भारतीय राजनीति में अल्पसंख्यक एवं अनुसूचित जातियाँ पर निबन्ध | Essay on Minority and Scheduled Castes in Indian Politics in Hindi!
प्रस्तावना:
भारत एक विशाल एवं विविधताओं वाला राष्ट्र है । यहाँ पर सभी वर्गो के लोग निवास करते हैं । इन वर्गो को तीन भागों में विभाजित किया जाता है; उच्च, मध्यम एवं निम्न वर्ग ।
निम्न वर्ग का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में प्राय: आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से कमजोर एवं पिछड़े वर्ग की छवि बन जाती है । इसी प्रकार अल्पसंख्यकों का नाम आते ही हमारा ध्यान मुस्लिम, ईसाई एवं सिक्सों की ओर चला जाता है । वर्तमान समय में यह दोनों ही वर्ग, ‘अल्पसंख्यक एवं अनुसूचित जाति एयं जनजातियाँ’ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।
चिन्तनात्मक विकास:
भारतीय संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों एवं अनुसूचित जातियों एत् जनजातियों के लोगों के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं । संवैधानिक प्रावधानों द्वारा ऐस लगता है कि इनके हितों का संरक्षण राष्ट्रीय-स्तर पर हो सकेगा । संविधान में इन सभी वगै के हितों की रक्षा एवं विकास के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर अनेक सुविधायें प्रदान क गई हैं ।
भारतीय राजनीति में भी यह विशिष्ट भूमिका निभा रहे हैं । प्रत्येक क्षेत्र में आरक्षग् की सुविधाएं प्रदान की गई हैं जिससे इनका आर्थिक एवं सामाजिक विकास हो सके औ समाज में सभी के साथ मिलकर सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें ।
उपसंहार:
अनुसूचित जातियों एवं अल्पसंख्यकों को यद्यपि विशिष्ट एवं पर्याप्त सुविधा प्रदान की गई हैं तथापि देखने में प्राय: यही आता है कि यह सुविधायें केवल कागजों तक ही सीमित हैं । समाज के सम्पन्न वर्गो द्वारा उपदेश भी दिये जाते हैं कि इन्हें समाज में समा दर्जा दिया जाये किन्तु यह सब बातें रेत की लीक की भाँति है ।
आज भी भारत में इन लोगोn के साथ अन्याय एवं शोषण किया जा रहा है, इनके अधिकार छीने जा रहे हैं । अत: आवश्य है कि हमके लिए बनाये गये कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए । आरक्षण को आर्थि एवं राजनीतिक स्तर पर अलग-अलग किया जाए ।
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की एक अन्य समस्या अल्पसंख्यकों एवं राष्ट्रीय इकाईयों थी । मुसलमानों, सिक्सों, दलित जातियों, अल्पसंख्यकों में ज्यों-ज्यों राजनीतिक जागृति के बई प्रस्फुटित हुये, त्यों-त्यों राजनीतिक स्वाधीनता हेतु किए गए राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वाधीन भा की भावी राज-व्यवस्था की दृष्टि से यह प्रश्न निर्णायक और विशेष महत्व का हो गया । अल्पसंख्य की समस्या भारत में ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी विद्यमान है ।
अल्पसंख्यक से तात्पर्य उस समूह विशेष से है जो अपनी जाति, भाषा अथवा धर्म की दृष्टि बहुमत से भिन्न हैं । भारतीय संविधान अत्यधिक विस्तृत है । संविधान में अल्पसंख्यकों की परिभ नहीं दी गई है किन्तु अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया गया है । दाइा जातियों एवं मुसलमानों जैसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक भारतीय राज्यों के सारे भू-क्षेत्रों में फैले होते हैं ।
यह लोग धर्म के सूत्र में परस्पर बंधे रहते हैं । विद्यमान भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था के अल्ट को भोगते हैं, किन्तु यह राष्ट्र से पृथक् नहीं होते वरन् राष्ट्रीय इकाई के अंग होते हैं । इन राष्ट्र इकाईयों की अपनी अलग-अलग भाषाएं होती हैं और इनका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन परस्पर भिन्न होता है ।
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हमारे भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने के लिए अनेक प्रावधान किए संविधान के अनुच्छेद 14, 15 तथा 16 में कानून के समक्ष समानता एवं विधि के समक्ष क्षण का आश्वासन दिया गया है एवं इनके साथ कोई भी जाति, लिंग, धर्म, मूलवंश आधार पर भेदभाव नहीं करेगा ।
अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक सेवाओ में समान अवसर गए हैं । अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की है तथा इसके अन्तर्गत किसी मानने, अन्तःकरण की स्वतन्त्रता एव धार्मिक प्रचार की गारन्टी दी गई है । अनुच्छेद मामलों का प्रबंध, बिना किसी प्रकार के हस्तक्षेप के, करने की गारण्टी दी गई छ 27 में किसी विशेष धर्म की उन्नति और प्रचार-प्रसार के लिए करो की वसूली पर गई है ।
अनुच्छेद 28 में सरकारी शिक्षण सस्थाओं मे धार्मिक उपासना में उपस्थित न छूट दी गई है । संस्कृति एवं शिक्षा सम्बंधी अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 29 में सं के हितों को संरक्षण दिया गया है और अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है । अत: कहा है कि हमारे संविधान निर्माता अल्पसंख्यकों की समस्याओं से परिचित थे ।
‘सरकार भी अल्पसंख्यकों का कल्याण करने के लिए जागरूक, सचेत एवं प्रतिबद्ध , राष्ट्रीय एकता परिषद के तंत्र के माध्यम से धर्म, भाषा आदि के भेदभाव के बिना सभी वर्गों के एकीकरण की दिशा में कदम उठाता आ रहा है ।
कल्याण मंत्रालय के कल्याण के लिए 15 सूत्री कार्यक्रम बनाया है जिसके अन्तर्गत अल्पसंख्यकों के संरक्षण हेतु साम्प्रदायिक उपद्रवी को रोकने, साम्प्रदायिक सद्भाव एवं शान्ति बढ़ाने, नौकरियों, राज्य एवं केन्द्रीय स्तरीय पुलिस कर्मियों की भर्ती, रेलवे, राष्ट्रीयकृत बैंकों डि उपक्रमो आदि में भर्ती और इन सभी भर्तियों हेतु कोंचिग प्रदान करने की व्यवस्था है ।
आई.टी.आई. तथा पॉलिटेकनिक खोलने की व्यवस्था है जिससे कि इन समुदायों रोजगारोम्मुख शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित हो सकें, अल्पसंख्यकों को विभिन्न योजनाओं के लाभ पर्याप्त, निष्पक्ष रूप से सुलभ हो सकें तथा अल्पसंख्यकों से संबंधित निपटाने के लिए केन्द्रीय एवं राज्य स्तर पर सैलों की स्थापना करने की अपेक्षा की अतिरिक्त साम्प्रदायिक अपराधों के निवारण हेतु राज्य सरकारों को विशेष न्यायालयों करने की सलाह दी गई है और पीडितों को अनुग्रह राशि प्रदान करने की व्यवस्था न एवं व्यवस्था संबंधी कार्यों के लिए मिश्रित पुलिस बटालियनें बनाने की सलाह दी गई ।
यह निर्णय लिया गया है कि सभी चयन समितियों एवं भर्ती बोर्डों में अल्पसंख्यक समुदाय का होना चाहिए ताकि चयन प्रक्रिया में विश्वास उत्पन्न हो सके । धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं रखने एवं इनके हितों की रक्षा करनें के लिए भारत सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग किया है ।
भाषायी अल्पसंख्यको के आयुक्त की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया में अल्पसंख्यकों को दो वर्गों में विभाजित किया गया हैं- प्रथम, धार्मिक अल्पसंख्यक, भाषाई अल्पसंख्यक । सरकार इन्हे वे सभी सुविधाएं प्रदान करती है जिसके द्वारा धर्म तथा भाषा को सुरक्षित एवं जीवित रख सकें ।
एक सांस्कृतिक विविधता वाला देश है, इस दृष्टि से यहाँ बहुभाषी एव विभिन्न धर्मों रहते हैं । भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मों के लोग पाकिस्तान के निर्माण के पहले भी और बाद में भी भारत में बहुल मात्रा में मुसलमान निवास करते थे और करते हैं ।
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सन् 1991 की जनसंख्या के अनुसार, देश की कुल जनसंख्या का 12 प्रतिशत मुसलमान है । स्वाधीन भारत में मुसलमानों को न केवल कानून द्वारा समान अधिकार और संरक्षण की गारण्टी प्राप्त है बल्कि वे देश के महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में सक्रिय और प्रमुख भाग ले रहे हैं ।
दो प्रमुख मुस्लिम नेताओं स्वर्गीय डॉक्टर हुसैन और श्री फखरुद्दीन अली अहमद ने राष्ट्रपति पद के सर्वोच्च पद को सुशोभित किया । यह राष्ट्र द्वारा किसी भी नागरिक को दिया जाने वाला सबसे बडा सम्मान था । श्री हिदायतुल्ला उपराष्ट्रपति पद पर कार्य कर चुके है । सघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पद पर अनेक मुस्लिम व्यक्तित्व कार्य कर चुके हैं ।
हमारी वायुसेना के अध्यक्ष पद पर एयर चीफ मार्शल इदरिस हसन लतीफ कार्य कर चुके हैं । केन्द्र और राज्यों में अनेक मुस्लिम मंत्री सांसद, विधायक और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप मे कार्यरत है । 1989 में गठित राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार में मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमन्त्री के पद पर नियुक्त किया गया था ।
1991 में गठित कांग्रेस मंत्रिमंडल में भी कई कैबिनेट स्तर के तथा राज्य मत्री अल्पसंख्यक समुदायों से हैं । इसके उपरान्त भी भारतीय राजनीति में मुसलमानों की विविध समस्याएं एवं शिकायतें रही हैं जैसे, मुस्लिम सम्पद्राय विधानमंडल में अपने प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की नियुक्ति आदि के सम्बंध में असन्तुष्ट रहा है, देश में समय-समय पर साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं ।
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इससे मुसलमानों मे बहुमत समुदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना विकसित हुई है । मुसलमानों द्वारा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का स्थान दिये जाने की मांग बार-बार की जाती रही है । कुछ राजनीतिक दलों ने यह प्रचार किया कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है जिससे उर्दू का सवाल एक साम्प्रदायिक सवाल बन गया । अलीगढ़ विश्वविद्यालय का मामला भी विवादास्पद विषय रहा है ।
इसके अतिरिक्त भारत सरकार समाज सुधार की दृष्टि से मुसलमानों के पर्सनल ली में कुछ परिवर्तन करना चाहती है । बहुविवाह, तलाक-पद्धति, आदि के विषय मे पर्सनल ली में कुछ परिवर्तन करने से ही मुस्लिम समुदाय का आधुमिकीकरण हो सकेगा ।
कट्टर मुसलमानो का कहना है कि उनका पर्सनल ली शरीयत पर आधारित हैं जिसमें परिवर्तन करना धर्म के प्रतिकूल है और स्वतन्त्रता के बाद भी मुसलमानों का कोई राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन सका है । भारत में ईसाई भी अल्पसंख्यक हैं । ईसाईयों की संख्या दक्षिण भारत और केरल में ज्यादा है । ईसाईयों का कोई राजनीतिक दल नहीं है । ईसाईयों ने राजनीति की अपेक्षा सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक गतिविधियो में अपने को लगा रखा है ।
एक अन्य अल्पसंख्यक वर्ग सिक्सों का है । सिक्सों को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल, संसद तथा विधानसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त है । पंजाबी भीषा को सविधान में मान्यता दी गई है । सेना, पुलिस एवं प्रशासन में भी सिक्सों का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक है । इनके अतिरिक्त भारत में भाषा के आधार पर भी अल्पसंख्यक हैं । यह धार्मिक अल्पसंख्यकों से भिन्न होते हैं ।
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बंगाली बोलने वालों में हिन्दू एवं मुसलमान दोनों पाये जाते हें । भाषा के आधार पर आध्र प्रदेश का निर्माण हुआ, गुजरात और महाराष्ट्र दो पृथक् राज्जो का निर्माण हुआ, 1966 में पंजाब का विभाजन हुआ । मद्रास में द्रमुक दल पृथक् द्रविड स्थान की मांग करने लगा, ।
सन् 1980 से असम सें चल रहा आन्दोलन भाषायी है । भारतीय संविधान में इन सभी के हितो के संरक्षण हेतु अनेक प्रावधान किए गए हैं फिर भी इन सभी की अनेक समस्यायें एवं शिकायते है जिन्हें पूरा करने के लिए भारतीय प्रयासरत हैं ।
इनके हितों की रक्षा के लिए अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया है जिसने सुझाव दिया है कि धर्म को राजनीति से पृथक् किया जाए एवं भाषायी अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभूमि में शिक्षा दी जाए आदि । संक्षेप में राष्ट्र-भाषा का विरोध और भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण भारतीय राजनीति को प्रभावित करते हैं ।
भारत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की संख्या 1981 की जनगणना के अनुसार, सम्पूर्ण जनसंख्या का 23.51 प्रतिशत अर्थात 10 करोड़ से अधिक है । इन दलित वर्गो के लोगों के साथ न केवल आर्थिक अपितु सामाजिक भेदभाव भी होता है ।
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इनके दुर्बल सामाजिक-आर्थिक स्तर की संविधान-निर्माताओं को पूर्ण जानकारी थी और इन्हें सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किये गए हैं । पंचवर्षीय योजनाओं में इन जातियों के कल्याण को राष्ट्रीय नीति का एक मुख्य लक्ष्य माना गया ।
वास्तव में ‘कल्याण’ का अर्थ दान’ से नहीं है । इन जातियों के उत्थान के बिना द्रेश तरक्की कर ही नहीं सकता । संविधान के नीति निदेशक तत्वों में यह प्रावधान रखा गया है कि ”राज्य जनता के दुर्बलतर वर्गो के, विशेषतयो अनुसूचित जातियो तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बंधी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा, सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करेगा ।”
संविधान के अनुसार अनुसूचित आदिम जातियों के उत्थान के लिए हाथ में ली गई परियोजनाओं के लिए भारत की संचित निधि से मूल तथा आवर्तक राशियाँ दी जा सकेंगी । अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की दशा जानने एवं उनके उत्थान के लिए विशेष पदाधिकारी तथा आयोग नियुक्त करने का भी प्रावधान है । इस वर्ग के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग का गठन किया गया है ।
इस आयोग को संवैधानिक दर्जा प्राप्त है और इसे दीवानी न्यायालय के अधिकार प्रदान किए गए हैं । यह आयोग अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों और सुरक्षा सम्बंधी मामलो पर नजर रखेगा । उनके हनन की जाँच करके दीवानी न्यायालय की तरह मुकदमे की सुनवाई करेगा और समय-समय पर इन जातियों के हितों की सुरक्षा के लिए उपाय सुझायेगा ।
अनुसूचित जातियों मे सामान्यत: वे जातियाँ सम्मिलित की गई हैं जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर एवं सामाजिक दृष्टि से अछूत समझी जाती रही हैं । ये जातियाँ पीढ़ियों से ही अमान्य एव अप्रिय काम-धन्धे करती आई हैं, जैसे-मल उठाना, झाडू देना, मृत पशु उठाना, चमड़ा उतारना तथा चर्मशोधन आदि ।
अनुसूचित आदिम जातियाँ वे जातियाँ हैं जो ऐसे क्षेत्रों में रह रही हैं जिनका भौतिक विकास नहीं हुआ है या जो घुमक्कड रही हैं, जैसे आदिवासी, भील आदि । पिछड़े वर्गो मे वे जातियाँ आती हैं जो अनुसूचित जातियाँ नहीं थीं, किन्तु अन्य जातियों से पिछडी हुई थी, जो शून्य थी वरन अछूत नहीं, जैसे नाई, बढई, आदि को पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया ।
राजनीति कोष के अनुसार ‘पिछडे हुए वर्गो का अभिप्राय समाज के उस वर्ग से है जो आर्थिक, सामाजिक, तथा शेक्षिक निर्योग्यताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों की तुलना में नीचे स्तर पर हैं ।’ पिछड़े वर्गो में इन जातियों के साथ-साथ कुछ वर्ग जैसे महिलाएं, अनाथ, भिखारी, आदि भी शामिल किए गए हैं । ‘अशक्त वर्ग’ अथवा दुर्बलतर वर्गो’ में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित आदिम जातियों के अतिरिक्त कुछ अन्य वर्गो को सम्मिलित किया गया है ।
रेणुका अध्ययन दल ने निम्नलिखित प्रकार के वर्गो को इसमें शामिल करने का सुझाव दिया है-बहुत कम भूमि वाले किसान, भूमिहीन मजदूर, बहुत छोटे दस्तकार, अनुसूचित जातियां, उच्च जाति के गरीब, महिलाएं, असहाय लोग जैसे-विधवाएं, अनाथ, वृद्ध, बेरोजगार आदि ।
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पिछड़े वर्गो की घोषणा करते समय सरकारों ने स्थिति को काफी अस्पष्ट कर दिया है । उदाहरणार्थ, उत्तर प्रदेश सरकार ने नातियों को अनुसूचित जातियों के अन्तर्गत रखा है । इनमें अनेक जातियाँ ऐसी हैं जो जनसाधारण में इन नामों से नहीं जानी जाती तथा एक घति के पर्याय या उपजाति के नाम भी रख दिये गए हैं, जैसे बलाई, वाल्मीकि, चमार आदि ।
पिछड़े वर्गो में 3700 जातियों को रखा गया है । इनमें अनेक ऐसी जातियाँ है जिन्हें सामान्य ग्रामीण से किसी भी दृष्टि से पृथक् नहीं किया जा सकता जेसे अहीर, गूजर, हलवाई, दर्जी, माली, तार, सुनार, जोगी आदि । सम्भवत: अनेक जातियों को राजनीतिक कारणों से शामिल किया है तथा उनका हटाया जाना कठिन है । भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के हितों के संरक्षण के लिए पर्याप्त वेधाओं एवं आरक्षण की व्यवस्था की गई है ।
संविधान के अनुच्छेद 17 में छुआछूत को समाप्त -या गया है और किसी भी प्रकार से छुआछूत का व्यवहार करना दण्डनीय अपराध घोषित किया पा है । हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दू समाज के सभी वर्गो के लिए खोल दिया गया ।
हिन्दू संस्थाओं के अन्तर्गत यहाँ सिक्ख, जैन और बौद्ध समुदायों की संस्थाएँ भी सम्मिलित । इनके लिए लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में विशेष स्थान आरक्षित हैं । जनजातियों की रक्षा और लाभ के लिए साधारण नागरिकों द्वारा जनजाति क्षेत्रों में बसने तथा सम्पत्ति खरीदने प्रतिबंध लगाए गये है ।
अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए सेवाओं में ‘दावों’ की यवस्था अनुच्छेद 335 के अन्तर्गत हे । संविधान में इन दावों को आरक्षण के नाम से जाना जाता हे जिसके अन्तर्गत सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किये गए हैं, विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दिये जाने, निःशुल्क शिक्षा देने तथा प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं में स्थान रखने के प्रावधान किए गए हैं ।
यह कहना असत्य एवं गलत नहीं होगा कि भारत में आरक्षण की संवैधानिक नीति राजनीति का शिकार हुई है । सत्तारूढ़ दल आरक्षण की नीति को अनवरत चालू रखकर जहाँ एक ओर अपने वोट बैंक तैयार करने में लगा रहता है वहीं दूसरी ओर आरक्षण का लाभ अर्जित करने वाले समुदाय संगठित होकर आरक्षण के निरन्तर बढाये रखने हेतु लाबीइंग तथा राजनीतिक सौदेबाजी करने में लगे हैं ।
दूसरी तरफ समाज की उच्च जातियाँ भी आरक्षण की नीति के विरुद्ध संगठित होकर आन्दोलन के मार्ग पर चलने में ही अपना हित देखती हैं । राजनीति में अनुसूचइत जातियों के हितो की रक्षा के लिए डॉक्टर अम्बेडकर ने ‘अनुसूचित जाति परिसंघ’ की स्थापना की थी ।
इसका लक्ष्य अनुसूचित जातियों के राजनीतिक आन्दोलन को आगे बढाना था और यह देखना था कि संविधान में लिखित आरक्षण के प्रावधानों का समुचित प्रकार से क्रियान्वयन किया जाए । सन 1952 में परिसघ ने चुनावों में भाग लिया । यद्यपि चुनावों में इसे विशेष सफलता नहीं मिली, परन्तु इसके बाद अम्बेडकर ने परिसघ को एक ऐसे दल के रूप मे परिवर्तित करने का प्रयास किया जो समस्त दलितों, जैसे-अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गो का प्रवक्ता हो ।
इनकी राजनीतिक भूमिका को इन तथ्यी द्वारा दर्शाया जा सकता है; प्रथम, भारतीय राजनीति में इनकी सहभागिता, सक्रियता, उच्च राजनीतिक पदों पर नियुक्तियों आदि यह बताती है कि देश की राजनीति में इनकी भूमिका निरन्तर बढ रही हैं ।
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द्वितीय, इन्हें आरक्षण और संवैधानिक रियायतें प्राप्त होने से, ये लोग राजनीति एवं प्रशासकीय स्तर पर ऊँची जातियों के लोगों से प्रतिस्पर्धा करने की आकांक्षाएं रखने लगे हैं । तृतीय, कहीं-कहीं आदिम जातियों में पृथकता और अलगाव की प्रवृत्ति पायी जाती है । चतुर्थ, आरक्षण के परिणामस्वरूप इनका राजनीति में बोलबाला बढा है । स्वाधीनता के पश्चात् इन जातियों द्वारा निर्मित दबाव गुटों का अपना विशेष महत्व है ।
जिलास्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक इनके संगठन पाए जाते हैं । इन्हीं संगठनों के सगठित प्रयासों एवं मांगों के परिणामस्वरूप आरक्षण की अवधि 2000 ई. तक बढा दी गई है । पंचम, देश की राजनीति में आम चुनावों के समय ये संगठित भूमिका का निर्वाह करते हैं । षष्ठम, भारतीय राजनीति में ये सन्तुलनकर्ता की भूमिका निभाते हैं । जिस दल को चुनावों में इनका समर्थन मिल जाता है उसकी राजनीतिक स्थिति काफी मजबूत हो जाती है ।
सप्तम्, जब आरक्षण का दायरा बढाने की बात आती है तो सभी राजनीतिक दल इसका समर्थन करते हैं मगर इसके दुरुपयोग की बात उठने पर सब चुप्पी साध लेते हैं । आरक्षण हमेशा से वोट बटोरने का हथकंडा रहा है, लेकिन व्यवस्था में सुधार की कोशिश कभी नहीं की गई । अत: आरक्षण की नीति राजनीति से प्रेरित होती जा रही है ।
निष्कर्षत:
अल्पसंख्यक एवं अनुसूचित जातियाँ एवं जनजातियाँ राजनीतिक स्तर पर एक विशिष्ट वर्ग बन गए हैं । आर्थिक आरक्षण एवं राजनीतिक आरक्षण दोनों को अलग-अलग करना होगा । अर्थात् दो सूचियां बनानी चाहियें एक, आर्थिक आरक्षण के लिए और दूसरी, राजनीतिक आरक्षण के लिए । तभी हम समाज के सभी वर्गो के साथ न्याय कर सकेंगे ।
आवश्यकता इस बात की है कि आरक्षण के समस्त प्रश्नों पर दलीय राजनीति और चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर विचार किया जाये और इस सम्बंध में राष्ट्रीय सहमति पर आधारित नीति बनायी जाये । क्या ऐसा हो पाऐगा आज के वातावरण को देखते हुये इसमें सन्देह अवश्य है ।