लाइलाज होती महंगाइ पर निबंध | Essay on Unstable High Market Price in Hindi!

मुद्रास्फीति की दर पिछले तीन वर्षों के अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच कर सात फीसदी हो गई है । ऐसा तब हुआ है जब केंद्र सरकार बढ़ती हुई महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए तमाम तरह के प्रयास कर रही है, लेकिन मुद्रास्फीति थमने का नाम ही नहीं ले रही है ।

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इससे आम आदमी की मुश्किलें तो बढ़ी ही हैं साथ में केंद्र में सत्तासीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी सकते में है । सबसे बड़ी बात यह है कि इस बार महंगाई लम्बे समय से लोगों को परेशान कर रही है और मानो स्थाई रूप धारण कर चुकी है । ऐसे में सरकार महंगाई पर नकेल कसने की जी तोड़ कोशिश कर रही है, लेकिन इसका ठोस उपाय होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है ।

महंगाई का बढ़ना भारत के लिए नया नहीं है । वास्तव में 90 के दशक की शुरूआत तक भारतीय दो अंक की मुद्रास्फीति के आदी थे । आर्थिक सुधारो के तहत किए गए प्रयासों के चलते मुद्रास्फीति की दर में तेजी से गिरावट आई । 90 के दशक तक मुद्रास्फीति के कारणों पर नजर दौड़ाएं तो उस समय इसके लिए घरेलू कारक ही ज्यादा उत्तरदायी थे । इसके बाद से वैश्विक परिस्थितियों का प्रभाव हमारे देश की मुद्रास्फीति पर बढ़ता गया ।

वर्तमान में मुद्रास्फीति बढ़ने के कारणों की पड़ताल की जाए तो इसकी मुख्य वजह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमतों में हो रही वृद्धि है । आकड़ों पर गौर किया जाए तो खाद्य पदार्थों की कीमतों में पिछले वर्ष के मुकाबले 62 फीसदी का इजाफा हुआ है । गैर खाद्य कृषि उत्पादों की कीमतों में 24.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है ।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कीमतों में आए इस उछाल के लिए कृषि उत्पादों का जैव ईंधन के क्षेत्र में निरंतर बढ़ रहा उपयोग जिम्मेदार है । विकसित देशों में गन्ने व कई अन्य फसलों को सस्ते व वैकल्पिक जैव ईंधन के स्त्रोत के रूप में देखा जा रहा है । इसी के चलते 2004 के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजार में मक्का, चावल व गेहूं की कीमतें दोगुनी से भी ज्यादा हो चुकी हैं ।

अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अलावा भारतीय कृषि की दशा महंगाई में बढ़ोतरी के लिए दोषी है । मूल समस्या यह है कि भारत का कृषि उत्पादन कमोबेश स्थिर है, लेकिन मांग तेजी से बढ़ रही है । दलहन उत्पादन को ही लें ।

हमारे देश में दलहन का उत्पादन कई वर्षों से डेढ़ करोड़ टन पर अटका हुआ है जबकि मांग एक करोड़ अस्सी लाख टन से भी ज्यादा है । इसी तरह गेहूं उत्पादन पिछले कई वर्षों से साढ़े सात करोड़ टन पर अटका हुआ है, जबकि मांग इससे कहीं अधिक है । यही स्थिति खाद्य तेलों की भी है । भारत में कृषि उत्पादन में वृद्धि की दर महज चार फीसदी के आस-पास है ।

देश में बढ़ रही खपत के मुकाबले यह वृद्धि बहुत कम है । इसके अलावा अन्य वस्तुओं की कीमतों में 4 प्रतिशत का उछाल देखने को मिला है, जबकि तेल की कीमतें 85 प्रतिशत के रिकॉर्ड स्तर तक चढ़ी हैं । सोने की कीमत 53 फीसदी तक बढ़ गई हैं तथा कच्चे तेल की कीमत में 35 फीसदी का इजाफा हुआ है । चूंकि ज्यादातर उत्पादों के व्यापार पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय कीमतों का प्रभाव घरेलू बाजार पर पड़ना लाजमी है । वैश्विक मांग और पूर्ति में आए असंतुलन के कारण से महंगाई दिनों-दिन बढ़ती जा रही है ।

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महंगाई को लेकर जिस तरह की स्थितियां बनी हुई हैं, उन्हें देखते हुए सरकार के पास करने को ज्यादा कुछ नहीं है । इसमें सरकार निर्यात को एक हद तक रोककर आयात को बढ़ावा दे सकती है । यह एक विडंबना ही है कि विदेशों में ज्यादातर खाद्य पदार्थो व अन्य वस्तुओं की कीमतें भारत से अधिक है । इन हालातों में सरकार दो काम कर सकती है । पहला सरकारी खजाने से अनुदान दिया जा सकता है, दूसरा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत खाद्य पदार्थ मुहैया कराए जा सकते हैं ।

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जहां तक अनुदान देने का सवाल है पेट्रोलियम पदार्थों को अनुदान देने के मामले में सरकार का अनुभव अच्छा नहीं है । सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भी अपनी सीमाएं हैं । इसकी खामियों की वजह से अपेक्षित नतीजे आ पाना संभव नहीं है । हालांकि इन दोनों उपायों से महंगाई की समस्या को अल्पकाल के लिए ही काबू में लाया जा सकता है । वैश्विक परिस्थितियों को देखते हुए इनसे पूर्ण समाधान मिल पाना सम्भव नहीं हैं । लिहाजा सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए कुछ और ही कदम उठाने का भारी दबाव है ।

वित्त मंत्री पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार के राजकोषीय उपायों से तुरंत राहत मिलना संभव नहीं है और आपूर्ति पक्ष को सरकार ने फोरी तौर पर आजमा कर देख लिया है, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली है । ऐसे में सबकी निगाहें रिजर्व बैंक पर हैं । रिजर्व बैंक इस बात से भी वाकिफ है कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी से विकास दर में गिरावट आ सकती है ।

दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था जिस दौर से गुजर रही है उसे ‘स्टैगफ्‌लेशन’ अवस्था कहा जा सकता है । इस अवस्था में विकास दर में मंदी के साथ-साथ महंगाई की दर में वृद्धि होती है । भारत में एक तरफ जहां उत्पादन के प्रवाह और संबंधित आंकड़े विकास दर में कमी की ओर इशारा करते हैं वहीं महंगाई की दर में लगातार तेजी का आलम है ।

मसलन जनवरी 2008 माह में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर महज 5-6 फीसदी रही, फरवरी के अन्तिम हफ्‌ते में क्रेडिट की मांग 29 फीसदी से भी ज्यादा रही थी । मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी का दौर तो कई महीनों से जारी है ।

वर्तमान में इसने 9 प्रतिशत का आंकड़ा छू लिया है, जो भारतीय रिजर्व बैंक की तय दर 5 प्रतिशत से कहीं ज्यादा है । आने वाले दिनों में यह देखना रोचक होगा कि सरकार महंगाई रोकने के लिए कौन से कदम उठाती है । हालांकि पारंपरिक तरीकों से इससे निपट पाना मुश्किल नजर आ रहा है । अर्थशास्त्र की इस माथापच्ची के बीच सबसे ज्यादा मुश्किल में सीमित आय वाला वह वर्ग है जिसके परिवार का पूरा बजट गड़बड़ा गया है और जिसे भविष्य में भी राहत मिलने की कोई उम्मीद नहीं है ।

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