Here is an essay on the banking system in India especially written for school and college students in Hindi language.
भारतीय व्यवस्था में बैंकिंग व्यवस्था भी एक ऐसी व्यवस्था है जिससे सभी भारतीय प्रभावित होते हैं । वे आम भारतीय हों या खास भारतीय सभी भारतीय बैंकिंग व्यवस्था से रूबरू होते हैं । वर्तमान समय में जब सम्पूर्ण विश्व आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है ।
विश्व महाशक्ति कही जाने वाले अमेरिका में भी आर्थिक मंदी के दौर में कई बैंक दिवालिये हो गये । लोगों के रोजगार चले गये । विश्व में छायी आर्थिक मंदी ने लाखों-करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लिया । नये लोगों के रोजगार के अवसर समाप्त हो गये ।
जो लोग भौतिक सुख सुविधाओं के आदि हो गये थे । जिनके कम्पनियों ने रोजगार के साथ गाड़ी, घर, ड्राईवर आदि की सुविधाएं उपलब्ध करा रखी थी । वे लोग रोजगार गँवाने के साथ ही सड़क पर आ गये और देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर जैसे शरणार्थी शिविर लगाये जाते हैं ।
कुछ उसी प्रकार की स्थिति आर्थिक मंदी ने यूरोप के देशों में कर दी । लोग भूखे मरने लगे, कई बैंक और कई कम्पनियों का नामोनिशान मिट गया । जो देश अपनी नीतियों को सर्वश्रेष्ठ मानते थे । उनको भी अपनी नीतियों का विश्लेषण करने पर विचार करना पड़ा । अपने आप को महाशक्ति कहने वाले भी बगलें झांकते नजर आये ।
जब आर्थिक मंदी की जकड़ में दुनिया के वे ही देश आये जो अपनी अर्थव्यवस्था से निश्चित थे । लेकिन ऐसे समय में जब सम्पूर्ण विश्व आर्थिक मंदी की जकड़ में था तब एकमात्र देश ऐसा भी था जिस पर आर्थिक मंदी का कोई प्रभाव नहीं था और वह अपने नागरिकों को सरकारी व निजी प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर उपलब्ध करा रहा था ।
सम्पूर्ण विश्व इस चमत्कार से हतप्रभ था कि जब एक और सम्पूर्ण विश्व आर्थिक मंदी की गिरफ्त में है और दूसरी और एक देश ऐसा भी है जिस पर आर्थिक मंदी का कोई प्रभाव नहीं है । रोजगार के क्षेत्र में अच्छी खासी प्रगति देखी जा सकती है वह निर्माण का क्षेत्र हो या तकनीकी का, सभी में उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा था ऐसा चमत्कार कैसे हो रहा था इसे जानने के लिए सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि उस देश की ओर गयी कि जो देश अभी विकासशील देशों की श्रेणी में है और वह अपनी आर्थिक प्रगति में विकसित देशों से आगे कैसे निकल गया ।
इस रहस्य को जानने के लिए विश्व के अग्रणी देशों ने अपने विशेषज्ञों की टीम गठित कर दी कि विश्व के दूसरे नम्बर की जनसंख्या रखने वाला भारत अपनी आर्थिक उन्नति कैसे कर रहा है जो विश्व आर्थिक मंदी के प्रभाव को भी बेअसर कर रहा है जब सम्पूर्ण विश्व मंदी की चपेट में त्राहि-त्राहि कर गया तब भारत ने आर्थिक मंदी से उफ ! तक नहीं किया तो क्या यह हमारी आर्थिक नीतियों का परिणाम है या कुछ ओर ।
जो हम आर्थिक मंदी से बेपरवाह अपनी उन्नति की गाथा लिख रहे हैं यह शोध का विषय है कि भारत आर्थिक मंदी की चपेट में नहीं आया था । भारत के लोग क्योंकि आर्थिक मंदी का प्रभाव हो सकता है देश पर पड़ा हो लेकिन देश के लोगों पर आर्थिक मंदी का प्रभाव नहीं पड़ा ।
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हम भारतवासी अर्थव्यवस्था के जनक आचार्य चाणक्य के श्लोक को ध्यान में रखकर जीवन जीते हैं जिसमें कहा गया है कि व्यक्ति को विपत्ति के लिए धन संग्रह करना चाहिए । मेरी इस बात में विरोधाभास हो सकता है कि भारत तो आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया था लेकिन भारतवासियों ने उसे आर्थिक मंदी से बचा लिया न कि देश की आर्थिक नीतियों ने ।
यह कटु सत्य है कि भारत में अभी ऐसे वर्ग का जन्म नहीं हुआ जोपूर्णत: बचत न करने में विश्वास करता हो बल्कि ऐसे वर्ग की अधिकता है जो कमाता तो दस हजार है और खर्च करता बामुश्किल पांच हजार । भारत के लोग आचार्य चाणक्य की बात को अधिक महत्व देते हैं । वे अपनी आय का एक निश्चित भाग बचत करते हैं ।
जबकि यूरोप के लोग जितना कमाते हैं उससे अधिक खर्च करके ऐशो आराम की जिन्दगी गुजारते हैं । रोजगार शुदा यूरोपियन कम्पनी की गाड़ी कम्पनी का आवास और कम्पनी के खर्चा पर जीवन गुजारते हैं और अपनी आय का सम्पूर्ण हिस्सा खर्च करने के साथ ही यूरोप में लोगों को आसान बैंकिंग व्यवस्था का भी लाभ मिलता है जो बिना किसी शर्त पर बड़े से बड़ा कर्जा लेकर ऐश की जिन्दगी गुजारते हैं ।
यूरोप को आर्थिक मंदी में धकेलने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार वहां के नागरिक हैं वहां की बैंकिंग व्यवस्था तो जिम्मेदार है ही जो आसानी से वहां के नागरिकों को कर्जा उपलब्द करा देती हैं और उस कर्जा के बदले में कुछ भी बंधक नहीं करते हैं जिसका परिणाम सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख उपस्थित है वहां के नागरिकों ने आसान बैंकिग व्यवस्था का लाभ उठाकर बड़े-बड़े कर्जे लेकर ऐशो आराम पर धन खर्चा कर दिया ।
जिसका परिणाम सामने रहा है कि वे बैंक दिवालिये हो गये और वहा के नागरिक पहले से ही दिवालिये थे वे जितना कमाते उससे अधिक खर्च कर देते हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा । वहां की बैंकिंग नीति या वहां के नागरिक मेरे विचार से दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं ।
क्योंकि जब मिलता है तो लेते हैं जब नहीं मिलता तो कैसे लेते । जब देश की बैंकिंग व्यवस्था ही ऐसी थी उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि हमारी अर्थ व्यवस्था भी मंदी के दौर से गुजरेगी और हमें बेरोजगार भी होना पड़ेगा और वहा के नागरिक भी निश्चिंत थे कि मंदी क्या होती है गरीबी, बेराजगारी, भुखमरी क्या मुसीबत है, मालूम नहीं था तभी तो निश्चिंत होकर वर्ष में तीन माह बिना कुछ कमाये ऐशो आराम से छुट्टी बिताते थे ।
वे वर्ष में नौ माह कमाते हैं और तीन माह आराम से खर्च करते हैं । जिसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण विश्व को झेलना पड़ा । उक्त परिस्थितियों के लिए हम वहां के नागरिकों को भी कम जिम्मेदार नहीं ठहरायेंगे । जितना उत्तरदायित्व वहां की सरकारों का है उतना ही उत्तरदायित्व वहां के नागरिकों का भी है जो अपने देश की अर्थ व्यवस्था का समय-समय पर आंकलन नहीं कर पाये और अपने साथ ही सम्पूर्ण विश्व को आर्थिक मंदी की चपेट में धकेल दिया जिससे उभर पाना सम्पूर्ण विश्व के लिए बहुत ही टेढ़ी खीर साबित हो रहा है । किया एक ने और परिणाम सम्पूर्ण विश्व भुगत रहा है ।
यूरोप की आर्थिक मंदी के लिए वहां की बैंकिंग व्यवस्था और वहां के नागरिक ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं भारतीय व्यवस्था में आर्थिक मंदी का प्रभाव देखने को नहीं मिला इसके लिए कुछ हद तक तो भारतीय बैंकिंग व्यवस्था ही धन्यवाद की पात्र है उससे अधिक धन्यवाद के पात्र हैं भारतीय नागरिक जो अपनी आय का एक निश्चित भाग बचत करके देश के बैंकों में जमा रखते हैं ।
देश की बीमा कम्पनियों में निवेश करते है फिक्स डिपोजिट बैंकों में रखते हैं । इसके अलावा चल-अचल सम्पत्ति में निवेश करना सोना खरीद कर रखना, घर होने के बाद भी फ्लैट आदि में निवेश करना भारतीय नागरिकों की आदत है । भारतीय नागरिक जितना कमाता है उसका कुछ अंश ही खर्च करता है ।
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भारतीय फिजूल खर्ची नहीं हैं वे केवल विशेष मौकों पर ही खर्च करते हैं हां ऐसा केवल निम्न व मध्यम वर्ग ही करता है क्योंकि भारतीय सभ्यता का अंग ही मध्यम व निम्न वर्ग है । उच्च वर्गीय भारतीयों पर भी पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव भली-भांति देखा जा सकता है वे जितना कमाते हैं उसका अधिकांश भाग अपनी पिकनिक, पार्टी, डिस्को, विदेश जाना आदि पर खर्चा करते हैं । लेकिन बचत की आदत वे भी रखते हैं और अपना मकान आदि खरीदना प्रत्येक भारतीय की पैदाइश इच्छा होती है ।
जानकारी से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक भारतीय रोजगार मिलने पर घर खरीदना और शादी करना अपना नैतिक धर्म मानता है । जबकि पश्चिमी सभ्यता में शादी करने के स्थान पर बिना शादी ही लीव इन रिलेशनशीप में रहना अधिक उचित मानते हैं ।
भारतीय सभ्यता भी भारतीय व्यवस्था को अधिक बल देती है जिसमें रोजगार शुदा युवक-युवतियां रोजगारोपरान्त मकान व शादी को प्राथमिकता देते हैं । ऐसे कम ही युवक-युवतियां भारतीय समाज में मिलेंगे जो कैरियर सैटल होने के उपरान्त केवल ऐशों आराम को महत्व देते हैं ।
भारतीय व्यवस्था में भारतीय बैंकिंग व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसको अधिक शसक्त बनाने में जितना अधिक योगदान देश के नीतिकारों का है । उससे अधिक योगदान देश के नागरिकों का है । भारत में यदि बैंकिंग कर्जा की बात करें तो यह व्यवस्था किसी पहाड़ की चोटी पर चढाई करने जैसा है ।
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जिसके लिए भारत में बहुत ही जटिल प्रक्रिया का सामना करना पड़ता है । भारत में बैंकिंग कर्जा केवल उसी व्यक्ति को मिल सकता है जो पहले से ही आर्थिक रूप से मजबूत है । भारत में ऐसी बैंकिंग व्यवस्था नहीं है कि किसी भी भारतीय को बैंक कर्जा उपलब्ध करा सके ।
जितनी जटिल प्रक्रिया बैंकिंग कर्जा की है उससे तो आजिज आकर भारतीय नागरिक या तो कर्जा लेते ही नहीं हैं या फिर भारतीय शाहूकारों से कर्जा लेना उचित समझते हैं । ऐसी बैंकिंग व्यवस्था केवल उन भारतीयों के लिए है जो या तो गरीब हैं या फिर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं ।
भारत में बैंकिंग व्यवस्था का लाभ केवल मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग को ही मिलता है । भारत में निम्न वर्ग के लोगों का बैंकिंग व्यवस्था से कोई वास्ता नहीं है वे न तो बैंक से कर्जा लेते हैं और न ही बैंक गरीब लोगों को कर्जा देते हैं । भारत के मध्यम वर्ग के लोग जो बैंक से कर्जा लेते हैं ।
वह व्यक्तिगत कर्जा हो या गाडी खरीदने के लिए हो या फिर प्रोपर्टी खरीदने के लिए सभी कर्जों के लिए बैंक बहुत ही जटिल प्रक्रिया का पालन करते हैं यहा तक कि गवाह, गारन्टी और कर्ज के विरूद्ध प्रोपर्टी बंधक करते हैं । ताकि कर्ज डूबने की कोई भी गुंजाइश न रहे ।
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इस प्रकार भारतीय बैंकिंग व्यवस्था भारतीयों को कर्जा उपलब्ध कराती हैं । जब बैंक किसी ऐसे व्यक्ति को कर्जा देता ही नही है जो गरीब हो या जिसके पास कोई प्रोपर्टी न हो । तो बैंक का पैसा कैसे डूबेगा और जब बैंक का पैसा ही नही डूबेगा तो बैंक कैसे डूबेगा ।
इस प्रकार भारत की बैंकिंग व्यवस्था एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें गरीब निर्धन और सम्पत्ति विहीनों के लिए कोई स्थान नहीं है । अगर कोई स्थान है तो वह है भारत के उच्च वर्ग के लिए जिनका बैंकों में अपना कोई पैसा जमा नहीं होता है । बल्कि सर्वाधिक बैंकिंग व्यवस्था का दोहन करने में भारत का उच्च वर्ग ही सबसे आगे है ।
भारतीय बैंकों में सर्वाधिक जमा पूंजी भारत के मध्यम वर्ग की है और बैंकों से सर्वाधिक कर्जा लेने में भारत का उच्च वर्ग जो व्यवसायी वर्ग भी है । सबसे आगे है बैंकिंग व्यवस्था का यह कड़वा सच गरीब भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार को इंगित करता है ।
जो स्पष्ट कहता है कि भारत सरकार कितने ही दावे करे, घोषणा करे, रिजर्व बैंक कितना ही दबाव बनाये लेकिन बैंकों की कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं देखा जा सकता है जिसमें केवल उद्योगपति व्यवसायी ही बड़े स्तर पर बैंक से कर्जा ले लेते हैं और गरीब आम आदमी अपनी जरूरतों के लिए या कोई नया व्यवसाय शुरू करने के लिए कर्जा लेने बैंक पहुंचते हैं तो बैंक प्रबंधकों का व्यवहार काफी निराशाजनक रहता है और बामुश्किल कोई बैंक कर्जा देने के लिए तैयार भी होता है तो कई सारी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं और जो औपचारिकताएं पूरी नहीं कर पाता उनकों बैंक कर्जा देने से इंकार कर देते हैं ।
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इस प्रकार की कठोर बैंकिंग व्यवस्था होने के बाद भी भारतीय बैंकों के डूबने की कोई गुंजाइश बाकी रह नहीं जाती है । भारतीय बैंक विश्व के किसी अन्य देश के बैंकों से काफी कठोर नियमों का पालन करते हैं । भारतीय बैंक एक प्रकार से लोगों के धन को जमा करने का कार्य करते हैं तथा उस मध्यम वर्ग के जमा धन को उच्च वर्ग के लिए कर्जा के रूप में देते हैं ।
भारतीय बैंकों के आंकड़े इस बात की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं कि भारतीय गरीब नहीं हैं बल्कि भारतीय अमीर गरीब हैं । जो मध्यम वर्ग के धन को बैंकों के माध्यम से कर्जा के रूप में लेते है । यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसको अपवाह करार दिया जा सके ।
इस बात की पुष्टि के लिए भारतीय बैंकों के लेजर स्पष्ट इशारा करते हैं जो कहते हैं कि भारतीय बैंकों में भारतीय अमीरों अर्थात उच्च वर्गीय भारतीयों की जमा पूंजी न के बराबर है और जो पूंजी बैंकों के पास जमा के रूप में मौजूद है वह भारत के ऐसे वर्ग के लोगों की है जो अधिकतर या तो नौकरी पेशा हैं या अपना छोटा-मोटा कोई कारोबार करते हैं ।
भविष्य की चिंता से डरकर अपनी सम्पूर्ण जमा पूंजी बैंकों में रखते हैं ताकि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर काम आ सके । कुछ इस प्रकार भारतीय बैंकिंग व्यवस्था है जिसमें अमीरों के लिए तो कर्जा के दरवाजे सदैव खुले रहते हैं । लेकिन गरीबों के लिए कर्ज के दरवाजे सदैव बंद रहते हैं ।
यही कारण है कि भारत में उच्च और निम्न के बीच का अन्तर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय बैंकों की जटिल बैंक कर्ज प्रक्रिया का लाभ बैंकों को मिला है तभी तो विश्व आर्थिक मंदी की चपेट में दुनिया के अधिकतर बैंक आ गये और कई तो दिवालिया भी घोषित हो गये तो फिर भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का इसे सकारात्मक पहूल ही कहा जा सकता है ।
जो बैंकों की जटिल कर्ज प्रक्रिया के कारण बैंक डूबने से बच गये । भारतीय बैंकों की इस जटिल कर्ज प्रक्रिया के दोनों पहलू हैं इन्हें सकारात्मक भी कहा जा सकता है और नकारात्मक भी । पहले हम सकारात्मक पहलू पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि जब विश्व के सम्पूर्ण देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ गये ।
विश्व प्रसिद्ध बैंक दिवालिया घोषित हो गये तब भी भारतीय बैंकों पर मंदी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा और अधिक उन्नति के साथ लाखों रोजगारों का सृजन कर भारतीय बैंकों ने एक उदारहण विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया ।
जिसका परिणाम यह रहा कि विश्व के अग्रणी देश भारतीय व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए उत्सुक दिखायी देने लगे । यहां तक कि कुछ देशों ने तो अपने प्रबंधन के छात्रों के लिए हिन्दी सीखना अनिवार्य कर दिया ताकि वे प्रबन्धन के छात्र भारत आकर तीन महीने भारत में रूक कर यहा की परिस्थितियों का अध्ययन करेंगे ।
वे पता करेंगे कि भारत ने आर्थिक मंदी के दौर में अपने आप को किस प्रकार संभाले रखा तथा अपनी उन्नति को अग्रसर बनाये रखा । यह विश्व के कुछ देशों के लिए तो एक अनबुझी पहेली के समान है कि जब सभी अर्थ व्यवस्थाएं मंदी के दौर से गुजर रही थीं लेकिन भारतीय अर्थ व्यवस्था पर मंदी का कोई प्रभाव क्यों नहीं पड़ा ।
लेकिन यह भी एक कटू सत्य है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था पर मंदी को बेअसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । भारतीय बैंकिंग व्यवस्था ने जो एक जटिल प्रक्रिया है और जिसे रोक पाना प्रत्येक भारतीय के बूते की बात नहीं है तभी तो भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की इस कठोर प्रक्रिया को भारतीय अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से सकारात्मक माना जा रहा है लेकिन नकारात्मक पहलू जो भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का है वह यह है कि भारतीय बैंक केवल भारत के उच्च वर्ग के लिए लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं ।
भारतीय नौकरी पेशा वाला व्यक्ति भी आसानी से भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का लाभ नहीं उठा सकता है । ऐसा कोई प्रावधान अभी बैंकिंग व्यवस्था में भी नहीं है । जो भारतीय जनता निम्न वर्ग या मध्यम वर्ग का हिस्सा है भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का लाभ उठा सके । कहने को तो देश के प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री घोषणा करते रहते हैं ।
लेकिन बैंकों पर ऐसी घोषणाओं का कोई भी प्रभाव देखने को नहीं मिलता तभी तो भारतीय बैंकों की कार्यशैली काफी निराशाजनक है । जो भारत में गरीबों की हितेषी नहीं है । भारतीय जनता को यदि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का सही रूप में लाभ मिल सके तो निश्चित ही इस देश की तस्वीर अलग दिखाई देगी ।
भारतीय व्यवस्था के नीतिकारों का भी कुछ दायित्व अवश्य बनता है । जब देश में अमीर गरीब का अन्तर बढ़ता जा रहा हो तो यह एक गम्भीर विषय हो सकता है जिस पर मंथन करना भारतीय नीतिकारों के लिए एक आवश्यक कार्य है कि किस प्रकार भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में बदलाव किया जाए ताकि इस व्यवस्था का लाभ देश की आम जनता को मिल सके न कि देश की खास जनता को । जो बैंकों की अधिकतर जमा पूंजी का लाभ कर्ज के रूप में उठाते हैं ।
भारतीय बैंकों के आंकड़े इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं । कि देश के बैंकों में जमा पूंजी अधिकतर मध्यम वर्गीय भारतीयों की ही है तथा भारत का उच्च वर्ग बैंकों में जमा पूंजी के मामले में काफी पीछे हैं और कर्ज लेने में सबसे आगे ।
भारत में किसानों को कर्ज मिलना एक बहुत बड़ी चुनौती है जबकि उद्योगों को कर्ज मिलना एक आसान प्रक्रिया है । जबकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने बैंकों की ओर से कुल वितरित कर्ज का अठारह प्रतिशत अनिवार्य रूप से कृषि क्षेत्र को देने का नियम बना रखा है ।
लेकिन भारतीय बैंक रिजर्व बैंक के बनाये गये नियमों की भी धज्जियां उडा रहे हैं । रिजर्व बैंक बैंकों के इस रवैय्ये से खासा परेशान हैं और केन्द्रीय बैंक के साथ ही संसदीय समिति ने भी बैंकों के इस रवैय्ये पर चिंता जताई है ।
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बैंक प्रमुखों के साथ बैठक में देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान 3,75,000 करोड़ रूपये का कृषि कर्ज देने के लक्ष्य का ऐलान किया था । वित्तमंत्री की इस घोषणा पर कुछ बैंकों ने बताया कि वर्ष दर वर्ष सरकारी लक्ष्य से ज्यादा कृषि कर्ज देने के बावजूद भी रिजर्व बैंक खुश नहीं है ।
जिसके पीछे कारण है कि बैंक नियमों के अनुसार कुल वितरित कर्ज का अठारह प्रतिशत कृषि क्षेत्र को नहीं दे पा रहे हैं । यह अठारह प्रतिशत से कम कर्ज कृषि क्षेत्र को देना बैंकों के लिए भी घाटे का सौदा है । यदि बैंक अठारह प्रतिशत से कम कर्ज देते हैं तो उन्हें इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए शेष धनराशि रिजर्व बैंक की विभिन्न स्कीमों में जमा करानी पड़ती है । और इस राशि पर बैंकों को काफी कम रिटर्न मिलती है । वर्ष 2009-10 में वित्त मंत्रालय ने बैंकों के लिए 3,25,000 करोड़ रूपये का कृषि कर्ज बांटने का लक्ष्य रखा था ।
इसके मुकाबले 370,730 करोड़ रूपये बांटे गये यह सरकार के लक्ष्य से ज्यादा था लेकिन आर॰बी॰आई॰ के अठारह प्रतिशत के लक्ष्य से कम । इस दौरान बैंकों ने कृषि क्षेत्र को 17.28 प्रतिशत कर्ज ही दिया । जबकि बैंकों को रिजर्व बैंक से कृषि क्षेत्र को कर्ज देने पर कम से कम सात प्रतिशत ब्याज मिलता है । लेकिन फिर भी भारतीय बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के लक्ष्य अठारह प्रतिशत को पूरा नहीं कर पातें यह भारतीय किसानों के लिए अच्छा संकेत नहीं है ।
तभी तो किसान हमेशा साहूकारों के लिए ही अपना सम्पूर्ण जीवन उसका कर्ज उतारने में बिता देता है और यदि किसी बच्चे की पढ़ाई या उसकी शादी के लिए साहूकार से कर्जा ले लिया तो निश्चित ही साहूकार उसकी जमीन अपने नाम करा लेता है ।
भारतीय लोकतंत्र में आज भी परतंत्रता विद्यमान है आज भी लोग गुलामी का जीवन जीने को मजबूर हैं । विशेषकर भारतीय किसान जो केवल इतनी खेती रखता है जिससे अपने परिवार का पालन-पोषण बामुश्किल कर पाता है और एक प्रकार से साहूकारों की उधार की जिन्दगी जीने को मजबूर रहता है ।
इस देश का किसान एक ऐसा व्यक्ति है जिसको कर्ज लेने के लिए अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ती है । वह साहूकार के पास गिरवी रखे या बैंक के पास आखिर जमीन को गिरवी तो रखना ही पड़ेगा । जबकि अन्य वर्ग के भारतीयों को बैंकों से कर्ज लेने के लिए आई॰टी॰आर॰ बैंक स्टेटमेन्ट, पेन कार्ड आदि से ही कर्ज मिल जाता है ।
उन्हें कोई जमीन आदि गिरवी रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती उन्हें केवल कागजों के आधार पर ही कई-कई लाख रूपये का कर्ज उपलब्ध करा दिया जाता है तो क्या यह भारतीय किसानों या अन्य गरीबों के साथ भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का सौतेला व्यवहार नहीं है जो केवल अमीरों को ही लाभ पहुंचाता है, गरीबों को नहीं ।
भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की यह कमजोरी विशेषकर देश के किसानों को प्रभावित करती है जिन्हें फसल बोने के लिए खाद्य, बीज, पानी आदि की आवश्यकता पड़ती है और धनाभाव के कारण देश के किसान अपनी फसलों को समय से बुआई नहीं कर पाते । फिर साहूकारों से कर्ज लेने को मजबूर होते हैं ।
भारतीय बैंक किसान को एक ट्रैक्टर का कर्ज देने के लिए जिसकी कीमत बामुश्किल तीन लाख रूपये होती है । उस किसान की दो हैक्टेयर जमीन जिसकी कीमत एक करोड़ रूपये से भी अधिक होती है को गिरवी रखते हैं ।
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जबकि एक व्यवसायी जिसके पास कोई चल-अचल सम्पत्ति न हो लेकिन वह अपनी बैंक स्टेटमेन्ट, पैन कार्ड और आई॰टी॰आर॰ कागजों के बल पर दस से पन्द्रह लाख रूपये की गाड़ी का कर्ज ले सकता है यह भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का वह सच है जिसको झूठलाना किसी के बल की बात नहीं है ।
क्योंकि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था भी देश के अमीरों की ही पक्षधर है । यह आवश्यक भी नहीं है कि जिस अमीर व्यक्ति ने दस से पन्द्रह लाख रूपये की गाड़ी का कर्ज लिया है वह उस कर्ज को लौटा भी पायेगा या नहीं । क्योंकि बैंक के पास गाड़ी का मालिकाना हक के अलावा कुछ भी नहीं है ।
ऐसा नहीं होता जिसके बल पर वह गाड़ी के कर्ज को वसूल कर सके । बहुत अधिक नहीं कर पाता है तो तीन वर्ष के बाद बैंक जब गाड़ी का कर्ज वसूल नहीं कर पाता है तो वह गाडी को ही अपने ऐजेन्टों के माध्यम से वापिस मंगा लेता है । इसके अलावा बैंक उस गाडी के खरीददार से कुछ भी नहीं कह सकता ।
जबकि एक किसान का ट्रैक्टर का कर्ज यदि वसूल नहीं हो पाता है तो बैंक उस किसान की गिरवी रखी जमीन को खुले आम नीलाम करवा देता है । जिसके गम में वह किसान आत्म हत्या तक कर लेता है । तो क्या भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का सभी भारतीयों के लिए समानता का व्यवहार है । अर्थात कदापि नहीं ।
अमीरों के लिए अलग नियम तय करता है और गरीबों के लिए अलग । ऐसी बैंकिंग व्यवस्था देश में अमीर-गरीब के बीच बढ़ रही खाई को और अधिक बढानें का कार्य कर रही है जो कदापि उचित नहीं है ।