Here is an essay on the Indian political system especially written for school and college students in Hindi language.

भारतीय राजनीति भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब है । भारतीय संस्कृति प्राचीनतम होने के साथ ही विस्तृत रूप में विश्व बन्धुत्व की पक्षधर रही है । भारतीय संस्कृति प्रचीनकाल से ही विश्व सिरमोर रही है । चाहे रामायण काल हो या महाभारत काल ।

सभी में भारतीय राजनीति विश्व में अग्रणी रही है । रामायण काल में श्रीराम चन्द्र जी का अश्वमेघ यज्ञ इसका प्रमाण है तो महाभारत काल में कौरव-पाण्डवों के साथ विश्व समुदाय का साथ आकर युद्ध करना भी इसी मायने में देखा जाता है लेकिन वर्तमान समय में भारतीय राजनीति विश्व के कुछ देशों की पिछलग्गू हो गयी है जहां पश्चिम के कुछ देश जैसा आदेश देते हैं हम सिर झुका कर उसका पालन करना अपनी शान समझते हैं या यूं कहिये कि हम सिजदा करने में गर्व महसूस करते हैं ।

हमारे रोम-रोम में गुलामी अपना वास कर चुकी है क्योंकि हमने आठ सौ वर्ष मुस्लिम आक्रमणकारियों की गुलामी की उसके बाद दो सौ वर्ष अंग्रेजों की गुलामी की । एक हजार वर्ष तक गुलामी करते-करते हमारी मानसिकता ही गुलाम हो गयी है ।

हम अपना अस्तित्व ही भूल गये हैं कि हम कौन थे, कहा थे, क्या थे कुछ पता नहीं ? हम रामायण के हनुमान की तरह अपनी याददास्त भूल चुके हैं । हमें ये भी पता नहीं कि हम क्या कर सकते हैं और क्या नहीं । ओर तो ओर अपने मूल्य व संस्कृति सब भूल गये हैं ।

हम पश्चिम की नकल करने में लगे हैं हमारा अपना वजूद कुछ नहीं है । आज भारत का भविष्य ऐसे लोग तय कर रहे हैं जिनका भारतीय संस्कृति, भारतीय मूल्य ओर तो ओर भारतीय सभ्यता से भी कुछ लेना-देना नहीं है । राजनीति के मायने क्या होते हैं ? उनको पता नहीं ।

उनको केवल अच्छा मैनेजर कहा जा सकता है, अच्छा प्रशासक कहा जा सकता है लेकिन अच्छा राजनेता नहीं । क्योंकि अच्छे राजनेता की मिशाल भारतीय इतिहास में श्री लालबहादुर शास्त्री व सुभाष चन्द्र बोस से होते हुए ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अटल बिहारी वाजपेयी पर आकर ठहरती गयी है ।

आज भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में राष्ट्रीय राजनेता का अभाव है बल्कि यूं कहिये कि राष्ट्रीय व्यक्तित्व ही नहीं है जो सवा सौ करोड़ लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सके या उनको रास्ता दिखा सके । भारतीय संसद जो देश की जनता की समस्याओं के समाधान के लिए है वह स्वयं एक समस्या बन गयी है ।

उदाहरण के रूप में महिला आरक्षण बिल पर चर्चा के समय राज्य सभा का नजारा किसी स्लमबस्ती में दान स्वरूप कपडा बांटने जैसा था जो गरीब लोग अपने-अपने लिए कपडा पाने के लिए बांटने वाले से कपड़े लूट रहे हों वो किसी भी रूप में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, आचार्य चाणक्य के देश के लोग नहीं बल्कि रामायण काल में लंका के राजा रावण की प्रजा या हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र की सभा में उत्पात मचाते दुर्योधन व दुशासन ही थे जो द्रोपदी का चीर हरण कर रहे थे और भीष्म पितामह की तरह इस अमर्यादित आचरण को होता देख रहे थे देश के सवा सौ करोड़ भीष्म पितामह जो जानते सबकुछ हैं लेकिन कुछ कह नहीं पाते या कहना नहीं चाहते ।

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देश की प्रथम लोकसभा को सर्वाधिक मर्यादित व शिक्षित माना जाता है लेकिन उसके बाद की प्रत्येक लोकसभा में शिक्षा का स्तर गिरता ही जा रहा है जिससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि देश में क्लर्को की संख्या बढ रही है लेकिन शिक्षित और मर्यादित लोगों की संख्या घट रही हैं ।

आज आकडों में भारत की साक्षरता पैंसठ प्रतिशत अवश्य है लेकिन वास्ताविकता इससे भिन्न है आज शिक्षा की गुणवत्ता स्तरीय नहीं है जो किसी भी मायने में आजादी के पहले शिक्षा के स्तर पर हो । आज देश के विद्यालय सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगतसिंह, लाल बहादुर शास्त्री तैयार नहीं कर रहे बल्कि आज तैयार कर रहे हैं मोहनदास करम चन्द जैसे वकील जिन्होने स्मॉल कॉज कोर्ट मुम्बई में बेहतरीन वकालत की हो व लंदन में वकालत की पढाई ।

भारतीय राजनीति का असली चेहरा तो विधान सभा व लोकसभा के चुनावों के दौरान नजर आता है जब देश एक ओर कुरूक्षेत्र के युद्ध से दो-चार होता है लेकिन अन्तर मात्र इतना है कि पहले कुरूक्षेत्र के बाद कौरवों में से कोई नजर नहीं आया था परन्तु इन कुरूक्षेत्रों के बाद कोई पाण्डव नजर नहीं आता बल्कि कौरव ही कौरव नजर आते हैं वो भी कुछ ऐसे:

देखो दुनिया पीछे दौड़

रही है पैसा, औरत, सोहरत के

महापुरूष भी गुलाम बने अब

पैसा, औरत, सोहरत के

देश की पंचायत भी अब अछूती

नही बची इस लानत से

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महाभारत के दुर्योधन ने खफा

दिया सब कौरवों को

फिर आज के रिटंग दुर्योधन से

कैसे बचते ये कौरव भी

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पैसे के चक्रव्यूह में फंसकर चले

गये अभिमन्यू भी

बालीवुड की फिल्म जो देखी

घर वाली बाहर वाली तो

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सांसद जी चले स्टाईल पर

खबरिये ने जो खबर दी तो

सरेआम पिटे घरवाली से

देखो कैसा हाल हुआ ये दुनिया में पैसे वालों का

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पैसा, औरत, शोहरत ने खत्म किया घर वालों को

आज भारतीय नेताओं का नैतिक पतन हो गया है सत्ता प्राप्ति के लिए वे किसी भी हदतक जा रहे हैं साथ ही कुर्सी के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं । चाहे गुजरात का गोधरा काण्ड हो या गुलबर्ग सोसायटी में पूर्व सांसद एहसान जाफरी को जिन्दा जलाया जाना ।

स्थिति बद से बदतर होती जा रही हैं । संगठित अपराध करने वाले व्यक्ति भारतीय व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहे हैं । चाहे वो व्यवस्था के अंग हो या व्यवस्था के बाहर । वर्तमान हालात ब्यां करते हैं कि भारतीय व्यवस्था के अलग ही भारतीय व्यवस्था को खोकला कर रहे हैं ।

विशेषकर क्षेत्रिय पार्टियां जहां-जहां सत्ता में हैं इनका सरकार चलाने का ढंग तानाशाही पूर्ण है वो केवल धन उगाही कर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं । भारत सोने की चिड़िया थी, सोने की चिड़िया है लेकिन इसी तरीके से चलने वाली व्यवस्था से आगामी समय में भारतवर्ष में अपराध तेजी से बढ़ रहा है ।

विकास कार्य कागजों पर ही सिमट रहा है इसका मूल कारण है । भारतीय राजनीति, जिस पर अपराधियों का शिकंजा कसता जा रहा है और वो भ्रष्ट, दुराचारी नेता पैदा कर रही है । आज भारतीय राजनीति विचारों, सिद्धान्तों की न होकर मौका परस्ती व्यवसायी हो गयी है ।

जनता न्याय के लिए त्राही-त्राही कर रही है जो नक्सलवाद के रूप में सामने आ रहा है इसका मूल कारण है भारतीय राजनीति । भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के कारण ही भारतीय कार्यपालिका भ्रष्ट हो गयी जिसका अप्रत्यक्ष प्रभाव भारतीय न्यापालिका पर भी पड़ा है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिला कि एक राज्य के मुख्य न्यायधीश को देश के सर्वोच्च न्यायालय की कुर्सी नसीब न हो सकी ।

देश प्रदेश के एक नेता के भ्रष्ट होने पर उससे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लाखों करोड़ों लोग प्रभावित होगें उदाहरण के रूप में माना एक राज्य का बेसिक शिक्षा मन्त्री भ्रष्ट हो जाता है तो उसका कितना प्रभाव पड़ता है । उक्त उदाहरण को हम उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए देखें तो उससे बहेत्तर जिले प्रभावित होंगे ।

मुख्य रूप से अगर मंत्री जी आदेश करें कि एक करोड़ रूपये प्रत्येक जिले का बैसिक शिक्षा अधिकारी वार्षिक देगा चाहे वह किसी भी तरीके से व्यवस्था बनाये या कुछ भी करे । तो इसके लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी सीधे तौर पर अपने अधीनस्थों को अपने पद से प्रभावित करेगें और वो जिस तरीके का इस्तेमाल करेगें वह कुछ इस प्रकार से भी हो सकता है कि माना एक जिले में औसतन पन्द्रह सौ शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं जिनमें से तीन सौ शिक्षिकाओं को समायोजन के नाम पर स्थानान्तरण कर दिया वो भी पैंतीस से चालीस किमी॰ दूर पिछड़े इलाकों में जहां कोई यातायात का साधन भी नहीं है तो क्या उक्त शिक्षिकाए अपने पूर्व विद्यालय में रूकने के लिए पैंतीस से चालीस हजार रूपये बतौर सुविधा शुल्मा बेसिक शिक्षा अधिकारी को देंगे ? जी हां, जो कुल मिलाकर एक करोड बीस लाख रूपये हुआ ।

जिसमें से एक करोड़ मंत्री जी को गया और बीस लाख रूपये स्वयं के लिए बच गये इसके अलावा प्रत्येक वर्ष मार्च में अध्यापकों के अवशेष वेतन का भुगतान होना होता है जो लगभग तीन से चार करोड़ के आस-पास होगा जिसका दस प्रतिशत आम तौर पर लिया जाता है जो लगभग तीस से चालीस लाख रूपये होगा ।

इसके अलावा नये विद्यालय की विभागीय मान्यता के लिए प्राथमिक के लिए तीस हजार, पूर्व माध्यमिक विद्यालय की मान्यता के लिए अस्सी हजार रूपये निर्धारित है यदि माना कि एक वर्ष में बीस प्राथमिक, पन्द्रह पूर्व माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता दी गयी तो लगभग पन्द्रह से सोलह लाख रूपये बनते हैं जिससे एक बेसिक शिक्षा अधिकारी की वार्षिक आय लगभग सत्तर से अस्सी लाख रूपये बनते हैं लेकिन उक्त अधिकारी की यदि आयकर रिटर्न देखी जाये तो बामुस्किल तीन लाख रूपये वार्षिक होगी अर्थात सत्तर से अस्सी लाख रूपये प्रतिवर्ष काला धन इक्टठा करके अपनी चल-अचल सम्पत्ति को बढ़ा रहे हैं ।

उक्त उदाहरण तो मात्र जिले के बेसिक शिक्षा अधिकारी का है अब यदि जिला विद्यालय निरीक्षक, जिला आपूर्ति अधिकारी, जिला खाद्य निरीक्षक, जिला आबकारी अधिकारी, जिला पंचायती राज अधिकारी, जिला विकास अधिकारी आदि की आमदनी के आकड़े जुटाये जायें तो स्थिति बेसिक शिक्षा अधिकारी जैसी ही मिलेगी इसके अलावा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक व जिला अधिकारी को लगभग करोड़ों में काली कमाई होती है जिसको पकड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन है जिसमें कुछ बाबूओं की भागीदारी भी अच्छी खासी होती है । इसको पकड़ने के लिए भारतीय आयकर अधिनियम 1961 भी नाकाम है ।

यही नहीं उक्त अधिनियम को ताकतवर बनाने के लिए भी आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गई क्योंकि वो लोग जानते हैं कि इसका सबसे पहला प्रभाव उन्हीं लोगों पर होगा जो इमानदारी से आयकर जमा नहीं करके देश के साथ गद्दारी कर रहे हैं ।

”एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायधीश माकर्ण्डेय काटजू जी ने टिप्पणी की थी कि इस देश में सब भ्रष्ट हैं मैं सोचाता था कि मैं सुधार कर सकता हूँ लेकिन मैं गलत था क्योंकि सब भ्रष्ट हैं ।”

”दूसरे एक मुकदमे में भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुए माननीय विद्वान न्यायधीश महोदय माकर्ण्डेय काटजू जी ने कहा था कि एक शिक्षक यदि भ्रष्ट है तो वह एक वर्ष में औसतन छ: सौ बच्चों को भ्रष्ट कर रहा है ।” ये तो टिप्पणियाँ थी देश की सर्वोच्च अदालत के विद्वान न्याधीश महोदय की ।

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में भ्रष्टाचार किस हद तक ब्याज है । सरकार बदलती रहती हैं प्रत्येक राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार को मुद्‌दा बनाती है भ्रष्टाचार के मुद्‌दे के दम पर सत्ता में आती है और फिर भ्रष्टाचार बढ़ाती है । भारत में भ्रष्टाचार तो पहले से ही था लेकिन आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत के साथ ही राजनीतिक भ्रष्टाचार ने भी अपना यौवन रूप ग्रहण कर लिया ।

नब्बे के दशक के पहले मुख्य रूप से बोफोर्स दलाली काण्ड प्रकाश में आया था लेकिन नब्ये के दशके के बाद में आर्थिक उदारीकरण के शुरूआती युग में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के काल में जो भ्रष्टाचार सामने आये उनमें मुख्य रूप से हर्षद मेहता का पांच हजार करोड रूपये का प्रतिभूति घोटाला, कल्पनाथ राय मंत्री जी का चीनी घोटाला, यूरिया मंत्री श्री रामलखन यादव जी का एक सौ तैंतीस करोड़ रूपये का यूरिया घोटाला, तत्कालीन संचार मंत्री श्री सुखराम जी का संचार घोटाला जिनके बिस्तर के नीचे भी नोट पाये गये थे । जिसके विषय में तत्कालीन सी.बी.आई. निदेशक जोगिन्द्र सिंह बेहतर जानकारी रखते हैं ।

अगर पी.वी. नरसिंहराव के काल को घोटाला काल कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । यहां तक कि स्वयं पी.वी. नरसिंहराव भी सांसद घूस काण्ड में आरोपी बनाये गये थे जिन पर अपनी सरकार को बचाने के लिए सांसदों को रिश्वत देने का आरोप था ।

मुख्य रूप से पी.वी. नरसिंहराव की सरकार के समय से ही भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के युग का सूत्रपात हुआ जो आज चरमसीमा पर पहुंच चुका है जिसके कारण आज स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है । भारतीय सांसद संसद में प्रश्न पूछने के भी पैसे लेते हैं । जिसका खुलासा एक स्टिंग आपरेशन के दौरान हुआ ।

यहां तक की सांसद निधि से विकास कराने के नाम पर उस निधि से अपना तय प्रतिशत हिस्सा पहले से ही नकद प्राप्त कर लेते हैं ये तो भारतीय नेताओं का नैतिक आचरण है अगर दुराचरण की बात करें तो प्रापर्टी पर जबरन कब्जा करना, हत्या कराना, विरोधियों को फर्जी मुकदमों मे फसाना भारतीय नेताओं की चरित्र पंजीका है साथ ही रात के समय अपने घरों के बजाय फार्म हाऊसों में विश्राम करना भी उनकी आदत का अंग है ।

भारत में लोकतंत्र के स्थान पर जो नया तंत्र विकसित हुआ है उसको राजतंत्र, दलाल तंत्र व चमचा तंत्र कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । क्योंकि नेताओं के बेटा-बेटियों को ही चुनाव में टिकट दिये जाते हैं जैसे प्राचीन काल में राजा के बेटे ही राजा बनते थे ।

उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए किसी नेता के स्वर्गवासी होने पर उसके पुत्र-पुत्रियों को ही उनकी जगह भरने के लिए खड़ा किया जाता है चाहे योग्यता है या नहीं । साथ ही जो व्यक्ति नेताओं को अधिक कमीशन दिलवाते हैं उनको भी भाग्य आजमाने का मौका अवश्य दिया जाता है जिसे दूसरी भाषा में दलाल तंत्र कहा जाये तो कोई हर्ज नहीं है ।

तीसरा है चमचा तंत्र जिसमें नेता जी की प्रत्येक बात की हा भरने व नेता जी की जय-जयकार करने वालों की भी एक अलग प्रजाति है जिन्हें चमचा तंत्र कहा जाता है या दूसरे शब्दों में प्राचीन काल में राजा के दरबार में द्वार पर खडे होकर महाराज की जय-जयकार करने वाले प्राणी । चाहे महाराज की हो रही हो पराजय लेकिन उनका एक ही कार्य होता है कि महाराज की जय हो ।

भारत जैसे देश में राजनीति लाभ का व्यवसाय है जिसमें कभी हानि होती ही नहीं चाहे चुनाव हार जाये लेकिन फिर भी लाभ होता है साथ ही अगर आपका अपना अलग व्यवसाय है तो फिर तो कहना ही क्या ? कितना ही नम्बर 2 कीजिए कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता बल्कि दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की निश्चित है तो फिर ऐसे व्यवसाय को कौन नहीं करना चाहेगा जहां केवल लाभ ही लाभ मिलता हो वो भी गारन्टी के साथ ।

एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा जैसे एक व्यक्ति दूध का व्यवसाय करता है वह सिंथेटिक दूध, मिलावटी घी ऊंचे स्तर पर उत्पादित कर बाजार में बेच रहा है । वह बहुत ऊंचे स्तर पर मिलावटी दूध व घी का व्यवसायी है लेकिन पुलिस व प्रशासन को पता होने के बावजूद उसका कुछ नहीं कर सकता क्या करण है ? कारण स्पष्ट है कि वह व्यवसायी होने के साथ नेता भी है ।

इसलिए उसका व्यवसाय और अधिक उन्नति कर रहा है वह एक सच्चा ईमानदार नेता है क्योंकि वह राजनीति केवल अपने व्यवसाय को बचाने के लिए या यूं कहिए कि अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए कर रहा है उसका समाज सेवा के लिए राजनीति करना अर्थहीन है । उसका अपना मुख्य उद्देश्य व्यवसाय की उन्नति करना है । ये है भारतीय राजनीति का व्यवसायीकरण ।

जिसके अनेकों उदाहरण आज भारतीय राजनीति में मौजूद हैं जो केवल अपने व्यवसाय को सुरक्षित रूप से चलाने के लिए ही आज राजनीति में है चाहे सेवा कर की चोरी हो या व्यापार कर की चोरी, एक्साइज कर की चोरी हो या श्रम कानूनों का उल्लंघन, सर्वाधिक नेता व्यवसायी कर रहे हैं ।

जिनके प्रतिष्ठानों पर कोई भी छापेमारी नहीं कर सकता क्योंकि आज के ”भारतीय व्यवसायी नेता” देश की उन्नति में सहायक कर की चोरी कर रहे हैं ताजा उदाहरण आई॰पी॰एल॰ का है जिसमें कई सौ करोड़ रूपये की कर चोरी का मामला प्रकाश में आया है ।

देश के आयकर अधिनियम को और अधिक ताकतवर बनाने की आवश्यकता है । ”आवश्यकता है कुछ करने की” जरूरत है उसमें कुछ ऐसी धाराओं को जोड़ने की जिससे देश के आयकर चोरों पर शिकन्जा कसा जा सके इसके लिए सरकार को लोकल इंटेलीजेन्स यूनिट की मदद से निगरानी तंत्र विकसित करना होगा जो आयकर चोरों पर निगरानी रखने के साथ ही आयकर विभाग को उनकी सूचना देने का कार्य करे तथा आयकर विभाग ऐसे लोगों पर निगरानी के साथ टैक्स वसूल करने के साथ ही टैक्स चुराने की सजा के तौर पर कारावास का प्रावधान हो और संज्ञेय अपराध मानकर गैर जमानती बनाया जाये जिससे कोई दूसरा व्यक्ति कर चोरी करने की हिम्मत न जुटा सके ।

आज भारतीय राजनीति का व्यवसायीकरण तो हो ही गया है साथ ही उसके स्तर में निम्नता भी देखी जा सकती है आज जिधर देखों उधर नेता ही नेता नजर आते हैं आज हर कोई अपने आपको नेता जी कहलवाना पसंद कर रहा है विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार जो जनसंख्या की दृष्टि से भी उच्च स्तर पर हैं इन दोनों ही राज्यों में नेतागिरी का शौक पाले हुए युवा वर्ग और वृद्ध सभी उम्र के नेताजी मिल जायेंगे । ये नेताजी मुख्यतया खादी कुर्ता और पायजामा पहने हुए नजर आते हैं बेशक वे अच्छे वक्ता न हो अच्छा नेतृत्व का गुण उनके अन्दर न हो लेकिन फिर भी वे नेता हैं ।

हमारे देश में आज चारों तरफ नेता बनने की होड़ सी लगी हुई है जिसे देखो वह नेता बनने की इच्छा रखता है चाहे व्यापारी हो चाहे अधिकारी, हर कोई नेता बनने की इच्छा रखता है कुछ इस तरह:

नेताओं की भीड़ में अब नेता ही नेता रहेंगे

जब श्रोता खर्चे पर आयेंगे तो

नेता ही नेता रहेंगे

जब हर कोई नेता बन जायेगा तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब उद्योगपति उद्योग छोड़कर नेतागिरी करेंगे तो

श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब मजदूरी मजदूर छोड़कर नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब बदमाशी बदमाश छोड़कर नेतागिरी में आयेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब मास्टर जी मास्टरी छोड़कर नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेगे

जब अधिकारी अफसरी छोड़कर नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेगें

जब पंडित जी पंडिताई छोड़कर नेतागिरी करेंगे तो

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब व्यापारी व्यापार छोड़कर नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब विद्यार्थी पढाई छोड़कर नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब नेताओ के बालक भी जब नेतागिरी करेंगे

तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

जब हर कोई नेता बन जायेगें तो श्रोता कहाँ से आयेंगे

अब किनको श्रोता आयेंगे

जब किसान खेती छोड्‌कर नेतागिरी करेगे तो सुनने श्रोता आयेंगे

जब वकील साहब वकालत के साथ नेतागिरि करेंगे

तो सुनने श्रोता आयेंगे

जब हीरो हीरोइन बालीवुड को छोडकर नेतागिरी करेंगे

तो सुनने श्रोता आयेंगे

जब क्रिकेटर क्रिकेट को छोडकर नेतागिरी करेंगे

तो सुनने श्रोता आयेंगे

जब नेता अच्छे बन जायेंगे तो सुनने श्रोता आयेंगे

वो बुग्गी भैसे लेकर के और पैदल दौडे आयेंगे

जब नेता अच्छे (ईमानदार) बन जायेंगे

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तो सुनने श्रोता जरूर आयेंगे ।

भारतीय राजनीति में नेतागिरी का एक नया ट्रेंड पनपता जा रहा है वो भी कुछ तरह की जब कोई नौकरशाह, पुलिस अधिकारी, सेना का अधिकारी सर्विस से रिटायर्ड हो जाता है और उसके पास समय बिताने का कोई साधन नहीं होता है तो वह किसी भी राजनीतिक पार्टी को ज्वाइन कर बाकी का जीवन भी अच्छे खासे रूतबे के साथ जीना चाहता है और दोहरा लाभ भी अर्जित करता है ।

जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 102(1)क किसी भी संसद सदस्य को दोहरे लाभ या लाभ के पद पर बने रहने को वर्जित करता है लेकिन उक्त प्रावधान के बावजूद भी भारतीय राजनीति में रिटायर्ड आई.ए.एस., रिटायर्ड आई.पी.एस, रिटायर्ड आई.एफ.एस., रिटायर्ड कर्नल, जनरलों की भरमार है जो एक तरफ तो उसी सरकार से सरकारी सेवा की पेंशन ले रहे होते है और दूसरी तरफ भारतीय राजनेता के रूप में राजनीतिक सुख सुविधाओं का लाभ ले रहे होते हैं तो फिर भारतीय संविधान के अनुच्छेद का कोई औचित्य है जो दोहरे लाभ को वर्जित करता है ।

अगर उक्त अनुच्छेद केवल सेवारत सरकारी कर्मचारी को ही प्रतिबंधित करता है तो भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो रहा है क्योंकि ऐसे सरकारी कर्मचारी जो कहने को तो अर्द्ध सरकारी हैं लेकिन लाभ ले रहे हैं सरकारी कर्मचारी का और वो सरकारी खजाने से वेतन लेने के साथ ही सक्रिय राजनीति में भी जबरदस्त भागीदारी कर रहे हैं ।

उदाहरण के रूप में अशासकीय अनुदानित डिग्री कालिजों के प्रवक्ता, अशासकीय अनुदानित माध्यमिक कालिजों के प्रवक्ता आदि ऐसे प्रवक्ता और प्रधानाचार्य जो लाभ तो सरकारी सेवाओं का लेते हैं लेकिन सरकारी सेवा के लाभ के साथ ही सक्रिय राजनीति में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं ।

बल्कि ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं जो संसद सदस्य भी रहे हैं और सांसद के रूप में सभी सुख सुविधाओं का लाभ उन्होंने लिया है साथ ही डिग्री कालिजों के प्रवक्ता के रूप में भी वेतन ग्रहण किया है जबकि भारतीय संवधिान का अनुच्छेद इस प्रकार के दोहरे लाभ को वर्जित करता है तो फिर क्या ऐसे लोगों के लिए संविधान का उक्त प्रावधान लागू नहीं होता या ऐसे लोग संविधान से बढ़कर हैं जो दोहरे लाभ अर्जित करते हैं ।

ये कोई एक मात्र उदाहरण नहीं है न कोई अपवाद है बल्कि ऐसे उदाहरणों की भारतीय राजनीति में भरमार है जो सरकारी सेवाओं का लाभ भी ले रहे हैं और राजनीतिक सुख सुविधा भी । भारतीय राजनीति में कहीं भी किसी भी रूप में लोकतंत्र दिखाई नहीं देता बल्कि दिखाई देता है एक अलग प्रकार का तंत्र जिसे दूसरों शब्दों में ठेकातंत्र कहना ही उचित होगा जिसका तरीका भी कुछ इस प्रकार से होता है ।

राजनीति करने वाले सभी पार्टियों के नेताओं के प्रत्येक शहर व गांव में जो उनके चुनाव क्षेत्र के अन्तर्गत आते है अपने एजेन्ट होते हैं जिनके माध्यम से नेताजी की नेतागिरी चलती है वे एजेन्ट ही नेताजी को उनके चुनाव क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं की सूचना पहुंचाते हैं प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही नेताजी की नेतागिरी चलती है ।

वे एजेन्ट ही नेताजी को अवगत कराते हैं कि अमुख व्यक्ति ने हमारी पार्टी के लिए सहयोग दिया था और अमुख व्यक्ति विरोधी पार्टी के साथ था इस प्रकार एजेन्ट महोदय अपनी जिम्मेदारी को तत्परता के साथ और ईमानदारी पूर्वक निभाते हैं ।

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जिससे नेताजी की नेतागिरी चलती है लेकिन उक्त एजेन्ट महोदय भी यह जिम्मेदारी कोई निस्वार्थ भाव में नहीं उठाते उसके ऐवज में भरपूर लाभ भी नेताजी से अर्जित करते हैं जो कई प्रकार का हो सकता है । नेताजी कोई भी कार्य अपनी निधि से कराते हैं तो उसके लिए अपने एजेन्ट का कंस्ट्रक्शन लाइसेंस बनवाकर उक्त कार्य को अपने एजेन्ट के माध्यम से ही पूरा कराते हैं इसके अलावा किसी मुजरिम को पुलिस से बचाना होता है तो इसके लिए भी एजेन्ट महोदय अच्छी खासी रकम बटोर लेते हैं और नेताजी को पता भी नहीं चलता यदि कोई प्रकरण गम्भीर होता है तो उसमें एजेन्ट महोदय नेताजी को सीधे-सीधे पैसे तय करके मुजरिम को पुलिस से बचाते हैं बचाना भी कई प्रकार से होता है एक तो गिरफ्तारी से बचाना, दूसरा आरोप पत्र से नाम निकलवाकर बचाना आदि ।

एजेन्ट महोदय इसके सिवाय भी छोट-मोटे कई माध्यमों से अपनी आय के स्रोत ढूंढ निकालते हैं जिससे वे अपना भी खर्चा चलाते हैं और नेताजी की भी कमाई करवाते हैं ऐसे एजेन्टों की संख्या प्रत्येक नेताजी के पास गांव व नगर के अनुसार आमतौर पर प्रत्येक गांव से एक तो निश्चित रूप से व कहीं-कहीं एक से अधिक भी पायी जाती है ।

एक प्रकार से नेताजी का अपने चुनाव क्षेत्र का समस्त संचार माध्यम ये एजेन्ट ही होते है जो सूचनाओं का आदान-प्रदान करने का कार्य करते हैं साथ ही कोई धरना-प्रदर्शन करना होता है, रैली करनी होती है तो नेताजी के कार्यक्रम में भीड़ जुटाने का कार्य भी उक्त एजेन्ट ही करते हैं साथ ही किस गांव या शहर में किस स्थान पर क्या विकास कार्य करना है ।

हैड पम्प लगाना हो या खड़ंजा लगाना हो सभी कार्य एजेन्ट की मर्जी के अनुसार ही नेताजी को करने होते हैं । एक प्रकार से नेताजी के विकास कार्य व जनसमस्याओं का समाधान कराने का कार्य एजेन्ट ही करते हैं । एक तरह से कुछ नेताजी तो एजेन्टों के हाथों की कठपुतली के रूप में कार्य करते हैं वे अपनी इच्छा शक्ति व सामर्थ्य का प्रयोग न करके एजेन्टों की इच्छा शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार कार्य करते हैं ।

कुछ नेताजी ही ऐसे होते हें जो जनता से सीधे संवाद करते हैं अन्यथा तो जनता पूरे पांच साल अपने नेताजी के दर्शनों को ही तरसते रहते हैं । ये भी भारतीय राजनीति का एक छुआ अनछुआ पहलू है जिसे स्वीकार करना ही भारतीय जनमानुष को आवश्यक है । अन्यथा इसके अलावा और भारतीय राजनीति में जो कुछ चलता है वह भी किसी से छुपा नहीं है ।

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