भारतीय औद्योगिक परिदृश्य: औद्योग एवं विकास पर निबंध | Essay on Indian Industrial Landscape : the Industries and Development in Hindi!

भारतीय विकास दर की एक आलोचना यह होती थी कि इसमें मुख्य योगदान सेवाओं का हैं । कृषि उत्पादन की वृद्धि दर तो काफी कम है ही, उद्योगों की वृद्धि दर भी कम है । लेकिन हाल के वर्षो में औद्योगिक वृद्धि दर फिर से ऊंचे स्तर पर पहुंच गयी है ।

दावा किया जा रहा है कि इस बार की तेजी स्थायी है । भारत अब चीन, दक्षिण कोरिया आदि ऊंची औद्योगिक वृद्धि दरों वाले देशों की श्रेणी में आ गया है । मगर औद्योगिक प्रगति के इन आकड़ों से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है । गहराई में जाने पर पता चलता है कि इन उपलब्धियों के पीछे बहुत सारी विडंबनाएं, विषमताएं और विकृतियां छिपी हैं ।

पहली बात तो यह है कि प्रगति सारे उद्योगों में एक-सी नहीं है । वाहनों, रत्न और आभूषणों, रसायनों, दवाइयों, इस्पात, इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं, मशीनरी, पेय पदार्थ, सिगरेट-गुटखा आदि में प्रगति बहुत प्रभावशाली रही है । लेकिन जूट और अन्य रेशा उद्योग, कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग, खाद्य सामग्री, लकड़ी उद्योग, धातु उत्पाद और पुर्जे आदि में वृद्धि दरें या तो बहुत कम या ऋणात्मक रही हैं । निराशाजनक स्थिति वाले ये उद्योग ज्यादा श्रम-प्रधान हैं यानी अधिक रोजगार देने वाले उद्योगों की हालत खराब है और कम रोजगार देने वाले उद्योगों की प्रगति अच्छी है ।

देश के अनेक हिस्सों में कपड़ा मिलें, जूट मिलें, चीनी मिलें, तेल मिलें आदि बंद पड़ी हैं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो गये है । इसी प्रकार, औद्योगिक विकास छोटे और कुटीर उद्योगों की कीमत पर हो रहा हैं चाहे आंध्र प्रदेश के बुनकर हों, बनारसी साड़ी के कारीगर, लुधियाना का खेल-सामग्री उद्योग हो या अलीगढ़ का ताला उद्योग या विभिन्न इलाकों में फैली बरतन उद्योग की छोटी-छोटी इकाइयां, सब संकट में हैं । हालांकि लघु उद्योगों के समग्र आकड़ों में यह गिरावट नहीं दिखाई देती, मगर यह एक ऐसा सच है जो दृष्टिगत करने पर नजर आता है ।

उदारीकरण की नयी व्यवस्था में लघु उद्योगों की सुरक्षा तेजी से खत्म की जा रही है । जहां 1984 में 873 वस्तुओं का उत्पादन लघु उद्योगों के लिए आरक्षित था, वही 22 जनवरी 2007 के सबसे ताजा ‘अनारक्षण आदेश’ के बाद इनकी संख्या मात्र 239 रह गयी है ।

अगर गांवों-कस्बों की छोटी-छोटी इकाइयों को भी उद्योग माना जाये और पुराने बड़े कारखानों के बंद-बीमार होने का भी हिसाब लगाया जाये, तो पता चलेगा कि औद्योगीकरण के साथ-साथ अनौद्योगीकरण या औद्योगिक विनाश की प्रक्रिया भी चल रही है । इस मामले में स्थिति अंग्रेजी राज के समय में भारत के पारंपरिक उद्योगों के विनाश से ज्यादा भिन्न नहीं है ।

कुटीर, लघु और पुराने श्रम-प्रधान बड़े उद्योगों के नष्ट होने से बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए हैं । देशी बड़े पूंजीपति घरानों और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जो नये कारखाने लगाए जा रहे हैं, उनमें भी अत्याधुनिक टेक्नोलाँजी, मशीनीकरण, कंप्यूटरीकरण और स्वचालन के कारण बहुत कम लोगों को रोजगार मिलता है । इसकी एक झलक ‘संगठित क्षेत्र’ के उद्योगों के रोजगार के आकड़ों से मिलती है ।

वर्ष 1991-92 में इनमें 83,19,563 लोगों को रोजगार मिला था, जो 1996-97 में बढ़ कर 95,36,282 हो गया, मगर फिर 2003-04 तक घट कर 78,70,810 रह गया । यानी वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस डेढ़ दशक में आधुनिक बड़े उद्योगों की प्रगति के बावजूद उनमें रोजगार बढ़ने के बजाय कम हो गया जबकि इस अवधि में इन उद्योगों में पूंजी-निवेश में साढ़े चार गुनी वृद्धि हुई और इनके कुल उत्पादन का मूल्य चार गुने से ज्यादा बढ़ा । इसी को ‘रोजगार रहित विकास’ कहते हैं ।

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इस अवधि में इन उद्योगों में मुनाफे में काफी बढ़ोत्तरी हुई । इन उद्योगों के शुद्ध उत्पादित मूल्य में लाभ का हिस्सा 1987-88 में 11.6 प्रतिशत था जो 2003-04 में बढ़कर 45.5 प्रतिशत हो गया । लेकिन वेतन और मजदूरी का हिस्सा 56.4 प्रतिशत से घटकर 35.7 प्रतिशत हो गया अर्थात् मजदूरी घट रही है और मुनाफे बेतहाशा बढ़ रहे हैं । नियम-कानूनों से मुक्त उद्योगों ने मजदूरी घटाने के अनेक तरीके निकाले हैं ।

अब वे स्थायी मजदूरों की छंटनी कर रहे है जिन्हें ज्यादा मजदूरी देनी पड़ती है और जिन्हें श्रम कानूनों की सुरक्षा प्राप्त होती हैं अब वे कंपनियां बाहर से ठेके पर काम कराती हैं, जहां ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते हैं ।

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प्रधानमंत्री और उदारीकरण के अन्य पैरोकार तो श्रम-सुधारों के नाम पर रहे-सहे श्रम कानूनों को भी खत्म या निष्प्रभावी कर देना चाहते है । उनका कहना है कि उद्योगपतियों को जब चाहे मजदूरों को लगाने और निकालने (हायर ऐंड फायर) और चाहे जिस रूप में लगाने की पूरी आजादी हो । उनकी दलील है कि तभी हमारे उद्योग अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी हो पायेंगे । यानी ‘प्रतिस्पर्धा का मतलब मजदूरों के शोषण की अधिकतम क्षमता है ।

इस औद्योगिक प्रगति को हासिल करने के लिए हमें कई प्राथमिकताओं, सिद्धांतों और लक्ष्यों की बलि चढानी पड़ी है । विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूरी छूट दी गयी है और आज अनेक वस्तुओं के बाजार में उनका एकाधिकार कायम हो गया है ।

एकाधिकार और मुनाफाखोरी पर नियंत्रण के पुराने नियम-कानूनों को लगभग खत्म कर दिया गया है । ज्यादातर विदेशी कंपनियों ने देशी कंपनियों को हड़प कर ही अपना वर्चस्व जमाया है । उद्योगों में बड़े खिलाड़ियों का दबदबा और धन और व्यवसाय का केंद्रीकरण बढ़ा है ।

कहा जा सकता है कि चाहे जैसे भी हो, औद्योगिक उत्पादन तो बढ़ रहा है, जिससे देश के लोगों को ज्यादा चीजें सुलभ हो रही हैं, लेकिन इस औद्योगिक प्रगति का विश्लेषण करने पर यह दलील भी सही नहीं साबित होती । दरअसल, हालिया औद्योगिक तेजी के पीछे दो बड़े कारण हैं । एक तो बढ़ता हुआ निर्यात है । निर्यात बढ़ाने के लिए सरकारें अनेक प्रकार की कर-राहत, अनुदान, जमीन और सुविधाएं दे रही है ।

‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ जैसे ‘कर-स्वर्ग’ बनाने के पीछे भी यही सोच है । मगर इसका मतलब है कि हम देश के लोगों की जरूरतों के लिए नहीं, विदेशियों के लिए उत्पादन कर रहे है । जिस देश में बड़ी जनसंख्या की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो रही हो, वहां देश के संसाधन विदेशियों की सेवा में लगाने का कोई औचित्य नहीं है ।

विडंबना यह है कि निर्यात आधारित विकास पर पूरा जोर देने के बावजूद देश के निर्यात, आयातों से पीछे हैं । व्यापार घाटा बढ़ रहा है । इसका भी एक कारण औद्योगीकरण के लिए आयातों की खुली छूट देने की नीति है । औद्योगिक तेजी के पीछे दूसरा प्रमुख कारण महंगी उपभोक्ता वस्तुओं की बढ़ती हुई मांग है ।

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पांचवें वेतन आयोग, बढ़ती विषमता और आय-धन का केंद्रीकरण, बढ़ता मध्यवर्ग और बैंकों से सस्ते उपभोग-कर्ज- की उपलब्धता आदि ने अचानक इन वस्तुओं की मांग काफी बढ़ाई है । कार, मोटरसाइकिल, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, एसी, कूलर, टेलीफोन आदि की मांग और उत्पादन तेजी से बढ रहे है । देश की आबादी के बड़े हिस्से की बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा करके विलासिता की इन वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा देना कहां तक उचित है, यह सवाल अपनी जगह है ।

देश में दवाओं का उत्पादन बढ़ रहा है, पर विनियमन के कारण वे महंगी होती जा रही हैं । इसका मतलब है कि दवा उद्योग की प्रगति से देश की आम जनता को कोई फायदा नहीं हुआ है । दरअसल, नये औद्योगिक उत्पादन में और इसके मूल्य में बढ़ोतरी का एक हिस्सा भ्रामक या दिखावटी है । जैसे पैकेजिंग की नयी तकनीक से बहुत सारी वस्तुओं का मूल्य बढ़ गया है ।

वही नमकीन, वही चिप्स, वही दूध, वही चटनी और आचार, वही फलों का रस, वही शैंपू वही तेल अब नयी आकर्षक पैकिंग में बेचा जा रहा है, पर उनका मूल्य दुगुना हो गया है । सामग्री-उतनी ही है, फिर भी, मूल्य बढ़ गया है । एक और उदाहरण बोतलबंद पानी और बोतलबंद पेय है । यह नये जमाने का भारत का दिन दूना रात चौगुना बढ़ता हुआ उद्योग है । दो पैसे का पानी दस रुपये में बेचा जा रहा है । क्या हम इसे प्रगति और विकास मानते हैं?

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इस पैकेजिंग क्रांति से देश में अचानक प्लास्टिक के कचरे की बाढ़ आ गयी है । पैकिंग में सुरक्षित रखने के लिए जिन रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है, वे मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं । एक बढ़ता हुआ उद्योग कागज और प्रकाशन का है । समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का प्रसार तेजी से बढ़ा है ।

महानगरों में छपने वाले अंग्रेजी अखबार चालीस से सत्तर पृष्ठ के हो गये हैं । लेकिन उनमें समाचार कम होते हें, विज्ञापन ज्यादा । विज्ञापन गलत मूल्यों और भोग संस्कृति को फैलाते हैं । तो ये चालीस-सत्तर पृष्ठ के अखबार फिजूलखर्ची हैं, जंगलों के नाश का एक कारण हैं । लेकिन औद्योगिक प्रगति के कड़े इस हकीकत को बयान नहीं करते ।

इसी प्रकार कारों की बढ़ती सज्जा प्रदूषण और ट्रैफिक जाम का कारण बन गयी है । यातायात सुगम होने के बजाय इस कार-क्रांति से नयी समस्याएं पैदा हो रही हैं । कारखानों से होने वाले प्रदूषण से भी हवा, पानी, मिट्‌टी जहरीले होते जा रहे हैं । देश की लगभग सभी नदियाँ जहरीले गटरों में बदलती जा रही हैं । इन सब दीर्घकालीन नुकसानों को औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर में दिखाने का अभी कोई तरीका नहीं है ।

औद्योगीकरण की नई लहर देश में विस्थापन की भी एक नई लहर पैदा कर रही है । जल-जंगल-जमीन के नये संकट पैदा हो रहे है । इस औद्योगीकरण के लिए इतने बड़े पैमाने पर जमीन, जल, खनिज आदि की जरूरत होगी, यह अहसास पहले नहीं था ।

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कलिंगनगर, काशीपुर, सिंगुर, नंदीग्राम, नवी मुंबई, दादरी, प्लाचीमाड़ा आदि के संघर्ष इसी औद्योगीकरण की देन है । इन दुखद प्रभावों और त्रासदियों का हिसाब लगाना भी जरूरी है तभी औद्योगिक क्रांति की सही तस्वीर सामने आ सकेगी ।

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