Here is an essay on the caste system in Indian politics especially written for school and college students in Hindi language.

भारत में जितना अधिक महत्व जाति गोत्र पर दिया जाता है शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में ऐसा महत्व दिया जाता हो भारतीय लोगों की मानसिकता केवल जाति गोत्र पर आकर अटक जाती है ।

ऐसे लोगों को चाहिए कि आने वाली पीढी को ऐसे सरकार दें कि वे समाज में जाति, धर्म, गोत्र आदि से ऊपर उठकर एक भारतीय के रूप में अपनी विचारधारा का निर्माण कर सके वो भी विस्तृत रूप में न कि एक संकीर्ण विचारधारा के पोषक के रूप में ।

इस देश की जनसंख्या में वृद्धि होने के साथ ही एक लाइलाज बीमारी जाति आधारित जीवन शैली, जाति आधारित व्यवसाय, जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था और जाति आधारित राजनीति भारतीय समाज में कैंसर रूपी बीमारी की तरह जाति आधारित राजनीति इस देश को रसातल की ओर ले जाने का कार्य कर रही है ।

वर्तमान समय भारतीय राजनीति में जातीयकरण का है जिसकी शुरूआत देश के आजाद होने से ही हो गई थी । देश की आजादी के समय हुआ जातीय बीजारोपण आज वृक्ष का रूप ले चुका है । तत्कालीन संविधान निर्मात्री सभा द्वारा भारतीय संविधान में अनुच्छेद 341 का प्रावधान इसलिए दिया गया था कि इस देश की अनुसूचित जातियों को विशेष दर्जा देकर उनको समाज में अन्य जातियों की बराबरी में खड़ा किया जा सके ।

आज यदि संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य इस दुनिया में होते तो निश्चित ही अपने पूर्व निर्णय पर विचार करने को मजबूर होते क्योंकि तत्कालीन विचारकों का निर्णय उचित था लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में ही ।

वर्तमान परिस्थितियों में जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था इस देश के विकास को तो अवरूद्ध कर ही रही है साथ ही जो दूसरे दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं वो भी कुछ कम भयानक नहीं है जो इस देश व समाज को तोड़ने का कार्य कर रहे हैं वास्तविक स्थिति ब्यां करती है कि देश में सामाजिक वैमनस्य का कारण जातीय आरक्षण ही है जो राजनीतिक पार्टियों द्वारा पोषित हो रही है ।

वैदिक काल में भारतीय समाज चार वर्णो में बंटा था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य जो केवल कर्मो के अनुसार हुआ करते थे, न तो कोई जन्म से ब्राह्मण होता था, न ही जन्म से क्षत्रिय, न ही जन्म से शुद्र, और न ही जन्म से वैश्य ।

सभी वर्ण व्यक्ति के कर्मों के अनुसार बनते थे यह आवश्यक नहीं था कि कोई व्यक्ति जो ब्राह्मण वर्ण में पैदा होता था वह ब्राह्मण ही रहता था वर्तमान व्यवस्था की तरह यदि उस व्यक्ति के कर्म शुद्र की तरह होते थे तो उसको शुद्र वर्ण में जाना पड़ता था ।

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ब्राह्मण वर्ण के लोग सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे जो समाज में विद्वानों की श्रेणी में गिने जाते थे जिनका कार्य समाज को शिक्षित कर ज्ञान को दूसरे लोगों में बांटकर उस समाज को विद्धान बनाना था । दूसरे वर्ण में क्षत्रिय लोग हुआ करते थे जिनका कार्य समाज की रक्षा करना होता था । ये लोग शारीरिक रूप से बलिष्ठ होते थे । शस्त्र चलाने में ये निपुण हुआ करते थे ये समाज की शत्रुओं से रक्षा करते थे ।

तीसरे वर्ण में वैश्य हुआ करते थे जो व्यापार आदि का कार्य करते थे समाज को आर्थिक संतुलन में रखना वैश्यों का कार्य हुआ करता था । चौथा वर्ण शुद्र वर्ण हुआ करते थे जो सबसे निम्न वर्ण में माना जाता था इस वर्ण के लोग बाकी तीनों वर्णों के लोगों की सेवा किया करते थे इनका कार्य लोगों की सेवा करना था ।

इस प्रकार वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज में संतुलन बिठाये हुई थी जो व्यक्ति के कर्मों के अनुसार थी न की जन्म के आधार पर अर्थात कोई व्यक्ति जो ब्राह्मण वर्ण में जन्मा था लेकिन उसके कार्य शुद्र जैसे होते थे तो वह शुद्र वर्ण में चला जाता था और कोई शुद्र वर्ण में जन्मा व्यक्ति कर्म से क्षत्रिय या ब्राह्मण होता था तो वह क्षत्रिय वर्ण या ब्राह्मण वर्ण में चला जाता था और यदि कोई शुद्र वर्ण में जन्मा व्यक्ति कर्म से वैश्य होता था तो वह वैश्य वर्ण में चला जाता था इस प्रकार भारतीय वर्ण व्यवस्था थी ।

वर्तमान व्यवस्था की तरह नहीं था कि जो व्यक्ति जिस जाति या वर्ण में जन्मा होता है वह आमरण उसी जाति या वर्ण का बना रहता है चाहे उसके कर्म कितने ही महान या कितने ही निम्न क्यों न हो भारतीय समाज में पूर्व की वर्ण व्यवस्था और वर्तमान जाति व्यवस्था में अत्यधिक अन्तर है वर्तमान जाति व्यवस्था का एक उदाहरण कुछ इस प्रकार है कि एक व्यक्ति जो कर्मों से बहुत विद्वान है लेकिन उसका जन्म भारतीय संविधान के अनुच्छेद-341 के अनुसार आने वाली आरक्षित जाति में हुआ है ।

वह अच्छी सरकारी सेवा में है उसकी आय भी लगभग चार से पांच लाख रूपये वार्षिक है लेकिन इसके उपरान्त भी उसको भारतीय जाति व्यवस्था के अनुसार उसी आरक्षित जाति का माना जायेगा जिसमें उसका जन्म हुआ है माना कि उसके कर्म उच्च जाति के हैं लेकिन उसको उसी जाति का माना जायेगा अर्थात उसकी योग्यता और आय जाति व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेगी ।

यही कारण है कि भारतीय समाज में जातीय वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है और इस जाति व्यवस्था के पोषित करने का कार्य भारतीय राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं जो केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए जातीय समीकरण बिठाते रहते हैं जिनको देश की एकता और अखण्डता से कोई मतलब नहीं है ।

उसका तो केवल एक ही उद्देश्य है अपनी राजनीति चमकाना वो भी किसी भी कीमत पर चाहे इसके लिए उनको कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े । एक ओर अनोखी व गलत परम्परा देखने को मिल रही है कि जिस प्रदेश में किसी जाति विशेष को पोषित करने वाली सरकार सत्ता में होती है तो उस प्रदेश में उसी जाति के पुलिस अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारियों को उनकी इच्छा के अनुसार विभागों में अच्छी जगहों पर तैनाती की जाती है उनको अच्छी कमाई वाले जिलों में तैनाती की जाती है जिससे ऐसे अधिकारियों को अपनी जाति विशेष के लिए और अधिक कार्य करने को मिलता है यह सब किसके ऊपर निर्भर हुआ इसके लिए कौन उत्तरदायी है ।

भारतीय व्यवस्था जो इस देश में जातिवाद को बढ़ावा देने का कार्य कर रही है जिसके लिए सर्वाधिक उत्तरदायी है भारतीय राजनीति और राजनीतिक पार्टियां जो जनता में विकास को मुद्‌दा न बनाकर जातियों को मुद्‌दा बनाती हैं जातीय समीकरण तलाशती हैं और जातीय आधार पर ही उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारती हैं और इस आधार पर सफल भी हो जाती हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है भारतीय राजनीति, भारतीय राजनेता या भारतीय जनता जो किसी भी लोकतंत्र में संवैधानिक शक्ति का आधार है तो यही कहा जा सकता है कि भारत में जाति आधारित राजनीति को बढावा देने के लिए जितनी जिम्मेदार भारतीय राजनीति व भारतीय राजनेता हैं उससे कहीं अधिक जिम्मेदार है भारतीय जनता जो इस जाति आधारित राजनीतिक व्यवस्था को बढ़ावा देने का कार्य कर रही है जो अभी इस जाति व्यवस्था के दुष्परिणाम से अनजान है ।

भारतीय राजनीति में जाति व्यवस्था की महत्ता का बढ़ना भारतीय समाज व संस्कृति तथा भारतीय एकता व अखण्डता के लिए घातक है जो वक्त गुजरने के साथ ही और अधिक घातक होती जायेगी और यदि समय रहते जाति व्यवस्था पर नियंत्रण नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय एकता व अखण्डता की रक्षा करना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन होगा ।

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भारतीय समाज की स्थिति कुछ हद तक मध्यकालीन भारत जैसी हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि जिस गति से भारतीय राजनीति का जातीयकरण हो रहा है उससे तो कम से कम यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय राजनीति के जातीयकरण का सीधा प्रभाव भारतीय समाज पर पडेगा जो जाति गोत्र के नाम पर इतना अधिक विघटित हो जायेगा ।

मध्यकालीन भारत में कई रियासत व कई वंशों का राज हुआ करता था चंदेल, परमार, गुलाम, प्रतिहार, खिलजी आदि अनेकों राजवंश राज किया करते थे जो अपने-अपने राज्य की सीमा विस्तार करने के लिए सदैव आपस में युद्ध करते थे ।

जो विदेशी आक्रमण कारियों से एक दूसरे के विरूद्ध युद्ध में मदद मांगकर एक दूसरे को पराजित किया करते थे । इतिहास साक्षी है कि गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट और चंदेलों का संघर्ष जो त्रिगुट संघर्ष के नाम से जाना जाता है वह लगभग बारह वर्ष तक चला था इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह वही भारत देश है जिसमें एकता का अभाव है, भारतीयता का अभाव है ।

अगर दूसरे अर्थो में देखा जाये तो कोई भी व्यक्ति अपने आप को भारतीय कम कहलाना पसंद करता है । उससे कहीं अधिक वह अपने आप को जाति गोत्र में बांधकर क्षेत्रियता की पट्‌टी में लिपटाकर धर्म के बंधन में बंधकर यू॰पी॰ वाला, बिहार वाला, बंगाली, मराठी, उड़िया कहलाने में गर्व की अनुभूति करता है जो कि अनभिज्ञ है उस वास्तविकता से कि बिहार, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र आदि की पहचान पहले है या भारत की ।

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वह यह निर्णित नहीं कर पाता कि हम पहले भारतवासी हैं या पहले बंगाल, बिहार, उड़ीसा, यू॰पी॰ आदि के निवासी, इसके लिए दोषी है । भारतीय व्यवस्था जो अपने नागरिकों को ही अपना न बना सकी जो नागरिकों को केवल और केवल बना पाई है बंगाली, बिहार वाला, यू॰पी॰ वाला, मराठी, उडिया, मलयाली आदि आदि जो अपने नागरिकों को भारतीयता का पाठ न पढाकर जातीयता का पाठ पढा रही है वाह !

धन्य है हमारी भारतीय व्यवस्था और उससे भी अधिक धन्य है भारतीय राजनीति जो देश के नागरिकों को केवल वोटर समझकर उनको राजनीतिक कुर्सी प्राप्त करने का एक माध्यम मात्र समझ रही है और अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल भी हो रही है लेकिन हम सम्पूर्ण दोष भारतीय व्यवस्था या भारतीय राजनीति का नहीं कह सकते ।

इसके लिए जितना उत्तरदायी भारतीय व्यवस्था व भारतीय राजनीति का है उससे कहीं अधिक उत्तरदायी हम स्वयं भारतीय जनता का है जो उनके बहकावे में आकर आपसी वैमनस्य पैदा करती है । हम स्वयं अनुभव भी करते हैं, देखते भी हैं कि एक चुनाव में जो नेता दूसरे के विरूद्ध चुनाव लड़ रहा होता है उसको मंच के माध्यम से बहुत भला बुरा कह रहा होता है लेकिन कुछ समय बाद या अगले चुनाव में वही नेता एक दूसरे की तारीफ इस तरह करता है ।

मानो दुनिया में कृष्ण-सुदामा की दोस्ती फिर से जिन्दा हो गई हो, क्योंकि वर्तमान समय में भारतीय राजनीति जातीयकरण के साथ-साथ अवसरवादी भी हो गई है इसलिए यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारतीय जनता इन अवसरवादियों मौका परस्तों के चुंगल से मुक्त होकर एक स्वतंत्र राष्ट्र जातियता व श्रेणीयता से उपर उठकर भारतीयता के रूप में निर्मित कर सकेंगे । यह केवल भारतीय जनता ही कर सकती है, भारतीय व्यवस्था नहीं ।

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जब जाति गोत्र व क्षेत्र से ऊपर उठकर भारतीयता को महत्व देकर एक सम्पूर्ण भारत जिसमें न कोई जाति हो, न कोई गोत्र, न कोई क्षेत्र हो, जो केवल भारत हो और उसके नागरिक केवल और केवल भारतीय ही हों तभी हम कह सकेंगे कि हमने अपने देश की एकता व अखण्डता के लिए अपने देश की मान-मर्यादा के लिए अपने देश की भक्ति के लिए कुछ किया है ।

साथ ही विचारणीय प्रश्न यह होगा कि हम भारतीय आखिर कब तक इन जाति गोत्र और क्षेत्र के बंधन में कब तक बंधे रहेंगे । यह सब एक शिक्षित भारतीय के लिए विचार का प्रश्न निश्चित ही होगा क्योंकि भारतवर्ष में मध्यकाल और वैदिक काल ही जाति, वंश पर आधारित थे जिसका परिणाम समस्त भारतवर्ष के सम्मुख रहा है विदित हो कि इस भारतीय व्यवस्था के अंग भारतीय राजनीति के जातीयकरण को नकराना व स्वीकारना भारतीय जनमानुष पर ही निर्भर करता है कि वह किस सीमा तक भारतीय राजनीति के जातीयकरण को स्वीकार करते हैं या इस दुर्लभ दुष्परिणामी व्यवस्था भारतीय राजनीति के जातीयकरण को नकारते हैं ।

यह तो भारतवर्ष का भविष्य ही तय करेगा कि इस दुष्परिणामी व्यवस्था के सकारात्मक परिणाम होते हैं या नकारात्मक परिणाम । बाकी निर्णय भारतीय जनता को ही करना होगा । जाति हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण व गम्भीर समस्या बन गई है जो ओर अधिक गम्भीर होती जा रही है जबकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है । लेकिन भारतीय राजनीति आज जाति आधारित हो गयी है जो इस देश की फिजा में विष घोलने का कार्य कर रही है ।

देश के सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल जातियों के आधार पर राजनीति कर रहे हैं । हद तो तब हो गई जब देश की जनगणना को ही जाति आधारित करने की मांग की जाने लगी । संसद तक में आवाज उठी प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को आश्वासन देकर मामला शांत करना पड़ा ।

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इस जातिय आधारित जनगणना के पीछे कुछ राजनीतिक पार्टियों का अपना स्वार्थ था जो जातियों की संख्या जानकर अपने राजनीतिक समीकरण तय करना चाह रहे हैं वर्तमान परिदृश्य में देश की सभी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां जातियों को अपने-अपने पीछे लगाकर इस देश को तोड़ने की साजिश रच रही हैं ।

अब ये इस देश की जनता पर निर्भर करता है कि वे राजनीतिक पार्टियों के मनसूबों को पूरा होने देगे या नहीं । कोई पार्टी अपने आप को किसी जाति की हितैषी सिद्ध करती है तो दूसरी पार्टी अन्य जाति को । क्या इस देश की जनता इतनी सीधी है कि वह जाति आधारित राजनीति के झांसे में आ रही हैं इसका बहुत अच्छा उदाहरण उ॰प्र॰ में देखने को मिला ।

जहाँ अनुसूचित जातियों की संरक्षक बहुजन समाज पार्टी ने 2007 के विधान सभा चुनावों में राजनीतिक पंडितों के सारे दावे व विशलेषण फेल कर दिये और जाति आधारित सोशल इंजीनियरिंग के दम पर स्पष्ट रूप से उ॰प्र॰ में 17 वर्ष बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई ।

जिसने सभी राजनीतिक पार्टियों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब समय आ गया है जब देश में जाति आधारित राजनीति के बिना सत्ता हासिल नहीं होगी । क्योंकि इस देश की जनता यही चाहती है आज देश में अपनी-अपनी जाति धर्म के राजनेता मौजूद हैं ।

उदाहरण के तौर पर चौधरी अजीत सिंह जाट जाति के नेता हैं । कु॰ मायावती अनुसूचित जाति की नेता हैं तो सचिन पायलट गुर्जर जाति के नेता हैं । कुछ इसी तरह देश में प्रत्येक जाति का अपना नेता है जिनका चुनाव क्षेत्र भी कुछ इसी प्रकार है । जहाँ उस जाति का बाहुल्य है उसी क्षेत्र की वह राजनीति करते हैं ।

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तो क्या यह उचित है ? यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या जाति आधारित राजनीति उचित है ? दुनिया अंतरिक्ष में पहुंच गई । चांद पर आसियाना तलाश कर रहे हैं और भारतीय जनता जातियों में बटी हुई है । धर्मो में बटे हुए है । जिस देश में जाति आधारित राजनीति होगी वह देश एक दिन निश्चित रूप से गर्त में चला जायेगा ।

जातियां समाज को तोड़ने का कार्य करती हैं जोड़ने का नहीं । जब समाज टूटता है तो इसका सीधा प्रभाव देश के विकास पर पड़ता है और विकास अवरूद्ध होने पर देश का पिछड़ापन, पिछड़ापन ही बना रहता है और वह देश सदैव विकसित देशों का पिछलग्गू ही बना रहता है ।

कदापि अग्रणी पंक्ति में नहीं आ सकता इसलिए जाति आधारित राजनीति समाज व देश हित में नहीं है जो किसी भी मायने में उस देश के लिए एक प्रकार से स्लोपाईजन है जो धीरे-धीरे उस देश को खोकला कर देगा । हम सब भारतीय हैं । हमारी एक ही जाति होनी चाहिए वो भी भारतीय । हमारी एक ही पहचान होनी चाहिए भारतीय ।

हम गुर्जर, जाट, पंडित, यादव आदि जातियों से न पहचाने जायें । हमारे धर्म बेशक हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई हों लेकिन हमारी जाति एक ही होनी चाहिए वो भी भारतीय । हम एक भारत देश में जन्मे हैं । भारत की धरती पर रहते हैं । यहीं का एक जैसा ही अन्न खाते हैं इसलिए हमारी जाति भी एक ही होनी चाहिए ।

वो है भारतीय । इसके अलावा अपना जातीय परिचय देने वाला व्यक्ति देशभक्त नहीं है जिस दिन इस देश की जनता अपने आपको भारतीय जाति की समझने लगेंगे उस दिन इस देश में जाति आधारित राजनीति करने वाले लोगों का पता ठिकाना ढूंढने से भी नहीं मिलेगा । जिस दिन इस देश की जनता चुनावों में जातीय उम्मीदवार के स्थान पर विकास कराने वाले उम्मीदवार को प्राथमिकता देंगी वह दिन इस देश का स्वर्णिम दिन होगा और भारत विश्व का अग्रणी देश होगा ।

भारतीय पिछड़ेपन का मूल कारण भारतीय राजनीति में जातियो का बोलबाला है । जो कि इस देश के लिए घातक है । 63 वर्ष देश को आजाद हुए हो गये लेकिन भारतीयों की मानसिकता सक्रीर्ण विचारधारा जातीय मुल्य बिरादरी गोत्र आदि में सिमट कर रह गई है । इन्हीं बिन्दुओं के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही है । इससे आगे सोचने की उनकी सामर्थ्य नहीं है ।

अभी जाति में भी एक गोत्र जैसी लाइलाज बीमारी घर कर गई है जिसके लिए नवदम्पत्ति, प्रेमी-प्रेमिका का कत्ल गोत्र के नाम पर विशेषकर पश्चिमी, उ॰प्र॰, हरियाणा, दिल्ली में देखने को मिल रहा है । जिसे ऑनर किलिंग (इज्जत के लिए कत्ल) की संज्ञा दी जा रही है ।

जहाँ संकीर्ण मानसिकता रखने वाले समाज के ठेकेदार खाप पंचायतों के नाम पर नवदम्पन्ति, प्रेमी-प्रेमीका को आये दिन मौत की सजा का फरमान सुना रहे हैं । समाज के ठेकेदार अपने आप को कानून से ऊपर समझकर ऐसे फरमान सुना रहे हैं और इससे भी कदम-कदम आगे जाते हुए एक समुदाय ने तो बाकायदा हिन्दु विवाह अधिनियम में संसोधन कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए महापंचायत का आयोजन कर आन्दोलन तक करने की चेतावनी दे डाली जबकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक वाद में सगोत्र विवाह को वैध करार दिया जा चुका है उसके बाद भी इतनी हायतोबा की जा रही है । मानो सगोत्र विवाह से समाज में अशान्ति फैल जायेगी ।

इसके लिए आवश्यक नहीं है कि हिन्दु विवाह अधिनियम में संसोधन हो इसके लिए आवश्यक है कि ऐसे लोग अपनी संकीर्ण मानसिकता को त्यागकर विस्तृत मानसिकता से सोचे जिससे अनावश्यक ऊर्जा क्षति को बचाया जा सके और उस ऊर्जा का सदउपयोग देश हित में कर सके । जिस देश में लोगों की मानसिकता विस्तृत है वे देश हमसे अधिक तेजी से तरक्की कर रहे हैं ।

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वहां के लोग केवल अपनी तरक्की और ऐशो आराम के विषय में ध्यान देते हैं वे जाति, सगोत्र विवाह आदि फिजूल बातों पर ध्यान नहीं देते तभी तो वो हमसे काफी आगे निकल गये हैं । उन लोगों के लिए शादी विवाह कोई महत्व नहीं रखता ।

उन लोगों के लिए महत्व रखता है तो केवल अपने ऐशो आराम की जिन्दगी और अपना विकास । जबकि भारत देश में सर्वाधिक महत्व शादी को दिया जाता है चाहे ऐशो आराम हो या न हो । लेकिन शादी अवश्य होनी चाहिए भारत में शादी को जीवन की विशेष घटना के रूप में दर्शित किया जाता है शादी के कुछ समय बाद दोनों पति-पत्नी एक दूसरे से बोरियत महसूस करते हैं तथा अलग-अलग साथी की तालाश कर नया आनन्द व जोश का लुत्फ उठाते हैं लेकिन एक दूसरे से छिप-छिप कर ।

जबकि पश्चिमी देशों में एक दूसरे से बोरियत होने पर तलाक लेकर नये-नये साथी के साथ आनन्द उठाते हैं । हम भारतीय जिस कार्य को छिप-छिप कर करते हैं पश्चिम के लोग उसी कार्य को वैधानिक रूप से करते हैं ।

अन्तर सिर्फ मानसिकता का है बाकि एक मुख्य अन्तर और है भारतीय दम्पत्ति वंश चलाना ही शादी का उद्देश्य समझता है जबकि पश्चिमी लोग शारीरिक व मानसिक सुख उठाने के लिए शादी करते हैं वो लोग शादी के 10-10 वर्ष तक वैवाहिक जीवन का सुख उठाते हैं ।

जबकि भारतीय मात्र 1 व 2 वर्ष तक ही शादी का सुख उठाते हैं । अन्यथा तो बच्चों की देखरेख में लग जाते हैं । भारतीयों की मानसिकता केवल जाति, गोत्र पर आधारित है वे केवल जाति गोत्र के विषय में ही सोचते हैं । इसके अलावा उनकी कल्पना शक्ति क्षीण है ।

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