खाद्यान्न भंडारण की समस्या से उठते सवाल पर निबंध | Essay on Food Grain Storage Problem in Hindi!
देश में खाद्यान्न भंडारण की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है । इसकी भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एफसीआई के गोदामों में 67,542 टन अनाज नष्ट हो गया । इसकी कीमत 60 हजार करोड़ रुपए बताई गई है ।
सुप्रीम कोर्ट ने इसमें दखल देते हुए कहा है कि गोदामों में अनाज सड़ाने की जगह इसे गरीबों में बाँट देना चाहिए । सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त, 2010 को केन्द्र सरकार को आदेश देते हुए कहा कि वह फूड कॉरपोशन ऑफ इंडिया के गोदामों में अनाज सड़ाने की जगह गरीबों को मुपत बाँट दें ।
जस्टिस दलवीर भंडारी और जस्टिस दीपक वर्मा की बेंच ने कहा कि और अनाज न सड़ने पाए, इसके लिए सरकार तुरंत कदम उठाए । वह उतने ही अनाज की खरीदारी करे, जितने को संभाल सकती है । साथ ही कोर्ट ने केन्द्र से प्रत्येक राज्य में एक बड़ा गोदाम और अलग-अलग जिलों व संभागों में विभिन्न गोदाम बनाने की व्यवस्था करने को कहा ।
इसके अलावा सरकार से यह सुनिश्चित करने को भी कहा कि उचित मूल्य की दुकानें पूरे महीने खुली रहें । कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह 2010 के आकड़ों के आधार पर बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे), एबीपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर), एएवाई (अंत्योदय अन्न योजना) परिवारों का नए सिरे से सर्वे कराए ।
अधिकारी फायदे बांटने के लिए एक दशक पुराने कड़े पर भरोसा नहीं कर सकते । बेंच ने अपना पहले का आदेश दोहराया कि एबीपीएल परिवार सब्सिडी वाला अनाज न हासिल करने पाएं । अगर सरकार उन्हें लाभ देना ही चाहती है तो उन परिवारों को दे, जिनकी सालाना आय 3 लाख रुपये से कम हो ।
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन द्वारा 1981 में लिखी गई “पावर्टी एंड फैमीन एंड एस्से ऑन इनटाइटिलमेंट एंड डिप्राइवेशन” (गरीबी और अकाल और पात्रता और वंचना पर निबंध) कृति में तर्क दिया गया कि अधिकांश मामलों में भूख और अकाल अनाज की उपलब्धता की कमी के कारण नहीं पड़ते, बल्कि उनका कारण असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी होती है । उन्होंने जो बात 1981 में कही थी, संभवत: वह 2010 में भी सही है । हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विगत तिरसठ वर्षों में भूख और वंचना से लडने के क्रम में हमने काफी अनुभव प्राप्त किया है ।
इस समस्या से संबंधित पहला मुद्दा भंडारण क्षमता का है । कृषि मंत्री प्राय: कहते हैं कि योजना आयोग उनके विभाग के साथ मिलकर भंडारण क्षमता को बढ़ाने के लिए जबर्दस्त प्रयास कर रहा है । लेकिन भंडारण क्षमता में किसी तरह का सुधार नहीं हुआ, जो इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक वर्ष करोड़ रुपये का अनाज ठीक से भंडारण न हो पाने के कारण नष्ट हो जाता है ।
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दूसरा मुददा भंडारण के विकेंद्रीकरण का है । हरित क्रांति के समय गड़बड़ियों को ठीक करने के संदर्भ में इंदिरा गांधी ने कहा था कि ‘भंडारण को विकेंद्रित करने का विचार है, इसके अंतर्गत जिलों के ब्लॉक स्तर तक इकाइयां बनाई जानी चाहिए, जिससे अधिक से अधिक दूरी तक दुलाई करने की समस्या का समाधान निकल सके ।’ यह तर्क आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है ।
तीसरा मुद्दा है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भंडारण को सुधारने के साथ क्या हमारे पास छोटे किसानों की भंडारण क्षमता को बढ़ाने की कोई योजना है? अगर ऐसा होता है, तो छोटा किसान पर्याप्त समर्थ बनेगा । फसल आने के बाद होने वाले बीमे के आधार पर वह अपने अनाज को अनुबंधित कर सकता है, अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ ऋण ले सकता है और उन अन्य दायित्वों को पूरा करने के लिए भी क्का ले सकता है, जो उसने उत्पादन के दौरान उठाए थे ।
पूरी खेती की योजना बनाते समय हम छोटे किसानों को समर्थ बनाने का काम भूल जाते हैं । यदि उसकी क्षमता बढ़ेगी, तो वह अनाज शीघ्र बेचने के लिए मजबूर नहीं होगा, जो वह आमतौर पर करता है । छोटे किसानों की भंडारण क्षमता बढ़ाने का कार्यक्रम उस क्षेत्र में भंडारण के विकेंद्रीकरण की सोच के अनुकूल है ।
चौथा मुद्दा यह है कि यदि हमें अनाज की कीमतें कम करनी है और अनाज के उस विशाल भंडार को वितरित करना है, जिसे जमा तो कर लिया गया, लेकिन तत्काल उसके उपयोग की व्यवस्था नहीं है तो एक आक्रामक बाजार नीति अपनानी पड़ेगी ।
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पांचवां मुद्दा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार करने से संबंधित है । इसके लिए हमें वाधवा समिति और एन.सी. सक्सेना समिति की रिपोर्ट को ध्यान में रखना होगा, जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली विश्वसनीय बनेगी । खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने और वितरण व्यवस्था में रिसाव को रोकने के लिए ऐसा करना आवश्यक है ।
छठा मुद्दा भारत की खाद्य सुरक्षा की बहस से संबंधित है, जिसके लिए गरीबी के आकलन पर पहुंचना आवश्यक है । गरीबी का अनुमान लगाने के लिए तीन समितियां बनीं और उनके कड़े 37 प्रतिशत से 50 प्रतिशत के बीच हैं ।
उपरोक्त मुद्दों के संदर्भ में हमारे पास कोई विश्वसनीय कार्य योजना नहीं है, जिसके अंतर्गत इन चौतरफा चुनौतियों का सामना किया जा सके । भंडारण की विधिवत सुविधा के अभाव में अनाज की इतनी बड़ी बर्बादी एक अक्षम्य अपराध है ।
यह एक वास्तविकता है कि विश्व की 6 अरब की जनसंख्या में एक अरब लोग भूखे पेट सोते है । विगत वर्षों में भारत में भूखे लोगों की संख्या में तीन करोड़ की वृद्धि हुई है । अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 77 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं । भारत में लगातार महंगाई बढ रही है । जब भी कभी किसी राज्य से भूख से हुई मौतों की खबर आती है, तो सरकारें लीपापोती कर देती हैं या केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर दोषारोपण करती हैं ।
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आर्थिक उदारवाद के कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हुई है । आम आदमी अपनी सीमाओं के दायरे में सोचता है, उसका यही मानना है कि विभिन्न परियोजनाओं के निर्माण पर करोड़ों रुपये बहा दिए जाते हैं’ लेकिन खाद्यान्न को संभालने के लिए पर्याप्त संख्या में गोदाम तक नहीं बने ।
समस्या यह है कि सरकारी नीतियां मध्यम वर्ग को केंद्रित करके बनाई और लागू की जा रही है । भुखमरी और गरीबी से लड़ने के लिए अनेक योजनाएं और कार्यक्रम विद्यमान हैं, फिर भी भूखे लोगों की संख्या बढ़ रही है ।
प्रत्येक वर्ष करोड़ों का खाद्यान्न बर्बाद होता है, लेकिन अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदामों की व्यवस्था नहीं है । वर्ष 2007 से 2012 की 11वीं पंचवर्षीय योजना में कोल्ड स्टोरेज निर्माण का बजट 4,031 करोड़ रुपये का रखा गया, लेकिन 2007 से 2009 तक मात्र 370 करोड़ रुपये का ही उपयोग हो सका ।
गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के लिए दो रुपये प्रति किलो की दर से 35 किलो अनाज हर महीने दिया जा रहा है । ऐसा अनाज, जिसके भंडारण के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के पास व्यवस्था न हो, वे इस बचे हुए अनाज को इसी कोटे में डालकर दो रुपये के भाव से गरीब लोगों को दे सकती हैं ।
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35 किलो की अपेक्षा यदि प्रत्येक महीने एक गरीब परिवार को 40 किलो अनाज मिल जाता है, तो यह तरीका सही रहेगा । जो अनाज सरकार को 16 रुपये प्रति किलो खरीदना पड़ता है, उसे वह दो रुपये प्रति किलो की दर से गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों को देती है । अर्थात् प्रत्येक एक किलो पर 14 रुपये सरकार अपनी जेब से भरती है ।
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सबसे अधिक एक शिकायत उत्तर-पूर्वी राज्यों के बारे में आती है । उन्हें केंद्र सरकार सस्ती दर पर गेहूं, चावल देती है, जिससे असम, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा जैसे राज्यों की जनता को आसानी से अनाज मिल सके । शिकायत है कि यह अनाज दिल्ली से ही बड़े-बड़े व्यापारियों और मिल मालिकों को बेच दिया जाता है । इसमें इन राज्यों के आला अफसरों की मिलीभगत रहती है । इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगानी चाहिए ।
हमारे किसान अत्यधिक कठिन परिश्रम करके पैदावार बढ़ाते हैं तथा अच्छे दाम देकर सरकार उनका अनाज खरीद लेती है वरना प्राइवेट एजेंट बहुत सस्ते में गांव से उनका अनाज ले लेते हैं । सरकार अनाज तो खरीद लेती है, लेकिन रखने के लिए उसके पास उतनी जगह नहीं होती ।
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वास्तव में, सुस्त कार्यप्रणाली के कारण भंडार गृहों की कमी बनी हुई है । सरकार की खाद्य एजेंसियों में आला अधिकारी से लेकर श्रमिक तक भ्रष्टाचार में संलग्न हैं । हजारों टन गेहूं की चोरी होती है, हर बोरी के पीछे कमीशन निर्धारित होता है ।
लेकिन कागजों में दिखाया जाता है कि गेहूं को चूहे चट कर गए । यह गेहूं चूहे उतना नहीं खाते, जितना सफेदपोश, नौकरशाह, बिचौलिए और ठेकेदार खा जाते हैं । राशन दुकानों को कंकड-पत्थर मिला गेहूं एवं चावल की आपूर्ति की जाती है ।
राशन प्रणाली की विफलता भी यह सवाल खड़ा करती है कि आखिर 63 वर्षों में भी यह देश अपने लोगों को उनकी जरूरत भर का खाद्यान्न देने वाली व्यवस्था का निर्माण क्यों नहीं कर सका? आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अपनी कमियाँ छिपाने के लिए बहाने न बनाए बल्कि ऐसी व्यवस्था करे जिससे देश में अनाज सड़ने न पाए तथा कोई भी आदमी न तो भूखे सोने के लिए मजबूर हो और न ही भूख से मरे ।