सभी रोगों का इलाज: चुनाव सुधार पर निबन्ध | Essay on Electoral Reforms in Hindi!
प्रस्तावना:
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है । प्रजातन्त्र को बनाये रखने के लिये चुनाव ते-आवश्यक है । प्रजातन्त्र में शासन जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिये होता है किन्तु आज देश का लोकतान्त्रिक ढांचा चरमरा उठा है क्योंकि आज देश राजनीतिक अस्थिरता दौर से गुजर रहा है ।
अत: अति आवश्यक हो गया है कि विद्यमान चुनाव प्रणाली में सुधार या जाये ताकि योग्य एवं सुलझे हुए उम्मीदवार सत्ता में आकर देश की बिगड़ती परिस्थितियों सम्भाल सकें ।
चिन्तनात्मक विकास:
लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बनाये रखने हेतु देश में लोकसभा एवं ब्ध विधानसभाओं के चुनाव होते हैं । मतदान देने का अधिकार जनता को है किन्तु वर्तमान मय में जनता मतदान के प्रति उदासीन है, इसका कारण है देश में सर्वत्र व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार ।
लोग निर्णय नहीं ले पाते कि किसे देश की सुरक्षा हेतु नेता के रूप में चुना जाये गेंकि नेता के मायने आज वो नहीं हैं जो 40 वर्ष पूर्व थे । दूसरी ओर नेता लोग देश को ष्ट करने पर तुले हुये हैं । ऐसी परिस्थितियों में अति आवश्यक हो गया है कि चुनाव प्रणाली सुधार किया जाये ।
चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए विभिन्न समितियों ने अपने सुझाव ये हैं जिन्हें सार्थक रूप र्मे प्रयोग मँ लाया जाये तो व्यवस्था में सुधार अवश्य होगा । चुनाव ग्वक्या में व्याप्त गम्भीर त्रुटियों एवं उन त्रुटियों के उपचार के सुझाव भी दिये गये हैं । जिन्हें से लागू करने पर चुनाव प्रणाली में सुधार हो सकता है जिससे कि देश की डगमगाई व्यवस्था को बचाया जा सके ।
उपसंहार:
कुल मिलाकर भारत में सही मायनों में स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव एवं चुनाव प्रवरा में सुधार के सपने को साकार करने के लिए हमें बहुत लम्बी यात्रा तय करनी है मैर यह यात्रा तभी पूरी हो सकती है जबकि सभी सुझावों को क्रियान्वित रूप दिया जाये । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया ।
अत: भारतीय रंसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव होते रहे हैं । लोकतन्त्र के इस लम्बे सफर में सन् 1951-52 में हुये प्रथम आम चुनाव के पश्चात् हम एक लम्बा सफर तय कर चुके हैं । इस दौरान हमारे पक्ष की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भी अत्यधिक परिवर्तन हुआ है और इसका प्रभाव चुनाव सचालन रुए तरीके से लेकर चुनाव को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर पड़ा है ।
राजनीतिक दलों में परिवर्तन प्राया है, उनके द्वारा प्रत्याशियों के चुनाव के मापदण्ड में परिवर्तन आया है, चुनाव प्रचार के तरीके नें परिवर्तन आया है, और यहाँ तक कि चुनावों के दौरान उछलने वाले मुद्दे भी अब पहले जैसे नहीं रहे हैं ।
आज मतदाताओं का पुन: विभिन्न राजनीतिक दलों तथा राजनीतिज्ञों से मोहभंग हो चुका है । मतदाता भ्रमित नहीं हैं लेकिन वह निराश तथा नाराज हैं । कुछ मतदाता इससे इतने प्रभावित हैं कि वे शायद वोट देने के लिए ही न जायें ।
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लेकिन अधिकांश मतदाता अपने इस लोकतात्रिक अधिकार को गंवाना नहीं चाहते हैं । वे देश के भविष्य के बारे में अपनी बात कहना चाहते हैं । विभिन्न राजनीतिज्ञों तथा चुनाव प्रक्रिया के प्रेक्षकों की धारणाओं के विपरीत अपने मताधिकार का उपयोग करने वाले अधिकांश मतदाता अपना मत बना चुके हैं ।
मतदाता अपने में बिल्कुल स्पष्ट है तथा उन्होंने यह निर्णय कर लिया है कि वे किसका समर्थन करेंगे । या तो उनके मन में अपनी पार्टी विशेष के प्रति आस्था है तथा वे किसी अन्य दल के साथ अपनी आस्था उस तरह नहीं बदलते हैं जिस तरह हमारे कई राजनेता अपने दल-बदल करते रहते हैं या फिर उस उम्मीदवार के प्रति वे अपनी प्राथमिकता बनाए हुए हैं, जिसे वे अन्य की अपेक्षा कम बुरा समझते हैं । अतीत की तरह मतदाता अब किसी प्रचार अभियान या हवा में बहने वाले नहीं हैं ।
इन सब बातो के कारण मतदाताओं ने भी खामोशी धारण कर रखी है, और आखिर वह कर भी क्या सकता है ? आखिर बात करने के लिए उसके पास है भी क्या ? वह इस बात को जानता है कि वर्तमान राजनीतिक वातावरण में वह कुछ भी नहीं कर सकता है ।
वह जिन लोगों को अपना ‘हीरो’ (नायक) समझता था वह भी अब एक औसत सामान्य व्यक्ति से कम सिद्ध हुए हैं । वह जिन पार्टियो को अपनी प्रिय पार्टी मानता था उनका व्यवहार भी अत्यंत सामान्य सिद्ध हुआ है । कई नेताओ द्वारा जिस तरह से अपनी उन पार्टियों को बिना किसी सिद्धांत के छोड़ा जा रहा है और दूसरी पार्टियों मे शामिल हुआ जा रहा है उससे भी आम मतदाता दुखी हैं ।
हमारे यह नेतागण इस प्रकार का दल बदल करते समय जरा भी नहीं सोचते हैं कि उन मतदाताओं पर क्या गुजरेगी जो कि उन्हें व उनकी पार्टी को अपने विश्वासों के अनुसार अपना समर्थन देते आए हैं ? उनके विश्वास का क्या होगा ? वस्तुत: हमारे यह नेतागण इस बात की जरा सी भी परवाह नहीं करते हैं ।
मतदाताओं के लिए जो सबसे खराब बात हुई है वह यह है कि अब नेताओं व पार्टियों में उनके सामने अत्यंत सीमित विकल्प रह गए हैं । इनमें से अधिकांश की कमजोरियां जनता के सामने आ गई हैं लेकिन सवाल तो यह है कि जनता करे तो क्या करे ?
अधिकांश मतदाता उस तरह से पार्टियों के प्रति अपना समर्थन आसानी से नहीं छोड़ पाते है जिस तरह की, नेतागण आसानी से दल-बदल कर अपनी निष्ठाएं बदल लेते हैं । यह बात काफी अजीब सी लग सकती हैं परन्तु सत्य है कि अधिकांश मतदाता किसी पार्टी के नेताओं की अपेक्षा उस पार्टी की नीतियो व कार्यक्रमों पर विश्वास करते हैं । जहां तक प्रत्याशियों की बात है, उनके लिये समझ पाना मुश्किल हो रहा है कि वह ‘चुनावी- सूत्र’ किधर से सम्भाले और किधर से नहीं ।
हर पार्टी में टिकटों के वितरण को लेकर नाराजगी हैं-कहीं कम और कहीं अधिक । चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित चुनाव खर्चे और उस पर सख्ती से अमल की तलवार कच्चे धागे से बंधी हर पार्टी और प्रत्याशी के सिर पर लटकी हुई है, और तो और आयकर विभाग को भी इस मामले में साथ ले लिया गया है ।
वर्तमान चुनाव का सर्वाधिक अवांछनीय पक्ष भी सभवत: यही है । समाज में इतनी टूट शायद पहले कभी भी नहीं थी, जितनी की आज है । राजनीति विदुप हो गई है । मतदाताओं की सहज प्रवृत्ति का दोहन किया जाता है और उसे उभारा जाता है ।
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किन्तु यह समाज की त्रासदी ही है कि शायद ही कोई ऐसा दल हो जो कि मजहब अथवा जाति के लिहाज से सोच-विचार करने से परे हो । हमें देशत्नद्यपी तो क्या राजव्यापी आधार पर भी सामाजिक न्याय के लिये कोई आन्दोलन होता नजर नहीं आया, जो लगी का ध्यान किसी ऊची और पावन तथा सैक्यूलर बात की ओर आकृष्ट कर पाता ।
राजनीति के पण्डित और बुद्धिजीवी लोकतन्त्र में मतदाता को ‘भगवान’ बताते हुये रह-रह कर इस बात पर बल देते है कि मत का उपयोग अवश्य किया जाना चाहिए और ठीक ढंग से सही लोगों के पक्ष में किया जाना चाहिए । मगर मतदाता का ‘भगवान’ होना भी एक हास्यास्पद सी ही बात । भ्रष्टाचार की बात अगर एक पार्टी के बारे में कही जा रही है तो दूसरी पार्टी पर भी भ्रष्टाचार हे आरोप लग रहे हैं ।
जाति और मजहब के नाम पर चीख-पुकार के धन गर्जन में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध स्वर अति क्षीण हो गया है । राष्ट्रीय भाव को मद करने के प्रयास अपनी पृथक् शिनाख्त को उभारने हेतु हो रहे हैं । घर-घर जाकर प्रचार में तथा नुक्कड सभाओं में जहर उगला जा रहा है । जाति और मजहब कहर बरपा कर रहे हैं ।
और जब प्रत्याशी जाति या पंथ की चर्चा नहीं करते तो वे स्थानीय समस्याओं की चर्चा करते हैं । ये समस्याए पानी, बिजली और सडको के अभाव आदि से संबंधित हैं । उपरोक्त परिस्थितियों से स्पष्ट है कि चुनाव पद्धति एव चुनावों में कुछ ऐसी बाते देखने में आयी हैं, जिन्होंने जनता की चुनावों मे आस्था को कम किया है ।
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यदि उन्हें समय रहते नियन्त्रित नहीं किया गया, तो वे कालान्तर में चुनावों के प्रति आस्था को आघात पहुँचा सकती हैं । चुनावों में काले धन, हिंसा, मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने की प्रवृतियां निरन्तर बढ़ रही हैं । इस दृष्टि से चुनाव व्यवस्था में सुधार हेतु अनेक योजनाएँ बनाई गई हैं, जिनका यहाँ संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है:
‘तारकुंडे समिति’ की सिफारिशें:
इस समिति का मूल लक्ष्य था स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनावों मे बाधक धन की सत्ता और सत्ताधारी दल द्वारा सरकारी साधनों एवं प्रशासकीय व्यवस्था के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाने, निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता की व्यवस्था करने और चुनाव याचिकाओं की सुनवाई में होने वाले असाधारण विलम्ब को रोकने हेतु रीति-नीति की खोज करना उसकी सिफारिशें हैं ।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रस्ताव:
कम्युनिस्ट पार्टी ने निर्वाचन-प्रणाली में बुनियादी संशोधनों की मांग की है । उसने कहा है कि देश में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत चुनाव-प्रणाली लागू की जाए, निर्वाचन आयोग में तीन सदस्य हों और उनका चयन संसद अपने दो-तिहाई बहुमत से करे तथा उनमें से कोई भी सदस्य प्रशासकीय सेवाओं का सेवानिवृत्त कर्मचारी न हो ।
जनसंघ का चुनाव प्रणाली के सम्बंध में जनसंघ की घोषित नीति भारतीय साम्यवादी दल के एकदम समान थी । उसने भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत सूची-प्रणाली का समर्थन किया ।
अन्ना-द्रमुक का सुझाव:
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इनके सुझावों में कहा गया है कि मतदाताओं को रिकॉल का अधिकार दिया जाये, आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लागू की जाए, मतदाताओं को मतदान-केन्द्र तक लाने-ले-जाने के लिये कारो या अन्य सवारियो के उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाए, चुनावों से तीन महीने पहले सरकारों का कार्यकाल समाप्त कर दिया जाए तथा इस बीच शासन की बागडोर राष्ट्रपति और राज्यपाल सभालें तथा चुनावी के दौरान उम्मीदवारों द्वारा लगाये जाने वाले दीवार विज्ञापनो का पूरा खर्च सरकार उठाये ।
संयुक्त संसदीय समिति के सुझा?सन् 1972 में संसद की एक सयुक्त समिति ने तीन प्रमुख सुझाव दिये थे- (1) निर्वाचन-प्रणाली में बुनियादी परिवर्तनों के बारे में सुझाव देने के लिए एक विशेष समिति का गठन हो, (2) बहु-सदस्यीय निर्वाचन आयोग की स्थापना हो, तथा (3) आकाशवाणी पर चुनाव-प्रचार के लिये समस्त राजनीतिक दलों को समान मात्रा में समय दिया जाये ।
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्यामलाल शकधर ने 9 जुलाई, 1981 को देश की चुनाव व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तनों का सुझाव दिया । इन दोनों आधारभूत परिवर्तनों के अन्तर्गत मतदाताओं को परिचय पत्र दिये जायेंगे तथा चुनावों का खर्च राज्य वहन करेंगे । यह दोनों सुधार लम्बे समय तक विचार करने के बाद वित्त मंत्रालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये ।
गोस्वामी समिति की रिपोर्ट:
i. मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति भारत के प्रधान न्यायाधीश और विपक्ष के नेता के सुझाव पर होनी चाहिए ।
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ii. चुनाव के दौरान धर्म का इस्तेमाल करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त की जानी चाहिए और धर्म का प्रयोग करने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों पर भी रोक लगनी चाहिएा स्मरणीय है कि राव सरकार ने भी इस बारे में एक विधेयक लोकसभा में रखा था मगर भाजपा ने इसका कड़ा विरोध किया था । बाद में इसे विचार के लिए स्थायी समिति को भेजा गया मगर बहुमत के अभाव में इसमें कोई प्रगति नहीं हो सकी ।
iii. उप चुनावों को 6 महीने के अन्दर कराने और चुनाव खर्च को कम करने के उद्देश्य से चुनाव प्रचार की अवधि को 14 दिन करने की कानूनी व्यवस्था हो ।
iv. चुनाव खर्च के लिए सरकार आशिक योगदान दें ।
v. एक ही उम्मीदवार को दो या उससे अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से खड़ा होने से रोका जाए ।
vi. घोषित अपराधियों के चुनाव लडने पर पाबंदी लगाई जाए ।
vii. . अनधिकृत रूप से मत पत्र को अपने पास रखना दंडनीय अपराध करार दिया जाए ।
viii. जमानत की राशि बढ़ाई जाए ताकि गैर संजीदा लोग चुनाव न लड सकें ।
ix. चुनाव के दौरान कोई चुनाव रह न किया जाए ।
x. सीटों की संख्या घटाए-बढ़ाए बगैर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाए तथा बारी-बारी जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में फेरबदल हो ।
xi. चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार दिए जायें ।
निवार्चन आयोग के सुझाव:
निर्वाचन आयोग के सुझावों में कहा गया है ।के उसे एक-सदस्याय स्वतन्त्र निकाय का रूप दिया जाए जिसका एक सचिवालय हो । निकाय का खर्च संसद से स्वीकृत होने के बजाय संचित निधि से किया जाए । आयोग ने जाली मतदान रोकने के लिए बहु-उद्देशीय पहचान-पत्र जारी करने तथा अवांछित उम्मीदवारों को हतोत्साहित करने के लिए जमानत राशि बढाये जाने की भी सिफारिश की ।
आयोग ने यह भी कहा कि निर्वाचन कानून में यह प्रावधान किया जाये कि प्रत्येक उम्मीदवार के नामांकन के साथ दस प्रस्तावकों के नाम रब्धी हों, साथ ही एक उम्मीदवार को एक ही स्थान से चुनाव लडने की अनुमति दी जानी चाहिए ।
आयोग ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को अपने वार्षिक खाते प्रकाशित करने चाहियें जिनका आडिट आयोग द्वारा निर्दिष्ट संस्थाओं से कराया जाये । चुनाव खर्च का हिसाब-किताब नहीं रखना और समय से हिसाब-किताब नहीं पेश करने को दण्डनीय करार दिया जाये । उपरोक्त सभी समितियों के सुझावों के आधार पर चुनाव व्यवस्था में व्याप्त त्रुटियाँ एवं उन त्रुटियो मे उपचार की चर्चा निम्न प्रकार से की गई है
भारत में साधारण बहुमत की निर्वाचन पद्धति अपनायी गई है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक निर्वाचन स्थल से वह उम्मीदवार विजयी घोषित होता है जिसे सबसे अधिक मत मिले हो, चाहे विरोधी अथवा पराजित उम्मीदवार को उससे ज्यादा मत क्यों न प्राप्त हुये हों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता ।
अत: आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति को अपनाया जाना चाहिए अर्थात् विभिन्न दलो को मतदान के प्रतिशत के आधार पर विधानमंडल में प्रतिनिधित्व दिया जाये । चुनावो मे एक अत्यधिक गम्भीर दोष चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका के रूप में सामने आया है ।
हमारे कानून निर्माता इस दोष के प्रति सचेत थे और इसी कारण उनके द्वारा चुनाव में उम्मीदवार द्वारा किये जाने वाले व्यय की सीमा निश्चित की गयी है । राजनीतिक दलों से अलग-अलग उम्मीदवारो के लिए खर्च की गई धनराशि का हिसाब पूछा जाना चाहिए और स्वयं उम्मीदवार, उसके राजनीतिक दल, उसके मित्र, सम्बंधी और शुभचिन्तक सभी द्वारा चुनाव प्रसंग में व्यय की गई धनराशि को उम्मीदवार के चुनाव खर्च में सम्मिलित किया जाना चाहिए साथ ही राजनीतिक दलों के आय-व्यय वितरण की विधिवत् जाँच की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में भ्रष्ट राजनीति और काले धन के बीच एक गठबंधन स्थापित हो गया है और इसे तोड़ा जाना नितांत आवश्यक है ।
नाम वापस लेने की तिथि और चुनाव की तिथि में कम से कम बीस दिन का अन्तर होना आवश्यक है परन्तु यह अवधि 15 या 10 दिन कर दी जानी चाहिए, इससे चुनाव व्यय में कमी आएगी । 1967 के चतुर्थ आम चुनाव तक भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे, परन्तु 1971 में यह स्थिति समाप्त हो गई और अभी तक स्थिति ऐसी ही है ।
यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों तो राज्य द्वारा चुनाव व्यवस्था में किया जाने वाला व्यय और विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवार द्वारा किये जाने वाले व्यय दोनों मे ही बहुत कमी हो जाएगी ।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से हमेशा चुनाव का वातावरण बना रहता है और यह स्थिति राज्य व्यवस्था हेतु ठीक नहीं है । चुनाव की अवधि मे राजनीतिक दलों अथवा उम्मीदवारों द्वारा सार्वजनिक संस्थाओं को अनुदान देने पर रोक लगा दी जानी चाहिए ।
चुनावों में व्यय की जाने वाली धनराशि एवं काले धन का प्रयोग निरन्तर बढ़ रहा है, इस समस्या को दूर करने के लिए आवश्यक है कि चुनाव खर्च का भार पूर्णतया या आशिक रूप से राज्य द्वारा वहन किया जाना चाहिए । चुनावों में बाहुबल और हिंसा का प्रयोग निरन्तर बढ़ रहा है ।
साथ ही जाली मतदान एवं मतदान केन्द्रों पर कब्जा जैसी गभीर समस्या वर्तमान चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है । इस समस्या को दूर करने का उपाय यह है कि निर्वाचन क्षेत्रों जहाँ हिंसा की अधिक सम्भावना हो वहीं पर पुलिस एवं अर्ध-सैनिक बल पर्याप्त संख्या में तैनात किये जायें और दो दिन के लिये समस्त निर्वाचन क्षेत्र में आग्नेय अस्त्रों एवं अन्य हथियारों के लाने-ले-जाने पर कड़ाई के साथ प्रतिबंध लगाया जाये एवं उस समय तक शराब की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए ।
ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि हिंसा, बाहुबल की शक्ति, भ्रष्ट साधन अपनाये जाने के आधार पर चुनाव याचिकाएं उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की जायें और प्रत्यक्ष या परोक्ष में दोषी पाये गये व्यक्तियों पर सदैव के लिये कोई भी चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाये ।
चुनाव में बल प्रयोग की सभी स्थितियों का मूल कारण यह है कि जनप्रतिनिधि, प्रशासन और गुण्डा तत्व के बीच गठबंधन की स्थिति बन गयी है । ऐसा भी देखने में आया है कि तस्कर, माफिया और गुंडा तत्व मंत्री या जनप्रतिनिधि से आश्रय पाता है और प्रशासन पर हावी है ।
इसे दूर करने हेतु समस्त व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक है साथ ही जाली मतदान को रोकने के लिये. फोटोग्राफी से युका जान-पहचान पत्र दिये जाने चाहियें, यह व्यवस्था लागू भी हो गई हे । जाली मतदानू में संलग्न व्यक्ति को पुलिस को सौंपना और थाने में आवश्यक शिकायत दर्ज करना अनिवार्य हो जाये ।
चुनावों में एक बडी समस्या निर्दलीय उम्मीदवारों की बड़ी संख्या ने पैदा की हे जोकि चुनाव व्यवस्था में कठिनाई पैदा करती है क्योंकि ये उम्मीदवार चुनाव लड़ने को मजाक समझते हैं और कई बार तो ये प्रमुख उम्मीदवारों से चुनाव मैदान से हटने के लिए धनराशि भी प्राप्त करते हैं ।
इन दलों द्वारा चुनाव लड़ने पर कानूनी रोक तो नहीं लग सकती किन्तु ऐसा अवश्य किया जाना चाहिए जिससे कि ये निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव को मजाक न समझे और साथ ही जमानत की रकम भी दस गुना बढ़ा दी जानी चाहिए ।
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चुनावों में अधिकांश मतदाता रुचि नहीं लेते । मतदान न करने का अर्थ है मतदान के अधिकार का उपयोग न करना और लोकतन्त्रीय व्यवस्था को धोखा देना । इसी कारण चुनाव-सम्बंधी भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है ।
अत: भारतीय संसद को अनिवार्य मतदान का नियम बना देना चाहिए और जो मतदाता चुनावों में भाग न लें तो उन पर कुछ दण्ड लगाया जाना चाहिए । राजनीतिक दल चुनाव के अवसर पर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए अनेक विकास योजनाओं की घोषणायें करते हैं, जबकि यह सब राजनीतिक भ्रष्टाचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है क्योंकि ये घोषणायें केवल घोषणायें बन कर ही रह जाती हैं इन्हें कार्यरूप नही दिया जाता ।
कानूनी तौर पर ऐसी व्यवस्था कर दी जानी चाहिए कि चुना की घोषणा होने के दिन से लेकर नवीन सरकार बनने के समय तक केन्द्रीय और राज्य सरकार केवल ‘काम चलाऊ सरकारों’ के रूप में कार्य करें क्योंकि चुनाव कीं घोषणा होने पर, केन्द्री एवं राज्य सरकारों का ध्यान विभिन्न संगठित वर्गो को अनेकानेक रियायते और सुविधाए देने ओर चला जाता है, ये भी अनेक विकास योजनाओं की घोषणा करते हे के, सरकारी कर्मचारिर के वेतन-भत्तों में वृद्धि, अनेक कारखानों, स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों और पुलों के शिलान्या किये जाते हैं ।
निर्वाचन के दौरान निर्वाचन अधिकारियों पर किसी भी तरह का राजनीतिक दब नहीं डाला जाना चाहिए । निर्वाचन याचिका पर बहुत अधिक खर्च होता है, साथ ही विवादों शीघ्र निपटारा नहीं हो पाता है । अत: निर्वाचन याचिकाओं पर शीघ्रता के साथ निर्णय की स्थि को अपनाना बहुत अधिक आवश्यक है ।
चुनाव व्यवस्था एवं चुनावों में सुधार के अन्य उपाय भी किये जा सकते हैं जैसे कुछ द्वारा यह कहा जाता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को बीच में वापस बुलाने का अधिकार न्जन् को मिलना चाहिए । सैद्धांतिक तौर पर तो यह बात ठीक है किन्तु हमारे देश में गैर-जिम्मेदार वातावरण सर्वत्र व्याप्त है ।
अत: यह समस्या हल होने की बजाय और अधिक समस्या को देने वाली सिद्ध होगी । मतदान के प्रति उदासीनता और राजनीति के प्रति वितृष्णा की भा को दूर करने के लिए चुनावों में मतदान को अनिवार्य कर देना चाहिए, जो मतदाता चुनाके भाग न लें उन पर जुर्माने की राशि 50 रुपये से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
निष्कर्षत: कहाँ जा सकता है कि उपरोक्त सभी परिस्थितियों में चुनाव सुधार का काम सत् अधिमान चाहता है । चुनाव सुधारों को लेकर सरकार चिंतित एवं प्रयत्नशील है । इसीलिए निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने चुनावों की खामियों को दूर करने के लिए कई कदम उठाये है जैसे, मतदाताओं को पहचान पत्र जारी करना, चुनावों में फिजूलखर्ची को रोकने के लिये पर्यवेक्षकों को तैनात करना, मतदान के पहले छह दिन ड्राई डे’ घोषित करना आदि ।
हम समझते हैं कि देश में जिस व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार आज शिखर पर है उसकी जड में मूलत: चुनाव ही हैं । चुनाव लड़ने के लिए हर व्यक्ति और हर पार्टी को पैसा चाहिए । आम आदमी चुनाव के लिए पैसा देता नहीं और बडे लोग इसलिए कम पैसा देने लगे हे क्योंकि कीटों और परमिटों का सिलसिला कम हो गया है ।
नतीजा यह है कि विभिन्न सौदों और अन्य तरीकों से पैसा इकट्ठा होने लगा हे और भ्रष्टाचार की बेल तेजी से फूलनी और फलनी शुरू हो गई है । जो लोग चुनावों के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं, वे अपने लिए भी करते हैं और दूसरों के लिए भी करते हैं ओर यह क्रम कहीं रुकने में नहीं आता । नतीजा यह है कि हवाला जैसे कांड में आज लगभग सभी पार्टियों के नेताओं के नाम हैं ।
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चुनाव सुधारों में कुछ अन्य सुझाव भी विचारार्थ आ सकें तो बेहतर होगा जैसे-किसी भी निर्दलीय उम्मीदवार को लोकसभा चुनाव लड़ने की अनुमति तभी दी जाए जब वह पहले किसी विधानसभा का चुनाव जीत चुका हो और विधानसभा का चुनाव लड़ने की अनुमति भी तभी दी जाए जब वह किसी नगर निगम या नगर पालिका का चुनाव जीत चुका हो ।
ऐसा करके ही यह मालूम हो सकेगा कि उसका जनाधार क्या है । हिंसा, बूथ कैप्सरिंग और गलत तरीके इस्तेमाल हरने वाले उम्मीदवारों को दस साल के लिए चुनाव लडने के अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए । जजेस निर्दलीय उम्मीदवार की जमानत जन्त हो जाए वह 10 साल तक चुनाव न लड़ सके ।
जमानत के रूप में ली जाने वाली राशि जमानत नहीं बल्कि फीस होनी चाहिए और प्रत्याशी जीते या हारे वह राशि वापस नहीं होनी चाहिए । जाली मतदान को रोकने के लिए फोटो पहचान पत्र जारी करने का काम जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है, अविलम्ब पूरा होना चाहिए ।
चुनाव लड़ने से पूर्व उम्मीदवार से यह शपथ पत्र भरवाया जाना चाहिए कि जहां वह देश के संविधान के प्रति पूर्णत: निष्ठावान रहेगा, वहां देश की एकता और अखंडता की रक्षा करना भी उसकी मूवसे बडी जम्मेदारी होगी । इसके विपरीत आचरण में उसकी सदस्यता तुरन्त समाप्त कर दी जाएगी ।
अब समय आ गया है कि जब सभी पार्टियों को मिलजुल कर इस काम को सिरे चढ़ा देना गहिए ताकि चुनाव भारतीय लोकतंत्र की परम्परा के अनुसार सीधे, अपेक्षाकृत सस्ते, सरल और ग्राफ-सुथरे हो सकें । हम चाहते हैं कि सरकार की उम्र लम्बी हो क्योंकि कोई भी नेता या पार्टी ओबारा जल्द चुनाव नहीं चाहती-फिर भी अगर परिस्थितिवश ऐसा न हो सके तो भी यह काम वह कर जाए तो एक मोर पंख तो उसकी कलगी में लग ही जाएगा ।