जरूरत सदाबहार क्रांति की (निबंध) | Essay on Need of Evergreen Revolution in Hindi!
बेशक किसी भी क्रांति का प्रभाव काफी लंबे अरसे तक रहता है लेकिन इसकी मियाद इतनी लंबी भी नहीं होती कि चार दशक बीत जाने के बाद भी हम हाथ पर हाथ धरे बस उसी के नतीजों की ओर आस लगाए बैठे रहें ।
यहां तात्पर्य देश की पहली हरित क्रांति से है जिसका सूत्रपात 60 के दशक में हुआ था । खेती-किसानी की उन्नत तकनीक, वृहद सिंचाई परियोजनाओं, उन्नत बीजों व उर्वरकों के प्रयोग पर आधारित इस हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत खाद्यान्नों के क्षेत्र में पूर्णत: आत्मनिर्भर बन गया है ।
इस हरित क्रांति को हुए चार दशक का लंबा समय बीत चुका है और हम बदलती प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा वैज्ञानिक परिस्थितियों के अनुकूल अपने आप को ढाल पाने में अक्षम रहे । इसी का नतीजा है कि खेती अब लाभदायी कारोबार नहीं रहा है ।
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भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों तथा सार्वजनिक व निजी निवेश में लगातार हो रही कमी तथा वैज्ञानिक तरीकों से कृषि उत्पादकता पर असर पड़ रहा है । हम हर क्षेत्र में तरक्की करते जा रहे हैं लेकिन कृषि के क्षेत्र में हमारी रफ्तार धीमी ही है और आज भी पारंपरिक तरीकों व संसाधनों पर निर्भर है । रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल से मिट्टी पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर की बात साबित हो जाने के बाद भी सरकारों ने इस पर सब्सिडी जारी रखी ।
देश की अधिकतर आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है और उनका मुख्य पेशा कृषि है । यह बात बिलकुल साफ है कि यदि कृषि क्षेत्र में ऐसी ही गिरावट जारी रही तो हम प्रतिव्यक्ति आमदनी बढ़ाने और मानव विकास सूचकाक का ग्राफ उपर उठाने में असफल रहेंगे । पिछले डेढ़ दो दशक से जो भी सरकारें बनी, उन्होंने इस क्षेत्र की उपेक्षा की ।
ऐसा नहीं है कि कृषि के लिए परियोजनाएं शुरू नहीं की गईं । 25000 करोड़ की राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, 5000 करोड़ का राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा मिशन, 1100 करोड़ का राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी कई योजनाओं को पहले से शुरू किया जा चुका है ।
इसके अतिरिक्त भारत निर्माण, एक्सीलिरेटेड इरिगेशन बेनिफेट प्रोग्राम तथा रेनफेड एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत काफी क्षेत्रों को सिंचित करने का प्रस्ताव है मगर इनका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पा रहा है । जरूरत है तो इन परियोजनाओं पर नजर रखने और सही समय व तरीके से क्रियान्वयन करने की, मगर ऐसा केंद्र व राज्य सरकारें कर पाने में असफल रहीं ।
केंद्र सरकार ने 60,000 करोड़ रूपये की कर्ज माफी योजना लागू की है पर इससे सिर्फ उन 57.7 प्रतिशत कर्जदार किसानों को ही राहत मिलेगी जिन्होंने संस्थागत माध्यम अर्थात बैंक वगैरह से पैसा लिया है लेकिन बाकी 42.3 प्रतिशत उन किसानों का क्या होगा जिन्होंने सेठ-साहूकारों, व्यापारियों व रिश्तेदारों वगैरह से कर्जे लिए हैं । उनके कर्ज का बोझ कम करने के लिए स्मार्ट कार्ड जैसी योजना चलाई जानी चाहिए थी जिससे उन्हें बीजों व उर्वरकों को कम कीमत या मुपत में खरीदने की सहूलियत होती।
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इसके अलावा बीमा की प्रस्तावित योजनाओं को अगर ज्ञान चौपालों के जरिए लोगों तक पहुंचाया जाए तो इससे कृषि के लिए निजी निवेशकों को प्रेरित किया जा सकता है । इसके अलावा मिट्टी का उपजाऊपन जांचने के लिए सरकार की प्रस्तावित 500 नई प्रयोगशालाओं और मोबाइल वैन के भी अच्छे परिणाम आने की सभावना है ।
देश की 121 करोड़ की आबादी का पेट पालने के लिए हमें राष्ट्रीय किसान नीति (2007) में किए गए वायदों को पूरा करना होगा । इसके लिए हमें विकसित तकनीक और जनोन्मुखी नीतियों का सहारा लेते हुए एक सदाबहार हरित क्रांति को आकार देना
होगा । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात जिससे हम कृषि के क्षेत्र में विज्ञान में महिलाएं और महिलाओं के लिए विज्ञान जैसे अभियान छेड़ने की जरूरत है । इससे खेती-किसानी में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित होगी ।
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दरअसल हमने पहली हरित क्रांति से लक्ष्यों की प्राप्ति तो कर ली लेकिन हम उन पर इस कदर निर्भर हो गए कि यह भी न सोचा कि प्राकृतिक संसाधनों का किस कदर दोहन हो रहा है । अत्यधिक भूजल के दोहन और रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों ने मिट्टी के उपजाऊपन पर असर डाला ।
अब जब कि 21वीं सदी में हमें जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा के महत्त्वपूर्ण स्रोत, पेट्रोलियम पदार्थो की आसमान छूती कीमतों तथा सूखे व बाढ़ जैसी आपदाओं की चुनौतियों का सामना करना है तो इसके लिए हमें काफी हद तक विज्ञान-प्रौद्योगिकी, जैव-प्रौद्योगिकी और सचार प्रौद्योगिकी को विकसित करने की जरूरत है । इनके जरिये हमें अधिक-से-अधिक ऐसे संसाधन विकसित करने होंगे जिनसे विपरीत परिस्थितियों में भी कृषि उत्पादकता पर फर्क न पड़े ।
मसलन जलवायु से हमें धरती के तापमान बढ़ने, सूखने एवं बाढ़ जैसे हालात बार-बार पैदा होना, अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने से समुद्री सतह का बढ़ना और वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड गैसों का अधिक जमाव कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं है ।
इसके लिए हमें शोध करके ऐसे जीन विकसित करने की जरूरत है जो सूखे, बाढ़ और समुद्री पानी जैसी विपरीत परिस्थितियों में जैविक व हरित खेती को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ इनके लिए मानक निर्धारित किए जाने चाहिए ताकि मिट्टी का उपजाऊपन और पोषक तत्व नष्ट न होने पाए ।
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इसके लिए न सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व में एक जैव प्रौद्योगिकी नियंत्रक पद्धति विकसित किए जाने की आवश्यकता है जिसका आधार वायुमंडल की सुरक्षा, उपभोक्ता का स्वास्थ्य और पूरे राष्ट्र की जैविक-सुरक्षा होना चाहिए ।