न्यायिक सक्रियता का अधिकार क्षेत्र पर निबंध | Essay on Jurisdiction of Judicial Activism in Hindi!
संविधान में शासन के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच काम तथा अधिकारों के विभाजन और परस्पर अनुशासन की व्यवस्था भी सूत्रबद्ध की गयी है, इसलिए दूसरे अनेक पड़ोसी देशों के विपरीत हमारे यहां उनके बीच किसी विस्फोटक टकराव की गुंजाइश काफी कम हैं ।
आखिरकार, खुद सर्वोच्च न्यायालय से भी न्यायिक हस्तक्षेप की अति के खिलाफ आवाज उठी है । देश की सबसे ऊंची अदालत ने न्यायिक सयम बरते जाने की जरूरत पर जोर दिया है । अदालतों को याद दिलाया है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के अधिकारों व शक्तियों का विभाजन रखा गया है, उसका उल्लंघन कर कार्यपालिका तथा विधायिका के क्षेत्र का अतिक्रमण करने से बचा जाना चाहिए ।
हाल ही में दिए एक दूरगामी बहस उठाने वाले फैसले में न्यायमूर्ति ए.के. माथुर तथा मार्कण्डेय काटजू ने अनेक उदाहरण देकर इस बढ़ती प्रवृत्ति की ओर इशारा किया है और शासन के तीनों स्तम्भों यानी कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका की संविधान में निर्देशित बराबरी की रक्षा करने की जरूरत पर जोर दिया है । खुद सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों के उठाए जाने के सिलसिले में यह याद दिलाना भी जरूरी है ।
संसद के पिछले एक सत्र में दोनों सदनों में हुई चर्चा में, विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायपालिका की बढ़ती दखलंदाजी की बार-बार शिकायत की गयी थी । यही नहीं, इस शिकायत के हिस्से के तौर पर न्यायपालिका को पहले खुद अपना घर देखने का उलाहना भी दिया गया और करोड़ों विचाराधीन पडे मामलों की याद दिलायी गयी थी। लेकिन, इसके लिए क्या खुद न्याय प्रणाली को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? कम-से-कम लंबित प्रकरणों की विशाल संख्या के लिए तो हर्गिज नहीं ।
वास्तव में बड़ी आसानी से कोई भी इस सच्चाई को देख-समझ सकता है कि इस मामले में सबसे बड़ी समस्या, न्यायिक व्यवस्था के बुनियादी ढांचे की ही घोर अपर्याप्तता है । जिस देश में सड़क, बिजली, पानी से लेकर स्कूलों तथा चिकित्सालयों तक, हर तरह की सुविधाओं की भारी कमी हो, वहां न्यायिक ढांचे की भी ऐसी तंगी होना ही स्वाभाविक है ।
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वास्तव में इस कमी के लिए अगर किसी को जिम्मेदार माना जा सकता है, तो इस गरीब देश में संसाधनों के वितरण की प्राथमिकताओं को ही जिम्मेदार माना जा सकता है । इस मामले में जिम्मेदारी आखिरकार, कार्यपालिका और विधायिका पर ही आती है, न कि न्यायपालिका पर ।
विभिन्न स्तरों पर हजारों न्यायिक पदों का वर्षो से खाली पड़े होना इसी बात का सबूत है । इतना ही नहीं, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकते हैं कि लंबित मामलों में ऊंचे उठते पहाड़ से निपटने के लिए न्यायपालिका खुद ही, काफी चिंता प्रदर्शित नहीं करती रही है ।
हां! इसे परोक्ष रूप से इसका दोषी शायद माना जा सकता है कि वह भी, बुनियादी न्यायिक ढांचे के विस्तार की जरूरत को बहस के केंद्र में न आने देने में, कार्यपालिका तथा विधायिका के खिलाफ खड़ी नजर नहीं आयी है । इसीलिए अचरज नहीं कि एक ओर न्यायपालिका और दूसरी ओर कार्यपालिका तथा विधायिका के बीच आज जारी रस्साकशी में, लंबित मामलों के बोझ की शायद ही कोई चिंता नजर आती है ।
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तब यह रस्साकशी क्यों? इस क्यों का जवाब उच्चतर-न्यायपालिका के पिछले कुछ अर्से के अनेक ऐसे फैसलों में मिलेगा, जिन्हें व्यापक रूप से शासन के पर कतरने के प्रयास के रूप में देखा जाता है । संसद के दोनों सदनों में पिछले दिनों हुई चर्चा, इसी पर विधायिका के असंतोष को स्वर दे रही थी । बेशक, इस तरह असंतोष जताए जाने में भी व्यावहारिक मायनों में चिंता की कोई बात शायद ही होगी ।
इसकी सीधी सी वजह यह है कि यह महसूस करने के मामले में राजनीतिक ताकतें भले ही एकजुट हों, इसके नतीजे में शासन के स्तर पर कोई ऐसा संकल्प रूप लेता नजर नहीं आता है, जो न्यायपालिका के साथ किसी तरह के टकराव की ओर ले जा सकता हो ।
उल्टे केंद्रीय विधिमंत्री ने इसकी शेखी मारने के बाद भी कि संसद अगर इच्छा करे तो दस मिनट में उसकी सर्वोच्चता फिर से स्थापित की जा सकती है, उच्चतर न्यायिक पदों पर नियुक्ति की मौजूदा अपारदर्शी प्रक्रिया में तब तक किसी बदलाव की संभावना से साफ इंकार कर दिया, जब तक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का कोलीजियम ही ऐसे बदलाव की अनुमति नहीं दे देता है ।
याद रहे कि भारतीय न्याय व्यवस्था, दुनिया भर में ऐसी इकलौती व्यवस्था है, जिसमें खुद न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियों करते हैं । अचरज नहीं कि खुद न्याय व्यवस्था से जुड़े हलकों पर आधारित न्यायिक जवाबदेही का आदोलन काफी अर्से से, उच्चतर न्यायिक नियुक्तियों व नियमन की जिम्मेदारी, एक न्यायिक आयोग का गठन कर उसे सौंपे जाने की मांग कर रहा है । यह दूसरी बात है कि कार्यपालिका-विधायिका की, इस दिशा में कोई कदम उठाने की हिम्मत ही नहीं पड़ी है ।
उधर, न्यायपालिका के धीरे-धीरे अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार करने से आगे बढ्कर मामला अब, उसके सर्वोच्चता के दावे तक पहुंच गया नजर आता है । संविधान के बुनियादी ढांचे के, संविधान में संशोधन के प्रावधान से भी ऊपर होने के निर्णय के जरिए और इस बुनियादी ढांचे में क्या आता है, इसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय पर ही छोड़े जाने के जरिए, न्यायिक समीक्षा के प्रावधान को निरपेक्ष बनाने का रास्ता खोल दिया है ।
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जाहिर है कि इसकी गुंजाइश भी सबसे बढ्कर कार्यपालिका की और राजनीतिक व्यवस्था की विफलताओं से ही बनी है । इन विफलताओं ने ही न्यायपालिका के एक तरह से आपात स्थिति में हस्तक्षेप करने की जरूरत पैदा की है । इसीलिए, न्यायपालिका के इस तरह अपने दायरे का विस्तार करने को एक हद तक नागरिकों का समर्थन भी हासिल है ।
हमारा देश एक विस्तृत रूप से लिखित संविधान द्वारा शासित है । इस संविधान में शासन के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका-के बीच काम तथा अधिकारों के विभाजन और परस्पर अनुशासन की व्यवस्था भी सूत्रबद्ध की गयी है इसलिए, दूसरे अनेक पड़ोसी देशों के विपरीत हमारे यहां उनके बीच किसी विस्फोटक टकराव की गुंजाइश काफी कम है ।
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फिर भी, परस्पर खींच-तान तथा धीरे-धीरे अधिकार क्षेत्र के विस्तार की गुंजाइश हमेशा रहती है, जो जाहिर है कि तेजी से बदलावों के किसी भी दौर में और भी बढ़ जाती है । आज यही हो रहा है । ठीक इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय पीठ का, न्यायपालिका को उसकी सीमाओं की याद दिलाना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है ।
कहने की जरूरत नहीं है कि संक्रमण के ऐसे किसी दौर में जनता के हितों की रक्षा के लिए ज्यादा भरोसा शासन के उन बाजुओं पर ही किया जा सकता है जो अपने अस्तित्व के लिए जन-प्रतिनिधित्व पर निर्भर है । इसीलिए, शायद यह कहने का वक्त आ गया है कि अगर वीटो अधिकार के अर्थ में शासन के किसी बाजू की किसी भी तरह की सर्वोच्चता की वैधता हो सकती है, तो सार्वभौम जनता के प्रतिनिधि के रूप में विधायिका की ही हो सकती है ।
कानून का शासन, जनता की इच्छा से परिभाषित न्याय का शासन ही हो सकता है, न्यायाधीशों का शासन नहीं । यह हमारी संवैधानिक व्यवस्था की ताकत को ही दिखाता है कि अब खुद सर्वोच्च न्यायालय से भी, न्यायिक-अति के खिलाफ आवाज उठी है ।