पर्यटन: भारतीय परिप्रेक्ष्य में (निबन्ध) | Essay for Students on Tourism in Hindi |
प्रस्तावना:
भारत एक विशाल देश है । इस बात का परिचय हमें यहाँ विद्यमान पर्यटन स्थलों से मिलता है । पर्यटन यहाँ एक वृहत्तर उद्योग के रूप मे विकसित हो रहा है । यद्यपि इस उद्योग में कुछ समय पूर्व मन्दी रही क्योंकि आतंकवाद के कारण भारतीय परिस्थितियाँ खराब थी तथापि अब यह पुन: पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है ।
चिन्तनात्मक विकास:
प्रत्येक राज्य अथवा देश का अपना एक विशेष मानबीय एवं भौतिकीय सौन्दर्य होता है । वस्तुत: प्रत्येक देश का सौन्दर्य वहाँ का प्राकृतिक बातावरण, ऐतिहासिक स्थल, संस्कृति एवं सभ्यता अधिक होता है और इसी आकर्षण के बशीभूत ही लोग विभिन्न देशों अथवा राज्यों में भ्रमण हेतु जाते हैं ।
वास्तव में यही पर्यटन है । पर्यटन को उद्योग का दर्जा देने के पश्चात् सरकार की मुख्य कोशिश रही है कि इससे अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा कमाई जाए । उसने उदार नीति अपनाई और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अनेक रियायतें दी ।
इन रियायतों व सुविधाओं के मिलने पर अनेक उद्योगपति इस व्यापार की तरफ आकथित हुये और ? उन्होंने संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू कर दिया । परन्तु आज पर्यटन उद्योग की यह कामधेनु पर्यावरण को चरने वाली साबित हो रही है ।
स्थिति यह हो गई है कि सरकार को स्वयं नहीं मालूम कि पर्यटन उद्योग सम्बंधी रियायतों की सीमा क्या होनी चाहिए । पर्यटन पर्यावरण के साथ ही स्थानीय संस्कृति और परम्परा को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है । इस प्रकार पर्यटन औपनिवेशिक शोषण का ही नया माध्यम बन गया है ।
उपसंहार:
हमारे पास पर्यटकों को आकर्षित करने की तकनीक जरूर है किन्तु इससे भविष्य में उपजने वाली अनेकानेक समस्याओं का सामना करने और उनसे निपटने की तकनीक उपलब्ध नही है । सवाल यह है कि इस समस्या से उबरने के क्या उपाय हैं ? यह स्पष्ट हो चुका है कि इस समस्या के घनीभूत होने के कारण क्या हैं ? वहवाँ आवश्यकता इस बात की है कि पर्यटन के क्षेत्र में विद्यमान समस्याओं को दूर करने हेतु ठोस कदम उठाये जायँ ताकि पर्यटन के विकास के साथ-साथ मानव जीवन एवं पर्यावरण के सत्य खिलवाड़ न हो सके ।
मानव जीवन में सर्वदा पर्यटन के प्रति एक विशेष आकर्षण विद्यमान रहा है । प्राचीन समय में आवागमन के साधन दुर्लभ थे किन्तु पर्यटन के प्रति लोगों की मनोवृत्ति विशेषत: रोमांचक थी । पर्यटन मात्र एक शब्द ही नहीं है, अपितु अपने भीतर सम्पूर्णता को संजोये हुये है, चाहे वह संस्कृति- सभ्यता हो, इतिहास, भूगोल, राष्ट्रीय एकता, कला, उद्योग सम्बंधी समस्यायें अथवा सम्भावनायें इत्यादि हों ।
पर्यटन, शब्द के नाम से ही सम्पूर्ण मानव मस्तिष्क में न केवल अपने देश के अपितु विभिन्न देशों के प्राकृतिक सौन्दर्य, संस्कृति एवं कला की रूपरेखा उपस्थित हो जाती है । भारत एक विशाल देश है । इस बात की अनुभूति हमें यहाँ के विविध पर्यटक स्थलों के द्वारा होती है । भारत का ही नहीं वरन् प्रत्येक देश का अपना एक विशेष सौन्दर्य होता है ।
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भारत तो वैसे भी सौन्दर्य से परिपूर्ण देश है, चाहे वह सौन्दर्य मानवीय हो अथवा भौतिकीय । उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक भारत की अपनी खास विशेषताएँ हैं । पर्यटन से निश्चितरूपेण व्यक्ति ‘मैं’ से हम की ओर उन्मुख होता है, झुकता से मुक्त होता है, प्रांत, भाषा, जाति, मत, पंथ एवं सम्प्रदाय की संकीर्णताओं से दूर होता है ।
वह विकास की प्रक्रिया में पर्यटन के माध्यम से पूरे, देश के साथ एकात्म होता है । किसी भी पर्यटक को अपने देश, वहां के भिन्न अंचलों में व्याप्त लोक संस्कृति, जीवन शैली और ऐतिहासिक प्रगति से तालमेल बिठलाने में रचनात्मक भूमिका अदा करने के लिए सहायक होने के अर्थ में जिस तत्व की आवश्यकता है वही नदारद हे ।
किसी भी पर्यटक के लिए आज भारत की पहचान फकीरों, महाराजाओं, भिखारियों, सपेरों, खजुराहों की मूर्तियों, ताजमहल, कुतुबमीनार अथवा कार्बेट नेशनल पार्क की सरहद कब की पार कर चुकी है । आज न सिर्फ नौजवान बल्कि बच्चे, बूढे जिसे देखो वही अपने सीने में एक जुनून लिए दुनिया का चप्पा-चप्पा छानने को उतावला है ।
पर्यटन का अर्थ आज सिर्फ नयी-नयी जगहों की सैर करना नहीं बल्कि दुनिया जहान से अपने आपको जोड़ लेना है । उन्नत या साहसिक पर्यटन एक ऐसा आयाम है जो पर्यटन सुख के अलावा शरीर के साथ ही मस्तिष्क की समग्र गतिविधि निस्तारण में सहयोगी भूमिका अदा कर रहा है ।
भारत में भी यह मान्यता अब तेजी से फैलती जा रही है कि जहां यह जवां कुदरत मेहरबान न हो तो अपने ही जीवन और उद्यम से बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है । इस बात को समझने के लिए एक अकेला ही दृष्टांत काफी होगा । प्राकृतिक संपदा के दृष्टिकोण से उत्तर भारत में हरियाणा, देश के ही कुछ अन्य प्रांतों से बहुत पिछड़ा हुआ था ।
पड़ोसी राज्य राजस्थान से उसे रेगिस्तान और रेतीले मैदानों का सन्नाटा तो जरूर मिला पर ऐतिहासिक, पुरातात्विक विरासत नहीं । बावजूद उसके कुशल नेतृत्व, स्थानीय जनता के जीवट और उसकी लगन ने चद वर्षो में ही हरियाणा का समग्र कायाकल्प कर डाला ।
आज स्थिति यह है कि हरियाणा पर्यटन के दृष्टिकोण से देश में अचल है, जबकि दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, हिमाचल, जम्यू-कश्मीर व सिक्किम तक तमाम प्राकृतिक उदारता के बावजूद या तो जस के तस बने हुए हैं या उत्तरोत्तर हाबान्श्रा हैं । यह आश्चर्यजनक तो है ही, अन्य प्रदेशों के लिए अनुकरणीय भी है ।
अथिति देवो भव; स्वा वसुधैव कुटुम्बवप्रम् की अवधारणा वाला भारत आज विश्व स्तर पर पर्यटन में लगातार पिछड़ रहा है । एकदम पुरातन पंथी अगर उसे साफ दकियानूसी न भी कहा जाये, ख्याल यह भी है कि भारत में पर्यटन उद्योग को सिर्फ विदेशी पर्यटकों के लिए आरक्षित एव संरक्षित मान लिया गया है जबकि देश में ऐसे लोगो की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, जो अपने ही देश के जाने-अनजाने हिस्सो, उनमें रह रहे जनों तथा उनकी लोकसंस्कृति से रूबरू होना चाहते हैं ।
यही नहीं देश में पर्यटन का सर्वथा एकांगी अर्थ यह लगा लिया जाता है, जिसे हम णारत दर्शन’ का पर्याय मान ले तो गलत न होगा । यह अपने आप में कम बड़ा आश्चर्य नहीं कि कभी देश के लिए सर्वाधिक विदेशी मुद्रार्जन का स्रोत, पर्यटन उद्योग, आज खिसक कर दूसरे स्थान पर पहुंच गया है जबकि तमाम सरकारी दावों और सरकार द्वारा ही पेश किये गये आकडो के आधार पर पर्यटन विकास की देश में दर दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है ।
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अगर इस स्थिति का वस्तुपरक मूल्यांकन किया जाए और कारणों को टटोला जाए तो यह निर्विवाद रूप से प्रमाणित हो जाएगा कि विश्व के अनेक छोटे-छोटे राष्ट्रों की तुलना में भी भारत में पर्यटन का विकास अपेक्षाकृत धीमा या साफ कहना चाहिए पिछडा हुआ, इसलिए भी है कि भारत में किसी भी अन्य विकासशील वस्तुस्थिति को प्राकृतिक तौर पर ‘टेकन फार ग्रांटेड’ वाले अर्थ में लेने की मानसिकता बेहद सहज है ।
प्राकृतिक सुषमा अथवा वैभव की पिटारी में अब न कोई नया माल बचा है और न हममें उस माल को बेचने की, ‘हर माल बिकेगा पांच आने’ वाली शैली में कोई ताजगी रही है । पर्यटन संवर्धन, विकास और विपणन से जुड़े वर्गो को यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि उस आयाम में भी एनरॉन अथवा केंटुकी फ्रांइड चिकिन प्रकरणों ने अपना प्रभाव छोड़ा है ।
‘सरकाय लो खटिया…’ की ही तर्ज पर ‘सर ! खाए लो भजिया…’ की फूहड परंतु बहुराष्ट्रीय मार्केटिंग तकनीक, दूनी कीमत पर भी उपभोक्ता को माल उपलब्ध करवाने के बावजूद, देश में भूजिया उद्योग की पूरी तरह बहुराष्ट्रीय हितों के हाल में जाने देने से रोकने के लिए विदेशी और स्वदेशी का भूत खड़ा किया जा रहा है ।
पर्यटन के संदर्भ में यह इसलिए आवश्यक हुआ कि देर-सवेर पर्यटन के भी चंद दरवाजे बहुराष्ट्रीय हितों को सौंपे जा सकते हैं और जाहिर है तब बहुत देर हो चुकी होगी । यह लिखने का यह प्रयोजन कदापि नहीं कि देश की जनता के हितों में, देश के पर्यटन उद्योग को, विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लीज के आधार पर चलाये जाने से हमें कोई आपत्ति है, परंतु इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भारत को किसी के लिए भी पेश करने के लिए भारत अथवा भारतीयों की ही भूमिका सर्वोत्कृष्ट हो सकती है ।
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इस संदर्भ में यह और भी स्मरणीय है कि आज विश्व भर में पर्यटन की पारम्परिक अवधारणा मूलचूल बदल ही चुकी है । कभी माना जाता था:
”सैर कर दुनिया की गाफिल कि जिंदगानी फिर कहां, गर जिंदगानी है भी तो नौजवानी फिर कहाँ ?”
यह कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए भी हुआ कि वक्त रहते भारत पारंपरिक और अधुनातन पर्यटन के बीच का अंतर, जो गुणात्मक और व्यावहारिक दोनों ही था, ही नहीं समझा पाया और यही नहीं उसे यह लगा ही नही कि अध्यात्म, सपेरों, फकीरो, मिखमंगों, ताजमहल और महाराजा नवाबो के देश में कोई सैलानी सिर्फ मौज-मस्ती के लिए भी नहीं बल्कि साहसिक पर्यटन के लिए भी आ सकता है ।
भारत में हम बहुत सी बातों को रस्म अदारागी के तौर पर ही लेते हैं, जिसके चलते पर्यटन का भी वही हश्र होता जा रहा है जो राजभाषा अथवा राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ हुआ, दूसरे शब्दों में जैसे हिन्दी दिवस अथवा हिन्दी पखवाडा मनाने भर से हिन्दी भाषा आज भी हाशिए पर है ।
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वैसे ही विश्व पर्यटन दिवस मनाने भर से देश में पर्यटन का विस्तार और उसकी लोकप्रियता मे उफान नहीं आ जाने वाला । हमें यह शायद महसूस ही नहीं हुआ कि तेजी से बदलते मूल्यों, मानदंडों और समीकरणो मे हमारी आज की सबसे बडी आवश्यकता पर्यटन ढांचे में जोड-घटाव करने के स्थान पर बेहतर विपणन अथवा मार्केटिग की है ।
आज भी हमारे यहाँ चारों धाम-यात्रा, शादी के पश्चात् थोड़ी मौज-मस्ती के साथ हनीमून मनाने और पर्यटन में, आज भी कोई फर्क नहीं माना जाता । बहुत हुआ तो यह समझ लिया जाता है कि पश्चिम की भौतिकीवादी अप-संस्कृति से त्रस्त पलायन कर रहा कोई व्यक्ति आत्मिक शांति के लिए जो भारत आया वही पर्यटक है ।
यहाँ यह सोचना जरूरी है कि बस वही पर्यटक नहीं है । पर्यटक तो वह है जो देश, जाति, धर्म से परे अपना पैसा मनोरंजन के नाम पर खर्च करने पहुंचा हो और इस संतोष के साथ स्वदेश लौटे कि जो भी अनुभव किया वह यादों की धरोहर एक पर्यटक के लिए पर्यटन का अर्थ एक नयी जगह, नये लोग, नया परिवेश, नयी परम्पराएँ और सैर-सपाटा भर होता है, जबकि किसी देश के पर्यटन मंत्रालय के लिये यह होता ऐविदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला सुनहरा माध्यम । इसी बात को ध्यान में रखकर भारत में भी पर्यटन को उद्योग का दर्जा दे दिया गया और इसके साथ अनंत सम्भावनाओं का पुलिंदा जोड़ दिया गया ।
उसके बाद भारतीय पर्यटन की सेहत पर नजर रखने का जो दौर शुरू हुआ, वह आज तक जारी अनगिनत भावी योजनाओं से भरपूर पर्यटन मंत्रालय ने यह दावा पेश किया कि भारत में पर्यटन का ग्राफ और उससे होने वाली आय तेजी से ऊपर की तरफ बढ़ती चली जा रही है ।
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मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 1992 में भारत में 18.7 लाख विदेशी पर्यटक आए और 1995 में 21 लाख । इस बीच पर्यटन से होने वाली विदेशी मुद्रा की आये भी दो हजार करोड़ से बढ्कर साढ़े चार हजार करोड़ रूपये से ऊपर पहुंच गयी है और अब हीरे-जवाहरात के बाद पर्यटन उद्योग, भारत का दूसरा सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा हासिल करने वाला उद्योग भी बन गया है ।
आकड़ों की इस रूखी-सूखी कवायद से अति उत्साहित होकर अब पर्यटन मंत्रालय ने वर्ष 1997 तक 50 लाख विदेशी पर्यटकों की आमद का लक्ष्य सामने रख दिया है । इस लक्ष्य के साथ ही जहां कई नयी योजनाओं पर विचार किया जा रहा है, वहीं पर्यटन मंत्रालय पर भी कई सवाल एक साथ उठ खड़े हुए हैं ।
आकडो के मुताबिक भारत में 1995 में 21 लाख विदेशी पर्यटक आए । फिर 1997 तक 50 लाख विदेशी पर्यटकों की आमद का लक्ष्य (दुगुने से भी अधिक) पर्यटन मंत्रालूय कैसे पूरा करेगा, यह काफी आश्चर्यजनक लगता है । दूसरा मुद्दा यह है कि थाईलैंड जैसे छोटे से देश में हर साल 50 लाख विदेशी पर्यटक आते रहै, जबकि असीम संभावनाओं से भरपूर भारत में विश्व भर में पर्यटन मात्र 0.5 प्रतिशत ही आता है ।
भारत में विदेशी पर्यटन की आमद में आ रहे ठहराव के लिए अक्सर आतंकवाद (कश्मीर, असम या फिर पंजाब) को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, जबकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि ऐसी ही परिस्थितियों से गुजरने के बाधक इस्राइल में आज भी पर्यटन पूरे दमखम से जारी है और वहां काफी विदेशी मुद्रा भी अर्जित को जा रही है ।
यहां गौरतलब यह भी है कि हमारे यहां तकनीकी भाषा के मुताबिक विदेशी पर्यटक उसे माना जाना चाहिए जिसके पास विदेशी पासपोर्ट हो और भारत में सैर या फिर व्यापारिक मकसद से आया हो, लेकिन कडे प्रस्तुत करते वक्त अक्सर ऐसा नहीं किया जाता ।
ये आरोप उठे हैं कि मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत 21 लाख विदेशी पर्यटकों के आकड़ों में से करीब 175 पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए लोग हैं, जो कि पर्यटन उद्योग के लिए खास फायदेमंद नहीं होते । पड़ोसी देशों से आने वाले ये पर्यटक भारतीय आबोहवा से परिचित होते हैं और यहाँ आकर विदेशी मुद्रा खर्च करने के बजाय अपने परिचितो के पास रहना ज्यादा पसंद करते हैं ।
ऐसे में पर्यटन मंत्रालय के आय के पिटारे में इनका योगदान नाममात्र का होता है, लेकिन फिर भी इन्हें पर्यटन के ग्राफ में सगर्व शामिल कर दिया जाता है । इस तरह यह बात तो साफ है कि पर्यटन की दृष्टि से अति समृद्ध होने के बावजूद भारत में पर्यटन की सेहत अच्छी नहीं है । इसके कई कारण हैं, जैसे कि हमारे यहां विदेशी पर्यटकों के लिए सुविधाएं नाममात्र की और ठगी से भरपूर हैं ।
उन्हें एयरपोर्ट से ”मिस गाइड” किये जाने का जो सिलसिला शुरू होता है, वह उनके लौटने तक जारी रहता है । यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनमें से कई तो लौटते वक्त दुबारा कभी भी ‘इंडिया’ न आने की कसम भी खा लेते हैं । यानी तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद अक्सर नौबत यहाँ तक आ ही पहुंचती है । यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे यहां विदेशी पर्यटकों के लिए समुचित आवास सुविधाएं नहीं हैं ।
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ठहरने के लिए पंच सितारा तो भरपूर हैं और अति निम्न स्तर के भी खूब मिल जाते हैं, मगर मध्यवर्गीय पर्यटकों के लिए जेब के मुताबिक होटलों का सर्वथा अभाव है । यह माना गया है कि इस व्रक्त देश में 50 हजार से ज्यादा होटलों की कमी है । इसके अलावा पर्यटन क्षेत्रों की दुर्दशा भी पर्यटन के ठहरते से ग्राफ के लिए जिम्मेदार है ।
मसलन-ताजमहल के आसपास की गंदगी, अजंता एलोरा की गुफाओं में बढ़ती आर्द्रता, गोवा और कोवलम बीच में वेश्यावृत्ति, पुष्कर में मादक पदार्थो की तस्करी, चिलका जैसी झीलों पर बढ़ते प्रदूषण आदि से पर्यटन पर बुरा असर पड़ा है ।
पर्यटन क्षेत्रों के आसपास की जबरदस्त महंगाई, चोरी, पर्यटन क्षेत्रों में अनुशासन की कमी और नियमों की अनदेखी ने पर्यटन के चेहरे पर बदनुमा दाग लगा दिउया है । एक अन्य कारण घरेलू पर्यटन की तरफ बरती जाने वाली जबरदस्त उपेक्षा भी है । हमारे यहाँ करीब 10 करोड घरेलू पर्यटक हैं, लेकिन उन पर ध्यान नहीं दिया जाता ।
फिर यह भी कि नये-नये पर्यटन क्षेत्रों को विकसित करते समय स्थानीय नागरिकों का न तो सहयोग लिया जाता है और न ही सलाह । पंच सितारा होटलों को अंजाम देते वक्त कई बार उनकी पुश्तैनी जमीनें तक छीन ली जाती हैं और बदले में उन्हें कुछ दिनों का रोजगार भी नहीं दिया जाता ।
इस क्षेत्र मे मोटी आय कमाने की गहन सोच में कहीं क्षेत्र के विकास का जिक्र तक नहीं आता । मसलन खजुराहों खे नकशे से आज भी हाई स्कूल और अस्पताल नदारद है । यानी स्थानीय लोगों की सुविधाओं और प्राकृतिक सपदा के एवज में पर्यटन मत्रालय स्वहित में तमाम तरह के आकर्षण तो जुटा लेता है, मगर स्थानीय लोगो काऊए कुछ भी हासिल नहीं होता ।
इसी तरह परिवहन सुविधाओ और विदेशों में समुचित प्रचार-प्रसार के अभाव जैसी कई कमियां भी हैं । बडी-बडी योजनाएं वातानुकूलित कमरों में बैठकर कागजो पर तय कर ली जाती हैं, जो अंतत: घाटे का सौदा साबित होती हैं । मसलन पिछले साल अक्तुबर में राजस्थान पर्यटन की शाही रेलगाड़ी बौद्ध गेज में परिवर्तित होने पर दो दर्जन से भी कम यात्रियों को लेकर रवाना हुई थी ।
इसी कड़ी में पर्यावरण से जुड़े तमाम नियमो को ताक पर रखकर गोल्फ क्षेत्र बना दिये जाते हैं, क्योंकि आम पर्यटक की तुलना में गोलस से पाच गुनी अधिक आमदनी होती है । यह माना जाता है कि गोल्फ क्षेत्र सिर्फ बंजर भूमि पर ही बनाए जाने चाहिए अन्यथा पर्यावरण पर बुरा-असर पड़ता है, मगर अक्सर ऐसे नियमों की परवाह नहीं की जाती है ।
नजरअंदाजी का आलम यह है कि पर्यटन धीरे-धीरे ‘प्रदूषण’ में तब्दील होता जा रहा है और इस श्रेणी में पर्वतराज हिमालय की चोटियां भी शामिल हो गयी हैं । कहा जा रहा है कि अनुशासनहीन पर्यटन की बदौलत आज वहां जिस तेजी से कूड़ा-करकट जमा हो रहा है, जो एक दिन एवरेस्ट पर्वत चोटी से भी ऊंचा हो जाएगा ।
मूल बात यह है कि पर्यटन उद्योग को पूर्णरूप से व्यावसायिकता का रूप दिया जा रहा है तो दूसरी और पर्यावरणवादियों ने पर्यटन उद्योग से पैदा खतरों की ओर इशारा करके इसमें निहित बुराइयों को दूर करने की ओर ध्यान दिलाया है । यानी यह बात तो तय है कि भारतीय पर्यटन के इस पिटारे में यदि झिलमिलाती हुई आय है तो कमियों का अंबार भी है, जिन्हें सरकारी तामझाम से नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति से दूर करने की जरूरत है ।
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आज आवश्यकता इस बात की है कि पर्यटन तंत्र के विकास और सुव्यवस्था पर जोर दिया जाए । विविध विभागों व राज्य सरकारों में समन्वय एवम् सामंजस्य स्थापित किया जाए । सबसे अहम आवश्यकता राजनैतिक इच्छा शक्ति की है । वर्तमान समय में पर्यटन के विकास में उडान सेवा होटल और कम्प्यूटर की आवश्यकता बढ गई और साथ ही केबल टी.वी. का प्रसार बढ़ रहा है जो कि पर्यटन हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकता है ।
ऐसा अनुमान है कि सन 2005 तक 3 करोड़ घरों में केबल टीवी. पहुँच जाएगा । इसे पर्यटन के लिए उपयोगी माध्यम बनाया जा सकता है । साथ ही पर्यटकों की सुविधाओं पर अधिक ध्यान देना होगा । इस क्षेत्र में पूंजी निवेश बढ़ाना होगा ।
विदेशी पर्यटकों हेतु बाजार की खोज करनी होगी । पर्यटन संस्कृति के दुष्परिणामों को दूर करना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि स्वदेशी संस्कृति की रक्षा नहीं की जाएगी तो इसका विनाश भावी पीढी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है ।
अत: यह ध्यान रखना अत्यधिक आवश्यक है कि पर्यटन विकास के साथ भारतीय मान्यताओं एवं परम्पराओं का पतन न हो । हर भारतीय के लिए यह याद रखना जरूरी है कि ‘अतिथि देवीभव’ हमारी सांस्कृतिक परंपरा है और पर्यटन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सद्भाव को बढ़ाने का एक अनूठा माध्यम है ।
ऐसे में यदि कभी कहीं राह चलते कोई मटका हुआ राहगीर नजर आ जाए तो मुंह न मोड़ें । कौन जाने हमारी एक नन्हीं-सी मदद उसकी दिक्कतों को कुछ कम कर दे । पर्यटन के चेहरे को निखारने की पहल बहरहाल हमें ही करनी होगी ।