहने दूगा । मैं हर तीन-चार दिन बाद आकर अपना एक सोने का पंख दे जाऊगा । उसे बेचकर तुम अपना भाग्य बदलना ।”
मां बच्चे हस से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए । हस विदा होते समय एक सोने का पंख गिरा गया । विधवा व बच्चों के दिन बदले । पहले जरूरी सामान आया । जिस किसी का ऋण देना था, वह दे दिया । खाने-पीने का सामान आया, सबके लिए नए कपड़े बने ।
हंस हर बार पख दे जाता । कछ ही महीनों में काया पलट हो गई । विधवा ने आलीशान मकान खरीद लिया । रेशमी कपड़े और ढेर सारे जेवर बनवा लिए और ठाठ से रहने लगी । अब वह स्वयं कोई काम न करती । उसने एक नौकरानी रख ली फिर और नौकर रखे गए ।
बच्चे राजकुमारों की तरह रहने लगे । अब हंस को महीने में केवल एक बार आने की आज्ञा मिलती । स्वर्ण हँस ने एक दिन विधवा को समझाया : “सुभागे सोच-समझकर खर्च करो । अब मैं कुछ महीने ही आऊंगा । फिर नहीं । हमारे राजा मुझे अब ज्यादा छूट नहीं देंगे ।”
इस बार हँस आया तो बोला : ”अगली बार मैं अंतिम बार आऊगा । फिर मुझे हंसों के बीच ही रहना होगा ।” विधवा बहुत चिंतित हुई कि हंस नहीं आएगा तो सोने के पंख और नहीं मिलेंगे । ठाठ-बाठ की जिंदगी कैसे चलेगी ? नौकरानी को भी ऐश-आराम की आदत हो गई थी ।
तनख्वाह भी अच्छी मिलती थी । मालकिन को सोने के पख नहीं मिलेंगे तो उसे भी नुकसान होगा । नौकरानी ने विधवा से कहा : “मालकिन, हंस नहीं आएगा तो आपका बड़ा नुकसान होगा । आप लोग फिर गरीब हो जाएंगे । ऐसा करिए कि अगली बार हंस आए तो उसे पकड़कर उसके सारे सोने के पंख उखाड़ लीजिए ।
ढेर सारे होंगे । फिर सारी उम्र आपको कोई चिंता नहीं होगी । आप अभी जवान हैं । चाहो तो विवाह कर लेना ।” विधवा सोच में पड़ गई । नौकरानी ने गर्म लोहे पर चोट मारी : “हां, वह आपके पूर्व जन्म में ही तो पति थे । इस जन्म में तो पक्षी ही हैं ।”
लालच ने विधवा की अक्ल पर भी पर्दा डाल दिया । हंस अंतिम बार मिलने आया तो विधवा नाटक करने लगी : ”स्वामी ! अब आप फिर कभी नहीं आएंगे । मैं आपसे अच्छी तरह मिलना चाहती हू । मेरे निकट आइए ।” जैसे ही हस उसके निकट आया, विधवा ने उसे दबोच लिया और लगी पंख उखाड़ने ।
हँस चिल्लाया : ”अरी दुष्ट ! यह क्या कर रही है ? मुझे पीड़ा हो रही है ।” लालच की अंधी औरत ने उसकी एक न सुनी । निर्दयता से उसके सारे पंख उखाड़ डाले । हंस तड़पता रहा । जब वह सारे पंख उखाड़ चुकी तो हस की भी सास उखड़ने लगी ।
वह मरते-मरते बोला : ”लालची औरत, तूने मेरी जान ले ली । अपना भी बुरा किया । तुझे यह नहीं पता कि मेरे पंख सोने के तभी रहते हैं, जब मैं उनको स्वयं दान करता हूं । वर्ना वे साधारण पंखों में बदल जाते हैं । देख अपनी करनी का फल ।” इतना कहकर वह हंस मर गया । विधवा ने पंखों के ढेर की ओर देखा । वह सचमुच सफेद पंखों में बदल गए थे ।
सीख : अधिक लालच का फल बुरा ही होता है ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 14
चमत्कारी कुर्सी |
एक बार एक बहुत बड़े यशस्वी व तपोबल वाले महात्मा अपने शिष्यों को लेकर घूम रहे थे । वे कई स्थान घूमे । एक दिन भ्रमण करते-करते शाम का समय घिर आया ।
दूर गांव नजर तो आया, परतु वहा तक जाने का रास्ता वाइड था और उस जगल में हिंसक जीव-जंतुओं की भरमार थी । जंगल के बाहर गांव से दूर एक लोहार की भट्टी थी । अपनी भट्टी के साथ ही बने घर में वह स्वयं रहता था ।
महात्माजी के चेलों को अपने घर में ठहराया । उनका उचित स्वागत सत्कार किया । सबको भरपेट भोजन खिलाया और प्रेम-पूर्वक उनके सोने का इंतजाम किया । महात्माजी उसके अतिथि सत्कार से बहुत प्रसन्न हुए । उनके शिष्यों ने भी लोहार के व्यवहार की बहुत सराहना की ।
सुबह महात्मा जाने लगे तो उन्होंने लोहार से कहा : “भाई, हम तुम्हारे सत्कार से अति संतुष्ट हुए । तुम कोई भी तीन वर मांग लो ।” प्राचीन युग में महात्मा लोग इतने तपोबल वाले होते थे कि वह जिसे जो वर दें, वह एक-एक अक्षर सत्य हो जाता था ।
लोहार हाथ जोड़कर बोला : “हे महात्मा, वर दीजिए कि मुझे किसी चीज की कमी न रहे ।” महात्मा ने ‘तथास्तु’ कहकर दूसरा वर मांगने के लिए कहा । लोहार ने सौ वर्ष लम्बी आयु मांगी । वह भी मिल गई तो तीसरा वर क्या मांगे । इस पर वह हड़बड़ा गया । अब और क्या मांगे ।
बस उसके मुह से निकल गया : “तीसरा वर यह दीजिए कि मेरी भट्टी में जो लोहे की कुर्सी है उस पर जो बैठे, वह मेरी मर्जी के बिना न उठ पाए ।” वर देकर महात्माजी चले गए । वह लोहार का ही काम करता रहा । पर उसके लोहे में सोने की सी बरकत आ गई । उसे किसी चीज की कमी न रही ।
लोहार ने बड़े ठाठ और मजे से सौ वर्ष का जीवन पूरा किया । वह आ नहीं हुआ । खूब हट्टा-कट्टा बना रहा । दुनिया छोड़ने का समय आया तो उसे लेने यमराज आ गए । लोहार घबरा गया । उसके दिमाग में एक युक्ति आई ।
उसने यमराज से कहा : “महाराज, आप उस लोहे की कर्सी पर विराजिए । मैं जीवन के अंतिम कार्य निबटा लूं । थोड़ा-सा ही समय लगेगा ।” यमराज उस कुर्सी पर बैठ गए । लोहार ठहाका मारकर हंसा । अब यमराज लोहार की की कुर्सी में कैद हो गए थे ।
बिना लोहार की इच्छा के वह उठ नहीं सकते थे रन्त्रं खुश हुआ । इसी खुशी में उसने मुर्गा खाने की सोची । एक मुर्गी लेकर लोहार ने उसकी गर्दन काटी । पर गर्दन तुरंत जुड़ गई और मुर्गा भाग गया । बिना यमराज के किसी को मौत कैसे आती ? उसने एक बकरा काटा ।
उसकी भी गर्दन जुड़ गई और वह लाट मार कर भागा । लोहार ने सोचा चलो दाल-रोटी और खिचड़ी वगैरह खाकर गुजारा कर लेंगे । पर एक साल बीतते ही अनर्थ होने लगा । कोई जानवर नहीं मरा तो जीवों की संख्या बेतहाशा बढ़ने लगी ।
हवा में कीट-पतंगे, मच्छर और मक्खियां इतनी हो गई कि सांस लेना भी दूभर हो गया । हवा के आर-पार देख पाना कठिन हो गया । हवा में हुर्रहुर्र का शोर भरा रहता । आकाश चील, गिद्धों और टिड्डियों से ढकने लगा । मेंढकों के कारण सड़कों पर चलना मुश्किल हो गया ।
चूहे इतने बढ़े कि सारी फसलों का अनाज हजम करने लगे । पक्षी इतने हो गए कि पेड़ों के सारे फल खा जाते । पानी में जलीय जानवर व मलिया आदि इतने भर गए कि पीने के लिए एक गिलास पानी न मिलता । चारों ओर जो बदबू फैलने लगी वह अलग । सांपों के मारे तो हाल ही बुरा हो गया । यह सब देखकर लोहार दहल गया । उसने जाकर यमराज को मुक्ति दे दी और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी ।
सीख: मृत्यु एक आवश्यकता है । अगर मृत्यु न हो तो हमारी धरती व हमारा जीवन जीवित नर्क बन जाएगा । प्रकृति के नियमों का आदर करो ।
Hindi Stories For Storytelling Competition # 15
निर्दयी सास |
एक सास थी । स्वभाव की बहुत दुष्ट । उसकी बहू बहुत सुशील व नेक थी । सास ने उसका जीना हराम कर रखा था । वह उसकी हर वात में दोष निकालती । भोर से आधी रात तक वह बहू से गुलामों की तरह काम करवाना एक मिनट के लिए सास तक न लेने देती ।
बहू काम कर रही होती तो वह उसके जन खड़ी होकर लगातार ताने कसती रहती । वह खटते-खटते यही सोचती कि जाने किन परें ऊए यमस्त्ररूग ऐसी निर्दयी सास उसे मिली है । एक दिन बहू ने झाड़ू लगाना व बर्तन मांजना समाप्त ही किया था कि सास बोली : “मैं मंदिर जा रही हूं । तू आराम करने न बैठ जान, कामचोर कहीं की ।
मेरे आने तक खाना तैयार मिलना चाहिए । और हां, खाना हिसाब से बनाना । फालतू नहीं । यहां तेरे बाप का माल नहीं है ।” सास चली गई । बहू तुरंत खाना बनाने बैठ गई । अगर सास को लौटने पर खाना तैयार न मिलता तो वह आसमान सिर पर उठा लेती । बहू की सात पुश्तों को कोस डालती ।
वह खाना बनाकर निवृत्त ही हुई थी कि एक सा ! आया और खाना मांगने लगा । बहू के मायके में कभी किसी साधु-महात्मा को खिलाए-पिलाए बिना नहीं लौटाया जाता था । उसने सोचा कि साधु को अपने हिस्से का खाना दे देती हूं ।
मैं भूखी रह लूंगी और क्या । ऐसा विचार कर उसने सा! को बिठाया और खाना परोसा । साधु ने खाना आरंभ ही किया था कि सास लौट आई । साधु को खाना खाते देखकर वह आगबबूला हो गई और बोली : “अहा ! मैं इधर-उधर हुई नहीं और तूने भूखों को खाना खिलाकर अनाज बरबाद करना शुरू कर दिया । हमारे घर में हराम का माल नहीं है ।”
बहू ने विनती की : “मां जी, ऐसा न कहिए । साधु महाराज को मैं अपने हिस्से का खाना दे रही हूं । मैं नहीं खाऊंगी । कोई अनाज बर्बाद नहीं होगा ।” सास गर्जी : “बड़ी आई, हिस्से वाली ।” फिर वह साधु से बोली : “भुक्खड़, भाग यहां से । कोई और लंगूर देख ।”
साधु खाना छोड़कर चला गया । साधु के जाने के बाद सास ने बहू को घर से निकाल दिया । बेचारी बहू ने सास से वहुत विनती में हाथ जोड़े और गिड़गिड़ाई, पर दुष्टा सास का दिल नहीं पसीजा । उसने दरवाजा नहीं खोला । जब दरवाजा बहू थक वह एक ओर लड़खड़ाती रोती हुई चल दी ।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि किधर जाए । उसे मायके पहुंचने में कई दिन लगने थे । लेकिन वह उसी रास्ते चल दी, और क्या करती ? तभी जोरों की वर्षा होने लगी । बहू वर्षा से भीगने से बचने के लिए एक बड़े वृक्ष के कोटर में पुसकर बैठ गई । उस पेड़ पर दो राक्षसियां रहती थीं । कुछ ही देर बाद वे वृक्ष पर लौटीं ।
एक बोली : ”हर्रर्र ! यहां तो बड़ी वर्षा हो रही है । हमें जुकाम न हो जाए ।” दूसरी बोली : ”तो चल स्वणद्वीप चलते हैं वहां धूप खिली होगी ।” उनके जादुई मंत्र पढ़ते ही वृक्ष हवा में उड़ने लगा । बहू ने वृक्ष को उड़ते देखा तो घबरा गई । ऊपर टहनियों पर राक्षसियों को बैठे देख तो उसकी सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई ।
उसने कोटर में दुबककर बैठे रहने में ही अपनी भलाई समझी । कुछ देर बाद पेड़ उन सबको लेकर स्वर्णद्वीप पहुंच गया । राक्षसियां तो सैर करने के लिए हवा में उड़ती हुई वृक्ष छोड़कर चली गईं । बहू ने कोटर से बाहर झांककर देखा तो दंग रह गई ।
सारा द्वीप सुनहरी जगमगाहट से चमक रहा था । वह बाहर निकल आई और उसने रेत उठाकर देखा । रेत सोने की थी । उसने अपने चल में जितनी सोने की रेत उठाई जा सकती थी, बांधी और कोटर में बैठ गई । कुछ देर बाद राक्षसियां लौट आई और वे पेड़ को उड़ाकर वहीं ले आई, जहां से वे चलीं थीं ।
राक्षसियों के जाने के बाद बहू बाहर आई और अपने घर की ओर दौड़ी । उसे पूरा विश्वास था कि सोना देखकर सास ललचा जाएगी और उसे दोबारा अपना लेगी । घर पहुंचकर उसने सास को सारी कहानी सुनाई और अपना आंचल खोलकर सोने की रेत दिखाई ।
सास ने हाथों में लेकर रेत को देखा । फिर बहू को कोसने लगी : ”अरी कामचोर, बस इतना-सा सोना उठा कर लाई ? जब मौका मिला ही था तो ढेर सारा ढोकर लाती । अक्ल हो तब न । बोझ उठाते तो नानी मरती है तेरी ।”
फिर सास ने तीन-चार बोरियां उठाई और बोली : ”मैं दिखाती हूं तुझे कि सोना कैसे लाया जाता है । जरा मुझे बता, वह पेड़ कहा है ।” बहू ने ले जाकर सास को वह पेड़ दिखा दिया । सास बोरियां लेकर वृक्ष के कोटर में बैठ गई । कुछ देर बाद राक्षसियां सैर करके अपने पेड़ पर लौटी ।
एक राक्षसी ने कहा : ”आज मछली खाने का बड़ा जी कर रहा है, चल मछली डीप चलें ।” दूसरी राक्षसी ने मैत्र पढ़ा और पेड़ उड़ चला । कुछ ही देर में पेड़ मछली द्वीप पहुंचा । मछली द्वीप में चारों ओर मछलियां घुद्ब मछलियां थीं ।
राक्षसियां तो मछलियां खाने द्वीप के दूसरे इनके दें चली गईं । सास कोटर से बाहर आई । बाहर पैर रखते ही मछलियों पर से उसका पैर फिसला और वह गिर चकरा गया । किसी तरह वह कोसती वापस कोटर में आ बैठी । कहां तो वह सोना बटोरने आई थी और कहां उसे खोटा सिक्का भी नसीब न हुआ ।
राक्षसियों के उड़कर आने की आवाज आई तो सास कोटर से सिर निकाल कर चिल्लाने लगी : ”अरी निकम्मी राक्षसियों, तुम यहां क्यों आईं ? अभी जल्दी से स्वर्णद्वीप चलो । मुझे सोना बटोरना है ।” सास की बात सुनकर राक्षसियां क्रोधित हो गई ।
एक बोली : ‘एक तो यह दुष्ट औरत हमारे पेड़ की सवारी करके हमें धोखा देकर यहा आई दूसरे ऊपर से हमें बुरा-भला कह रही है ।’ दूसरी बोली : ”चलो, अग्निद्वीप चलकर इसे सबक सिखाते हैं । उनके मंत्र पढ़ते ही पेड़ अग्निद्वीप की ओर उड़ चला ।
कुछ ही देर बाद वह एक ऐसे द्वीप के ऊपर उड़ने लगे, जहां नीचे आग ही आग थी । राक्षसियों ने पेड़ को उल्टा सीधा करना शुरू किया ताकि सास नीचे गिर जाए । जब राक्षसियों ने पेड़ को बिल्कुल उल्टा कर दिया तो निर्दयी सास कोटर से नीचे आग की लपटों में चिल्लाती हुई जा गिरी । राक्षसियों ने अट्टहास लगाया ।
सीख: दुष्टों को उनकी दुष्टता की सजा कभी न कभी मिलती ही है ।