समान नागरिक संहिता में बाधक तत्व पर निबन्ध |Essay on Obstacles in Uniform Civil Code in Hindi!

माननीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 को असंवैधानिक घोषित करते हुए विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों तथा धर्मावलम्बियों पर लागू होने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरुपता तथा स्पष्टता लाने को अपरिहार्यता पर जोर देते हुए विधायिका को याद दिलाया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र में बनाने का निर्देश है ।

50 वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने के पश्चात् भी इस दिशा में सार्थक पहल न होने से विवाह, तलाक भरण-पोषण, दत्तक ग्रहण उत्तराधिकारों के मामलों में अनिश्चितता, अस्पष्टा तथा विभेदकारी स्थिति है, जिसे दूर करना नितांत आवश्यक है ।

अनुच्छेद 44 में एक ऐसा उपबन्ध है, जिसे क्रियान्वित करने में राज्य आनाकानी कर रहा है, इसरो पहला कदम 1954 में उठाया गया जब विशेष विवाह अधिनियम पारित किया गया था, इसके बाद हिन्दुओं की वैयक्तिक विधि में एकरुपता लाने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम तथा हिन्दू अप्राप्तवायता एवं संरक्षण अधिनियम पारित किए गए ।

इन कानूनों के द्वारा अन्यों के अतिरिक्त पहली बार हिन्दुओं में एक से अधिक विवाह पर रोक लगाने, कतिपय परिस्थितियों में न्यायिक पृथक्करण तथा तलाक की व्यवस्था करने तथा पिता की सम्पत्ति में पुत्री की भागीदारी देने की व्यवस्था थी, जिसके कारण उस समय इसे प्रखर विरोध का सामना करना पड़ा था ।

उस समय संसद में कांग्रेस का प्रचण्ड बहुमुत था फिर भी इस विधेयक को पारित कराने में पण्डित नेहरु को परेशानी हुई थी । तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद भी इन प्रावधानों से प्रसन्न नहीं थे लेकिन अन्तत: यह अधिनियम पारित हो गए ।

संविधान में जब अनुच्छेद 44 जोड़ा जा रहा था तब मुस्लिम सदस्यों ने इसका विरोध किया था कि यह उनके वैयक्तिक अधिकारों के क्षरण का आधार बनेगा लेकिन उत्तर मे कहा गया था कि भारत के अन्यान्य क्षेत्रों में वृहत् तथा समान विधियाँ पहले से ही लागू हैं, यह भी बताया गया कि हालांकि विभिन्न वैक्तिक विधियों में एकरुपता नहीं है. लेकिन वे ऐसी भी पेवित्र नहीं है जिन्हें छुआ न जा सके ।

विवाह, विरासत तथा उत्तराधिकार ऐसे विषय धर्म से अलग किए जाने चाहिए तथा इनमें समानता लाने से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी, लोगों को विश्वास में लेते हुए यह भी कहा गया था कि भविष्य में कोई विधायिका वैयक्तिक विधियों में ऐसा संशोधन नहीं करेगी जो जनमत के विरुद्ध हो ।

कई विवाद ऐसे हुए जिसमें समान व्यवहार संहिता की आवश्यकता महसूस की गयी, लेकिन सम् 1985 में मोहम्मद अहमद खाँ बनाम शहबानो के बहुचर्चित मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिकता कानून की अपरिहार्यता को रेखांकित किया तथा राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में इसे जरुरी बताया ।

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इस केस में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि यदि कोई मुस्लिम महिला तलाक के बाद निर्वाह करने में असमर्थ है. तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन अपने पति के विरुद्ध भरण-पोषण के लिए दावा कर सकती है ।

मुस्लिम सम्प्रदाय के एक वर्ग में इस निर्णय का बहुत विरोध हुआ जिसके आगे झुककर अन्तत: सरकार को इस निर्णय को अप्रभावी करने के लिए संसदीय कानून बनाना पड़ा । समान सिविल संहिता के मुद्दे को साम्प्रदायिक चश्मे से देखा जाता है तथा उसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास किए जाते हैं ।

तर्क दिया जाता है कि एक सम्प्रदाय में चार विवाहों की अनुमति है, जबकि दूसरे में बहुविवाह पर पाबन्दी है इसी प्रकार स्त्रियों को पिता की सम्पत्ति में हिरसेदारी देने पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई जाती है । वास्तविकता यह है कि समान संहिता के विरोध के पीछे पुरुष का अहम् है जो स्त्रियों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहता तथा सामन्ती तरीके से वैयक्तिक मामलों में पुरुषा श्रेष्ठता का सदैव दावेदार है ।

हिन्दू तथा मुस्लिम वैयक्तिक विधियों में कानून का स्पष्ट झुकाव पुरुषों के पक्ष में है और उनके अहम् की तुष्टि करता है । इनमें किसी भी परिवर्तन को सद्‌भावना एवं सहजता से नहीं लिया जाता तथा अन्य कारणों से उसका विरोध कर मामले को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है ।

साधारणतया इन विधियों में विवाह, तलाक, विरासत, उत्तराधिकार, दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण से सम्बन्धित मामले आते हैं । इनको संचालित करने वाली विधियों में स्त्रियों को समानता का अधिकार देने को लेकर विवाद है ।

विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों तथा धर्मो में स्त्रियों को उनकी बराबरी का हक न देने वाले नियम, परिनियम तथा रुढ़ियाँ हैं और उनको सुधारने तथा प्रगतिशील बनाने में समान्तवादी पुरुष मानसिकता आड़े आती है । पुरुषों का यही संकीर्ण रवैया अपनी स्त्रियों को बराबरी की दृष्टि से नहीं देखता तथा इसी कारण प्रत्येक ऐसे कानून का विरोध होता है जिनमें उनको बराबरी देने की बात होती है ।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में बिना वसीयती तथा रचअर्जित सम्पत्ति में पत्नी तथा पुत्री (विवाहित या अविवाहित) को बराबरी का अधिकार है । लेकिन पुत्रियाँ अपने विवाह में दिए गए दहेज के एवं में इसे छोड़ देती हैं तथा पत्नी को केवल जीवनपर्यन्त इसका उपभोग करने की छूट होती है ।

उसकी मृत्यु के बाद यह पुन: पुत्रों में बँट जाती है । स्त्रियाँ अपने परिवार से सम्बन्ध बनाए रखने के लिए भी अक्सर अपना हिस्सा नहीं माँगती हैं । व्यवहार में पैतृक सम्पत्ति में तो सिर्फ पुरुष सदस्यों को ही हिस्सा मिलता है ।

स्त्रियों को तो अपने मायके में रहने का अधिकार तभी तक होता है यदि वे अविवाहित हों अथवा तलाकशुदा । कृषि योग्य भूमि को टुकड़ों से बचाने के लिए महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं दी जाती । मुस्लिम विधि में भी स्थिति महिलाओं के हितों के प्रतिकूल है । यह विधियाँ शरीयत अधिनियम 1937; मुस्लिम विवाह-विघटन अधिनियम 1939 तथा मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेदन पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 में संहिताबद्ध है ।

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शरीयत अधिनियम कहता है कि मुस्लिम वैयक्तिक कानून प्राथमिकता प्राप्त करेगा; लेकिन वस्तुत: यह पवित्र कुरान की व्याख्याओं पर आधारित है तथा इस पवित्र कुरान की व्याख्याओं पर आधारित है तथा इस पवित्र ग्रंथ की चार भिन्न-भिन्न टीकाएं उपलब्ध हैं, सन 1939 का अधिनियम मुस्लिम स्त्रियों को तलाक की इजाजत केवल कुछ अत्यन्त दुखद परिस्थितियों में देता है जैसे पति की क्रूरता तथा नपुंसकता, जिसे सिद्ध करना आसान नहीं है, वहीं पुरुष को तीन बार बोलकर तलाक का अधिकार है ।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि तीन तलाक (तलाक-उद-विदा) का कई मुस्लिम देशों ने उत्सादन क्षर दिया है, किन्तु भारत में इसे मान्यता प्राप्त है । भारत में अभी भी पुरुषों को चार विवाह छी छूट है । जबकि स्त्रियाँ एक से अधिक विवाह नहीं कर सकतीं ।

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यह ध्यान देने योग्य दे कि बहुत से मुस्लिम देशों में एक विवाह का नियम बना लिया है और मुस्लिम विधि के प्रनेक नियम बदल दिए गए हैं, जिन देशों ने ऐसा किया है उनमें ईरान, मिस्र, मोरक्को, लोइन, सीरिया, तुर्की, ट्‌यूनीशिया तथा पाकिस्तान सम्मिलित हैं ।

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जहाँ तक सम्पत्ति में हिस्सेदारी का प्रश्न है, मुस्मिल स्त्रियों को पवित्र कुरान द्वारा तो है. लेकिन वे पुरुष सदस्यों की तुलना में आधा हिस्सा पाने की हकदार हैं । 1937 का अधिनियम उन्हें कृषि योग्य भूमि में वह भी हिस्सा नहीं देता । मुस्लिम विधि में हसी बच्चे का एकमात्र अभिरक्षक उसका पिता ही होता है ।

ईसाइयों पर लागू कानून इस दृष्टि से कम विभेदकारी है तथा इण्डियन क्रिश्चियन धिनियम 1872 तथा विदेशी विवाह अधिनियम 1969 विधि को संहिताकृत करने वाले ग्रणी अधिनियम रहे हैं, लेकिन यह भी अपेक्षित आदर्श स्थिति को प्राप्त नहीं है । अभी हाल में भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम की एक धारा विभेदकारी होने के कारण ही ब्बतम न्यायालय द्वारा निरस्त की गई है ।

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि प्राय: सभी पंथों में स्त्रियों को बराबरी का हक नहीं है, उन्हें अपने पिता के घर में कोई स्थान नहीं है तथा विवाह टूटने या सम्पत्तिहीन ने की दशा में उनके सिर पर छत नहीं रहती और जले पर नमक की स्थिति तब होती जब इनमें सुधार की पहल को निरादृत कर दिया जाता है ।

पुरुष वर्ग अपने पंथ के अन्दर उसे लागू करने के प्रति उत्सुक और ईमानदार नहीं क्योंकि वे स्त्रियों को बराबरी का हक नहीं देना चाहता, वैयक्तिक विधियों में एकरूपता तथा समानता स्त्रियों को समान अधिकार देने से सीधे जुड़े हुए है । शाहबानो के मुकदमे बाद से समान सिविल संहिता का मुद्दा वोट की राजनीति से अधिक प्रेरित है ।

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गीता हरिहरण के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि पिता के जीवित ते भी माँ अपने बच्चे की संरक्षक हो सकती है । सरला मुदगल (1995) के वाद में यालय ने धर्म परिवर्तन की आड़ में द्वितीय विवाह को अवैध माना है ।

न्यायालय ने मुस्मिल पक्षकारो के इस तर्क को अमान्य कर दिया चूँकि उन्हें चार करने की छूट है तथा प्रत्येक स्त्री को मातृत्व का मौलिक अधिकार है अत: यह अधिक बच्चों पर होने वाली निरर्हता उनके धर्म सम्बन्धी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है ।

इसके पूर्व अन्यान्य निर्णयों में उच्चतम न्यायालय उन कानूनों को निरस्त कर चुका है जिनमें स्त्री के गर्भपात कराने के लिए पति की सहमति की आवश्यकता होती थी । इसी प्रकार दत्तक ग्रहण के मामले में स्त्री को अपने पति की सहमति की अपरिहार्यता भी अवैध घोषित की जा चुकी है ।

हिन्दू विधि में एक विवाह की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली यह याचिका भी खारिज कर दी गई थी जिसमें कहा गया था कि पुत्र न जनने वाली स्त्री के पति को दूसरा विवाह करने की इस आधार पर अनुमति होनी चाहिए क्योंकि पुत्र ही पिण्डदान करता है ।

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न्यायालय का कहना था कि यदि किसी दम्पत्ति के पुत्र नहीं है तो यह कार्य दत्तक पुत्र से कराया जा सकता है अब वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है कि पुत्र जनने में अक्षमता स्त्री की नहीं, बल्कि पुरुष की होती है ।

हिन्दू विधि में संशोधन इस कारण सम्भव हो पाया कि यह बहुसंख्यक वर्ग के लिए तथा विधायिका में इनका बहुमत था । मुस्लिम विधि में परिवर्तन इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि इनका विरोध सत्ता की राजनीति में असर दिखा सकता है ।

मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने वाली सर्वमान्य संस्था का भी अभाव है जिसे वास्तव में बहुसंख्यक मु।रेलमों का आदर व समर्थन प्राप्त हो । स्त्रियों को शिक्षा, उनको समान अवसर तथा पुरुषों की समकक्षता से धर्म की हानि नहीं, बल्कि उन्नयन होगा, जो पंथ दीवाल पर लिखी इबारत को नहीं पढ़ पाता उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती हे ।

समान संहिता बनाने की बजाए पहले अपने-अपने सम्प्रदाय तथा धर्म में कुरीतियों, अन्याय तथा विभेदकारी कानूनों को समाप्त करने की पहल होनी चाहिए तथा स्त्रियों को उनका उचित हिस्सा दिलाने का कार्य किया जाना चाहिए ।

वर्तमान में विवाह संस्था में पुरुषों के वर्चस्व के कारण ‘मैत्री सम्बन्ध’ (जिसमें युवक-युवती बिना विवाह के रहते हैं) बढ़ रहे हैं । बच्चे की आवश्यकता भी अन्यान्य तरीकों से पूरी हो रही है । शुरा में तो संयुक्त परिवार का विघटन होता था अब एकल परिवार भी ध्वस्त हो रहे हैं । ऐसे में विकृतियाँ जन्म लेंगी, अराजकता बढ़ेगा । नागरिक असमानता को अब अधिक दिनों तक दबाए रखना संभव नहीं है ।

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