लोक-संस्कृति की अवधारणा पर निबन्ध | Essay on The Concept of Folk Culture in Hindi!
किसी देश की लोक-संस्कृति का महत्त्व उस देश के जीवन में निर्विवाद है । उसका अपना स्वतंत्र प्रवाह होता है, जो निरंतर प्रभावित हुआ करता है और जो बड़ी कठिनता और युगों के प्रयत्न से किंचित् परिवर्तित किया जा सकता है ।
उसमें स्थायित्व का तत्त्व अधिक होता है और परिवर्तनशीलता की प्रवृत्ति बहुते कम । लोक-संस्कृति लोक अर्थात् जनसामान्य की संपत्ति होती है । समाज का अधिक शिक्षित वर्ग अपनी ऊँची संस्कृति के नशे में शीघ्रता से आगे बढ़ता जाता है और वह परिवर्तन के चक्कर में भी अधिक रहता है ।
संस्कृति के क्षेत्र में भी उसे प्रयोग करना अच्छा लगता है, जिसका अवश्यंभावी परिणाम संस्कृति का शीघ्रता से रूप-परिवर्तन होता है, पर लोक-संस्कृति का प्रभाव मंद होता है, साथ ही निरंतरता को स्थायित्व देनेवाला भी । महाकवि से आरंभ करके हमारे साहित्य में, जो संस्कृति का एक प्रमुख विधायक अंग है, अब तक जाने कितने प्रयोग हो चुके हैं ।
यह उच्चवर्ग की संस्कृति का उदाहरण हुआ, पर लोक-संस्कृति का विधायक अंग, ग्रामगीत न्यूनाधिक अब भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है । उसकी विषय वस्तु में कम-से-कम परिवर्तन दिखाई देता है । उसकी भाव- भूमि अब भी वहीं है, जो शताब्दियों पहले थी । लोक-संस्कृति पर सभ्यता का आवरण नहीं चढ़ा होता ।
‘नागरिक’ संस्कृति पहले अपने छद्म वेश के कारण अधिक आकर्षक हो सकती है, जैसे-वस्त्रभूषण, अलक्तक राग और लिपस्टिक से अलंकृत आधुनिक नारी पर इससे वास्तविक सौंदर्यान्वेषी और रूप-पारखी के लिए मैली धोती में लिपटी रूप और यौवन के उमंग से भोली-भाली ग्रामबाला-सरीखी लोक-संस्कृति का आकर्षण कम नहीं हो जाता ।
उसका सहज, सरल और अकृत्रिम रूप-माधुर्य अपने सम्मोहनकारी प्रभाव से सहृदयी को रससिक्त बनाए बिना नहीं रहता । सभ्यता और संस्कृति का भेद स्पष्ट है । संस्कृति किसी देश और जाति की आध्यात्मिक धार्मिक, साहित्यिक और बौद्धिक साधना का फल होती है । उसका वास्तविक संबंध जीवन की आंतरिक आवश्यकताओं से है; सभ्यता बाह्य प्रयतनों का फल है और बाह्य आवश्यकताओं की पूर्ति में ही उसकी सफलता है ।
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आज पश्चिम के देश अपनी सभ्यता पर गर्व करते हैं । यह उचित ही है, क्योंकि अपने बाह्य प्रयत्नों के फलस्वरूप उन्होंने भौतिक सुख-सुविधा और विलास की सभी सामग्री एकत्र कर ली हैं, लेकिन यह कहना गलत होगा कि पश्चिम के देश संस्कृति के क्षेत्र में भी आगे बड़े ।
सच तो यह है कि आज का सभ्यताभिमानी पश्चिमी जागर, अपनी सांस्कृतिक प्रेरणाओं के लिए या तो पुरातन यूनान और रोम का मुखापेक्षी होता है या प्राचीन भारतीय संस्कृति का गुण गानकर अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाता है ।
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सभ्यता और संस्कृति के अंतर की भाति ‘नागरिक संस्कृति’ और ‘लोक-संस्कृति’ का अंतर भी समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए । हर समाज में दो तरह के लोग होते हैं-शिक्षित वर्ग और अशिक्षित वर्ग । शिक्षित वर्ग के हाथ में अधिकार होता है, वह समाज का नेतृत्व करता है, जैसे-राजनीति का सूत्र उसके हाथ में रहता है, वैसे ही कला और साहित्य के सृजन में भी वह आगे रहता है ।
भाषा, साहित्य, संगीत, नृत्य आदि का मानदंड उसी के हाथों निर्धारित होता है । इतिहास उसी की कृतियों के आधार पर तत्कालीन समाज का मूल्यांकन करता है । आदिकाल से ऐसा होता आया है और आज में यही हो रहा है तथा भविष्य में भी ऐसा ही होगा । शिक्षित वर्ग की तुलना में समाज का अशिक्षित वर्ग मूक अथवा कम मुखर होता है । सचमुच, वह शासित वर्ग द्वारा शोषित वर्ग होता है । उससे आशा की जाती है कि वह शिक्षित और सभ्य-वर्ग का अनुसरण करे ।
इसमें संदेह नहीं कि अशिक्षित वर्ग को बहुत अंशों में ऐसा करना पड़ता है, परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि वह अपनी सत्ता शत-प्रतिशत खो भी नहीं देता । उसकी अपनी स्वतंत्र दुनिया भी होती है । साहित्यिक भाषा को न समझ सकने के कारण वह अपनी बोली में लोकगीत रचता है और उन्हीं को गाकर अपने मन को संतुष्ट करता है । शिष्ट नृत्य की मुद्राओं और भावभंगिमाओं का आनंद वह नहीं ले पाता तो लोकनृत्य की नई अनगढ़ शैली को विकसित करता है ।
शास्त्रीय संगीत का राग-रागिनियों के सूक्ष्म भेदों का आनंद-स्पर्श उसे नहीं प्राप्त होता, तब वह बिरहा, चैता, फगुआ, चौताल जैसे मुक्त सुरों का आविष्कार कर डालता है । इस प्रकार शिक्षित वर्ग से भिन्न संस्कृति का विकास अशिक्षित वर्ग द्वारा होता है । उसे ही हम ‘लोक-संस्कृति’ कहते हैं । संख्या की दृष्टि से देखें तो लोक-संस्कृति का यह नाम बड़ा ही समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि लोक अथवा समाज का जितना प्रतिनिधित्व यह करती है उतना ‘नागरिक संस्कृति’ नहीं ।
यह बात अवश्य है कि लोक-संस्कृति का क्षेत्र कम व्यापक और सीमित होता है । किसी देश की नागरिक संस्कृति केवल एक होती है जबकि देश के विभिन्न भागों की लोक-संस्कृतियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । वैदिक काल से लेकर अब तक पूरा संस्कृत वाड्मय और मध्यकालीन तथा आधुनिक शिष्ट साहित्य, दार्शनिक चिंतन, आध्यात्मिक तथा धार्मिक साधना, ललित कलाओं के क्षेत्र की विविध उपलब्धियों समष्टि रूप में भारतीय संस्कृति के नाम से अभिहित होती हैं पर लोक-संस्कृति के नाम पर हर प्रादेशिक क्षेत्र की अपनी विशेषताएँ हैं । उनके गीत उनकी लोककथाएँ उनकी नृत्य-शैली, सबमें भिन्नता मिलेगी ।
जब से हमारा देश स्वतंत्र हुआ है तब से हमारे जातीय जीवन के उपेक्षित अंग फिर से मान्यता प्राप्त करने लगे हैं । उनके पुनरुद्धार, विस्तार और संरक्षण के प्रयत्न राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं । इन चिर-उपेक्षित अंगों में ‘लोक-संस्कृति’ भी एक है ।
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आजकल, लोक-संस्कृति का प्रदर्शन लज्जा की बात नहीं समझी जाती, पर कुछ ही समय पहले यह असभ्यता, पिछड़ापन, गँवारपन और यहाँ तक कि फूहड़पन का विषय मानी जाती थी । तब अधिक ‘उन्नत’ और अधिक ‘सभ्य’ समाज में ‘पॉप म्यूजिक’ का प्रचलन था; यूरोपीय संगीत का सम्मान था और यदि बहुत नीचे उतरें तो कथकली या मणिपुरी नृत्य देख लिया और यदि भारतीय संगीत सुनना ही है तो शास्त्रीय संगीत सुन लिया ।
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आज स्थिति बदल गई है । स्थिति यह है कि कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ‘लोक-संस्कृति’ के अभाव में सफल नहीं समझा जाता । हमारे सबसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व ‘गणतंत्र दिवस’ के समारोह का मुख्य आकर्षण उसमें प्रदर्शित लोक-संस्कृतियों की अनुपम झांकियाँ ही होती हैं, जिन्हें देखने के लिए विदेशों के सत्ताधारी भी खिंचकर चले आते हैं ।
सभ्य समाज से दूर जंगलों में वास करनेवाली आदिम जातियों की ‘संस्कृति’ को भी अब स्वीकार किया जाने लगा है । क्यों न हो ? उनकी भी युगों-युगों की साधनाएँ और उपलब्धियाँ हैं- उनकी भी विशेषताएँ हैं और जो ‘भारत-भारती’ के भंडार के अभिन्न अंग के रूप में पहचानी जाने लगी हैं ।
इधर, कुछ समय से लोक-संस्कृति की चर्चा अधिक होने लगी है । इस विषय पर आए दिन पुस्तकें देखने को मिलती हैं और कई स्थानों में लोक-संस्कृति शोध संस्थान भी स्थापित हो गए हैं । एक अर्थ में ऐसी जागृति शुभ है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप हमारे ग्रामीण शिक्षित समाज की कलाकृतियाँ प्रकाश में आएँगी और उसके माध्यम से हम उस समाज का वास्तविक जीवन देख सकेंगे ।
हाँ, इसमें एक खतरा भी है । लोक-संस्कृति पर अधिक बल देने से प्रादेशिकता या स्थानीयता की भावना को प्रश्रय मिल सकता है, जो भावात्मक एकीकरण के कार्य में लगे हुए देश के लिए घातक होगा । इसलिए देश का कल्याण इसी में है कि लोक-संस्कृति का मान करते हुए उसके संरक्षण का प्रयत्न करते हुए भी हम उसके महत्त्व को अतिरंजित न होने दें ।