भारत में दूसरी हरित क्रांति की जरूरत पर निबंध | Essay on India Needs a Second Green Revolution in Hindi!
कृषि उत्पादों के खुदरा बाजार में कॉरपोरेट घरानों का आना हर लिहाज से बेहतर ही है । स्वाधीन होने के समय हम आयातित अनाज पर पूरी तरह निर्भर थे, सतर के दशक में हुई हरित क्रांति स्वतंत्र भारत की सफलता की कहानी में अग्रिम स्थान रखती है ।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली अगली बड़ी क्रांति का नाम श्वेत क्रांति था । दूध की यह क्रांति, जो अमूल की स्थापना से शुरू हुई, आखिरकार ऑपरेशन फ्लड में बदल गई और भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया ।
भारत में खेती हमारी जनसंख्या के बड़े हिस्से को रोजगार देने के नजरिए से भी काफी अहम है । महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से किसानों की आत्महत्या की लगातार आती खबरें गंभीर नजरिए में चिंतन का विषय है ।
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इससे यह साबित होता है कि खेती अब आर्थिक तौर पर मुनाफे का सौदा नहीं रह गई है, अगर ऐसा है तो निश्चित तौर पर ऐसा रास्ता तलाशा जाना चाहिए कि खेती उन लोगों को मुनाफा देने के साथ ही रोजगार के नए मौके भी मुहैया कराए, जो पूरी तरह से इसी पर निर्भर है ।
हाल ही में एक मजेदार किंतु विवादित वाकया बड़े कॉरपोरेट घरानों-रिलायंस और भारती एयरटेल के साथ ही कई दूसरे-कृषि उत्पादों संगठित खुदरा बिक्री में प्रवेश का रहा, जैसे, रिलांयस फ्रेश को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, उत्तर-प्रदेश में उनकी दुकानों को जबरन बद करा दिया गया । तो सवाल उठता है कि क्या खेती में संगठित खुदरा बिक्री खराब हैं?
कृषि उत्पादों में संगठित बिक्री के इस मामले के समर्थक भी हैं । उत्तर-प्रदेश का मामला तो केवल एक उदाहरण भर है, जो छोटे विक्रेता कृषि उत्पादों को बाजार में पहुँचाने का काम करते हैं उनके अलावा भी कॉरपोरेट घरानों का इनके बाजार में प्रवेश का विरोध कई तर्को पर आधारित है जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ।
भारतीय खेती समस्या का हल तो इसके बाजार में कॉरपोरेट घरानों के प्रवेश से ही होगा । यह आर्थिक रूप से मुनाफे का सौदा बनने के साथ ही हमारी जनसंख्या के महत्त्वपूर्ण हिस्से को वैकल्पिक रोजगार भी मुहैया कराएगा । साथ ही हमें कृषि व्यापार को भी कॉरपोरेट स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए, जैसा कि पश्चिम के विकसित देशों में होता है ।
इस कदम के खिलाफ जो आपत्ति उठाई जाती है उसमें पहले तो दार्शनिक अंदाज में कहा जाता है कि खेती और उद्योग दोनों अलगे चीजें है, इसी वजह से दोनों के मूल्य अलग होने चाहिए । यह तर्क बहुत दमदार इसलिए नहीं है क्योंकि श्वेत क्रांति दुग्ध उत्पादों में औद्योगिक मूल्यों के प्रवेश से ही संभव हो सकी, तकनीकी ने इस आम धारणा को बदल दिया कि दूध एक ऐसा तरल पदार्थ है जो मौसम के हिसाब से अपनी मात्रा बदलता रहता है ।
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मजेदार बात तो यह कि इसके बाद डेरियों की पूरी वृंखला ही स्थापित की गई, यह हालांकि दुखद है कि फल और सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक होने के बाद भी भारत में उत्पादन का 20 से 40 फीसदी नष्ट हो जाता है । इसकी वजह केवल एक है-देश में सही मात्रा में शीतगृहों का न होना, ताकि इनको सुरक्षित रखा जा सके ।
हालांकि इसके विरोध में भी एक दलील दी जाती है कहा जाता है कि शीतगृहों का विकास और मील का निर्माण बड़े-बड़े वातानुकूलन यंत्रों की वजह से वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और प्रदूषण बढ़ेगा । दरअसल इस दलील का भी जवाब दिया जा सकता है ।
सब कुछ के बावजूद सब सामूहिक चेतना में पर्यावरण की समस्या घुस जाती है, तो हरेक क्षेत्र में हरित तकनीक को बढ़ावा दिया गया, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन जिसकी वजह से ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा था पर नियंत्रण इसका ज्वलंत उदाहरण है । यह शानदार तरीके से यह दिखाता है कि संगठित तौर पर अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों से किस तरह प्रदूषण पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है ।
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संगठित खुदरा बिक्री के खिलाफ जो दूसरा तर्क दिया जाता है वह यह है कि उत्पादन के मोर्चे पर तो फतह पाई जा सकती है पर जैव-विविधता को नुकसान पहुंचेगा, जैव-विविधता का मतलब यह है कि अभी केला, सेब या संतरे जैसे फलों की जितनी किस्में उपलब्ध हैं वह कम हो जाएँगी । अगर यह विविधता कम हुई, तो उन पर खतरा बढ़ जाएगा ।
यही मसला फिलहाल अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों के बीच जीन-संश्लेषित अनाजों की वजह से विवाद की वजह बना हुआ है, हालांकि यह मामला पूरी तरह से राजनीतिक है । आखिर हमारी हरित क्रांति भी तो संकर बीजों की वजह से ही संभव हुई थी, अगर संकर बीज जीन-संश्लेषण के प्रतिनिधि नहीं, तो फिर आखिर क्या है?
जैविक विविधता के अलावा इस मसले का एक और पहलू है । यह तर्क है स्वाद और ताजगी का विरोधी यह दलील देते हैं, कि मील में कृषि उत्पादों के खुदरा बाजार में कॉरपोरेट घरानों का प्रवेश व्यापक स्तर पर उत्पादन को बढ़ावा देगा । इसी वक्त पर्यावरण-प्रदूषण के मसले और जैविक विविधता में कमी को भी हरित तकनीक और शानदार बाजार के निर्माण से हल किया जा सकता है ।
दूसरा संवेदनशील मसला खेती को दिए जाने वाले सरकारी अनुदान से जुड़ा है, जहाँ विकसित देश विकासशील देशों को सलाह देते हैं कि कृषि उत्पादों पर वह अनुदान कम करें, वहीं वे खुद ही कृषि-उत्पादों पर भारी सहायता देते हैं । दोहा शिखर वार्ता में यही विवाद का कारण था ।
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भारत जैसे विकासशील देश अपनी खेती के औद्योगीकरण या कॉरपोरेट-प्रवेश के बाद विकसित देशों की रणनीति अपना सकते हैं, कृषि को भारी सरकारी अनुदान देकर इस क्षेत्र की मदद की जा सकती है ।