Here is an essay on the Indian legal system especially written for school and college students in Hindi language.
किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए एक संविधान की आवश्यकता होती है जिसके अनुसार व्यवस्था चलती है और उसके बाद व्यवस्था का जो महत्वपूर्ण अंग है वह है कानून, संविधान का पूरक कानून को कहा जा सकता है क्योंकि बिना कानून के कोई भी संविधान पूरक नहीं है यदि किसी राष्ट्र का कानून शख्त है तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि उस देश की व्यवस्था भी उतनी ही अधिक मजबूत होगी और यदि किसी देश का कानून व संविधान दोंनों ही लचीला है तो कहा जा सकता है कि उस देश में अपराध, भ्रष्टाचार, शोषण व उत्पीडन की अधिकता होगी जैसा की भारत वर्ष में देखा जा सकता है ।
भारतीय संविधान जितना विस्तृत है उससे भी कहीं अधिक विस्तृत है भारतीय कानून लेकिन विस्तृता के साथ ही भारतीय कानून में जितनी प्राचीनता है शायद ही दुनिया के किसी देश में होगी जो समय बदलने के साथ भी वही है जिसको आज तक बदलने की कोशिश भी नहीं की गई है ।
आज भी अगर देखा जाये और विश्लेषण किया जाये तो पाया जाता है कि अधिकतर कानून तो वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल ही नहीं हैं और वे मृतप्राय हो चुके हैं और जो बचे हैं उनमें भी संशोधन की आवश्यकता महसूस की जा रही है ।
सर्वाधिक व्यवहार में आने वाले कानूनों की यदि बात करें तो वो भी अत्यधिक पुराने हैं कि न्याय व्यवस्था के शुरूआती समय में जब कानून बचपन की अवस्था में कहे जा सकते थे और अब कानून अपनी किशोरावस्था से गुजरते हुए युवावस्था और वृद्धावस्था में पहुंच गये हैं जैसे भारतीय दंड संहिता 1860 का बना अंग्रेजों का कानून है जिसमें देखा जाए तो धारा-290 के दोषी को मात्र दो सौ रूपये जुर्माने से दंडित करने का प्रावधान है ।
धारा-282 में भी मात्र एक हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान है और धारा-283 में दो सौ रूपये का दंड धारा-284 में एक हजार रूपये का दंड इसी प्रकार धारा-285 जो अग्नि या ज्वलनशील पदार्थ के सम्बन्ध में उपेक्षापूर्ण आचरण जैसे अपराध में मात्र एक हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान करती है । विस्फोटक पदार्थ जैसे गम्भीर पदार्थ के उपेक्षापूर्ण आचरण के सम्बन्ध में भी एक हजार रूपये जुर्माने के दंड का प्रावधान धारा-286 में किया गया है ।
धारा-287, 288 और 289 जैसे उपेक्षापूर्ण अपराधों में भी मात्र एक हजार रूपये जुर्माने का ही प्रावधान है किशोर बालक को अश्लील वस्तुओं के विक्रय के सम्बध में धारा-283 में पांच हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान है । उक्त सभी जुर्माने सन् 1860 के अनुसार ही निर्धारित किये गये हैं ।
उपरोक्त मात्र धाराएं ही नहीं हैं । इनके अलावा भी भारतीय दण्ड संहिता में धारा हैं जिनके निर्धारित जुर्मानों को देखकर कहा जा सकता है कि कोई भी अपराधी आसानी से कानून तोड़ने के लिए अपना मन बना सकता है यदि वर्तमान समय और सन् 1860 की तुलना की जाये तो मंहगाई व पैसे की कीमत के अनुसार सन् 1860 के एक हजार रूपये आज के लगभग दस लाख रूपये से भी अधिक बैठते हैं और यदि देश की सरकारें समय के साथ कानून की समीक्षा कर जुर्माने, सजा आदि में संशोधन कर सन् 1860 के जर्माना राशि को आज के अनुसार संशोधित करते तो निश्चित ही अपराधों के ग्राफ में कमी आती क्योंकि जब एक अपराधी का एक छोटे से अपराध में आज की मंहगाई के अनुसार जुर्माना भुगतना पड़ता ।
तो निश्चित ही दूसरे अपराधियों को भी इससे सबक मिलता और वे भविष्य में अपराध करने से बचते लेकिन जब अपराधियों को भी मालूम है कि कानून सन् 1860 का है और जुर्माना भी दो सौ रूपये या एक हजार रूपये ही होगा तो क्या कोई अपराधी कानून से डरेगा या वह अपराध करने से बचेगा अर्थात कदापि नहीं ।
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यह भारतीय व्यवस्था की ही कमी कही जा सकती है कि सम्पूर्ण कानूनो को चलाने वाला कानून जिसे कानूनों की माँ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी जिसे हम दण्ड प्रक्रिया संहिता कहते हैं । जो 1973 का बना हुआ है और 1974 से लागू किया गया ।
कहा जाता है जिसमें कुछ धाराएं तो ऐसी हैं कि वर्तमान समय में तो उनका कोई औचित्य ही नहीं है वैसे दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन होते रहे हैं उसके बाद भी दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन की आवश्यकता बनी हुई है जैसे धारा-107, 116 आदि ऐसी धाराएं है जो शान्ति भंग की आशंका में पहले से ही सम्भावित लोगों को बंधक पत्र भरवाती है ।
लेकिन वास्तविकता इससे इतर है सी.आ.पी.सी. की धारा- 107,116 की कार्यवाही में बंधक पत्र भी महज औपचारिकता बनकर रह गया है कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के बाबू दो सौ रूपये लेकर बंधक पत्र भर देते हैं ।
उसके बाद नियमानुसार प्रत्येक पन्द्रह दिन बाद कार्यपालक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में उपस्थिति आवश्यक होती है लेकिन बाबूओं की कृपा से बंधक पत्र भरने के बाद उपस्थिति की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है अन्यथा नियमानुसार छ: माह तक प्रत्येक पन्द्रह दिन के बाद उपस्थिति आवश्यक होती है ।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा- 167(2) के उपबंधों के अनुसार जब अभियुक्त अभिरक्षा में हो और निर्धारित अभिरक्षा अवधि यथास्थिति 90 दिन या 60 दिन में पूरी नहीं हो पाती तो इस अवधि के बाद अभियुक्त सम्बंधित मजिस्ट्रेट को जमानत देने को तैयार हो और जमानत दे देता है तो वह सम्बंधित मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत पर छोड़े जाने का अधिकारी है अर्थात पुलिस की कमी का लाभ अभियुक्त जमानत के रूप में लेने का अधिकारी है ।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154(1) न के अनुसार संज्ञेय अपराध कारित होने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दी जा सकती है और धारा-154(2) के अनुसार प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) की प्रतिलिपि सूचना देने वाले को तत्काल निःशुल्क दी जायेगी और यदि किसी थाने का भारसाधक अधिकारी इत्तिला अभिलिखित करने से इंकार करता है तो पीड़ित व्यक्ति इत्तिला का सार लिखित रूप से डाक द्वारा सम्बंधित पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है यदि तब भी प्रथम सूचना रिपोर्ट अभिलिखित नहीं होती है तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-156(3) के अनुसार मजिस्ट्रेट के सम्मुख वाद लाया जा सकता है ।
जिस पर संबंधित मजिस्ट्रेट संज्ञान लेकर प्रथम सूचना रिपोर्ट अभिलिखित करने के लिए संबंधित थाने के भारसाधक अधिकारी को आदेशित कर सकेगा जिसमें विवेचना जारी हो सकेगी । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-156(3) बहुत ही महत्वपूर्ण धारा है जिसका उपयोग व दुरूपयोग दोनों ही है यदि उपयोग की बात करें तो वे लोग जो पुलिस के द्वारा अपनी प्रथम सूचना रिपोर्ट अभिलिखित नहीं करा पाते उनके लिए तो कई दिनों से भूखे को खाना मिलने के समान है जो खाना खाकर अपनी भूख को शांत करते हैं और यदि दुरूपयोग की बात करें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-156(3) सबसे खतरनाक है जिसका इस्तेमाल रंजिश रखने वाले लोग स्थानीय थानाध्यक्ष महोदय की मिलीभगत से अपने विरोधियों पर मुकदमा पंजीकृत कराने का कार्य करते हैं ।
जिसमें थानाध्यक्ष महोदय भी अपनी कृपा से बिना किसी हिचक के उक्त कार्य को कराते हैं । इसी कारण धारा- 156(3) बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है जिसका उपयोग व दुरूपयोग कर भारतीय व्यवस्था के अंग अपना कर्त्तव्य निभाते हैं ।
धारा- 164 की यदि बात करें तो इसका महत्व उस परिस्थिति में बहुत अधिक हो जाता है जब अपहरित युवती या प्रेमी संग गई युवती द्वारा स्वीकारोक्ति की जाती है आमतौर पर देखा गया है कि अपनी मर्जी से प्रेमी संग गई युवती धारा-164 के तहत कोई कथन अभिलिखित करती है और अपने घर वालों के दवाब में उल्टे अपने प्रेमी को ही फरना देती है जो सम्भव होता है । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-164 के आधार पर जब उस युवती का कथन मजिस्ट्रेट द्वारा बद कमरे में लिया जाता है और उसके कथन के आधार पर ही वह युवक दोषी या निर्दोष साबित होता है ।
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दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-198 के अन्तर्गत कोई न्यायालय भारतीय दंड संहिता की धारा-497 एवं 498 में दंडनीय अपराध का संज्ञान उस स्त्री के पति के परिवाद पर करेगा जो स्त्री जारता की दोषी है क्योंकि इस स्थिति में उस स्त्री के पति के अधिकारों का ही हनन होता है इसलिए न्यायालय उसी के परिवाद पर ही संज्ञान लेता है किसी अन्य के परिवाद पर नहीं । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-216(1) के अनुसार न्यायालय निर्णय सुनाये जाने से पहले आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन कर सकता है ।
माना किसी व्यक्ति द्वारा कोई अपराध कारित किया गया उसके बाद आरोप पत्र दाखिल हुआ, परीक्षण चलाया गया, गवाही हुई, अन्वेषण अधिकारी द्वारा भी गवाही दी गई, डाक्टर ने भी गवाही दी, आरोपियों द्वारा भी न्यायालय ने पूछताछ की गई । इतना समय बीतने के उपरान्त भी जिसमें न्यायालय का भी बहुमूल्य समय नष्ट हुआ ।
पुलिस का भी समय नष्ट हुआ और आरोपियों द्वारा पीड़ित पक्ष से समझौता उस वक्त कर लिया जब न्यायालय द्वारा निर्णय सुनाया जाना ही था और न्यायालय में कुछ इस तरह गवाही करायी गई कि अपराध आरोपियों ने नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया गया और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-216(1) के अनुसार न्यायालय को निर्णय सुनाये जाने से पहले निर्णय बदलना पड़ा ।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-249 के अनुसार जब कार्यवाही किसी परिवाद पर संस्थित की जाती है और मामले की सुनवायी के लिए नियत किसी दिन परिवादी अनुपस्थित है और अपराध का विधिपूर्वक शमन किया जा सकता है या यह संज्ञेय अपराध नहीं है तब मजिस्ट्रेट आरोप के विचरित किये जाने से पूर्व किसी भी समय अभियुक्त को स्वविवेकानुसार उन्मोचित कर सकेगा अर्थात दण्ड प्रक्रिया संहिता की कितनी ही धाराएं आरोपियों को भी लाभ पहुंचाने का कार्य करती हैं और कुछ धाराएँ तो ऐसी हैं ।
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जिनका सीधा-सीधा लाभ अभियुक्तगण उठाते चले आ रहे हैं । सिविल प्रक्रिया संहिता हो या दण्ड प्रक्रिया संहिता या फिर भारतीय दण्ड संहिता सभी की कमजोरियों का लाभ अपराधीगण उठा रहे हैं जिसका प्रमुख कारण है भारतीय व्योवृद्ध कानून, अन्यथा भारतवर्ष में दुनिया के किसी अन्य देश की तुलना में अपराधिक ग्राफ इतना अधिक नहीं होता ।
पुलिस एक्ट भी अंग्रेजों के जमाने का ही है जिसे अंग्रेजों द्वारा सन् 1861 में बनाया गया था । उसके बाद 1888 में और 1949 में संशोधन किया गया । जिस समय भारत देश अंग्रेजों का गुलाम था उस वक्त जो कानून देश में लागू थे वे ही कानून आज भी लागू हैं तो फिर किस बात की आजादी ।
जब कानून अंग्रेजों का है तो ये ही कहा जा सकता है कि हम आज भी गुलामी के कानून से ही शासित हो रहे हैं । बस अन्तर सिर्फ इतना है कि उस वक्त कानून अंग्रेजों द्वारा शासित होता था और आज भारतियों द्वारा शासित होता है । हमने इतना विचार तक नहीं किया कि हम अंग्रेजों के बनाये कानून से ही शासित हो रहे हैं ।
या तो हमारी सामर्थ्य ही नहीं है कि हम अपने लिए अपना कानून बना सके या फिर हम अंग्रेजो के बनाये कानून से चलने के आदी हो गये हैं । भारतीय संविदा अधिनियम को ही लें तो उक्त अधिनियम भी आजादी के पहले अर्थात 1872 का है ।
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सम्पन्ति अंतरण अधिनियम की यदि बात करें तो वह भी आजादी के पहले 1882 का, विभाजन अधिनियम 1893 का है तो भारतीय न्यास अधिनियम भी 1882 का है घातक दुर्घटना अधिनियम 1855 का तो परिसीमन अधिनियम 1963 का है तो हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 का है । भारतीय साध्य अधिनियम 1872 का है ।
उक्त अधिनियम ऐसे हैं जिनमें समय परिवर्तन के साथ ही परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जा रही है लेकिन न तो उक्त अधिनियमों में कोई परिर्वन ही किया गया और न ही परिवर्तन करने का प्रयास किया गया और इसके अलावा यदि राज्य सरकारों के अधिनियमों की चर्चा करें तो उनकी स्थिति भी कुछ ऐसी ही है ।
जमींदारी विनाश अधिनियम 1951 हो या स्थावर सम्पत्ति अधिग्रहण और अर्जन अधिनियम 1952 हो, आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 हो सभी अधिनियम उस वक्त के है जब देश में गरीबी, भूखमरी चरमसीमा पर थी और देश की आबादी भी लगभग बीस से पच्चीस करोड़ थी उस वक्त अनाज भी दस से बीस पैसे प्रति किलो और देशी घी भी एक रूपये प्रति किलो हुआ करता था । लोग पैदल यात्रा करते थे या बैलगाड़ी के द्वारा, मोटर गाड़ी तो बिरले ही दिखायी देती थी ।
उस वक्त के कानून वर्तमान समय में अप्रसांगिक है लेकिन उसके बाद भी सभी कानून अपना कार्य कर रहे हैं । न्याय किसी को मिले या न मिले लेकिन कानून अपना कार्य कर रहे है । अगर कहा जाये कि वर्तमान भारतीय कानून भारतीय व्यवस्था पर बोझ बने हुए हैं जिनको सहन करना भारतीय जनमानुष की आदत का हिस्सा बन गया है ।
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न्याय मिलना तो दूर, न्याय की कल्पना करना मात्र ही न्याय रह गया है । जिसका मुख्य कारण भारतीय कानूनों का अपनी वृद्धावस्था में होना है भारतीय कानूनों में संशोधन की आवश्यकता समय की माग है अन्यथा ऐसे कानूनों के भरोसे न्याय मिलने की आशा करना बेईमानी है ।
यदि सिविल प्रक्रिया संहिता की ही बात करें तो वह भी आजादी के पहले अंग्रेजों के द्वारा निर्मित सन् 1908 का कानून है । भारत में मुख्यतया लागू और व्यवहार में आने वाले कानून भारतीय दण्ड संहिता 1860, दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973, सिविल प्रक्रिया संहिता 1908, भारतीय साध्य अधिनियम 1872 के है ।
जिनमें संशोधन की आवश्यकता वर्तमान समय की मांग है लेकिन अनेकों विधि रिपोर्टों में सुझाये गये संशोधन प्रस्तावों को नजर अंदाज कर भारतीय व्यवस्था को आगे बढा रहे हैं । लेकिन भारतीय व्यवस्था भी वृद्धावस्था में जा चुके भारतीय कानूनों का बोझ उठाने के लिए अब तैयार नजर नही आती ।
सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 को यदि देखा जाए तो सर्वाधिक निष्प्राण दर्शित होती है क्योंकि आपराधिक मुकदमों में तो न्याय मिलने की कुछ समय सीमा है भी फास्ट ट्रैक न्यायालय है जहां 10-15 साल में तो निर्णय आ ही जाता है लेकिन यदि सिविल मुकदमों की बात करें तो भारतीय व्यवस्था में तीन-तीन पीढ़ी मुकदमा लड़ती रहती है तो वाद चलता रहता है लेकिन वाद का निस्तारण नहीं हो पाता तो क्या हम कह सकते हैं कि सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 सही कार्य कर रही है कदापि नही ।
एक वाद जो एक व्यक्ति की जमीन पर दूसरे द्वारा कब्जा करने से सम्बन्धित है जिसमें उस व्यक्ति ने बिना किसी मालिकाना अधिकार के किसी कमजोर व्यक्ति की जमीन पर कब्जा कर लिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-110 के अनुसार कब्जा स्वामित्व का प्रथम द्रष्टया साक्ष्य है ।
जमीन का वास्तविक मालिक आर्थिक व शारीरिक रूप से कमजोर है तो वह अपनी जमीन से कब्जा हटाने में नाकाम रहता है उसके बाद सिविल न्यायालय में वाद चलता है वादी व प्रतिवादी के बीच वाद को चलते हुए 25 वर्ष हो गये । वादी की मृत्यु हो जाती है प्रतिवादी की भी मृत्यु हो जाती है उनके वारिश वादी व प्रतिवादी बनते हैं ।
वाद चलता रहता है निस्तारित होने पर डिक्री वादी के पक्ष में हो जाती है तो प्रतिवादी अपील दायर करता है वाद पुन: चल जाता है इसी दौरान वादी व प्रतिवादी दोनों की मृत्यु हो जाती है । तदोपरान्त उनके वारिश वादी प्रतिवादी बनते हैं । वाद चलता रहता है और निस्तारण नहीं हो पाता ।
कुछ इस प्रकार भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अन्तर्गत वाद चलते रहते हैं लेकिन वादी को कोई उपचार नहीं मिल पाता जिससे सिद्ध होता है कि भारतीय कानून कहीं न कहीं कमजोर पड़ गये हैं । जो इस भारी भरकम भारतीय व्यवस्था का बोझ उठाने में अक्षम दिखायी पड़ते हैं ।
भारतीय कानूनों की वृद्धावस्था सूची में यदि देखा जाए तो और अधिक लम्बी होती जाती है वे औद्योगिक कानून हों या श्रम कानून सभी बहुत पुराने हो चुके हैं । औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 का है जिसमें हल्का सा संशोधन किया गया वो भी हाल ही में अन्यथा समस्त औद्योगिक विवादों का निपटारा सन् 1947 के अनुसार ही किया जा रहा है । परिस्थितियां बदल गई लेकिन कानून नहीं बदला ।
भारत में श्रम कानूनों की अधिकता तो है लेकिन उनका पालन कराना सरकारों के बूते की बात नहीं है भारत में जितना अधिक कानून कर्मकारों के लिए उपलब्ध है शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में हो व्यवसाय संघ अधिनियम 1926 है ।
इन्डस्ट्रीयल एम्पलाइमेन्ट (स्टेन्डींग आर्डर) एक्ट-1946, कर्मकार प्रतिकार अधिनियम-1923, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948, पेमेन्ट ऑफ वेजीज अधिनियम 1936, फैक्ट्री अधिनियम 1948, उद्योग (विकास और नियमावली) अधिनियम 1951 बोनस अधिनियम 1965, अप्रैन्टीस अधिनियम 1961, कलेक्शन ऑफ स्टेटीस एक्ट-1953 मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 पेमेन्ट ऑफ ग्रेचुवटी एक्ट 1972, बाल श्रम अधिनियम 1986 संविदा श्रमिक अधिनियम 1970 सामान वेतन अधिनियम 1976, बन्धुवा मजदूरी अधिनियम 1976, खान अधिनियम 1952 आदि मुख्य अधिनियम श्रमिकों के हितों के लिए ही हैं लेकिन क्या उक्त अधिनियमों का पालन श्रमिक हितों के लिए हो रहा है ।
यह कहना मुश्किल है क्योंकि श्रमिकों के लिए तो केवल कानून बना हुआ है । जिनका लागू होना या न होना कोई खास महत्व नहीं रखता और यह भी महत्व नहीं रखता कि श्रमिक हित सुरक्षित हैं या नहीं । तभी तो श्रम कानूनों का जितना उल्लंघन भारतवर्ष में हो रहा है ।
शायद ही किसी अन्य देश में हो, भारतीय श्रम कानूनों की लम्बी फेहरिस्त का लाभ श्रमिक वर्ग को न मिलकर उद्योगों के स्वामी ही उठा रहे हैं । यही कारण है कि भारतीय श्रमिक उत्पीड़न का शिकार हो रहा है । वह न तो कोई अतिरिक्त लाभ ही ले रहा है और न अपनी रोजमर्रा की आवश्यकता पूर्ति ही कर पा रहा है ।
श्रम कानूनों की अधिकता के बावजूद भी भारतीय श्रमिक आठ घंटे के स्थान पर 16-16 घंटे काम करने को विवश हैं । जिसके बदले में श्रमिक को दोगुना वेतन मिलना चाहिए । जैसा कि श्रम कानूनों में प्रावधान है लेकिन ऐसा नहीं होता ।
भारतवर्ष में केवल कानून है उनका अनुपालन नहीं अन्यथा जितना कानून भारतवर्ष में है उसका आधा भी यदि ईमानदारी से लागू हो जाये तो निश्चित ही भारत के श्रमिकों की स्थिति में सुधार आयेगा लेकिन भारतवर्ष में ईमानदारी की बात करना अब बेईमानी है अब भारतवासी राजा हरिश्चन्द्र को भूल गये हैं वे भूल गये हैं अपने दर्शन को, वे भूल गये हैं कि हमारे पूर्वजों ने सच्चाई और ईमानदारी के लिए कितने कष्ट उठाये थे और आज हम उनके आदर्शों को भूल गये हैं ।
भारतीय जनमानुष ने प्रतियोगिता के इस दौर में अपने पूर्वजों के आदर्शो, सिद्धान्तों का बलिदान कर दिया है । वे केवल आगे बढ़ने के लिए धन कमाने के लिए गरीब मजदूरों के अधिकारों का भी हनन कर रहे हैं । वे मजदूरों को भी उनका पूरा पारिश्रमिक नहीं दे रहे हैं ।
भारत के लघु उद्योगों की यदि स्थिति देखी जाऐ तो हृदय भर आता है जब देखतें है कि एक श्रमिक अपने बीबी-बच्चों को सुबह अकेला छोड़कर सात बजे फैक्ट्री में काम करना शुरू करता है और दोपहर मे मात्र आधा घंटे का लंच करने के बाद सात बजे या दस-ग्यारह बजे तक कार्य और कभी-कभी तो चौबीस घंटे भी कार्य करते देखा जाता है ।
जिसके बदले में उसको मिलता है बामुश्किल चार से पांच हजार रूपये जिसमें वह श्रमिक महीने भर का राशन, बच्चों को स्कूल फीस, कमरे का किराया आदि चुका पाता है और कई बार यदि कोई बीमार पड़ गया, या तो किराया नहीं जायेगा या राशन वाले का उधार हो जायेगा ।
ऐसी स्थिति में भारतीय श्रमिक अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । यदि श्रमिक अधिक समय तक बीमार हो गया तो उसको रोजगार से भी हाथ धोना पड़ सकता है । ऐसे लघु उद्योगों में न तो कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम लागू होता है और न ही समान वेतन अधिनियम ऐसे उद्योगों में काम करने वाले श्रमिक केवल दिहाड़ी मजदूर की भांति मशीन की तरह फैक्ट्री में कार्य करते हैं अपना दिहाड़ी लेकर जीवन यापन करते हैं ।
उनको नहीं मालूम की कोई कर्मचारी राज्य बीमा भी लागू है या समान वेतन अधिनियम, ऐसी दयनीय स्थिति से होते हुए यदि हमने ऊंची विकास दर हासिल भी कर ली तो भी हमने काफी महंगी कीमत पर विकास दर प्राप्त की कही जा सकती है ।
जब एक भारतवासी दूसरे भारतवासी का खून चूस कर आगे बढता है उन्नति करता है तो उसे हम उन्नति नहीं श्रमिक हत्या की संज्ञा देंगे । श्रम कानूनों का पालन करते हुए उन्नति करना ही उन्नति है अन्यथा दूसरे अवैधानिक रास्तों से होते हुए श्रम कानूनों का उल्लंघन करके की गई उन्नति, उन्नति नहीं कही जा सकती ।
जब श्रमिक अधिकरों का हनन किया गया हो, श्रम कानूनों का उल्लंघन किया गया हो साथ ही कर कानूनों का भी उल्लंघन हुआ हो और उसके बाद कोई यह दावा करता है कि उसने उन्नति की है तो निश्चित ही वह गलत है वह श्रमिकों के उत्पीड़न का दोषी है । वह सरकार का भी अपराधी है वह अपराधी है ।
उन दूध मुंहे बच्चों का जिन्हें पैदा होते ही माँ का दूध भी नसीब नहीं होता वह अपराधी है उन बुर्जुग माता-पिता का जिन्हें गरीबी के कारण उनकी ही औलाद बोझ समझने लगती है । वह अपराधी है उन कन्याओं का जिन्हें माता-पिता शादी के खर्च के डर से गर्भ में ही हत्या करनी पड़ती है ।
वह अपराधी है उन बच्चों का जो गरीबी के कारण अच्छे स्कूल में पढाई करने के स्थान पर चाय वाले की दुकान या होटलों में बर्तन साफ करने का कार्य करना पड़ता है । भारतवर्ष मे कानूनों की भरमार है बाल श्रम प्रतिषेध अधिनियम भी है लेकिन शहरों में मुख्यत: चाय वाले की दुकान पर, ढाबे पर, होटलों में, बूट पालिश, अखबार बाटना जैसे कार्यो में बच्चों को लगे हुए देखा जा सकता है ।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी एम॰सी॰ मेहता बनाम तमिलनाडू राज्य के वाद में बाल श्रम को प्रतिबंधित किया गया था । उसके बाद भी कई वादों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाल श्रम पर दिशा निर्देश दिये जा चुके हैं । भारतीय संविधान का अनुच्छेद-24 भी कारखानों आदि में चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों को काम करने को प्रतिबंधित करता है ।
इतना कानून व संवैधानिक प्रावधानों के बाद भी भारतवर्ष में बाल श्रम रूकने का नाम नहीं ले रहा । आखिर क्या कारण हो सकता है । भारतीय कानूनों की कमजोरी कहें या भारतीय व्यवस्था की कमजोरी या भारतीय जनमानुष की कमजोरी, जो वह बच्चों को कार्य कराने के लिए मजबूर है । कुछ हद तक तो भारतीय व्यवस्था की ही कमजोरी कही जा सकती है ।
जो भारतवर्ष में प्रत्येक विषय पर कानून है लेकिन कानून का पालन न तो भारतीय जनता ही करना चाहती है और न ही भारतीय कार्यपालिका, दोनों ही कानून को केवल मूकदर्शक के रूप में देखना चाहते हैं ओर देख रहे है तो क्या हम इस व्यवस्था को परिवर्तित कर सकते हैं ?
सम्भवत: नहीं क्योंकि जब आम नागरिक ही कानून तोड़ने में अपना बड़प्पन समझता है तो क्या हम आशा कर सकते हैं कि हम कानून का पालन करा पायेंगे अर्थात कदापि नहीं । कानून का पालन कराने में भी हमें स्वयं ही पहल करनी होगी । कानून का पालन न होने के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं ।
भ्रष्टाचार जिसकी मूल वजह है यदि हम अपने आप को सुधार लें । हम दृढ निश्चय कर लें कि हम कोई भी गैर कानूनी कार्य नहीं करेंगे और गलती से या अनजाने में कोई अवैधानिक कार्य हो जाता है तो हमें उसका दण्ड भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि एक बार यदि हमने दण्ड भुगत लिया तो निश्चित ही जीवन में पुन: हम कोई अवैधानिक कार्य नहीं करेंगे ।
हम सदैव कानून का पालन करेंगे और यदि कानून तोड़ने पर हमने भ्रष्ट आचरण का सहारा लिया तो यह भी निश्चित है कि हम पुन: कानून तोड़ने का कार्य करेंगे और फिर दण्ड से बचने के लिए भ्रष्टाचार का ही सहारा लेंगे और धीरे-धीरे हम भ्रष्ट आचरण करने के आदी हो जायेंगे हम कानून तोडना अपनी आदत का हिस्सा बना लेंगे और दण्ड से बचने के लिए भष्टाचार को अपनी ढाल के रूप में इस्तेमाल करेगे ।
आज का युग भ्रष्टाचार का युग है चारों तरफ लूट मची हुई है सब अपनी-अपनी तिजोरियां भरने में जुटे हुए हैं देश के कई वरिष्ठ अधिकारियों का उदाहरण आपके सामने हैं लेकिन होता किसी का कुछ नहीं गवाह खरीदे जाते हैं या मार दिये जाते हैं या अधिकतर पर तो कार्यवाही होती ही नहीं ।
इसी से प्रेरित होकर आगे आने वाले अधिकारी भी ऐसा ही करता है ये चलता रहेगा चलता रहा है । कुछ नहीं होने वाला किसी का भ्रष्टचार चरमसीमा पर पहुच चुका है अन्तर केवल इतना है कि सरकार बदलने पर उसका तरीका बदल जाता है भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता लेकिन हम सब यदि जागरूक हो जायें तो थोड़ा कम किया जा सकता है ।
देश का शायद ही कोई ऐसा विभाग होगा जहां भ्रष्टाचार न हो इसके लिए जितना दोषी वह तंत्र है जो भ्रष्टचार कर रहा है उससे कहीं अधिक दोषी हम और आप हैं जो इस भ्रष्टाचार रूपी वृक्ष की जड़ो में खाद पानी दे रहे हैं ।
हम चाहते है कि भ्रष्टाचार खत्म हो सब कुछ विधिवत हो लेकिन हम साथ ही ये भी चाहते है कि कोई चमत्कार हो कोई फरिश्ता या अवतार आये और इस भ्रष्टाचार रूपी वृक्ष को उखाड़ फेंके और हम आराम से ऐसा होते देखें । हममें इतनी हिम्मत नहीं है कि सामने आकर उसका मुकाबला करें ।
हम चाहते हैं कि फिर से सरदार भगतसिंह पैदा हो सुभाष चन्द्र बोस इस पृथ्वी पर अवतरित हों लेकिन हो सब पडोसी के घर पर अपने को आंच न आये और शहीदों में उनका नाम आ जाये तथा हम राजभोग का आनन्द उठा सके । जैसे पहले होता आया है आज हर कोई भगतसिंह, सुभाष चन्द्र बोस की तलाश में लगा रहता है ।
कोई खुद भगतसिंह व सुभाष बनने की क्यों नहीं सोचता सब सोचते हैं कि कोई और देख लेगा मैं क्यों मुसीबत मोल लूं । लेकिन आज तक तह कोई और नहीं आ पाया है सब कुछ ऐसे ही चल रहा है और चलता रहेगा । जब तक देश का प्रत्येक नागरिक अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगा तब तक ऐसा ही होता रहेगा ।
हम तहसील में जाते हैं जाति या आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए तो हम प्रक्रिया से काम करवाने के स्थान पर किसी दलाल को ढूंढते हैं कि जल्द से जल्द बनवा दो चाहे सौ के स्थान पर दो सौ रूपये ले लो बस बार-बार न आना पड़े तो ये भ्रष्टाचार को हम बढ़ावा दे रहे हैं या कोई ओर हम गाड़ी या मोटर साइकिल से कहीं जा रहे हैं लेकिन कागज पूरे नहीं है न ड्राईविंग लाइसेंस है न प्रदूषण प्रमाण पत्र, न बीमा, रास्ते में पुलिस ने रोक लिया जांच में कोई भी कागज नहीं है फिर दरोगा जी के हाथ पैर जोड़ते हैं गिड़गिड़ाते हैं और दो तीन सौ रूपये देकर छूट जाते हैं क्या जरूरत थी ऐसा करने की और पैसा देने की यदि गाड़ी के कागज पूरे रखते तो भ्रष्टाचार कौन बढा रहा है ।
हम या कोई ओर, कुछ हद तक इस भ्रष्टाचार को बढाने में हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं क्या कभी किसी ने किसी अधिकारी या कर्मचारी या जनप्रतिनिधि के किसी गलत कार्य का विरोध किया है नहीं किया ना । हम डरते हैं कि कहीं कुछ अपने ऊपर न आ पड़े ।
ऐसा होता है जब तक हम स्वयं को योग्य नहीं बनाते कि जो भ्रष्टाचार का विरोध कर सके । योग्यता दो तरह से है एक तो हम ऐसा कोई कार्य न करें जिससे हमें किसी कानूनी कार्यवाही का सामना करना पडें । जब हम स्वयं अपने आप को इस योग्य पायेंगे तो हमारे अन्दर आत्म विश्वास अपने आपही आ जायेगा ।
दूसरा भ्रष्टाचार का संगठित होकर विरोध करें क्योंकि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फूंक सकता । कर सके तो निश्चित ही आपके साथ लोग संगठित हो जायेंगे और आप और बेहतर तरीके से भ्रष्टाचार का विरोध कर सकेंगे । आज भी देश में ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो ऐसा करना चाहते हैं ।
लेकिन मार्ग दर्शन के अभाव में वो कर नहीं पाते उन्हें आगे लाना होगा । देश का प्रत्येक नागरिक यदि मन में ठान ले कि भ्रष्टाचार का विरोध करना है तो निश्चित ही वो दिन दूर नहीं जब भ्रष्टाचारी स्वयं सोचने पर मजबूर हो जायेंगे ऐसा होगा जब प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक हो, देखते हैं कोई कैसे फिर उनको गुमराह करता है ।
भ्रष्टाचार के लिए कहीं तक लोगों को अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों के प्रति जानाकरी न होना भी जिम्मेदार है । हमें पता होना चाहिए कि जो कार्य हम कर रहे हैं वह कानून वैद्य है या नहीं । हम दोष देते हैं कि नौकरी नहीं मिली नौकरी के लिए लाखों रूपये रिश्वत देते हैं नौकरी पा लेते है तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि जो नौकरी पैसे देकर प्राप्त की है क्या उस नौकरी को पाने वाला भ्रष्ट आचरण नहीं करेगा ।
दोषी कौन है हम या कोई ओर । हम पहले गलत कार्य करते हैं फिर सजा से बचने के लिए धन का इस्तेमाल करते हैं तो भ्रष्टाचार कौन बढा रहा है हम या कोई ओर । भ्रष्टाचार बढाने के लिए जितना दोषी भ्रष्ट तंत्र है उससे कहीं अधिक दोषी हम और आप हैं जो इसे बढ़ावा दे रहे हैं ।
पहले हमें स्वयं को सुधारना होगा तत्पश्चात हमें इस भ्रष्टाचार रूपी तंत्र को उखाड़ने का संकल्प लेना होगा । तभी भारतीय कानूनों का सही से पालन हो पायेगा अन्यथा कदापि नहीं । भारतीय संविधान की ही यदि बात की जाये तो निश्चित ही कुछ अनुच्छेदों को संशोधित करना वर्तमान समय की मांग है ।
जिन्हें समय बदलने के साथ ही बदलता रहना चाहिए और उनको वर्तमान समय और परिस्थतियों के अनुसार संशोधित करते रहना चाहिए ताकि किसी भी नागरिक को असुविधा का सामना न करना पड़े । संविधान व कानून किसी भी देश, राज्य व संस्था को विधिवत रूप से चलाने के लिए बनाये जाते हैं और यदि किसी देश का संविधान व कानून ही लचीला हो तो क्या उस देश का नागरिक अपने आपको सुरक्षित महसूस कर पायेगा ? कदापि नहीं ।
फिर तो एक ही प्रकार का कार्य चलता रहेगा और वह भी उक्त उक्ति की तरह की- “पैसे लेते पकड़े जाओ तो पैसे देकर छूट जाओ” यदि किसी देश का कानून व संविधान इतना लचीला हो जहां अपराधियों को कानून का डर, भय न हो उस देश की व्यवस्था कैसी हो सकती है इसका तो केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है ।
भ्रष्टाचार सभी देशों में है लेकिन भारत के सम्बन्ध में कुछ ज्यादा ही है जहां भारतीय नागरिक देश की प्रतिष्ठा से जुड़े हुए मामलों में भी कानून तोड़ने से नहीं आते । कुछ भारतीय तो कानूनों का उल्लंघन करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं और कानून की कमियों का भरपूर लाभ उठाते हैं ।
तभी तो कुछ लोग पेशेवर अपराधी या पेशेवर भूमाफिया आदि ऐसे अपराध करते हैं और उन अपराधों को करने के आदी हैं । भारतीय कानूनों की कमियों का लाभ उठाते हैं धन्य हैं ऐसे भारतीय कानून जो केवल पुस्तकालयों की शोभा मात्र है और उनके बने हुए भी वर्षों हो गये न तो समय के साथ कोई संशोधन और न कोई नयापन । सब कुछ पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है और ऐसे ही चलते रहने की अपेक्षा की जा सकती है ।
कर्म न करने को आज कानून कहते हैं
खाली रहना जिसमें शान समझते हैं
दण्ड का जिसमें भय नही उसे कानून कहते हैं
अपराध करके छूट जाएं जिसमें उसे कानून कहते हैं
भ्रष्टाचारी पैदा जो करे उसे आज कानून कहते हैं
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बलात्कारी को इज्जत जो दे उसे आज कानून कहते हैं
अपराधी को मंत्री जो बना दे उसे कानून कहते हैं
बडे से बडा अपराध जो करके घर में बैठा दे उसे कानून कहते हैं
गरीब को रोटी को तरसा दे उसे कानून कहते हैं
कमजोर की सम्पत्ति का वारिस गुंडो को बना दे उसे कानून कहते हैं
दूधमुहे बच्चों से पिता का साया जो हटा दे उसे कानून कहते हैं
हक के लिए लड़ने वालों को सलाखों में जो पहुँचा दे उसे कानून कहते हैं
देशद्रोही को सम्मान जो दिलवा दे उसे कानून कहते हैं
और कानून उसी को कहते हैं जो कानून को भी मरवा दे ।
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भारतीय व्यवस्था की कमियों में एक सबसे बड़ी कमी कानून है । जो संविधान लागू होने के 60 वर्ष बाद भी आज प्रभावशाली नहीं है जिनका जानकार लोग बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं । अब सेवा कर को ही ले लीजिए जिसको लागू हुए ज्यादा समय नहीं हुआ लेकिन सरकार को बहुत अधिक राजस्व की प्राप्ति सेवा कर से ही होती है जो अधिकतर सेवाओं पर लगाया जाता है लेकिन क्या कारण है देश के नीति निर्धारक-निर्धारक सबसे बड़ी सेवाओं चिकित्सा सेवा और विधिक सेवा पर सेवाकर लगाने में नाकाम रहे हैं । जबकि ये सेवाएं अधिक सेवाकर देने का माध्यम बन सकता है ।
एक अधिवक्ता जो 10-12 लाख रूपये मासिक कमाता हो लेकिन उसका कुछ भी अंश कर के रूप में । चाहे आयकर हो या सेवाकर के रूप में जमा नहीं करता तो क्या आप कह सकते हैं कि वह व्यक्ति देश के हित में है या देश हित के विषय में सोच सकता है या देश के विकास में भागीदार है अर्थात कदापि नहीं ।
तो क्या ऐसे उच्च आय वाले अधिवक्ता आयकर व सेवाकर के दायरे में होने चाहिए ? यही स्थिति चिकित्सा क्षेत्र की भी है जहां डाक्टर रोजाना 10-15 हजार रूपये अपनी सेवा से कमा रहे हैं लेकिन उसका कुछ भी अंश आयकर या सेवाकर के रूप में नहीं अदा कर रहे तो क्या वह डाक्टर देश का हितैषी है या वह देश के विकास में सहयोगी है कदापि नहीं । अर्थात ऐसे डाक्टर सेवाकर व आयकर के दायरे में आने चाहिए या नहीं यह निर्णय तो सरकार को करना है ।
आम जनता को संविधान ने अगर मौलिक अधिकार दिये हैं तो साथ ही मौलिक कर्त्तव्य भी दिये हैं जिन्हें देश का नागरिक नहीं जानना चाहता । वे केवल अपने अधिकार जानता है ओर कुछ नहीं । देश हित की बात करना आज भारतीय पीढ़ी से मुर्खता होगी क्योंकि आधुनिकता में सब कुछ भूल चुके हैं । वे भूल चुके हैं कि हम किस देश के नागरिक हैं, हमारी संस्कृति क्या है ? हम आज कहां खड़े हैं ? हमें कहां होना चाहिए था ?
हमारे कुछ कर्त्तव्य भी हैं । तभी तो डाक्टर वकील लाखों रूपये मासिक कमाने के बावजूद उसका कुछ भी अंश कर के रूप में अदा नहीं करते । ऐसे सैकड़ो-हजारों उदाहरण भारत देश में देखने को मिल सकते हैं । जो आयकर आदि जैसे करों को चोरी करने में अपनी बुद्धिमत्ता व श्रेष्ठता समझते हैं कि हमने सरकारी कर की चोरी करके बहुत ही बुद्धिमता का कार्य किया है । जो देश के साथ चोरी है, गद्दारी है । लेकिन इस चोरी को बढ़ाने में सहयोगी हैं देश के नीतिकार, जो आज तक इन बड़ी सेवाओं को आयकर व सेवाकर के दायरे में न ला सके ।