भारत की विदेश नीति: कितनी समय-सापेक्ष (निबन्ध) |Essay on India’s Foreign Policy in Hindi!
आज का विश्व विचित्र परिस्थितियों से गुजर रहा है । किस क्षण क्या हो जाएगा, यह कोई नहीं बता सकता । युद्ध के काले बादल अब भी मँडरा रहे हैं और मानवजाति को विनाश की आशंका से व्यग्र कर रहे हैं ।
भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन के शब्दों में- ”आज का संसार दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों में उद्भ्रांत सा होकर घूम रहा है । कभी इधर आता है और कभी उधर जाता है । एक ओर शांति, सुरक्षा और समृद्धि का स्वर गूँजता है तो दूसरी ओर युद्ध के काले बादल भयंकर गर्जना करते हैं ।”
आज संसार अपने अस्तित्व की संकटग्रस्त घड़ियों से गुजर रहा है । कोई नहीं कह सकता कि मानव का भविष्य क्या होगा ? वह वर्तमान नाजुक परिस्थितियों से निरापद जीता-जागता बच जाएगा अथवा विश्वव्यापी आणविक युद्ध में नष्ट हो जाएगा ।
ऐसी स्थिति में, संसार को जीवन या मरण में से एक का वरण कर लेना है । यदि वह जीवन को चुनता है तो उसे शांति और सद्भावना की नीति अपनानी होगी, सहनशीलता और धैर्य का सहारा लेना होगा । उसे ‘स्वयं जीवित रहो और दूसरों को भी जीवित रहने दो’ की नीति अपनानी पड़ेगी ।
उसे सह-अस्तित्व, मैत्री, पंचशील तथा सर्वहित की भावना का आश्रय लेना होगा । भारत के कर्णधार अच्छी तरह समझते हैं कि गुटबंदी में पड़ने से उनके देश का भला नहीं है । वे रूस और अमेरिका, दोनों के सैद्धांतिक मतभेदों को समझते हैं; किंतु वे दोनों में से किसी एक के भी अंधभक्त नहीं हैं ।
भारत दोनों गुटों की नीतियों और सिद्धांतों का निष्पक्ष पर्यवेक्षक है । वह दोनों में से किसी की भी नीति अथवा विचारधारा का समर्थन नहीं करता, अपितु उसका सदा यही प्रयास रहता है कि दोनों गुट अपने सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद साथ-साथ रहना सीख जाएँ ।
मानव के विकास के लिए शांति और सुव्यवस्था की स्थापना के लिए एक साथ प्रयास करें और अपने ज्ञान-विज्ञान द्वारा संसार को एक ऐसा रूप दें, जिसमें भारतीय मनीषियों का ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का स्वप्न साकार हो जाए ।
भारत की विदेश नीति पर उसकी ऐतिहासिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक परंपराओं का गहरा प्रभाव पड़ा है । बुद्ध, महावीर, अशोक और गांधी की सत्य और अहिंसा की नीति भारत की विदेश नीति का आधार-स्तंभ बनी ।
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समन्वय और सहिष्णुता, प्रेम और सद्भावना, सत्य-रक्षा, न्यायनिष्ठा, समता, बंधुत्व, एकता और सहयोग हमारी विदेश नीति के प्राणतत्व हैं । हम युद्ध के समर्थक नहीं, शांति के पुजारी हैं । विश्व की क्या स्थिति है, मैव्यू अर्नाल्ड के शब्दों में- ”हम ऐसे अँधेरे मैदान में बेसुध पड़े हैं, जहाँ किसी भी क्षण भ्रम और आशंका का भेदी युद्ध और विनाश का दृश्य उपस्थित कर सकता है ।
हम ऐसे स्थल पर खड़े हैं, जिसके एक ओर तो अतीत है, जो मर चुका है और जिसकी गुणगाथा गाने से हमारा कुछ भला नहीं होगा और दूसरी ओर एक ऐसा भविष्य है, जो अशक्त और निर्बल दिखाई पड़ता है । मानवजाति और संसार का हित इसमें नहीं है कि भविष्य निर्बल और आशाशून्य हो । इसे आशामय और गौरवशाली बनाने में भी विश्व तथा इसकी प्रगतिवादी शक्तियों की समृद्धि संभव है ।”
इन सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर भारत ने शांति और तटस्थता की नीति अपनाई है । भारत की तटस्थता का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि वह संसार की गतिविधियों के प्रति उदासीन है तथा उसकी दृष्टि स्वयं तक ही सीमित है ।
उसकी तटस्थता का अर्थ है कि वह युद्ध की संभावनाओं को बढ़ानेवाली गुटबंदी और सैनिक करारों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता है । स्व. प्रधानमंत्री नेहरू के शब्दों में- ”सारा विश्व इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह जैसी नीति चाहे वैसी अपनाए किंतु हम भारतीयों ने यही निश्चय किया है कि हम तटस्थता की नीति अपना ? और सैनिक गठबंधनों तथा शीतयुद्ध को बढ़ानेवाले तत्त्वों के चक्कर में नहीं पड़ेंगे । हम सारे संसार से मित्रता और सद्भावना चाहते हैं ।
सबके साथ बंधुत्व और सहयोग का भाव अपनाना चाहते हैं । हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि सह-अस्तित्व की नीति शांति का अभयदान देती है; युद्ध की संभावनाओं को मिटाती है तथा सबको सहयोग और सद्भावना के सूत्र में बाँधती है । यह मानव के दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है और युद्ध की आशंका की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया से संसार को बचाती है ।”
युद्ध का भय जब तक संसार के ऊपर मँडराता रहेगा तब तक मनुष्य का मस्तिष्क भय, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष तथा आशंका से भरा रहेगा और ‘शीतयुद्ध’ का क्षेत्र विस्तृत होता रहेगा । इस खतरे को मिटाने केलिए आवश्यकहै किशांति और मैत्री की नीति अपनाई जाए तथा विश्वशांति की स्थापना के लिए पंचशील और सह-अस्तित्व का सहारा लिया जाए ।
यों तो पंचशील का सिद्धांत हमारी विदेश नीति में प्राणतत्त्व बनकर आरंभ से ही समाया हुआ है, किंतु सन् १९५४ में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई तथा तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संयुक्त विज्ञप्ति में भारत की शांति और मैत्री के सिद्धांतों को पंचशील के रूप में अंतरराष्ट्रीय कलेवर मिला । पंचशील के सिद्धांतों के
द्वारा एक-दूसरे पर आक्रमण न करने, एक-दूसरे की संप्रभुता का आदर करने, एक-दूसरे के आतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, सहयोग, सद्भावना और मैत्री की संभावनाओं को दृढ़ बनाने तथा सह-अस्तित्व की नीति अपनाने का दृढ़ निश्चय किया गया ।
बांडुंग सम्मेलन ने इन सिद्धांतों के व्यापक प्रचार का मार्ग खोल दिया । संसार इनसे अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसने समझ लिया कि विश्वशांति के लिए आवश्यक है कि पंचशील का सिद्धांत अपनाया जाए । शक्ति और श्रेष्ठता की तृष्णा तथा सैद्धांतिक मतभेदों को मिटाने के लिए सह-अस्तित्व का प्रचार किया जाए ।
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शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व मानव जीवन का उत्कृष्ट विधान है । हम एक ऐसी स्थिति में पहुँच रहे हैं, जहाँ यह आवश्यकता अपने आप उभर आएगी । यदि इनसान ने पंचशील और सह-अस्तित्व के सिद्धांतों की उपेक्षा की तो उसका जीवन अस्तित्वहीन हो जाएगा ।
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अब वह समय आ गया है, जब हमें यह तय करना होगा कि या तो प्रेम, शांति और बंधुत्व के साथ मिल-जुलकर रहना सीखें अथवा शारीरिक और आत्मिक दोनों दृष्टियों से विनाश के गर्त में पड़ना स्वीकार कर लें । बांडुंग-सम्मेलन ने सह-अस्तित्व केसमर्थकराष्ट्रों की संख्या बढ़ाई और विश्वशांति के पक्ष में शांतिवादी क्षेत्र का प्रसार किया । रूस, युगोस्लाविया, म्याँमार, संयुक्त अरब गणराज्य, जापान तथा अन्य राष्ट्र शांतिवादी क्षेत्र के भीतर आ गए । ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका पर इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था ।
भारत शांतिवादी राष्ट्रों का पथ-प्रदर्शक बना । शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के समर्थक इन राष्ट्रों ने साम्राज्यवादी देशों की शोषण और उपनिवेशवादी नीति का विरोध करना प्रारंभ किया । रंगभेद और उपनिवेशवाद को मिटाने के लिए एकताबद्ध प्रयास करने का आह्वान किया ।
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संयुक्त राष्ट्र संघ में भी लोकतंत्रवादी शांतिप्रिय अफ्रीकी-एशियाई राष्ट्रों की संगठित शक्ति के अभुदय से साम्राज्यवादी राष्ट्रों के शोषण, दमन और शक्तिबल पर निर्बल राष्ट्रों को दास बनाए रखने की नीति ढीली पड़ी । अफ्रीका और एशिया में नए लोकतंत्रवादी युग का समारंभ हुआ ।
भारत ने पंचशील के सिद्धांतों का सदा पालन किया है । अंतरराष्ट्रीय इतिहास का सचमुच यह दुःखद पृष्ठ है कि जिस चीन ने पंचशील के सिद्धांतों को सर्वप्रथम स्वीकार किया था, उसी ने भारत के साथ विश्वासघात किया । इन सिद्धांतों का उसने उल्लंघन किया ।
इतना होने पर भी हम मामले को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहते हैं । हम जानते हैं कि युद्ध समस्याओं का निराकरण नहीं है । बुद्धि, विवेक, सद्भावना और आपसी वार्त्ता से ही समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है ।
इसी भावना को दृष्टिगत रखते हुए पाकिस्तानी आक्रमण के बाद भारत ने ‘ताशकंद समझौता’ किया, जबकि वह ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं था; क्योंकि भारत ने पाकिस्तान पर विजय पाई थी । भारत उपनिवेशवाद का सदा से विरोधी रहा है । वह समझता है कि संसार में शीतयुद्ध का एक प्रमुख कारण उपनिवेशवाद है ।
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उसका सदा से यही प्रयास रहा है कि उपनिवेशवाद में जकड़े देशों को स्वतंत्रता मिले । इंडोनेशिया को डच उपनिवेशवाद से मुक्ति दिलाने में भारत का प्रमुख योगदान रहा । भारत के नेतृत्व में शांतिवादी अफ्रीकी-एशियाई गुट की जोरदार आवाज के कारण ही अफ्रीकी जनता को उपनिवेशवाद के बंधन से छुटकारा मिल सका ।
भारत के अंतर-प्रदेश में गोवा का उपनिवेश नासूर की भांति था । फ्रांस ने विवेक और समय की गति के अनुसार कार्य किया । उपनिवेशों से शांतिपूर्वक अपना अधिकार हटाकर बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का परिचय दिया ।
पुर्तगाल ने हठवादिता का रुख अपनाया, परंतु भारत ने सद्भावना और आपसी वार्त्ता द्वारा समस्या का निराकरण करना चाहा, किंतु कोई परिणाम न निकला । विवश होकर भारत ने सैनिक काररवाई की । गोवा, दमन और दीव पर भारत का अधिकार हो गया ।
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इसपर पश्चिमी राष्ट्र तिलमिला उठे और उन्होंने सुरक्षा परिषद् में अपने समर्थक राष्ट्रों की मदद से गोवा में राष्ट्रसंघीय सेनाएँ भेजकर उसे ‘अशांति और शीतयुद्ध’ का स्थायी केंद्र बनाने का प्रयत्न किया, किंतु सह-अस्तित्व और शांति के समर्थक राष्ट्रों के समक्ष उनकी एक न चल पाई ।
भारत की सदैव यह नीति रही है कि पाकिस्तान के साथ हमारे मैत्रीपूर्ण संबंध रहें और आपसी विवादों का निबटारा शांतिमय ढंग से हो जाए । कश्मीर के संबंध में मंत्री-स्तर पर विचार-विमर्श हुआ है, किंतु पाकिस्तान की हठवादिता के कारण उचित समाधान अभी तक नहीं निकल सका है ।
हमारी शांतिमय नीति का युह अर्थ है कि हम युद्ध नहीं करना चाहते, अपने झगड़े शांतिमय ढंग से तथा ताशकंद-भावना से अभिप्रेरित होकर सुलझाना चाहते हैं; किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अन्याय के सामने झुक जाएँ युद्ध से डर जाएँ और पाकिस्तान को कश्मीर तथा दूसरी ओर चीन को अपनी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि दे दें ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत की शांति तटस्थता और सह-अस्तित्व की नीति, परीक्षण की कठोर परिस्थितियों से गुजरी और गुजर रही है, किंतु गांधी का शांति तथा अहिंसावादी देश अपनी पंचशील की नीति पर दृढ़ है । राजनीतिक आघातों और आक्षेपों के बावजूद उसने सहिष्णुता और सद्भावना की नीति छोड़ी नहीं है ।
जिन नीतियों और आदर्शो को लेकर राष्ट्र संघ की स्थापना हुई है, वे ही भारत की विदेश नीति के दृढ़ आधार हैं । यदि भारत की विदेश नीति के आदर्शो और सिद्धांतों का सही मूल्यांकन करके संसार उसी के अनुरूप आचरण करे, तो पीड़ित मानवता को राहत मिल जाए और युद्ध का खतरा संसार में सदा के लिए मिट जाए ।