कृषि अनुसंधान, शिक्षा और विपणन में भारत-अमेरिका ज्ञान पहल पर निबंध!
भारत-अमेरिका समझौता अब संपन्न हो चुका है । इस पर हस्ताक्षर करने से पहले भारत में इस पर तगड़ी बहस चली थी । इसके हर पहलू को खंगाला जा रहा था कि कहीं इसका कोई प्रावधान भारत के सामरिक हित के विपरीत तो नहीं । वामदलों ने इस पर जितना बवाल मचाया है, उससे यूपीए गठबंधन सरकार तलवार की धार पर आ गयी थी ।
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किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक स्वस्थ संकेत है । हमारे संविधान में ऐसी व्यवस्था नहीं हैं कि कोई सरकार किसी दूसरे देश के साथ कोई संधि करने से पहले संसद की मंजूरी अवश्य ले । पर, इस समझौते पर वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के बीच व्यापक बहस होनी ही चाहिए थी पर जिन समझौतों में परमाणु शब्द नहीं आता उसमें हमारे राजनैतिक दल इतनी चिंता क्यों नहीं दिखाते?
ऐसे ही एक समझौते पर सबकी नजर जानी चाहिए थी, जिसका इस देश की जनता से ज्यादा वास्ता है । इसके अन्तर्गत देश के सामरिक हित अधिक दीर्घकालीन हैं और यह नवीनतम टेक्नोलॉजी पहुँच की पारंपरिक शर्त से भी कहीं दूर तक कारगर होगा । यह समझौता अमेरिका के साथ ही है । इसका नाम है कृषि अनुसंधान, शिक्षा और विपणन में भारत-अमेरिका ज्ञान पहल । मार्च 2006 में भारत यात्रा पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने हैदराबाद में इस पहल की औपचारिक शुरूआत की थी ।
यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझौता है । यह देश की खाद्य सुरक्षा के साथ जुड़ा है, लेकिन किसी राजनैतिक दल ने इस पर तवज्जो नहीं दी । न ही कृषि क्षेत्र के प्रबुद्ध वैज्ञानिकों ने इसे खुर्दबीन के नीचे रखा । ऐसा लगता है कि खाद्य सुरक्षा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं मानी गयी ।
भारत-अमेरिका ज्ञान पहल की नींव 2005 में ही रख दी गयी थी, जब डॉ. मनमोहन सिंह और जार्ज बुश ने कृषि टेक्नोलॉजी समझौते पर हस्ताक्षर किये थे । अपनी अमेरिका यात्रा पर अमेरिकी संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत में हरित क्रांति ने लाखों लोगों को गरीबी से निजात दिलवाई । समझौते के बाद, इस कार्यक्रम पर अमल के तौर-तरीके तय करने के लिए, भारत से एक दल दिसम्बर 2005 में अमेरिका गया था । अमेरिका से भी कृषि वैज्ञानिक भारत यात्रा पर आये । पूरी कवायद बड़े गोपनीय ढंग से हुई ।
कृषि क्षेत्र में भारत-अमेरिका ज्ञान पहल ऐसे समय शुरू हुई है, जब भारत की कृषि भयंकर दौर से गुजर रही है । इस पहल के तहत भारत के कृषि क्षेत्र के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की व्यवस्था है, इसलिए यह भारत के लिए नितांत अहम् है, लेकिन एक बात जिसका एहसास किसी को नहीं हो रहा कि जिस भारत की अस्सी फीसदी जनता लगभग सवा एकड़ जोत से जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रही है, वहाँ इस नवीनतम अमेरिकी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कैसे होगा ।
जिस तथ्य की तरफ निगाह नहीं जा रही, वो यह है कि भारत के 60 करोड़ किसानों का लगभग 99 प्रतिशत (उनके परिवारों समेत) गरीबी की रेखा से नीचे रहता है । राष्ट्रीय असंगठित क्षेत्र उद्यम आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत की 83 करोड़ 60 लाख आबादी (जिसमें ज्यादातर गिनती किसानों की है) घोर गरीबी की हालत में रहती हैं । ये लोग किसी भी स्थिति का आसानी से शिकार हो सकते हैं । इनकी प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति खपत बीस रूपये से भी कम है । दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो यह आधा डॉलर रोजाना से भी नीचे हैं ।
सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि इन निरीह लोगों के लिए क्या अमेरिका में कहीं किसी उचित टेक्नोलॉजी का विकास किया जा रहा है । एनएसएसओ ने हाल के एक सर्वे में कहा था कि अगर कोई विकल्प दिया जाये तो 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने के लिए तैयार हैं ।
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सरकार को सबसे पहले तो यह पता लगाना चाहिए था कि देश की खेती की इतनी दयनीय दशा के पीछे कारण क्या है? इसकी बहुत बड़ी वजह है किसानों पर ऐसी टेक्नोलॉजी थोपना जो न तो पर्यावरण के अनुकूल है और न ही किसान उससे वाकिफ है ।
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इस सब को जाने-समझे बिना सरकार किसानों के लिए अब एक और दोषपूर्ण दूसरी हरित क्रांति के नुस्खे सुझा रही हैं । अगर आप बोर्ड की बैठकों के ब्यौरे पढ़े तो एक बात साफ सामने आयेगी कि छोटे और बहुत छोटे किसान इस पहल से नदारद हैं ।
यह भारत-अमेरिका समझौता मुख्यतौर पर खेती के निगमीकरण के बारे में है इससे भारत की खेती बड़े अमेरिकी घरानों के सीधे नियंत्रण में आ जायेगी । अमेरिका के बड़े कृषि व्यापारिक निगमों का दबदबा इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका की विशाल सुपरमार्किट कंपनी वॉलमार्ट तथा बीज तैयार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो इस बोर्ड की सदस्य हैं ।
दिलचस्प बात यह भी है कि अभी इस समझौते की स्याही भी न सूखी थी कि खबरों से संकेत मिला कि वॉलमार्ट और मोनसेंटो ने साफ कहा है कि उनकी अनुसंधान और विकास में कोई रूचि नही । वे केवल भारत द्वारा प्रस्तुत व्यापार के बढ़ते अवसरों को देख रही हैं । इन कंपनियों की रूचि भारत को फसलों और मवेशियों के बारे में ऐसी टेक्नोलॉजी देने में है, जिसकी भारत की न तो जरूरत है और उसमें जोखिम भी है ।
दूसरी हरित क्रांति का पूरा ताना-बाना अमेरिकी कृषि-व्यापार के हितों के इर्द-गिर्द बुना गया है । बहुराष्ट्रीय कंपनियां (और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद भी) जो नयी टेक्नोलॉजी देने की योजना बना रही है वह इतनी अत्याधुनिक है कि बड़ी संख्या में किसान उसके फायदे नहीं उठा सकेंगे ।
हालांकि परिषद् ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि वह गुजारे लायक खेती से आगे ठेका-खेती की तरफ बढ़ रही है, पर हकीकत यह है की खेती से, गुजारा चलाने वाली बात निकाल लेने की जो भरी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कीमत चुकनी पड़ेगी । इस पर देश में कोई कारगर बहस हुई ही नहीं है । वक्त आ गया है कि इस समझौते पर भी पूरी राजनीतिक ताकत के साथ ध्यान दिया जाये ।