भारत में मानवाधिकार संकट में (निबन्ध) | Essay on “Human Rights is in Crisis in India” in Hindi!

मानव अधिकार किसी भी मानव विशेष के अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है । आज संपूर्ण विश्व के समक्ष यह एक समस्या के रूप में उपस्थित हुआ है और मानव अपने इन्हीं अधिकारों के लिए उचित या अनुचित रूप से एक-दूसरे से जूझ रहा है ।

दुर्भाग्यवश सभ्यता के प्रारंभ से ही विश्व को मानव मात्र के कर्तव्य व अधिकारों की शिक्षा देनेवाला वर्तमान समय में दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र भारत आज स्वयं मानवाधिकार के हनन के आरोप से कलंकित है । मानवाधिकार की अवधारणा एक सुसभ्य समाज की अवधारणा है, जिसमें किसी व्यक्ति या व्यक्ति के समूह को उत्पीड़न और यातनाओं से मुक्त जीवन-यापन का अधिकार प्राप्त है ।

हालांकि यह अवधारणा समाज के परिप्रेक्ष्य की है, किंतु वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार की अवधारणा समाज की जैविक इकाई व्यक्ति के अधिकारों से है । मानवजाति के लिए मानवाधिकारों का व्यापक और असीम महत्त्व है, इसलिए इसे कभी-कभी मूलाधिकार, आधारभूत अधिकार, अंतर्निहित अधिकार, नैसर्गिक अधिकार तथा मानवीय अधिकार के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है ।

वस्तुत: अधिकार व्यक्ति की वे तर्कसंगत माँगे हैं, जो व्यक्ति अपने समग्र विकास के लिए समाज के समक्ष रखता है । ये माँगे सामान्यत: अलग-अलग समाज के, अलग-अलग संस्कृति के और उनके विकास की स्थिति के अनुकूल अलग-अलग होती हैं या हो सकती हैं, किंतु इन विभिन्न प्रकार की श्रेणियों में एक माँग ऐसी भी होती है, जो समस्त मानवजाति के लिए समान होती है ।

समाज और राज्य द्वारा स्वीकृत इन माँगों को ही ‘मानवाधिकार’ का नाम दिया गया है । इस रूप में मानवाधिकार आधारभूत होते हैं । मानवाधिकार की परिभाषा करना वैसे तो बड़ा कठिन है, फिर भी यह कहना ठीक है कि मानवाधिकार का विचार मानव की गरिमा से संबद्ध तथा जो अधिकार मानवीय गरिमा के पोषण के लिए आवश्यक हैं, उन्हें मानवाधिकार कहा जा सकता है ।

इस प्रकार मानवाधिकार प्रारंभिक मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित हैं, जिनमें से कुछ भौतिक रूप में जीवित रहने तथा स्वास्थ्य के लिए परमावश्यक हैं । प्रसिद्ध भारतीय न्यायविद् नानी ए.पालकीवाला ने ‘मोस्ट डैंजरस एनीमल इन दी वर्ल्ड’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में मानवाधिकार को कमोवेश रूप में स्वतंत्रता का पर्याय कहा है, किंतु बर्लिन ने तो अपनी कृति ‘कंसेप्ट्स ऑफ लिबर्टी’ में स्वतंत्रता की दो सौ से अधिक परिभाषाओं की ओर संकेत किया है ।

इसके बावजूद मानवाधिकार को स्वतंत्रता के अर्थ में लिया जा सकता है, क्योंकि सर अर्नेस्टर बार्कर ने भी अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपल ऑफ सोशल एंड पालिटिकल थ्योरी’ में स्वतंत्रता को अधिकारों का ही समुच्चय माना है ।

इस प्रकार मानवाधिकार का आशय उस न्यूनतम स्वतंत्रता से है, जो व्यक्ति को मिलनी चाहिए-क्योंकि वह मनुष्य है । आधुनिक काल में मानव-अधिकारों से संबंधित दो अवधारणाएँ प्रचलित हैं-

उदारवादी भारतीय अवधारणाएँ:

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इस अवधारणा की मान्यता है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा होनी चाहिए ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्ण विकास की दिशा में आगे बढ़ सके, सामाजिक उद्‌देश्यों और लक्ष्यों की पूर्ति में अपना योगदान दे सके तथा सम्मानपूर्वक सुसंस्कृत जीवन-यापन कर सके । इस अवधारणा को माननेवालों में ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से युक्त देश शामिल हैं ।

मार्क्सवादी अवधारणा:

इसके अनुसार विश्व के तथाकथित लोकतांत्रिक देशों के संविधानों द्वारा नागरिकों को दिए गए तथाकथित अधिकार सैद्धांतिक महत्त्व रखते हैं, व्यावहारिक नहीं । मार्क्सवादी अवधारणा केवल संविधान में उल्लिखित नागरिक अधिकारों की व्याख्या करने में विश्वास नहीं रखती वरन् उनका प्रयोग किस प्रकार से किया जाए उसमें विश्वास करती है । स्टालिन के शब्दों में- ‘एक भूखे और बेरोजगार के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है । सच्ची स्वतंत्रता वही है-जहाँ शोषण, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति अथवा कल के लिए चिंता की समस्या नहीं है ।’

संयुक्त राष्ट्र संघ की परिधि में मानवाधिकार:

युद्ध हमेशा मानवता के खिलाफ होता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मानव व्यक्तित्व और मानवाधिकार का जो उल्लंघन हुआ था, उसने संपूर्ण विश्व के शांतिवादियों को दोलित कर दिया और यह सर्वत्र अनुभव किया जाने लगा कि यदि मानव के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया, तो मानवाधिकार महज एक मजाक बनकर रह जाएगा ।

अत: १० दिसंबर, १९४८ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों की घोषणा की थी, जिससे मानवाधिकारों का संरक्षण हो सके । वस्तुत: यह प्रथम सुसंगठित और सशक्त प्रयास था । मानवाधिकार के अंतर्गत प्रथम और द्वितीय अनुच्छेद में कहा गया है कि व्यक्ति स्वतंत्र पैदा होता है तथा गरिमा एवं अधिकारों में समान होता है ।

अत: सभी बिना किसी भेदभाव के जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति तथा अन्यमत, राष्ट्रीय तथा सामाजिक उत्पत्ति, संपत्ति, जन्म अथवा अन्य स्तर आदि के सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं के अधिकारी हैं और इसी कसौटी पर खरे उतरने का आज भारत का वर्तमान स्वरूप तर्क प्रस्तुत करता है ।

कारण जिस अनेकता में एकता है, विशेषता से भारतीय लोकतंत्र विभूषित है, वह मानवाधिकार संरक्षण के नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करता है । अनुच्छेद ३ से २१ में सभी को नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों का पोषण किया गया है, जिसके अंतर्गत जीवन, स्वतंत्रता, सुरक्षा, दासता से मुक्ति, दारुण वेदना, अमानुषिक अत्याचार इत्यादि सम्मिलित हैं । अनुच्छेद २२ से २७ में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के लिए मानव को समान रूप से अधिकारी कहा गया है ।

इस संघ की स्थापना के पूर्व भी इस समस्या के निराकरण के लिए कतिपय महत्त्वपूर्ण घोषणाओं, अधिनियमों आदि में मानवाधिकारों को मान्यता दी जा चुकी है । सन् १२१५ के मैग्नाकार्टा, १६७९ के बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, १६८९ के बिल ऑफ राइट्‌स, १७७६ की अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा, १७८९ में मानवाधिकारों की फ्रांसीसी घोषणा आदि को हम मानवाधिकार की मूल समस्या के निराकरण के लिए उठाए गए कदमों में ‘मील का पत्थर’ कह सकते हैं ।

मारतीय विधि और मानवाधिकार:

मानवाधिकारों के संदर्भ में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत मिली-जुली तसवीर पेश करता है । भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन, भगवती ने एक बार कहा था कि भारत जैसे विकासशील देश में मानवाधिकारों का मुख्य बल सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकारों पर होना चाहिए न कि राजनीतिक और नागरिक अधिकारों पर ।

परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य का सबसे सबल तत्त्व उसकी प्रबल न्यायपालिका है, जो स्वतंत्रता के बाद के ६० वर्षो के इतिहास में एक-दो अपवादों को छोड्‌कर कभी भी कार्यपालिका की गुलाम नहीं रही, बल्कि मानवाधिकारों के संरक्षक के रूप में हमारे देश में कार्यशील है ।

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आज हमारी कार्यपालिका और न्यायपालिका जीवन, स्वतंत्रता, सुरक्षा का अधिकार, दासता, मृत्युभाव से मुक्ति, दारुण वेदना, अमानुषिक अत्याचार, अमानवीय व्यवहार, दंड से मुक्ति, मनमाने ढंग से बंदी बनाया जाना, विवाह करने, परिवार बनाने, संपत्ति रखने, कोई भी धर्म मानने, मत-निर्माण करने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मानवाधिकारों की समस्या का सार्थक निराकरण कर रहा है ।

प्रो. उपेंद्र बख्शी के अनुसार-भारतीयों में अपीलीय न्यायालय न्यूनाधिक रूप में राज-व्यवस्था के प्रभाव से मुक्त रहे हैं । सन् १९७५-७७ के अप्रत्याशित समय को छोड़कर भारतीय अपीलीय न्यायालय पूर्णतया स्वतंत्र रहे हैं और किसी भी स्तर पर वे कार्यपालिका के हाथों में नहीं रहे ।

न्यायपालिका ने ‘न्यायिक पुनरीक्षण’ को एक संपूर्ण अधिकार मानते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि न्यायिक पुनरीक्षण का अधिकार उस स्थिति में भी इससे नहीं छीना जा सकता है जब पूरी संसद् इस विषय में एकमत हो । और भारत का यही प्रबल पक्ष है जो मानवाधिकारों के संरक्षण की तसवीर उभारता है, किंतु इस तसवीर का एक दूसरा पहलू है ।

इसका ज्वलंत उदाहरण ‘स्टिंग ऑपरेशन’ के दौरान रँगे हाथों ‘रिश्वत कांड’ में पकड़े गए प्रमुख राजनीतिक दलों के वे सांसद हैं, जिनका प्रकरण न्यायालय में ले जाने पर न्यायालय द्वारा संसद् से स्पष्टीककरण माँगा है और संसद् ने सर्वसम्मत से न्यायालय द्वारा भेजे गए किसी भी नोटिस का जवाब नहीं देने का तथा इस संबंध में न्यायालय को किसी भी प्रकार की अभिक्रिया न देने का निर्णय करना है ।

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भारत में सशक्त न्यायपालिका, अल्पसंख्यक आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग आदि सरकारी संस्थाएँ मौजूद हैं, जो मानवाधिकारों के आर्थिक और सामाजिक पक्ष की प्रतिष्ठा के लिए प्रयासरत हैं, किंतु इसके दोषपूर्ण कार्यान्वयन से मानवाधिकार के हनन की घटनाएँ आम बन गई हैं ।

भारत में अस्पृश्यता विद्यमान है, बँधुआ मजदूरी विद्यमान है, बाल- श्रमिकों से काम कराया जा रहा है तथा उनके उज्ज्वल भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, पुलिस की बर्बरता जारी है । भारत में पुलिस की छवि आम जनता के मनो-मस्तिष्क में अत्यंत विकृत रूप में है ।

वस्तुत: अपराध को रोकनेवाले संस्थान न्यायालय पदलोलुप और धनलोलुप हो गए हैं । भारत में जो शक्तिशाली है उन्हें ही भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खुले रूप में प्राप्त है । इस प्रकार, कमजोर को अपराधी घोषित कर दिया जाता है । पुलिस-तंत्र, जो अपराध के ढाँचे का प्रमुख अवयव है अपराध-यंत्र के चालू होते ही मानवीय मूल्यों को चीरने लगता है ।

आज भारत में मानवाधिकार के हनन के विभिन्न रूप विद्यमान हैं, जो आए-दिन मीडिया के माध्यम से आम जनता तक पहुँचते रहते हैं । इनके अंतर्गत चोरी, डाका, अपहरण, हत्या, अपमान, वेश्यावृत्ति, आतंकवाद, बलात्कार, उग्रवादियों द्वारा निरीहों की हत्या, जातीय व भाषाई तनाव, अलगाववाद आदि आते हैं ।

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इसी प्रकार हमारे यहाँ पुलिस मुठभेड़ की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि होती जा रही है । कुल मिलाकर शक्ति का दुरुपयोग, अधिकारों का हनन, प्रताड़ना, भय और निरंकुशता का खतरा भारतीय परिवेश में व्याप्त हो गया है ।

एमनेस्टी इंटरनेशनल उगेर आरत में मानवाधिकार एमनेस्टी इंटरनेशनल सन् १९६१ में स्थापित लंदन में स्थापित एक ऐसी संस्था है, जिसका दावा है कि वह दुनिया भर में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सजग प्रहरी का काम करती है ।

१५० देशों में लगभग घ३ लाख कार्यकर्ता समाचार-पत्रों, टीवी, चैनलों, स्वयं सेवी संस्थाओं, जागरूक बुद्धिजीवियों तथा लेखकों के माध्यम से प्रत्येक देश में ऐसी जानकारी एकत्र करते हैं, जिससे संबद्ध देश की सरकार तथा अन्य एजेंसियों द्वारा मानवाधिकार के हनन का मामला बनता है ।

यह संस्था प्रतिवर्ष एक रिपोर्ट प्रकाशित करती है, जिसमें प्रत्येक देश के बारे में उपर्युक्त घटनाओं का ब्योरा रहता है । इस संस्था के पास कोई कानूनी अधिकार तो नहीं है, परंतु यह मानवाधिकार हनन के विरुद्ध विश्व- जनमत तैयार करती है ।

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विभिन्न देशों में सरकार विरोधी उग्रवादी संगठन एमनेस्टी से सीधे संबंध बनाए रखते हैं । इस संस्था ने पिछले कई वर्षो से भारत में पंजाब तथा कश्मीर मामले में लगातार ऐसी रिपोर्टे प्रकाशित की हैं जिसमें भारत की सुरक्षा एजेंसियों पर इन राज्यों में अत्याचार के आरोप लगाए गए हैं ।

भारत ने हर बार ऐसी रिपोर्ट का खंडन किया है और हर बार अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए इसके विरुद्ध तीव्र विरोध और रोष प्रकट किया है । अतीत में कई वर्षो तक इस संगठन का भारत के प्रति रवैया विद्वेषपूर्ण रहा है ।

आज संगठन द्वारा उन लोगों के मामले नहीं उठाए जाते जो हिंसक गतिविधियों में लिप्त हैं तथा निर्दोष आम जनता की हत्या कर मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं । इस नकारात्मक रवैए के कारण भारत ने इस संगठन का देश में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था, किंतु इस संगठन और ‘एशिया वाच’ जैसे मानवाधिकार संगठनों पर लगाए गए प्रतिबंधों को विश्व समुदाय संदेह की दृष्टि से देखने लगा था ।

फलत: भारत ने इस संगठन को अपने देश में प्रवेश की इजाजत दे दी । हाल के वर्षों में प्रकाशित रिपोर्ट में एमनेस्टी ने आतंकवादियों और उग्रवादियों को जहाँ मानवाधिकारों के हनन का दोषी माना है, वहीं पुलिस-मुठभेड़ में हुई मौतों पर गहरी चिंता व्यक्त की है ।

उतंकवाद बनाम भारत में मानवाधिकारों की हत्या:

आतंकवाद और उग्रवाद भारत की एक प्रमुख समस्या है । विषाक्त मानसिकतावाले असामाजिक तत्त्व हिंसक वारदातों को अंजाम देने के उद्‌देश्य से आम जनता से लेकर सरकार के बड़े पदाधिकारियों और समाज के अन्य वर्गो के व्यक्तिाएं के अपहरण से लेकर हत्या तक का दुष्कृत्य कर देते हैं ।

आज कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवादियों का बोलबाला है । इन आतंकवादियों को पाकिस्तान का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है । भाड़े के प्रशिक्षित उग्रवादियों को कश्मीर भेजा जा रहा है, जो वहाँ मानवता की हत्या कर मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन करने में लगे हैं ।

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इस दौरान हमारे सुरक्षा बल सामान्य स्थिति की बहाली और मानवाधिकारों की सुरक्षा हेतु संघर्षरत हैं, किंतु पाकिस्तानी हुक्मरान तथा अमेरिकी सुरक्षाबलों को ही मानवाधिकारों के उल्लंघन का दोषी मानते हैं । उग्रवादियों द्वारा की गई निर्दोष लोगों की हत्या का उन्हें स्मरण तक नहीं आता ।

पिछले कुछ वर्षों में-मुंबई बम विस्फोट, मद्रास बम विस्फोट प्रकरण, हजरत बल कांड आदि सब पाकिस्तानी साजिश का परदाफाश करते हैं, जो भारत को तोड़ने के लिए ऐसी घिनौनी हरकत कर रहा है और ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ कहावत को चरितार्थ करते हुए अमेरिका के समर्थन पर विभिन्न सम्मेलनों में भारत के सुरक्षा बलों पर ही मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगता है ।

इस संदर्भ में भारत ने हमेशा धैर्य से काम लिया है और मानवाधिकारों के संरक्षण की इसी भावना से उत्पेरित होकर पाकिस्तान की ओर हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, किंतु ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ की कहावत ही पाकिस्तान चरितार्थ करता आ रहा है ।

मानवाधिकार की आड़ में भारत पर विदेशी दबाव:

मानवाधिकार भारत का स्वीकृत सिद्धांत है, लेकिन मानवाधिकार की व्याख्या तथा इन्हें प्रवर्तित करने के तरीकों को लेकर भारत का विभिन्न देशों से मतभेद है । भारत का विचार है कि मानवाधिकारों को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता है, किंतु अमेरिका ने भारत को मानवाधिकार के प्रति उदासीन राष्ट्र की पंक्ति में खड़ा कर जहाँ मानवाधिकार के मुद्‌दे को अपनी विदेश नीति के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, वहीं अपने छह अन्य सहयोगी देश (जी-७) के साथ राजनीतिक, आर्थिक, कूटनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार के साधनों पर अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए मानवाधिकार के विषय को जोर-शोर से उठा रहा है ।

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका विश्व बैंक तथा आई.एम.एफ. के माध्यम से भारत को आर्थिक सहायता से वंचित रखने के लिए मोहरे के रूप में पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है । इसके अतिरिक्त वह भारत के अंतरिक्ष प्रक्षेपास्त्र-कार्यक्रम को भी बाधित करने के लिए प्रयत्नरत है ।

मानवधिकार पर भारतयि पहल:

मानवाधिकारों पर भारतीय पहल काफी उद्‌देश्यपूर्ण है । कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा भारत में, विशेषकर कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में मानवाधिकारों के कथित हनन के प्रचार के विरुद्ध काररवाई हेतु भारत सरकार ने संसद् में मानवाधिकार विधेयक पारित कराया, जिसके कारण मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई ।

इस पाँच सदस्यीय आयोग का अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को बनाया गया । वैसे भी भारत ने मीडिया सजगता और सक्रियता के चलते मानवाधिकारों के प्रति जन-जागरूकता का नया शंखनाद फूँक दिया है ।

इसके अतिरिक्त स्वैच्छिक मानवाधिकार संगठनों के अस्तित्व में तेजी से वृद्धि का होना भी एक शुभ संकेत है । सन् २००५ में भारत ने पाकिस्तान तथा एमनेस्टी इंटरनेशनल के आरोपों को लेकर अपना खुला पक्ष प्रस्तुत कर कड़ा विरोध जताया तथा दुनिया को अपने पक्ष से सहमत करने में सफल रहा था ।

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वस्तुत: मानवाधिकार की समस्या के निराकरण के लिए भारत स्वतंत्रता के बाद से ही दृढ़ प्रतिज्ञ है और काफी हद तक इसमें उसे सफलता भी हासिल हुई है । भारत का दृष्टिकोण है- हमें स्पष्ट संदेश देना है कि हम मानवाधिकारों का हनन बरदाश्त नहीं करते ।

अतीत साक्षी है कि भारत ने हमेशा मानवीय मूल्यों-करुणा, दया, सहिष्णुता, अहिंसा, सत्य, धर्म, परोपकारिता, नारी-सम्मान, नैतिकता आदि की कसौटी पर खरी उतरकर जीवन उद्‌देश्य, समाज उद्‌देश्य और राष्ट्र उद्‌देश्य को प्राप्त करने का प्रयास किया है और इसमें सफलता भी प्राप्त की है ।

वर्तमान में मानवाधिकारों की समस्या के निराकरण के लिए भारत प्रयासरत है, किंतु पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान के कुटिल इरादों के कारण उसे अपने कार्यक्रम में भारी गतिरोधों का सामना करना पड़ रहा है । अतएव भारत की रणनीति आतंकवादियों द्वारा उत्पन्न मानवाधिकारों के हनन की समस्या के जड़ का ही समूल नाश करने की होनी चाहिए । इसके लिए भारत को अपनी रक्षात्मक रणनीति त्यागनी होगी ।

आज पाक और उसके आकाओं द्वारा भारत के राज्य कश्मीर में मानवाधिकार के हनन किए जाने के अंतरराष्ट्रीय मंचों से आवाजें उठाकर इसे राजनीतिक रंग देनेवालों को समझना चाहिए कि उनके इरादे कभी कामयाब नहीं हो सकते, कारण मानवाधिकार सभी जाति और राष्ट्रों के लिए समान रूप में आदर्श और मानक है ।

फिर भारत को बदनाम करनेवालों को स्वयं भी अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए । बाइल्ड ने ठीक ही कहा था- ‘कर्तव्यों की दुनिया में ही अधिकारों का महत्त्व, है । अत: भारत में मानवाधिकारों केहनन का तथ्य उजागर करनेवाली संस्थाओं, राष्ट्रों आदि को आतंकवादियों, उग्रवादियों की हिंसक काली करतूतें भी नजर आनी चाहिए ।’

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