वैश्वीकरण एवं भारतीय संस्कृति पर निबंध | Essay on Globalization of Indian Culture in Hindi!

चिंतक, विवेचक तथा अध्येताजन हमेशा संकटापन्न स्थितियों का उल्लेख करते हैं । कभी-कभी तो विषय को वे आसमान तक पहुंचा देते हैं कि उसे धरती की ओर लौटने की जरूरत महसूस होती है ।

वैश्विक धरातल के खतरों का विषय भी ऐसा है, जिस पर कई तरह से विचार किया जा सकता है । साहित्य और संस्कृति पर संवेदना के स्तर के ही संकट मंडराया करते हैं । जब लिपि का प्रचलन आरंभ हुआ, तो उसे अक्षर के क्षरण से जोड़ दिया गया ।

सृजन को स्वान्त: सुखाय सिद्ध करने वाले शायद मानते होंगे कि अगर लिपि में अंकित होकर यह सर्वसुलभ बनने वाला है, तो निश्चय ही किसी तरह का संकट पैदा होगा । क्योंकि उस वक्त केवल इतना ही पर्याप्त था कि कह दिया, तो लक्ष्य संपन्न हुआ । अधिक से अधिक किसी ग्रथ की आवश्यकता प्रतीत हुई, तो हाथ से नकल कर प्रतिलिपि कर दी गयी ।

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आधुनिक दुनियां तक आते-आते मनुष्य ज्ञान और शास्त्र के इस महत्व से परिचित हुआ कि उसे दूर तक जाना चाहिए, ताकि मूल रूप में वह ज्ञान या शास्त्र अपनी मौलिक अवधारणाओं को विकसित कर सके और उसकी नयी शाखाओं को पल्लवित कर सके ।

परतु कुछेक जनों को यह साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में संकट का आगमन लगा । सकीर्णतावादियों को महसूस होने वाले संकट किसी दूसरे उद्देश्य से पनपते हैं । ऐसा ही तब संकट बार-बार दिखाई देते हैं, लेकिन तहजीब और अदब अपनी जगह रहे ।

ज्ञान के क्षेत्र में एक अल्पसंख्य जब-जब साहित्य प्रेमियों के बीच किसी बहस या विवाद को जन्म देती है, तब-तब वह फैलती है । ऐसा सौभाग्य बहुत कम कृतियों को मिलता है । स्पष्ट है ज्ञान चर्चाओं को एक स्थान मिला हुआ है । परंतु जैसे ही कोई भाव, विचार या प्रकरण लोकप्रिय सांस्कृतिक आचरणों में ढलने लगता है, वह विश्व भर में फैल जाता है । ‘पॉपुलर कल्वर’ की यह देन है । एक बुलमरियाई शायरा की पंक्तियों का उल्लेख संगत होगा । उनका कथन है, ‘क्या हम आंधियों को रोक सकते हैं? सचमुच हवा को रोकना दुष्कर है ।

भारत की सांस्कृतिक शक्ति लोगों को आकर्षित करती है । सिंकदर पूरब की ओर आया, तो उसने राज कायम कर लौटने का रास्ता पकड़ा । बाबर आया, तो वह भी लौटने की तैयारी में था । फिर भी उसे भारत ने आकर्षित किया । भारत में पश्चिम के लोग अपने लिए बेहद शांतिप्रिय बसेरा पाते हैं । निकोलोई-श्वेतास्लाव रोसिख, नारा रिचर्ड, एन्क्रेड बुर्फल ऐसे अनेक नामी गिरामी लोगों ने, जो बीसवी शताब्दी में ऊचाईयों पर पहुँचे, बिना किसी संकोच के भारत को अपना घर बनाया ।

सरला बहन और मीरा बहन गांधी जी की दो शिष्याएं हैं । मीरा बहन ने पक्षी कुंज में अपना निवास बनाया था, जहा से वह हर समय हिमालय की बर्फ से लदी चोटियां देखती थी । मुंबई शहर में एक जर्मन विद्वान लाइफर ने आवास चुना ।

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भारतीय संस्कृति अपनी शक्ति उस वैविध्य से पाती है, जिसे मोटे तौर पर हम बहुलतावाद के रूप में देखते हैं । तथापि वैविध्य में गुणसूत्रों में जो लोकव्यापी होने का सामर्थ्य रखता है, वही तत्व संस्कृति का जीवनदायी तत्व निर्धारित हो जाता है ।

यानी भारतीय संस्कृति को सजीव और सक्रिय रखने की प्रक्रिया के भीतर गुणों को आत्मसात कर अपना बनाने की जो प्रवृति है, यही वह मूल बिंदु है, जिसका बोध कर हम आसानी से कह भी सकते हैं कि भारतीय संस्कृति वैश्वीकरण, विश्व बाजार या नयी प्रौद्योगिकी से जन्में कुल-पुर्जों के अति उपयोगकर्ता सभ्यता के हमले भी झेल लेगी ।

एक विचित्र-सी चीज भारतीय संस्कृति के पास है । वह है इसकी अविभाज्यता । आप संस्कृति को काट नहीं सकते । आप कला को नहीं हटा सकते । कविता को अलग नहीं कर सकते । यहां तक कि निर्गुण और सगुण को नहीं काट सकते । कम से कम भारतीय संस्कृति के संदर्भ में तो यह सच है । भौगोलिक या क्षेत्रीय विशेषताओं में उसे सीमित कर सकते हैं, किंतु उसकी भारतीय उपमहाद्वीपीय विस्तृति से आप उसे अलग नहीं कर सकते । हमें पश्चिम ने उपनिवेश बनाया । आज खतरा है कि हम कहीं आर्थिक रूप से तो उपनिवेश नहीं बनने वाले हैं ।

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भारतीय जनों के पास कोई न कोई कला तो है कि वे बड़े-बड़ों को अपनी छोटी-सी बात से पटखनी दे देते हैं । दुनिया की बड़ी-बड़ी फैक्टरियां कोई उत्पाद नहीं बनाती हैं, जो विज्ञापन के जरिए ग्लोबल या वैश्विक हो जाती है । हमारे यहा बहुत-सी चीजें हैं, जो विज्ञापित होने से पहले वैश्विक हो जाती हैं ।

योग, प्राणायाम या ध्यान से ध्यान हटाकर हम अगर डागर भाइयों को याद करेंजो संगीत साधना कर रहे थे । उसे लोग अभिजन की कला समझा रहे थे । डागर भाई साधना में थे । कहते थे, भाई, हम तो रियाज कर रहे हैं, जब पूर्णता मिल जायेगी, तो पेश कर देंगे । वे अपने रियाज में ही ग्लोबल हो गये । मानते हैं, हमारे भीतरी और बाहरी सकट हैं ।

यह चिंता वाजिब है कि इतनी बडी जनसंख्या के लिए किस किस्म की योजनाएं बनाएं कि सबका भरण-पोषण हो सके । पर अब लोग मानने लगे हैं कि ग्लोबल होने के फायदे में ज्यादा होना भी फायदेमंद है क्योंकि पूरे विश्व के लिए कोई चीज पैदा करनी हो, तो उसे भेजने, तैयार करने, हिसाब रखने में लोग तो काम आएंगे ही । आने वाले कल में ये सब लोग एक मुनाफेदार काम पर लगे होंगे । उलटे, अब लोग भारत से डरने लगे हैं कि जो भी काम होगा, उसमें भारतीय लोग खपेंगे ।

संकट की घडी में बनी तस्वीर बताती है कि हमारी संस्कृति की आत्म-सातीकरण की ताकत अपनी अंतर्धाराओं में कार्यरत रहती है, जो खुद को सुंदरतम बनाने की कोशिश में रहती हैं या भीतर के शत्रुओं को परास्त करती है, तो बाहरी हमलों से भी जूझती है ।

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हमें सिर्फ यह देखना है कि हमारे दुश्मन के पास ऐसा क्या है, जिससे हमें सतर्क रहना है । बस, यही छोटी चीज ग्लोबल दुनिया संस्कृति, मिली-जुली कौमियत आगे बढती रहे और बाहरी हमलों से जूझने की ताकत बख्शती रहे ।

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