नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य पर निबंध | Essay on Rights and Duties of Citizens in Hindi!

सामान्य रूप में ‘नागरिक’ शब्द का अर्थ है- नगर-निवासी, किंतु अब ‘नागरिक’ शब्द अपना विशिष्ट अर्थ रखता है । नागरिक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं, चाहे वे ग्रामवासी हों या नगरवासी ।

प्राचीनकाल में यूनान तथा रोम में ‘नागरिक’ शब्द का प्रयोग उन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए होता था, जिन्हें संपूर्ण अधिकार प्राप्त होते थे । प्राचीन रोम और यूनान की सभ्यता में दासप्रथा के अनेक घृणित उदाहरण पर्याप्त रूप में मिलते हैं ।

दास बनाए हुए इन व्यक्तियों को वे लोग अपने समान अधिकार कदापि नहीं दे सकते थे । हालाँकि ये दास यद्यपि उसी भूभाग में, उसी राज्य की छत्रच्छाया में रहते थे, परंतु उन्हें रोम के स्वतंत्र नागरिकों के ममान कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे ।

कालांतर में ‘नागरिक’ शब्द का अर्थ परिवर्तित हो गया, जिसे एक विद्वान् ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- ”केवल राज्य में रहने भर से मनुष्य नागरिक नहीं बन सकता । नागरिक बनने के लिए यह आवश्यक है कि उसे अधिकार प्राप्त हों तथा उसके कर्तव्य हों ।” जो व्यक्ति राजद्रोही, अपराधी, दंडित, पागल, दिवालिया है उसे नागरिक के अधिकार प्राप्त नहीं होते ।

हमारे संविधान में प्रत्येक नागरिक को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए राज्य की ओर से राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही स्वतंत्रता यदि स्वच्छंदता में परिणत हो जाए तो यह जन- समुदाय के लिए घातक सिद्ध होगी । नागरिकों को अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है ।

मुख्यत: प्रत्येक राज्य में चार प्रकार के नागरिक होते हैं:

१. अल्पवयस्क नागरिक,

२. मताधिकार-प्राप्त वयस्क नागरिक,

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३. मताधिकार से वंचित वयस्क नागरिक,

४. नागरिकता प्राप्त किए हुए नागरिक ।

नागरिकों की उन्नति का उत्तरदायित्व स्वयं नागरिकों पर ही है । नागरिक-जीवन में राज्य की ओर से हमें नागरिक स्वतंत्रता प्राप्त है । नागरिकों को भाषण देने और लेख लिखने की पूर्ण स्वतंत्रता है, साथ ही नागरिकों का कर्तव्य है कि ऐसे लेख तथा ऐसे भाषण न दें, जिनसे जनता में सांप्रदायिकता और धार्मिक भावनाएँ भड़क उठें ।

नागरिक-जीवन का प्रथम चरण है- सहयोग; अर्थात् मनुष्य समाज में किस प्रकार अधिक-से-अधिक शांतिपूर्ण अवस्था में रहकर अपनी उन्नति करता जाए । यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या करने की चेष्टा करता है तो राज्य का कर्तव्य है कि ऐसे व्यक्ति को उसके अपराध का उचित दंड दे ।

राज्य का कार्य सुव्यवस्था स्थापित करना है । अच्छे नागरिक को चाहिए कि वह निष्पक्ष, निर्लोभी और सहिष्णु हो, तभी वह समाज की सच्ची सेवा कर सकता है । उसे अपने दायित्व का अनुभव करना चाहिए कि उसके समुदाय, समाज, देश तथा राष्ट्र के प्रति क्या कर्तव्य हैं । वह ऐसा कोई भी कार्य न करे, जो जनहित के विरुद्ध हो ।

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नागरिक-जीवन हमें सहयोग का पाठ पढ़ाता है । सभ्यना के प्रारंभिक काल में भी मनुष्य ने अपनी सुरक्षा और आवश्यकता के हेतु काफिले बनाए थे । अकेला वह तब भी नहीं रह सका था । आज सभ्यता ने जब मनुष्य को समस्त सुख और शांतिमय जीवन का आश्वासन दिया है तब तो उसके प्रति हमारे कुछ निश्चित कर्त्तव्य भी हैं, जिनका पालन करना नितांत आवश्यक है । राज्य की ओर से हमें विशिष्ट अधिकार प्राप्त है, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है- शांति और सुरक्षा का अधिकार ।

राज्य का कर्तव्य है- चोर, डाकुओं तथा असामाजिक तत्त्वों से हमारी रक्षा करना । इसलिए सरकार की ओर से सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए पुलिस नियुक्त होती है । बाह्य आक्रमणों से देश की रक्षा होना आवश्यक है । यदि कोई मनुष्य दूसरे को व्यर्थ ही हानि पहुँचाने की चेष्टा करे, मारे-पीटे, हत्या करे तो इन सब अपराधों का दंड राज्य की ओर से उक्त व्यक्ति को देना आवश्यक है; क्योंकि वह सामाजिक जीवन की शांति-सुव्यवस्था को भंग करता है । इस सुव्यवस्था को बनाए रखने के लिए राज्य न्यायालयों की व्यवस्था करता है, जिसमें व्यक्ति के समस्त अपराधों का उचित दंड निश्चित किया जाता है ।

नागरिक जीवन में मेल-जोल की बहुत आवश्यकता है, इसीलिए सरकार समस्त संप्रदायों में शांति स्थापित करने की पूर्ण चेष्टा करती है । राज्य हमारी जान-माल की रक्षा करता है । नागरिक जीवन में हमें अनेक सुविधाएँ राज्य की ओर से प्राप्त हैं । जब कोई नागरिक इतने अधिकारों का भोग करता है तो उसके कुछ कर्तव्य भी हैं, जिन्हें उसे पूरा करना चाहिए ।

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अपने कर्तव्यों का पालन करके ही नागरिक सुख-संपन्न हो सकते हैं । आर्थिक स्वतंत्रता के नाते हमें यह अधिकार प्राप्त है कि हम जिस व्यवसाय को अपनाना चाहें, अपनाएँ । बाहरी देशों से व्यापार करने की स्वतंत्रता है, लेकिन हमें इस प्रकार का कोई भी कार्य करने की राज्य अनुमति नहीं देगा, जो देश की भलाई और प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो ।

प्रत्येक नागरिक को शांतिपूर्वक वैयक्तिक विकास करने का अधिकार है । हम जिस धर्म को अपनाना चाहें, अपनाएँ । धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है । वह जिस देवी-देवता की उपासना करना चाहे, करे । किंतु सामाजिक जीवन को शांतिमय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार हो । अच्छे नागरिक को समस्त सांप्रदायिक वैमनस्यों और भेदभावों को भुला देना चाहिए ।

भारतवर्ष में जाति-प्रथा के जटिल हो जाने के साथ धार्मिक मान्यताओं के बंधन जकड़ते गए । शूद्र मंदिर में उपासना नहीं कर सकते थे । छुआछूत ने मानव को मानव से दूर कर दिया था । कबीर से लेकर दयानंद, महात्मा गांधी आदि समाज-सुधारकों ने समाज से छुआछृत की प्रथा को उखाड़ फेंकने का भरसक प्रयास किया । उनके उपदेशों ने सामाजिक जीवन में सहिष्णुता उत्पन्न कर दी, जिसके फलस्वरूप ऊँच-नीच और छुआछूत के जटिल बंधन बहुत कुछ ढीले पड़े । वह समय निकट ही है जब मानव मानवता के नाते समान गिना जाएगा ।

नागरिकों को राज्य की ओर से भाषण करने की स्वतंत्रता है, किंतु उनका कर्तव्य है कि वे इस अधिकार का दुरुपयोग न करें । वे ऐसे भाषण न दें, जो जनहित और राष्ट्रहित के विरुद्ध हों और सांप्रदायिक वैमनस्य को उभारें । सभाएँ करने और एकत्र होने का अधिकार राज्य की ओर से प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है, किंतु गुप्त षड़यंत्रकारी सभाएं करने का अधिकार नहीं है । नागरिक जीवन में राज्य प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता का समान अधिकार देता है, परंतु उसका दुरुपयोग वह कदापि सहन नहीं कर सकता ।

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भारत सरकार ने पिछड़ी अशिक्षित जातियों को शिक्षित करने का विशेष प्रबंध किया है । उनके लिए गाँवों में स्कूल खोले गए हैं । ऐसे चलचित्रों का निर्माण कराया गया है, जिनसे वे सरलता से शिक्षा ग्रहण कर सकें । सरकार ने साक्षरता भवन भी बनवाए हैं । राज्य अपने नागरिकों को अधिक-से-अधिक सुख पहुँचाने की चेष्टा करता है । वह नागरिकों को अपने संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करने का अवसर प्रदान करता है ।

देश के समस्त नागरिकों का जीवन समुन्नत बनाने के लिए यह आवश्यक है कि देश में पूर्णरूप से शांति और सुव्यवस्था रहे । इसलिए पारस्परिक समानता का व्यवहार होना भी अत्यंत अपेक्षित है । कानून की दृष्टि में अमीर और गरीब-सब समान हैं । जो दोषी है, उसे दंड का भागी होना पड़ेगा ।

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न्यायालय के समक्ष जब अपराध प्रमाणित हो जाता है तब उसी के अनुमए नम अपराधी को दंड दिया जाता है । दंड-विधान का एकमात्र उद्‌देश्य नागरिक जीवन की सुरक्षा करता रहा है । कानून का कठोर होना आवश्यक है, तभी अपराधों की संख्या कम हो सकती है ।

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सभी नागरिकों को स्वतंत्र रूप में अपना मत देने का अधिकार प्राप्त है, जिसे ‘मताधिकार’ कहते हैं । नागरिकों को चाहिए कि वे ऐसे सुयोग्य व्यक्तियों को अपना मत प्रदान करें, जो देश की कल्याण-भावना को अपनी दृष्टि में रखकर कार्य कर सके । तभी देश की वास्तविक भलाई हो सकती है ।

सामूहिक जीवन तभी शांतिमय बन सकता है, जबकि प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्य को भलीभाँति समझे, राज्य के समस्त विधानों का उचित रूप से पालन करे, ठीक समय पर ‘कर’ चुकाए । साथ ही किसी भी राष्ट्र के नागरिक को निष्पक्ष, निर्लोभी, स्वावलंबी, मितव्ययी और आत्मनिर्भर होना आवश्यक है । अच्छे नागरिक बनने में कुछ बाधाएँ हैं, जो कुछ लोगों में पाई जाती हैं । ये बाधाएँ- आलस्य, स्वार्थपरता, अज्ञान, अकर्मण्यता, सांप्रदायिकता इत्यादि हैं ।

यदि कोई नागरिक पूँजीपति है और दीन-हीन मजदूरों के शोषण में व्यस्त है तो यह भी उसको अच्छे नागरिक बनने में घातक सिद्ध होगा । गुटबंदी, दलबंदी आदि दोष सामाजिक एकता और सुव्यवस्था में बाधक सिद्ध हुए हैं । किसी भी देश में जब भी सांप्रदायिक झगड़े होते हैं, तो देश के नागरिकों का जीवन दुःखमय हो जाता है ।

इस प्रकार प्रत्येक नागरिक को इन बुराइयों को दूर करने का सतत प्रयास करना चाहिए । निष्कर्ष यह है कि नागरिकों में अपने अधिकारों के प्रति जितनी सजगता होती है उसी के अनुरूप यदि वे अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक रहें तो देश और समाज का कल्याण निश्चित है ।

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