बदलती दुनिया में किसान पर निबंध | Essay on Farmers in Changing World in Hindi!

आजकल हम अक्सर मीडिया और बौद्धिक विचार-विमर्श में किसान की दयनीय स्थिति का रोना सुनते हैं । आए दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं । साहित्य में भी किसान एक जमाने से केंद्र बिंदु रहा है ।

इन सबके बावजूद किसी अर्थशास्त्री को यह कहने में हिचक नहीं होगी कि हमारे यहां बहुत कम लोग ‘किसान’ की सही अवधारणा से परिचित हैं । अर्थशास्त्र में दो शब्द हैं-किसान (पेजेंट) और खेतिहर (फार्मर) । ‘मूल्य’ और ‘कीमत’ की तरह कोई फर्क न कर इन्हें पर्यायवाची मान लेते हैं । मगर किसी भी गंभीर और वैज्ञानिक विमर्श में इनमें अंतर करना बेहद जरूरी है ।

किसान मानव सभ्यता के साथ तब से जुड़ा है जब कृषि कार्य प्रारंभ हुआ जबकि खेतिहर का उदय पूंजीवादी उत्पादन यानी बाजार में बेच कर मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के प्राबल्य के साथ हुआ । इसे थोड़ा स्पष्ट करने के लिए इतिहास में जाना आवश्यक है ।

भारत में कृषक शब्द अतीतकाल से प्रचलित है और ‘अमरकोश’ के द्वितीय कांड के नौवें सर्ग में उससे जुड़े कार्य-व्यापार का विस्तृत उल्लेख है । ‘किसान’ शब्द फारसी और संस्कृत के मिलन का परिणाम है । अंग्रेजी का ‘पेंजेंट’ अपने समतुल्य फ्रेंच शब्द और लैटिन शब्द से निकला है ।

खैर, किसान उसे कहते हैं जिसका अपनी जमीन पर खेती करने का अधिकार होता है और वह अपने परिवार के सदस्यों के श्रम के आधार पर सारे कृषि को संपन्न करता है । उसके उत्पादन का मुख्य उद्देश्य अपने परिवार के उपभोग की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही पशुओं के लिए चारा जुटाना और अगली बुआई हेतु बीज का प्रबंध करना होता है ।

चूंकि वह अपनी जरूरत की सभी वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन नहीं कर सकता इसलिए पैदावार का एक भाग बेच कर पैसा जुटाता है और इच्छित वस्तुओं और सेवाओं को प्राप्त कर अपने उपभोग में विविधता लाता है । अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘सरल माल उत्पादन’ कहते है और इसका सूत्र है माल मुद्रा-माल ।

यहां मुद्रा और बाजार विनिमय को आसान बनाते हैं । याद रहे कि किसान आमतौर पर ऐसी किसी वस्तु का उत्पादन नहीं करता जिसका उपभोग वह न करे और सिर्फ बाजार में बेचे । धोबी, नाई, बढ़ई, लुहार, कुम्हार, पंडित-पुरोहित आदि की सेवाओं को प्राप्त करने का आधार यजमानी व्यवस्था रही है ।

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किसान आदिकाल से सामंत या सरकार के प्रतिनिधि को लगान के रूप में उपज का एक निश्चित हिस्सा देता रहा है । उन्नीसवीं सदी के पहले नकदी लगान का चलन नहीं था । लगान उपज के रूप में दिया जाता था जिसे ‘भावली लगान’ कहा जाता था । भावली लगान के अंतर्गत राज्य को भी खेती से जुड़े जोखिमों-जैसे अनावृष्टि, अतिवृष्टि, बाढ़, भूकंप, फसलों के ऊपर टिड्‌डी दल का हमला, आदि के परिणाम भी भुगतने पड़ते थे ।

बिहार जैसे अनेक राज्यों में ‘फर्द आबपासी’ का जिक्र मिलता है जिसका मतलब है कि किसान को राज्य से सिंचाई की सुविधा प्राप्त करने का हक था । कहना न होगा कि भावली लगान की व्यवस्था के कारण राज्य किसानों के हितों पर ध्यान देता था ।

चूंकि किसान की गतिविधियां गांव या बहुत हुआ तो एक छोटे-से इलाके तक सीमित रहती थीं, इसलिए इसे बाहरी दुनिया के बारे में बहुत कम जानकारी होती थी । स्थानीय मेलों और बाजारों के सिवा वह कभी-कभार तीर्थ यात्रा पर जाता था जिससे बाहरी दुनिया के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती थी ।

एक छोटे-से दायरे में रहने के कारण उसकी जीवन-दृष्टि और मूल्य संकुचित रहते थे । कृषि कार्य मूलत: प्रकृति के अधीन थे । वर्षा होगी या नहीं, होगी तो भरपूर या कम या फिर बुआई के साथ फसल पकने के समय भी, प्रकृति से जुड़ी इन अनिश्चितताओं के कारण वह अंधविश्वासों और ज्योतिष, धर्म, पूजापाठ आदि में आस्था रखने लगा था ।

कहना न होगा कि उस समय न मौसम वैज्ञानिक थे और न कृषि वैज्ञानिक । कब कौन-सा कृषि कार्य किया जाए इसके लिए पंचाग रखने वाले पंडितों और घाघ-भड्‌डरी की उक्तियों से मार्ग दर्शन लिया जाता था । लगभग सभी पर्व-त्योहार कृषि कार्यक्रम से जुड़े होते थे । देवी-देवताओं का भी उनसे जुड़ाव था । वर्षा के लिए इंद्र की पूजा-अर्चना और ब्रह्मभोज का सहारा लिया जाता था ।

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चूंकि औसत आयु कम थी और जनसंख्या बड़ी धीमी गति से बढती थी और इसलिए प्रजनन से जुड़े देवताओं की आराधना की जाती थी । हर किसान प्रकृति से अपनी लड़ाई लड़ता था इसलिए उसके सोचने का ढंग पैसा न था जैसा बाद के संगठित किसान-आंदोलनों में देखा गया ।

चूंकि पूंजीवाद के उदय तक राज्य को राजस्व मुख्यतया किसानों से मिलता रहा जिसके आधार पर ताजमहल जैसे अजूबे बनते रहे, शासकों की शान-शौकत कायम रही और सैनिक अभियान चलाए जाते रहे । एक हद के आगे लगान बढाने पर किसान विद्रोह करने या पलायन के लिए मजबूर हो जाते थे ।

याद रहे कि अंग्रेजी राज की स्थापना के बाद भी देश के कई इलाकों में कृषि भूमि खरीद-फरोख्त की वस्तु नहीं थी । मगर अंतत: यह स्थिति बदली । साथ ही भावली लगान की जगह नकदी लगान ने ले ली । इस प्रकार न सिर्फ जमीन की खरीद- फरोख्त का बाजार पनपा बल्कि लगान के लिए नकदी प्राप्त करने के उद्देश्य से ऐसी फसलें उगाई जाने लगीं जिनका उपभोग किसान नहीं कर सकता था । नकदी लगान के आने का मतलब था कि खेती से जुड़े जोखिम में सरकार या दमामी बंदोबस्त वाले प्रांतो में जमींदारों की भागीदारी खत्म हो गई । ‘फर्द आबपाशी’ कूड़ेदान के हवाले हो गया ।

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धीरे-धीरे किसानों को खेतिहर में परिवर्तित कर दिया गया और उन्हें बाजार के लिए उत्पादन करने को मजबूर किया गया । बंगाल और बिहार में दमामी बंदोबस्त के प्रावधानों के तहत यूरोपीय निलहों ने जमींदारी के हक प्राप्त कर किसानों को नील की खेती करने को मजबूर किया । फलस्वरूप 1859-62 के दौरान बंगाल में ‘नील विद्रोह’ हुआ जिसको दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक ‘नील दर्पण’ की विषय वस्तु बनाया ।

उत्तर बिहार के चंपारण में 1860 से लेकर 1920 तक निलहों के खिलाफ किसान बार-बार बगावत पर उतरे । वहां गांधीजी ने 1917 में आंदोलन का नेतृत्व किया । निलहों ने किसानों को जबरदस्ती अंतर्राष्ट्रीय बाजार के अनुकूल उत्पादन करने के लिए बाध्य किया था ।

उन्नीसवीं सदी के मध्य के दौरान दक्कन के दंगे हुए । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण कपास की आपूर्ति काफी कम होने से कपास की कीमतों में उछाल आया । अब किसानों ने खेतिहर बन कर कपास के उत्पादन में अधिकाधिक जमीन लगाई । बीज, खाद आदि के लिए महाजनों से कर्ज लिए । इस उम्मीद पर कि भविष्य में भी उछाल जारी रहेगा, उन्होंने ऋण लेकर अच्छे मकान बनाए और अपना उपभोग-व्यय बढ़ाया ।

अमेरिकी गृहयुद्ध समाप्त होते ही भारतीय कपास की मांग और कीमत धराशायी हो गई । कर्ज न अदा करने के कारण महाजनों ने कुर्की-जब्ती की कार्रवाई शुरू की, जिससे किसानो ने उनके खिलाफ दंगे किए । सरकार ने एक आयोग बिठाया जिसकी सिफारिशों के अनुकूल महाजनों का दबदबा कम करने के लिए सहकारी समितियों द्वारा ऋण की व्यवस्था के उद्देश्य से आंदोलन चला ।

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1929-1932 की महामंदी के परिणामस्वरूप भारत में भी कृषि उत्पादों की कीमतें और मांग कम होने से नकदी का अभाव हो गया और लगान न दे पाने से किसानों की जमीन की नीलामी शुरू हो गई और इसके विरुद्ध अवध में बाबा रामचंद्र और बिहार में स्वामी सहजानंद, राहुल सांकृत्यायन और नागार्जुन (तब वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’) सक्रिय रहे । उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों से एक नई प्रवृत्ति ने जोर पकडा । सेठों- साहूकारों, वकीलों, डॉक्टरों, अफसरों और अन्य नौकरीपेशा लोगों ने कृषि भूमि खरीद कर भाड़े के मजदूरों के आधार पर बाजार के लिए उत्पादन करना शुरू किया ।

जमीन में निवेश सुरक्षित होने के साथ-साथ प्रतिष्ठा और आय बढ़ाने वाला था । चीनी मिलों, जूट मिलों और सूती कपड़े के कारखानों की स्थापना से गन्ना, कच्चे जूट और कपास की मांग बढ़ी जो नकद आमदनी थी । साथ ही 1950 के दशक में भूमि सुधार कानूनों में छोड़े गए चोर दरवाजों का इस्तेमाल कर अनेक भूतपूर्व जमींदारों, ताल्लुकेदारों और जागीरदारों ने अपने को बड़े खेतिहरों के रूप में परिवर्तित कर दिया । छोटे, विशेषकर सीमांत किसानों ने खेती से गुजारा न होने की स्थिति में शहर का रुख किया और उनकी जमीन लेकर दूसरे खेतिहर बन गए और बाजार के लिए उत्पादन करने लगे ।

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इन सब परिवर्तनों के फलस्वरूप किसान लुप्त होने लगे और उनकी जगह खेतिहर आने लगे । देश में खेती न प्रतिष्ठा का विषय रही, न आत्मनिर्भरता का आधार और न ही रोजगार और आय का पक्का स्रोत । आज सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा आजादी के समय की तुलना में आधे से भी कम है ।

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हरित क्रांति ने हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में किसानों की जगह खेतिहरों को बिठा दिया है । प्रेमचंद और नागार्जुन के किसान अब समाप्तप्राय हैं । उनकी समस्याएं भी अप्रासंगिक होती जा रही हैं । उत्तर प्रदेश और बिहार के गन्ना उत्पादक किसान नहीं, खेतिहर हैं । इसी प्रकार साग-सब्जी, फल, तंबाकू आदि उत्पन्न करते और बाहर भेजने वाले बिहारी खेतिहर हैं, किसान नहीं ।

आज के भूमंडलीकरण के दौर में महान इतिहासकार हॉब्सबॉस ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ग्लोबलाइजेशन, डेमोक्रेसी एंड टेररिज्य’ में बतलाया है कि उन्नीसवीं सदी तक अधिकतर लोग किसान थे और कृषि ही अर्थव्यवस्था का आधार थी । पर अब बड़ी तेजी से कृषक वर्ग लुप्त होता जा रहा है और कृषि महत्त्वहीन होती जा रही है । शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है ।

इंडोनेशिया में किसानों का अनुपात 67 प्रतिशत से 44 प्रतिशत, पाकिस्तान में 50 प्रतिशत से कम, तुर्की में 75 प्रतिशत से घट कर 33 प्रतिशत, फिलिपींस में 53 प्रतिशत से 37 प्रतिशत और मलेशिया में 51 प्रतिशत से 18 प्रतिशत हो गया है । चीन में पूरी जनसंख्या में किसानों का हिस्सा 1950 में 86 प्रतिशत था जो 2006 में 50 प्रतिशत हो गया । अभी भारत, बांग्लादेश, म्यांमार आदि में 60 प्रतिशत जनसंख्या किसानो की है । ‘लेकिन औद्योगीकरण की त्वरित गति को देखते हुए यह स्थिति कब तक रहेगी’?

किसान की स्थिति में आ रहे तेजी से बदलाव के दूरगामी नतीजे होंगे जिनसे अर्थव्यवस्था, राजनीति, साहित्य और संस्कृति पर भारी प्रभाव पड़ेगा । क्या हमारे प्रबुद्ध लोग इन संभावित प्रभावों का चिंतन करेंगे?

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