चुनाव-सुधार: न्यायपालिका बनाम विधायिका पर निबन्ध | Essay on Election Reform in Hindi!
भारत चुनाव सुधार एक दुराह मुद्दा है जिसपर जनता तथा न्यायपालिका एकमत है, परन्तु भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की पकड वाली विधायिका इसके विपरीत अपना अलग मत रखती है लोकसभा या राज्य विधान सभा चुनाव ही नहीं, अपितु स्थानीय निकायों का चुनाव भी जीतने के लिए उम्मीदवारों द्वारा अवैध तरीका अपनाया जाता है, यह तथ्य आज सर्वविदित है ।
सामान्यतया उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, अवैध तरीके से जमा की गई अकूत सम्पति तथा आपराधिक व्यक्तियों से उसकी साठ-गाँठ उन्हें चुनावों को अपने पक्ष में कर लेने के अवसर उपलब्ध कराती है । फर्जी मतदान, मतदान स्थलों पर जबरन कब्जा, जातीय/सामुदायिक संवेदना दोहन, मुफ्त शराब व अन्य चीजों का वितरण इत्यादि उम्मीदवारों का एक और पहलू है ।
ऐसी परिस्थतियों में चुनाव प्रणाली को साफ-सुथरी बनाने की मुहिम चलाई जा रही है । चुनाव सुधारों के लिए अब तक तारकुण्डे समिति, गोस्वामी समिति, इन्द्रजीत गुप्ता समिति अपने प्रतिवेदन सरकार को सौंप चुकी हैं ।
इन समितियों के सुझावों से इतर मुख्य बुनाव आयुका टी.एन.शेषन. गिल तथ लिंगदोह ने अपने स्तर और विधि संगत अधिकारों का प्रयोग करके चुनाव प्रणाली की खामियों को दूर करने का प्रयास किया है । इसी क्रम में भारत के उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय भी समय-समय पर चुनाव सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहे हैं । यह और बात है कि संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देकर गारत के राजनीतिज्ञ सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को निष्प्रभावी करते रहने में भी नहीं रहे हैं ।
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विगत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए यह व्यवस्था री थी कि लोक सभा-राज्य सभा-विधान सभा-विधान परिषद का चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि, अपनी तथा अपनी पत्नी के नाम की समस्त रम्पत्ति और आय के स्रोतों और अपनी शैक्षणिक योग्यता का ब्यौरा रिटर्निंग अधिकारी को दे ।
सर्वोच्च न्यायालय की इस व्यवस्था से राजनीतिज्ञों में खलबली मच गई । इस निर्णय विरुद्ध सत्तापक्ष तथा विपक्ष में सर्व-सम्मति कायम हो गई और मई 2002 में चुनाव सुधार कानून बनाकर मात्र यह व्यवस्था की गई कि: उम्मीदवार केवल उन्ही आपराधिक मामलो की जानकारी देगे, जिन्हें न्यायालय ने संज्ञान में ले लिया है ।
केवल विजयी उम्मीदवार को ही अपनी आस्तियों तथा देनदारियों का विवरण देना किसी भी उम्मीदवार के लिए अपनी शैक्षणिक योग्यता का विवरण देना जरूरी नहीं होगा । इन्हीं व्यवस्थाओं के अनुरूप जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर दिया गया ।
सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध शूपिल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, लोकसत्ता तथा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने नए सिरे से सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी । इस जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्ड-पीठ के न्यायमूर्ति एमबी-शाह, न्यायमूर्ति पी.वी. रेड्डी तथा न्यायमूर्ति डी.एस. धर्माधिकारी ने जन प्रतिनिधित्व कानून में किए गए संशोधनों को असंवैधानिक करार दे दिया ।
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अलग-अलग, किन्तु लगभग एक जैसे निर्णय में तीनों ही न्यायाधीशों ने कहा कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी चुनाव सुधार अध्यादेश (जो बाद में अधिनियम बन गया), विधायिका के लिए उचित उम्मीदवार चुनने के लिए मतदाताओं को सूचना पाने के अधिकारों में कटौती करता है, इसलिए यह पूरी तरह से असंवैधानिक है ।
न्यायाधीशों का मानना है कि सूचना पाने का प्रधिकार, संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राय: एक मौलिक अधिकार है तथा यह प्रत्येक कार से मतदाताओं के सूचना पाने के अधिकर से सम्बद्ध है । सर्वोच्च न्यायालय ने जन प्रतिनिधि अधिनियम के संशोधनों को खारिज करते
हुए नाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह न्यायालय के ताजा निर्णय के परीप्रेक्षण नए सेरे से अधिसूचना जारी करे । उम्मीदवारों के लिए अब यह अनिवार्य हो गया है कि वह अपने नामांकन पत्र दाखिल तरते समय एक शपथ पत्र के रूप में निम्न सूचनाएँ भी दाखिल करे:
क्या उम्मीदवार को किसी आपराधिक मामले में दोषी पाया गया/दीपभुक्त करार या गया/डिस्वार्ज किया गया । यदि हाँ, तो क्या उसे सजा सुनाई गई या उस पर दण्ड लगाया गया? नामांकन प्रपत्र दाखिल करने से 6 माह पूर्व तक क्या उम्मीदवार किसी ऐसे मामले अभियुक्त था, जिसमे दो वर्ष या इससे अधिक की सजा का प्रावधान है और क्या ऐसे मले को सज्ञान मे लेते हुए न्यायालय द्वारा आरोप-पत्र दिया जा चुका है ?
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उम्मीदवार, उसकी पत्नी तथा उसके आश्रितों के नाम से सभी प्रकार की चल, अचल पत्तियो एव बैंक मे जमा धनराशियों का विवरण; उम्मीदवार के ऊपर बकाया सभी प्रकार की देनदारियाँ जिनमे सरकार और सार्वजनिक तीय सस्थानों के बकाया क्मा भी शामिल हैं ।
उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता । इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मे यह भी स्पष्ट किया है उपर्युक्त मामलों में दाखिल शपथ-पत्र में दी गई सूवना के झूठा पाए जाने की संदेह के आधार पर किसी उम्मीदवार का नामांकन पत्र निर्वाचन अधिकारी द्वारा रह नहीं किया जा सकेगा ।
इसका अर्थ यह हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय संविधान के अनुच्छेद- 19 के तहत् मतदाताओं को यह अधिकार तो देता है कि उन्हें उम्मीदवारों के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त हो, किन्तु यह निर्णय सत्ता पक्ष या किसी अन्य के दबाव में निर्वाचन अधिकारियों को ऐसा कोई विवेकाधीन अधिकार नहीं देता जिसका प्रयोग करके वे किसी व्यक्ति का नामांकन-पत्र खारिज करके उसे चुनाव लड़ने से रोक सकें, सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से राजनीतिज्ञों की इस आशंका का समाधान तो हो ही जाता है कि जिला स्तर पर कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी निर्वाचन अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए मानमानी करके विजयी होने की सम्भाव्यता वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकेंगे किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि इस आशय की सूवना को छुपाकर चुनाव लड़ने और अन्तत: इसे जीतने वाले उम्मीदवार न्यायालय की पकड़ से बाहर हो जाएंगे ।
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यदि कोई उम्मीदवार झूठा शपथ-पत्र दाखिल करता है, तो इसी आधार पर उसके चुनाव को न्यायालय द्वारा रह किया जा सकेगा । चुनाव सुधारों की दिशाएं सर्वोच्च न्यायालय की उपर्युक्त पहल निश्चित तौर पर स्वागत योग्य है, किन्तु इससे यह आशा करना रेत में पानी खोजना जैसा होगा कि अब आपराधिक पृष्ठभूमि या अवैध कारोबार से अर्जित की गई सम्पत्ति का कोई स्वामी चुनाव नहीं जीत सकेगा ।
भारत की न्यायपालिका और न्यायिक प्रक्रिया में जिस प्रकार की खामियां हैं उसके चलते किसी भी निर्णय को लागू करना आसान नहीं है, किन्तु फिर भी ”अंधेरे को कोसने से अच्छा है कि एक दीप जलाया जाए” की उक्ति पर चलते हुए चुनाव प्रणाली को उत्तरोत्तर सुधारों की ओर ले जाने का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है ।